जन्म कुंडली: जानें जन्म कुंडली क्या है ज्योतिष में जन्म कुंडली का वैज्ञानिक आधार 

यह हम सभी जानते है की ज्योतिष के आधार पर शुभाशुभ फल ग्रहनक्षत्रों की स्थितिविशेष से बतलाया जाता है। इसके लिये हमें सूत्रों से गणित द्वारा ग्रह तथा तारों की स्थिति ज्ञात करनी पड़ती है, अथवा पंचांगों, या नाविक पंचागों, से उसे ज्ञात किया जाता है। ग्रह तथा नक्षत्रों की स्थिति प्रति क्षण परिवर्तनशील है, अतएव प्रति क्षण में होनेवाली घटनाओं पर ग्रह तथा नक्षत्रों का प्रभाव भी विभिन्न प्रकार का पड़ता है। वास्तविक ग्रहस्थिति ज्ञात करने के लिए गणित ज्योतिष ही हमारा सहायक है। यह फलित ज्योतिष के लिये वैज्ञानिक आधार बन जाता है।

जन्म कुंडली क्या है ?

कुंडली किसी व्यक्ति के जन्म की सटीक तिथि, स्थान और समय के आधार पर ज्योतिष के द्वारा तैयार की गई एक चार्ट होता है। यह आपके जन्म के समय सूर्य और चंद्रमा के साथ सभी ग्रहों और राशियों की स्थिति का पता लगाता है। इन सबके साथ-साथ यह अन्य ज्योतिषीय पहलुओं और नवजात व्यक्ति के बारे में प्रासंगिक जानकारी को भी दर्शाता है। इन सभी विवरणों के साथ ज्योतिषी आपकी लग्न स्थिति के साथ-साथ जातक के बढ़ते हुए चिन्ह की गणना करते हैं। साथ ही यह इस बारे में एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है कि एक व्यक्ति कैसा बनेगा, आप अपने जीवन-भविष्य में क्या करेंगे और वर्तमान में आपके जीवन का परिदृश्य कैसा होगा।

जैसे की कुंडली 

कुंडली वह चक्र है, जिसके द्वारा किसी इष्ट काल में राशिचक्र की स्थिति का ज्ञान होता है। राशिचक्र क्रांतिचक्र से संबद्ध है, जिसकी स्थिति अक्षांशों की भिन्नता के कारण विभिन्न देशों में एक सी नहीं है। अतएव राशिचक्र की स्थिति जानने के लिये स्थानीय समय तथा अपने स्थान में होनेवाले राशियों के उदय की स्थिति (स्वोदय) का ज्ञान आवश्यक है।

हमारी घड़ियाँ किसी एक निश्चित याम्योत्तर के मध्यम सूर्य के समय को बतलाती है। इससे सारणियों की, जो पंचागों में दी रहती हैं, सहायता से हमें स्थानीय स्पष्टकाल ज्ञात करना होता है। स्थानीय स्पष्टकाल को इष्टकाल कहते हैं। इष्टकाल में जो राशि पूर्व क्षितिज में होती है उसे लग्न कहते हैं। तात्कालिक स्पष्ट सूर्य के ज्ञान से एवं स्थानीय राशियों के उदयकाल के ज्ञान से लग्न जाना जाता है। इस प्रकार राशिचक्र की स्थिति ज्ञात हो जाती है। भारतीय प्रणाली में लग्न भी निरयण लिया जाता है। पाश्चात्य प्रणाली में लग्न सायन लिया जाता है।

इसके अतिरिक्त वे लोग राशिचक्र शिरोबिंदु (दशम लग्न) को भी ज्ञात करते हैं। भारतीय प्रणाली में लग्न जिस राशि में होता है उसे ऊपर की ओर लिखकर शेष राशियों को वामावर्त से लिख देते हैं। लग्न को प्रथम भाव तथा उसके बाद की राशि को दूसरे भाव इत्यादि के रूप में कल्पित करते हैं1 भावों की संख्या उनकी कुंडली में स्थिति से ज्ञात होती है। राशियों का अंकों द्वारा तथा ग्रहों को उनके आद्यक्षरों से व्यक्त कर देते हैं। इस प्रकर का राशिचक्र कुंडली कहलाता है।

भारतीय पद्धति में जो सात ग्रह माने जाते हैं, वे हैं सूर्य, चंद्र, मंगल आदि। इसके अतिरिक्त दो तमो ग्रह भी हैं, जिन्हें राहु तथा केतु कहते हैं। राहु को सदा क्रांतिवृत्त तथा चंद्रकक्षा के आरोहपात पर तथा केतु का अवरोहपात पर स्थित मानते हैं। ये जिस भाव, या जिस भाव के स्वामी, के साथ स्थित हों उनके अनुसार इनका फल बदल जाता है। स्वभावत: तमोग्रह होने के कारण इनका फल अशुभ होता है।

पाश्चात्य प्रणाली में 

(1) मेष,

(2) वृष,

(3) मिथुन,

(4) कर्क,

(5) सिंह,

(6) कन्या,

(7) तुला,

(8) वृश्चिक,

(9) धनु,

(10) मकर,

(11) कुंभ तथा

(12) मीन

राशियों के लिये क्रमश: निम्नलिखित चिह्न हैं 

1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12

(1) बुध,

(2) शुक्र,

(3) पृथ्वी,

(4) मंगल,

(5) गुरु,

(6) शनि,

(7) वारुणी,

(8) वरुण, तथा

(9) यम

ग्रहों के लिये क्रमश: निम्नलिखित चिह्न : 

1 2 3 4 5 6 7 8 9

तथा सूर्य के लिये और चंद्रमा के लिये प्रयुक्त होते हैं।

भावों की स्थिति अंकों से व्यक्त की जाती है। स्पष्ट लग्न को पूर्वबिंदु (वृत्त को आधा करनेवाली रेखा के बाएँ छोर पर) लिखकर, वहाँ से वृत्त चतुर्थांश के तुल्य तीन भाग करके भावों को लिखते हैं। ग्रह जिन राशियों में हो उन राशियों में लिख देते हैं। इस प्रकार कुंडली बन जाती है, जिसे अंग्रेजी में हॉरोस्कोप (horoscope) कहते हैं। यूरोप में, भारतीय सात ग्रहों के अतिरिक्त, वारुणी, वरुण तथा यम के प्रभाव का भी अध्ययन करते है।

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