जानें कनकधारा स्तोत्र हिन्दी अनुवाद सहित

कनकधारा स्तोत्र की रचना आदिगुरु शंकराचार्य जी ने की थी। कनकधारा का अर्थ होता है स्वर्ण की धारा, कहते हैं कि इस स्तोत्र के द्वारा माता लक्ष्मी को प्रसन्न करके उन्होंने सोने की वर्षा कराई थी। यह सम्भव भी है; क्योंकि 32 वर्ष की आयु में (सन् 788 से सन् 820 तक) ब्रह्मसूत्र और गीता जैसे अनेक उपनिषदों पर भाष्य लिखना, अनेक स्तोत्र की रचना करना, विवेक चूड़ामणि जैसे ग्रन्थ की रचना, कई शक्तिपीठ की स्थापना,

कोई साधारण आत्मा नहीं कर सकती। आदि शंकराचार्य ने कनकधारा स्तोत्र के सन्दर्भ में कोई विधि-विधान का उल्लेख नहीं किया है। इसका एक बार पाठ करना भी पर्याप्त है। समय और सुविधा हो तो नियत समय, नियत संख्या में अपने सामर्थ्य अनुसार जप किया जा सकता है।

सिद्ध मंत्र होने के कारण कनकधारा स्तोत्र का पाठ शीघ्र फल देने वाला और दरिद्रता का नाश करने वाला है। इसके नित्य पाठ से धन सम्बंधित सभी प्रकार के अवरोध दूर होते हैं और महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है। विशेषकर दीपावली की रात्रि वृषभ एवं सिंह लग्न में इसका पाठ विशेष फलदायक माना गया है जो भी इस समय पूरे भाव के साथ इस स्तोत्र का पाठ करता है माता लक्ष्मी अवश्य ही अपनी कृपा उसके ऊपर बरसाती है।

सर्वप्रथम कनकधारा को यन्त्र दोनों हाथ जोड़कर ध्यान करे।

ध्यान

ॐ वन्दे वन्दारु मन्दार मिन्दीरानन्द कल्दलं।

अमंदानन्द सन्दोह बन्धुरं सिंधुराननं ।।

स्तोत्र आरम्भ

ॐ अङ्गं हरै (हरेः) पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङ्गाऽगनेव मुकुलाभरणं तमालं । अंगीकृताऽखिलविभूतिरपॉँगलीलामाँगल्यदाऽस्तु मम् मङ्गलदेवतायाः ।। १ ।।

अर्थ जैसे भ्रमरी अर्धविकसित पुष्पों से अलङ्कृत तमालवृक्ष का आश्रय ग्रहण करती है, वैसे ही भगवान् श्रीहरि के रोमाँच से शोभायमान माँ लक्ष्मीजी कटाक्षलीला, श्रीअङ्गों पर अनवरत पड़ती रहती है, जिसमे समस्त ऐश्वर्य, धन, संपत्ति का निवास है, वो समस्त मंगलो की अधिष्ठात्री माँ लक्ष्मीजी की कटाक्षलीला मेरे लिये मङ्गलकारी हो ।

मुग्धा मुहुर्विदधी वदने मुरारेः प्रेमत्रपा प्रणिहितानि गताऽगतानि ।

मलार्दशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा में श्रियं दिशतु सागर सम्भवायाः ।।२ ।।

अर्थ जिस प्रकार भ्रमरी कमल पर आती-जाती रहती है, (मंडराती रहती है), वैसे ही भगवान् मुरारी के मुखकमल की और प्रेम सहित जाकर और लज्जा से वापिस आकर समुद्रतनया लक्ष्मी की मनोहर मुख दृष्टिमाला मुझे खूब धन-संपत्ति प्रदान करे।

विश्वामरेन्द्र पदविभ्रमदानदक्षमानन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोपि |

ईषन्निषीदतु मयि क्षण मीक्षणार्धंमिन्दीवरोदर सहोदरमिन्दीरायाः ।। ३ ।।

अर्थ जो देवताओ के स्वामी इंद्र को भी सबकुछ देने में समर्थ है, मुर नामके दैत्य के शत्रु भगवान् विष्णु को भी आप अत्यंत प्रिय हो, नीलकमल जिसका सहोदर है अर्थात भाई है, ऐसी लक्ष्मी अर्ध खुले हुए नेत्रों की दृश्टि किंचित क्षण के लिए मुझ पर डाले (पड़े)।

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदामुकुन्दमानन्द कंदमनिमेषमनंगतन्त्रं ।

आकेकर स्थित कनीतिकपद्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्ग शयाङ्गनायाः ।। ४ ।।

अर्थ जिसकी पुतली एवं भौहे काम के वशीभूत हो अर्धविकसित एकटक आँखों से देखनेवाले आनंदद सत्चिदानन्द मुकुंद भगवान् को अपने निकट पाकर किन्छित तिरछी हो जाती हो, ऐसे शेषपर शयन करनेवाले भगवान् नारायण की अर्द्धांगिनी श्रीमहालक्ष्मीजी के नेत्र हमें धन-संपत्ति प्रदान करे।

बाह्यन्तरे मुरजितः (मधुजितः) श्रुतकौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति ।

कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याणमावहतु में कमलालयायाः ॥ ५ ॥

अर्थ भगवान् मधुसूदन के कौस्तुभमणि से विभूषित वक्षःस्थल में इंद्रनीलमयी हारावली की तरह जो सुशोभित है, उन भगवान् के चित्त में काम संचारिणी, कमल निवासिनी लक्ष्मीजी कृपाकटाक्ष मेरा भी सदासर्वदा मंगल करे।

कालाम्बुदालि ललितोरसि कैटभारेर्धाराधरे स्फुरति या तडिदंगनेव ।

मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्तिर्भद्राणि में दिशतु भार्गवनंदनायाः ।। ६ ।।

अर्थ जिस तरह से बिजली चमकती है, उसी प्रकार मधु-कैटभ के शत्रु भगवान विष्णु के काली मेघपंक्ति की तरह सुमनोहर वक्षःस्थल पर आप एक विद्युत के समान देदीप्यमान होती हो, जो समस्त लोको की माता है, भार्गवापुत्र भगवती महालक्ष्मीजी पूजनीय है वो मुझे कल्याण प्रदान करे।

प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत प्रभावान्मांगल्यभाजि मधुमाथिनी मन्मथेन ।

मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः ।। ७ ।।

अर्थ समुद्रतनया ( समुद्र की पुत्री) लक्ष्मी की वह मन्दालस, मन्थर, अर्धोन्मीलित दृष्टि के प्रभावमात्र से कामदेव ने भगवान् मधुसूदन के हृदय में स्थान प्राप्त किया था, वही दृष्टि मेरे ऊपर भी पड़े।

दद्याद दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारामस्मिन्नकिञ्चन विहङ्गशिशो विषण्णे ।

दुष्कर्मधर्ममपनीय चिराय दूरं नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः ॥ ८ ॥

अर्थ भगवान् श्रीहरि की प्रेमिका का नेत्र रूपी मेघ, दयारूपी वायु से प्रेरित होकर दुष्कर्म रूपी धाम को दीर्घकाल के लिए दूर कर, मुझ दुखी सदृश चातक पर धन रूपी जलधारा की वर्षा करे।

इष्टाविषिश्टमतयोऽपि यया दयार्द्रदृष्टया त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते ।

दृष्टिः प्रहष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ।। ९ ।।

अर्थ मतिहीन मनुष्य भी जिसके स्मरण मात्र से ही स्वर्ग को प्राप्त कर लेता है, उन्ही कमलासना कमला लक्ष्मीजी के विकसित कमल गर्भ के सदृश कांतिमयी दृष्टि मुझे मनोभिलषित पुष्टि, संतान आदि की वृद्धि प्रदान करे।

गीर्देवतेति गरुड़ध्वजसुन्दरीति शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति । सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ।। १० ।।

अर्थ जो माँ भगवती श्री सृष्टिक्रीड़ा में अवसर अनुसार वाग्देवता के रूप में बिराजमान होती है, पालनक्रीड़ा के समय लक्ष्मीके रूप में विष्णुकी पत्नी के बिराजमान होती है, प्रलयक्रीड़ा के समय शाकम्भरी भगवान् शंकर की पत्नी के रूप में विद्यमान होती है, उन त्रिलोक के एकमात्र गुरु पालनहार विष्णु की नित्य यौन प्रेमिका भगवती लक्ष्मीको मेरा सम्पूर्ण नमस्कार है।

श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीय गुणार्णवायै ।

शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै ।। ११ ।।

अर्थ हे माँ लक्ष्मी, शुभकर्मफलप्रदायिनी रतिस्वरुप मै आपको प्रणाम करता हु। रमणीय गुणों के समुद्र स्वरूपा रति के रूप में आपको प्रणाम है। शतपत्र वाले अर्थात सौ पत्रोंवाले कमलकुञ्ज में निवास करनेवाली शक्तिरूपा माँ रमा को नमस्कार है। पुरुषोत्तम की प्रेयसी को मेरा नमस्कार है।

नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूत्यै ।

नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै ।। १२।।

 

अर्थ कमल समान मुखवाली लक्ष्मी को नमस्कार है। क्षीरसमुद्र में उत्पन्न होने वाली समुद्रतनया रमा को नमस्कार है चंद्र और अमृत की बहन को नमस्कार है। भगवान् नारायण की प्रेयसी को नमस्कार है।

नमोऽस्तु हेमाम्बुज पीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डल नयिकायै । नमोऽस्तु देवादि दयापरायै नमोऽस्तु शारङ्गयुध वल्लभायै ।। १३ ।।

अर्थ सोने के कमलासन पर बैठनेवाली, भूमण्डल नायिका, देवताओ पर दयाकरनेवाली, शाङ्घायुध विष्णु की वल्लभा शक्ति को नमस्कार है।

नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै नमोऽस्तु विष्णोरुरसि * संस्थितायै । नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै ।। १४ ।।

अर्थ भगवान् विष्णु के वक्षःस्थल में निवास करनेवाली देवी, कमल के आसनवाली, दामोदर प्रिय लक्ष्मी, आपको मेरा नमस्कार है।

नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ॥ १५ ॥

अर्थ भगवान् विष्णु की कान्ता, कमल के जैसे नेत्रोंवाली, त्रैलोक्य को उत्पन्न करनेवाली, देवताओ के द्वारा पूजित, नन्दात्मज की वल्लभा ऐसी श्रीलक्ष्मीजी को मेरा नमस्कार है।

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनंदनानि साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि । त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानी मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये ।। १६ ।।

अर्थ हे कमलाक्षी (कमल के जैसे आँखोंवाली), आपके चरणों में की हुई स्तुति प्रार्थना ऐश्वर्यदायिनी और समस्त इन्द्रियों को आनंदकारिणी है, सभी सुखो को देनेवाली (साम्राज्यादायिनी), सभी पापो को नष्ट करनेवाली, हे पाप हिन् आप मुझे अपने चरणों की वंदना करने का अवसर सदा प्रदान करे।

यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः सेवकस्य सकलार्थसम्पदः ।

सन्तनोति वचनाङ्गमानसैस्त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ॥ १७ ॥

अर्थ जिनके कृपा कटाक्ष के लिए की गई उपासना सेवक के लिए समस्त मनोरथ और धन-संपत्ति का विस्तार करती है उस मुरारी की हृदयेश्वरी लक्ष्मीको, में मन, वचन और शरीर से भजन करता हु ।

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे । भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यं ॥ १८ ॥

अर्थ हे भगवती नारायण की पत्नी आप कमलकुञ्ज में रहनेवाली है, आप के चरण कमल में नीलकमल शोभायमान है आप श्वेत वस्त्र तथा गंध, माला आदि से सुशोभित है, आपकी छवि अतिसुन्दर है, रमणीय है, अद्वितीय है, हे त्रिभुवन को वैभव प्रदान करनेवाली आप मेरे ऊपर भी प्रसन्न होइये ।

दिग्धस्तिभिः

कनककुम्भमुखावसृष्टस्वर्वाहिनीविमलचारुजलप्लु तांगीं । प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेषलोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीं ।। १९ ॥

अर्थ महानुभावो द्वारा (दिग्गजजनो के द्वारा पूजित) कनककुम्भ से मुख से पतित, आकाशगंगा के स्वच्छ से मनोहर जल से जिस भगवान के श्रीअङ्ग का अभिषेक होता है, उस समस्त लोको के अधीश्वर भगवान् विष्णु की पत्नी, समुद्रतनया (क्षीरसागर पुत्री), जगन्माता भगवती लक्ष्मी को में प्रातःकाल नमस्कार करता हुं ।

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वां करुणापूरतरङ्गीतैरपारङ्गैः । अवलोकयमांकिञ्चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ।। २०।।

अर्थ हे कमलनयन भगवान् विष्णु की प्रिया लक्ष्मीजी मेँ दीनहीन मनुष्यो का अग्रगण्य हु, इसलिए आपकी कृपा का स्वभावसिद्ध पात्र हू। आप छलकती हुई करुणा के बाढ़ की तरल – तरंगो के सदृश कटाक्षों के द्वारा मेरी दिशाओ में भी थोड़ा अवलोकन कीजिये।

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमां ।

गुणाधिका गुरुतरभाग्यभाजिनो (भागिनो) भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः ।। २१ ।।

अर्थ जो मनुष्य या साधक इन स्तोत्रों के द्वारा नित्य वेदत्रयी स्वरूपा, भगवती रमा (लक्ष्मीजी का एक नाम) के स्तोत्र पाठ करते है वो मनुष्य इस पृथ्वी पर सौभाग्यशाली होते है, और विद्वान लोग भी उनके भाव को जाने के लिए उच्छुक रहते है।

ॐ सुवर्णधारास्तोत्रं यच्छंकराचार्य निर्मितं | त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं स कुबेरसमो भवेत ।।२२।।

अर्थ यह उत्तम स्तोत्र जो आद्यगुरु शंकराचार्य विरचित स्तोत्र का (कनकधारा) का पाठ तीनो कालो में (प्रातःकाल मध्याह्नकाल-सायंकाल) करता है वो मनुष्य या साधक कुबेर के समान धनवान हो जाता है।

।। इति श्रीमद्द शंकराचार्य विरचित कनकधारा स्तोत्र सम्पूर्णं ।।