Site icon RadheRadheje

Tulsi service of Radha Rani | जानें राधा रानी की तुलसी सेवा

राधारानी की तुलसी सेवा एक बार राधा जी सखी से बोलीं, सखी तुम श्री कृष्ण की प्रसन्नता के लिए किसी देवता की ऐसी पूजा बताओ जो परम सौभाग्यवर्द्धक हो ?

तब समस्त सखियों में श्रेष्ठ चन्द्रनना ने अपने हदय में एक क्षण तक कुछ विचार किया। फिर बोली चंद्रनना ने कहा, “राधे परम सौभाग्यदायक और श्रीकृष्ण की भी प्राप्ति के लिए वरदायक व्रत है, “तुलसी की सेवा” तुम्हे तुलसी सेवन का ही नियम लेना चाहिये। क्योंकि तुलसी का यदि स्पर्श अथवा ध्यान, नाम, संकीर्तन, आरोपण, सेचन, किया जाये तो महान पुण्यप्रद होता है। हेराधे परम सौभाग्यदायक और श्रीकृष्ण की भी प्राप्ति के लिए वरदायक व्रत है, “तुलसी की सेवा” तुम्हे तुलसी सेवन का ही नियम लेना चाहिये। क्योंकि तुलसी का यदि स्पर्श अथवा ध्यान, नाम, संकीर्तन, आरोपण, सेचन, किया जाये तो महान पुण्यप्रद होता है। राधे जो प्रतिदिन तुलसी की नौ प्रकार से भक्ति करते है। वे कोटि सहस्त्र युगों तक अपने उस सुकृत्य का उत्तम फल भोगते है।

मनुष्यों की लगायी हुई तुलसी जब तक शाखा, प्रशाखा, बीज, पुष्प, और सुन्दर दलों, के साथ पृथ्वी पर बढ़ती रहती है तब तक उनके वंश मै जो-जो जन्म लेता है, वे सभी हो हजार कल्पों तक श्रीहरि के धाम में निवास करते है। जो तुलसी मंजरी सिर पर रखकर प्राण त्याग करता है। वह सैकड़ो पापों से युक्त क्यों न हो यमराज उनकी ओर देख भी नहीं सकते।” इस प्रकार चन्द्रनना की कहीं बात सुनकर रासेश्वरी श्री राधा ने साक्षात् श्री हरि को संतुष्ट करने वाले तुलसी सेवन का व्रत आरंभ किया।

केतकी वन में सौ हाथ गोलाकार भूमि पर बहुत ऊँचा और अत्यंत मनोहर श्री तुलसी का मंदिर बनवाया, जिसकी दीवार सोने से जड़ी थीं। और किनारे-किनारे पद्मरागमणि लगी थीं, वह सुन्दर-सुन्दर पन्ने हीरे और मोतियों के परकोटे से अत्यंत सुशोभित था, और उसके चारोंं ओर परिक्रमा के लिए गली बनायीं गई थी जिसकी भूमि चिंतामणि से मण्डित थी। ऐसे तुलसी मंदिर के मध्य भाग में हरे पल्लवो से सुशोभित तुलसी की स्थापना करके श्री राधा ने अभिजित मुहूर्त में उनकी सेवा प्रारम्भ की।

श्री राधा जी ने आश्र्विन शुक्ला पूर्णिमा से लेकर चैत्र पूर्णिमा तक तुलसी सेवन व्रत का अनुष्ठान किया। व्रत आरंभ करके उन्होंने प्रतिमास पृथक-पृथक रस से तुलसी को सींचा। “कार्तिक में दूध से” “मार्गशीर्ष में ईख के रस से”, “पौष में द्राक्षा रस से” “माघ में बारहमासी आम के रस से” “फाल्गुन मास में अनेक वस्तुओ से मिश्रित मिश्री के रस से” और “चैत्र मास में पंचामृत से” उनका सेचन किया, और वैशाख कृष्ण प्रतिपदा के दिन उद्यापन का उत्सव किया।

उन्होंने दो लाख ब्राह्मणों को छप्पन भोगों से तृप्त करके वस्त्र और आभूषणों के साथ दक्षिणा दी। मोटे-मोटे दिव्य मोतियों का एक लाख भार और सुवर्ण का एक कोटि भार श्री गर्गाचार्य को दिया। उस समय आकाश से देवता तुलसी मंदिर पर फूलों की वर्षा करने लगे।

उसी समय सुवर्ण सिंहासन पर विराजमान हरिप्रिया तुलसी देवी प्रकट हुईं। उनके चार भुजाएँ थीं कमल दल के समान विशाल नेत्र थे सोलह वर्ष की सी अवस्था और श्याम कांति थी। मस्तक पर हेममय किरीट प्रकाशित था और कानो में कंचनमय कुंडल झलमला रहे थे गरुड़ से उतरकर तुलसी देवी ने रंग वल्ली जैसी श्री राधाजी को अपनी भुजाओं से अंक में भर लिया और उनके मुखचन्द्र का चुम्बन किया।

तुलसी बोली, “कलावती राधे मै तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ, यहाँ इंद्रिय, मन, बुद्धि, और चित् द्वारा जो-जो मनोरथ तुमने किया है वह सब तुम्हारे सम्मुख सफल हो।”

इस प्रकार हरिप्रिया तुलसी को प्रणाम करके वृषभानु नंदिनी राधा ने उनसे कहा, “देवी ! गोविंद के युगल चरणों में मेरी अहैतु की भक्ति बनी रहे।” तब तथास्तु कहकर हरिप्रिया अंतर्धान हो गईं। इस प्रकार पृथ्वी पर जो मनुष्य श्री राधिका के इस विचित्र उपाख्यान को सुनता है वह भगवान को पाकर कृतकृत्य हो जाता है

Must Read  Radha Rani: जानें श्री राधारानी के चरणारविन्दों में उन्नीस चरण मंगल चिन्ह और उनका अर्थ

Exit mobile version