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महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग: जब धरती फाड़कर प्रकट हुए महाकाल, जानें महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा

Mahakaleshwar Jyotirlinga शिव के 12 ज्योतिर्लिंग जिनको श्रद्धा भाव से पूजा जाता है। इसमें से एक ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर है जो मध्यप्रदेश के उज्जैन में स्थित है। आइए जानते हैं महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्रकट होने और भगवान शिव के महिमा की कथा। 

आकाशे तारकं लिंगं पाताले हाटकेश्वरम् ।

भूलोके च महाकालो लिंड्गत्रय नमोस्तु ते ॥

अर्थात आकाश में तारक लिंग, पाताल में हाटकेश्वर लिंग तथा पृथ्वी पर महाकालेश्वर ही मान्य शिवलिंग है।

भारत के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर मात्र को तांत्रिक परम्परा में दक्षिण मूर्ति पूजा का महत्व प्राप्त है क्योंकि महाकालेश्वर एकमात्र दक्षिणमुखी मन्दिर है। महाभारत, स्कन्द पुराण, वराहपुराण, नृसिंहपुराण, शिवपुराण, भागवत्, शिवलीलामृत आदि ग्रन्थों में तथा कथासरित्सागर, राजतरंगिणी, कादम्बरी, मेघदूत, रघुवंश आदि काव्यों में इस देवालय का अत्यन्त सुन्दर वर्णन दिया गया है। अलबरूनीफरिश्ता ने भी अपने ग्रथों में इस मंदिर का उल्लेख किया है।

परमार नरेशों के अभिलेखो का प्रारम्भ ही शिव स्तुति से होता है। परमार शासकों का व्यक्तिगत धर्म शैव धर्म होने के कारण जनता में शैव धर्म का प्रचार प्रसार अधिक हुआ। परमार नरेश वाक्पति राज द्वितीय की उज्जयिनी ताम्र पट्टिका से ज्ञात होता है कि उन्होंने भवानीपति की आराधना की व उज्जयिनी में शिवकुण्ड का निर्माण करवाया। परमार नरेश उदयादित्य ने महाकाल मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाकर मन्दिर में नाग बंध अभिलेख उत्कीर्ण करवाया। परमार नरेश नरवर्मन के महाकाल अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने उज्जयिनी में शिव मन्दिर का निर्माण करवाया था।

मालववंशीय विक्रमादित्य के विषय में आख्यानों से प्रतीत होता है इस राजा ने महाकालेश्वर का स्वर्ण शिखर-सुशोभित बड़ा मन्दिर बनवाया। उसके लिए अनेक अलंकार तथा चँवर, वितानादि राजचिन्ह समर्पित किए। इसके बाद ई. सं. ग्वारहवीं शताब्दी में इस मन्दिर का जीर्णोद्धार परमार वंश के भोजराज ने करवाया था। ई. सं.1265 में दिल्ली के सुलतान शमसुद्दीन इल्तुतमिश ने इस मन्दिर को भारी नुकसान कर दिया।

इस घटना के 500 वर्षां पश्चात् जब उज्जैन पर राणोजीराव शिन्दे का अधिकार हुआ उस समय उनके दीवान रामचन्द्रबाबा ने उसी स्थान पर महाकालेश्वर का मन्दिर फिर से बनवाया जो आज भी स्थित है। मन्दिर के अन्दर श्री महाकालेश्वर के पश्चिम, उत्तर और पूर्व की ओर क्रमशः गणेश, गिरिजा और षडानन की मूर्तियाँ स्थापित हैं। दक्षिण की ओर गर्भगृह के बाहर नन्दीकेश्वर विराजमान हैं। लिंग विशाल है और सुन्दर नागवेष्टित रजत जलाधारी में विराजमान हैं।

महाकालेश्वर के गर्भगृह के ऊपर के मंजिल पर ओंकारेश्वर विराजमान हैं। श्री महाकालेश्वर के मन्दिर के दक्षिण दिशा में वृद्धकालेश्वर महाकाल और सप्तऋषि का मन्दिर है। महाकालेश्वर के ऊपर जो ओंकारेश्वर मन्दिर है उसके समीप आसपास षटांगण मे स्वप्नेश्वर महादेव, बद्रीनारायण जी, नृसिंह जी, साक्षी गोपाल तथा अनादि कालेश्वर के भी मन्दिर हैं।

श्री महाकालेश्वर मंदिर के नीचे सभा मण्डप से लगा हुआ एक कुण्ड है जो कोटितीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। सभा मण्डप मे एक राम मंदिर है। जिसके पीछे अवंतिका देवी की प्रतिमा है। श्री महाकालेश्वर मंदिर में प्रातः 4 बजे होने वाली भस्मारती विशेष दर्शनीय है। भस्मारती में सम्पूर्ण जीवन के जन्म से लेकर मोक्ष तक के दर्शन की कल्पना की जा सकती है। यह भस्म निरन्तर प्रज्वलित धूनी से तैयार होती है। मंदिर खुलने का समय प्रातः 4 बजे से रात्रि 11 बजे तक है। त्रिलोकी तीन अवतारों में मृत्युलोक में श्री महाकालेश्वर का अद्वितीय अवतार हैं।।

नागपंचमी पर महाकाल मन्दिर के ऊपर विराजित नागचन्द्रेश्वर के दर्शन के लिए हज़ारों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। भगवान महाकालेश्वर की आरती दिन में पाँच बार होती है। श्रावणमास के चारों सोमवारों के दिन नगर में महाकालेश्वर की भव्य रजत प्रतिमा की सवारी निकाली जाती है। सवारी मन्दिर से निकलकर पहले क्षिप्रा तट पर जाती है। वहाँ पूजन के पश्चात नगर के प्रमुख मार्गों से होते हुए यथा स्थान पहुँच जाती है। पाँचवीं शाही एवं अंतिम सवारी मार्गों में निकाली जाती है। श्रावण मास में काँवड़ यात्रियों की सुविधा के कारण विशेष व्यवस्था होती है।

भूतभावन भगवान महाकाल की वर्षभर मे सवारियाँ निकाली जाती हैं सभी सवारियों में प्रशासन की ओर से पुलिस व्यवस्था, प्राचीन राज्य के प्रतीक चोपदार, पुरोहित एवं श्रद्धालुजन सम्मिलित रहते हैं- ये सवारियाँ निश्चित् समय शाम चार बजे निकलती हैं। ये सवारियाँ हैं

सावन-भादों की 6 सवारियाँ कभी 7 जिसमें एक शाही सवारी (अंतिम सवारी जो भाद्रपद, कृष्ण के अन्तिम सोमवार को निकलती है।) कार्तिक माह की सवारी (कार्तिक शुक्ल से मार्ग कृष्ण के प्रत्येक सोमवार को)दशहरा के दिन दशहरा मैदान तक शमी पूजन के लिएबैकुण्ठ चौदस (कार्तिक शुक्लचतुर्दशी) को रात्रि 11 बजे गोपाल मन्दिर तक (यह एक मात्र सवारी रात्रि को निकलती है) उमा साँझी सवारी

महाकालेश्वर के विविध पूजन ( सशुल्क) निम्नानुसार करवाया जा सकता है-

सामान्य पूजाअभिषेक महिम्न स्रोतरुद्राभिषेक वैदिक पूजारुद्राभिषेक ग्यारह दर्शना वैदिक पूजालघु रूद्रमहारूद्र रूद्राभिषेक 11 एक दर्शना वैदिक पूजा

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन करने से स्वप्न में भी किसी प्रकार का दुःख अथवा संकट नहीं आता है। जो कोई भी मनुष्य सच्चे मन से महाकालेश्वर लिंग की उपासना करता है, उसकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वह परलोक में मोक्षपद को प्राप्त करता है-

महाकालेश्वरो नाम शिवः ख्यातश्च भूतले।

तं दुष्ट्वा न भवेत् स्वप्ने किंचिददुःखमपि द्विजाः।।

यं यं काममपेदयैव तल्लिगं भजते तु यः ।

तं तं काममवाप्नेति लभेन्मोक्षं परत्र च।। 

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा 

अवंती नाम से एक रमणीय नगरी था, जो भगवान शिव को बहुत प्रिय था। इसी नगर में एक ज्ञानी ब्राह्मण रहते थे, जो बहुत ही बुद्धिमान और कर्मकांडी ब्राह्मण थे। साथ ही ब्राह्मण शिव के बड़े भक्त थे। वह हर रोज पार्थिव शिवलिंग बनाकर उसकी आराधना किया करते थे। ब्राह्मण का नाम वेद प्रिय था, जो हमेशा वेद के ज्ञान अर्जित करने में लगे रहते थे। ब्राह्मण को उसके कर्मों का पूरा फल प्राप्त हुआ था।

रत्नमाल पर्वत पर दूषण नामक का राक्षस रहता था। इस राक्षस को ब्रह्मा जी से एक वरदान मिला था। इसी वरदान के मद में वह धार्मिक व्यक्तियों पर आक्रमण करने लगा था। उसने उज्जैन के ब्राह्मणों पर आक्रमण करने का विचार बना लिया। इसी वजह से उसने अवंती नगर के ब्राह्मणों को अपनी हरकतों से परेशान करना शुरू कर दिया।

उसने ब्राह्मणों को कर्मकांड करने से मना करने लगा। धर्म-कर्म का कार्य रोकने के लिए कहा, लेकिन ब्राह्मणों ने उसकी इस बात को नहीं ध्यान दिया। हालांकि राक्षसों द्वारा उन्हें आए दिन परेशान किया जाने लगा। इससे उबकर ब्राह्मणों ने शिव शंकर से अपने रक्षा के लिए प्रार्थना करना शुरू कर दिया।

ब्राह्मणों के विनय पर भगवान शिव ने राक्षस के अत्याचार को रोकने से पहले उन्हें चेतावनी दी। एक दिन राक्षसों ने हमला कर दिया। भगवान शिव धरती फाड़कर महाकाल के रूप में प्रकट हुए। नाराज शिव ने अपनी एक हुंकार से ही दूषण राक्षस को भस्म कर दिया। भक्तों की वहीं रूकने की मांग से अभीभूत होकर भगवान वहां विराजमान हो गए। इसी वजह से इस जगह का नाम महाकालेश्वर पड़ा गया, जिसे आप महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से जानते हैं।

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