जानें भस्म का अर्थ एवं महत्त्व भस्म बनाने की विधि जानें भस्म कैसे लगायें ? 

भस्म’ शब्द में ‘’ अर्थात ‘भत्र्सनम्’ अर्थात ‘नाश हो’। ‘स्म’ अर्थात स्मरण । भस्म के कारण पापों का निर्दालन होकर ईश्वर का स्मरण होता है । शरीर नाशवान है । इसे निरंतर स्मरण रखने का जो प्रतीक है, वह भस्म है; ऐसा भस्म शब्द का भावार्थ है । विभूति, रक्षा एवं राख ये भस्म के समानार्थी शब्द है।

विभूति, भस्म या पवित्र राख के इस्तेमाल के कई पहलू हैं। पहली बात, वह ऊर्जा को किसी को देने या किसी तक पहुंचाने का एक बढ़िया माध्यम है। इसमें ‘ऊर्जा-शरीर’ को निर्देशित और नियंत्रित करने की क्षमता है। इसके अलावा, शरीर पर उसे लगाने का एक सांकेतिक महत्व भी है। वह लगातार हमें जीवन के नश्वरता की याद दिलाता रहता है, मानो आप हर समय अपने शरीर पर नश्वरता ओढ़े हुए हों।

भस्म बनाने की विधि 

आम तौर पर योगी श्‍मशान भूमि से उठाई गई राख का इस्तेमाल करते हैं। अगर इस भस्म का इस्तेमाल नहीं हो सकता, तो अगला विकल्प गाय का गोबर होता है। इसमें कुछ दूसरे पदार्थ भी इस्तेमाल किए जाते हैं लेकिन मूल सामग्री गाय का गोबर होती है। अगर यह भस्म भी इस्तेमाल नहीं की जा सकती, तो चावल की भूसी से भस्म तैयार की जाती है। यह इस बात का संकेत है कि शरीर मूल पदार्थ नहीं है, यह बस भूसी या बाहरी परत है।

‘देसी गाय का गोबर धरती पर गिरने से पहले ही जमा कर लें । इस गोबर से बने उपले को जलाने पर जो राख बनती है, उसे ‘भस्म’ कहते हैं । जिस स्थान पर भस्म सिद्ध करना हो, उस स्थान को गोबर से लीपें । गोमूत्र अथवा विभूति का तीर्थ छिडककर स्थान शुद्ध करें । वहां रंगोली बनाएं । तदुपरांत हवनपात्र अथवा किसी चौडे पात्र में उपलें रखें । उन पर देसी गाय का घी डालें । कुलदेवता, इष्टदेवता एवं गुरु से प्रार्थना कर कर्पूर से उपले प्रज्वलित करें । कुलदेवता अथवा इष्टदेवता का नामजप करें । भस्म सिद्ध होने के उपरांत एक पात्र में भरें । तदुपरांत यदि संभव हो, तो उस पात्र को दर्भ अथवा दाहिने हाथ से स्पर्श कर दस बार गायत्री मंत्र कहें ।

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ऐसा करने से भस्म अभिमंत्रित होती है । भस्म अभिमंत्रित करना, अर्थात भस्म में देवता का चैतन्य लाना । गायत्री मंत्र का पुरश्चरण कर भस्म अभिमंत्रित करने से उस भस्म के उपयोग का लाभ अधिक मिलता है । भस्म अभिमंत्रित करनेवाले व्हृाक्ति ने यदि गायत्री मंत्र का पुरश्चरण न किया हो, तो वह भावपूर्ण रूप से ‘ॐ नमः शिवाय ।’ का नामजप करे अथवा सिद्ध किए गए किसी भी शिवमंत्र का उच्चारण करे ।

जलते कंडे में जड़ीबूटी और कपूर-गुगल की मात्रा इतनी डाली जाती है कि यह भस्म ना सिर्फ सेहत की दृष्टि से उपयुक्त होती है बल्कि स्वाद में भी लाजवाब हो जाती है। श्रौत, स्मार्त और लौकिक ऐसे तीन प्रकार की भस्म कही जाती है। श्रुति की विधि से यज्ञ किया हो वह भस्म श्रौत है, स्मृति की विधि से यज्ञ किया हो वह स्मार्त भस्म है तथा कण्डे को जलाकर भस्म तैयार की हो वह लौकिक भस्म है।

आप उसे अपने शरीर पर जहां भी लगाते हैं, वह अंग अधिक संवेदनशील हो जाता है और परम प्रकृति की ओर अग्रसर होता है। इसलिए, सुबह घर से निकलने से पहले, आप कुछ खास जगहों पर विभूति लगाते हैं ताकि आप अपने आस-पास मौजूद ईश्वरीय तत्व को ग्रहण कर सकें, शैतानी तत्व को नहीं। उस समय आपका जो भी पहलू ग्रहणशील होगा, उसके आधार पर आप अलग-अलग रूपों में और अपने विभिन्न आयामों से जीवन को ग्रहण कर सकते हैं। आपने ध्यान दिया होगा कभी आप किसी चीज को देखकर एक खास तरीके से उसका अनुभव करते हैं, फिर किसी और समय आप उसी चीज का अनुभव बिल्कुल अलग रूप में करते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि आप जीवन को किस रूप में ग्रहण करते हैं। आप चाहते हैं कि आपके उच्च पहलू ग्रहणशील हों, न कि निम्न पहलू।

भस्म कैसे लगायें ? 

पारंपरिक रूप से भस्म को अंगूठे और अनामिका के बीच लेकर ढेर सारी विभूति उठाने की जरूरत नहीं है, बस ज़रा सा लगाना है – भौंहों के बीच, जिसे आज्ञा चक्र कहा जाता है, गले के गड्ढे में, जिसे विशुद्धि चक्र कहा जाता है और छाती के मध्य में, जिसे अनाहत चक्र के नाम से जाना जाता है, में लगाया जाता है। भारत में आम तौर पर माना जाता है कि आपको इन बिंदुओं पर विभूति जरूर लगानी चाहिए। इन खास बिंदुओं का जिक्र इसलिए किया गया है क्योंकि विभूति उन्हें अधिक संवेदनशील बनाती है।

भस्म आम तौर पर अनाहत चक्र पर इसलिए लगाई जाती है ताकि आप जीवन को प्रेम के रूप में ग्रहण कर सकें। 

उसे विशुद्धि चक्र पर इसलिए लगाया जाता है ताकि आप जीवन को शक्ति के रूप में ग्रहण करें, शक्ति का मतलब सिर्फ शारीरिक या मानसिक शक्ति नहीं है, इंसान बहुत से रूपों में शक्तिशाली हो सकता है। इसका मकसद जीवन ऊर्जा को बहुत मजबूत और शक्तिशाली बनाना है ताकि सिर्फ आपकी मौजूदगी ही आपके आस-पास के जीवन पर असर डालने के लिए काफी हो, आपको बोलने या कुछ करने की जरूरत नहीं है, बस बैठने से ही आप अपने आस-पास की स्थिति को प्रभावित कर सकते हैं। एक इंसान के भीतर इस तरह की शक्ति विकसित की जा सकती है।

विभूति को आज्ञा चक्र पर इसलिए लगाया जाता है, ताकि आप जीवन को ज्ञान के रूप में ग्रहण कर सकें।

यह बहुत गहरा विज्ञान है लेकिन आज उसके पीछे के विज्ञान को समझे बिना हम बस उसे एक लकीर की तरह माथे पर लगा लेते हैं। यह मूर्खता है कि एक तरह की लकीरों वाला व्यक्ति दूसरी तरह की लकीरों वाले व्यक्ति से खुद को अलग समझता है। भस्म शिव या किसी और भगवान की दी हुई चीज नहीं है। यह विश्वास का प्रश्न नहीं है। भारतीय संस्कृति में, उसे गहराई से किसी व्यक्ति के विकास के उपकरण के रूप में देखा गया है। सही तरीके से तैयार विभूति की एक अलग गूंज होती है। इसके पीछे के विज्ञान को पुनर्जीवित करने और उसका लाभ उठाने की जरूरत है।

विभूति (भस्म) की महिमा के विषय मे एक पौराणिक कथा 

महर्षि दुर्वासा अत्रिमुनि के पुत्ररूप में भगवान् शंकर के अंश से उत्पन्न हुए थे। अत: ये रुद्रावतार नाम से भी प्रसिद्ध है।अपने परमाराध्य भगवान् शंकर में इनकी विशेष भक्ति थी। ये भस्म एवं रुद्राक्ष धारण किया करते थे। इनका स्वभाव अत्यन्त उग्र था यद्यपि उग्र स्वभाव के कारण इनके शाप से सभी भयभीत रहते थे तथापि इनका क्रोध भी प्राणियो-के परम कल्याण के लिये ही होता रहा है । एक समय महर्षि दुर्वासा समस्त भूमण्डल का भ्रमण करते हुए पितृलोक में जा पहुंचे। वे सर्वांग में भस्म रमाये एवं रुद्राक्ष धारण किये हुए थे।

हृदय मे पराम्बा भगवती पार्वती का ध्यान और मुख से -‘ जय पार्वती हर’ का उच्चारण करते हुए कमण्डलु तथा त्रिशूल लिये दुर्वासा मुनि ने वहां अपने पितरों का दर्शन किया। इसी समय उनके कानो में करुण क्रन्दन सुनायी पडा। वे पापियों के हाहाकारमय भीषण रुदन को सुनकर कुम्भीपाक, रौरव नरक आदि स्थानों को देखने के लिये दौड़ पड़े। वहाँ पहुंचकर उन्होंने वहाँ के अधिकारियो से पूछा – रक्षको ! यह करुण क्रन्दन किनका है ? ये इतनी यातना क्यों सह रहे है ?

उन्होंने उत्तर दिया- यह संयमनीपुरी का कुम्भीपाक नामक नरक है। यहां वे ही लोग आकर कष्ट भोगते है, जो शिव, विष्णु, देवी, सूर्य तथा गणेश के निन्दक है और जो वेद पुराण की निन्दा करते है ब्राह्मणों के द्रोही है और माता, पिता, गुरु तथा श्रेष्ठज़नो का अनादर करते है, जो धर्म के दूषक है वे पतितजन यहां घोर कष्ट पाते है। उन्ही पतितो का यह महाघोर दारुण शब्द अपको सुनायी दे रहा है।

यह सुनकर दुर्वासा ऋषि बहुत दुखी हुए और दुखियों को देखने के लिये वे उस कुण्ड के पास गये। कुण्ड के समीप जाकर ज्यों ही वे सिर नीचा करके देखने लगे त्यों ही वह कुण्ड स्वर्ग के समान सुन्दर हो गया। वहाँ के पापी जीव एकाएक प्रसन्न हो उठे और दु:ख से मुक्त होकर गद्गदस्वर से मधुर भाषण करने लगे। उस समय आकाश से पुष्पवृष्टि होने लगी और विविध समीर चलने लगे। वसन्त ऋतु के समान उस सुखदायी समय मे यमदूतो को भी विस्मय में डाल दिया। स्वयं मुनि भी यह आश्चर्य देखकर बड़े सोच में पड़ गये।

चकित होकर यमदूतों ने धर्मराज के निकट जाकर इस आश्चर्यमय स्थिति परिवर्तन की सुचना दी और कहा – महाभाग बड़े आश्चर्य की बात है कि सभी पापियों को इस समय अपार आनन्द हो गया है, किसी को किसी प्रकार की यम यातना रह ही नहीं गयी । विभो यह क्या बात है ? दूतों की यह बात सुनते ही धर्मराज स्वयं वहाँ गये और वहां का दृश्य देखकर वे भी बहुत चकित हुए उन्होंने सभी देवताओ को बुलाकर इसका कारण पूछा, परंतु किसी को इसका मूल कारण नहीं ज्ञात हो सका। जब किसी प्रकार इसका पता न चला, तब ब्रह्मा और विष्णु की सहायता से धर्मराज भगवान् शंकर के पास गये। पार्वती के साथ विराजमान भगवान् शंकर का दर्शन कर वे स्तुति प्रार्थना करते हुए कहने लगे-

हे देवदेव कुम्मीपाक का कुण्ड एकाएक स्वर्ग के समान हो गया, इसका क्या कारण है ? प्रभो ! आप सर्वज्ञ हैं अत: अपकी सेवा में हम आये है । हमलोगों के संदेह को आप दूर करने की कृपा करे ।

सर्वान्तर्यामी भगवान् ने गम्भीर स्वर से हंसते हुए कहा देवगणो ! इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है, यह विभूति ( भस्म) का ही महात्म्य है। जिस समय मेरे परम भक्त दुर्वास मुनि कुम्मीपाक नरक को देखने गये थे, उस समय वायु के वेग से उनके ललाट से भस्म के कुछ कण उस कुण्ड में गिर पड़े थे। इसी कारण वह नरक स्वर्ग के समान हो गया है और अब वह स्वर्गीय ‘पितृतीर्थ’ के नाम से प्रसिद्ध होगा।

कुम्भीपाकं गतो द्रष्टुं दुर्वासा: शैवसम्मतः।।

अवांगमुखो ददर्शाधस्तदा वायुवशाद्धरे ।

भाले भस्मकणास्तत्र पतिता दैवयोगतः ।।

तेन जातमिदं सर्वं भस्मनो महिमा त्वयम्।

इतः परं तु तत्तीर्थं पितृलोकनिवासिनाम्।। 

भविष्यति न संदेहो यत्र स्नात्वा सुखी भवेत्। 

(देवीभागवत ११ । १५ ।६४-६७) 

भगवान् शंकर की बात सुनकर धर्मराज सहित सभी देवगण अत्यन्त प्रसन्न हुए । उसी समय उन्होंने उस कुण्ड के समीप शिवलिङ्ग तथा देवी पार्वती की स्थापना की और वहाँ के पापियों को मुक्त कर दिया। तभी से पितृलोक में उस मूर्ति के दर्शन पूजन करके पितृलोग शिवधाम (मोक्ष) प्राप्त करने लगे । यह चमत्कार परम शैव रुद्रावतार महर्षि दुर्वासा मुनि की शिवभक्ति तथा उनके भालपर विराजमान शिवविभूति (भस्म) का ही था । (देवीभागवत) 

जो नमः शिवाय इस मन्त्र का उच्चारण करता है, उसका मुख देखने से निश्चय ही तीर्थ दर्शन का फल प्राप्त होता है। जिसके मुख में ‘शिव’ नाम तथा शरीर पर भस्म और रुद्राक्ष रहता है, उसके दर्शने से ही पाप नष्ट हो जाते है । (शिवपुराण. शा. सं.अ ३०) 

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