भीष्म द्वादशी व्रत अनुष्ठान पूजन विधि महत्त्व और कथा
माघ माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि के दिन भीष्म द्वादशी मनाई जाती है, इस दिन भगवान श्री कृष्ण की पूजा का विधान बताया गया है। भीष्म पितामह ने अष्टमी के दिन अपने शरीर का त्याग किया था, हालांकि उनके निमित्त जो भी धार्मिक कर्म किए गए वो द्वादशी के दिन ही किए गए थे। यही कारण है कि भीष्म अष्टमी के बाद भीष्म द्वादशी का पर्व मनाया जाता है। प्रतिज्ञा अनुसार शिखंडी पर शस्त्र न उठाने के कारण उन्होने युद्ध क्षेत्र में अपने शस्त्र त्याग दिए, जिससे अन्य योद्धाओं ने अवसर पाते ही उन पर तीरों की बौछार कर दी और महा भारत के इस अद्भुत योद्धा ने शरशय्या पर शयन किया। धर्म ग्रंथों के अनुसार,इस व्रत को करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं तथा सुख व समृद्धि की प्राप्ति होती है।
भीष्म द्वादशी व्रत अनुष्ठान पूजन विधि
प्रात:काल इस दिन स्नान आदि कर दूध, शहद, गंगा जल से पंचामृत से देव को स्नान कराना चाहिए तथा फल, केले के पत्ते, सुपारी, सुपारी, तिल, मोली, रोली, कुमकुम, तुलसी और मिठाई और केला आदि से भगवान लक्ष्मीनारायण की पूजा करनी चाहिए। भुने हुए गेहूं और चीनी से प्रसाद तैयार किया जाता है। लक्ष्मीनारायण पूजा के बाद, अन्य देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। चरणामृत और प्रसाद सभी में वितरित किया जाता है। ब्राह्मणों और गरीबों को दान और दान दिया जाता है। इस प्रकार व्रत पूजन करने पर आराधक को संतान, सुख, धन और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
चूंकि इस दिन पांडवों द्वारा भीष्म का अंतिम संस्कार किया गया था, इसलिए प्रचलित मान्यताओं के अनुसार, इस दिन पितरों के लिए तर्पण और अंतिम संस्कार या श्राद्ध करना अत्यधिक लाभकारी माना जाता है। कुछ लोग इस दिन भीष्म के नाम पर तर्पण या जल चढ़ाते हैं क्योंकि वह संतानहीन थे।
इसके बाद भीष्म द्वादशी की कथा सुनें। देवी लक्ष्मी समेत अन्य देवों की स्तुति करें तथा पूजा समाप्त होने पर चरणामृत एवं प्रसाद का वितरण करें। ब्राह्मणों को भोजन कराएं व दक्षिणा दें। इस दिन स्नान-दान करने से सुख-सौभाग्य,धन-संतान की प्राप्ति होती है। ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन करें और सम्पूर्ण घर-परिवार सहित अपने कल्याण धर्म, अर्थ, मोक्ष की कामना करें।
इस व्रत में ॐ नमो नारायणाय मंत्र एवं विष्णु सहस्रनाम पाठ आदि से भगवान नारायण की पूजा अर्चना करनी चाहिए। ऐसा करने से अनजाने में किये सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।
भीष्म द्वादशी कथा
भीष्म द्वादशी के बारे में एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार, शांतनु की पत्नी गंगा ने देव-व्रत नामक एक पुत्र को जन्म दिया। उसने देव-व्रत को जन्म देने के बाद शांतनु को छोड़ दिया। शांतनु उदास था। एक बार, शांतनु गंगा नदी को पार करना चाहते थे और एक नाव में बैठ गए जिसे एक मत्स्यगंधा चला रही थी , जिसे सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। शांतनु उसकी सुंदरता से चकित थे। वह उससे शादी करना चाहते थे। सत्यवती के पिता इस शर्त पर सहमत हुए कि उनकी बेटी का बेटा शांतनु सिंहासन का उत्तराधिकारी होगा।
शांतनु ने इस शर्त को स्वीकार नहीं किया। इसलिए, देव-व्रत ने अपने पूरे जीवन में शादी नहीं करने की शपथ ली। शांतनु ने उन्हें एक वरदान दिया जिससे उन्हें अपनी शर्तों पर मृत्यु स्वीकार करने की अनुमति मिली। महाभारत के दौरान, भीष्म पितामह ने पांडवों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। अपने कौशल के कारण, कौरव युद्ध जीतने लगे। भगवान श्रीकृष्ण ने शिखंडी को, भीष्म के विरूद्ध एक खड़ा दिया। भीष्म शिखंडी के साथ युद्ध नहीं कर सके और उन्होंने हथियार छोड़ दिए।
भीष्म ने माघ महीने में अष्टमी के दिन सूर्य उत्तरायण की उपस्थिति में अपने जीवन का त्याग किया था। द्वादशी के दिन इनका अंतिम संस्कार करने का निर्णय लिया गया था। तब से इस दिन को भीष्म द्वादशी के नाम से जाना जाता है। द्वादशी के दिन उनकी पूजा करने का निर्णय लिया गया। इसलिए इस दिन को भीष्म द्वादशी के नाम से जाना जाता है।
भीष्म तर्पण के लिए निम्न मन्त्र शुद्धभाव से पढ़कर तर्पण करना चाहिए।
तर्पण मंत्र:
सत्यव्रताय शुचये गांगेयाय महात्मने।
भीष्मायेतद् ददाम्यर्घ्यमाजन्म ब्रह्मचारिणे ।।
अर्थ: आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले परम पवित्र सत्यव्रत पारायण गंगानन्दन महात्मा भीष्म को मैं अर्घ्य देता हूँ।
जो मनुष्य निम्नलिखित मंत्र द्वारा भीष्म जी के लिए अर्घ्यदान करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
अर्घ्य मंत्र
वैयाघ्रपद गोत्राय सांकृत्यप्रवराय च ।
अपुत्राय ददाम्येतदुदकं भीष्मवर्मणे ।।
वसूनामवताराय शन्तनोरात्मजाय च ।
अर्घ्यं ददानि भीष्माय आजन्म ब्रह्मचारिणे ।।
अर्थ: जिनका गोत्र व्याघ्रपद और सांकृतप्रवर है, उन पुत्र रहित भीष्म जी को मैं जल देता हूँ. वसुओं के अवतार, शान्तनु के पुत्र, आजन्म ब्रह्मचारी भीष्म को मैं अर्घ्य देता हूँ. जो भी मनुष्य अपनी स्त्री सहित पुत्र की कामना करते हुए भीष्म पंचक व्रत का पालन करता हुआ तर्पण और अर्घ्य देता है. उसे एक वर्ष के अन्दर ही पुत्र की प्राप्ति होती है. इस व्रत के प्रभाव से महापातकों का नाश होता है.
अर्घ्य देने के बाद पंचगव्य, सुगन्धित चन्दन के जल, उत्तम गन्ध व कुंकुम द्वारा सभी पापों को हरने वाले श्री हरि की पूजा करें. भगवान के समीप पाँच दिनों तक अखण्ड दीप जलाएँ भगवान श्री हरि को उत्तम नैवेद्य अर्पित करें. पूजा-अर्चना और ध्यान नमस्कार करें. उसके बाद ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय मन्त्र का 108 बार जाप करें. प्रतिदिन सुबह तथा शाम दोनों समय सन्ध्यावन्दन करके ऊपर लिखे मन्त्र का 108 बार जाप कर भूमि पर सोएं. व्रत करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करना अति उत्तम है. शाकाहारी भोजन अथवा मुनियों से प्राप्त भोजन द्वारा निर्वाह करें और ज्यादा से ज्यादा समय विष्णु पूजन में व्यतीत करें. विधवा स्त्रियों को मोक्ष की कामना से यह व्रत करना चाहिए.
पूर्णमासी के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराएँ तथा बछड़े सहित गौ दान करें. इस प्रकार पूर्ण विधि के साथ व्रत का समापन करें. पाँच दिनों का यह भीष्म पंचक व्रत-एकादशी से पूर्णिमा तक किया जाता है. इस व्रत में अन्न का निषेध है अर्थात इन पाँच दिनों में अन्न नहीं खाना चाहिए. इस व्रत को विधिपूर्वक पूर्ण करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं तथा सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं।
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