सम्पूर्ण गरुड़ पुराण अध्याय एक से अध्याय दसवाँ तक 

हिंदू धर्म में कई ग्रंथ-पुराण हैं और धर्म ग्रंथों से जुड़ी कई कथा-कहानियां भी हैं. लेकिन गरुड़ पुराण को 18 महापुराणों में एक माना गया है. यह ऐसा पुराण है, जिसमें मृत्यु और मृत्यु के बाद की घटनाओं के बारे में विस्तार से बताया गया है.

हमारी इस प्रस्तुति का प्रयोजन सनातन धर्म को बढ़ावा देना व समाज में धर्म के प्रति जिज्ञासा में वृद्धि है। हमारे द्वारा बताए गए तथ्य वेदों, पुराणों, रामचरितमानस, महाभारत, श्रीमद्भगवतगीता, ग्रंथों व उपनिषदों आदि से लिए गए हैं। इस दृष्टांत के अंतर्गत कुछ भी काल्पनिक या मिथ्या नहीं है। हमारा उद्देश्य किसी भी व्यक्ति या समाज की भावना और आस्था को आहत करना कदापि नहीं है।

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) पहला अध्याय 

(भगवान विष्णु तथा गरुड़ के संवाद में गरुड़ पुराण पापी मनुष्यों की इस लोक तथा परलोक में होने वाली दुर्गति का वर्णन, दश गात्र के पिण्डदान से यातना देह का निर्माण।)

धर्म ही जिसका सुदृढ़ मूल है, वेद जिसका स्कन्ध(तना) है, पुराण रूपी शाखाओं से जो समृद्ध है, यज्ञ जिसका पुष्प है और मोक्ष जिसका फल है, ऎसे भगवान मधुसूदन रूपी पादप (जैसे वृक्ष सबको आश्रय देता है, वैसे ही भगवान भी अपने चरणारविन्द में आश्रय देकर सबकी रक्षा करते हैं इसीलिए भगवान मधूसूदन को यहां पादप वृक्ष की उपमा दी गई है) कल्पवृक्ष की जय हो।

देव क्षेत्र नैमिषारण्य में स्वर्ग लोक की प्राप्ति की कामना से शौनकादि ऋषियों ने एक बार सहस्त्रवर्ष में पूर्ण होने वाला यज्ञ प्रारम्भ किया।

एक समय प्रात:काल के हवनादि कृत्यों का सम्पादन कर के उन सभी मुनियों ने सत्कार किए गये आसनासीन सूत जी महाराज से आदरपूर्वक यह पूछा

ऋषय ऊचु: 

ऋषियों ने कहा हे सूत जी महाराज् आपने सुख देने वाले देवमार्ग का सम्यक निरूपण किया है। इस समय हम लोग भयावह यममार्ग के विषय में सुनना चाहते हैं। आप सांसारिक दुखों को और उस क्लेश के विनाशक साधन को तथा इस लोक और परलोक के क्लेशों को यथावत वर्णन करमें समर्थ है, अत: उस का वर्णन कीजिए।

सूत उवाच 

सूतजी बोले हे मुनियों आप लोग सुनें मैं अत्यन्त दुर्गम यममार्ग के विषय में कहता हूँ, जो पुण्यात्मा जनों के लिए सुखद और पापियों के लिए दु:खद है। गरुड़ जी के पूछने पर भगवान विष्णु ने उनसे जैसा कुछ कहा था, मैं उसी प्रकार आप लोगों के संदेह की निवृत्ति के लिए कहूँगा। किसी समय वैकुण्ठ में सुखपूर्वक विराजमान परम गुरु श्रीहरि से विनतापुत्र गरुड़ जी ने विनय से झुककर पूछा

गरुड़ उवाच 

गरुड़ जी ने कहा हे देव आपने भक्ति मार्ग का अनेक प्रकार से मेरे समक्ष वर्णन किया है और भक्तों को प्राप्त होने वाली उत्तम गति के विषय में भी कहा है। अब हम भयंकर यम मार्ग के विषय में सुनना चाहते हैं। हमने सुना है कि आपकी भक्ति से विमुख प्राणी वहीं नरक में जाते हैं। भगवान का नाम सुगमतापूर्वक लिया जा सकता है, जिह्वा प्राणी के अपने वश में है तो भी लोग नरक में जाते हैं, ऎसे अधम मनुष्यों को बार-बार धिक्कार है। इसलिए हे भगवान पापियों को जो गति प्राप्त होती है तथा यम मार्ग में जैसे वे अनेक प्रकार के दु:ख प्राप्त करते हैं, उसे आप मुझसे कहें।

श्रीभगवानुवाच

श्रीभगवान बोले हे पक्षीन्द्र सुनो, मैं उस यममार्ग के विषय में कहता हूँ, जिस मार्ग से पापीजन नरक की यात्रा करते हैं और जो सुनने वालों के लिये भी भयावह है।

हे तार्क्ष्य जो प्राणी सदा पाप परायण है, दया और धर्म से रहित हैं, जो दुष्ट लोगों की संगति में रहते हैं, सत्-शास्त्र और सत्संगति से विमुख है, जो अपने को स्वयं प्रतिष्ठित मानते हैं, अहंकारी हैं तथा धन और मान के मद से चूर हैं, आसुरी शक्ति को प्राप्त हैं तथा दैवी सम्पत्ति से रहित हैं, जिनका चित्त अनेक विषयों में आसक्त होने से भ्रान्त हैं, जो मोह के जाल में फंसे हैं और कामनाओं के भोग में ही लगे हैं, ऎसे व्यक्ति अपवित्र नरक में गिरते हैं. जो लोग ज्ञानशील हैं, वे परम गति को प्राप्त होते हैं। पापी मनुष्य दु:खपूर्वक यम यातना प्राप्त करते हैं। पापियों को इस लोक में जैसे दु:ख की प्राप्ति होती है और मृत्यु के पश्चात वे जैसी यम यातना को प्राप्त होते हैं, उसे सुनो।

यथोपार्जित पुण्य और पाप के फलों को पूर्व में भोगकर कर्म के सम्बन्ध से उसे कोई शारीरिक रोग हो जाता है। आधि (मानसिक रोग) और व्याधि (शारीरिक रोग) से युक्त तथा जीवन धारण करने की आशा से उत्कण्ठित उस व्यक्ति की जानकारी के बिना ही सर्प की भाँति बलवान काल उसके समीप आ पहुँचता है। उस मृत्यु की सम्प्राप्ति की स्थिति में भी उसे वैराग्य नहीं होता. उसने जिनका भरण-पोषण किया था, उन्हीं के द्वारा उसका भरण-पोषण होता है, वृद्धावस्था के कारण विकृत रूप वाला और मरणाभिमुख वह व्यक्ति घर में अवमाननापूर्वक दी हुई वस्तुओं को कुत्ते की भाँति खाता हुआ जीवन व्यतीत करता है।

वह रोगी हो जाता है, उसे मन्दाग्नि हो जाती है और उसका आहार तथा उसकी सभी चेष्टाएँ कम हो जाती हैं। प्राण वायु के बाहर निकलते समय आँखें उलट जाती हैं, नाड़ियाँ कफ से रुक जाती हैं, उसे खाँसी और श्वास लेने में प्रयत्न करना पड़ता है तथा कण्ठ से घुर-घुर से शब्द निकलने लगते हैं।

चिन्तामग्न स्वजनों से घिरा हुआ तथा सोया हुआ वह व्यक्ति कालपाश के वशीभूत होने के कारण बुलाने पर भी नहीं बोलता। इस प्रकार कुटुम्ब के भरण-पोषण में ही निरन्तर लगा रहने वाला, अजितेन्द्रिय व्यक्ति अन्त में रोते बिलखते बन्धु-बान्धवों के बीच उत्कट वेदना से संज्ञाशून्य होकर मर जाता है। हे गरुड़ ! उस अन्तिम क्षण में प्राणी को व्यापक दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिससे वह लोक-परलोक को एकत्र देखने लगता है। अत: चकित होकर वह कुछ भी नहीं कहना चाहता। यमदूतों के समीप आने पर भी सभी इन्द्रियाँ विकल हो जाती हैं, चेतना जड़ीभूत हो जाती है और प्राण चलायमान हो जाते हैं।

आतुरकाल में प्राण वायु के अपने स्थान से चल देने पर एक क्षण भी एक कल्प के समान प्रतीत होता है और सौ बिच्छुओं के डंक मारने जैसी पीड़ा होती है, वैसी पीड़ा का उस समय उसे अनुभव होने लगता है। वह मरणासन व्यक्ति फेन उगलने लगता है और उसका मुख लार से भर जाता है। पापीजनों के प्राणवायु अधोद्वार (गुदामार्ग) से निकलते हैं। उस समय दोनों हाथों में पाश और दण्ड धारण किये, नग्न, दाँतों को कटकटाते हुए क्रोधपूर्ण नेत्र वाले यम के दो भयंकर दूत समीप में आते हैं। उनके केश ऊपर की ओर उठे होते हैं, वे कौए के समान काले होते हैं और टेढ़े मुख वाले होते हैं तथा उनके नख आयुध की भाँति होते हैं।

उन्हें देखकर भयभीत हृदयवाला वह मरणासन्न प्राणी मल-मूत्र का विसर्जन करने लगता है। अपने पाँच भौतिक शरीर से हाय-हाय करते हुए निकलता हुआ तथा यमदूतों के द्वारा पकड़ा हुआ वह अंगुष्ठमात्र प्रमाण का पुरुष अपने घर को देखता हुआ यमदूतों के द्वारा यातना देह से ढक कर के गले में बलपूर्वक पाशों से बाँधकर सुदूर यममार्ग यातना के लिए उसी प्रकार ले जाया जाता है, जिस प्रकार राजपुरुष दण्डनीय अपराधी को ले जाते हैं। इस प्रकार ले जाये जाते हुए उस जीव को यम के दूत तर्जना कर के डराते हैं और नरकों के तीव्र भय का पुन: पुन: वर्णन करते हैं

यमदूत कहते हैं रे दुष्ट शीघ्र चल, तुम यमलोक जाओगे। आज तुम्हें हम सब कुम्भीपाक आदि नरकों में शीघ्र ही ले जाएँगे।

इस प्रकार यमदूतों की वाणी तथा बन्धु-बान्धवों का रुदन सुनता हुआ वह जीव जोर से हाहाकार करके विलाप करता है और यमदूतों के द्वारा प्रताड़ित किया जाता है। यमदूतों की तर्जनाओं से उसका हृदय विदीर्ण हो जाता है, वह काँपने लगता है, रास्ते में कुत्ते काटते हैं और अपने पापों का स्मरण करता हुआ वह पीड़ित जीव यममार्ग में चलता है। भूख और प्यास से पीड़ित होकर सूर्य, दावाग्नि एवं वायु के झोंको से संतृप्त होते हुए और यमदूतों के द्वारा पीठ पर कोड़े से पीटे जाते हुए उस जीव को तपी हुई बालुका से पूर्ण तथा विश्राम रहित और जल रहित मार्ग पर असमर्थ होते हुए भी बड़ी कठिनाई से चलना पड़ता है। थककर जगह-जगह गिरता और मूर्च्छित होता हुआ वह पुन: उठकर पापीजनों की भाँति अन्धकारपूर्ण यमलोक में ले जाया जाता है।

दो अथवा तीन मुहूर्त्त में वह मनुष्य वहाँ पहुँचाया जाता है और यमदूत उसे घोर नरक यातनाओं को दिखाते हैं। मुहूर्त मात्र में यम को और नारकीय यातनाओं के भय को देखकर वह व्यक्ति यम की आज्ञा से आकाश मार्ग से यमदूतों के साथ पुन: इस लोक (मनुष्यलोक) में चला आता है। मनुष्य लोक में आकर अबादि वासना से बद्ध वह जीव देह में प्रविष्ट होने की इच्छा रखता है, किंतु यमदूतों द्वारा पकड़कर पाश में बाँध दिये जाने से भूख और प्यास से अत्यन्त पीड़ित होकर रोता है।

हे तार्क्ष्य वह पातकी प्राणि पुत्रों से दिए हुए पिण्ड तथा आतुर काल में दिए हुए दान को प्राप्त करता है तो भी उस नास्तिक को तृप्ति नहीं होती। पुत्रादि के द्वारा पापियों के उद्देश्य से किए गये श्राद्ध, दान तथा जलांजलि उनके पास ठहरती नहीं। अत: पिण्डदान का भोग करने पर भी वे क्षुधा से व्याकुल होकर यममार्ग में जाते हैं। जिनका पिण्डदान नहीं होता, वे प्रेतरूप में होकर कल्पपर्यन्त निर्जन वन में दु:खी होकर भ्रमण करते रहते हैं।

सैकड़ो करोड़ कल्प बीत जाने पर भी बिना भोग किए कर्म फल का नाश नहीं होता और जब तक वह पापी जीव यातनाओं का भोग नहीं कर लेता, तब तक उसे मनुष्य शरीर भी प्राप्त नहीं होता। हे पक्षी! इसलिए पुत्र को चाहिए कि वह दस दिनों तक प्रतिदिन पिण्डदान करे। हे पक्षिश्रेष्ठ वे पिण्ड प्रतिदिन चार भागों में विभक्त होते हैं। उनमें दो भाग तो प्रेत के देह के पंचभूतों की पुष्टि के लिए होते हैं, तीसरा भाग यमदूतों को प्राप्त होता है और चौथे भाग से उस जीव को आहार प्राप्त होता है।

नौ रात-दिनों में पिण्ड को प्राप्त करके प्रेत का शरीर बन जाता है और दसवें दिन उसमें बल की प्राप्ति होती है। हे खग! मृत व्यक्ति के देह के जल जाने पर पिण्ड के द्वारा पुन: एक हाथ लंबा शरीर प्राप्त होता है, जिसके द्वारा वह प्राणी यमलोक के रास्ते में शुभ और अशुभ कर्मों के फल को भोगता है।

पहले दिन जो पिण्ड दिया जाता है, उससे उसका सिर बनता है, दूसरे दिन के पिण्ड से ग्रीवा गरदन और स्कन्ध(कन्धे) तथा तीसरे पिण्द से हृदय बनता है। चौथे पिण्ड से पृष्ठभाग (पीठ), पाँचवें से नाभि, छठे तथा सातवें पिण्द से क्रमश: कटि (कमर) और गुह्यांग उत्पन्न होते हैं। आठवें पिण्द से ऊरु (जाँघें) और नवें पिण्ड से जानु (घुटने) तथा पेर बनते हैं। इस प्रकार नौ पिण्डों से देह को प्राप्त कर के दसवें पिण्द से उसकी क्षुधा और तृषा (भूख-प्यास) ये दोनों जाग्रत होती हैं। इस पिण्डज शरीर को प्राप्त कर के भूख और प्यास से पीड़ित जीव ग्यारहवें तथा बारहवें दो दिन भोजन करता है।

तेरहवें दिन यमदूतों के द्वारा बन्दर की तरह बँधा हुआ वह प्राणी अकेला उस यममार्ग में जाता है। हे खग! मार्ग में मिलने वाली वैतरणी को छोड़कर यमलोक के मार्ग की दूरी का प्रमाण छियासी हजार योजन है। वह प्रेत प्रतिदिन रात-दिन में दो सौ सैंतालीस योजन चलता है। मार्ग में आये हुए इन सोलह पुरों (नगर) को पार कर के पातकी व्यक्ति धर्मराज के भवन में जाता है।

1. सौम्यपुर,

2. सौरिपुर,

3. नगेन्द्र भवन,

4. गन्धर्वपुर,

5. शैलागम,

6. क्रौंचपुर,

7. क्रूरपुर,

8. विचित्रभवन,

9. बह्वापदपुर,

10. दु:खदपुर,

11. नानाक्रन्दपुर,

12. सुतप्तभवन,

13. रौद्रपुर,

14. पयोवर्षणपुर,

15. शीताढ्यपुर तथा

16. बहुभीतिपुर को पार करके इनके आगे यमपुरी में धर्मराज का भवन स्थित है। यमराज के दूतों के पाशों से बँधा हुआ पापी जीव रास्ते भर हाहाकार करता रोता हुआ अपने घर को छोड़ करके यमपुरी को जाता है।

।।इस प्रकार गरुड़पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में “पापियों के इस लोक तथा परलोक के दु:ख का निरुपण” नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ।।

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) दूसरा अध्याय 

गरुड़ उवाच गरुड़ जी ने कहा हे केशव यमलोक का मार्ग किस प्रकार दु:खदायी होता है। पापी लोग वहाँ किस प्रकार जाते हैं, वह मुझे बताइये।

श्रीभगवानुवाच श्री भगवान बोले हे गरुड़ महान दुख प्रदान करने वाले यममार्ग के विषय में मैं तुमसे कहता हूँ, मेरा भक्त होने पर भी तुम उसे सुनकर काँप उठोगे।

यममार्ग में वृक्ष की छाया नहीं है, जहाँ प्राणी विश्राम कर सके। उस यममार्ग में अन्न आदि भी नहीं हैं, जिनसे कि वह अपने प्राणों की रक्षा कर सके ?

हे खग वहाँ कहीं जल भी नहीं दिखता, जिसे अत्यन्त तृषातुर वह जीव पी सके। वहाँ प्रलयकाल की भाँति बारहों सूर्य तपते रहते हैं। उस मार्ग में जाता हुआ पापी कभी बर्फीली हवा से पीड़ित होता है तथा कभी काँटे चुभते हैं और कभी महाविषधर सर्पों के द्वारा डसा जाता है।

वह पापी कहीं सिंहों, व्याघ्रों और भयंकर कुत्तों द्वारा खाया जाता है, कहीं बिच्छुओं द्वारा डसा जाता है और कहीं उसे आग से जलाया जाता है। तब कहीं अति भयंकर महान असिपत्रवन नामक नरक में वह पहुँचता है, जो दो हजार योजन विस्तारवाला कहा गया है। वह वन कौओं, उल्लुओं, वटों (पक्षी विशेषों), गीधों, सरघों तथा डाँसों से व्याप्त है। उसमें चारों ओर दावाग्नि व्याप्त है, असिपत्र के पत्तों से वह जीव उस वन में छिन्न-भिन्न हो जाता है।

कहीं अंधे कुएँ में गिरता है, कहीं विकट पर्वत से गिरता है, कहीं छुरे की धार पर चलता है तो कहीं कीलों के ऊपर चलता है। कहीं घने अन्धकार में गिरता है, कहीं उग्र (भय उत्पन्न करने वाले) जल में गिरता है, कहीं जोंको से भरे हुए कीचड़ में गिरता है तो कहीं जलते हुए कीचड़ में गिरता है। कहीं तपी हुई बालुका से व्याप्त और कहीं धधकते हुए ताम्रमय मार्ग, कहीं अंगार की राशि और कहीं अत्यधिक धुएँ से भरे हुए मार्ग पर उसे चलना पड़ता है। कहीं अंगार की वृष्टि होती है, कहीं बिजली गिरने के साथ शिलावृष्टि होती है, कहीं रक्त की, कहीं शस्त्र की और कहीं गर्म जल की वृष्टि होती है। कहीं खारे कीचड़ की वृष्टि होती है, मार्ग में कहीं गहरी खाई है, कहीं पर्वत-शिखरों की चढ़ाई है और कहीं कन्दराओं में प्रवेश करना पड़ता है।

वहाँ मार्ग में कहीं घना अंधकार है तो कहीं दु:ख से चढ़ी जाने योग्य शिलाएँ हैं, कहीं मवाद, रक्त तथा विष्ठा से भरे हुए तालाब हैं।

यम मार्ग के बीचोबीच अत्यन्त उग्र और घोर वैतरणी नदी बहती है। वह देखने पर दु:खदायिनी हो तो क्या आश्चर्य? उसकी वार्ता ही भय पैदा करने वाली है। वह सौ योजन चौड़ी है, उसमें पूय (पीब-मवाद) और शोणित (रक्त) बहते रहते हैं।

हड्डियों के समूह से तट बने हैं अर्थात उसके तट पर हड्डियों का ढेर लगा रहता है।

माँस और रक्त के कीचड़ वाली वह नदी दु:ख से पार की जाने वाली है। अथाह गहरी और पापियों द्वारा दु:खपूर्वक पार की जाने वाली यह नदी केशरूपी सेवार से भरी होने के कारण दुर्गम है।

वह विशालकाय ग्राहों (घड़ियालों) से व्याप्त है और सैकड़ो प्रकार के घोर पक्षियों से आवृत है। हे गरुड़ आये हुए पापी को देखकर वह नदी ज्वाला और धूम से भरकर कड़ाह में रखे घृत की भाँति खौलने लगती है। वह नदी सूई के समान मुख वाले भयानक कीड़ो से चारों ओर व्याप्त है। वज्र के समान चोंच वाले बड़े-बड़े गीध एवं कौओं से घिरी हुई है। वह नदी शिशुमार, मगर, जोंक, मछली, कछुए तथा अन्य मांसभक्षी जलचर जीवों से भरी पड़ी है।

उसके प्रवाह में गिरे हुए बहुत से पापी रोते-चिल्लाते हैं और हे भाई हा पुत्र हा तात इस प्रकार कहते हुए बार-बार विलाप करते हैं। भूख और प्यास से व्याकुल होकर पापी जीव रक्त का पान करते हैं। वह नदी झागपूर्ण रक्त के प्रवाह से व्याप्त, महाघोर, अत्यन्त गर्जना करने वाली, देखने में दु:ख पैदा करने वाली तथा भयावह है। उसके दर्शन मात्र से पापी चेतनाशून्य हो जाते हैं।

बहुत से बिच्छू तथा काले सर्पों से व्याप्त उस नदी के बीच में गिरे हुए पापियों की रक्षा करने वाला कोई नहीं है। उसके सैकड़ों, हजारों भँवरों में पड़कर पापी पाताल में चले जाते हैं।

क्षण भर पाताल में रहते हैं और एक क्षण में ही ऊपर चले आते हैं। हे खग वह नदी पापियों के गिरने के लिए ही बनाई गई है। उसका पार नहीं दिखता।

वह अत्यन्त दु:खपूर्वक तरने योग्य तथा बहुत दु:ख देने वाली है। इस प्रकार बहुत प्रकार के क्लेशों से व्याप्त अत्यन्त दु:खप्रद यममार्ग में रोते-चिल्लाते हुए दु:खी पापी जाते हैं। कुछ पापी पाश से बँधे होते हैं और कुछ अंकुश में फंसाकर खींचे जाते हैं, और कुछ शस्त्र के अग्र भाग से पीठ में छेदते हुए ले जाये जाते हैं। कुछ नाक के अग्र भाग में लगे हुए पाश से और कुछ कान में लगे हुए पाश से खीचे जाते हैं।

कुछ काल पाश से खींचे जाते हैं और कुछ कौओं से खींचे जाते हैं। वे पापी गरदन, हाथ तथा पैर में जंजीर से बँधे हुए तथा अपनी पीठ पर लोहे के भार को ढोते हुए मार्ग पर चलते हैं।

अत्यन्त घोर यमदूतों के द्वारा मुद्गरों से पीटे जाते हुए वे मुख से रक्त वमन करते हुए तथा वमन किये हुए रक्त को पुन: पीते हुए जाते हैं। उस समय अपने दुष्कर्मों को सोचते हुए प्राणी अत्यन्त ग्लानि का अनुभव करते हैं और अतीव दु:खित होकर यमलोक को जाते हैं। इस प्रकार यममार्ग में जाता हुआ वह मन्दबुद्धि प्राणी हा पुत्र, हा पौत्र इस प्रकार पुत्र और पौत्रों को पुकारते हुए, हाय-हाय इस प्रकार विलाप करते हुए पश्चाताप की ज्वाला से जलता रहता है। वह विचार करता है कि महान पुण्य के संबंध से मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है, उसे प्राप्त कर भी मैंने धर्माचरण नहीं किया, यह मैंने क्या किया।

मैंने दान दिया नहीं, अग्नि में हवन किया नहीं, तपस्या की नहीं, देवताओं की भी पूजा की नहीं, विधि-विधान से तीर्थ सेवा की नहीं, अत: हे जीव जो तुमने किया है, उसी का फल भोगों। हे देही तुमने ब्राह्मणों की पूजा की नहीं, देव नदी गंगा का सहारा लिया नहीं, सत्पुरुषों की सेवा की नहीं, कभी भी दूसरे का उपकार किया नहीं, इसलिए हे जीव जो तुमने किया है, अब उसी का फल भोगों।

मनुष्यों और पशु-पक्षियों के लिए जलहीन प्रदेश में जलाशय का निर्माण किया नहीं।

गौओं और ब्राह्मणों की आजीविका के लिए थोड़ा भी प्रयास किया नहीं, इसलिए हे देही तुमने जो किया है, उसी से अपना निर्वाह करो।

तुमने नित्य-दान किया नहीं, गौओं के दैनिक भरण-पोषण की व्यवस्था की नहीं, वेदों और शास्त्रों के वचनों को प्रमाण माना नहीं, पुराणों को सुना नहीं, विद्वानों की पूजा की नहीं, इसलिए हे देही ! जो तुमने किया है, उन्हीं दुष्कर्मों के फल को अब भोगों। नारी-जीव भी पश्चाताप करते हुए कहता है मैंने पति की हितकर आज्ञा का पालन किया नहीं, पातिव्रत्य धर्म का कभी पालन किया नहीं और गुरुजनों को गौरवोचित सम्मान कभी दिया नहीं, इसलिए हे देहिन्! जो तुमने किया, उसी का अब फल भोगों। धर्म की बुद्धि से एकमात्र पति की सेवा की नहीं और पति की मृत्यु हो जाने पर वह्निप्रवेश करके उनका अनुगमन किया नहीं, वैधव्य प्राप्त करके त्यागमय जीवन व्यतीत किया नहीं,

इसलिए हे देहिन जैसा किया, उसका फल अब भोगों। मास पर्यन्त किए जाने वाले उपवासों से तथा चान्द्रायण-व्रतों आदि सुविस्तीर्ण नियमों के पालन से शरीर को सुखाया नहीं। पूर्वजन्म में किये हुए दुष्कर्मों से बहुत प्रकार के दु:खों को प्राप्त करने के लिए नारी-शरीर प्राप्त किया था। इस तरह बहुत प्रकार से विलाप करके पूर्व देह का स्मरण करते हुए ‘मेरा मानव-जन्म शरीर कहाँ चला गया’ इस प्रकार चिल्लाता हुआ वह यमममार्ग में चलता है।

हे तार्क्ष्य इस प्रकार सत्रह दिन तक अकेले वायु वेग से चलते हुए अठारहवें दिन वह प्रेत सौम्यपुर में जाता है। उस रमणीय श्रेष्ठ सौम्यपुर में प्रेतों का महान गण रहता है। वहांँ पुष्पभद्रा नदी और अत्यन्त प्रिय दिखने वाला वटवृक्ष है। उस पुर में यमदूतों के द्वारा उसे विश्राम कराया जाता है। वहाँ दुखी होकर वह स्त्री-पुत्रों के द्वारा प्राप्त सुखों का स्मरण करता है। वह अपने धन, भृत्य और पौत्र आदि के विषय में जब सोचने लगता है तो वहाँ रहने वाले यम के किंकर उससे इस प्रकार कहते हैं – धन कहाँ है ? पुत्र कहाँ है ? पत्नी कहाँ है ? मित्र कहाँ है ? बन्धु-बान्धव कहाँ है ?

हे मूढ़ जीव अपने कर्मोपार्जित फल को ही भोगता है इसलिए सुदीर्घ काल तक इस यम मार्ग पर चलो। हे परलोक के राही! तू यह जानता है कि राहगीरों का बल और संबल पाथेय ही होता है, जिसके लिए तूने प्रयास तो किया नहीं। तू यह भी नहीं जानता था कि तुम्हें निश्चित ही उस मार्ग पर चलना है और उस रास्ते पर कोई भी लेन-देन हो नहीं सकता। यह मार्ग के बालकों को भी विदित रहता है। हे मनुष्य क्या तुमने इसे सुना नहीं था ?

क्या तुमने ब्राह्मणों के मुख से पुराणों के वचन सुने नहीं थे।

इस प्रकार कहकर मुद्गरों से पीटा जाता हुआ वह जीव गिरते पड़ते दौड़ते हुए बलपूर्वक पाशों से खींचा जाता है। यहाँ स्नेह अथवा कृपा के कारण पुत्र-पौत्रों द्वारा दिये हुए मासिक पिण्ड को खाता है। उसके बाद वह जीव सौरिपुर को प्रस्थान करता है।

उस सौरिपुर में काल के रूप को धारण करने वाला जंगम नामक राजा रहता है। उसे देखकर वह जीव भयभीत होकर विश्राम करना चाहता है। उस पुर में गया हुआ वह जीव अपने स्वजनों के द्वारा दिये हुए त्रैपाक्षिक अन्न-जल को खाकर उस पुर को पार करता है। उसके बाद शीघ्रतापूर्वक वह प्रेत नगेन्द्र-भवन की ओर जाता है और वहाँ भयंकर वनों को देखकर दु:खी होकर रोता है।

दयारहित दूतों के द्वारा खींचे जाने पर वह बार-बार रोता है और दो मासों के अन्त में वह दुखी होकर वहाँ जाता है। बान्धवों द्वारा दिये गये पिण्ड, जल, वस्त्र का उपभोग करके यमकिंकरों के द्वारा पाश से बार-बार खींचकर पुन: आगे ले जाया जाता है। तीसरे मास में वह गन्धर्वनगर को प्राप्त होता है और वहाँ त्रैमासिक पिण्ड खाकर आगे चलता है।

चौथे मास में वह शैलागमपुर में पहुँचता है और वहाँ प्रेत के ऊपर बहुत अधिक पत्थरों की वर्षा होती है। वहाँ चौथे मासिक पिण्ड को खाकर वह कुछ सुखी होता है। उसके बाद पाँचवें महीने में वह प्रेत क्रौंचपुर पहुँचता है।

क्रौंचपुर में स्थित वह प्रेत वहाँ बान्धवों द्वारा हाथ से दिये गये पाँचवें मासिक पिण्ड को खाकर आगे क्रूरपुर की ओर चलता है। साढ़े पाँच मास के बाद बान्धवों द्वारा प्रदत्त ऊनषाण्मासिक पिण्ड और घटदान से तृप्त होकर वह वहाँ आधे मुहूर्त तक विश्राम कर के यमदूतों के द्वारा डराये जाने पर दु:ख से काँपता हुआ उस पुर को छोड़कर चित्रभवन नामक पुर को जाता है, जहाँ यम का छोटा भाई विचित्र नाम वाला राजा राज्य करता है। उस विशाल शरीर वाले राजा को देखकर जब वह जीव डर से भागता है, तब सामने आकर कैवर्त धीवर उससे यह कहते हैं हम इस महावैतरणी नदी को पार करने वालों के लिए नाव लेकर आये हैं, यदि तुम्हारा इस प्रकार का पुण्य हो तो इसमें बैठ सकते हो। तत्त्वदर्शी मुनियों ने दान को ही वितरण (देना या बाँटना) कहा है।

यह वैतरणी नदी वितरण के द्वारा ही पार की जा सकती है, इसलिए इसको वैतरणी कहा जाता है। यदि तुमने वैतरणी गौ का दान किया हो तो नौका तुम्हारे पास आएगी अन्यथा नहीं। उनके ऎसे वचन सुनकर प्रेत ‘हा देव’ ऎसा कहता है। उस प्रेत को देखकर वह नदी खौलने लगती है और उसे देखकर प्रेत अत्यन्त क्रन्दन (विलाप) करने लगता है। जिसने अपने जीवन में कभी दान दिया ही नहीं, ऎसा पापात्मा उसी वैतरणी में डूबता है। तब आकाश मार्ग से चलने वाले दूत उसके मुख में काँटा लगाकर बंसी से मछली की भाँति उसे खींचते हुए पार ले जाते हैं।

वहाँ षाण्मासिक पिण्ड खाकर वह अत्यधिक भूख से पीड़ित होकर विलाप करता हुआ आगे के रास्ते पर चलता है। सातवें मास में वह बह्वापदपुर को जाता है और वहाँ अपने पुत्रों द्वारा दिये हुए सप्तम मासिक पिण्ड को खाता है।

हे पक्षिराज गरुड़ उस पुर को पारकर वह दु:खद नामक पुर को जाता है।

आकाश मार्ग से जाता हुआ वह महान दु:ख प्राप्त करता है। वहाँ आठवें मास में दिये हुए पिण्ड को खाकर आगे बढ़ता है और नवाँ मास पूर्ण होने पर नानाक्रन्दपुर को प्राप्त होता है। वहाँ क्रन्दन करते हुए अनेक भयावह क्रन्दगणों को देखकर स्वयं शून्य हृदयवाला वह जीव दु:खी होकर आक्रन्दन करने लगता है। उस पुर को छोड़कर वह यमदूतों के द्वारा भयभीत किया जाता हुआ दसवें महीने में अत्यन्त कठिनाई से सुतप्तभवन नामक नगर में पहुँचता है। वहाँ पुत्रादि से पिण्डदान और जलांजलि प्राप्त करके भी सुखी नहीं होता।

ग्यारहवाँ मास पूरा होने पर वह रौद्रपुर को जाता है। और पुत्रादि के द्वारा दिये हुए एकादश मासिक पिण्ड को वहाँ खाता है। साढ़े ग्यारह मास बीतने पर वह जीव पयोवर्षण नामक नगर में पहुँचता है। वहाँ प्रेतों को दु:ख देने वाले मेघ घनघोर वर्षा करते हैं, वहाँ पर दु:खी वह प्रेत ऊनाब्दिक श्राद्ध के पिण्ड को खाता है। इसके बाद वर्ष पूरा होने पर वह जीव शीताढ्य नामक नगर को प्राप्त होता है, वहाँ हिम से भी सौ गुनी अधिक महान ठंड पड़ती है।

शीत से दु:खी तथा क्षुधित वह जीव इस आशा से दसों दिशाओं में देखता है कि शायद कहीं कोई हमारा बान्धव हो, जो मेरे दु:ख को दूर कर सके। तब यम के दूत कहते हैं तुम्हारा ऎसा पुण्य कहाँ है ? फिर वार्षिक पिण्ड को खाकर वह धैर्य धारण करता है। उसके बाद वर्ष के अन्त में यमपुर के निकट पहुँचने पर वह प्रेत बहुभीतिपुर में जाकर हाथ भर माप के अपने शरीर को छोड़ देता है। हे पक्षी! पुन: कर्म भोग के लिए अंगुष्ठ मात्र के वायुस्वरुप यातना देह को प्राप्त करके वह यमदूतों के साथ जाता है।

हे कश्यपात्मज जिन्होंने और्ध्वदैहिक मरणकालिक दान नहीं दिए हैं, वे यमदूतों के द्वारा दृढ़ बन्धनों से बँधे हुए अत्यन्त कष्ट से यमपुर को जाते हैं।

हे आकाशगामी धर्मराजपुर में चार द्वार है, जिनमें से दक्षिण द्वार के मार्ग का तुमसे वर्णन कर दिया। इस महान भयंकर मार्ग में भूख-प्यास और श्रम से दु:खी जीव जिस प्रकार जाते हैं, वह सब मैंने बतला दिया। अब और क्या सुनना चाहते हो।

।।इस प्रकार गरुड़ पुराण के अन्तर्गत सारोद्वार में “यममार्गनिरुपण” नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ।।

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) तीसरा अध्याय 

गरुड़ उवाच गरुड़ जी ने कहा हे केशव यम मार्ग की यात्रा पूरी कर के यम के भवन में जाकर पापी किस प्रकार की यातना को भोगता है ? वह मुझे बतलाइए।

श्रीभगवानुवाच

श्री भगवान बोले हे विनता के पुत्र गरुड़् मैं नरक यातना को आदि से अन्त तक कहूँगा, सुनो। मेरे द्वारा नरक का वर्णन किये जाने पर उसे सुनने मात्र से ही तुम काँप उठोगे। हे कश्यप नन्दन बहुभीतिपुर के आगे चौवालीस योजन में फैला हुआ धर्मराज का विशाल पुर है। हाहाकार से परिपूर्ण उस पुर को देखकर पापी क्रन्दन करने लगता है। उसके क्रन्दन को सुनकर यमपुर में विचरण करने वाले यम के गण प्रतिहार (द्वारपाल) के पास जाकर उस पापी के विषय में बताते हैं। धर्मराज के द्वार पर सर्वदा धर्मध्वज नामक प्रतीहार (द्वारपाल) स्थित रहता है। वह द्वारपाल जाकर चित्रगुप्त से उस प्राणी के शुभ और अशुभ कर्म को बताता है।

उसके बाद चित्रगुप्त भी उसके विषय में धर्मराज से निवेदन करते हैं। हे तार्क्ष्य जो नास्तिक और महापापी प्राणी हैं, उन सभी के विषय में धर्मराज यथार्थ रूप से भली भाँति जानते हैं। तो भी वे चित्रगुप्त से उन प्राणियों के पाप के विषय में पूछते हैं और सर्वज्ञ चित्रगुप्त भी श्रवणों से पूछते हैं। श्रवण ब्रह्मा के पुत्र हैं। वे स्वर्ग, पृथ्वी तथा पाताल में विचरण करने वाले तथा दूर से ही सुन एवं जान लेने वाले हैं। उनके नेत्र सुदूर के दृश्यों को भी देख लेने वाले हैं। श्रवणी नाम की उनकी पृथक-पृथक पत्नियाँ भी उसी प्रकार के स्वरूप वाली हैं अर्थात श्रवणों के समान ही हैं। वे स्त्रियों की सभी प्रकार की चेष्टाओं को तत्वत: जानती हैं।

मनुष्य छिपकर अथवा प्रत्यक्ष रूप से जो कुछ करता और कहता है, वह सब मनुष्य के मानसिक, वाचिक और कायिक सभी प्रकार के शुभ और अशुभ कर्मों को ठीक-ठीक जानते हैं। मनुष्य और देवताओं के अधिकारी वे श्रवण और श्रवणियाँ सत्यवादी हैं। उनके पास ऎसी शक्ति है, जिसके बल पर वे मनुष्यकृत कर्मों को बतलाते हैं। व्रत, दान और सत्य वचन से जो मनुष्य उन्हें प्रसन्न करता है, उसके प्रति वे सौम्य तथा स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाले हो जाते हैं। वे सत्यवादी श्रवण पापियों के पाप कर्मों को जानकर धर्मराज के सम्मुख यथावत कह देने के कारण पापियों के लिए दु:खदायी हो जाते हैं।

सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, आकाश, भूमि, जल, हृदय, यम, दिन, रात, दोनों संध्याएँ और धर्म ये सभी मनुष्य के वृत्तान्त को जानते हैं। धर्मराज, चित्रगुप्त, श्रवण और सूर्य आदि मनुष्य के शरीर में स्थित सभी पाप और पुण्यों को पूर्णतया देखते हैं। इस प्रकार पापियों के पाप के विषय में सुनिश्चित जानकारी प्राप्त करके यम उन्हें बुलाकर अपना अत्यन्त भयंकर रूप दिखाते हैं। वे पापी यम के ऎसे भयंकर रूप को देखते हैं जो हाथ में दण्ड लिये हुए, बहुत बड़ी काया वाले, भैंसे के ऊपर संस्थित, प्रलयकालीन मेघ के समान आवाज वाले, काजल के पर्वत के समान, बिजली की प्रभाव वाले, आयुधों के कारण भयंकर, बत्तीस भुजाओं वाले,

तीन योजन के लम्बे चौड़े विस्तार वाले, बावली के समान गोल नेत्र वाले, बड़ी-बड़ी दाढ़ो के कारण भयंकर मुख वाले, लाल-लाल आँखों वाले और लम्बी नाक वाले हैं। मृत्यु और ज्वर आदि से संयुक्त होने के कारण चित्रगुप्त भी भयावह हैं। यम के समान भयानक सभी दूत उनके समीप पापियों को डराने के लिए गरजते रहते हैं। उन चित्रगुप्त को देखकर भयभीत होकर पापी हाहाकार करने लगता है। दान न करने वाला वह पापात्मा काँपता है और बार-बार विलाप करता है। तब चित्रगुप्त यम की आज्ञा से क्रन्दन करते हुए और अपने पाप कर्मों के विषय में सोचते हुए उन सभी प्राणियों से कहते हैं।

अरे पापियों दुराचारियों अहंकार से दूषितो तुम अविवेकियों ने क्यों पाप कमाया है ? काम से, क्रोध से तथा पापियों की संगति से जो पाप तुमने किया है, वह दु:ख देने वाला है, फिर हे मूर्खजनों तुमने वह पापकर्म क्यों किया ? पूर्वजन्म में तुम लोगों ने जिस प्रकार अत्यन्त हर्षपूर्वक पाप कर्मों को किया है, उसी प्रकार यातना भी भोगनी चाहिए। इस समय यातना भोगने से क्यों पराड्मुख हो रहे हो ? तुम लोगों ने जो बहुत – से पाप किये हैं, वे पाप ही तुम्हारे दु:ख के कारण हैं। इसमें हम लोग कारण नहीं हैं। मूर्ख हो या पण्डित, दरिद्र हो या धनवान और सबल हो या निर्बल यमराज सभी से समान व्यवहार करने वाले कहे गये हैं।

चित्रगुप्त के इस प्रकार के वचनों को सुनकर वे पापी अपने कर्मों के विषय में सोचते हुए निश्चेष्ट होकर चुपचाप बैठ जाते हैं। धर्मराज भी चोर की भाँति निश्चल बैठे हुए उन पापियों को देखकर उनके पापों का मार्जन करने के लिए यथोचित दण्ड देने की आज्ञा करते हैं। इसके बाद वे निर्दयी दूत उन्हें पीटते हुए कहते हैं हे पापी महान घोर और अत्यन्त भयानक नरकों में चलो। यम के आज्ञाकारी प्रचण्ड और चण्डक आदि नाम वाले दूत एक पाश से उन्हें बाँधकर नरक की ओर ले जाते हैं। वहाँ जलती हुई अग्नि के समान प्रभा वाला एक विशाल वृक्ष है, जो पाँच योजन में फैला हुआ है तथा एक योजन ऊँचा है।

उस वृक्ष में नीचे मुख करके उसे साँकलों से बाँधकर वे दूत पीटते हैं। वहाँ जलते हुए वे रोते हैं, पर वहाँ उनका कोई रक्षक नहीं होता। उसी शाल्मली वृक्ष में भूख और प्यास से पीड़ित तथा यमदूतों द्वारा पीटे जाते हुए अनेक पापी लटकते रहते हैं। वे आश्रयविहीन पापी अंजलि बाँधकर ‘हे यमदूतों मेरे अपराध को क्षमा कर दो’, ऎसा उन दूतों से निवेदन करते हैं। बार-बार लोहे की लाठियों, मुद्गरों, भालों और बर्छियों, गदाओं और मूसलों से उन दूतों के द्वारा वे अत्यधिक मारे जाते हैं। मारने से जब वे चेष्टारहित और मूर्छित हो जाते हैं, तब उन निष्चेष्ट पापियों को देखकर यम के दूत कहते हैं।

अरे दुराचारियों पापियों तुम लोगों ने दुराचरण क्यों किया। सुलभ होने वाले भी जल और अन्न का दान कभी क्यों नहीं दिया ? तुम लोगों ने आधा ग्रास भी कभी किसी को नहीं दिया और न ही कुत्ते तथा कौए के लिए बलि ही दी। अतिथि को नमस्कार नहीं किया और पितरों का तर्पण नहीं किया। यमराज तथा चित्रगुप्त का उत्तम ध्यान भी नहीं किया और उनके मन्त्रों का जप नहीं किया, जिससे तुम्हें यह यातना नहीं होती। कभी कोई तीर्थ यात्रा नहीं की, देवताओं की पूजा भी नहीं की। गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी तुमने हन्तकार नहीं निकाला।

संतों की सेवा की नहीं, इसलिए अब स्वयं किये गये पाप का फल भोगों। चूंकि तुम धर्महीन हो, इसलिए तुम्हें बहुत अधिक पीटा जा रहा है। भगवान हरि ही ईश्वर है, वे ही अपराधियों को क्षमा करने में समर्थ हैं, हम तो उन्हीं की आज्ञा से अपराधियों को दण्ड देने वाले हैं। ऎसा कहकर वे दूत निर्दयतापूर्वक उन्हें पीटते हैं और उनसे पीटे जाने के कारण वे जलते हुए अंगार के समान नीचे गिर जाते हैं। गिरने से उस शाल्मली वृक्ष के पत्तों से उनका शरीर कट जाता है। नीचे गिरे हुए उन प्राणियों को कुत्ते खाते हैं और वे रोते हैं। रोते हुए उन पापियों के मुख में यमदूत धूल भर देते हैं तथा कुछ पापियों को विविध पाशों से बाँधकर मुद्गरों से पीटते हैं।

कुछ पापी आरे से काष्ठ की भाँति दो टुकड़ो में किये जाते हैं और कुछ भूमि पर गिराकर कुल्हाड़ी से खण्ड-खण्ड किये जाते हैं। कुछ को गड्ढे में आधा गाड़कर सिर में बाणों से भेदन किया जाता है। कुछ दूसरे पेरने वाले यन्त्र में डालकर इक्षुदण्ड (गन्ने) की भाँति पेरे जाते हैं। कुछ को चारों ओर से जलते हुए अंगारों से युक्त उल्मुक (जलती हुई लकड़ी) से ढक करके लौहपिण्ड की भाँति धधकाया जाता है। कुछ को घी के खौलते हुए कड़ाही में, कुछ को तेल के कड़ाहे में तले जाते हुए बड़े की भाँति इधर-उधर चलाया जाता है। किन्हीं को मतवाले गजेन्द्रों के सम्मुख रास्ते में फेंक दिया जाता है, किन्हीं को हाथ और पैर बाँधकर अधोमुख लटकाया जाता है।

किन्हीं को कुएँ में फेंका जाता है, किन्हीं को पर्वतों से गिराया जाता है, कुछ दूसरे कीड़ो से युक्त कुण्डों में डुबो दिये जाते हैं, जहाँ वे कीड़ो के द्वारा व्यथित होते हैं। कुछ पापी वज्र के समान चोंच वाले बड़े-बड़े कौओं, गीधों और मांसभोजी पक्षियों द्वारा शिरो देश में, नेत्र में और मुख में चोंचों से आघात करके नोंचे जाते हैं। कुछ दूसरे पापियों से ऋण को वापस करने की प्रार्थना करते हुए कहते हैं ‘मेरा धन दो, मेरा धन दो। यमलोक में मैंने तुम्हें देख लिया है, मेरा धन तुम्हीं ने लिया है’ नरक में इस प्रकार विवाद करते हुए पापियों के अंगों से संडासियों द्वारा माँस नोचकर यमदूत उन्हें देते हैं।

इस प्रकार उन पापियों को सम्यक प्रताड़ित करके यम की आज्ञा से यमदूत खींचकर तामिस्त्र आदि घोर नरकों में फेंक देते हैं। उस वृक्ष के समीप में ही बहुत दु:खों से परिपूर्ण नरक है, जिनमें प्राप्त होने वाले महान दु:खों का वर्णन वाणी से नहीं किया जा सकता। हे आकाशचारिन गरुड़! नरकों की संख्या चौरासी लाख है, उनमें से अत्यन्त भयंकर और प्रमुख नरकों की संख्या इक्कीस है। तामिस्त्र, लोहशंकु, महारौरव, शाल्मली, रौरव, कुड्मल, कालसूत्रक, पूतिमृत्तिक, संघात, लोहितोद, सविष, संप्रतापन, महानिरय, काकोल, संजीवन, महापथ, अवीचि, अन्धतामिस्त्र, कुम्भीपाक, सम्प्रतापन तथा तपन ये इक्कीस नरक हैं अनेक प्रकार के पापों का फल इनमें प्राप्त होता है और ये यम के दूतों से अधिष्ठित हैं।

इन नरकों में गिरे हुए मूर्ख, पापी, अधर्मी जीव कल्पपर्यन्त उन-उन नरक-यातनाओं को भोगते हैं। तामिस्त्र और अन्धतामिस्त्र तथा रौरवादि नरकों की जो यातनाएँ हैं, उन्हें स्त्री और पुरुष पारस्परिक संग से निर्मितकर भोगते हैं। इस प्रकार कुटुम्ब का भरण-पोषण करने वाला अथवा केवल अपना पेट भरने वाला भी यहाँ कुटुम्ब और शरीर दोनों को छोड़कर मृत्यु के अनन्तर इस प्रकार का फल भोगता है। प्राणियों के साथ द्रोह करके भरण-पोषण किये गये अपने स्थूल शरीर को यहीं छोड़कर पापकर्म रूपी पाथेय के साथ पापी अकेला ही अंधकारपूर्ण नरक में जाता है। जिसका द्रव्य चोरी चला गया है

ऎसे व्यक्ति की भाँति पापी पुरुष दैव से प्राप्त अधर्मपूर्वक कुटुम्ब पोषण के फल को नरक में आतुर होकर भोगता है। केवल अधर्म से कुटुम्ब के भरण-पोषण के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति अंधकार की पराकाष्ठा अन्धतामिस्त्र नामक नरक में जाता है। मनुष्यलोक के नीचे नरकों की जितनी यातनाएँ हैं, क्रमश: उनका भोग भोगते हुए वह पापी शुद्ध होकर पुन: इस मर्त्यलोक में जन्म पाता है।

।। इस प्रकार गरुड़पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में नर्क प्रदान करने वाले पाप कर्म नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ।।

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) चौथा अध्याय 

नरक प्रदान करने वाले पाप कर्म 

गरुड़ उवाच

गरुड़ जी ने कहा हे केशव किन पापों के कारण पापी मनुष्य यमलोक के महामार्ग में जाते हैं और किन पापों से वैतरणी में गिरते हैं तथा किन पापों के कारण नरक में जाते हैं? वह मुझे बताइए।

श्रीभगवानुवाच 

श्रीभगवान बोले सदा पापकर्मों में लगे हुए, शुभ कर्म से विमुख प्राणी एक नरक से दूसरे नरक को, एक दु:ख के बाद दूसरे दु:ख को तथा एक भय के बाद दूसरे भय को प्राप्त होते हैं। धार्मिक जन धर्मराजपुर में तीन दिशाओं में स्थित द्वारों से जाते हैं और पापी पुरुष दक्षिण-द्वार के मार्ग से ही वहाँ जाते हैं। इसी महादु:खदायी दक्षिण मार्ग में वैतरणी नदी है, उसमें जो पापी पुरुष जाते हैं, उन्हें मैं तुम्हें बताता हूँ – जो ब्राह्मणों की हत्या करने वाले, सुरापान करने वाले, गोघाती, बाल हत्यारे, स्त्री की हत्या करने वाले, गर्भपात करने वाले और गुप्तरूप से पाप करने वाले हैं,

जो गुरु के धन को हरण करने वाले, देवता अथवा ब्राह्मण का धन हरण करने वाले, स्त्रीद्रव्यहारी, बालद्रव्यहारी हैं, जो ऋण लेकर उसे न लौटानेवाले, धरोहर का अपहरण करने वाले, विश्वासघात करने वाले, विषान्न देकर मार डालने वाले, दूसरे के दोष को ग्रहण करने वाले, गुणों की प्रशंसा ना करने वाले, गुणवानों के साथ डाह रखने वाले, नीचों के साथ अनुराग रखने वाले, मूढ़, सत्संगति से दूर रहने वाले हैं, जो तीर्थों, सज्जनों, सत्कर्मों, गुरुजनों और देवताओं की निन्दा करने वाले हैं, पुराण, वेद, मीमांसा, न्याय और वेदान्त को दूषित करने वाले हैं।

दु:खी व्यक्ति को देखकर प्रसन्न होने वाले, प्रसन्न को दु:ख देने वाले, दुर्वचन बोलने वाले तथा सदा दूषित चित्तवृत्ति वाले हैं। जो हितकर वाक्य और शास्त्रीय वचनों को कभी न सुनने वाले, अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने वाले, घमण्डी, मूर्ख होते हुए अपने को विद्वान समझने वाले हैं – ये तथा अन्य बहुत पापों का अर्जन करने वाले अधर्मी जीव रात-दिन रोते हुए यममार्ग में जाते हैं। यमदूतों के द्वारा पीटे जाते हुए वे पापी वैतरणी की ओर जाते हैं और उसमें गिरते हैं, ऎसे उन पापियों के विषय में मैं तुम्हें बताता हूँ जो माता, पिता, गुरु, आचार्य तथा पूज्यजनों को अपमानित करते हैं, वे मनुष्य वैतरणी में डूबते हैं।

जो पुरुष पतिव्रता, सच्चरित्र, उत्तम कुल में उत्पन्न, विनय से युक्त स्त्री को द्वेष के कारण छोड़ देते हैं, वे वैतरणी में पड़ते हैं। जो हजारों गुणों के होने पर भी सत्पुरुषों में दोष का आरोपण करते हैं और उनकी अवहेलना करते हैं, वे वैतरणी में पड़ते हैं। वचन दे करके जो ब्राह्मण को यथार्थ रूप में दान नहीं देता है और बुला करके जो व्यक्ति “नहीं है” ऎसा कहता है, वे दोनों सदा वैतरणी में निवास करते हैं। स्वयं दी हुई वस्तु का जो अपहरण कर लेता है, दान देकर पश्चात्ताप करता है, जो दूसरे की आजीविका का हरण कर लेता है, दान देने से रोकता है, यज्ञ का विध्वंस करता है, कथा-भंग करता है, क्षेत्र की सीमा का हरण कर लेता है और गोचर भूमि को जोतता है, वह वैतरणी में पड़ता है।

ब्राह्मण होकर रसविक्रय करने वाला, वृषली का पति (शूद्र स्त्री का ब्राह्मण पति), वेद प्रतिपादित यज्ञ के अतिरिक्त अपने लिए पशुओं की हत्या करने वाला, ब्रह्मकर्म से च्युत, मांसभोजी, मद्य पीने वाला, उच्छृंखल स्वभाव वाला, शास्त्र अध्ययन से रहित (ब्राह्मण), वेद पढ़ने वाला शूद्र, कपिला का दूध पीने वाला शूद्र, यज्ञोपवीत धारण करने वाला शूद्र, ब्राह्मणी का पति बनने वाला शूद्र, राजमहिषी के साथ व्यभिचार करने वाला, परायी स्त्री का अपहरण करने वाला, कन्या के साथ कामाचार की इच्छा रखने वाला तथा जो सतीत्व नष्ट करने वाला है। ये सभी तथा इसी प्रकार और भी बहुत निषिद्धाचरण करने में उत्सुक तथा शास्त्रविहित कर्मों को त्याग वाले वे मूढ़जन वैतरणी में गिरते हैं।

सभी मार्गों को पार करके पापी यम के भवन में पहुँचते हैं और पुन: यम की आज्ञा से आकर दूत लोग उन्हें वैतरणी में फेंक देते हैं। हे खगराज! यह वैतरणी नदी कष्ट प्रदान करने वाले सभी प्रमुख नरकों में सर्वाधिक कष्टप्रद है। इसलिए यमदूत पापियों को उस वैतरणी में फेंकते हैं। जिसने अपने जीवनकाल में कृष्णा (काली) गाय का दान नहीं किया अथवा मृत्यु के पश्चात जिसके उद्देश्य से बान्धवों द्वारा कृष्णा गौ नहीं दी गई तथा जिसने अपनी और्ध्वदैहिक क्रिया नहीं कर ली या जिसके उद्देश्य से और्ध्वदैहिक क्रिया नहीं की गई हो, वे वैतरणी में महान दु:ख भोग करके वैतरणी तटस्थित शाल्मली-वृक्ष में जाते हैं।

जो झूठी गवाही देने वाले, धर्म पालन का ढोंग करने वाले, छल से धन का अर्जन करने वाले, चोरी द्वारा आजीविका चलाने वाले, अत्यधिक वृक्षों को काटने वाले, वन और वाटिका को नष्ट करने वाले, व्रत तथा तीर्थ का परित्याग करने वाले, विधवा के शील को नष्ट करने वाले हैं। जो स्त्री अपने पति को दोष लगाकर परपुरुष में आसक्त होने वाली है ये सभी और इस प्रकार के अन्य पापी भी शाल्मली वृक्ष द्वारा बहुत ताड़ना प्राप्त करते हैं। पीटने से नीचे गिरे हुए उन पापियों को यमदूत नरकों में फेंकते हैं। उन नरकों में जो पापी गिरते हैं, उनके विषय में मैं तुम्हें बतलाता हूँ

वेद की निन्दा करने वाले नास्तिक, मर्यादा का उल्लंघन करने वाले, कंजूस, विषयों में डूबे रहने वाले, दम्भी तथा कृतघ्न मनुष्य निश्चय ही नरकों में गिरते हैं। जो कुंआ, तालाब, बावली, देवालय तथा सार्वजनिक स्थान, धर्मशाला आदि – को नष्ट करते हैं, वे निश्चय ही नरक में जाते हैं। स्त्रियों, छोटे बच्चों, नौकरों तथा श्रेष्ठजनों को छोड़कर एवं पितरों और देवताओं की पूजा का परित्याग करके जो भोजन करते हैं, वे नरकगामी होते हैं। जो मार्ग को कीलों से, पुलों से, लकड़ियों से तथा पत्थरों एवं काँटों से रोकते हैं, निश्चय ही वे नरकगामी होते हैं।

जो मन्द पुरुष भगवान शिव, भगवती शक्ति, नारायण, सूर्य, गणेश, सद्गुरु और विद्वान इनकी पूजा नहीं करते, वे नरक में जाते हैं। दासी को अपनी शय्या पर आरोपित करने से ब्राह्मण अधोगति को प्राप्त होता है और शूद्र में संतान उत्पन्न करने से वह ब्राह्मणत्व से ही च्युत हो जाता है। वह ब्राह्मण कभी भी नमस्कार के योग्य नहीं होता। जो मूर्ख ऎसे ब्राह्मण की पूजा करते हैं, वे नरकगामी होते हैं। दूसरों के कलह से प्रसन्न होने वाले जो मनुष्य ब्राह्मणों के कलह तथा गौओं की लड़ाई को नहीं रुकवाते हैं (प्रत्युत ऎसा देखकर प्रसन्न होते हैं) अथवा उसका समर्थन करते हैं, बढ़ावा देते हैं, वे अवश्य ही नरक में जाते हैं।

जिसका कोई दूसरा शरण नहीं है, ऎसी पतिपरायणा स्त्री के ऋतुकाल की द्वेषवश उपेक्षा करने वाले निश्चित ही नरकगामी होते हैं। जो कामान्ध पुरुष रजस्वला स्त्री से गमन करते हैं अथवा पर्व के दिनों (अमावस्या, पूर्णिमा आदि) में, जल में, दिन में तथा श्राद्ध के दिन कामुक होकर स्त्रीसंग करते हैं, वे नरकगामी होते हैं। जो अपने शरीर के मल को आग, जल, उपवन, मार्ग अथवा गोशाला में फेंकते हैं, वे निश्चित ही नरक में जाते हैं। जो हथियार बनाने वाले, बाण और धनुष का निर्माण करने वाले तथा इनका विक्रय करने वाले हैं, वे नरकगामी होते हैं।

चमड़ा बेचने वाले वैश्य, केश (योनि) का विक्रय करने वाली स्त्रियाँ तथा विष का विक्रय करने वाले ये सभी नरक में जाते हैं। जो अनाथ के ऊपर कृपा नहीं करते हैं, सत्पुरुषों से द्वेष करते हैं और निरपराध को दण्ड देते हैं, वे नरकगामी होते हैं। आशा लगाकर घर पर आये हुए ब्राह्मणों और याचकों को पाकसम्पन्न रहने पर भी जो भोजन नहीं कराते, वे निश्चय ही नरक प्राप्त करने वाले होते हैं। जो सभी प्राणियों में विश्वास नहीं करते और उन पर दया नहीं करते तथा जो सभी प्राणियों के प्रति कुटिलता का व्यवहार करते हैं, वे निश्चय ही नरकगामी होते हैं। जो अजितेन्द्रिय पुरुष नियमों को स्वीकार कर के बाद में उन्हें त्याग देते हैं, वे नरकगामी होते हैं।

जो अध्यात्म विद्या प्रदान करने वाले गुरु को नहीं मानते और जो पुराणवक्ता को नहीं मानते, वे नरक में जाते हैं। विवाह को भंग करने वाला, देव यात्रा में विघ्न करने वाला तथा तीर्थयात्रियों को लूटने वाला घोर नरक में वास करता है और वहाँ से उसका पुनरावर्तन नहीं होता। जो महापापी घर, गाँव तथा जंगल में आग लगाता है, यमदूत उसे ले जाकर अग्निकुण्डों में पकाते हैं। इस अग्नि में जले हुए अंगवाला वह पापी जब छाया की याचना करता है तो यमदूत उसे असिपत्र नामक वन में ले जाते हैं। जहाँ तलवार के समान तीक्ष्ण पत्तों से उसके अंग जब कट जाते हैं तब यमदूत उससे कहते हैं

रे पापी शीतल छाया में सुख की नींद सो।। जब वह प्यास से व्याकुल होकर जल पीने की इच्छा से पानी माँगता है तो दूतों के द्वारा उसे खौलता हुआ तेल पीने के लिये दिया जाता है। “पानी पीयो और अन्न खाओ” ऎसा उस समय उनके द्वारा कहा जाता है। उस अति उष्ण तेल के पीते ही उनकी आँतें जल जाती हैं और वे गिर पड़ते हैं। किसी प्रकार पुन: उठकर अत्यन्त दीन की भाँति प्रलाप करते हैं। विवश होकर ऊर्ध्व श्वास लेते हुए वे कुछ कहने में भी समर्थ नहीं होते।। हे तार्क्ष्य इस प्रकार की पापियों की बहुत सी यातनाएँ बतायी गई हैं। विस्तारपूर्वक इन्हें कहने की क्या आवश्यकता ? इनके संबंध में सभी शास्त्रों में कहा गया है।

इस प्रकार हजारों नर-नारी नारकीय यातना को भोगते हुए प्रलयपर्यन्त घोर नरकों में पकते रहते हैं। उस पाप का अक्षय फल भोगकर पुन: वहीं पैदा होते हैं और यम की आज्ञा से पृथ्वी पर आकर स्थावर आदि योनियों को प्राप्त करते हैं। वृक्ष, गुल्म, लता, वल्ली, गिरि (पर्वत) तथा तृण आदि ये स्थावर योनियाँ कही गई हैं, ये अत्यन्त मोह से आवृत हैं। कीट, पशु-पक्षी, जलचर तथा देव इन योनियों को मिलाकर चौरासी लाख योनियाँ कही गई हैं। इन सभी योनियों में घूमते हुए जब जीव मनुष्य योनि प्राप्त करते हैं और मनुष्य योनि में भी नरक से आये व्यक्ति चाण्डाल के घर जन्म लेते हैं तथा उसमें भी कुष्ठ आदि पाप चिह्नों से वे बहुत दु:खी रहते हैं।

किसी को गलित कुष्ठ हो जाता है, कोई जन्म से अन्धे होते हैं और कोई महारोग से व्यथित होते हैं। इस प्रकार पुरुष और स्त्री में पाप के चिह्न दिखाई पड़ते हैं।

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) पाँचवा अध्याय 

गरुड़ उवाच 

गरुड़ जी ने कहा हे केशव जिस-जिस पाप से जो-जो चिह्न प्राप्त होते हैं और जिन-जिन योनियों में जीव जाते हैं, वह मुझे बताइए।

श्रीभगवानुवाच

श्रीभगवान ने कहा नरक से आये हुए पापी जिन पापों के द्वारा जिस योनि में आते हैं और जिस पाप से जो चिह्न होता है, वह मुझसे सुनो। ब्रह्महत्यारा क्षय रोगी होता है, गाय की हत्या करने वाला मूर्ख और कुबड़ा होता है। कन्या की हत्या करने वाला कोढ़ी होता है और ये तीनों पापी चाण्डाल योनि प्राप्त करते हैं. स्त्री की हत्या करने वाला तथा गर्भपात कराने वाला पुलिन्द(भिल्ल) होकर रोगी होता है। परस्त्रीगमन करने वाला नपुंसक और गुरु पत्नी के साथ व्यभिचार करने वाला चर्म रोगी होता है। मांस का भोजन करने वाले का अंग अत्यन्त लाल होता है, मद्य पीने वाले के दाँत काले होते हैं, लालचवश अभक्ष्य भक्षण करने वाले ब्राह्मण को महोदर रोग होता है।

जो दूसरे को दिये बिना मिष्टान्न खाता है, उसे गले में गण्डमाला रोग होता है, श्राद्ध में अपवित्र अन्न देने वाला श्वेतकुष्ठी होता है। गर्व से गुरु का अपमान करने वाला मनुष्य मिरगी का रोगी होता है। वेदशास्त्र की निन्दा करने वाला निश्चित ही पाण्डुरोगी होता है। झूठी गवाही देने वाला गूँगा, पंक्तिभेद करने वाला काना, विवाह में विघ्न करने वाला व्यक्ति ओष्ठ रहित और पुस्तक चुराने वाला जन्मान्ध होता है गाय और ब्राह्मण को पैर से मारने वाला लूला-लंगड़ा होता है, झूठ बोलने वाला हकलाकर बोलता है तथा झूठी बात सुनने वाला बहरा होता है। विष देने वाला मूर्ख और उन्मत्त (पागल) तथा आग लगाने वाला खल्वाट (गंजा) होता है। पल (माँस) बेचने वाला अभागा और दूसरे का मांस खाने वाला रोगी होता है।

रत्नों का अपहरण करने वाला हीन जाति में उत्पन्न होता है, सोना चुराने वाला नखरोगी और अन्य धातुओं को चुराने वाला निर्धन होता है। अन्न चुराने वाला चूहा और धान चुराने वाला शलभ (टिड्डी) होता है। जल की चोरी करने वाला चातक और विष का व्यवहार करने वाला वृश्चिक (बिच्छू) होता है। शाक-पात चुराने वाला मयूर होता है, शुभ गन्धवाली वस्तुओं को चुराने वाला छुछुन्दरी होता है, मधु चुराने वाला डाँस, मांस चुराने वाला गीध और नमक चुराने वाला चींटी होता है। ताम्बूल, फल तथा पुष्प आदि की चोरी करने वाला वन में बंदर होता है। जूता, घास तथा कपास को चुराने वाला भेड़ योनि में उत्पन्न होता है।

जो रौद्र कर्मों (क्रूरकर्मों) से आजीविका चलाने वाला है, मार्ग में यात्रियों को लूटता है और जो आखेट का व्यसन रखने वाला, वह कसाई के घर का बकरा होता है। विष पीकर मरने वाला पर्वत पर काला नाग होता है। जिसका स्वभाव अमर्यादित है, वह निर्जन वन में हाथी होता है। बलिवैश्वदेव न करने वाले तथा सब कुछ खा लेने वाले द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) और बिना परीक्षण किये भोजन कर लेने वाले व्यक्ति निर्जन वन में व्याघ्र होते हैं। जो ब्राह्मण गायत्री का स्मरण नहीं करता और जो संध्योपासना नहीं करता, जिसका अन्त:स्वरुप दूषित तथा बाह्य स्वरूप साधु की तरह प्रतीत होता है, वह ब्राह्मण बगुला होता है।

जिनको यज्ञ नहीं करना चाहिए, उनके यहाँ यज्ञ कराने वाला ब्राह्मण गाँव का सूअर होता है, क्षमता से अधिक यज्ञ कराने वाला गर्दभ तथा बिना आमंत्रण के भोजन करने वाला कौआ होता है। जो सत्पात्र शिष्य को विद्या नहीं प्रदान करता, वह ब्राह्मण बैल होता है। गुरु की सेवा न करने वाला शिष्य बैल और गधा होता है। गुरु के प्रति अपमान के तात्पर्य से हुं या तुं शब्दों का उच्चारण करने वाला और वाद-विवादों में ब्राह्मण को पराजित करने वाला जल विहीन अरण्य में ब्रह्म राक्षस होता है। प्रतिज्ञा करके द्विज को दान न देनेवाला सियार होता है। सत्पुरुषों का अनादर करने वाला व्यक्ति अग्निमुख सियार होता है।

मित्र से द्रोह करने वाला पर्वत का गीध होता है और क्रय में धोखा देने वाला उल्लू होता है। वर्णाश्रम की निन्दा करने वाला वन में कपोत होता है। आशा को तोड़ने वाला और स्नेह को नष्ट करने वाला, द्वेष वश स्त्री का परित्याग कर देने वाला बहुत काल तक चक्रवाक (चकोर) होता है। माता-पिता, गुरु से द्वेष करने वाला तथा बहन और भाई से शत्रुता करने वाला हजारों जन्मों तक गर्भ में या योनि में नष्ट होता रहता है। सास-ससुर को अपशब्द कहने वाली स्त्री तथा नित्य कलह करने वाली स्त्री जलौका अर्थात जल जोंक होती है और पति की भर्त्सना करने वाली नारी जूँ होती है। अपने पति का परित्याग करके परपुरुष का सेवन करने वाली स्त्री वल्गुनी (चमगादड़ी), छिपकली अथवा दो मुँह वाली सर्पिणी होती है।

सगोत्र की स्त्री के साथ संबंध बनाकर अपने गोत्र को विनष्ट करने वाला तरक्ष (लकड़बग्घा) और शल्लक(साही) होकर रीछ योनि में जन्म लेता है। तापसी के साथ व्यभिचार करने वाला कामी पुरुष मरु प्रदेश में पिशाच होता है और अप्राप्त यौवन से संबंध करने वाला वन में अजगर होता है। गुरु पत्नी के साथ गमन की इच्छा रखने वाला मनुष्य कृकलास (गिरगिट) होता है। राजपत्नी के साथ गमन करने वाला ऊँट तथा मित्र की पत्नी के साथ गमन करने वाला गधा होता है। गुदा गमन करने वाला विष्ठा भोगी सूअर तथा शूद्रागामी बैल होता है। जो महाकामी होता है, वह काम लम्पट घोड़ा होता है। किसी के मरणाशौच में एकादशाह तक भोजन करने वाला कुत्ता होता है।

देवद्रव्य भोक्ता देवलक ब्राह्मण मुर्गे की योनि प्राप्त करता है। जो ब्राह्मण द्रव्यार्जन के लिये देवता की पूजा करता है, वह देवलक कहलाता है। वह देवकार्य तथा पितृकार्य के लिये निन्दनीय है। महापातक से प्राप्त अत्यन्त घोर एवं दारुण नरकों का भोग प्राप्त करके महापातकी व्यक्ति कर्म के क्षय होने पर पुन: इस मर्त्य लोक में जन्म लेते हैं। ब्रह्महत्यारा गधा, ऊँट और महिषी की योनि प्राप्त करता है तथा सुरापान करने वाला भेड़िया, कुत्ता एवं सियार की योनि में जाते हैं। स्वर्ण चुराने वाला कृमि, कीट तथा पतंग कि योनि प्राप्त करता है। गुरु पत्नी के साथ गमन करने वाला क्रमश: तृण, गुल्म तथा लता होता है।

परस्त्री का हरण करने वाला, धरोहर का हरण करने वाला तथा ब्राह्मण के धन का अपहरण करने वाला ब्रह्मराक्षस होता है। ब्राह्मण का धन कपट-स्नेह से खानेवाला सात पीढ़ियों तक अपने कुल का विनाश करता है और बलात्कार तथा चोरी के द्वारा खाने पर जब तक चन्द्रमा और तारकों की स्थिति होती है, तब तक वह अपने कुल को जलाता है। लोहे और पत्थरों के चूर्ण तथा विष को व्यक्ति पचा सकता है, पर तीनों लोकों में ऎसा कौन व्यक्ति है, जो ब्रह्मस्व (ब्राह्मण के धन) को पचा सकता है? ब्राह्मण के धन से पोषित की गयी सेना तथा वाहन युद्ध काल में बालू से बने सेतु बाँध के समान नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं।

देवद्रव्य का उपभोग करने से अथवा ब्रह्मस्वरुप का हरण करने से ब्राह्मण का अतिक्रमण करने से कुल पतित हो जाते हैं। अपने आश्रित वेद परायण ब्राह्मण को छोड़कर अन्य ब्राह्मण को दान देना ब्राह्मण का अतिक्रमण करना कहलाता है। वेदवेदांग के ज्ञान से रहित ब्राह्मण को छोड़ना अतिक्रमण नहीं कहलाता है, क्योंकि जलती हुई आग को छोड़कर भस्म में आहुति नहीं दी जाती। हे तार्क्ष्य! ब्राह्मण का अतिक्रमण करने वाला व्यक्ति नरकों को भोगकर क्रमश: जन्मान्ध एवं दरिद्र होता है, वह कभी दाता नहीं बन सकता अपितु याचक ही रहता है। अपने द्वारा दी हुई अथवा दूसरे द्वारा दी गई पृथ्वी को जो छीन लेता है, वह साठ हजार वर्षों तक विष्ठा का कीड़ा होता है। जो स्वयं कुछ देकर पुन: स्वयं ले भी लेता है, वह पापी एक कल्प तक नरक में रहता है।

जीविका अथवा भूमि का दान देकर यत्नपूर्वक उसकी रक्षा करनी चाहिए, जो रक्षा नहीं करता प्रत्युत उसे हर लेता है, वह पंगु अर्थात लंगड़ा कुता होता है। ब्राह्मण को आजीविका देने वाला व्यक्ति एक लाख गोदान का फल प्राप्त करता है और ब्राह्मण की वृत्तिका हरण करने वाला बन्दर, कुत्ता तथा लंगूर होता है। हे खगेश्वर! प्राणियों को अपने कर्म के अनुसार लोक में पूर्वोक्त योनियाँ तथा शरीर पर चिह्न देखने को मिलते हैं। इस प्रकार दुष्कर्म करने वाले जीव नारकीय यातनाओं को भोगकर अवशिष्ट पापों को भोगने के लिये इन पूर्वोक्त योनियों में जाते हैं।

इसके बाद हजारों जन्मों तक तिर्यक (पशु-पक्षी) का शरीर प्राप्त करके वे बोझा ढोने आदि कार्यों से दु:ख प्राप्त करते हैं। फिर पक्षी बनकर वर्षा, शीत तथा आतप से दु:खी होते हैं। इसके बाद अन्त में जब पुण्य और पाप बराबर हो जाते हैं तब मनुष्य की योनि मिलती है। स्त्री-पुरुष के संबंध से वह गर्भ में उत्पन्न होकर क्रमश: गर्भ से लेकर मृत्यु तक के दु:ख प्राप्त करके पुन: मर जाता है। इस प्रकार सभी प्राणियों का जन्म और विनाश होता है। यह जन्म-मरण का चक्र चारों प्रकार की सृष्टि में चलता रहता है। मेरी माया से प्राणी रहट (घटी यन्त्र) की भाँति ऊपर-नीचे की योनियों में भ्रमण करते रहते हैं।

कर्मपाश बँधे रहकर कभी वे नरक में और कभी भूमि पर जन्म लेते हैं। दान न देने से प्राणी दरिद्र होता है। दरिद्र हो जाने पर फिर पाप करता है। पाप के प्रभाव से नरक में जाता है और नरक से लौटकर पुन: दरिद्र और पुन: पापी होता है। प्राणी के द्वारा किये गये शुभ और अशुभ कर्मों का फल भोग उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है, क्योंकि सैकड़ों कल्पों के बीत जाने पर भी बिना भोग के कर्म फल का नाश नहीं होता।

।।इस प्रकार गरुड़ पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में पापचिह्ननिरुपण नामक पाँचवां अध्याय पूर्ण हुआ।।

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) छठा अध्याय 

गरुड़ उवाच

गरुड़ जी ने कहा हे केशव नरक से आया हुआ जीव माता के गर्भ में कैसे उत्पन्न होता है? वह गर्भवास आदि के दु:खों को जिस प्रकार भोगता है, वह सब भी मुझे बताइए। विष्णुरुवाच भगवान विष्णु ने कहा स्त्री और पुरुष के संयोग से जैसे मनुष्य की उत्पत्ति होती है, उसे मैं तुम्हें कहूँगा। ऋतुकाल के आरंभ के तीन दिनों तक इन्द्र को लगी ब्रह्महत्या का चतुर्थांश रजस्वला स्त्रियों में रहता है, उस ऋतुकाल के मध्य में किये गये गर्भाधान के फलस्वरुप पापात्माओं के देह की उत्पत्ति होती है। रजस्वला स्त्री प्रथम दिन चाण्डालिनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी और तीसरे दिन रजकी (धोबिन) कहलाती है। नरक से आए हुए प्राणियों की ये तीन माताएँ होती हैं।

दैव की प्रेरणा से कर्मानुरोधी शरीर प्राप्त करने के लिये प्राणि पुरुष के वीर्य का आश्रय लेकर स्त्री के उदर में प्रविष्ट होता है। एक रात्रि में वह शुक्राणु कलल के रूप में, पाँच रात्रि में बुदबुद के रूप में, दस दिनों में बेर के समान तथा उसके पश्चात मांस पेशियों से युक्त अण्डाकार हो जाता है। एक मास में सिर, दो मास में बाहु आदि शरीर के सभी अंग, तीसरे मास में नख, लोम, अस्थि, चर्म तथा लिंगबोधक छिद्र उत्पन्न होते हैं। चौथे मास में रस, रक्त, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र ये सात धातुएँ तथा पाँचवें मास में भूख-प्यास पैदा होती है।

छठे मास में जरायु में लिपटा हुआ वह जीव माता की दाहिनी कोख में घूमता है और माता के द्वारा खाये-पीये अन्नादि से बढ़े हुए धातुओं वाला वह जन्तु विष्ठा-मूत्र के दुर्गन्धयुक्त गढ्ढे रूप गर्भाशय में सोता है। वहाँ गर्भस्थ क्षुधित कृमियों के द्वारा उसके सुकुमार अंग प्रतिक्षण बार-बार काटे जाते हैं, जिससे अत्यधिक क्लेश होने के कारण वह जीव मूर्च्छित हो जाता है। माता के द्वारा खाये हुए कड़वे, तीखे, गरम, नमकीन, रूखे तथा खट्टे पदार्थों के अति उद्वेजक संस्पर्श से उसे समूचे अंग में वेदना होती है और जरायु अर्थात झिल्ली से लिपटा हुआ वह जीव आँतों द्वारा बाहर से ढका रहता है। उसकी पीठ और गरदन कुण्डलाकार रहती है।

इस प्रकार अपने अंगों से चेष्टा करने में असमर्थ होकर भी वह जीव पिंजरे में स्थित पक्षी की भाँति माता की कुक्षि में अपने सिर को दबाए हुए पड़ा रहता है। भगवान की कृपा से अपने सैकड़ों जन्मों के कर्मों का स्मरण करता हुआ वह गर्भस्थ जीव लम्बी श्वास लेता है। ऎसी स्थिति में भला उसे कौन सा सुख प्राप्त हो सकता है? मांस-मज्जा आदि सात धातुओं के आवरण में आवृत वह ऋषिकल्प जीव भयभीत होकर हाथ जोड़कर विकल वाणि से उन भगवान की स्तुति करता है, जिन्होंने उसको माता के उदर में डाला है।

सातवें महीने के आरंभ से ही सभी जन्मों के कर्मों का ज्ञान हो जाने पर भी गर्भस्थ प्रसूतिवायु के द्वारा चालित होकर वह विष्ठा में उत्पन्न सहोदर (उसी पेट में उत्पन्न अन्य) कीड़े की भाँति एक स्थान पर ठहर नहीं पाता। जीव उवाच जीव कहता है – मैं लक्ष्मी के पति, जगत के आधार, अशुभ का नाश करने वाले तथा शरण में आये हुए जीवों के प्रति वात्सल्य रखने वाले भगवान विष्णु की शरण में जाता हूँ। हे नाथ ! आपकी माया से मोहित होकर मैं देह में अहं भाव तथा पुत्र और पत्नी आदि में ममत्वभाव के अभिमान से जन्म-मरण के चक्कर में फँसा हूँ। मैंने अपने परिजनों के उद्देश्य से शुभ और अशुभ कर्म किये, किंतु अब मैं उन कर्मों के कारण अकेला जल रहा हूँ।

उन कर्मों के फल भोगने वाले पुत्र-कलत्रादि अलग हो गये। यदि इस गर्भ से निकलकर मैं बाहर आऊँ तो फिर आपके चरणों का स्मरण करुँगा और ऎसा उपाय करूँगा जिससे मुक्ति प्राप्त कर लूँ। विष्ठा और मूत्र के कुएँ में गिरा हुआ जठराग्नि से जलता हुआ एवं यहाँ से बाहर निकलने की इच्छा करता हुआ मैं कब बाहर निकल पाऊँगा। जिस दीनदयाल परमात्मा ने मुझे इस प्रकार का विशेष ज्ञान दिया है, मैं उन्हीं की शरण ग्रहण करता हूँ जिससे मुझे पुन: संसार के चक्कर में न आना पड़े। अथवा मैं माता के गर्भगृह से कभी भी बाहर जाने की इच्छा नहीं करता क्योंकि बाहर जाने पर पाप कर्मों से पुन: मेरी दुर्गति हो जाएगी।

इसलिए यहाँ बहुत दु:ख की स्थिति में रहकर भी मैं खेदरहित होकर आपके चरणों का आश्रय लेकर संसार से अपना उद्धार कर लूँगा। श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान बोले – इस प्रकार की बुद्धिवाले एवं स्तुति करते हुए दस मास के ऋषिकल्प उस जीव को प्रसूतिवायु प्रसव के लिये तुरंत नीचे की ओर ढकेलता है। प्रसूतिमार्ग के द्वारा नीचे सिर करके सहसा गिराया गया वह आतुर जीव अत्यन्त कठिनाई से बाहर निकलता है और उस समय वह श्वास नहीं ले पाता है तथा उसकी स्मृति भी नष्ट हो जाती है। पृथ्वी पर विष्ठा और मूत्र के बीच गिरा हुआ वह जीव मल में उत्पन्न कीड़े की भाँति चेष्टा करता है और विपरीत गति प्राप्त करके ज्ञान नष्ट हो जाने के कारण अत्यधिक रुदन करने लगता है।

गर्भ में, रुग्णावस्था में श्मशान भूमि में तथा पुराण के पारायण या श्रवण के समय जैसी बुद्धि होती है, वह यदि स्थिर हो जाय तो कौन व्यक्ति सांसारिक बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। कर्मभोग के अनन्तर जीव जब गर्भ से बाहर आता है तब उसी समय वैष्णवी माया उस पुरुष को मोहित कर देती है। उस समय माया के स्पर्श से वह जीव विवश होकर कुछ बोल नहीं पाता, प्रत्युत शैशवादि अवस्थाओं में होने वाले दु:खों को पराधीन की भाँति भोगता है। उसका पोषण करने वाले लोग उसकी स्थिति इच्छा को जान नहीं पाते। अत: प्रत्याख्यान करने में असमर्थ होने के कारण वह अनभिप्रेत अर्थात विपरीत स्थिति को प्राप्त हो जाता है।

स्वदज जीवों से दूषित तथा विष्ठा-मूत्र से अपवित्र शय्या पर सुलाए जाने के कारण अपने अंगों को खुजलाने में, आसन से उठने में तथा अन्य चेष्टाओं को करने में वह असमर्थ रहता है। जैसे एक कृमि दूसरे कृमि को काटता है, उसी प्रकार ज्ञानशून्य और रोते हुए उस शिशु की कोमल त्वचा को डाँस, मच्छर और खटमल आदि जन्तु व्यथित करते हैं। इस प्रकार शैशवावस्था का दु:ख भोगकर वह पौगण्डावस्था में भी दु:ख ही भोगता है। तदनन्तर युवावस्था प्राप्त होने पर आसुरी सम्पत्ति (दम्भ, घमण्ङ और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता तथा अज्ञान ये सब आसुरी-सम्पदा लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं) को प्राप्त करता है।

तब वह दुर्व्यसनों में आसक्त होकर नीच पुरुषों के साथ संबंध बनाता है और वह कामलम्पट प्राणी शास्त्र तथा सत्पुरुषों से द्वेष करता है। भगवान की माया रूपी स्त्री को देखकर वह अजितेन्द्रिय पुरुष उसकी भाव भंगिमा से प्रलोभित होकर महामोहरुप अन्धतम में उसी प्रकार गिर पड़ता है जिस प्रकार अग्नि में पतंगा। हिरन, हाथी, पतंगा, भौंरा और मछली – ये पाँचों क्रमश: शब्द, स्पर्श, रूप, गन्ध तथा रस – इन पाँच विषयों में एक-एक में आसक्ति होने के कारण ही मारे जाते हैं, फिर एक प्रमादी व्यक्ति जो पाँचों इन्द्रियों से पाँचों विषयों का भोग करता है, वह क्यों नहीं मारा जाएगा ?

अभीप्सित वस्तु की अप्राप्ति की स्थिति में अज्ञान के कारण ही क्रोध हो आता है और शोक को प्राप्त व्यक्ति देह के साथ ही बढ़ने वाले अभिमान तथा क्रोध के कारण वह कामी व्यक्ति स्वयं अपने नाश हेतु दूसरे कामी से शत्रुता कर लेता है। इस प्रकार अधिक बलशाली अन्य कामीजनों के द्वारा वह वैसे ही मारा जाता है जैसे किसी बलवान हाथी से दूसरा हाथी। इस प्रकार जो मूर्ख अत्यन्त दुर्लभ मानव जीवन को विषयासक्ति के कारण व्यर्थ में नष्ट कर लेता है, उससे बढ़कर पापी और कौन होगा? सैकड़ों योनियों को पार करके पृथ्वी पर दुर्लभ मानव योनि प्राप्त होती है।

मानव शरीर प्राप्त होने पर भी द्विजत्व की प्राप्ति उससे भी अधिक दुर्लभ है। अतिदुर्लभ द्विजत्व को प्राप्त कर जो व्यक्ति द्विजत्व की रक्षा के लिये अपेक्षित धर्म-कर्मानुष्ठान नहीं करता, केवल इन्द्रियों की तृप्ति में ही प्रयत्नशील रहता है, उसके हाथ में आया हुआ अमृतस्वरुप वह अवसर उसके प्रमाद से नष्ट हो जाता है। इसके बाद वृद्धावस्था को प्राप्त करके महान व्याधियों से व्याकुल होकर मृत्यु को प्राप्त करके वह पूर्ववत महान दु:खपूर्ण नरक में जाता है। इस प्रकार जन्म-मरण के हेतुभूत कर्मपाशों से बँधे हुए वे पापी मेरी माया से विमोहित होकर कभी भी वैराग्य को प्राप्त नहीं करते। हे तार्क्ष्य इस प्रकार मैंने तुम्हें अन्त्येष्टि कर्म से हीन पापियों की नरक गति बतायी, अब आगे और क्या सुनना चाहते हो ?

।।इस प्रकार गरुड़ पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में पापजन्मादिदु:खनिरुपण नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ।।

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) बभ्रुवाहनप्रेतसंस्कार नामक सातवां अध्याय 

इस अध्याय में पुत्र की महिमा, दूसरे के द्वारा दिये गये पिण्डदान आदि से प्रेतत्व से मुक्ति की बात कही गई है इस संदर्भ में राजा बभ्रुवाहन तथा एक प्रेत की कथा का वर्णन है। सूत उवाच सूतजी ने कहा ऎसा सुनकर पीपल के पत्ते की भाँति काँपते हुए गरुड़जी ने प्राणियों के उपकार के लिए पुन: भगवान विष्णु से पूछा।

गरुड़ उवाच

गरुड़ जी ने कहा हे स्वामिन किस उपाय से मनुष्य प्रमादवश अथवा जानकर पापकर्मों को करके भी यम की यातना को न प्राप्त हो, उसे कहिए। संसार रूपी सागर में डूबे हुए, दीन चित्तवाले, पाप से नष्ट बुद्धिवाले तथा विषयों के कारण दूषित आत्मा वाले मनुष्यों के उद्धार के लिये हे माधव पुराणों में सुनिश्चित किये गये उपाय को बताइए, जिससे मनुष्य सद्गति प्राप्त कर सकें।

श्रीभगवानुवाच

श्रीभगवान बोले हे तार्क्ष्य मनुष्यों के हित की कामना से तुमने अच्छी बात पूछी है। सावधान होकर सुनो, मैं तुम्हें सब कुछ बताता हूँ। हे खगेश्वर! मैंने इसके पहले पुत्ररहित और पापी मनुष्यों की यातना का वर्णन किया है। पुत्रवान तथा धार्मिक मनुष्यों की पूर्वोक्त दुर्गति कभी नहीं होती। यदि अपने पूर्वार्जित कर्मों के कारण पुत्रोत्पत्ति में विघ्न हो तो किसी उपाय से पुत्र की उत्पत्ति सम्पन्न करें। हरिवंशपुराण की कथा सुनकर, विधानपूर्वक शतचण्डी यज्ञ करके तथा भक्तिपूर्वक शिव की आराधना करके विद्वान को पुत्र उत्पन्न करना चाहिए। यत: पुत्र पितरों की पुम् नामक नरक से रक्षा करता है, अत: स्वयं भगवान ब्रह्मा ने ही उसे पुत्र नाम से कहा है।

एक धर्मात्मा पुत्र सम्पूर्ण कुल को तार देता है। पुत्र के द्वारा व्यक्ति लोकों को जीत लेता है, ऎसी सनातनी श्रुति है। इस प्रकार वेदों ने भी पुत्र के उत्तम माहात्म्य को कहा है। इसलिए पुत्र का मुख देख करके मनुष्य पितृ-ऋण से मुक्त हो जाता है। पौत्र का स्पर्ष करके मनुष्य तीनों ऋणों देव, ऋषि, पितृ से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार पुत्र-पौत्र तथा प्रपौत्रों से यमलोक का अतिक्रमण करके स्वर्ग आदि को प्राप्त करता है। ब्राह्मविवाह की विधि से ब्याही गई पत्नी से उत्पन्न औरस पुत्र ऊर्ध्वगति प्राप्त कराता है और संगृहीत पुत्र अधोगति की ओर ले जाता है।

हे खगश्रेष्ठ ऎसा जान करके व्यक्ति हीनजाति की स्त्री से उत्पन्न पुत्रों को त्याग दे। हे खग सवर्ण पुरुषों से सवर्णा स्त्रियों में जो पुत्र उत्पन्न होते हैं, वे औरस पुत्र कहे जाते हैं और वे ही श्राद्ध प्रदान करके पितरों को स्वर्ग प्राप्त कराने के कारण होते हैं। औरस पुत्र के द्वारा किए गये श्राद्ध से पिता को स्वर्ग प्राप्त होता है, इस विषय में क्या कहना ? दूसरे के द्वारा दिये गये श्राद्ध से भी प्रेत स्वर्ग को चला जाता है,

इस विषय में सुनो। यहाँ मैं एक प्राचीन इतिहास कहूँगा, जो और्ध्वदैहिक दान के श्रेष्ठ माहात्म्य को सूचित करता है। हे तार्क्ष्य पूर्वकाल में त्रेता युग में महोदय नाम के रमणीय नगर में महाबलशाली और धर्मपरायण बभ्रुवाहन नामक एक राजा रहता था। वह यज्ञानुष्ठानपरायण, दानियों में श्रेष्ठ, लक्ष्मी से सम्पन्न, ब्राह्मणभक्त तथा साधु पुरुषों के प्रति अनुराग रखने वाला, शील तथा आचार आदि गुणों से युक्त, स्वजनों के प्रति अपनत्व और इतरजनों के प्रति दया के भाव से सम्पन्न था। क्षात्रधर्मपरायण वह राजा औरस पुत्र की भाँति धर्मपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करता था और दण्ड देने योग्य अपराधियों को दण्ड देता था।

वह महाबाहु किसी समय सेना के साथ मृगया के लिए नाना वृक्षों से युक्त एक घनघोर वन में प्रविष्ट हुआ। वह वन नाना मृग गणों से व्याप्त और अनेक पक्षियों से भरा हुआ था। उस समय राजा ने वन के मध्य में दूर से एक मृग को देखा। राजा के द्वारा सुदृड़ बाण से विद्ध वह मृग बान सहित जंगल में अदृश्य हो गया। रुधिर से गीली हुई घास पर अंकित चिह्न से राजा ने उसका पीछा किया तब मृग के प्रसंग से वह राजा दूसरे वन में जा पहुंचा। भूख-प्यास से सूखे हुए कण्ठ वाला तथा परिश्रम के संताप से पीड़ित उस राजा ने एक जलाशय के समीप पहुँचकर घोड़े के साथ उसमें स्नान किया तथा कमल की गन्धादि से सुगन्धित शीतल जल का पान किया।

इसके बाद उस जलाशय से बाहर निकलकर श्रमरहित राजा बभ्रुवाहन ने वृक्ष रूपी विशाल शाखाओं के कारण फैले हुए, मनोहर और शीतल छाया वाले तथा पक्षी समूहों से कूजित एक वट वृक्ष देखा। वह वृक्ष सम्पूर्ण वन की महती पताका की भाँति स्थित था। उसकी जड़ के पास जाकर राजा बैठ गया। उसके बाद राजा ने भूख और प्यास से व्याकुल इन्द्रियों वाले, ऊपर की ओर उठे हुए बालों वाले, अत्यन्त मलिन, कुबड़े और माँस रहित एक भयावह प्रेत को देखा। उस विकृत आकृति वाले भयावह प्रेत को देखकर बभ्रुवाहन विस्मित हो गया। प्रेत भी घने जंगलों में आये हुए राजा को देखकर चकित हो गया और समुत्सुक मन वाला होकर वह प्रेतराज उसके पास आया।

हे तार्क्ष्य तब उस प्रेतराज ने राजा से कहा हे महाबाहो आपके संबंध से मैंने प्रेत भाव का त्याग कर दिया है अर्थात मेरा प्रेत भाव छूट गया है और मैं परम शान्ति को प्राप्त हो गया हूँ तथा धन्यतर हो गया हूँ। राजोवाच राजा ने कहा – हे कृष्णवर्ण वाले तथा भयावह रूप वाले प्रेत ! किस कर्म के प्रभाव से देखने में डरावने लगने वाले और बहुत ही अमंगलकारी इस प्रेतत्व-स्वरूप को तुमने प्राप्त किया है। हे तात ! अपने प्रेतत्व की प्राप्ति का सारा कारण बतलाओ। तुम कौन हो और किस दान से तुम्हारा प्रेतत्व नष्ट होगा ?

प्रेत उवाच प्रेत ने कहा हे श्रेष्ठ राजन मैं आरंभ से आपको सब कुछ बतलाता हूँ। प्रेतत्व का कारण सुनकर आप कृपया उसे दूर करने की दया कीजिए। वैदिश नाम का एक नगर था जो सभी प्रकार की सम्पत्तियों से समृद्ध, नाना जनपदों से व्याप्त, अनेक प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण, धनिकों के भवनों तथा देव एवं राजप्रसादों से सुशोभित और अनेक प्रकार के धर्मानुष्ठानों से युक्त था। हे तात ! मैं वहाँ रहता हुआ निरन्तर देवपूजा किया करता था। आपको विदित होना चाहिए कि मैं वैश्य जाति में उत्पन्न हुआ और मेरा नाम सुदेव था।

मैंने हव्य प्रदान करके देवताओं का तथा कव्य प्रदान करके पितरों का तर्पण किया। अनेक प्रकार के दानों से मैंने ब्राह्मणों को सन्तुष्ट किया था और अनेक बार दीन, अंधे एवं कृपण मनुष्यों को अन्न दिया था। किंतु हे राजन मेरा यह सारा सत्कर्म मेरे दुर्दैव से निष्फल हो गया। जिस कारण मेरा सुकृत निष्फल हुआ, वह मैं आपको बताता हूँ। मुझे कोई सन्तान नहीं है, मेरा कोई सुहृद नहीं है, कोई बान्धव नहीं है और न ऎसा कोई मित्र ही है जो मेरी और्ध्वदैहिक क्रिया करता। हे महाराज मृत्यु के अनन्तर जिस व्यक्ति के उद्देश्य से षोडश मासिक श्राद्ध नहीं दिए जाते, सैकड़ों श्राद्ध करने पर भी उसका प्रेतत्व सुस्थिर ही रहता है अर्थात दूर नहीं होता।

हे महाराज आप मेरा और्ध्वदैहिक कृत्य करके मेरा उद्धार कीजिए। क्योंकि इस लोक में राजा सभी वर्णों का बन्धु कहा जाता है। इसलिए हे राजेन्द्र आप मेरा उद्धार कीजिए, मैं आपको मणिरत्न देता हूँ। हे वीर ! यदि आप मेरा हित चाहते हैं तो जैसे मेरी सद्गति हो सके और मेरी प्रेत योनि से जैसे मुक्ति हो सके, वैसा आप करें। भूख-प्यास आदि दु:खों के कारण यह प्रेत योनि मेरे लिये दु:सह हो गई है। इस वन में सुन्दर स्वाद वाले शीतल जल और फल विद्यमान हैं फिर भी मैं भूख तथा प्यास से पीड़ित हूँ। मुझे जल व फल की प्राप्ति नहीं हो पाती। हे राजन यदि मेरे उद्देश्य से यथा विधि नारायण बलि की जाए,

उसके बाद वेदमन्त्रों के द्वारा मेरी सभी और्ध्वदैहिक क्रिया सम्पन्न की जाए तो निश्चित ही मेरा प्रेतत्व नष्ट हो जाएगा, इसमें कोई संशय नहीं है। मैंने सुन रखा है कि वेद के मन्त्र, तप, दान और सभी प्राणियों में दया, सत-शास्त्रों का श्रवण, भगवान विष्णु की पूजा और सज्जनों की संगति – ये सब प्रेत योनि के विनाश के लिए होते हैं। इसलिए मैं आपसे प्रेतत्व को नष्ट करने वाली विष्णु पूजा को कहूँगा। हे राजन  न्यायोपार्जित दो सुवर्ण (32 माशा) भार का सोना लेकर उससे नारायण की एक प्रतिमा बनवाए, जिसे विविध पवित्र जलों से स्नान कराकर दो पीले वस्त्रों से वेष्टित करके सभी अलंकारों से विभूषित कर अधिवासित करें, तदनन्तर उसका पूजन करें।

उस प्रतिमा के पूर्व भाग में श्रीधर, दक्षिण में मधुसूदन, पश्चिम में वामन और उत्तर में गदाधर, मध्य में पितामह ब्रह्मा तथा महादेव शिव की स्थापना करके गन्ध-पुष्पादि द्रव्यों के द्वारा विधि-विधान से पृथक-पृथक पूजन करें। उसके बाद प्रदक्षिणा करके अग्नि में हवन करके देवताओं को तृप्त करके घृत, दधि तथा दूध से विश्वेदेवों को तृप्त करें। तदनन्तर सामहित चित्तवाला यजमान स्नान करके नारायण के आगे विनीतात्मा होकर विधिपूर्वक मन में संकल्पित और्ध्वदैहिक क्रिया का आरंभ करें। इसके बाद क्रोध तथा लोभ से रहित होकर शास्त्रविधि से सभी श्राद्धों को करें तथा वृषोत्सर्ग करे। तदनन्तर ब्राह्मणों को तेरह पददान करे, फिर शय्यादान देकर प्रेत के लिए घट का दान करे।

राजोवाच राजा ने कहा हे प्रेत किस विधान से प्रेत घट का निर्माण करना चाहिए और किस विधान से उसका दान करना चाहिए। सभी प्राणियों के ऊपर अनुकम्पा करने के हेतु से प्रेतों को मुक्ति दिलाने वाले प्रेतघट-दान के विषय में बताइए।

प्रेत उवाच प्रेत ने कहा हे महाराज आपने ठीक पूछा है, जिस सुदृढ़ दान से प्रेतत्व नहीं होता है, उसे मैं कहता हूँ, आप ध्यान से सुनें। प्रेतघट का दान, सभी प्रकार के अमंगलों का विनाश करने वाला, सभी लोकों में दुर्लभ और दुर्गति को नष्ट करने वाला है। ब्रह्मा, शिव तथा विष्णु सहित लोकपालों युक्त तपाये हुए सोने का एक घट बनाकर उसे दूध, घी आदि से पूरा भरकर, भक्तिपूर्वक प्रणाम करके ब्राह्मण को दान करें। इसके अतिरिक्त तुम्हें अन्य सैकड़ों दानों को देने की क्या आवश्यकता ?

हे राजन उस घट के मध्य में ब्रह्मा, विष्णु तथा कल्याण करने वाले अविनाशी शंकर की स्थापना करें एवं घट के कण्ठ में पूर्व आदि दिशाओं में क्रमश: लोकपालों का आवाहन करके उनकी धूप, पुष्प, चन्दन आदि से विधिवत पूजा करके दूध और घी के साथ उस हिरण्यमय घट का ब्राह्मण को दान करना चाहिए। हे राजन प्रेतत्व की निवृत्ति के लिए सभी दानों में श्रेष्ठ और महापातकों का नाश करने वाले इस दान को श्रद्धापूर्वक करना चाहिए।

भगवानुवाच श्रीभगवान ने कहा हे कश्यपपुत्र गरुड़ प्रेत के साथ इस प्रकार बातचीत हो ही रही थी कि उसी समय हाथी, घोड़े आदि से व्याप्त राजा की सेना पीछे से वहाँ आ गई। सेना के आने के बाद राजा को महामणि देकर उन्हें प्रणाम करके पुन: अपने उद्धार के लिए और्ध्वदैहिक क्रिया करने की प्रार्थना करके वह प्रेत अदृश्य हो गया। हे पक्षिन् उस वन से निकलकर राजा भी अपने नगर को चला गया और अपने नगर में पहुँचकर प्रेत के द्वारा बताये हुए वचनों के अनुसार उसने विधि विधान से और्ध्वदैहिक क्रिया का अनुष्ठान किया।

उसके पुण्यप्रदान से मुक्त होकर प्रेत स्वर्ग को चला गया। जब दूसरे के द्वारा दिये हुए श्राद्ध से प्रेत की सद्गति हो गई तो फिर पुत्र के द्वारा प्रदत्त श्राद्ध से पिता की सद्गति हो जाए, इसमें क्या आश्चर्य!! इस पुण्यप्रद इतिहास को जो सुनता है और जो सुनाता है, वे दोनों पापाचारों से युक्त होने पर भी प्रेतत्व को प्राप्त नहीं होते।

।। इस प्रकार गरुड़्पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार बभ्रुवाहनप्रेतसंस्कार नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) आतुरदाननिरूपण’ नामक

आठवां अध्याय 

गरुड उवाच 

गरुड़ जी ने कहा हे तार्क्ष्य मनुष्यों के हित की दृष्टि से आपने बड़ी उत्तम बात पूछी है। धार्मिक मनुष्य के लिए करने योग्य जो कृत्य हैं, वह सब कुछ मैं तुम्हें कहता हूँ। पुण्यात्मा व्यक्ति वृद्धावस्था के प्राप्त होने पर अपने शरीर को व्याधिग्रस्त तथा ग्रहों की प्रतिकूलता को देखकर और प्राण वायु के नाद न सुनाई पड़ने पर अपने मरण का समय जानकर निर्भय हो जाए और आलस्य का परित्याग कर जाने-अनजाने किये गये पापों के विनाश के लिए प्रायश्चित का आचरण करे।

जब आतुरकाल उपस्थित हो जाए तो स्नान करके शालग्राम स्वरुप भगवान विष्णु की पूजा कराए। गन्ध, पुष्प, कुंकुम, तुलसीदल, धूप, दीप तथा बहुत से मोदक आदि नैवेद्यों को समर्पित करके भगवान की अर्चा करे और विप्रों को दक्षिणा देकर नैवेद्य का ही भोजन कराएँ तथा अष्टाक्षर (ऊँ नमो नारायणाय) अथवा द्वादशाक्षर (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) मन्त्र का जप करें। भगवान विष्णु और शिव के नाम का स्मरण करें और सुनें, भगवान का नाम कानों से सुनाई पड़ने पर वह मनुष्य के पाप को नष्ट करता है। रोगी के समीप आकर बान्धवों को शोक नहीं करना चाहिए। प्रत्युत मेरे पवित्र नाम का बार-बार स्मरण करना चाहिए।

विद्वान व्यक्ति को, मत्स्य, कूर्म, वराह, नारसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि (भगवान के ये दस अवतार हैं) – इन दस नामों का सदा स्मरण कीर्तन करना चाहिए। जो व्यक्ति रोगी के समीप उपर्युक्त नामों का कीर्तन करते हैं, वे ही उसके सच्चे बान्धव कहे गये हैं। कृष्ण यह मंगलमय नाम जिसकी वाणी से उच्चरित होता है, उसके करोड़ों महापातक तत्काल भस्म हो जाते हैं। मरणासन्न अवस्था में अपने पुत्र के बहाने से नारायण नाम लेकर अजामिल भी भगद्धाम को प्राप्त हो गया तो फिर जो श्रद्धापूर्वक भगवान के नाम का उच्चारण करने वाले हैं, उनके विषय में क्या कहना

दूषित चित्तवृत्ति वाले व्यक्ति के द्वारा भी स्मरण किये जाने पर भगवान उसके समस्त पापों को नष्ट कर देते हैं, जैसे अनिच्छापूर्वक भी स्पर्श करने पर अग्नि जलाता ही है। हे द्विज वासना के सहित पापों का समूल विनाश करने की जितनी शक्ति भगवान नाम में हैं, पातकी मनुष्य उतना पाप करने में समर्थ ही नहीं है। यमदेव अपने किंकरों से कहते हैं हे दूतों हमारे पास नास्तिकजनों को ले आया करो। भगवान के नाम का स्मरण करने वाले मनुष्यों को मेरे पास मत लाया करो क्योंकि मैं स्वयं अच्युत, केशव, राम, नारायण, कृष्ण, दामोदर, वासुदेव, हरि, श्रीधर, माधव, गोपिकावल्लभ, जानकीनायक रामचन्द्र का भजन करता हूँ।

हे दूतों हे कमलनयन, हे वासुदेव, हे विष्णु, हे धरणीधर, हे अच्युत, हे शंखचक्रपाणि आप मेरे शरणदाता हो ऎसा कहते हैं, उन निष्पाप व्यक्तियों को तुम दूर से ही छोड़ देना। हे दूतों जो निष्किंचन और रसज्ञ परमहंसों के द्वारा निरन्तर आस्वादित भगवान मुकुन्द के पादारविन्द-मकरन्द-रस से विमुख हैं अर्थात भगवद भक्ति से विमुख हैं और नरक के मूल गृहस्थी के प्रपंच में तृष्णा से बद्ध हैं, ऎसे असत्पुरुषों को मेरे पास लाया करो। जिनकी जिह्वा भगवान के गुण और नाम का कीर्तन नहीं करती, चित्त भगवान के चरणाविन्द का स्मरण नहीं करता, सिर एक बार भी भगवान को प्रणाम नहीं करता, ऎसे विष्णु के आराधना-उपासना आदि कृत्यों से रहित असत्पुरुषों को मेरे पास ले आओ।

इसलिए हे पक्षीन्द्र जगत में मंगल स्वरूप भगवान विष्णु का कीर्तन ही एकमात्र महान पापों के आत्यन्तिक और ऎकान्तिक निवृत्ति का प्रायश्चित है ऎसा जानो। नारायण से पराड्मुख रहने वाले व्यक्तियों के द्वारा किये गये प्रायश्चित्ताचरण भी दुर्बुद्धि प्राणि को उसी प्रकार पवित्र नहीं कर सकते, जैसे मदिरा से भरे घट को गंगाजी – सदृश नदियाँ पवित्र नहीं कर सकतीं। भगवान कृष्ण के नाम स्मरण से पाप नष्ट हो जाने के कारण जीव नरक को नहीं देखते और स्वप्न में भी कभी यम तथा यमदूतों को नहीं देखते।

जो व्यक्ति अन्तकाल में नन्दनन्दन भगवान श्रीकृष्ण के पीछे चलते हैं, ऎसी गाय को ब्राह्मणों को दान देता है, वह माँस, हड्डी और रक्त से परिपूर्ण वैतरणी नदी में गिरता अथवा जो मृत्यु के समय में ‘नन्दनन्दन’ इस प्रकार की वाणी का उच्चारण करता है, शरीर धारण नहीं करता अर्थात मुक्त हो जाता है। अत: पापों के समूह को नष्ट करने वाले महाविष्णु के नाम का स्मरण करना चाहिए अथवा गीता या विष्णुसहस्त्रनाम का पठन अथवा श्रवण करना चाहिए।

एकादशी का व्रत, गीता, गंगाजल, तुलसीदल, भगवान विष्णु का चरणामृत और नाम ये मरणकाल में मुक्ति देने वाले हैं। इसके बाद घृत और सुवर्ण सहित अन्नदान का संकल्प करें। श्रोत्रिय द्विज (वेदपाठी ब्राह्मण) को सवत्सा गौ का दान करें। हे तार्क्ष्य ! जो मनुष्य अन्तकाल में थोड़ा बहुत दान देता है और पुत्र उसका अनुमोदन करता है, वह दान अक्षय होता है। सत्पुत्र को चाहिए कि अन्तकाल में सभी प्रकार का दान दिलाए, लोक में धर्मज्ञ पुरुष इसीलिए पुत्र के लिए प्रार्थना करते हैं। भूमि पर स्थित, आधी आँखे मूँदे हुए पिता को देखकर पुत्रों को उनके द्वारा पूर्व संचित धन के विषय में तृष्णा नहीं करनी चाहिए।

सत्पुत्र के द्वारा दिये गये दान से जब तक उसका पिता जीवित हो तब तक और फिर मृत्यु के अनन्तर आतिवाहिक शरीर से भी परलोक के मार्ग में वह दु:ख नहीं प्राप्त करता। आतुरकाल और ग्रहणकाल – इन दोनों कालों में दिये गये दान का विशेष महत्व है, इसलिए तिल आदि अष्ट दान अवश्य देने चाहिए। तिल, लोहा, सोना, कपास, नमक, सप्तधान्य (धान, जौ, गेहूँ, उड़द, काकुन या कंगुनी और चना ये सप्तधान्य कहे जाते हैं), भूमि और गाय इनमें से एक-एक का दान भी पवित्र करने वाला है। यह अष्ट महादान महापातकों का नाश करने वाला है। अत: अन्तकाल में इसे देना चाहिए।

इन दानों का जो उत्तम फल है उसे सुनो तीन प्रकार के पवित्र तिल मेरे पसीने से उत्पन्न हुए हैं। असुर, दानव और दैत्य तिल दान से तृप्त होते हैं। श्वेत, कृष्ण तथा कपिल (भूरे) वर्ण के तिल का दान वाणी, मन और शरीर के द्वारा किये गये त्रिविध पापों को नष्ट कर देता है। लोहे का दान भूमि में हाथ रखकर देना चाहिए। ऎसा करने से वह जीव यम सीमा को नहीं प्राप्त होता और यम मार्ग में नहीं जाता। पाप-कर्म करने वाले व्यक्तियों का निग्रह करने के लिए यम के हाथ में कुल्हाड़ी, मूसल, दण्ड, तलवार तथा छुरी शस्त्र के रुप में रहते हैं।

यमराज के आयुधों को संतुष्ट करने के लिए यह लोहे का दान कहा गया है इसलिए यमलोक में सुख देने वाले लोहदान को करना चाहिए। उरण, श्यामसूत्र, शण्डामर्क, उदुम्बर, शेषम्बल नामक यम के महादूत लोहदान से सुख प्रदान करने वाले होते हैं। हे तार्क्ष्य परम गोपनीय और दानों में उत्तम दान को सुनो, जिसके देने से भूलोक, भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) और स्वर्गलोक के निवासी अर्थात मनुष्य, भूत-प्रेत तथा देवगण संतुष्ट होते हैं। ब्रह्मा आदि देवता, ऋषिगण तथा धर्मराज के सभासद स्वर्णदान से संतुष्ट होकर वर प्रदान करने वाले होते हैं।

इसलिए प्रेत के उद्धार के लिए स्वर्णदान करना चाहिए। हे तात स्वर्ण का दान देने से जीव यमलोक नहीं जाता, उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। बहुत काल तक वह सत्यलोक में निवास करता है, तदनन्तर इस लोक में रूपवान, धार्मिक, वाक्पटु, श्रीमान और अतुल पराक्रमी राजा होता है। कपास का दान देने से यमदूतों से भय नहीं होता, लवण का दान से यम से भय नहीं होता। लोहा, नमक, कपास, तिल और स्वर्ण के दान से यमपुर के निवासी चित्रगुप्त आदि संतुष्ट होते हैं। सप्तधान्य प्रदान करने से धर्मराज और यमपुर के तीनों द्वारों पर रहने वाले अन्य द्वारपाल भी प्रसन्न हो जाते हैं।

धान, जौ, गेहूँ, मूँग, उड़द, काकुन या कँगुनी और सातवाँ चना ये सप्तधान्य कहे गये हैं। जो व्यक्ति गोचर्ममात्र (सो गायें और एक बैल जितनी भूमि पर स्वतंत्र रूप से रह सकें, विचरण कर सकें, उतनी विस्तार वाली भूमि गोचर्म कहलाती है। इसका दान समस्त पापों का नाश करने वाला है) भूमि विधानपूर्वक सत्पात्र को देता है, वह ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त होकर पवित्र हो जाता है, ऎसा मुनीश्वरों ने देखा है। राज्य में किया हुआ अर्थात राज्यसंचालन में राजा से होने वाला महापाप न व्रतों से, न तीर्थ सेवन से और न अन्य किसी दान से नष्ट होता है अपितु वह तो केवल भूमि दान से ही विलीन होता है। जो व्यक्ति ब्राह्मण को धान्यपूर्ण पृथिवी का दान करता है, वह देवताओं और असुरों से पूजित होकर इन्द्रलोक में जाता है।

हे गरुड़ अन्य दानों का फल अत्यल्प होता है किंतु पृथ्वी दान का पुण्य दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है। भूमि का स्वामी होकर भी जो ब्राह्मण को भूमि नहीं देता वह जन्मान्तर में किसी ग्राम में एक कुटिया तक भी नहीं प्राप्त करता और जन्म-जन्मान्तर में अर्थात प्रत्येक जन्म में दरिद्र होता है। भूमि का स्वामी होने के अभिमान में जो भूमि का दान नहीं करता, वह तब तक नरक में निवास करता है, जब तक शेष नाग पृथ्वी को धारण करते हैं। इसलिए भूमि के स्वामी को भूमि दान करना ही चाहिए। अन्य व्यक्तियों के लिए भूमि दान के स्थान पर मैंने गोदान का विधान किया है। इसके बाद अन्तधेनु का दान करना चाहिए और रुद्रधेनु देनी चाहिए।

तदनन्तर ऋणधेनु देकर मोक्षधेनु का दान करना चाहिए। हे खग विशेष विधानपूर्वक वैतरणीधेनु का दान करना चाहिए। दान में दी गई गौएँ मनुष्य को त्रिविध पापों से मुक्त करती हैं। बाल्यावस्था में, कुमारावस्था में, युवावस्था में, वृद्धावस्था में अथवा दूसरे जन्म में, रात में, प्रात:काल, मध्याह्न, अपराह्ण और दोनों संध्या कालों में शरीर, मन और वाणी से जो पाप किये गये हैं, वे सभी पाप तपस्या और सदाचार से युक्त वेदविद ब्राह्मणों को उपस्करयुक्त (दान सामग्री सहित) सवत्सा और दूध देने वाली कपिला गौ के एक बार दान देने से नष्ट हो जाते हैं। दान में दी गई वह गौ अन्तकाल में गोदान करने वाले व्यक्ति का संचित पापों से उद्धार कर देती है।

स्वस्थचित्तावस्था में दी गई एक गौ, आतुरावस्था में दी गई सौ गाय और मृत्युकाल में चित्तविवर्जित व्यक्ति के द्वारा दी गई एक हजार गाय तथा मरणोत्तर काल में दी गई विधिपूर्वक एक लाख गाय के दान का फल बराबर ही होता है। (यहाँ स्वस्थावस्था में गोदान करने का विशेष महत्व बतलाया गया है) तीर्थ में सत्पात्र को दी गई एक गाय का दान एक लक्ष गोदान के तुल्य होता है। सत्पात्र में दिया गया दान लक्षगुना होता है। उस दान से दाता को अनन्त फल प्राप्त होता है और दान लेने वाले पात्र को प्रतिग्रह दान लेने का दोष नहीं लगता। स्वाध्याय और होम करने वाला तथा दूसरे के द्वारा पकाए गये अन्न को न खाने वाला अर्थात स्वयं पाकी ब्राह्मण रत्नपूर्ण पृथ्वी का दान लेकर भी प्रतिग्रह दोष से लिप्त नहीं होता।

विष और शीत को नष्ट करने वाले मन्त्र और आग भी क्या दोष के भागी होते हैं ? अपात्र को दी गई वह गाय दाता को नरक में ले जाती है और अपात्र प्रतिग्रहीता को एक सौ एक पीढ़ी के पुरुषों के सहित नरक में गिराती है। इसलिए अपने कल्याण की इच्छा करने वाले विद्वान व्यक्ति को अपात्र को दान नहीं देना चाहिए। एक गाय एक ही ब्राह्मण को देनी चाहिए। बहुत ब्राह्मणों को एक गाय कदापि नहीं देनी चाहिए। वह गौ यदि बेची या बाँटी गई तो सात पीढ़ी तक के पुरुषों को जला देती है। हे खगेश्वर मैंने तुमसे पहले वैतरणी नदी के विषय में कहा था, उसे पार करने के उपायभूत गोदान के विषय में मैं तुमसे कहता हूँ। काले अथवा लाल रंग की गाय को सोने के सींग, चाँदी के खुर और काँसे के पात्र की दोहनी के सहित दो काले रंग के वस्त्रों से आच्छादित करें।

उसके कण्ठ में घण्टा बाँधे तब कपास के ऊपर वस्त्र सहित ताम्रपात्र को स्थापित करके वहाँ लोहदण्ड सहित सोने की यम मूर्त्ति भी स्थापित करें और काँसे के पात्र में घृत रखकर यह सब ताम्रपात्र के ऊपर रखें। ईख की नींव बनाकर उसे रेशमी सूत्र से बाँधकर, भूमि पर गढ्ढा खोदे एवं उसमें जल भरकर वह ईख की नाव उसमें डाले। उसके समीप सूर्य की देह से उत्पन्न हुई धेनु को खड़ी करके शास्त्रीय विधि-विधान के अनुसार उसके दान का संकल्प करें। ब्राह्मणों को अलंकार और वस्त्र का दान दें तथा गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि से विधानपूर्वक गाय की पूजा करें। गाय की पूँछ को पकड़कर ईख की नाव पर पैर रखकर ब्राह्मण को आगे करके इस मन्त्र को पढ़े

हे जगन्नाथ हे शरणागतवत्सल भवसागर में डूबे हुए शोक संताप की लहरों से दु:ख प्राप्त करते हुए जनों के आप ही रक्षक हैं। हे ब्राह्मणश्रेष्ठ विष्णुरूप भूमिदेव आप मेरा उद्धार कीजिए। मैंने दक्षिणा के सहित यह वैतरणी-रूपिणी गाय आपको दी है, आपको नमस्कार है। मैं महाभयावह यम मार्ग में सौ योजन विस्तार वाली उस वैतरणी नदी को पार करने की इच्छा से आपको इस वैतरणी गाय का दान देता हूँ। आपको नमस्कार है। हे वैतरणी धेनु हे देवेशि यमद्वार के महामार्ग में वैतरणी नदी के पार कराने के लिए आप मेरी प्रतीक्षा करना, आपको नमस्कार है। मेरे आगे भी गौएँ हो, मेरे पीछे भी गौएँ हों, मेरे हृदय में भी गौएँ हों और मैं गौओं के मध्य में निवास करुँ।

जो लक्ष्मी सभी प्राणियों में प्रतिष्ठित हैं तथा जो देवता में प्रतिष्ठित हैं वे ही धेनुरूपा लक्ष्मी देवी मेरे पाप को नष्ट करें। इस प्रकार मन्त्रों से भली-भाँति प्रार्थना करके हाथ जोड़कर गाय और यम की प्रदक्षिणा कर के सब कुछ ब्राह्मण को प्रदान करें। हे खग ! इस विधान से जो वैतरणी धेनु का दान करता है, वह धर्म मार्ग से धर्मराज की सभा में जाता है। शरीर की स्वस्थावस्था में ही वैतरणी विषयक व्रत का आचरण कर लेना चाहिए और वैतरणी पार करने की इच्छा से विद्वान को वैतरणी गाय का दान करना चाहिए। हे खग वैतरणी गाय का दान करने से महामार्ग में वह नदी नहीं आती इसलिए सर्वदा पुण्यकाल में गोदान करना चाहिए।

गंगा आदि सभी तीर्थों में, ब्राह्मणों के निवास स्थानों में, चन्द्र और सूर्यग्रहण काल में, संक्रान्ति में, अमावस्या तिथि में, उत्तरायण और दक्षिणायन (कर्क और मकर संक्रान्तियों) में, विषुव ( अर्थात मेष तथा तुला की संक्रान्ति में), व्यतीपात योग में, युगादि तिथियों में तथा अन्यान्य पुण्यकालों में उत्तम गोदान देना चाहिए। जब कभी भी श्रद्धा उत्पन्न हो जाए और जब भी दान के लिए सुपात्र प्राप्त हो जाए, वही समय दान के लिए पुण्यकाल है, क्योंकि सम्पत्ति अस्थिर है। शरीर नश्वर है, सम्पत्ति सदा रहने वाली नहीं है और मृत्यु प्रतिक्षण निकट आती जा रही है, इसलिए धर्म का संचय करना चाहिए। अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार किया गया दान अनन्त फलवाला होता है।

इसलिए अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को विद्वान ब्राह्मण को दान देना चाहिए। अपने हाथ से अपने कल्याण के लिए दिया गया अल्प वित्त वाला वह दान भी अक्षय होता है और उसका फल भी तत्काल प्राप्त होता है। दान रूपी पाथेय को लेकर जीव परलोक के महामार्ग में सुखपूर्वक जाता है अन्यथा दानरुपी पाथेय रहित प्राणि को यममार्ग में क्लेश प्राप्त होता है। पृथ्वी पर मनुष्यों के द्वारा जो-जो दान दिये जाते हैं, यमलोक के मार्ग वे सभी आगे-आगे उपस्थित हो जाते हैं। महान पुण्य के प्रभाव से मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है। उस मनुष्य योनि को प्राप्त कर जो व्यक्ति धर्माचरण करता है, वह परमगति को प्राप्त करता है।

धर्म को न जानने के कारण व्यक्ति संसार में दु:खपूर्वक जन्म लेता है और मरता है। केवल धर्म के सेवन में ही मनुष्य जीवन की सफलता है। धन, पुत्र, पत्नी आदि बान्धव और यह शरीर भी सब कुछ अनित्य हैै इसलिए धर्माचरण करना चाहिए। जब तक मनुष्य जीता है तभी तक बन्धु-बान्धव और पिता आदि का संबंध रहता है, मरने के अनन्तर क्षणमात्र में सम्पूर्ण स्नेह संबंध निवृत हो जाता है। जीवितावस्था में अपनी आत्मा ही अपना बन्धु है ऎसा बार-बार विचार करना चाहिए। मरने के अनन्तर कौन उसके उद्देश्य से दान देगा ? ऎसा जानकर अपने हाथ से ही सब कुछ दान देना चाहिए क्योंकि जीवन अनित्य है, बाद में अर्थात उसकी मृत्यु के पश्चात कोई भी उसके लिए दान नहीं देगा।

मृत शरीर को काठ और ढेले के समान पृथ्वी पर छोड़कर बन्धु-बान्धव विमुख होकर लौट जाते हैं, केवल धर्म ही उसका अनुगमन करता है। धन-सम्पत्ति घर में ही छूट जाती है, सभी बन्धु-बान्धव श्मशान में छूट जाते हैं किंतु प्राणी के द्वारा किया हुआ शुभाशुभ कर्म परलोक में उसके पीछे-पीछे जाता है। शरीर आग से जल जाता है किंतु किया हुआ कर्म साथ में रहता है। प्राणि जो कुछ पाप अथवा पुण्य करता है, उसका वह सर्वत्र भोग प्राप्त करता है। इस दु:खपूर्ण संसार सागर में कोई भी किसी का बन्धु नहीं है। प्राणी अपने कर्म संबंध से संसार में आता है और फल भोग से कर्म का क्षय होने पर पुन: चला जाता है अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।

माता-पिता, पुत्र, भाई, बन्धु और पत्नी आदि का परस्पर मिलन प्याऊ पर एकत्र हुए जन्तुओं के समान अथवा नदी में बहने वाले काष्ठ समूह के समान नितान्त चंचल अर्थात अस्थिर है। किसके पुत्र, किसके पौत्र, किसकी भार्या और किसका धन? संसार में कोई किसी का नहीं है। इसलिए अपने हाथ से स्वयं दान देना चाहिए। जब तक धन अपने अधीन है तब तक ब्राह्मण को दान कर दें क्योंकि धन दूसरे के अधीन हो जाने पर तो दान देने के लिए कहने का साहस भी नहीं होगा। पूर्व जन्म में किये हुए दान के फलस्वरुप यहाँ बहुत सारा धन प्राप्त हुआ है इसलिए ऎसा जानकर धर्म के लिए धन देना चाहिए। धर्म से अर्थ की प्राप्ति होती है, धर्म से काम की प्राप्ति होती है और धर्म से ही मोक्ष की भी प्राप्ति होती है

इसलिए धर्माचरण करना चाहिए। धर्म श्रद्धा से धारण किया जाता है, बहुत सी धन राशि से नहीं। अकिंचन मुनिगण भी श्रद्धावान होकर स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं। जो मनुष्य पत्र, पुष्प, फल अथवा जल मुझे भक्तिभाव से समर्पित करता है, उस संयतात्मा के द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये पदार्थों को मैं प्राप्त करता हूँ। इसलिए विधिविधानपूर्वक अवश्य ही दान देना चाहिए। थोड़ा हो या अधिक इसकी कोई गणना नहीं करनी चाहिए। जो पुत्र पृथ्वी पर पड़े हुए आतुर पिता के द्वारा दान दिलाता है, वह धर्मात्मा पुत्र देवताओं के लिए भी पूजनीय होता है। माता-पिता के निमित्त जो धन पुत्र के द्वारा सत्पात्र को समर्पित किया जाता है, उससे पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र के साथ वह व्यक्ति स्वयं भी पवित्र हो जाता है।

पिता के उद्देश्य से किये गये दान से हजार गुना, बहन के उद्देश्य से किये गये दान से दस हजार गुना और सहोदर भाई के निमित्त किए गये दान से अनन्त गुना पुण्य प्राप्त होता है। दान देने वाला उपद्रवग्रस्त नहीं होता, उसे नरक यातना नहीं प्राप्त होती और मृत्युकाल में उसे यमदूतों से भी कोई भय नहीं होता। हे खग ! यदि कोई व्यक्ति लोभ से आतुरकाल में दान नहीं देते वे कंजूस पापी प्राणी मरने के अनन्तर शोकगमन होते हैं। आतुरकाल में आतुर के उद्देश्य से जो पुत्र, पौत्र, सहोदर भाई, सगोत्री और सुहृज्जन दान नहीं देते, वे ब्रह्महत्यारे हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।

।। इस प्रकार गरुड़पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में आतुरदाननिरूपण नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) म्रियमाणकृत्यनिरुपण नामक नौवां अध्याय 

मरणासन्न व्यक्तियों के निमित्त किये जाने वाले कृत्य गरुड़ उवाच गरुड़जी बोले हे प्रभो आपने आतुरकालिक दान के संदर्भ में भली भाँति कहा। अब म्रियमाण (मरणासन्न) व्यक्ति के लिए जो कुछ करना चाहिए, उसे बताइए। श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान ने कहा हे तार्क्ष्य जिस विधान से मनुष्य मरने पर सद्गति प्राप्त करते हैं, शरीर त्याग करने की उस विधि को मैं कहता हूँ, सुनो। कर्म के संबंध से जब प्राणी अपना शरीर छोड़ने लगता है तो उस समय तुलसी के समीप गोबर से एक मण्डल की रचना करनी चाहिए। वहाँ उस मण्डल के ऊपर तिल बिखेरकर कुशों को बिछाए,

तदनन्तर उनके ऊपर श्वेत वस्त्र के आसन पर शालिग्राम शिला को स्थापित करें। जहाँ पाप, दोष और भय को हरण करने वाली शालग्राम-शिला विद्यमान है, उसके संनिधान में मरने से प्राणी की मुक्ति सुनिश्चित है। जहाँ जगत के ताप का हरण करने वाली तुलसी वृक्ष की छाया है, वहाँ मरने से सदैव मुक्ति ही होती है, जो मुक्ति दानादि कर्मों से दुर्लभ है। जिसके घर में तुलसी वृक्ष के लिए स्थान बना हुआ है, वह घर तीर्थ स्वरुप ही है, वहाँ यम के दूत प्रवेश नहीं करते। तुलसी की मंजरी से युक्त होकर जो प्राणी अपने प्राणों का परित्याग करता है, वह सैकड़ों पापों से युक्त हो तो भी यमराज उसे देख नहीं सकते।

तुलसी के दल को मुख में रखकर तिल और कुश के आसन पर मरने वाला व्यक्ति पुत्रहीन हो तो भी नि:संदेह विष्णुपुर को जाता है। तीनों प्रकार के तिल काले, सफेद और भूरे, कुश और तुलसी ये सब म्रियमाण प्राणी को दुर्गति से बचा लेते हैं। यत: मेरे पसीने से तिल पैदा हुए हैं, अत: वे पवित्र हैं। असुर, दानव और दैत्य तिल को देखकर भाग जाते हैं, हे तार्क्ष्य मेरे रोम से पैदा हुए दर्भ (कुश) मेरी विभूति हैं इसलिए उनके स्पर्श से ही मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। कुश के मूल में ब्रह्मा, कुश के मध्य में जनार्दन और कुश के अग्रभाग में शंकर इस प्रकार तीनों देवता कुश में स्थित रहते हैं।

इसलिए कुश, अग्नि, मन्त्र, तुलसी, ब्राह्मण और गौ ये बार बार उपयोग किये जाने पर भी निर्माल्य नहीं होते। पिण्डदान में उपयोग किये दर्भ, प्रेत के निमित्त भोजन करने वाले ब्राह्मण, नीच के मुख से उच्चरित मन्त्र, नीच संबंधी गाय और तुलसी तथा चिता की आग ये सब निर्माल्य अर्थात अपवित्र होते हैं। गोबर से लीपी हुई और कुश बिछाकर संस्कार की हुई पृथ्वी पर आतुर (मरणासन्न व्यक्ति) को स्थापित करना चाहिए। अन्तरिक्ष का परिहार करना चाहिए अर्थात चौकी आदि पर नहीं रखना चाहिए। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा अन्य सभी देवता और हुताशन (अग्नि) ये सभी मण्डल पर विराजमान रहते हैं, इसलिए मण्डल की रचना करनी चाहिए।

जो भूमि लेपरहित होती है अर्थात मल-मूत्र आदि से रहित होती है, वह सर्वत्र पवित्र होती है किंतु जो भूमि भाग कभी लीपा जा चुका है या मल-मूत्र आदि से दूषित है वहाँ पुन: लीपने पर उसकी शुद्धि हो जाती है। बिना लीपी हुई भूमि पर और चारपाई आदि पर या आकाश में (भूमि की सतह से ऊपर) राक्षस, पिशाच, भूत, प्रेत और यमदूत प्रविष्ट हो जाते हैं। इसलिए भूमि पर मण्डल बनाए बिना अग्निहोत्र, श्राद्ध, ब्राह्मण-भोजन, देव-पूजन और आतुर व्यक्ति का स्थापन नहीं करना चाहिए। इसलिए लीपी हुई भूमि पर आतुर व्यक्ति को लिटाकर उसके मुख में स्वर्ण और रत्न का प्रक्षेप करके शालग्राम स्वरुपी भगवान विष्णु का पादोदाक देना चाहिए।

जो शालग्राम शिला के जल को बिन्दुमात्र भी पीता है वह सभी पापों से मुक्त हो वैकुण्ठ लोक में जाता है। इसलिए आतुर व्यक्ति को महापातक को नष्ट करने वाले गंगा जल को देना चाहिए। गंगा जल का पान सभी तीर्थों में किये जाने वाले स्नान-दानादि के पुण्यरूपी फल को प्रदान करने वाला है। जो शरीर को शुद्ध करने वाले चान्द्रायण व्रत को एक हजार बार करता है और जो एक बार गंगा जल का पान करता है, वे दोनों समान फल वाले रहते हैं। हे तार्क्ष्य अग्नि के संबंध से जैसे रूइ की राशि नष्ट हो जाती है,

उसी प्रकार गंगाजल से पातक भस्मसात हो जाते हैं। जो सूर्य की किरणों से संतप्त गंगा के जल का पान करता है, वह सभी योनियों से छूटकर हरि के धाम को प्राप्त होता है। अन्य नदियाँ मनुष्यों को जलावगाहन (स्नान) करने पर पवित्र करती हैं, किंतु गंगाजी तो दर्शन, स्पर्श, दान अथवा गंगा इस नाम का कीर्तन करने मात्र से सैकड़ों, हजारों पुण्यरहित पुरुषों को भी पवित्र कर देती हैं। इसलिए संसार से पार लगा देने वाले गंगा जल को पीना चाहिए। जो व्यक्ति प्राणों के कण्ठगत होने पर ‘गंगा-गंगा’ ऎसा कहता है वह विष्णु लोक को प्राप्त होता है और पुन: भूलोक में जन्म नहीं लेता।

प्राणोत्क्रमण (प्राणों के निकलने) के समय जो पुरुष श्रद्धायुक्त होकर मन से गंगा काा चिन्तन करता है वह भी परम गति को प्राप्त होता है। अत: गंगा का ध्यान, गंगा को नमन, गंगा का संस्मरण करना चाहिए और गंगा जल का पान करना चाहिए। इसके बाद मोक्ष प्रदान करने वाली श्रीमद्भागवत की कथा को जितना सम्भव हो उतना श्रवण करना चाहिए। जो व्यक्ति अन्त समय में श्रीमद्भागवत के एक श्लोक, आधे श्लोक अथवा एक पाठ का भी पाठ करता है, वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होकर पुन: संसार में कभी नहीं आता।

ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को मरण काल में वेद और उपनिषदों का पाठ तथा शिव व विष्णु की स्तुति से मुक्ति प्राप्त होती है। हे खग ! प्राण त्याग के समय मनुष्य को अनशन व्रत अर्थात अन्न तथा जल का त्याग करना चाहिए और यदि वह विरक्त द्विजन्मा हो तो उसे आतुर सन्यास लेना चाहिए। प्राणों के कण्ठ में आने पर जो प्राणी “मैंने सन्यास ले लिया है” – ऎसा कहता है, वह मरने पर विष्णु लोक को प्राप्त होता है। पुन: पृथ्वी पर उसका जन्म नहीं होता।

इस प्रकार हे खग जिस धार्मिक पुरुष के आतुरकालिक पूर्वोक्त कार्य सम्पादित किये जाते हैं, उसके प्राण ऊपर के छिद्रों से सुखपूर्वक निकलते हैं। मुख, दोनों नेत्र, दोनों नासिकारन्ध्र तथा दोनों कान ये सात (ऊपर के) द्वार (छिद्र) हैं, इनमें से किसी द्वार से सुकृती (पुण्यात्मा) – के प्राण निकलते हैं और योगियों के प्राण तालुरन्ध्र से निकलते हैं। अपान से मिले हुए प्राण जब पृथक हो जाते हैं तब प्राणवायु सूक्ष्म होकर शरीर से निकलता है। प्राणवायु रूपी ईश्वर के निकल जाने पर काल से आहत शरीर निराधार वृक्ष की भाँति गिर पड़ता है। प्राण से मुक्त होने के बाद शरीर तुरंत चेष्टाशून्य, घृणित, दुर्गन्धयुक्त, अस्पृश्य और सभी के लिए निन्दित हो जाता है।

इस शरीर की कीड़ा, वीष्ठा तथ भस्मरूप ये तीन अवस्थाएँ होती हैं, इसमे कीड़े पड़ते हैं, यह विष्ठा के समान दुर्गन्धयुक्त हो जाता है अथवा अन्तत: चिता में भस्म हो जाता है। इसलिए क्षण मात्र में नष्ट हो जाने वाले इस देह के लिए मनुष्यों के द्वारा गर्व क्यों किया जाए। पंचभूतों से निर्मित इस शरीर का पृथ्वी तत्व पृथ्वी में लीन हो जाता है, जलतत्व जल में, तेजस्तत्त्व तेज में और वायुतत्व वायु में लीन हो जाता है, इसी प्रकार आकाश तत्व भी आकाश में लीन हो जाता है। सभी प्राणियों के देह में स्थित रहने वाला, सर्वव्यापी, शिवस्वरुप, नित्य मुक्त और जगत्साक्षी आत्मा अजर-अमर है।

सभी इन्द्रियों से युक्त और शब्द आदि विषयों से युक्त (मृत व्यक्ति की देह से निकला) जीव कर्म-कोश से समन्वित तथा काम और रोगादि के सहित – पुण्य की वासना से युक्त होकर अपने कर्मों के द्वारा निर्मित नवीन शरीर में उसी प्रकार प्रवेश करता है जैसे घर के जल जाने पर गृहस्थ दूसरे नवीन घर में प्रवेश करता है। तब किंकिणी जाल की मालाओं से युक्त विमान लेकर सुन्दर चामरों से सुशोभित देवदूत आते हैं। धर्म के तत्व को जानने वाले, बुद्धिमान, धार्मिक जनों के प्रिय वे देवदूत कृतकृत्य इस जीव को विमान से स्वर्ग ले जाते हैं।

सुन्दर, दिव्य देह धारण करके निर्मल वस्त्र और माल्य धारण करके, सुवर्ण और रत्नादि के आभरणों से युक्त होकर वह महानुभाव जीव दान के प्रभाव से देवताओं से पूजित होकर स्वर्ग को प्राप्त करता है।

।। इस प्रकार गरुड़ पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में म्रियमाणकृत्यनिरुपण नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ।।

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) “दाहास्थिसंचयकर्मनिरुपण” नामक दसवां अध्याय 

और्ध्वदैहिक कृत्यों को करने से पुत्र और पौत्र, पितृ-ऋण से मुक्त हो जाते हैं, उसे बताता हूँ, सुनो। बहुत-से दान देने से क्या लाभ ?

माता-पिता की अन्त्येष्टि क्रिया भली-भाँति करें, उससे पुत्र को अग्निष्टोम याग के समान फल प्राप्त हो जाता है। माता-पिता की मृत्यु होने पर पुत्र को शोक का परित्याग करके सभी पापों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए समस्त बान्धवों के साथ मुण्डन कराना चाहिए। माता-पिता के मरने पर जिसने मुण्डन नहीं कराया, वह संसार सागर को तारने वाला पुत्र कैसे समझा जाए? अत: नख और काँख को छोड़कर मुण्डन कराना आवश्यक है। इसके बाद समस्त बान्धवों सहित स्नान करके धौत वस्त्र धारण करें तब तुरंत जल ले आकर जल से शव को स्नान करावे और चन्दन अथवा गंगा जी की मिट्टी के लेप से तथा मालाओं से उसे विभूषित करें।

उसके बाद नवीन वस्त्र से ढककर अपसव्य होकर नाम-गोत्र का उच्चारण करके संकल्पपूर्वक दक्षिणासहित पिण्डदान देना चाहिए।

मृत्यु के स्थान पर शव नामक पिण्ड को मृत व्यक्ति के नाम-गोत्र से प्रदान करें। ऎसा करने से भूमि और भूमि के अधिष्ठाता देवता प्रसन्न होते हैं। इससके पश्चात द्वार देश पर पान्थ नामक पिण्ड मृतक के नाम-गोत्रादि का उच्चारण करके प्रदान करे। ऎसा करने से भूतादि कोटि में दुर्गतिग्रस्त प्रेत मृत प्राणी की सद्गति में विघ्न-बाधा नहीं कर सकते। इसके बाद पुत्र वधू आदि शव की प्रदक्षिणा करके उउसकी पूजा करें तब अन्य बान्धवों के साथ पुत्र को शव यात्रा के निमित्त कंधा देना चाहिए।

अपने पिता को कंधे पर धारण करके जो पुत्र श्मशान को जाता है, वह पग-पग पर अश्वमेघ का फल प्राप्त करता है। पिता अपने कंधे पर अथवा अपनी पीठ पर बिठाकर पुत्र का सदा लालन-पालन करता है, उस ऋण से पुत्र तभी मुक्त होता है जब वह अपने मृत पिता को अपने कंधे पर ढोता है।

इसके बाद आधे मार्ग में पहुँचकर भूमि का मार्जन और प्रोक्षण करके शव को विश्राम कराए और उसे स्नान कराकर भूत संज्ञक पितर को गोत्र नामादि के द्वारा ‘भूत’ नामक पिण्ड प्रदान करें। इस पिण्डदान से अन्य दिशाओं में स्थित पिशाच, राक्षस, यक्ष आदि उस हवन करने योग्य देह की हवनीयता अयोग्यता नहीं उत्पन्न कर सकते।

उसके बाद श्मशान में ले जाकर उत्तराभिमुख स्थापित करें। वहाँ देह के दाह के लिए यथाविधि भूमि का संशोधन करें। भूमि का सम्मार्जन और लेपन करके उल्लेखन करें अर्थात दर्भमूल से तीन रेखाएँ खींचें और उल्लेखन क्रमानुसार ही उन रेखाओं से उभरी हुई मिट्टी को उठाकर ईशान दिशा में फेंककर उस वेदिका को जल से प्रोक्षित करके उसमें विधि-विधानपूर्वक अग्नि स्थापित करें।

पुष्प और अक्षत आदि से क्रव्यादसंज्ञक अग्निदेव की पूजा करें और लोमभ्य: (स्वाहा) इत्यादि अनुवाक से यथाविधि होम करना चाहिए। (तब उस क्रव्याद मृतक का मांस भक्षण करने वाली अग्नि की इस प्रकार प्रार्थना करें)

तुम प्राणियों को धारण करने वाले, उनको उत्पन्न करने वाले तथा प्राणियों का पालन करने वाले हो, यह सांसारिक मनुष्य मर चुका है, तुम इसे स्वर्ग ले जाओ।

इस प्रकार क्रव्याद-संज्ञक अग्नि की प्रार्थना करके वहीं चंदन, तुलसी, पलाश और पीपल की लकड़ियों से चिता का निर्माण करें।

हे खगेश्वर उस शव को चिता पर रख करके वहाँ दो पिण्ड प्रदान करें। प्रेत के नाम से एक पिण्ड चिता पर तथा दूसरा शव के हाथ में देना चाहिए। चिता में रखने के बाद से उस शव में प्रेतत्व आ जाता है। प्रेतकल्प को जानने वाले कतिपय विद्वज्जन चिता पर दिये जाने वाले पिण्ड को साधक नाम से संबोधित करते हैं। अत: चिता पर साधक नाम से तथा शव के हाथ पर प्रेत नाम से पिण्डदान करें। इस प्रकार पाँच पिण्ड प्रदान करने से शव में आहुति-योग्यता सम्पन्न होती है। अन्यथा श्मशान में स्थित पूर्वोक्त पिशाच, राक्षस तथा यक्ष आदि उसकी आहुति-योग्यता के उपघातक होते हैं।

प्रेत के लिए पाँच पिण्ड देकर हवन किये हुए उस क्रव्याद अग्नि को तिनकों पर रखकर यदि पंचक (धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती ये पाँच नक्षत्र पंचक कहलाते हैं और इन पंचकों के स्वामी ग्रह क्रमश: वसु, वरुण, अजचरण अथवा अजैकपात, अहिर्बुध्न्य और पूषा हैं) न हो तो पुत्र अग्नि प्रदान करे। पंचक में जिसका मरण होता है, उस मनुष्य को सद्गति नहीं प्राप्त होती।

पंचक शान्ति किये बिना उसका दाह संस्कार नहीं करना चाहिए अन्यथा अन्य की मृत्यु हो जाती है। धनिष्ठा नक्षत्र के उत्तरार्ध से रेवती तक पाँच नक्षत्र पंचक संज्ञक है। इनमें मृत व्यक्ति दाह के योग्य नहीं होता औऔर उसका दाह करने से परिणाम शुभ नहीं होता। इन नक्षत्रों में जो मरता है, उसके घर में कोई हानि होती है, पुत्र और सगोत्रियों को भी कोई विघ्न होता है। अथवा इस पंचक में भी दाह विधि का आचरण करके मृत व्यक्ति का दाह-संस्कार हो सकता है। पंचक मरण-प्रयुक्त सभी दोषों की शान्ति के लिए उस दाह-विधि को कहूँगा। हे तार्क्ष्य ! कुश से निर्मित चार पुतलों को नक्षत्र-मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके शव के समीप में स्थापित करें तब उन पुतलों में प्रतप्त सुवर्ण रखना चाहिए और फिर नक्षत्रों के नाम-मन्त्रों से होम करना चाहिए।

पुन: प्रेता जयता नर इन्द्रो व: शर्म यच्छतु (ऋग्वेद – 10।103।13, युज. 17।46)

इस मन्त्र से उन नक्षत्र-मन्त्रों को सम्पुटित करके होम करना चाहिए। इसके बाद उन पुतलों के साथ शव का दाह करें, सपिण्ड श्राद्ध के दिन पुत्र यथाविधि पंचक-शान्ति का अनुष्ठान करें। पंचक दोष की शान्ति के लिए क्रमश: तिलपूर्ण पात्र, सोना, चाँदी, रत्न तथा घृतपूर्ण कांस्यपात्र का दान करना चाहिए। इस प्रकार पंचक-शान्ति विधान करके जो शव दाह करता है, उसे पंचकजन्य कोई विघ्न-बाधा नहीं होती और प्रेत भी सद्गति प्राप्त करता है। इस प्रकार पंचक में मृत व्यक्ति का दाह करना चाहिए और पंचक के बिना मरने पर केवल शव का दाह करना चाहिए।

यदि मृत व्यक्ति की पत्नी सती हो रही हो तो उसके दाह के साथ ही शव का दाह करना चाहिए। अपने पति के प्रियसम्पादन में संलग्न पतिव्रता नारी यदि उसके साथ परलोकगमन करना चाहे (सती होना स्त्री की इच्छा पर निर्भर करता है, सती के नाम पर कोई जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए)

तो पति की मृत्यु होने पर स्नान करे और अपने शरीर को कुंकुम, अंजन, सुन्दर वस्त्राभूषणादि से अलंकृत करे, ब्राह्मणों और बन्धु-बान्धवों को दान दे। गुरुजनों को प्रणाम करके तब घर से बाहर निकले। इसके बाद देवालय जाकर भक्तिपूर्वक भगवान विष्णु को प्रणाम करे। वहाँ अपने आभूषणों को समर्पित करके वहाँ से श्रीफल लेकर लज्जा और मोह का परित्याग करके श्मशान भूमि में जाए तब वहाँ सूर्य को नमस्कार करके, चिता की परिक्रमा करके पुष्पशैय्या रूपी चिता पर चढ़े और अपने पति को गोद में लिटाए। तदनन्तर सखियों को श्रीफल देकर दाह के लिए आज्ञा प्रदान करे और शरीर दाह को गंगाजल में स्नान के समान मानकर अपना शरीर जलाए।

गर्भिणी (pregnant) स्त्री को अपने पति के साथ अपना दाह नहीं करना चाहिए। प्रसव करके और उत्पन्न बालक का पोषण करने के अनन्तर उसे सती होना चाहिए। यदि स्त्री अपने मृत पति के शरीर को लेकर अपने शरीर का दाह करती है तो अग्नि उसके शरीर मात्र को जलाती है, उसकी आत्मा को कोई पीड़ा नहीं होती। धौंके जाते हुए स्वर्णादि धातुओं का मल जैसे अग्नि में जल जाता है, उसी प्रकार पति के साथ जलने वाली नारी अमृत के समान अग्नि में अपने पापों को जला देती है। जिस प्रकार सत्यपरायण धर्मात्मा पुरुष शपथ के समय तपे हुए लोहपिण्डादि को लेने पर भी नहीं जलता,

उसी प्रकार चिता पर पति के शरीर के साथ संयुक्त वह नारी भी कभी नहीं जलती अर्थात उसे दाहप्रयुक्त कष्ट नहीं होता। प्रत्युत उसकी अन्तरात्मा मृत व्यक्ति की अन्तरात्मा के साथ एकत्व प्राप्त कर लेती है। पति की मृत्यु होने पर जब तक स्त्री उसके शरीर के साथ अपने शरीर को नहीं जला लेती, तब तक वह किसी प्रकार भी स्त्री शरीर प्राप्त करने से मुक्त नहीं होती। इसलिए सर्वप्रयत्नपूर्वक मन, वाणी और कर्म से जीवितावस्था में अपने पति की सदा सेवा करनी चाहिए और मरने पर उसका अनुगमन करना चाहिए। पति के मरने पर जो स्त्री अग्नि में आरोहण करती है, वह महर्षि वशिष्ठ की पत्नी अरुन्धती के समान होकर स्वर्गलोक में सम्मानित होती है।

वहाँ वह पतिपरायणा नारी अप्सरागणों के द्वारा स्तूयमान होकर चौदह इन्द्रों के राज्यकालपर्यन्त अर्थात एक कल्प तक अपने पति के साथ स्वर्गलोक में रमण करती है। जो सती अपने भर्ता का अनुगमन करती है, वह अपने मातृकुल, पितृकुल और पतिकुल इन तीनों कुलों को पवित्र कर देती है। मनुष्य के शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोमकूप हैं, उतने काल तक वह नारी अपने पति के साथ स्वर्ग में आनन्द करती है। वह सूर्य के समान प्रकाशमान विमान में अपने पति के साथ क्रीड़ा करती है और जब तक सूर्य और चन्द्र की स्थिति रहती है तब तक पतिलोक में निवास करती है। इस प्रकार दीर्घ आयु प्राप्त करके पवित्र कुल में पैदा होकर पतिरूप में वह पतिव्रता नारी उसी जन्मान्तरीय पति को पुन: प्राप्त करती है।

जो स्त्री क्षणमात्र के लिए होने वाले दाह-दु:ख के कारण इस प्रकार के सुखों को छोड़ देती है, वह मूर्खा जन्मपर्यन्त विरहाग्नि में जलती रहती है। इसलिए पति को शिवस्वरूप जानकर उसके साथ अपने शरीर को जला देना चाहिए। शव के आधे या पूरे जल जाने पर उसके मस्तक को फोड़ना चाहिए। गृहस्थों के मस्तक को काष्ठ से और यतियों के मस्तक को श्रीफल से फोड़ देना चाहिए। पितृलोक की प्राप्ति के लिए उसके ब्रह्मरन्ध्र का भेदन करके उसका पुत्र निम्न मन्त्र से अग्नि में घी की आहुति दे हे अग्निदेव तुम भगवान वासुदेव के द्वारा उत्पन्न किए गए हो।

पुन: ततुम्हारे द्वारा इसकी तेजोमय दिव्य शरीर की उत्पत्ति हो। स्वर्गलोक में गमन करने के लिए इसका स्थूल शरीर जलकर तुम्हारा हवि हो, एतदर्थ तुम प्रज्वलित होओ। इस प्रकार मन्त्रसहित तिलमिश्रित घी की आहुति देकर जोर से रोना चाहिए, उससे मृत प्राणी सुख प्राप्त करता है। दाह के अनन्तर स्त्रियों को स्नान करना चाहिए। तत्पश्चात पुत्रों को स्नान करना चाहिए। तदनन्तर मृत प्राणि के गोत्र-नाम का उच्चारण करके तिलांजलि देनी चाहिए फिर नीम के पत्तों को चबाकर मृतक के गुणों का गान करना चाहिए।

आगे-आगे स्त्रियों को और पीछे पुरुषों को घर जाना चाहिए और घर में पुन: स्नान करके गोग्रास देना चाहिए। पत्तल में भोजन करना चाहिए और घर का अन्न नहीं खाना चाहिए। मृतक के स्थान को लीपकर वहाँ बारह दिन तक रात-दिन दक्षिणाभिमुख अखण्ड दीपक जलाना चाहिए। हे तार्क्ष्य ! शवदाह के दिन से लेकर तीन दिन तक सूर्यास्त होने पर श्मशान भूमि में अथवा चौराहे पर मिट्टी के पात्र में दूध तथा जल देना चाहिए। काठ की तीन लकड़ियों को दृढ़तापूर्वक सूत से बाँधकर अर्थात तिगोड़िया बनाकर उस पर दूध और जल से भरे हुए कच्चे मिट्टी के पात्र को रखकर यह मन्त्र पढ़े

हे प्रेत तुम श्मशान की आग से जले हुए हो, बान्धवों से परित्यक्त हो, यह जल और यह दूध तुम्हारे लिए है, इसमें स्नान करो और इसे पीओ (याज्ञवल्क्य स्मृति 3।17 की मिताक्षरा में विज्ञानेश्वर ने कहा है कि प्रेत के लिए जल और दूध पृथक-पृथक पात्रों में रखना चाहिए और प्रेत अत्र स्नाहि कहकर जल तथा पिब चेदम् कहकर दूध रखना चाहिए)। साग्निक जिन्होंने अग्न्याधान किया हो को चौथे दिन अस्थिसंचय करना चाहिए और निषिद्ध वार-तिथि का विचार करके निरग्नि को तीसरे अथवा दूसरे दिन अस्थिसंचय करना चाहिए। अस्थिसंचय के लिए श्मशान भूमि में जाकर स्नान करके पवित्र हो जाए।

ऊन का सूत्र लपेटकर और पवित्री धारण करके श्मशानवासियों (भूतादि) के लिए पुत्र को “यमाय त्वा.” (यजु. 38।9) इस मन्त्र से माष (उड़द) की बलि देनी चाहिए और तीन बार परिक्रमा करनी चाहिए। हे खगेश्वर इसके बाद चितास्थान को दूध से सींचकर जल से सींचे। तदनन्तर अस्थिसंचय करे और उन अस्थियों को पलाश के पत्ते पर रखकर दूध और जल से धोएँ और पुन: मिट्टी के पात्र पर रखकर यथाविधि श्राद्ध – पिण्डदान – करें। त्रिकोण स्थण्डिल बनाकर उसे गोबर से लीपे। दक्षिणाभिमुख होकर स्थपिण्डल के तीनों कोनों पर तीन पिण्डदान करें।

चिताभस्म को एकत्र करके उसके ऊपर तिपाई रखकर उस पर खुले मुखवाला जलपूर्ण घट स्थापित करें। इसके बाद चावल पकाकर उसमें दही और घी तथा मिष्ठान्न मिलाकर जल के सहित प्रेत को यथाविधि बलि प्रदान करें। हे खग फिर उत्तर दिशा में पंद्रह कदम जाएँ और वहाँ गढ्ढा बनाकर अस्थि पात्र को स्थापित करें। उसके ऊपर दाहजनित पीड़ा नष्ट करने वाला पिण्ड प्रदान करें और गढ्ढे से उस अस्थि पात्र को निकालकर उसे लेकर जलाशय को जाएँ। वहाँ दूध और जल से उन अस्थियों को बार-बार प्रक्षालित करके चन्दन और कुंकुम से विशेषरूप से लेपित करें फिर उन्हें एक दोने में रखकर हृदय और मस्तक में लगाकर उनकी परिक्रमा करें तथा उन्हें नमस्कार करके गंगा जी में विसर्जित करें।

जिस मृत प्राणी की अस्थि दस दिन के अन्तर्गत गंगा में विसर्जित हो जाती है, उसका ब्रह्मलोक से कभी भी पुनरागमन नहीं होता। गंगाजल में मनुष्य की अस्थि जब तक रहती है उतने हजार वर्षों तक वह स्वर्गलोक में विराजमान रहता है। गंगा जल की लहरों को छूकर हवा जब मृतक का स्पर्श करती है तब उस मृतक के पातक तत्क्षण ही नष्ट हो जाते हैं। महाराज भगीरथ उग्र तप से गंगा देवी की आराधना करके अपने पूर्वजों का उद्धार करने के लिए गंगा देवी को ब्रह्मलोक से भूलोक ले आए थे। जिनके जल ने भस्मीभूत राजा सगर के पुत्रों को स्वर्ग में पहुँचा दिया, उन गंगा जी का पवित्र यश तीनों लोकों में विख्यात है।

जो मनुष्य अपनी पूर्वावस्था में पाप करके मर जाते हैं उनकी अस्थियों को गंगा में छोड़ने पर वे स्वर्गलोक चले जाते हैं। किसी महा अरण्य में सभी प्राणियों की हत्या करने वाला कोई व्याध सिंह के द्वारा मारा गया और जब वह नरक को जाने लगा तभी उसकी अस्थि गंगाजी में गिर पड़ी, जिससे वह दिव्य विमान पर चढ़कर देवलोक को चला गया। इसलिए सत्पुरुष को स्वत: ही अपने पिता की अस्थियों को गंगाजी में विसर्जित करना चाहिए। अस्थिसंचयन के अनन्तर दशगात्रविधि का अनुष्ठान करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति विदेश में या वन में अथवा चोरों के भय से मरा हो और उसका शव प्राप्त न हुआ हो तो जिस दिन उसके निधन का समाचार सुने, उस दिन कुश का पुत्तल बनाकर पूर्वविधि के अनुसार केवल उसी का दाह करे और उसकी भस्म को लेकर गंगा जल में विसर्जित करें।

दशगात्रादि कर्म भी उसी दिन से आरम्भ करना चााहिए और सांवत्सरिक श्राद्ध में भी उसी दिन (सूचना प्राप्त होने वाले) को ग्रहण करना चाहिए। यदि गर्भ की पूर्णता हो जाने के अनन्तर नारी की म्रत्यु हो गई हो तो उसके पेट को चीरकर बालक को निकाल ले, यदि वह भी मर गया हो तो उसे भूमि में गाड़कर केवल मृत स्त्री का दाह करें। गंगा के किनारे मरे हुए बालक को गंगाजी में ही प्रवाहित कर दे और अन्य स्थान पर मरे सत्ताईस महीने तक के बालक को भूमि में गाड़ दें। इसके बाद की अवस्था वाले बालक का दाह संस्कार करे और उसकी अस्थियाँ गंगा जी में विसर्जित करें तथा जलपूर्ण कुम्भ प्रदान करें तथा केवल बालकों को ही भोजन कराएँ।

गर्भ के नष्ट होने पर उसकी कोई क्रिया नहीं की जाती पर शिशु के मरने पर उसके लिए दुग्धदान करना चाहिए। बालक चूड़ाकरण से पूर्व या तीन वर्ष की अवस्था वाले के मरने पर उसके लिए जलपूर्ण घट का दान करना चाहिए और खीर का भोजन कराना चाहिए। कुमार के मरने पर कुमार बालकों को भोजन कराना चाहिए और उपनीत पौगण्ड अवस्था के बच्चे के मरने पर उसी अवस्था के बालकों के साथ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। पाँच वर्ष की अवस्था से अधिक वाले बालक की मृत्यु होने पर, वह चाहे उपनीत (यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न) हो अथवा अनुपनीत (जिसका यज्ञोपवीत न हुआ हो) हो, पायस और गुड़ के दस पिण्ड क्रमश: प्रदान करने चाहिए।

पौगण्ड अवस्था के बालक की मृत्यु होने पर वृषोत्सर्ग तथा महादान की विधि को छोड़कर एकादशाह तथा द्वादशाह की क्रिया का सम्पादन करना चाहिए। पिता के जीवित रहने पर पौगण्डावस्था में मृत बालक का सपिण्डन श्राद्ध नहीं होता। अत: बारहवें दिन उसका केवल एकोद्दिष्ट श्राद्ध करें। स्त्री और शूद्रों के लिए विवाह ही व्रतबन्ध-स्थानीय संस्कार कहा गया है। व्रत अर्थात उपनयन के पूर्व मरने वाले सभी वर्णों के मृतकों के लिए उनकी अवस्था के अनुकूल समान क्रिया होनी चाहिए। जिसने थोड़ा कर्म किया किया हो, थोड़े विषयों से जिसका संबंध रहा हो, कम अवस्था हो और स्वल्प देह वाला हो, ऎसे जीव के मरने पर उसकी क्रिया भी स्वल्प ही होनी चाहिए।

किशोर अवस्था के और तरुण अवस्था के मनुष्य के मरने पर शय्यादान, वृषोत्सर्गादि, पददान, महादान और गोदान आदि क्रियाएँ करनी चाहिए। सभी प्रकार के सन्यासियों की मृत्यु होने पर उनके पुत्रों आदि के द्वारा न तो उनका दाह-संस्कार किया जाना चाहिए, न उन्हें तिलांजलि देनी चााहिए और न ही उनकी दशगात्रादि क्रिया ही करनी चाहिए क्योंकि दण्डग्रहण (सन्यास ग्रहण) कर लेने मात्र से नर ही नारायण स्वरूप हो जाता है। त्रिदण्ड (मन, वाणी और इन्द्रियों का संयम ही त्रिदण्ड है) ग्रहण करने से मृत्यु के अनन्तर उस जीव को प्रेतत्व प्राप्त नहीं होता। ज्ञानीजन तो अपने स्वरूप का अनुभव कर लेने के कारण सदा मुक्त ही होते हैं।

इसलिए उनके उद्देश्य से दिये जाने वाले पिण्डों की भी उन्हें आकांक्षा नहीं होती। अत: उनके लिए पिण्डदान और उदकक्रिया नहीं करनी चाहिए, किंतु पितृभक्ति के कारण तीर्थश्राद्ध और गया श्राद्ध करने चाहिए। हे तार्क्ष्य ! हंस, परमहंस, कुटीचक और बहूदक – इन चारों प्रकार के सन्यासियों की मृत्यु होने पर उन्हें पृथ्वी में गाड़ देना चाहिए। गंगा आदि नदियों के उपलब्ध न रहने पर ही पृथ्वी में गाड़ने की विधि है, यदि वहाँ कोई महानदी हो तो उन्हीं में उन्हें जलसमाधि दे देनी चाहिए।

।। इस प्रकार गरुड़ पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में दाहास्थिसंचयकर्मनिरुपण नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।

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