जीवित पुत्रिका (जितिया) व्रत विधि महत्व और कथा
आश्विन मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल व्यापिनी अष्टमी के दिन माताएं संतानों के स्वस्थ, सुखी और दीर्घायु जीवन के लिये जीवित्पुत्रिका व्रत करती हैं जीवित्पुत्रिका व्रत को जिउतिया अथवा जितिया भी कहा जाता है, पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस व्रत का संबंध महाभारत से माना जाता है। अष्टमी तिथि के दिन सांय प्रदोषकाल में माताएं जीमूतवाहन की पूजा करती हैं और जिवित पुत्रिका व्रत कथा का श्रवण करती हैं। व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के बाद किया जाता है ये व्रत विशेष रूप से बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और और पश्चिम बंगाल में किया जाता है।
हिंदू धर्म में व्रत व त्यौहारों को मनाने का विशेष महत्व एक विशेष उद्देश्य होता है। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में जहां पितर शांति के लिये श्राद्ध पक्ष मनाया जाता है तो वहीं शुक्ल पक्ष के आरंभ होते ही नवरात्र का उत्सव शुरु होता है जिसका समापन शुक्ल दशमी को दुर्गा विसर्जन, दशहरे आदि के रूप में होता है। इस लिहाज से वैसे तो आश्विन मास की प्रत्येक तिथि बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है लेकिन जब संतान की सुरक्षा, सेहत और दीर्घायु की कामना बात हो जो कि हर मां की इच्छा होती है तो आश्विन मास की कृष्ण अष्टमी तिथि बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।
इसका कारण है इस दिन संतान के सुखी, स्वस्थ और दीर्घायु जीवन की कामना पूरी करने हेतु रखा जाने वाला व्रत। इस व्रत को कहते हैं जीवित्पुत्रिका व्रत। आइये जानते हैं क्या है जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्व ? क्या है इसकी व्रत कथा व पूजा विधि ?
जितीया व्रत का महत्व
जीवितपुत्रिका व्रत आश्विन मास की कृष्ण अष्टमी को किया जाने वाला व्रत है। मान्यता है कि माताएं अपनी संतान के लंबे व स्वस्थ जीवन के लिये इस व्रत को करती हैं। कुछ क्षेत्रों में यह व्रत जिउतिया व्रत भी कहा जाता है।
जीवित्पुत्रिका व्रत कथा
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस व्रत का संबंध महाभारत से माना जाता है। कथा के अनुसार अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिये अश्वत्थामा पांडवों के वंश का नाश करने के अवसर ढंढता है। एक दिन मौका पाकर उसने पांडव समझते हुए द्रौपदी के पांच पुत्रों की हत्या कर दी। उसके इस कृत्य की बदौलत अर्जुन ने अश्वत्थामा को बंदी बना लिया और उससे उसकी दिव्य मणि छीन ली। लेकिन इसके पश्चात अश्वत्थामा का क्रोध और बढ़ गया और उसने उत्तरा की गर्भस्थ संतान पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया जिसे रोक पाना असंभव था।
लेकिन उस संतान का जन्म लेना भी अत्यावश्यक था। तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने समस्त पुण्यों का फल उत्तरा को समर्पित किया जिससे गर्भ में मृत संतान का जीवन मिला। मृत्योपरांत जीवनदान मिलने के कारण ही इस संतान को जीवित्पुत्रिका कहा गया। यह संतान कोई और नहीं बल्कि राजा परीक्षित ही थे। उसी समय से आश्विन अष्टमी को जीवित्पुत्रिका व्रत के रूप में मनाया जाता है।
जिवित पुत्रिका व्रत की कथा
जीवित्पुत्रिका व्रत को जिउतिया अथवा जितिया भी कहा जाता है इसकी भी एक कथा मिलती है। बहुत समय पहले की बात है कि गंधर्वों के एक राजकुमार हुआ करते थे, नाम था जीमूतवाहन। बहुत ही पवित्र आत्मा, दयालु व हमेशा परोपकार में लगे रहने वाले जीमूतवाहन को राज पाट से बिल्कुल भी लगाव न था लेकिन पिता कब तक संभालते। वानप्रस्थ लेने के पश्चात वे सबकुछ जीमूतवाहन को सौंपकर चलने लगे।
लेकिन जीमूतवाहन ने तुरंत अपनी तमाम जिम्मेदारियां अपने भाइयों को सौंपते हुए स्वयं वन में रहकर पिता की सेवा करने का मन बना लिया। अब एक दिन वन में भ्रमण करते-करते जीमूतवाहन काफी दूर निकल आया। उसने देखा कि एक वृद्धा काफी विलाप कर रही है। जीमूतवाहन से कहां दूसरों का दुख देखा जाता था उसने सारी बात पता लगाई तो पता चला कि वह एक नागवंशी स्त्री है और पक्षीराज गरुड़ को बलि देने के लिये आज उसके इकलौते पुत्र की बारी है।
जीमूतवाहन ने उसे धीरज बंधाया और कहा कि उसके पुत्र की जगह पर वह स्वयं पक्षीराज का भोजन बनेगा। अब जिस वस्त्र में उस स्त्री का बालक लिपटा था उसमें जीमूतवाहन लिपट गया। जैसे ही समय हुआ पक्षीराज गरुड़ उसे ले उड़ा। जब उड़ते उड़ते काफी दूर आ चुके तो पक्षीराज को हैरानी हुई कि आज मेरा यह भोजन चीख चिल्ला क्यों नहीं रहा है।
इसे जरा भी मृत्यु का भय नहीं है। अपने ठिकाने पर पंहुचने के पश्चात उसने जीमूतवाहन का परिचय लिया। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया। पक्षीराज जीमूतवाहन की दयालुता व साहस से प्रसन्न हुए व उसे जीवन दान देते हुए भविष्य में भी बलि न लेने का वचन दिया। मान्यता है कि यह सारा वाकया आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था इसी कारण तभी से इस दिन को जिउतिया अथवा जितिया व्रत के रूप में मनाया जाता है ताकि संतानें सुरक्षित रह सकें।
जितीया व्रत की विधि
जीवित्पुत्रिका व्रत को प्रदोष काल व्यापिनी अष्टमी के दिन किया जाता है। इस दिन स्नान के पश्चात व्रत का संकल्प किया जाता है। व्रत करने वाले को प्रदोष काल में गाय के गोबर से पूजा स्थल को लीपकर साफ करना चाहिए। पुराने समय में इस कार्य द्वारा ही स्थान को शुद्ध किया जाता था पर आज के समय में हल्दी गंगा जल द्वारा भी स्थान को पवित्र कर सकते हैं। साथ ही एक छोटा-सा तालाब भी वहां बना लेते हैं। इस तालाब के पास पाकड़ के पेड़ कि डाल लाकर खडी़ कर देनी चाहिए। जीमूतवाहन की कुश से बनी मूर्ति को पानी में या फिर मिट्टी के पात्र में स्थापित कर देनी चाहिए। इस चित्र या मूर्ति को पीले और लाल रंग से सजाना चाहिए।
अब इस प्रतिमा या चित्र का धूप-दीप, अक्षत, फूल माला से पूजन करना चाहिए प्रसाद तैयार करके पूजा करनी चाहिए। मिट्टी या गाय के गोबर से मादा चील और मादा सियार की मूर्ति भी बनानी चाहिए. दोनों प्रतिमाओं पर तिलक लगाना चाहिए। लाल सिन्दूर अर्पित करना चाहिए। इनका भी पूजन करना चाहिए। व्रत करते हुए जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा को भी सुनना चाहिए। जीवित्पुत्रिका व्रत के बारे में अलग अलग मान्यताएं भी मिलती हैं। कुछ के अनुसार एक दिन का तो कुछ के अनुसार तीन दिन तक इस उत्सव को मनाया जाता है पहले दिन व्रत में महिलाएं पूजा करती हैं और रात के समय सरपुतिया की सब्जी या नूनी का साग बनाकर खाया जाता है।
दूसरे दिन को खर या खुर जितिया कहा जाता है यह खुर जितिया इस दिन महिलाएं निर्जला व्रत रहती हैं. तीसरे और आखिरी दिन में पारण होता है। पारण के बाद ही खाना खाया जाता है। वैसे तो जिउतिया व्रत के पारण का कोई सही समय नहीं होता है। इसका कारण यह है, कि बहुत सी माताएँ अपने सन्तान की सुरक्षा एवं दीर्घायु के लिये इस व्रत खरह करती हैं। परंतु सूर्योदय के बाद मातृनवमी का श्राद्ध करने के साथ ही इस व्रत को खोला जा सकता है अर्थात पारण किया जा सकता है। महिलाएं इस दिन गले में लाल धागे के साथ माताएं जिउतिया भी पहनती हैं।
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