मां महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र हिन्दी अर्थ सहित महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र का पाठ करने की विधि और लाभ 

महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र के रचयिता श्री आदि शंकराचार्य को माना जाता हैं इस स्त्रोत का पाठ करने वालों के अनुसार, मां भगवती के इस स्तोत्र का पाठ करने से जातक के जीवन में आ रही परेशानियां दूर हो जाती हैं। कहा जाता है जो व्यक्ति जीवन में शक्ति की कामना करता है, उसे महिषासुर मर्दिनी स्त्रोत से मां भगवती की आराधना करनी चाहिए। इनकी आराधना से बड़े से बड़ा कष्ट तुरंत दूर हो जाता है। वैसे तो इस स्तोत्र का पाठ रोजाना करना अच्छा माना जाता हैं. लेकिन प्रत्येक व्यक्ति को महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र का पाठ नवरात्रि में अवश्य करना चाहिए. इससे माँ भगवती के आशीर्वाद की प्राप्ति होती हैं

मां महिषासुर मर्दिनी स्त्रोत का पाठ कब करना चाहिए

महिषासुर मर्दिनी स्त्रोत का पाठ आप किसी भी दिन कर सकते हैं. जिस दिन आप इस स्तोत्र का पाठ करते हैं. सुबह के समय करे. सुबह के समय इस स्तोत्र का पाठ करना अच्छा माना जाता हैं. अगर आप नवरात्रि के नौ दिन महिषासुर मर्दिनी स्त्रोत का पाठ करते हैं. तो यह आपके लिए काफी अच्छा और लाभदायी माना जाता हैं

महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र के लाभ    

1. ऐसा माना जाता है की आपके जीवन में अगर किसी भी प्रकार की समस्या हैं. तो आपको महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र का पाठ रोजाना करना चाहिए. इससे माँ भगवती के आशीर्वाद की प्राप्ति होती हैं. और आपको सभी प्रकार की परेशानियों से मुक्ति मिलती हैं.

2. इस स्तोत्र का पाठ नियमति रूप करने से मनुष्य के सभी संकट का विनाश होता हैं.

3. जो व्यक्ति शक्ति की कामना रखता हैं. उन्हें रोजाना महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र का पाठ करने चाहिए. इससे व्यक्ति को शक्ति, साहस और बल की प्राप्ति होती हैं.

4. हमारे पुराने शास्त्रों में बताया गया है की जो व्यक्ति दिन में एक बार भी महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र का पाठ कर लेता हैं. उसके जीवन में कभी भी किसी भी प्रकार की समस्या नहीं आती हैं. ऐसे लोगो के साथ माँ भगवती के आशीर्वाद हमेशा के लिए बने रहते हैं.

5. ऐसा भी माना जाता है की महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को स्वर्ग की प्राप्ति होती हैं. ऐसे लोग कभी भी नरक में नहीं जाते हैं.

महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र का पाठ करने की विधि 

1. इस स्तोत्र का पाठ आप किसी भी दिन कर सकते हैं. अगर आप रोजाना इस स्तोत्र का पाठ करते हैं. तो आपके लिए और भी लाभदायी माना जाता हैं.

2. जिस दिन आप महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र का पाठ करने का संकल्प लेते हैं. उस दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि करके स्वच्छ हो जाए.

3. अब माँ भगवती की प्रतिमा के आगे घी दीपक जलाकर पुष्प आदि अर्पित करे.

4. इतना हो जाने के पश्चात महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र का पाठ शुरू करे.

5. इस स्तोत्र का पाठ आप अपनी इच्छा अनुसार कितनी भी बार कर सकते हैं.

6. पाठ समाप्त होने पर माँ भगवती से अपनी मनोकामना पूर्ति की प्रार्थना करे.

माँ महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र हिन्दी अर्थ सहित 

अयि गिरि-नन्दिनि नंदित-मेदिनि

विश्व-विनोदिनि नंदनुते

गिरिवर विंध्य शिरोधि-निवासिनि

विष्णु-विलासिनि जिष्णुनुते।

भगवति हे शितिकण्ठ-कुटुंबिनि

भूरि कुटुंबिनि भूरि कृते

जय जय हे महिषासुर-मर्दिनि

रम्य कपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

हे गिरिपुत्री, पृथ्वी को आनंदित करने वाली, संसार का मन मुदित रखने वाली, नंदी द्वारा नमस्कृत,पर्वतप्रवर विंध्याचल के सबसे ऊंचे शिखर पर निवास करने वाली, विष्णु को आनंद देने वाली, इंद्रदेव द्वारा नमस्कृत, नीलकंठ महादेव की गृहिणी, विशाल कुटुंब वाली, विपुल मात्रा में निर्माण करने वाली देवी, तुम्हारी जय हो, जय हो। हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा

स्तोत्र

सुरवर-वर्षिणि दुर्धर-धर्षिणि

दुर्मुख-मर्षिणि हर्षरते

त्रिभुवन-पोषिणि शंकर-तोषिणि

किल्बिष-मोषिणि घोषरते।

दनुज निरोषिणि दितिसुत रोषिणि

दुर्मद शोषिणि सिन्धुसुते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्य कपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

हे सुरों पर वरदानों का वर्षंण करने वाली, दुर्मुख और दुर्धर नामक दैत्यों का संहार करने वाली, सदा हर्षित रहने वाली, तीनों लोकों का पालन-पोषण करने वाली, शिवजी को प्रसन्न रखने वाली, कमियों को, दोषों को दूर करने वाली, हे (नाना प्रकार के आयुधों के) घोष से प्रसन्न होने वालीं, दनुजों के रोष को निरोष करने वाली निःशेष करने वाली, तात्पर्य यह कि दनुजों को ही समाप्त करके उनके रोष (क्रोध) को समाप्त करने वाली, दितिपुत्र अर्थात् दैत्यों (माता दिति के पुत्र होने से वे दैत्य कहलाये) पर रोष (क्रोध) करने वाली, दुर्मद दैत्यों को, यानि मदोन्मत्त दैत्यों को, भयभीत करके उन्हें सुखाने वाली, हे सागर-पुत्री! हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा! तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

अयि जगदंब मदंब कदंब

वनप्रिय वासिनि हासरते

शिखरि शिरोमणि तुङ्ग हिमालय

श्रृंग निजालय मध्यगते।

मधु मधुरे मधु कैटभ गंजिनि

कैटभ भंजिनि रासरते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्य कपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

हे जगन्माता, हे मेरी माता अपने प्रिय कदम्ब-वृक्ष के वनों में वास व विचरण करने वाली हे हासरते! हासरते अर्थात उल्लासमयी, हास-उल्लास में रत। ऊंचे हिमाद्रि के मुकुटमणि सदृश सर्वोच्च शिखर के बीचोबीच जिसका गृह (निवासस्थान) है, ऐसी हे शिखर-मंदिर में रहने वाली देवी ! मधु के समान मधुर!मधु-कैटभ को पराभूत करने वाली, कैटभ का संहार करने वाली, कोलाहल में रत रहने वाली, हे महिषासुरमर्दिनि, तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

अयि शतखण्ड विखण्डित रुण्ड

वितुण्डित शुण्ड गजाधिपते

रिपु गज गण्ड विदारण चण्ड

पराक्रम शुण्ड मृगाधिपते।

निज भुज दण्ड निपातित

खण्ड विपातित मुण्ड भटाधिपते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

शत्रु सैन्य के उत्तम हाथियों की सूंड काट कर उनके खंड-खंड हुए धड़ों के सौ सौ टुकड़े कर डालने वाली जिनका सिंह शत्रुओं के हाथियों के मुंह नोच कर चीर डालता है, अपनी भुजा में उठाये हुए दण्ड से शत्रुपक्ष के योद्धाओं के मुंड (सिर) काट फेंकने वाली, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

अयि रण दुर्मद शत्रु वधोदित

दुर्धर निर्जर शक्तिभृते

चतुर विचार धुरीण महाशिव

दूतकृत प्रमथाधिपते।

दुरित दुरीह दुराशय दुर्मति

दानव दूत कृतांतमते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

हे युद्ध में उन्मत्त हो जाने वाली, शत्रुओं का वध करने के लिए आविर्भूत होने वाली, शक्ति को धारण करने वाली या शक्ति से सज्जित, बुद्धिमानों में अग्रणी भगवान शिव को, भूतनाथ को, दूत बना कर भेजने वाली तथा अधम वासना व कुत्सित उद्देश्य से दैत्यराज शुम्भ द्वारा भेजें गये दानव-दूतों का अंत करने वाली, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

अयि शरणागत वैरि वधूवर

वीर वराभय दायकरे

त्रिभुवन मस्तक शूल विरोधि

शिरोधि कृतामल शूलकरे।

दुमिदुमि तामर दुंदुभिनाद

महो मुखरीकृत तिग्मकरे

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

शरणापन्न शत्रुपत्नियों के योद्धा-पतियों को अभय प्रदान करने वाली, अपने त्रिशूल-विरोधी को, चाहे हे वह त्रिभुवन का स्वामी हो, अपने त्रिशूल से नतमस्तक करने वाली, दुन्दुभि से उठते दुमि-दुमि के ताल के लगातार बहते ध्वनि-प्रवाह से दिशाओं को महान रव से भरने वाली, हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिनन्दिनि तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

अयि निज हुँकृति मात्र निराकृत

धूम्र विलोचन धूम्र शते

समर विशोषित शोणित बीज

समुद्भव शोणित बीज लते।

शिव शिव शुंभ निशुंभ

महाहव तर्पित भूत पिशाचरते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

अपनी केवल हुंकार मात्र से धूम्रविलोचन (एक दैत्य का नाम) को आकारहीन करके सौ सौ धुंए के कणों में बदल कर रख देने वाली, युद्ध में रक्तबीज (एक दैत्य का नाम) और उसके रक्त की बूँद-बूँद से पैदा होते हुए और बीजों की बेल सदृश दिखने वाले अन्य अनेक रक्तबीजों का संहार करने वाली, शुम्भ-निशुम्भ दैत्यों की शुभ आहुति देकर महाहवन करते हुए भूत-पिशाच आदि को तृप्त करने वाली देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

धनुरनु संग रणक्षणसंग

परिस्फुर दंग नटत्कटके

कनक पिशंग पृषत्क निषंग

रसद्भट शृंग हतावटुके।

कृत चतुरंग बलक्षिति रंग

घटब्दहुरंग रटब्दटुके

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

रणभूमि में, युद्ध के क्षणों में, धनुष थामे हुए जिनके घूमते हुए हाथों की गति-दिशा के अनुरूप जिनके कंकण हाथ में नर्तन करने लगते हैं, ऐसी हे देवी! रण में गर्जना करते शत्रु योद्धाओं की देहों के साथ मिलाप होने से और उन हतबुद्धि (मूर्खों) को मार देने पर, जिनके स्वर्णिम बाण (दैत्यों के लहू से) लाल हो उठते हैं, ऐसी हे देवी तथा स्वयं को घेरे खड़ी, बहुरंगी शिरों वाली और गरजते हुए शत्रुओं की चतुरंगिणी सेना को नष्ट कर जिन्होंने विनाश-लीला मचा दी, ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

जय जय जप्य जयेजय शब्द

परस्तुति तत्पर विश्वनुते

झण झण झिञ्जिमि झिंगकृत नूपुर

सिंजित मोहित भूतपते।

नटित नटार्ध नटी नट नायक

नाटित नाट्य सुगानरते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

जय जय की हर्षध्वनि और जयघोष से देवी की स्तुति करने में तत्पर है रहने वाले अखिल विश्व द्वारा वन्दिता, झन-झन झनकते नूपुरों की ध्वनि से (रुनझुन से) भूतनाथ महेश्वर को मुग्ध कर देने वाली देवी, और जहाँ नट-नटी दोनों प्रमुख होते हैं, ऐसी नृत्यनाटिका में नटेश्वर (शिव) के अर्धभाग के रूप में नृत्य करने वाली एवं सुमधुर गान में रत, हे महिषासुर का घात करने वाली देवी, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

अयि सुमनः सुमनः सुमनः

सुमनः सुमनोहर कांतियुते

श्रितरजनी रजनी-रजनी

रजनी-रजनी कर वक्त्रवृते।

सुनयन विभ्रमर भ्रमर

भ्रमर-भ्रमर भ्रमराधिपते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

सुन्दर मनोहर कांतिमय रूप के साथ साथ सुन्दर मन से संयुत और रात्रि के आश्रय अर्थात् चन्द्रमा जैसी उज्जवल मुख-मंडल की आभा से युक्त हे देवी, काले, मतवाले भंवरों के सदृश, अपितु उनसे भी अधिक गहरे काले और मतवाले-मनोरम तथा चंचल नेत्रों वाली, हे महिषासुर का घात करने वाली देवी, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो।

स्तोत्र

सहित महाहव मल्लम तल्लिक

मल्लित रल्लक मल्लरते

विरचित वल्लिक पल्लिक मल्लिक

भिल्लिक भिल्लिक वर्ग वृते।

सितकृत पुल्लिसमुल्ल सितारुण

तल्लज पल्लव सल्ललिते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

एक विशाल रूप से आयोजित महासत्र (महायज्ञ) की भांति ही रहे घोर युद्ध में, फूल-सी कोमल किन्तु रण-कुशल साहसी स्त्री-योद्धाओं सहित जो संग्राम में रत हैं और भील स्त्रियों ने झींगुरों के झुण्ड की भांति जिन्हें घेर रखा है, जो उत्साह और उल्लास से भरी हुई हैं और जिनके उल्लास की लालिमा से (प्रभातकालीन अरुणिमा की भांति) अतीव सुन्दर-सुकोमल कलियां पूरी तरह खिल खिल उठती हैं, ऐसी हे लावण्यमयी देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

अविरल गण्ड गलन्मद

मेदुर मत्त मतङ्गज राजपते

त्रिभुवन भूषण भूत कलानिधि

रूप पयोनिधि राजसुते।

अयि सुद तीजन लालसमानस

मोहन मन्मथ राजसुते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

कर्ण-प्रदेश या कनपटी से सतत झरते हुए गाढ़े मद की मादकता से मदोन्मत्त हुए हाथी-सी (उत्तेजित), हे गजेश्वरी, हे त्रिलोक की भूषण यानि शोभा, सभी भूत यानि प्राणियों, चाहे वे दिव्य हों या मानव या दानव, की कला का आशय, रूप-सौंदर्य का सागर, हे (पर्वत) राजपुत्री, हे सुन्दर दन्तपंक्ति वाली, सुंदरियों को पाने के लिए मन में लालसा और अभिलाषा उपजाने वाली तथा कामना जगाने वाली, मन को मथने वाले हे कामदेव की पुत्री (के समान), हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा! तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

कमल दलामल कोमल कांति

कलाकलितामल भाललते

सकल विलास कलानिलयक्रम

केलि चलत्कल हंस कुले।

अलिकुल सङ्कुल कुवलय मण्डल

मौलिमिलद्भकुलालि कुले

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ 

कमल के फूल की निर्मल पंखुड़ी की सुकुमार, उज्जवल आभा से सुशोभित (कान्तिमती) है भाल-लता जिनकी, ऐसी हे देवी, जिनकी ललित चेष्टाओं में, पग-संचरण, में कला-विन्यास है, जो कला का आवास है, जिनकी चाल-ढाल में राजहंसों की सी सौम्य गरिमा है, जिनकी वेणी में, भ्रमरावली से आवृत कुमुदिनी के फूल और बकुल के भंवरों से घिरे फूल एक साथ गुम्फित हैं, ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी, हे गिरिराज पुत्री, तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

कर मुरली रव वीजित कूजित

लज्जित कोकिल मंजुमते

मिलित पुलिन्द मनोहर गुंजित

रंजितशैल निकुंज गते।

निजगुण भूत महाशबरीगण

सदगुण संभृत केलितले

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

जिनकी करगत मुरली से निकल कर बहते स्वर से कोकिल-कूजन लज्जित हो जाता है, ऐसी हे माधुर्यमयी तथा जो पर्वतीय जनों द्वारा मिल कर गाये जाने वाले, मिठास भरे, गीतों से गुंजित रंगीन पहाड़ी निकुंजों में विचरण करती हैं, वे और अपने सद्गुणसम्पन्न गणों व वन्य प्रदेश में रहने वाले, शबरी आदि जाति के लोगों के साथ जो पहाड़ी वनों में क्रीड़ा (आमोद-प्रमोद) करती हैं, ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली, सुंदर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

कटितट पीत दुकूल विचित्र

मयूखतिरस्कृत चंद्र रुचे

प्रणत सुरासुर मौलिमणिस्फुर

दंशुल सन्नख चंद्र रुचे।

जित कनकाचल मौलिपदोर्जित

निर्भर कुंजर कुंभकुचे

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

जिन रेशमी वस्त्रों से फूटती किरणों के आगे चन्द्रमा की ज्योति कुछ भी नहीं है, ऐसे दुकूल (रेशमी परिधान) से जिनका कटि-प्रदेश आवृत है और जिनके पद-नख चन्द्र-से चमक रहे हैं उस प्रकाश से, जो देवताओं तथा असुरों के मुकुटमणियों से निकलता है, जब वे देवी-चरणों में नमन करने के लिए शीश झुकाते हैं

साथ ही जैसे कोई गज (हाथी) सुमेरु पर्वत पर विजय पा कर उत्कट मद (घमंड) से अपना सिर ऊंचा उठाये हो, ऐसे देवी के कुम्भ-से (कलश-से) उन्नत उरोज प्रतीत होते हैं, ऐसी हे देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

विजित सहस्रकरैक सहस्रकरैक

सहस्रकरैकनुते

कृत सुरतारक संगरतारक

संगरतारक सूनुसुते।

सुरथ समाधि समान समाधि

समाधि समाधि सुजातरते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

अपने सहस्र हाथो से देवी ने जिन सहस्र हाथों को अर्थात् सहसों दानवों को विजित किया उनके द्वारा और (देवताओं के) सहस्र हाथों द्वारा वन्दित, अपने पुत्र को सुरगणों का तारक (बचाने वाला) बनानेवाली, तारकासुर के साथ युद्ध में,(देवताओं के पक्ष में) युद्ध बचाने वाले पुत्र से पुत्रवती अथवा ऐसे पुत्र की माता एवं उच्चकुलोत्पन्न सुरथ और समाधि द्वारा समान रूप से की हुई तपस्या से प्रसन्न होने वाली देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति

योऽनुदिनं स शिवे

अयि कमले कमलानिलये

कमलानिलयः स कथं न भवेत्।

तव पदमेव परंपदमित्यनुशीलयतो

मम किं न शिवे

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

हे सुमंगला, तुम्हारे करुणा के धाम सदृश (के जैसे) चरण-कमल की पूजा जो प्रतिदिन करता है, हे कमलवासिनी, वह कमलानिवास (श्रीमंत) कैसे न बने ? अर्थात कमलवासिनी की पूजा करने वाला स्वयं कमलानिवास अर्थात धनाढ्य बन जाता है। तुम्हारे पद ही (केवल) परमपद हैं, ऐसी धारणा के साथ उनका ध्यान करते हुए हे शिवे मैं परम पद कैसे न पाउँगा ? हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

कनकल सत्कल सिन्धु जलैरनु

सिंचिनुते गुण रंगभुवम

भजति स किं न शचीकुच कुंभ

तटी परिरंभ सुखानुभवम्।

तव चरणं शरणं करवाणि

नतामरवाणि निवासि शिवं

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ 

स्वर्ण-से चमकते व नदी के बहते मीठे जल से जो तुम्हारे कला और रंग-भवन रुपी मंदिर मे छिड़काव करता है वह क्यों न शची (इन्द्राणी) के कुम्भ-से उन्नत वक्षस्थल से आलिंगित होने वाले (देवराज इंद्र) की सी सुखानुभूति पायेगा ? हे वागीश्वरी, तुम्हारे चरण-कमलों की शरण ग्रहण करता हूँ, देवताओं द्वारा वन्दित हे महासरस्वती, तुममें मांगल्य का निवास है। ऐसी हे देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा तुम्हारी जय हो, जय हो

स्तोत्र

तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं

सकलं ननु कूलयते

किमु पुरुहूत पुरीन्दुमुखी

सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते।

मम तु मतं शिवनामधने

भवती कृपया किमुत क्रियते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ

तुम्हारा मुख-चन्द्र, जो निर्मल चंदमा का सदन है, सचमुच ही सभी मल-कल्मष को किनारे पर कर देता है अर्थात् दूर कर देता करता है। इन्द्रपुरी की चंद्रमुखी हो या सुन्दर आनन वाली रूपसी, वह (तुम्हारा मुख-चन्द्र) उससे (अवश्य) विमुख कर देता है। हे शिवनाम के धन से धनाढ्या देवी, मेरा तो मत यह है कि आपकी कृपा से क्या कुछ संपन्न नहीं हो सकता। हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

स्तोत्र

अयि मयि दीनदयालुतया

कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे

अयि जगतो जननी कृपयासि

यथासि तथानुमितासिरते।

यदुचितमत्र भवत्युररि

कुरुतादुरुतापमपा कुरुते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि

रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अर्थ 

दीनों पर सदैव दयालु रहने वाली हे उमा, अब मुझ पर भी कृपा कर ही दो, (मुझ पर भी तुम्हें कृपा करनी ही होगी)। हे जगत की जननी जैसे तुम कृपा से युक्त हो वैसे ही धनुष-बाण से भी युत हो, अर्थात् स्नेह व संहार दोनों करती हो। जो कुछ भी उचित हो यहाँ, वही आप कीजिए, हमारे ताप (और पाप) दूर कीजिए, अर्थात नष्ट कीजिए। हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा तुम्हारी जय हो, जय हो

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