Best Shrimad Bhagwat Geeta Quotes प्रचलित मान्यताओं के अनुसार, द्वापर युग में महाभारत (Mahabharat) के युद्ध से ठीक पहले कुरुक्षेत्र (Kurukshetra) में भगवान श्रीकृष्ण (Lord Krishna) ने इसी पावन तिथि पर अपने मुख से अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था, इसलिए माना जाता है कि इसी दिन श्रीमद्भगवत गीता का जन्म हुआ था. द्वापर युग में श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया गीता का ज्ञान आज के जीवन में हर किसी पर बिल्कुल सटीक बैठता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि श्रीमद्भगवत गीता में इंसान के जीवन का सार छुपा है और इसमें हर व्यक्ति के जीवन की समस्याओं का समाधान स्थित है.
श्रीमद्भगवत गीता में इंसान के जन्म से लेकर मौत तक के चक्र और मृत्यु के बाद के चक्र को विस्तारपूर्वक बताया गया है. कहा जाता है कि गीता में दिए गए उपदेश जीवन के हर मोड़ पर व्यक्ति के मार्गदर्शन में काम आते हैं. ऐसे में आज हम आपके लिए लेकर आए हैं श्रीमद्भगवत गीता के इन 27 अनमोल उपदेशों को अपनों के साथ शेयर कर सकते हैं, क्योंकि इसमें जीवन का सार छुपा है.
1. यदि कोई कृष्ण से मित्रता करता है, तो वह कभी धोखा नहीं खाएगा और उसे वह सारी सहायता मिलेगी जिसकी उसे आवश्यकता है।
[ श्रीमद्-भागवतम् – ३.२७.४ ]
2. यह भौतिक सृष्टि क्षणिक अस्तित्व के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं और इसका उद्देश्य उन बद्धजीवों को, जो इस भौतिक जगत में आ फँसे हैं, मुक्ति का अवसर प्रदान करना है और इसमें जो मनुष्य भगवान् विष्णु के संरक्षण में सतोगुण प्राप्त कर लेता है, उसे वैष्णव नियमों का पालन करने के कारण, मुक्त होने का और भगवद्धाम जाने का सर्वाधिक अवसर मिलता है जहाँ से इस दुखमय जगत में फिर कभी लौटना नहीं होता। श्रीमद भागवतम 2.7.39 तात्पर्य
3. मेरे प्रिय नारद, वास्तव में मैं अपने निवास स्थान वैकुंठ में नहीं रहता, न ही मैं योगियों के हृदय में निवास करता हूं, लेकिन मैं उस स्थान पर निवास करता हूं जहां मेरे शुद्ध भक्त मेरा पवित्र नाम जपते हैं और मेरे रूप, लीलाओं और गुणों की चर्चा करते हैं।
[ श्रीमद्-भागवतम् – ४.३०.३५, अनुवाद और तात्पर्य: ]
4. जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।। ३० ।।
भगवद्-गीता यथारूप: अध्याय ६, श्लोक ३० (अनुवाद, श्रील प्रभुपाद:)
5. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ २.४७||
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं: तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करना ही है| कर्मों के फल पर तुम्हारा अधिकार नहीं है| अतः तुम निरन्तर कर्म के फल पर मनन मत करो और अकर्मण्य भी मत बनो|२.४७।
In the Bhagwad Gita, Lord Krishna tells Arjuna – You only have a right to action (karma) and not to the fruits of your karma. Do not become a person who constantly meditates upon (gets attached to) the results of one’s karma. Do not get attached to inactivity (no karma). |2.47|
Read our notes on this famous shloka from the Bhagwad Gita. Bhagavad Gita 2.47
6. ध्यान लगाना या अन्य साधना करना नाम लेने की बराबरी नहीं कर सकते इसलिए निरंतर हरि का नाम लो बस।
7. प्रभु की रूप आसक्ति आज भी कलियुग के श्रेष्ठ भक्तों में देखने को मिलती है जो कि कितनी लंबी कतार में खड़े होकर क्षणभर प्रभु का दर्शन करने के लिए कितनी दूर से चल कर आते हैं । ऐसे भक्त बार-बार कतार में लगकर प्रभु का बार-बार दर्शन करते हैं
8. एक वास्तविक भक्त, वह चींटी के प्रति भी कोई अनादर नहीं दिखाता है, और देवताओं की क्या बात करें, क्योंकि वह इस ज्ञान में है कि “हर जीव परम भगवान का अंश है। वे केवल विभिन्न पार्ट बजा रहे हैं। तो सर्वोच्च भगवान के साथ संबंध में वे सभी सम्मानित हैं।”
9. “If we really want to be free, we have to be prepared to confront the forces that bind or distract us. This includes struggling to overcome our baser tendencies toward selfishness, egoism, and hypocrisy while reaching for love, truth, and spiritual joy.”
10. One who has thus captured the Supreme Lord within his heart is to be known as bhāgavata-pradhāna, the most exalted devotee of the Lord.
Srila Prabhupada
11. यह शरीर उत्पन्न होता है, बढ़ता है, बना रहता है, दूसरे शरीरों को जन्म देता है, उसका क्षय होता है और तब वह नष्ट हो जाता है। किंतु मूर्ख लोग नश्वर शरीर के साथ स्थायी समझौता करना चाहते हैं और सोचते हैं कि उनकी जायदाद, संतानें, समाज, देश इत्यादि उन्हें संरक्षण प्रदान करेंगे। ऐसे मूर्खतापूर्ण विचारों में आकर, वे ऐसे अस्थायी कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं और यह बिल्कुल भूल जाते हैं कि उन्हें यह अस्थायी शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करना है और समाज, मित्रता तथा प्यार की फिर नई व्यवस्था करनी है और में फिर से नष्ट हो जाना है। वे अपना स्थायी स्वरूप भूल जाते हैं और अपने मूल कर्तव्य को भूलकर अस्थायी कार्यों में सक्रिय हो जाते हैं। श्रीमद्भागवतम्, तात्पर्य 1.13.22
12. संसार में हमें कभी भी उत्साह से नहीं लगना चाहिए क्योंकि वहाँ दुःख के सिवा कुछ भी नहीं है । संसार में दिखने वाले सुख के भीतर भी दुःख छिपा हुआ होता है ।
13. हरे कृष्ण ये अवसर दुर्लभ महा, नित पाया नहीं जाय।
जो अब के चेत्यो नहीं, पछतावा रह जाय
अर्थात जीवात्मा को मनुष्य शरीर प्राप्त करना बहूत ही दुर्लभ संयोग है, जो बार-बार नहीं मिलता। जब यह दुर्लभ अवसर सुलभ हो जाए, तो सावधान होकर वह कार्य करना चाहिए, जिससे आत्मा का उद्धार हो, आत्मा का कल्याण हो। भाव यह कि उसे भक्ति व राम नाम की कमाई करनी चाहिए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
14. यदि हम कृष्णभावनामृत को ग्रहण करके श्रीकृष्ण के चरण कमलों का तथा ‘हरे कृष्ण’ मंत्र के कीर्तन द्वारा श्रीकृष्ण के निरंतर संपर्क में रहे तो हमें भगवत धाम वापस लौटने के लिए स्वयं प्रबंध करने का अधिक कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा। श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से यह अत्यंत सरल है ।
संदर्भ – श्रीमद् भागवत 7.15.33 तात्पर्य
15. ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं को मनुष्यों की अपेक्षा अधिक उत्तम शरीर प्राप्त फिर भी ब्रह्मा समेत सारे देवता मनुष्य जीवन प्राप्त करना चाहते हैं, क्योंकि यह विशेष रूप से उसी जीव के लिए होता है, जो दिव्य ज्ञान तथा धार्मिक सिद्धि प्राप्त कर सके। एक जीवन में भगवद्धाम वापस जाना सम्भव नहीं है, किन्तु कम से कम मनुष्य जीवन में जीव को जीवन-लक्ष्य को समझकर कृष्णभावनामृत शुरू कर देना चाहिए। श्रीमद भागवतम 3.15.24 तात्पर्य
16. ऐसी कई चीजें हैं जो किसी को भक्ति सेवा में प्रवेश करने से रोकती हैं। लेकिन शुद्ध भक्तों की संगति से ये सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं। नवजात भक्त व्यावहारिक रूप से शुद्ध भक्त के दिव्य गुणों से समृद्ध हो जाता है , जिसका अर्थ है भगवान के नाम , प्रसिद्धि , गुणवत्ता , लीलाओं आदि के व्यक्तित्व के लिए आकर्षण श्रील प्रभुपाद
[ श्रीमद भागवतम् १.५.२५ तात्पर्य ]
17. साधारण लोक में एक बात देखी जाती है कि जब कोई कन्या विवाह के समय अपने भावी पति को अपना हाथ सौंप देती है, उसी समय पति के नाम, यश और सम्पूर्ण संपत्ति की वह भागिदरिणी हो जाती है। उसी तरह जिस क्षण कोई भक्त शुद्ध अंतः करण से भगवान कृष्ण से कह देता है कि, “हे भगवान मैं आपका हूँ” उसी क्षण कृष्ण उसे अपना लेते हैं और उसे सभी प्रकार से अपने समान ऐश्वर्य प्रदान करते हैं।
18. मैं भगवान का भगवान मेरे इससे अच्छी और बड़ी कोई बात ही नही है। सीधी सी बात है मैं मेरा ही बंधन है और तू तेरा ही मुक्ति है।बस इसे याद कर लो तुम इस भवसागर से पार हो जाओगे
19. नायकत्व उन लोगों का सेवक बनना है जिनका हम नेतृत्व करते हैं, उनके कल्याण के लिए। इसलिए उन्हें प्रभावित करने का प्रयास न करें अपितु उन्हें प्रेम प्रदान करें।
20. ऐसा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति तीनों पापों के संघात से तनिक भी विचलित नहीं होता क्योंकि वह इन कष्टों (तापों) को भगवत्कृपा के रूप में लेता है और पूर्व पापों के कारण अपने को अधिक कष्ट के लिए योग्य मानता है और वह देखता है कि उसके सारे दुख भगवत्कृपा से रंचमात्र रह जाते हैं | इसी प्रकार जब वह सुखी होता है तो अपने को सुख के लिए अयोग्य मानकर इसका भी श्री भगवान् को देता है | वह सोचता है कि भगवत्कृपा से ही वह ऐसी सुखद स्थिति में है और भगवान् की सेवा और अच्छी तरह से कर सकता है | BG.2.56 Purport
21. सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति किस तरह बोलता है, क्योंकि वाणी ही किसी मनुष्य का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण है | कहा जाता है कि मुर्ख का पता तब तक नहीं लगता जब तक वह बोलता नहीं | एक बने-ठने मुर्ख को तब तक नहीं पहचाना जा सकता जब तक वह बोले नहीं, किन्तु बोलते ही उसका यथार्थ रूप प्रकट हो जाता है | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति का सर्वप्रमुख लक्षण यह है कि वह केवल कृष्ण तथा उन्हीं से सम्बद्ध विषयों के बारे में बोलता है | BG.2.54 Purport
22. आत्म-साक्षात्कार की सर्वोच्च सिद्धि यह जान लेना है कि मनुष्य कृष्ण का शाश्र्वत दास है और उसका एकमात्र कर्तव्य कृष्णभावनामृत में अपने सारे कर्म करना है | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति या भगवान् के एकनिष्ट भक्त को न तो वेदों की अलंकारमयी वाणी से विचलित होना चाहिए न ही स्वर्ग जाने के उद्देश्य से सकाम कर्मों में प्रवृत्त होना चाहिए
23. The highest perfection of self-realization is to understand that one is eternally the servitor of Kṛṣṇa and that one’s only business is to discharge one’s duties in Kṛṣṇa consciousness. BG.2.53 Purport
24. अर्जुन ने कहा हे विश्वेश्वर हे विश्वरूप मैं आपके शरीर में अनेकानेक हाथ, पेट, मुँह तथा ऑंखें देख रहा हूँ, जो सर्वत्र फैले हैं और जिनका अंत नही है। आपमें न अंत दिखता है, न मध्य और न आदि। आप ही परम जानने योग्य हैं। आप इस ब्रह्माण्ड के परम आधार हैं। आप अविनाशी तथा शाश्वत धर्म के पालक भगवान् हैं। यही मेरा मत है। (विराट रूप, श्रीमदभगवद्गीता 11/16)
Arjun said : O Lord of the universe I am seeing in Your universal body many, many forms – bellies, mouths, eyes; expanded without limit. There is no end, there is no beginning, and there is no middle to all this. the eternal Personality of Godhead. The Universal Form, Bhagwad Gita..
25. Certainly, if he she offers Me with devotion a leaf, a flower, a fruit, and water, I partake that whole offering of such a pure hearted and affectionate devotee of Mine, With heartfelt love, that I graciously accept.
26. No one who does good work will ever come to a bad end, either here or in the world come
27. No matter how wounded your heart is, know for certain that the Lord will never fail you and that He is always waiting to guide and heal you, whenever you’re ready
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