संत सूरदास जन्मोत्सव विशेष संत कवि सूरदास जिसने जगत को दिखाई श्री कृष्णलीला
महाकवि सूरदास जिन्होंने जन-जन को भगवान श्री कृष्ण की बाल लीलाओं से परिचित करवाया। जिन्होंनें जन-जन में वात्सल्य का भाव जगाया। नंदलाल व यशोमति मैया के लाडले को बाल गोपाल बनाया। कृष्ण भक्ति की धारा में सूरदास का नाम सर्वोपरि लिया जाता है। सूरदास जिन्हें बताया तो जन्मांध जाता है लेकिन जो उन्होंने देखा वो कोई न देख पाया। गुरु वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग पर सूरदास ऐसे चले कि वे इस मार्ग के जहाज तक कहाये। अपने गुरु की कृपा से भगवान श्री कृष्ण की जो लीला सूरदास ने देखी उसे उनके शब्दों में चित्रित होते हुए हम भी देखते हैं। वैशाख शुक्ल पंचमी को सूरदास जी की जयंती मनाई जाती है। आइये जानते हैं इनके जीवन के बारे में।
सूरदास जयंती वैशाख के महीने में शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मनाई जाती है। मधुर कविताओं, भजनों और भक्ति गीतों के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण की भक्ति करने वाले सूरदास जी ने अपना सारा जीवन कृष्ण भक्ति में ही व्यतीत किया । इनका जन्म सारस्वत परिवार में पंडित रामदास सारस्वत के यहां 1478 ई. में आगरा के रुनकता में हुआ था, कुछ मतों के अनुसार सूरदास जी का जन्म हरियाणा के सीही गाँव में हुआ भी माना जाता वल्लाभाचार्य जी नें इन्हें दीक्षा प्रदान की और भगवान श्री कृष्ण के जीवन, जन्म, राधा-कृष्ण आदि के बारे में ज्ञान दिया । वल्लाभाचार्य जी ने ही इन्हें श्री नाथ जी के मंदिर में लीला-गान करने का दायित्व भी दिया था।
सूरदास का संक्षिप्त जीवन परिचय
सूरदास का संपूर्ण जीवन कृष्ण भक्ति में बीता है। उन्होंने कृष्ण की लीलाओं पर पद लिखे व गाये। यह जिम्मेदारी उन्हें सौंपी थी उनके गुरु वल्लभाचार्य ने। सूरदास के जन्म को लेकर विद्वानों के मत अलग-अलग हैं। कुछ उनका जन्म स्थान गांव सीही को मानते हैं जो कि वर्तमान में हरियाणा के फरीदाबाद जिले में पड़ता है तो कुछ मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित रुनकता नामक ग्राम को उनका जन्मस्थान मानते हैं। सूरदास एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्में थे। इनके पिता रामदास भी गायक थे।
इनके बारे में प्रचलित है कि ये बचपन से साधु प्रवृति के थे। इन्हें सगुन बताने कला वरदान रूप में मिली थी। जल्द ही ये बहुत प्रसिद्ध भी हो गये थे। लेकिन इनका मन वहां नहीं लगा और अपने गांव को छोड़कर समीप के ही गांव में तालाब किनारे रहने लगे। जल्द ही ये वहां से भी चल पड़े और आगरा के पास गऊघाट पर रहने लगे। यहां ये जल्द ही स्वामी के रूप में प्रसिद्ध हो गये। यहीं पर इनकी मुलाकात वल्लभाचार्य जी से हुई। उन्हें इन्हें पुष्टिमार्ग की दीक्षा दी और श्री कृष्ण की लीलाओं का दर्शन करवाया। वल्लभाचार्य ने इन्हें श्री नाथ जी के मंदिर में लीलागान का दायित्व सौंपा जिसे ये जीवन पर्यंत निभाते रहे।
सूरदास की जन्मतिथि Surdas date of Birth
सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। साहित्य लहरी सूर की लिखी रचना मानी जाती है। इसमें साहित्य लहरी के रचना-काल के सम्बन्ध में निम्न पद मिलता है
मुनि पुनि के रस लेख।
दसन गौरीनन्द को लिखि सुवल संवत् पेख॥
इसका अर्थ संवत् 1607 ईस्वी में माना गया है, अतएव “साहित्य लहरी’ का रचना काल संवत् 1607 वि० है। इस ग्रन्थ से यह भी प्रमाण मिलता है कि सूर के गुरु श्री वल्लभाचार्य थे।
सूरदास का जन्म सं० 1540 ईस्वी के लगभग ठहरता है, क्योंकि बल्लभ सम्प्रदाय में ऐसी मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत् की वैशाख् कृष्ण एकादशी को हुआ था। इसलिए सूरदास की जन्म-तिथि वैशाख शुक्ला पंचमी, संवत् 1535 वि० समीचीन जान पड़ती है।
क्या सूरदास जन्मान्ध थे ?
सूरदास श्रीनाथ की “संस्कृतवार्ता मणिपाला’, श्री हरिराय कृत “भाव-प्रकाश”, श्री गोकुलनाथ की “निजवार्ता’ आदि ग्रन्थों के आधार पर, जन्म के अन्धे माने गए हैं। लेकिन राधा-कृष्ण के रूप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते।
श्यामसुन्दर दास ने इस सम्बन्ध में लिखा है – “सूर वास्तव में जन्मान्ध नहीं थे, क्योंकि शृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।” डॉक्टर (हजारीप्रसाद द्विवेदी) ने लिखा है – “सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अन्धा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए।”
सूरदास एक कृष्ण भक्त के रूप में
इनके विषय में कई कथा प्रचलित हैं कहते हैं एक बार ये एक कुंये में गिर जाते हैं और वहाँ भी कृष्ण भक्ति में लीन हो जाते हैं तब स्वयं कृष्ण भगवान ने उनकी जान बचाई थी तब देवी रुक्मणि नेश्री कृष्ण से पूछा था कि वे क्यूँ स्वयं सूरदास जी की जान बचा रहे हैं तब कृष्ण ने कहा था मैं एक सच्चे भक्त की मदद कर रहा हूँ यह उसकी उपासना का फल हैं.
जब कृष्ण उन्हें बचाने गये तब उन्होंने सुरदार को उनकी नेत्र ज्योति दी तब सूरदास ने अपने इष्ट को देखा. तब कृष्ण ने सूरदास से कहा कि वे कोई भी वरदान मांगे. तब सूरदास ने उत्तर दिया उसे सब कुछ मिल चूका है और वो चाहता हैं कि उसे वापस अँधा कर दे क्यूंकि वो अपने इस इष्ट को देखने के बाद किसी अन्य को देखना नहीं चाहते. कृष्ण ने सुरदास की इच्छा पूरी की और उन्हें जन्म जन्मांतर तक ख्याति प्राप्त हो ऐसा आशीर्वाद दिया।
सूरदास एक कवि के रूप में
सूरदास हिंदी भाषा के सूर्य कहे जाते हैं इनकी रचनाओं में कृष्ण की भक्ति का वर्णन मिलता हैं. इनकी सूरसागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी, नल दमयन्ती,ब्याहलों रचनाये प्रसिद्ध हैं।सूरदास जी ने अपने पदों के द्वारा यह संदेश दिया हैं कि भक्ति सभी बातों से श्रेष्ठ हैं। उनके पदों में वात्सल्य, श्रृंगार एवम शांत रस के भाव मिलते हैं। सूरदास जी कूट नीति के क्षेत्र में भी काव्य रचना करते हैं। उनके पदों में कृष्ण के बाल काल का ऐसा वर्णन हैं मानों उन्होंने यह सब स्वयं देखा हो. यह अपनी रचनाओं में सजीवता को बिखेरते हैं।
इनकी रचनाओं में प्रकृति का भी वर्णन हैं जो मन को भाव विभोर कर देता हैं। सूरदास जी भावनाओं के घनी हैं इसलिए उनकी रचनायें भावनात्कम दृष्टि कोण से अत्यंत लुभावनी हैं। सूरदास जी के पद ब्रज भाषा में लिखे गये है। सूरसागर नामक इनकी रचना सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं।
संत सूरदास रचनाएं
सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच मुख्य ग्रंथ
1. सूरसागर जो सूरदास की प्रसिद्ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं।
2. सूरसारावली
3. साहित्य-लहरी जिसमें उनके कूट पद संकलित हैं।
4. नल-दमयन्ती
5. ब्याहलो
6. पद संग्रह’ दुर्लभ पद
उपरोक्त में अन्तिम दो अप्राप्य हैं।
नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के 16 ग्रन्थों का उल्लेख है। इनमें सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो के अतिरिक्त दशमस्कंध टीका, नागलीला, भागवत्, गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार, प्राणप्यारी, आदि ग्रन्थ सम्मिलित हैं। इनमें प्रारम्भ के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, साहित्य लहरी की प्राप्त प्रति में बहुत प्रक्षिप्तांश जुड़े हुए हैं।
साहित्य लहरी, सूरसागर, सूर की सारावली।
श्रीकृष्ण जी की बाल-छवि पर लेखनी अनुपम चली।।
सूरसागर का मुख्य वर्ण्य विषय श्री कृष्ण की लीलाओं का गान रहा है।
सूरसारावली में कवि ने जिन कृष्ण विषयक कथात्मक और सेवा परक पदों का गान किया उन्ही के सार रूप में उन्होंने सारावली की रचना की है। सहित्यलहरी मैं सूर के दृष्टिकूट पद संकलित हैं।
कैसे हुई सूरदास की मृत्यु
अनेक प्रमाणों के आधार पर उनका मृत्यु संवत् 1620 से 1648 ईस्वी के मध्य स्वीकार किया जाता है। रामचन्द्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् 1540 वि० के सन्निकट और मृत्यु संवत् 1620 ईस्वी के आसपास माना जाता है।
मान्यता है कि इन्हें अपने देहावसान का आभास पहले से ही हो गया था। इनकी मृत्यु का स्थान गांव पारसौली माना जाता है। मान्यता है कि यहीं पर भगवान श्री कृष्ण ने रासलीला की थी। श्री नाथ जी की आरती के समय जब सूरदास वहां मौजूद नहीं थे तो वल्लाभाचार्य को आभास हो गया था कि सूरदास का अंतिम समय निकट है। उन्होंने अपने शिष्यों को संबोधित करते हुए इसी समय कहा था कि पुष्टिमार्ग का जहाज़ जा रहा है जिसे जो लेना हो ले सकता है। आरती के बाद सभी सूरदास जी के निकट आये। तो अचेत पड़े सूरदास जी में चेतना आयी।
कहते हैं कि जब उनसे सभी ज्ञान ग्रहण कर रहे थे तो चतुर्भुजदास जो कि वल्लाभाचार्य के ही शिष्य थे ने शंका प्रकट की कि सूरदास ने सदैव भगवद्भक्ति के पद गाये हैं गुरुभक्ति में कोई पद नहीं गाया। तब उन्होंने कहा कि उनके लिये गुरु व भगवान में कोई अंतर नहीं है जो भगवान के लिये गाया वही गुरु के लिये भी। तब उन्होंने भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो नामक पद गाया। इसके बाद चित्त और नेत्र की वृति को लेकर विट्ठलनाथ जी द्वारा पूछे प्रश्न पर बलि बलि हों कुमरि राधिका नंद सुवन जासों रति मानी और खंजन नैन रूप रस माते पद गाये। यही उनके अंतिम पद भी थे जो उन्होंने गाये। इसके बाद पुष्टिमार्ग का जहाज़ गोलोक को गमन कर गया।
सूरदास जी के पद
सूरदास एक महान कवि थे जिनकी बहुत सारी रचनाएँ ज्ञात हैं, और उनमे उनके पद भी शामिल हैं जिनमे निम्न पद प्रमुख है।
1. हरि पालनैं झुलावै
2. मुख दधि लेप किए
3. कबहुं बढ़ैगी चोटी
4. दाऊ बहुत खिझायो
5. मैं नहिं माखन खायो
6. हरष आनंद बढ़ावत
7. भई सहज मत भोरी
8. अरु हलधर सों भैया
9. कबहुं बोलत तात
10. चोरि माखन खात
11. गाइ चरावन जैहौं
12. धेनु चराए आवत
13. मुखहिं बजावत बेनु
14. कौन तू गोरी
15. मिटि गई अंतरबाधा
सूरदास के 11 पद अर्थ सहित
1. चरन कमल बंदौ हरि राई ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै आंधर कों सब कछु दरसाई॥
बहिरो सुनै मूक पुनि बोलै रंक चले सिर छत्र धराई ।
सूरदास स्वामी करुनामय बार-बार बंदौं तेहि पाई ॥1॥
अर्थ श्रीकृष्ण की कृपा होने पर लंगड़ा व्यक्ति भी पर्वत को लाँघ लेता है, अन्धे को सबकुछ दिखाई देने लगता है, बहरा व्यक्ति सुनने लगता है, गूंगा बोलने लगता है, और गरीब व्यक्ति भी अमीर हो जाता है. ऐसे दयालु श्रीकृष्ण की चरण वन्दना कौन नहीं करेगा.
अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥2॥
अर्थ यहाँ अव्यक्त उपासना को मनुष्य के लिए क्लिष्ट बताया है. निराकार ब्रह्म का चिंतन अनिर्वचनीय है. वह मन और वाणी का विषय नहीं है. ठीक उसी प्रकार जैसे किसी गूंगे को मिठाई खिला दी जाय और उससे उसका स्वाद पूछा जाए, तो वह मिठाई का स्वाद नहीं बता सकता है. उस मिठाई के रस का आनंद तो उसका अंतर्मन हीं जानता है. निराकार ब्रह्म का न रूप है, न गुण. इसलिए मन वहाँ स्थिर नहीं हो सकता है, सभी तरह से वह अगम्य है. इसलिए सूरदास सगुण ब्रह्म अर्थात श्रीकृष्ण की लीला का ही गायन करना उचित समझते हैं.
अब कै माधव मोहिं उधारि।
मगन हौं भाव अम्बुनिधि में कृपासिन्धु मुरारि॥
नीर अति गंभीर माया लोभ लहरि तरंग।
लियें जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग॥
मीन इन्द्रिय अतिहि काटति मोट अघ सिर भार।
पग न इत उत धरन पावत उरझि मोह सिबार॥
काम क्रोध समेत तृष्ना पवन अति झकझोर।
नाहिं चितवत देत तियसुत नाम-नौका ओर॥
थक्यौ बीच बेहाल बिह्वल सुनहु करुनामूल।
स्याम भुज गहि काढ़ि डारहु सूर ब्रज के कूल॥3॥
अर्थ संसार रूपी सागर में माया रूपी जल भरा हुआ है, लालच की लहरें हैं, काम वासना रूपी मगरमच्छ है, इन्द्रियाँ मछलियाँ हैं और इस जीवन के सिर पर पापों की गठरी रखी हुई है. इस समुद्र में मोह सवार है. काम-क्रोध आदि की वायु झकझोर रही है. तब एक हरि नाम की नाव हीं पार लगा सकती है. स्त्री और बेटों का माया-मोह इधर-उधर देखने हीं नहीं देता. भगवान हीं हाथ पकड़कर हमारा बेड़ा पार कर सकते हैं।
मोहिं प्रभु तुमसों होड़ परी।
ना जानौं करिहौ जु कहा तुम नागर नवल हरी॥
पतित समूहनि उद्धरिबै कों तुम अब जक पकरी।
मैं तो राजिवनैननि दुरि गयो पाप पहार दरी॥
एक अधार साधु संगति कौ रचि पचि के संचरी।
भ न सोचि सोचि जिय राखी अपनी धरनि धरी॥
मेरी मुकति बिचारत हौ प्रभु पूंछत पहर घरी।
स्रम तैं तुम्हें पसीना ऐहैं कत यह जकनि करी॥
सूरदास बिनती कहा बिनवै दोषहिं देह भरी।
अपनो बिरद संभारहुगै तब यामें सब निनुरी ॥4॥
अर्थ हे प्रभु, मैंने तुमसे एक होड़ लगा ली है. तुम्हारा नाम पापियों का उद्धार करने वाला है, लेकिन मुझे इस पर विश्वास नहीं है. आज मैं यह देखने आया हूँ कि तुम कहाँ तक पापियों का उद्धार करते हो. तुमने उद्धार करने का हठ पकड़ रखा है तो मैंने पाप करने का सत्याग्रह कर रखा है. इस बाजी में देखना है कौन जीतता है. मैं तुम्हारे कमलदल जैसे नेत्रों से बचकर, पाप-पहाड़ की गुफा में छिपकर बैठ गया हूं।
मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ।
मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ ?
कहा करौं इहि के मारें खेलन हौं नहि जात।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात ?
गोरे नन्द जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात।
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत हँसत-सबै मुसकात।
तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुँ न खीझै।
मोहन मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै।
सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मौहिं गोधन की सौं, हौं माता तो पूत ॥5।।
अर्थ बालक श्रीकृष्ण मैया यशोदा से कहते हैं, कि बलराम भैया मुझे बहुत चिढ़ाते हैं. वे कहते हैं कि तुमने मुझे दाम देकर खरीदा है, तुमने मुझे जन्म नहीं दिया है. इसलिए मैं उनके साथ खेलने नहीं जाता हूँ, वे बार-बार मुझसे पूछते हैं कि तुम्हारे माता-पिता कौन हैं. नन्द बाबा और मैया यशोदा दोनों गोरे हैं, तो तुम काले कैसे हो गए. ऐसा बोल-बोल कर वे नाचते हैं, और उनके साथ सभी ग्वाल-बाल भी हँसते हैं. तुम केवल मुझे हीं मारती हो, दाऊ को कभी नहीं मारती हो. तुम शपथ पूर्वक बताओ कि मैं तेरा हीं पुत्र हूँ. कृष्ण कि ये बातें सुनकर यशोदा मोहित हो जाती है.
मुख दधि लेप किए सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए ॥6।।
अर्थ भगवान श्रीकृष्ण अभी बहुत छोटे हैं और यशोदा के आंगन में घुटनों के बल चलते हैं. उनके छोटे से हाथ में ताजा मक्खन है और वे उस मक्खन को लेकर घुटनों के बल चल रहे हैं. उनके शरीर पर मिट्टी लगी हुई है. मुँह पर दही लिपटा है, उनके गाल सुंदर हैं और आँखें चपल हैं. ललाट पर गोरोचन का तिलक लगा हुआ है. बालकृष्ण के बाल घुंघराले हैं. जब वे घुटनों के बल माखन लिए हुए चलते हैं तब घुंघराले बालों की लटें उनके कपोल पर झूमने लगती है,
जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानो भौंरा मधुर रस पीकर मतवाले हो गए हैं. उनका सौंदर्य उनके गले में पड़े कंठहार और सिंह नख से और बढ़ जाती है. सूरदास जी कहते हैं कि श्रीकृष्ण के इस बालरूप का दर्शन यदि एक पल के लिए भी हो जाता तो जीवन सार्थक हो जाए. अन्यथा सौ कल्पों तक भी यदि जीवन हो तो निरर्थक हीं है।।7।।
बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥
अर्थ श्रीकृष्ण जब पहली बार राधा से मिले, तो उन्होंने राधा से पूछा कि हे गोरी! तुम कौन हो ? कहाँ रहती हो ? किसकी पुत्री हो ? मैंने तुम्हें पहले कभी ब्रज की गलियों में नहीं देखा है. तुम हमारे इस ब्रज में क्यों चली आई? अपने ही घर के आंगन में खेलती रहती. इतना सुनकर राधा बोली, मैं सुना करती थी कि नंदजी का लड़का माखन चोरी करता फिरता है. तब कृष्ण बात बदलते हुए बोले, लेकिन तुम्हारा हम क्या चुरा लेंगे. अच्छा चलो, हम दोनों मिलजुलकर खेलते हैं. सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार कृष्ण ने बातों ही बातों में भोली-भाली राधा को भरमा दिया।।8।।
मुखहिं बजावत बेनु धनि यह बृंदावन की रेनु।
नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु॥
मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन।
चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु॥
इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु।
सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु॥9।।
अर्थ यह ब्रज की मिट्टी धन्य है जहाँ श्रीकृष्ण गायों को चराते हैं तथा अधरों पर रखकर बांसुरी बजाते हैं. उस भूमि पर कृष्ण का ध्यान करने से मन को बहुत शांति मिलती है. सूरदास मन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि अरे मन! तुम क्यों इधर-उधर भटकते हो. ब्रज में हीं रहो, यहाँ न किसी से कुछ लेना है, और न किसी को कुछ देना है. ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियों के जूठे बरतनों से जो कुछ मिले उसी को ग्रहण करने से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है. सूरदास कहते हैं कि ब्रजभूमि की समानता कामधेनु गाय भी नहीं कर सकती है।।10।।
चोरि माखन खात चली ब्रज घर घरनि यह बात।
नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरि माखन खात॥
कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ।
कोउ कहति मोहिं देखि द्वारें उतहिं गए पराइ॥
कोउ कहति किहि भांति हरि कों देखौं अपने धाम।
हेरि माखन देउं आछो खाइ जितनो स्याम॥
कोउ कहति मैं देखि पाऊं भरि धरौं अंकवारि।
कोउ कहति मैं बांधि राखों को सकैं निरवारि॥
सूर प्रभु के मिलन कारन करति बुद्धि विचार।
जोरि कर बिधि को मनावतिं पुरुष नंदकुमार॥
अर्थ ब्रज के घर-घर में यह बात फ़ैल गई है कि श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ चोरी करके माखन खाते हैं. एक स्थान पर कुछ ग्वालिनें आपस में चर्चा कर रही थी. उनमें से कोई ग्वालिन बोली कि अभी कुछ देर पहले हीं वो मेरे घर आए थे. कोई बोली कि मुझे दरवाजे पर खड़ी देखकर वे भाग गए. एक ग्वालिन बोली कि किस प्रकार कन्हैया को अपने घर में देखूं. मैं तो उन्हें इतना ज्यादा और बढ़िया माखन दूँ जितना वे खा सकें.
लेकिन किसी तरह वे मेरे घर तो आएँ. तभी दूसरी ग्वालिन बोली कि यदि कन्हैया मुझे दिख जाएँ तो मैं उन्हें गोद में भर लूँ. एक और ग्वालिन बोली कि यदि मुझे वे मिल जाएँ तो मैं उन्हें ऐसा बांधकर रखूं कि कोई छुड़ा ही न सके. सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार ग्वालिनें प्रभु से मिलने की जुगत बिठा रही थी. कुछ ग्वालिनें यह भी कह कर रही थी कि यदि नंदपुत्र उन्हें मिल जाएँ तो वह हाथ जोड़कर उन्हें मना लें और पतिरूप में स्वीकार कर लें।
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