श्री शिव रुद्राष्टकम स्तुति का पाठ, हिंदी अर्थ सहित और महत्व

श्री रुद्राष्टकम् स्तोत्र तुलसीदास द्वारा भगवान शिव की स्तुति हेतु रचित एवं प्रथम गायित है। इसका उल्लेख श्री रामचरितमानस के उत्तर कांड में आता है। तुलसीदास कलियुग के कष्टों का वर्णन करते हैं और उससे मुक्ति के लिये इस स्तोत्र का पाठ करने का सुझाव देते हैं। यह भुजङ्प्र्यात् छंद में लिखा गया है

सनातन धर्म में भगवान शिव शंकर को सभी देवों में सबसे उच्च स्थान प्राप्त है। माना जाता है कि शिव जी आसानी से प्रसन्न हो जाने वाले देवता हैं। यदि कोई भक्त श्रद्धा पूर्वक उन्हें केवल एक लोटा जल भी अर्पित कर दे तो भी वे प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिए उन्हें भोलेनाथ भी कहा जाता है। यदि आप शिव जी की विशेष कृपा पाना चाहते हैं ‘श्री शिव रूद्राष्टकम’ का पाठ करना चाहिए।

शिव रुद्राष्टकम अपने आप में अद्भुत स्तुति है। यदि कोई शत्रु आपको परेशान कर रहा है तो किसी शिव मंदिर या घर में ही कुशा के आसन पर बैठकर लगातार 7 दिनों तक सुबह शाम रुद्राष्टकम स्तुति का पाठ करने से शिव जी बड़े से बड़े शत्रुओं का नाश पल भर में करते हैं और सदैव अपने भक्तों की रक्षा करते हैं। रामायण के अनुसार, मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम ने रावण जैसे भयंकर शत्रु पर विजय पाने के लिए रामेशवरम में शिवलिंग की स्थापना कर रूद्राष्टकम स्तुति का श्रद्धापूर्वक पाठ किया था और परिणाम स्वरूप शिव की कृपा से रावण का अंत भी हुआ था।

रुद्राष्टक स्तोत्रम हिन्दी अर्थ सहित 

करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि।

बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि॥ 

अर्थ:- प्रेम सहित दण्डवत्‌ करके वे ब्राह्मण श्री शिवजी के सामने हाथ जोड़कर मेरी भयंकर गति (दण्ड) का विचार कर गदगद वाणी से विनती करने लगे-॥

छंद :

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। 

विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं॥

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। 

चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥

अर्थ:- हे मोक्षस्वरूप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्री शिवजी मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरूप में स्थित (अर्थात्‌ मायादिरहित), (मायिक) गुणों से रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन आकाश रूप एवं आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दिगम्बर (अथवा आकाश को भी आच्छादित करने वाले) आपको मैं भजता हूँ॥

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। 

गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं॥

करालं महाकाल कालं कृपालं। 

गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥

अर्थ:- निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। 

मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं॥

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। 

लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥

अर्थ:– जो हिमाचल के समान गौरवर्ण तथा गंभीर हैं, जिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुंदर नदी गंगाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चंद्रमा और गले में सर्प सुशोभित है॥

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। 

प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं॥

मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं । 

प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥

अर्थ:- जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, सुंदर भ्रुकुटी और विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं, सिंह चर्म का वस्त्र धारण किए और मुण्डमाला पहने हैं, उन सबके प्यारे और सबके नाथ (कल्याण करने वाले) श्री शंकरजी को मैं भजता हूँ॥

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। 

अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥

त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। 

भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥

अर्थ:- प्रचण्ड (रुद्ररूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मे, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किए, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्री शंकरजी को मैं भजता हूँ॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। 

सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥

चिदानंद संदोह मोहापहारी। 

प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥

अर्थ:- कलाओं से परे, कल्याण स्वरूप, कल्प का अंत (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनंद देने वाले, त्रिपुर के शत्रु, सच्चिदानंदघन, मोह को हरने वाले, मन को मथ डालने वाले कामदेव के शत्रु, हे प्रभो प्रसन्न होइए, प्रसन्न होइए॥

न यावद् उमानाथ पादारविंदं। 

भजंतीह लोके परे वा नराणां॥

न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। 

प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥

अर्थ:- जब तक पार्वती के पति आपके चरण कमलों को मनुष्य नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इहलोक और परलोक में सुख-शांति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करने वाले हे प्रभो प्रसन्न होइए॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां। 

नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥

जरा जन्म दुःखोद्य तातप्यमानं॥ 

प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥

अर्थ:- मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म (मृत्यु) के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखी की दुःख से रक्षा कीजिए। हे ईश्वर! हे शम्भो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥

श्लोक :

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥

अर्थ:- भगवान् रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकरजी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए ब्राह्मण द्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, उन पर भगवान्‌ शम्भु प्रसन्न होते हैं॥

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