श्रावण का सम्पूर्ण मास मनुष्यों में ही नही अपितु पशु पक्षियों में भी एक नव चेतना का संचार करता है जब प्रकृति अपने पुरे यौवन पर होती है और रिमझिम फुहारे साधारण व्यक्ति को भी कवि हृदय बना देती है। सावन में मौसम का परिवर्तन होने लगता है। प्रकृति हरियाली और फूलो से धरती का श्रुंगार देती है परन्तु धार्मिक परिदृश्य से सावन मास भगवान शिव को ही समर्पित रहता है।
मान्यता है कि शिव आराधना से इस मास में विशेष फल प्राप्त होता है। इस महीने में हमारे सभी ज्योतिर्लिंगों की विशेष पूजा अर्चना और अनुष्ठान की बड़ी प्राचीन एवं पौराणिक परम्परा रही है। रुद्राभिषेक के साथ साथ महामृत्युंजय का पाठ तथा काल सर्प दोष निवारण की विशेष पूजा का महत्वपूर्ण समय रहता है।यह वह मास है जब कहा जाता है जो मांगोगे वही मिलेगा। भोलेनाथ सबका भला करते है। धर्म प्रेमी सज्जनो एवं साधकगण के लिये हम आज से श्रावण माह का ग्यारहवां अध्याय से बीसवां अध्याय का पाठ पोस्ट करेंगे आशा है आप सभी इससे अवश्य लाभान्वित होंगे।
श्रावण मास महात्म्य ग्यारहवां अध्याय
रोटक तथा उदुम्बर व्रत का वर्णन
सनत्कुमार बोले हे देव श्रावण मास के वारों के सभी व्रतों को मैंने आपसे सुना किन्तु आपके वचनामृत का पान करके मेरी तृप्ति नहीं हो रही है. हे प्रभो श्रावण के समान अन्य कोई भी मास नहीं है ऐसा मुझे प्रतीत होता है अतः आप तिथियों का माहात्म्य बताइए।
ईश्वर बोले हे सनत्कुमार मासों में कार्तिक मास श्रेष्ठ है, उससे भी श्रेष्ठ माघ कहा गया है, उस माघ से भी श्रेष्ठ वैशाख है और उससे भी श्रेष्ठ मार्गशीर्ष है जो श्रीहरि को अत्यंत प्रिय है. विश्वरूप भगवान् से उत्पन्न होने से ये चारों मास मुझे प्रिय हैं किन्तु बारहों मासों में श्रवण तो साक्षात शिव का रूप है. हे सनत्कुमार श्रावण मास में सभी तिथियां व्रत युक्त हैं फिर भी मैं उनमें प्रधान रूप से कुछ उत्तम तिथियों को आपको बता रहा हूँ. सर्वप्रथम मैं तिथि तथा वार से मिश्रित व्रत आपको बताता हूँ.
श्रावण मास में जब प्रतिपदा तिथि में सोमवार हो तो उस महीने में पाँच सोमवार पड़ते हैं. उस श्रावण मास में मनुष्यों को रोटक नामक व्रत करना चाहिए. यह रोटक नामक व्रत साढ़े तीन महीने का भी होता है, यह लक्ष्मी की वृद्धि करने वाला तथा सभी मनोरथों की सिद्धि करने वाला है. हे मुने मैं उसका विधान बताऊंगा, आप सावधान होकर सुनिए. श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा तिथि को जब सोमवार हो तब विद्वान् प्रातःकाल यह संकल्प करें मैं आज से आरम्भ करके रोटक व्रत करूँगा, हे सुरश्रेष्ठ हे जगद्गुरो मुझ पर कृपा कीजिए.
उसके बाद अखंडित बिल्वपत्रों, तुलसीदलों, नीलोत्पल, कमलपुष्पों, कहलारपुष्पों, चम्पा तथा मालती के पुष्पों, कोविंद पुष्पों, आक के पुष्पों, उस ऋतु तथा काल में होने वाले नानाविध अन्य सुन्दर पुष्पों, धूप, दीप, नैवेद्य तथा नाना प्रकार के फलों से शूलधारी महादेव की प्रतिदिन पूजा करनी चाहिए. विशेष रूप से रोटकों का प्रधान नैवेद्य अर्पित करना चाहिए. पुरुष के आहार प्रमाण के समान पाँच रोटक बनाने चाहिए. बुद्धिमान को चाहिए कि उनमें से दो रोटक ब्राह्मणों को दें, दो रोटक का स्वयं भोजन करें और एक रोटक देवता को नैवेद्य के रूप में अर्पित करें. बुद्धिमान को चाहिए कि शेषपूजा करने के अनन्तर अर्घ्य प्रदान करें।
केला, नारियल, जंबीरी नीबू, बीजपूरक, खजूर, ककड़ी, दाख, नारंगी, बिजौरा नीबू, अखरोट, अनार तथा अन्य और जो भी ऋतु में होने वाले फल हों वे सब अर्घ्यदान में प्रशस्त हैं. उस अर्घ्यदान का फल सुनिए. सातों समुद्र सहित पृथ्वी का दान करके मनुष्य जो फल प्राप्त करता है वही फल विधानपूर्वक इस व्रत को करके वह पा जाता है. विपुल धन की इच्छा रखने वालों को यह व्रत पाँच वर्ष तक रखना चाहिए.
इसके बाद रोटक नामक व्रत का उद्यापन कर देना चाहिए. उद्यापन कृत्य के लिए सोने तथा चाँदी के दो रोटक बनाए. प्रथम दिन अधिवासन करके प्रातःकाल शिव मन्त्र के द्वारा घृत तथा उत्तम बिल्वपत्रों से हवन करें. हे तात ! इस विधि से व्रत के संपन्न किए जाने पर मनुष्य सभी वांछित फलों को प्राप्त कर लेता है. हे सनत्कुमार अब मैं द्वितीया के शुभ व्रत का वर्णन करूँगा जिसे श्रद्धापूर्वक करके मनुष्य लक्ष्मीवान तथा पुत्रवान हो जाता है. औदुम्बर नामक वह व्रत पाप का नाश करने वाला है।
शुभ सावन का महीना आने पर द्वितीया तिथि को प्रातःकाल संकल्प करके बुद्धिमान को विधिपूर्वक व्रत करना चाहिए. इस व्रत को करने वाला स्त्री हो या पुरुष– वह सभी संपदाओं का पात्र हो जाता है. इस व्रत में प्रत्यक्ष गूलर के वृक्ष की पूजा करनी चाहिए किन्तु गूलर वृक्ष न मिलने पर दीवार पर वृक्ष का आकार बनाकर इन चार नाम मन्त्रों से उसकी पूजा करनी चाहिए हे उदुंबर आपको नमस्कार है, हे हेमपुष्पक आपको नमस्कार है. जंतुसहित फल से युक्त तथा रक्त अण्डतुल्य फलवाले आपको नमस्कार है. इसके अधिदेवता शिव तथा शुक्र की भी पूजा गूलर के वृक्ष में करनी चाहिए. इसके तैंतीस फल लेकर तीन बराबर भागों में बाँट लेना चाहिए. इनमें से ग्यारह फल ब्राह्मण को प्रदान करें, ग्यारह फल देवता को अर्पण करें और ग्यारह फलों का स्वयं भोजन करें।
उस दिन अन्न का आहार नहीं करना चाहिए. शिव तथा शुक्र का विधिवत पूजन करके रात में जागरण करना चाहिए. हे तात ! इस प्रकार ग्यारह वर्ष तक व्रत का अनुष्ठान करने के बाद व्रत की संपूर्णता के लिए उद्यापन करना चाहिए. सुवर्णमय फल, पुष्प तथा पात्र सहित एक गूलर का वृक्ष बनाए और उसमें शिव तथा शुक्र की प्रतिमा का पूजन करें, उसके बाद प्रातःकाल होम करें. गूलर के शुभ, कोमल तथा छोटे-छोटे एक सौ आठ फलों से तथा गूलर की समिधाओं से तिल तथा घृत सहित होम करें. इस प्रकार होमकृत्य समाप्त करके आचार्य की पूजा करें, उसके बाद सामर्थ्यानुसार एक सौ अन्यथा दस ब्राह्मणों को ही भोजन कराएं।
हे वत्स इस प्रकार व्रत किए जाने पर जो फल होता है, उसे सुनिए. जिस प्रकार यह गूलर का वृक्ष बहुत जंतुयुक्त फलो वाला होता है, उसी प्रकार व्रतकर्ता भी अनेक पुत्रों वाला होता है और उसके वंश की वृद्धि होती है. यह व्रत करने वाला सुवर्णमय पुष्पों से युक्त वृक्ष की भाँति लक्ष्मीप्रद हो जाता है।
हे सनत्कुमार आज तक मैंने किसी को भी यह व्रत नहीं बताया था. गोपनीय से गोपनीय इस व्रत को मैंने आपके समक्ष कहा है. इसके विषय में संशय नहीं करना चाहिए और भक्तिपूर्वक इस व्रत का आचरण करना चाहिए।
इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसानत्कुमार संवाद में श्रावण मास माहात्म्य में “प्रति पदरोटक व्रतद्वितीयोदुम्बर व्रत कथन” नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ
श्रावण मास महात्म्य बारहवां अध्याय
स्वर्णगौरी व्रत का वर्णन तथा व्रत कथा
ईश्वर बोले हे ब्रह्मपुत्र अब मैं स्वर्णगौरी का शुभ व्रत कहूँगा, यह व्रत श्रावण मास में शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि को होता है. इस दिन प्रातःकाल स्नान करके नित्यकर्म करने के बाद संकल्प करे और सोलहों उपचारों से पार्वती तथा शंकर जी की पूजा करें. इसके बाद भगवान शिव से प्रार्थना करें – “हे देवदेव ! आइए, हे जगत्पते ! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ. हे सुरसत्तम ! मेरे द्वारा की गई पूजा को आप स्वीकार करें.” इस दिन भवानी पार्वती की प्रसन्नता और व्रत की पूर्णता के लिए दंपत्तियों को सोलह वायन प्रदान करें और द्विजश्रेष्ठ की प्रसन्नता के लिए मैं यह वायन प्रदान करता हूँ ऐसा कहें.
चावल के चूर्ण के सोलह पकवानों से सोलह बांस की टोकरियों को भरकर तथा उन्हें वस्त्र आदि से युक्त करें और पुनः सोलह द्विज दंपत्तियों को बुलाकर इस प्रकार कहते हुए प्रदान करें– व्रत की संपूर्णता के लिए मैं ब्राह्मणों को यह प्रदान कर रहा हूँ. मेरे कार्य की समृद्धि के लिए सुन्दर अलंकारों से विभूषित तथा पतिव्रत्य से सुशोभित ये शोभामयी सुहागिन स्त्रियां इन्हें ग्रहण करें. इस प्रकार सोलह वर्ष अथवा आठ वर्ष या चार वर्ष या एक वर्ष तक इस व्रत को करके शीघ्र ही इसका उद्यापन कर देना चाहिए. पूजा के अनन्तर कथा का श्रवण करके वाचक की विधिवत पूजा करनी चाहिए।
सनत्कुमार बोले– हे प्रभो इस व्रत को सर्वप्रथम किसने किया, इसका माहात्म्य कैसा है और इसका उद्यापन किस प्रकार करना चाहिए ? वह सब आप मुझे बताएं.
ईश्वर बोले– हे महाभाग आपने उत्तम बात पूछी है अब मैं आपके समक्ष मनुष्यों को सभी संपदाएं प्रदान करने वाले स्वर्णगौरी नामक व्रत का वर्णन करता हूँ. पूर्वकाल में सरस्वती नदी के तट पर सुविला नामक विशाल पूरी थी. उस नगरी में कुबेर के समान चन्द्रप्रभ नामक एक राजा था।
उस राजा की रूपलावण्य से संपन्न, सौंदर्य तथा मंद मुस्कान से युक्त और कमल के समान नेत्रों वाली महादेवी और विशाला नामक दो भार्याएँ थी. उन दोनों में ज्येष्ठ महादेवी नामक भार्या राजा को अधिक प्रिय थी. आखेट करने में आसक्त मन वाले वे राजा किसी समय वन में गए और सिंहों, शार्दूलों, सूकरों, वन्य भैंसों तथा हाथियों को मारकर प्यास से आकुल होकर उस घोर वन में इधर-उधर भ्रमण करते रहे. राजा ने उस वन में चकवा-चकवी तथा बत्तखों से युक्त, भ्रमरों तथा पिकों से समन्वित और विकसित मल्लिका, चमेली, कुमुद तथा कमल से सुशोभित अप्सराओं का एक सुन्दर सरोवर देखा.
उस सरोवर के तट पर आकर उसका जल पीकर राजा ने भक्तिपूर्वक गौरी का पूजन करती हुई अप्सराओं को देखा तब कमल के समान नेत्रों वाले राजा ने उनसे पूछा “आप लोग यह क्या कर रही है ? इस पर उन सबने कहा– हम लोग स्वर्णगौरी नामक उत्तम व्रत कर रही हैं, यह व्रत मनुष्यों को सभी संपदाएं प्रदान करने वाला है. हे नृपश्रेष्ठ आप भी इस व्रत को कीजिए
राजा बोले– इसका विधान कैसा है और इसका फल क्या है? मुझे यह सब विस्तार से बताएं तब वे सारी स्त्रियां बताने लगी।
हे राजन यह स्वर्णगौरी नामक व्रत श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को किया जाता है. इस व्रत में भक्तिपूर्वक अत्यंत प्रसन्नता के साथ पार्वती तथा शिव की पूजा करनी चाहिए. पुरुष को सोलह तारों वाला एक डोरा दाहिने हाथ में बाँधना चाहिए. स्त्रियों के लिए बाएं हाथ में या गले में इस डोरे को बाँधना चाहिए. यह सब सुनने के बाद संयत चित्त वाले राजा ने भी उस व्रत को संपन्न करके सोलह धागों से युक्त डोरे को अपने दाहिने हाथ में बाँध लिया।
उन्होंने कहा– हे देवदेवेशि मैं इस डोरे को बांधता हूँ, आप मेरे ऊपर प्रसन्न हों और मेरा कल्याण करें. इस प्रकार देवी का व्रत करके वे अपने घर आ गए. राजा के हाथ में डोरा देखकर ज्येष्ठ रानी महादेवी ने पूछा और सारी बात सुनकर वह राजा के ऊपर अत्यंत कुपित हो उठी।
राजा ने कहा– ऐसा मत करो, मत करो – लेकिन रानी ने उस डोरे को तोड़कर बाहर एक सूखे पेड़ के ऊपर फेंक दिया. उस डोरे के स्पर्श मात्र से वह वृक्ष पल्लवों से युक्त हो गया. उसके बाद उसे देखकर दूसरी रानी भी आश्चर्यचकित हो उठी और उस वृक्ष पर स्थित टूटे हुए डोरे को उसने अपने बाएं हाथ में बाँध लिया. उसी समय से उसके व्रत के माहात्म्य से वह रानी राजा के लिए अत्यंत प्रिय हो गई. वह ज्येष्ठ रानी व्रत के अपचार के कारण राजा से त्यक्त होकर दुःखित हो वन में चली गई।
अपने मन में वह भगवती देवी का ध्यान करते हुए मुनियों के पवित्र आश्रम में निवास करने लगी, कहीं-कहीं श्रेष्ठ मुनियों के द्वारा यह कहकर आश्रम में रहने से रोक दी जाती थी कि हे पापिन ! अपनी इच्छा के अनुसार यहां से चली जाओ. इस प्रकार घोर वन में इधर-उधर भ्रमण करती हुई वह अत्यंत खिन्न होकर एक स्थान पर बैठ गई तब उसके ऊपर कृपा करके देवी उसके समक्ष प्रकट हो गई. उन्हें देखकर वह रानी भूमि पर दंडवत प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगी।
हे देवी आपकी जय हो, आपको नमस्कार है, हे भक्तों को वर देने वाली आपकी जय हो. शंकर के वाम भाग में विराजने वाली! आपकी जय हो हे मंगलमङ्गले आपकी जय हो तब देवी की भक्ति के द्वारा वरदान प्राप्त करके और उन गौरी की अर्चना करके उसने जो व्रत किया, उसके प्रभाव से रानी के पति उसे घर ले आये. उसके बाद देवी की कृपा से उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो गई. राजा सभी समृद्धियों से संपन्न होकर उन दोनों के साथ पूर्ण रूप से राज्य करने लगे. अंत में राजा ने उन दोनों रानियों सहित शिवपद को प्राप्त किया।
जो स्वर्णगौरी के इस उत्तम व्रत को करता है वह मेरा तथा गौरी का अत्यंत प्रिय होता है और विपुल लक्ष्मी प्राप्त करके तथा भूलोक में शत्रुसमुह को पराजित कर शिवजी के विशुद्ध लोक को जाता है. हे सनत्कुमार अब आप दत्तचित्त होकर इस व्रत के उद्यापन की विधि सुनिए।
चन्द्रमा तथा ताराबल से युक्त शुभ तिथि तथा शुभ वार में एक मंडप बनाकर उसके मध्य में अष्टदलकमल के ऊपर धान्य रखकर उस पर एक कुम्भ स्थापित करें. पुनः उसके ऊपर सोलह पल प्रमाण का बना हुआ एक तिलपूरित ताम्रमय पूर्णपात्र रखे और उस पर पार्वती-शंकर की दो प्रतिमाएँ स्थापित करें. शिवजी की प्रतिमा श्वेत वर्ण के दो वस्त्रों तथा शुक्ल वर्ण के यज्ञोपवीत से सुशोभित हो. उसके बाद वेदोक्त मन्त्रों से विधिपूर्वक उनकी प्रतिष्ठा करें और भली-भाँति पूजा करके रात्रि में जागरण करें. इसके अनन्तर प्रातःकाल पूजा करने के बाद होम करें।
सर्वप्रथम ग्रह होम करके प्रधान होम करें. हवन के लिए यवमिश्रित तिल-घृत से पूर्णरूप से सशक्त होना चाहिए. एक हजार अथवा एक सौ आहुति डालनी चाहिए. उसके बाद वस्त्र, अलंकार तथा गौ के द्वारा आचार्य की पूजा करनी चाहिए और वायन प्रदान करना चाहिए. इसके बाद ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए, साथ ही सोलह दंपत्तियों को भी भोजन कराना चाहिए. अपने द्रव्य सामर्थ्य के अनुसार उन्हें भूयसी दक्षिणा देनी चाहिए. अंत में हर्षोल्लास से युक्त होकर बन्धुजनो के साथ स्वयं भोजन करना चाहिए।
इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास माहात्म्य में तृतीया में स्वर्णगौरीव्रत कथन नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ
श्रावण मास महात्म्य तेरहवां अध्याय
दूर्वागणपति व्रत विधान
सनत्कुमार बोले– हे भगवन किस व्रत के द्वारा अतुलनीय सौभाग्य प्राप्त होता है और मनुष्य पुत्र, पौत्र, धन, ऐश्वर्य तथा सुख प्राप्त करता है ? हे महादेव व्रतों में उत्तम उस व्रत को आप मुझे बताएं।
ईश्वर बोले– हे सनत्कुमार तीनों लोकों में विख्यात दूर्वागणपति व्रत है. सर्वप्रथम भगवती पार्वती ने श्रद्धा के साथ इस व्रत को किया था. हे मुनिसत्तम इसी प्रकार पूर्व में सरस्वती, महेंद्र, विष्णु, कुबेर, अन्य देवता, मुनिजन, गन्धर्व, किन्नर– इन सभी ने भी इस व्रत को किया था. श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की शुद्ध व महापुण्यदायिनी चतुर्थी तिथि को इस व्रत को करना चाहिए क्योंकि उसी दिन सभी पाप समूह का नाश हो जाएगा.
चतुर्थी के दिन स्वर्ण पीठासीन स्थित एकदन्त गजानन विघ्नेश की स्वर्णमयी प्रतिमा बनाकर उसके आधार पर स्वर्णमय दूर्वा को व्यवस्थित करने के पश्चात विघ्नेश्वर को रक्तवस्त्र से वेष्टित ताम्रमय पात्र के ऊपर रखकर सर्वतोभद्रमण्डल में रक्त पुष्पों से, अपामार्ग-शमी-दूर्वा-तुलसी-बिल्वपत्र – इन पाँच पत्रों से, अन्य उपलब्ध सुगन्धित पुष्पों से, सुगन्धित द्रव्यों से, फलों से तथा मोदकों से उनकी पूजा करनी चाहिए और इसके बाद उन्हें उपहार अर्पित करना चाहिए. इस प्रकार अनेक उपचारों से भी गिरिजापुत्र विघ्नेश की पूजा करनी चाहिए।
इस प्रकार कहें– सुवर्ण निर्मित इस प्रतिमा में मैं विघ्नेश का आवाहन करता हूँ, कृपानिधि पधारें. इस सुवर्णमय सर्वोत्तम रत्नजटित सिंहासन को मैंने आसन के लिए प्रदान किया है इसलिए विश्व के स्वामी इसे स्वीकार करें.
हे उमासुत आपको नमस्कार है हे विश्वव्यापिन हे सनातन मेरे समस्त कष्टों को आप नष्ट कर दें. मैं आपको पाद्य समर्पित करता हूँ. गणेश्वर, देव, उमापुत्र तथा मंगल का विधान करने वाले को यह अर्घ्य प्रदान करता हूँ. हे भगवन ! आप मेरे इस अर्घ्य को स्वीकार करें. विनायक, शूर तथा वर प्रदान करने वाले को नमस्कार है, नमस्कार है. मैं आपको यह अर्घ्य समर्पित करता हूँ, इसे ग्रहण करें. मैंने गंगा आदि सभी तीर्थों से प्रार्थनापूर्वक यह जल प्राप्त किया है. हे सुरपुंगव आपके स्नान के लिए मेरे द्वारा प्रदत्त इस जल को स्वीकार कीजिए।
सिंदूर से चित्रित तथा कुंकुम से रंगा हुआ यह वस्त्रयुग्म आपको दिया गया है, आप इसे ग्रहण करें. लम्बोदर तथा सभी विघ्नों का नाश करने वाले देवता को नमस्कार है. उमा के शरीर के मल से आविर्भूत हे गणेश जी आप इस चन्दन को स्वीकार करें।
हे सुरश्रेष्ठ मैंने भक्ति के साथ आपको रक्त चन्दन से मिश्रित अक्षत अर्पण किया है, हे सुरसत्तम आप इसे स्वीकार करें. मैं चम्पा के पुष्पों, केतकी के पत्रों तथा जपाकुसुम के पुष्पों से गौरी पुत्र की पूजा करता हूँ, आप मेरे ऊपर प्रसन्न हों. सभी लोकों पर अनुग्रह करने तथा दानवों का वध करने के लिए स्कन्द गुरु के रूप में अवतार ग्रहण करने वाले आप प्रसन्नतापूर्वक यह धूप लीजिए. परम ज्योति प्रकाशित करने वाले तथा सभी सिद्धियों को देने वाले आप महादेव पुत्र को मैं दीप अर्पण करता हूँ, आपको नमस्कार है. इसके बाद गणानां त्वा. – इस मन्त्र से मोदक, चार प्रकार के अन्न, पायस तथा लडडू आदि का नैवेद्य अर्पण करें।
मैं आपकी मुख शुद्धि के लिए आदरपूर्वक कपूर, इलायची तथा नागवल्ली के दल से युक्त ताम्बूल आपको प्रदान करता हूँ. हिरण्यगर्भ के गर्भ में स्थित अग्नि के सुवर्ण बीज को मैं दक्षिणा रूप में आपको प्रदान करता हूँ, अतः आप मुझे शान्ति प्रदान कीजिए. हे गणेश्वर हे गणाध्यक्ष हे गौरीपुत्र हे गजानन हे इभानन आपकी कृपा से मेरा व्रत पूर्ण हो. इस प्रकार अपने सामर्थ्य के अनुसार विघ्नेश का विधिवत पूजन करके उपस्कर निवेदित सामग्री सहित गणाध्यक्ष को आचार्य के लिए अर्पण कर देना चाहिए. उनसे प्रार्थना करे हे भगवन हे ब्रह्मण दक्षिणा सहित गणराज की मूर्ति को आप ग्रहण कीजिए, आपके वचन से मेरा यह व्रत आज पूर्णता को प्राप्त हो।
जो मनुष्य पाँच वर्ष तक इस प्रकार व्रत कर के उद्यापन करता है वह वांछित मनोरथों को प्राप्त करता है और देहांत के बाद शिव लोक को जाता है अथवा तीन वर्ष तक जो इस व्रत को करता है वह सभी सिद्धियां प्राप्त करता है. जो व्यक्ति उद्यापन के बिना ही इस उत्तम व्रत को करता है, विधि के अनुसार भी उसका जो कुछ किया हुआ होता है वह सब निष्फल हो जाता है।
अब उद्यापन विधि बताई जाती है– उद्यापन के दिन प्रातःकाल तिलों से स्नान करें. उसके बाद व्यक्ति एक पल या आधा पल या उसके भी आधे पल की स्वर्ण की गणपति की प्रतिमा बनाकर पंचगव्य से स्नान कराकर भक्ति तथा श्रद्धा के साथ इन दस नाम-मन्त्रों से दूर्वादलों से सम्यक पूजन करें– हे गणाधीश हे उमापुत्र हे अघनाशन हे विनायक हे ईशपुत्र हे सर्वसिद्धिप्रदायक हे एकदन्त हे इभवक्त्र हे मूषकवाहन आपको नमस्कार है. आप कुमार गुरु को नमस्कार है– इन नाम पदों से पृथक-पृथक पूजन करें।
पहले दिन अधिवासन करके प्रातःकाल ग्रहहोम करके दूर्वादलों तथा मोदकों से होम करना चाहिए. उसके बाद पूर्णाहुति देकर आचार्य आदि का विधिवत पूजन करना चाहिए और घट-तुल्य थनों वाली गाय का दान अपनी सामर्थ्य के अनुसार करना चाहिए. हे वत्स ! इस प्रकार व्रत करने पर मनुष्य सभी मनोरथों को प्राप्त कर लेता है. हे सनत्कुमार ! अपने प्रिय पुत्र गणेश के व्रत करने से संतुष्ट होकर मैं उस मनुष्य को पृथ्वी पर सभी सुख प्रदान करके अंत में उसे सद्गति देता हूँ. जैसे दूर्वा अपनी शाखा-प्रशाखाओं के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होती है उसी प्रकार उस मनुष्य की पुत्र, पौत्र आदि संतति निरंतर बढ़ती रहती है. हे सनत्कुमार ! मैंने दूर्वागणपति का यह अत्यंत गोपनीय व्रत कहा है, सुख चाहने वालों को इस सर्वोत्कृष्ट व्रत को अवश्य करना चाहिए।
इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावणमास माहात्म्य में “दूर्वागणपति व्रत कथन” नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ
श्रावण मास महात्म्य चौदहवां अध्याय
नाग पंचमी व्रत का माहात्म्य
ईश्वर बोले – हे महामुने ! श्रावण मास में जो व्रत करने योग्य है वो अब मैं बताऊँगा, आप उसे ध्यान से सुनिए. चतुर्थी तिथि को एक बार भोजन करें और पंचमी को नक्त भोजन करें. स्वर्ण, चाँदी, काष्ठ अथवा मिटटी का पाँच फणों वाला सुन्दर नाग बनाकर पंचमी के दिन उस नाग की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए. द्वार के दोनों ओर गोबर से बड़े-बड़े नाग बनाए और दधि, शुभ दुर्वांकुरों, कनेर-मालती-चमेली-चम्पा के फूलों, गंधों, अक्षतों, धूपों तथा मनोहर दीपों से उनकी विधिवत पूजा करें. उसके बाद ब्राह्मणों को घृत, मोदक तथा खीर का भोजन कराएं. इसके बाद अनंत, वासुकि, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, कर्कोटक, अश्व, आठवाँ धृतराष्ट्र, शंखपाल, कालीय तथा तक्षक– इन सब नागकुल के अधिपतियों को तथा इनकी माता कद्रू को भी हल्दी और चन्दन से दीवार पर लिखकर फूलों आदि से इनकी पूजा करें.
उसके बाद बुद्धिमान को चाहिए कि वामी में प्रत्यक्ष नागों का पूजन करें और उन्हें दूध पिलाएं. घृत तथा शर्करा मिश्रित पर्याप्त दुग्ध उन्हें अर्पित करें. उस दिन व्यक्ति लोहे के पात्र में पूड़ी आदि ना बनाए. नैवेद्य के लिए गोधूम का पायस भक्तिपूर्वक अर्पण करें. भुने हुए चने, धान का लावा तथा जौ सर्पों को अर्पित करना चाहिए और स्वयं भी उन्हें ग्रहण करना चाहिए, बच्चों को भी यही खिलाना चाहिए इससे उनके दाँत मजबूत होते हैं. सांप की बाम्बी के पास श्रृंगारयुक्त स्त्रियों को गायन तथा वादन करना चाहिए और इस दिन को उत्सव की तरह मनाना चाहिए.
इस विधि से व्रत करने पर सर्प से कभी भी भय नहीं होता है. हे विप्र ! मैं लोकों के हित की कामना से आपसे कुछ और भी कहूँगा, हे महामुने आप उसे सुनिए. हे वत्स नाग के द्वारा डसा गया मनुष्य मरने के बाद अधोगति को प्राप्त होता है और अधोगति में पहुंचकर वह तामसी सर्प होता है. इसकी निवृत्ति के लिए पूर्वोक्त विधि से एकभुक्त आदि समस्त कृत्य करें और ब्राह्मणों से नाग निर्माण तथा पूजा आदि आदरपूर्वक कराएं।
इस प्रकार बारह मासों में प्रत्येक मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को इस व्रत का अनुष्ठान करें और वर्ष के पूरा होने पर नागों के निमित्त ब्राह्मणों तथा सन्यासियों को भोजन कराएं. किसी पुराणज्ञाता ब्राह्मण को रत्नजटित सुवर्णमय नाग और सभी उपस्करों से युक्त तथा बछड़े सहित गौ प्रदान करें. दान के समय सर्वव्यापी, सर्वगामी, सब कुछ प्रदान करने वाले, अनंतनारायण का स्मरण करते हुए यह कहना चाहिए हे गोविन्द ! मेरे कुल में अगर कोई व्यक्ति सर्प दंश से अधोगति को प्राप्त हुए हैं वे मेरे द्वारा किए गए व्रत तथा दान से मुक्त हो जाएं– ऐसा उच्चारण करके अक्षतयुक्त तथा श्वेतचन्दन मिश्रित जल वासुदेव के समक्ष भक्तिपूर्वक जल में छोड़ दें.
हे मुनिसत्तम इस विधि से व्रत के करने पर उसके कुल में जो सभी लोग सर्प के काटने से भविष्य में मृत्यु को प्राप्त होगें या पूर्व में मर चुके हैं वे सब स्वर्गगति प्राप्त करेंगे. साथ ही हे कुलनन्दन ! इस विधि से व्रत करने वाला अपने सभी वंशजों का उद्धार करके अप्सराओं के द्वारा सेवित होता हुआ शिव-सान्निध्य प्राप्त करता है. जो मनुष्य वित्तशाठ्य से रहित होता है, वही इस व्रत का संपूर्ण फल प्राप्त करता है।
जो लोग शुक्ल पक्ष की सभी पंचमी तिथियों में नक्तव्रत करके भक्ति संपन्न होकर पुष्प आदि उपहारों से सौभाग्यशाली नागों का पूजन करते हैं, उनके घरों में मणियों की किरणों से विभूषित अंगोंवाले सर्प उन्हें अभय देने वाले होते हैं और उनके ऊपर प्रसन्न रहते हैं. जो ब्राह्मण गृहदान का प्रतिग्रह करते है, वे भी घोर यातना भोगकर अंत में सर्पयोनि को प्राप्त होते हैं।
हे मुनिसत्तम जो कोई भी मनुष्य नागहत्या के कारण इस लोक में मृत संतानों वाले अथवा पुत्रहीन होते हैं और जो कोई मनुष्य स्त्रियों के प्रति कार्पण्य के कारण सर्प योनि में जाते हैं, कुछ लोग धरोहर रखकर उसे स्वयं ग्रहण कर लेते हैं अथवा मिथ्या भाषण के कारण सर्प होते हैं अथवा अन्य कारणों से भी जो मनुष्य सर्पयोनि में जाते हैं उन सभी के प्रायश्चित के लिए यह उत्तम उपाय कहा गया है।
यदि कोई मनुष्य वित्तशाठ्य से रहित होकर नाग पंचमी का व्रत करता है तो उसके कल्याण के लिए सभी नागों के अधिपति शेषनाग तथा वासुकि हाथ जोड़कर प्रभु श्रीहरि से तथा सदाशिव से प्रार्थना करते हैं तब शेष और वासुकि की प्रार्थना से प्रसन्न हुए परमेश्वर शिव तथा विष्णु उस व्यक्ति के सभी मनोरथ पूर्ण कर देते हैं. वह नागलोक में अनेक प्रकार के विपुल सुखों का उपभोग करके बाद में उत्तम वैकुण्ठ अथवा कैलाश में जाकर शिव तथा विष्णु का गण बनकर परम सुख प्राप्त करता है. हे वत्स ! मैंने आपसे नागों के इस पंचमी व्रत का वर्णन कर दिया, इसके बाद अब आप अन्य कौन-सा व्रत सुनना चाहते हैं, उसे बताइए।
इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास माहात्म्य में नागपंचमी व्रत कथन नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ
श्रावण मास महात्म्य पन्द्रहवां अध्याय
सुपौदन षष्ठी व्रत तथा अर्क विवाह विधि
सनत्कुमार बोले– हे देवेश ! मैंने नागों का यह आश्चर्यजनक पंचमी व्रत सुन लिया अब आप बताएं कि षष्ठी तिथि में कौन-सा व्रत होता है और उसकी विधि क्या है?
ईश्वर बोले– हे विपेन्द्र ! श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में षष्ठी तिथि को महामृत्यु का नाश करने वाले सुपौदन नामक शुभ व्रत को करना चाहिए. शिवालय में अथवा घर में ही प्रयत्नपूर्वक शिव का पूजन करके सुपौदन का नैवेद्य उन्हें विधिपूर्वक अर्पण करना चाहिए. इस व्रत के साधन में आम्र का लवण मिलाकर शाक और अनेक पदार्थों के नैवेद्य अर्पित करें, साथ ही ब्राह्मण को वायन प्रदान करे. जो इस विधि से व्रत करता है उसे अनन्त पुण्य मिलता है।
इस प्रकरण में लोग एक प्राचीन कहानी सुनाते है जो इस प्रकार से है– प्राचीन समय में रोहित नाम का एक राजा था. काफी समय बीतने के बाद भी उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति नहीं हुई तब पुत्र की अभिलाषा में उस राजा ने अत्यंत कठोर तप किया. ब्रह्मा जी ने राजा से कहा– तुम्हारे प्रारब्ध में पुत्र नहीं है तब भी पुत्र की लालसा में वह राजा अपनी तपस्या से ज़रा भी विचलित नहीं हुआ. इसके बाद राजा तपस्या करते-करते संकटग्रस्त हो गए तब ब्रह्माजी पुनः प्रकट हुए और कहने लगे– मैंने आपको पुत्र का वर तो दे दिया है लेकिन आपका यह पुत्र अल्पायु होगा तब राजा तथा उनकी पत्नी ने विचार किया के इससे रानी का बांझपन तो दूर हो जाएगा. संतानहीनता की निंदा नहीं होगी.
कुछ समय बीत जाने के बाद ब्रह्माजी के वरदान से उन्हें पुत्र प्राप्ति हुई. राजा ने विधिपूर्वक उसके जातकर्म आदि सभी संस्कार किए. दक्षिणा नाम वाली उस रानी व राजा ने अपने पुत्र का नाम शिवदत्त रखा. उचित समय आने पर भयभीत चित्त वाले राजा ने पुत्र का यज्ञोपवीत संस्कार किया किन्तु राजा ने उसकी मृत्यु के भय से उसका विवाह नहीं किया. तदनन्तर सोलहवें साल में उनका पुत्र शिवदत्त मृत्यु को प्राप्त हो गया तब ब्रह्मचारी की मृत्यु का स्मरण करते हुए राजा को बहुत चिंता होने लगी कि जिन लोगों के कुल में कोई ब्रह्मचारी मर जाए तब उनका कुल ख़तम हो जाता है और वह ब्रह्मचारी भी दुर्गति में पड़ जाता है।
सनत्कुमार बोले– हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! इसके दोष निवारण का उपाय है या नहीं, यदि उपाय है तो अभी बताएं जिससे दोष की शान्ति हो सके।
ईश्वर बोले– यदि कोई स्नातक अथवा ब्रह्मचारी मर जाए तो अर्कविधि से उसका विवाह कर देना चाहिए. इसके बाद उन दोनों ब्रह्मचारी तथा आक को परस्पर संयुक्त कर देना चाहिए. अब अर्कविवाह की विधि कहते हैं– मृतक का गोत्र, नाम आदि लेकर देशकाल का उच्चारण करके करता कहे कि मैं मृत ब्रह्मचारी के दोष निवारन हेतु वैसर्गिक व्रत करता हूँ. सर्वप्रथम सुवर्ण से अभ्युदयिक करके अग्नि स्थापन कर आघार-होम करके चारों व्याहृतियों– ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः – से हवन करना चाहिए. इसके बाद व्रत अनुष्ठान के उत्तम फल के निमित्त व्रतपति अग्नि के संपादनार्थ विश्वेदेवों के लिए घृत की आहुति डालें. उसके बाद स्विष्टकृत होम करके अवशिष्ट होम संपन्न करें. पुनः देशकाल का उच्चारण करके इस प्रकार बोले – मैं अर्कविवाह करूँगा.
उसके बाद सुवर्ण से अभ्युदयिक कृत्य करके अर्कशाखा तथा मृतक की देह को तेल तथा हल्दी से लिप्त करके पीले सूत से वेष्टित करें और पीले रंग के दो वस्त्रों से उन्हें ढक दें. इसके बाद अग्निस्थापन करे और विवाह विधि में प्रयुक्त योजक नामक अग्नि में आघार होम करें व अग्नि के लिए आज्य होम करें. उसके बाद चारों व्याहृतियों से– ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः – बृहस्पति तथा कामदेव के लिए आहुति प्रदान करें. पुनः घृत से स्विष्टकृत होमकरके संपूर्ण हवन कर्म समाप्त करें. उसके बाद आक की डाली तथा मृतक के शव को विधिपूर्वज जला दे.
मृतक अथवा म्रियमाण के निमित्त छह वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए. इस अवसर पर तीस ब्रह्मचारियों को नवीन कौपीन वस्त्र प्रदान करना चाहिए और हस्तप्रमाण अथवा कान तक लंबाई वाले दंड तथा कृष्ण मृगचर्म भी प्रदान करने चाहिए. उन्हें चरण पादुका, छत्र, माला, गोपीचंदन, प्रवालमणि की माला तथा अनेक आभूषण समर्पित करने चाहिए. इस विधान से व्रत करने पर कोई भी विघ्न नहीं होता है।
ईश्वर बोले– ब्राह्मणों से यह सुनकर राजा ने मन में विचार किया कि यह अर्कविवाह तो मुझे गौण प्रतीत होता है, मुख्य नहीं क्योंकि कोई भी व्यक्ति मरे हुए को अपनी कन्या नहीं देता है. मैं राजा हूँ अतः मैं उस व्यक्ति को अनेक रत्न तथा धन दूंगा जो कोई भी इसकी वधू के रूप में अपनी कन्या प्रदान करेगा. उस नगर में एक ब्राह्मण था उस समय वह किसी दूसरे नगर में गया हुआ था. उसकी एक सुन्दर पुत्री थी जिसकी माता की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी. ब्राह्मण की दूसरी भी पत्नी थी जो ब्राह्मण की पुत्री के प्रति बुरे विचार रखती थी तथा दुष्ट मन वाली थी. कन्या दस वर्ष की तथा दीन थी और अपनी सौतेली माता के अधीन थी. अतः सौतेली माता ने द्वेष तथा अत्यधिक धन के लालच में एक लाख मुद्रा लेकर उस कन्या को मृतक राजकुमार के लिए दे दिया।
कन्या को लेकर राजा के लोग नदी के तट पर श्मशान भूमि में राजकुमार के पास ले गए और शव के साथ उसका विवाह कर दिया. इसके बाद विधानपूर्वक शव के साथ कन्या का योग करके जब वे जलाने की तैयारी करने लगे तब उस कन्या ने पूछा – हे सज्जनों ! आप लोग यह क्या कर रहे है? तब वे सभी दुखित मन से कहने लगे कि हम लोग तुम्हारे इस पति को जला रहे है. इस पर भयभीत होकर बाल स्वभाव के कारण रोती हुई उस कन्या ने कहा– आप लोग मेरे पति को क्यों जला रहे हैं, मैं जलाने नहीं दूँगी. आप लोग सभी यहाँ से चले जाइए, मैं अकेली ही यहाँ बैठी रहूँगी और जब ये उठेंगे तब मैं अपने पतिदेव के साथ चली जाऊँगी।
उसका हठ देखकर दया के कारण दीन चित्त वाले कुछ भाग्यवादी वृद्धजन कहने लगे– अहो ! होनहार भी क्या होता है. इसे कोई भी नहीं जान सकता. दीनों की रक्षा करने वाले तथा कृपालु भगवन न जाने क्या करेंगे ! सौत की पुत्री का भाव रखने के कारण सौतेली माता ने इस कन्या को बेचा है अतः संभव है कि भगवान् इसके रक्षक हो जाएं. अतः हम लोग इस कन्या को व इस शव को नहीं जला सकते इसलिए सभी को अच्छा लगे तो हम लोगों को यहाँ से चले जाना चाहिए. परस्पर ऐसा निश्चय करके वे सब अपने नगर को चले गए।
बाल स्वभाव के कारण यह सब क्या है इसे ना जानती हुई भय से व्याकुल वह कन्या एकमात्र शिव तथा पार्वती का स्मरण करती रही. उस कन्या के स्मरण करने से सब कुछ जानने वाले तथा दया से पूर्ण ह्रदय वाले शिव-पार्वती शीघ्र ही वहां आ गए. नन्दी पर विराजमान उन तेजनिधान शिव-पार्वती को देखकर उन देवों का न जानती हुई भी उस कन्या ने पृथ्वी पर दंड की भाँति पड़कर प्रणाम किया तब उसे आश्वासन प्राप्त हुआ कि पति से तुम्हारे मिलने का समय अब आ गया है तब कन्या ने कहा कि मेरे पति अब जीवित नहीं होंगे ? उसके बालभाव से प्रसन्न तथा दया से परिपूर्ण शिव पार्वती ने कहा कि तुम्हारी माता ने सुपौदन नामक व्रत किया था.
उस व्रत का फल संकल्प करके तुम अपने पति को प्रदान करो. तुम कहो कि मेरी माता के द्वारा जो सुपौदन नामक व्रत किया गया है, उसके प्रभाव से मेरे पति जीवित हो जाएं. तब कन्या ने वैसा ही किया और उसके परिणामस्वरूप शिवदत्त जीवित उठ खड़ा हो गया।
उस कन्या को व्रत का उपदेश देकर शिव तथा पार्वती अंतर्ध्यान हो गए तब शिवदत्त ने उस कन्या से पूछा– तुम कौन हो और मैं यहाँ कैसे आ गया हूँ ? तब उस कन्या ने उसे वृत्तांत सुनाया और रात हो गई. प्रातः होने पर नदी के तट पर गए लोगों ने राजा को वापिस आकर कहा कि– हे राजन! आपका पुत्र व पुत्रवधू नदी के तट पर स्थित है. विश्वस्त लोगों से यह बात सुनकर राजा बहुत खुश हुआ. वह हर्ष भेरी बजवाते हुए नदी के तट पर गया. सभी लोग प्रसन्न होकर राजा की प्रशंसा करने लगे।
वह बोले– हे राजन ! मृत्यु के घर गया हुआ आपका पुत्र पुनः लौट आया है. इस पर राजा पुत्रवधू की प्रशंसा करने लगे और बोले कि लोग मेरी प्रशंसा क्यों कर रहे है! प्रशंसा के योग्य तो यह वधू है. मैं तो भाग्यहीन तथा अधम हूँ. धन्य और सौभाग्यशालिनी तो यह पुत्रवधू है क्योंकि इसी के पुण्य प्रभाव से मेरा पुत्र जीवित हुआ है. इस प्रकार अपनी पुत्रवधू की प्रशंसा करके राजा ने दान तथा सम्मान के साथ श्रेष्ठ ब्राह्मणो का पूजन किया और ग्राम से बाहर ले जाए गए मृत व्यक्ति के पुनः ग्राम में प्रवेश कराने से संबंधित शान्ति की विधि को ब्राह्मणों के निर्देश पर विधिपूर्वक संपन्न किया।
हे वत्स इस प्रकार मैंने आपसे यह सुपौदन नामक व्रत कहा. इसे पांच वर्ष तक करने के अनन्तर उद्यापन करना चाहिए. पार्वती तथा शिव की प्रतिमा का प्रतिदिन पूजन करना चाहिए और प्रातःकाल आम के पल्लवों के साथ चरु का होम करना चाहिए, साथ ही नैवेद्य तथा वायन अर्पित करना चाहिए. मनुष्य यदि व्रत की बताई गई इस विधि के अनुसार आचरण करे तो वह दीर्घजीवी पुत्र प्राप्त करके मृत्यु के बाद शिवलोक जाता है।
इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास माहात्म्य में सुपौदनषष्ठी व्रत कथन नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।
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श्रावण मास महात्म्य सोलहवां अध्याय
शीतलासप्तमी व्रत का वर्णन तथा व्रत कथा
ईश्वर बोले हे सनत्कुमार अब मैं शीतला सप्तमी व्रत को कहूँगा. श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को यह व्रत करना चाहिए. सबसे पहले दीवार पर एक वापी का आकार बनाकर अशरीरी संज्ञक दिव्य रूप वाले सात जल देवताओं, दो बालकों से युक्त पुरुषसंज्ञक नारी, एक घोड़ा, एक वृषभ तथा नर वाहन सहित एक पालकी भी उस पर बना दे. इसके बाद सोलह उपचारों से सातों जल देवताओं की पूजा होनी चाहिए. इस व्रत के साधन में ककड़ी और दधि-ओदन का नैवेद्य अर्पित करना चाहिए. उसके बाद नैवेद्य के पदार्थों में से ब्राह्मण को वायन देना चाहिए. इस प्रकार सात वर्ष तक इस व्रत को करने के बाद उद्यापन करना चाहिए।
इस व्रत में प्रत्येक वर्ष सात सुवासिनियों को भोजन कराना चाहिए. जलदेवताओं की प्रतिमाएं एक सुवर्ण पात्र में रखकर बालकों सहित एक दिन पहले सांयकाल में भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए. प्रातःकाल पहले ग्रह होम करके देवताओं के निमित्त चरु से होम करना चाहिए. जिसने पहले इस व्रत को किया और उसे जो फल प्राप्त हुआ उसे आप सुनें।
सौराष्ट्र देश में शोभन नामक एक नगर था, उसमे सभी धर्मों के प्रति निष्ठां रखने वाला एक साहूकार रहता था. उसने जलरहित एक अत्यंत निर्जन वन में बहुत पैसा खर्च करके शुभ तथा मनोहर सीढ़ियों से युक्त, पशुओं को जल पिलाने के लिए, सरलता से उतरने-चढ़ने योग्य, दृढ पत्थरों से बंधी हुई तथा लंबे समय तक टिकने वाली एक बावली बनवाई. उस बावली के चारों ओर थके राहगीरों के विश्राम के लिए अनेक प्रकार के वृक्षों से शोभायमान एक बाग़ लगवाया लेकिन वह बावली सूखी ही रह गई और उसमे एक बून्द पानी नहीं आया. साहूकार सोचने लगा कि मेरा प्रयास व्यर्थ हो गया और व्यर्थ ही धन खर्च किया.
इसी चिंता में विचार करता हुआ वह साहूकार रात में वहीँ सो गया तब रात्रि में उसके स्वप्न में जल देवता आए और उन्होंने कहा कि हे धनद जल के आने का उपाय तुम सुनो, यदि तुम हम लोगों के लिए आदरपूर्वक अपने पौत्र की बलि दो तो उसी समय तुम्हारी यह बावली जल से भर जाएगी.
यह सपना देख साहूकार ने सुबह अपने पुत्र को बताया. उसके पुत्र का नाम द्रविण था और वह भी धर्म-कर्म में आस्था रखने वाला था. वह कहने लगा आप मुझ जैसे पुत्र के पिता है, यह धर्म का कार्य है. इसमें आपको ज्यादा विचार ही नहीं करना चाहिए. यह धर्म ही है जो स्थिर रहेगा और पुत्र आदि सब नश्वर है. अल्प मूल्य से महान वस्तु प्राप्त हो रही है अतः यह क्रय अति दुर्लभ है, इसमें लाभ ही लाभ है. शीतांशु और चण्डाशु ये मेरे दो पुत्र है. इनमें शीतांशु नामक जो ज्येष्ठ पुत्र है उसकी बलि बिना कुछ विचार किए आप दे दे
लेकिन पिताजी घर की स्त्रियों को यह रहस्य कभी ज्ञात नहीं होना चाहिए. उसका उपाय ये है कि इस समय मेरी पत्नी गर्भ से है और उसका प्रसवकाल भी निकट है जिसके लिए वह अपने पिता के घर जाने वाली है. छोटा पुत्र भी उसके साथ जाएगा. हे तात उस समय यह कार्य निर्विघ्न रूप से संपन्न हो जाएगा. पुत्र की यह बात सुनकर पिता उस पर अत्यधिक प्रसन्न हुए और बोले हे पुत्र तुम धन्य हो और मैं भी धन्य हूँ जो कि तुम जैसे पुत्र का मैं पिता बना।
इसी बीच सुशीला के घर से उसके पिता का बुलावा आ गया और वह जाने लगी तब उसके ससुर तथा पति ने कहा कि यह ज्येष्ठ पुत्र हमारे पास ही रहेगा, तुम इस छोटे पुत्र को ले जाओ. इस पर उसने ऐसा ही किया, उसके चले जाने के बाद पिता-पुत्र ने उस बालक के शरीर में तेल का लेप किया और अच्छी प्रकार स्नान कराकर सुन्दर वस्त्र व आभूषणों से अलंकृत करके पूर्वाषाढ़ा तथा शतभिषा नक्षत्र में उसे प्रसन्नतापूर्वक बावली के तट पर खड़ा किया और कहा कि बावली के जलदेवता इस बालक के बलिदान से आप प्रसन्न हों. उसी समय वह बावली अमृततुल्य जल से भर गई. वे दोनों पिता-पुत्र शोक व हर्ष से युक्त होकर घर की ओर चले गए।
सुशीला ने अपने घर में तीसरे पुत्र को जन्म दिया और तीन महीने बाद अपने घर जाने को निकल पड़ी. मार्ग में आते समय वह बावली के पास पहुँची और उस बावली को जल से भरा हुआ देखा तो वह बहुत ही आश्चर्य में पड़ गई. उसने उस बावली में स्नान किया और कहने लगी कि मेरे ससुर का परिश्रम व धन का व्यय सफल हुआ. उस दिन श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि थी और सुशीला ने शीतला सप्तमी नामक शुभ व्रत रखा हुआ था. उसने वहीँ पर चावल पकाए और दही भी ले आई. इसके बाद जलदेवताओं का विधिवत पूजन करके दही, भात तथा ककड़ी फल का नैवेद्य अर्पण किया तथा ब्राह्मणों को वायन देकर साथ के लोगों के साथ मिलकर उसी नैवेद्य अन्न का भोजन किया।
उस स्थान से सुशीला का ग्राम एक योजन की दूरी पर स्थित था. कुछ समय बाद वह सुन्दर पालकी में बैठ दोनों पुत्रों के साथ वहाँ से चल पड़ी तब वे जलदेवता कहने लगे कि हमें इसका पुत्र जीवित करके इसे वापिस करना चाहिए क्योंकि इसने हमारा व्रत किया है, साथ ही यह उत्तम बुद्धि रखने वाली स्त्री है. इस व्रत के प्रभाव से इसे नूतन पुत्र देना चाहिए. पहले उत्पन्न पुत्र को यदि हम ग्रहण किए रह गए तब हमारी प्रसन्नता का फल ही क्या ? आपस में ऐसा कहकर उन दयालु जलदेवताओं ने बावली में से उसके पुत्र को बाहर निकालकर माता को दिखा दिया और फिर उसे विदा किया।
बाहर निकलकर वह पुत्र माता-माता पुकारता हुआ अपनी माता के पीछे दौड़ पड़ा. अपने पुत्र का शब्द सुनकर उसने पीछे मुड़कर देखा वहाँ अपने पुत्र को देखकर वह मन ही मन बहुत चकित हुई. उसे अपनी गोद में बिठाकर उसने उसका माथा सूँघा किन्तु यह डर जाएगा इस विचार से उसने पुत्र से कुछ नहीं पूछा. वह अपने मन में सोचने लगी कि यदि इसे चोर उठा लाए तो यह आभूषणों से युक्त कैसे हो सकता है और यदि पिशाचों ने इसे पकड़ लिया था तो दुबारा छोड़ क्यों दिया? घर में संबंधी जन तो चिंता के समुद्र में डूबे होंगे।
इस प्रकार सुशीला सोचती हुई वह नगर के द्वार पर आ गई तब लोग कहने लगे कि सुशीला आई है. यह सुनकर वे पिता-पुत्र अत्यंत चिंता में पड़ गए कि वह ना जाने क्या कहेगी और उसके पुत्र के बारे में हम क्या जवाब देंगे ? इसी बीच वह तीनों पुत्रों के साथ आ गई तब ज्येष्ठ बालक को देखकर सुशीला के ससुर तथा पति घोर आश्चर्य में पड़ गए और साथ ही बहुत आनंदित भी हुए.
वे कहने लगे हे शुचिस्मिते तुमने कौन सा पुण्य कर्म किया अथवा व्रत किया था. हे भामिनि ! तुम पतिव्रता हो, धन्य हो और पुण्यवती हो. इस शिशु को मरे हुए दो माह बीत चुके हैं और तुमने इसे फिर से प्राप्त कर लिया और वह बावली भी जल से परिपूर्ण है. तुम एक पुत्र के साथ अपने पिता के घर गई थी लेकिन वापिस तीनों पुत्रो के साथ आई हो. हे सुभ्रु ! तुमने तो कुल का उद्धार कर दिया. हे शुभानने ! मैं तुम्हारी कितनी प्रशंसा करू. इस प्रकार ससुर ने उसकी प्रशंसा की, पति ने उसे प्रेमपूर्वक देखा और सास ने उसे आनंदित किया. उसके बाद उसने मार्ग के पुण्य का समस्त वृत्तांत सुनाया. अंत में उन सभी ने मनोवांछित सुखों का उपभोग करके बहुत आनंद प्राप्त किया।
हे वत्स मैंने इस शीतला सप्तमी व्रत को आपसे कह दिया है. इस व्रत में दधि-ओदन शीतल, ककड़ी का फल शीतल और बावली का जल भी शीतल होता है तथा इसके देवता भी शीतल होते हैं. अतः शीतला-सप्तमी का व्रत करने वाले तीनों प्रकार के तापों के संताप से शीतल हो जाते हैं. इसी कारण से यह सप्तमी शीतला-सप्तमी इस यथार्थ नाम वाली है।
इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास माहात्म्य में शीतला सप्तमी व्रत कथन नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ
श्रावण मास महात्म्य सत्रहवाँ अध्याय
श्रावण मास की अष्टमी को देवी पवित्रारोपण, पवित्रनिर्माण विधि तथा नवमी का कृत्य।
ईश्वर बोले हे देवेश अब मैं शुभ पवित्रारोपण का वर्णन करूँगा. सप्तमी तिथि को अधिवासन करके अष्टमी तिथि को पवित्रकों को अर्पण करना चाहिए. जो पवित्रक बनवाता है उसके पुण्यफल को सुनिए – सभी प्रकार के यज्ञ, व्रत तथा दान करने और सभी तीर्थों में स्नान करने का फल मनुष्य को केवल पवित्र धारण करने से प्राप्त हो जाता है क्योंकि भगवती शिवा सर्वव्यापिनी है. इस व्रत से मनुष्य धनहीन नहीं होता, उसे दुःख, पीड़ा तथा व्याधियां नहीं होती, उसे शत्रुओं से होने वाला भय नहीं होता और वह कभी भी ग्रहों से पीड़ित नहीं रहता. इससे छोटे-बड़े सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं।
हे वत्स मनुष्यों तथा राजाओं के विशेष करके स्त्रियों के पुण्य की वृद्धि के लिए इससे श्रेष्ठ कोई अन्य व्रत नहीं है. हे तात ! सौभाग्य प्रदान करने वाले इस व्रत को मैंने आपके प्रति स्नेह के कारण बताया है. हे ब्रह्मपुत्र ! श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को अधिवासन करके देवी के प्रति उत्तम भक्ति से संपन्न वह मनुष्य सभी सामग्रियों से युक्त होकर सभी पूजाद्रव्यों गंध, पुष्प, फल आदि अनेक प्रकार के नैवेद्य तथा वस्त्राभरण आदि संपादित करके इनकी शुद्धि करे.
इसके बाद पंचगव्य का प्राशन कराए, चरु से दिग्बली प्रदान करे तथा अधिवासन करे. उसके बाद सदृश वस्त्रों तथा पत्रों से इस पवित्रक को आच्छादित करे, पुनः देवी के उस मूल मन्त्र से उसे सौ बार अभिमंत्रित करके सर्वशोभासमन्वित उस पवित्रक को देवी के समक्ष स्थापित करे. इसके बाद देवी का मंडप बनाकर रात्रि में जागरण करे और नट, नर्तक तथा वारांगनाओं के अनेक विध कुशल समूहों और गाने-बजाने तथा नाचने की कला में प्रवीण लोगों को देवी के समक्ष स्थापित करें.
उसके बाद प्रातःकाल विधिवत स्नान करके पुनः बलि प्रदान करें. इसके बाद विधिवत देवी की पूजा करके स्त्रियों तथा द्विजों को भोजन कराएँ. पहले देवी को पवित्रक अर्पण करें और अंत में दक्षिणा प्रदान करें. हे वत्स ! अपनी सामर्थ्य के अनुसार कार्यसिद्धि करने वाले उस नियम को धारण करें. राजा को प्रयत्नपूर्वक स्त्री के प्रति आसक्ति, जुआ, आखेट तथा मांस आदि का परित्याग कर देना चाहिए. ब्राह्मणों तथा आचार्यों को स्वाध्याय का और वैश्यों को खेती का कार्य तथा व्यवसाय नहीं करना चाहिए. सात, पाँच, तीन, एक अथवा आधा दिन ही त्यागपूर्वक रहना चाहिए और देवी के कार्यों में निरंतर अपने मन में आसक्ति बनाए रखनी चाहिए.
हे मुनिसत्तम जो बुद्धिमान व्यक्ति विधानपूर्वक पवित्रारोपण नहीं करता है, उसकी वर्ष भर की पूजा व्यर्थ हो जाती है. अतः मनुष्यों को चाहिए कि देवीपरायण तथा भक्ति से संपन्न होकर प्रत्येक वर्ष शुभ पवित्रारोपण अवश्य करें. कर्क अथवा सिंह राशि में सूर्य के प्रवेश करने पर शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को देवी को पवित्रक अर्पित करना चाहिए. हे सनत्कुमार ! इसके ना करने में दोष होता है, इसे नित्य करना बताया गया है
सनत्कुमार बोले हे देवदेव हे महादेव हे स्वामिन आपने जिस पवित्रक का कथन किया, वह कैसे बनाया जाना चाहिए, उसकी संपूर्ण विधि बताएँ।
ईश्वर बोले हे सनत्कुमार सुवर्ण, ताम्र, चांदी, रेशमी वस्त्र से निकाले गए कुश, काश के अथवा ब्राह्मणी के द्वारा काटे गए कपास के सूत्र को तिगुना करके फिर उसका तिगुना करके पवित्रक बनाना चाहिए. उनमें तीन सौ आठ तारों का पवित्रक उत्तम और दो सौ सत्तर तारों का पवित्रक माध्यम माना गया है. एक सौ अस्सी तारों वाले पवित्रक को कनिष्ठ जानना चाहिए।
इसी प्रकार एक सौ ग्रंथि का पवित्रक उत्तम, पचास ग्रंथि का पवित्रक माध्यम तथा छब्बीस ग्रंथि का सुन्दर पवित्रक कनिष्ठ होता है अथवा छः, तीन, चार, दो, बारह, चौबीस, दस अथवा आठ ग्रंथियों वाला पवित्रक बनाना चाहिए अथवा एक सौ आठ ग्रंथि का पवित्रक उत्तम, चव्वन ग्रंथि का माध्यम तथा सत्ताईस ग्रंथि का कनिष्ठ होता है. प्रतिमा के घुटने तक का लंबा पवित्रक उत्तम, जंघा तक लंबा पवित्रक माध्यम तथा नाभि पर्यन्त पवित्रक अधम कहा जाता है।
पवित्रक की सभी शुभ ग्रंथियों को कुमकुम से रंग देना चाहिए, इसके बाद अपने समक्ष शुभ सर्वतोभद्रमण्डल पर देवी का पूजन करके कलश के ऊपर बांस के पात्र में पवित्रकों को रखें. तीन तार वाले पवित्रक में ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का आवाहन करके स्थापित करें. इसके बाद का सुनिए नौ तार के पवित्रक में ओंकार, सोम, अग्नि, ब्रह्मा, समस्त नागों, चन्द्रमा, सूर्य, शिव तथा विश्वेदेवों की स्थापना करें।
हे सनत्कुमार अब मैं ग्रंथियों में स्थापित किये जाने वाले देवताओं का वर्णन करूँगा. क्रिया, पौरुषी, वीरा, विजया, अपराजिता, मनोन्मनी, जाया, भद्रा, मुक्ति और ईशा ये देवियाँ हैं. इनके नामों के पूर्व में प्रणव तथा अंत में नमः लगाकर ग्रंथि संख्या के अनुसार क्रमशः आवाहन करके चन्दन आदि से इनकी पूजा करनी चाहिए. इसके बाद प्रणव से अभिमंत्रित करके देवी को धूप अर्पण करना चाहिए।
हे सनत्कुमार मैंने आपसे देवी के इस शुभ पवित्रारोपण का वर्णन कर दिया. इसी प्रकार अन्य देवताओं का भी पवित्रारोपण प्रतिपदा आदि तिथियों में करना चाहिए. मैं उन देवताओं को आपको बताता हूँ. कुबेर, लक्ष्मी, गौरी, गणेश, चन्द्रमा, बृहस्पति, सूर्य, चंडिका, अम्बा, वासुकि, ऋषिगण, चक्रपाणि, अनंत, शिवजी, ब्रह्मा और पितर इन देवताओं की पूजा प्रतिपदा आदि तिथियों में करनी चाहिए. यह मुख्य देवता का पवित्रारोपण है, उनके अंगदेवता का पवित्रक तीन सूत्रों का होना चाहिए।
ईश्वर बोले हे विपेन्द्र अब मैं श्रावण मास के दोनों पक्षों की नवमी तिथियों के करणीय कृत्य को बताऊँगा. इस दिन कुमारी नामक दुर्गा की यथाविधि पूजा करनी चाहिए. दोनों पक्षों की नवमी के दिन नक्तव्रत करें और उसमें दुग्ध तथा मधु का आहार ग्रहण करें अथवा उपवास करें. उस दिन कुमारी नामक उन पापनाशिनी दुर्गा चंडिका की चाँदी की मूर्त्ति बनाकर भक्तिपूर्वक सदा उनका अर्चन करें. गंध, चन्दन, कनेर के पुष्पों, दशांग धुप और मोदकों से उनका पूजन करें. उसके बाद कुमारी कन्या, स्त्रियों तथा विप्रों को श्रद्धापूर्वक भोजन कराएँ फिर मौन धारण करके स्वयं बिल्वपत्र का आहार ग्रहण करें. इस प्रकार जो मनुष्य अत्यंत श्रद्धा के साथ दुर्गा जी की पूजा करता है वह उस परम स्थान को जाता है जहां देव बृहस्पति विद्यमान हैं।
हे विधिनन्दन यह मैंने आपसे नवमी तिथि का कृत्य कह दिया. यह मनुष्यों के सभी पापों का नाश करने वाला, सभी संपदाएँ प्रदान करने वाला, पुत्र-पौत्र आदि उत्पन्न करने वाला और अंत में उन्हें उत्तम गति प्रदान करने वाला है।
इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास माहात्म्य में अष्टमी तिथि को देवीपवित्रारोपण नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ
श्रावण मास महात्म्य अठारहवां अध्याय
आशा दशमी व्रत का विधान
सनत्कुमार बोले हे भगवन हे पार्वतीनाथ हे भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हे दयासागर अब आप दशमी तिथि का माहात्म्य बताइए।
ईश्वर बोले हे सनत्कुमार श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि से यह व्रत आरम्भ करें. पुनः प्रत्येक महीने में शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को यह व्रत करें. इस प्रकार बारहों महीने में इस उत्तम व्रत को करके बाद में श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि पर इसका उद्यापन करें. राज्य की इच्छा रखने वाले राजपुत्र, उत्तम कृषि के लिए कृषक, व्यवसाय के लिए वैश्य पुत्र, पुत्र प्राप्ति के लिए गर्भिणी स्त्री, धर्म-अर्थ-काम की सिद्धि के लिए सामान्यजन, श्रेष्ठ वर की अभिलाषा रखने वाली कन्या, यज्ञ करने की कामना वाले ब्राह्मणश्रेष्ठ, आरोग्य के लिए रोगी और दीर्घकालिक पति के परदेश रहने पर उसके आने के लिए पत्नी इन सबको तथा इसके अतिरिक्त अन्य लोगों को भी इस दशमी व्रत को करना चाहिए. जिस कारण जिसे कष्ट हो तब उसके निवारण हेतु उस मनुष्य को यह व्रत करना चाहिए।
श्रावण में शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन स्नान करके देवता का विधिवत पूजनकर घर के आँगन में दसों दिशाओं में पुष्प-पल्लव, चन्दन से अथवा जौ के आटे से अधिदेवता की शस्त्रवाहनयुक्त स्त्रीरूपा शक्तियों का अंकन करके नक्तवेला में दसों दिशाओं में उनकी पूजा करनी चाहिए. घृतमिश्रित नैवेद्य अर्पण करके उन्हें पृथक-पृथक दीपक प्रदान करना चाहिए. उस समय जो फल उपलब्ध हों वह भी चढ़ाना चाहिए. इसके बाद अपने कार्य की सिद्धि के लिए इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए हे दिग्देवता मेरी आशाएँ पूर्ण हों और मेरे मनोरथ सिद्ध हों, आप लोगों की कृपा से सदा कल्याण हो. इस प्रकार विधिवत पूजन करके ब्राह्मण को दक्षिणा देनी चाहिए.
हे मुनिश्रेष्ठ इसी क्रम से प्रत्येक महीने में दशमी तिथि का व्रत सदा करना चाहिए और एक वर्ष तक करने के अनन्तर उद्यापन करना चाहिए. अब पूजन की विधि कही जाती है सुवर्ण अथवा चाँदी अथवा आटे से ही दसों दिशाओं को बनवाए. उसके बाद स्नान करके भली भाँति वस्त्राभूषण से अलंकृत होकर बंधू-बांधवों के साथ भक्तिपूर्ण मन से दसों दिग्देवताओं का पूजन करना चाहिए. घर के आँगन में क्रम से इन मन्त्रों के द्वारा दिग्देवताओं को स्थापित करें इस भवन के स्वामी और देवताओं तथा दानवों से नमस्कार किए जाने वाले इंद्र आपके ही समीप रहते हैं, आप ऐन्द्री नामक दिग्देवता को नमस्कार है. हे आशे ! अग्नि के साथ परिग्रह (विवाह) होने के कारण आप आग्नेयी कही जाती हैं. आप तेजस्वरूप तथा पराशक्ति हैं, अतः मुझे वर देने वाली हों।
आपका ही आश्रय लेकर वे धर्मराज सभी लोगों को दण्डित करते हैं इसलिए आप संयमिनी नाम वाली हैं. हे याम्ये आप मेरे लिए उत्तम मनोरथ पूर्ण करने वाली हों. हाथ में खड्ग धारण किए हुए मृत्यु देवता आपका ही आश्रय ग्रहण करते हैं, अतः आप निरऋतिरूपा हैं. आप मेरी आशा को पूर्ण कीजिए. हे वारुणि ! समस्त भुवनों के आधार तथा जल जीवों के स्वामी वरुणदेव आप में निवास करते हैं. अतः मेरे कार्य तथा धर्म को पूर्ण करने के लिए आप तत्पर हों. आप जगत के आदिस्वरूप वायुदेव के साथ अधिष्ठित हैं, इसलिए आप वायव्या हैं. हे वायव्ये आप मेरे घर में नित्य शान्ति प्रदान करें।
आप धन के स्वामी कुबेर के साथ अधिष्ठित हैं, अतः आप इस लोक में “उत्तरा” नाम से विख्यात हैं. हमें शीघ्र ही मनोरथ प्रदान करके आप निरुत्तर हों. हे ऐशानि आप जगत के स्वामी शम्भु के साथ सुशोभित होती हैं. हे शुभे हे देवी मेरी अभिलाषाओं को पूर्ण कीजिए, आपको नमस्कार है, नमस्कार है. आप समस्त लोकों के ऊपर अधिष्ठित हैं, सदा कल्याण करने वाली हैं और सनक आदि मुनियों से घिरी रहती हैं, आप सदा मेरी रक्षा करें, रक्षा करें।
सभी नक्षत्र, ग्रह, तारागण तथा जो नक्षत्र माताएँ हैं और जो भूत-प्रेत तथा विघ्न करने वाले विनायक हैं उनकी मैंने भक्तियुक्त मन से भक्तिपूर्वक पूजा की है, वे सब मेरे अभीष्ट की सिद्धि के लिए सदा तत्पर हों. नीचे के लोकों में आप सर्पों तथा नेवलों के द्वारा सेवित हैं, अतः नाग पत्नियों सहित आप मेरे ऊपर प्रसन्न हों. इन मन्त्रों के द्वारा पुष्प, धूप आदि से पूजन करके वस्त्र, अलंकार तथा फल निवेदित करना चाहिए. इसके बाद वाद्यध्वनि, गीत-नृत्य आदि मंगलकृत्यों और नाचती हुई श्रेष्ठ स्त्रियों के सहित जागरण करके रात्रि व्यतीत करनी चाहिए।
कुमकुम, अक्षत, ताम्बूल, दान, मान आदि के द्वारा भक्तिपूर्ण मन से उस रात्रि को सुखपूर्वक व्यतीत करके प्रातःकाल प्रतिमाओं की पूजा करके ब्राह्मण को प्रदान कर देनी चाहिए. इस विधि से व्रत को करके क्षमा-प्रार्थना तथा प्रणाम करके मित्रों तथा प्रिय बंधुजनों को साथ लेकर भोजन करना चाहिए. हे तात ! जो मनुष्य इस विधि से आदरपूर्वक दशमी व्रत करता है, वह सभी मनोवांछित फल प्राप्त करता है. विशेष रूप से स्त्रियों को इस सनातन व्रत को करना चाहिए क्योंकि मनुष्य जाति में स्त्रियां अधिक श्रद्धा-कामनापारायण होती हैं।
हे मुनिश्रेष्ठ धन प्रदान करने वाले, यश देने वाले, आयु बढ़ाने वाले तथा सभी कामनाओं का फल प्रदान करने वाले इस व्रत को मैंने आपसे कह दिया, तीनों लोकों में अन्य कोई भी व्रत इसके समान नहीं है. हे ब्रह्मपुत्रों में श्रेष्ठ ! वांछित फल की कामना करने वाले जो मनुष्य दशमी तिथि को दसों दिशाओं की सदा पूजा करते हैं, उनके ह्रदय में स्थित सभी बड़ी-बड़ी कामनाओं को वे दिशाएँ फलीभूत कर देती हैं, इसमें अधिक कहने से क्या प्रयोजन ? हे सनत्कुमार यह व्रत मोक्षदायक है, इसमें संदेह नहीं करना चाहिए. इस व्रत के समान न कोई व्रत है और न तो होगा।
इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास माहात्म्य में आशा दशमी व्रत कथन नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ
श्रावण मास महात्म्य उन्नीसवां अध्याय
श्रावण मास की दोनों पक्षों की एकादशियों के व्रतों का वर्णन तथा विष्णुपवित्रारोपण विधि
ईश्वर बोले हे महामुने अब मैं श्रावण मास में दोनों पक्षों की एकादशी तिथि को जो किया जाता है, उसे कहता हूँ, आप सुनिए. हे वत्स रहस्यमय, अतिश्रेष्ठ, महान पुण्य प्रदान करने वाले तथा महापातकों का नाश करने वाले इस व्रत को मैंने किसी से नहीं कहा है. यह एकादशी व्रत श्रवण मात्र से मनुष्यों को वांछित फल प्रदान करने वाला, पापों का नाश करने वाला, सभी व्रतों में श्रेष्ठ तथा शुभ है. इसे मैं आपसे कहूँगा, आप एकाग्रचित्त होकर सुनिए. दशमी तिथि में प्रातःकाल स्नान करके शुद्ध होकर संध्या आदि कर ले और वेदवेत्ता, पुराणज्ञ तथा जितेन्द्रिय विप्रों से आज्ञा लेकर सोलहों उपचारों से देवाधिदेव भगवान् का विधिवत पूजन करके इस प्रकार प्रार्थना करें हे पुण्डरीकाक्ष मैं एकादशी को निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूंगा. हे अच्युत आप मेरे शरणदाता होइए।
हे वत्स गुरु, देवता तथा अग्नि की सन्निधि में नियम धारण करें और उस दिन काम-क्रोध रहित होकर भूमि पर शयन करें. उसके बाद प्रातःकाल होने पर भगवान् केशव में मन को लगाएं. भूख लगने तथा प्रस्खलन गिरना, ठोकर आदि लगना के समय श्रीधर इस शब्द का उच्चारण करें. हे वत्स यह व्रत मोक्ष प्रदान करने वाला है, अतः तीन दिनों तक पाखंडी आदि लोगों के साथ बातचीत, उन्हें देखना तथा उनकी बातें सुनना इन सबका त्याग कर देना चाहिए. तदनन्तर क्रोध रहित होकर पंचगव्य लेकर मध्याह्न के समय नदी आदि के निर्मल जल में स्नान करना चाहिए. सूर्य को नमस्कार करके भगवान् श्रीधर की शरण में जाना चाहिए और वर्णाचार की विधि से सभी कृत्य संपन्न करके घर आना चाहिए।
वहाँ पुष्प, धूप तथा अनेक प्रकार के नैवेद्यों से श्रद्धापूर्वक श्रीधर की पूजा करनी चाहिए. उसके बाद सुवर्णमय, पञ्चरत्नयुक्त, श्वेत चन्दन से लिप्त तथा दो वस्त्रों से आच्छादित कलश को स्थापित करके और शंख, चक्र, गदायुक्त देवाधिदेव श्रीधर की प्रतिमा स्थापित कर उनकी पूजा करके गीत, वाद्य तथा कथा श्रवण के साथ रात्रि में जागरण करना चाहिए. इसके बाद विमल प्रभात होने पर द्वादशी के दिन विधिवत पूजन करके कृतकृत्य होकर बुद्धिमान को चाहिए कि “श्रीधर” नाम का जप करे. इसके बाद उन शंख, चक्र तथा गदा धारण करने वाले देवदेवेश श्रीधर की पुनः पूजा करें और सुवर्ण दक्षिणा सहित कलश ब्राह्मण को प्रदान करें. उस समय ब्राह्मण को विशेष करके नवनीत अवश्य प्रदान करें।
इस प्रकार प्रार्थना करें भगवान् श्रीधर आज आप मुझ पर प्रसन्न हों और मुझे अत्युत्तम लक्ष्मी प्रदान करें. हे मुनिश्रेष्ठ इस प्रकार उच्चारण करके जगद्गुरु श्रीधर से प्रार्थना करके श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराकर अपने सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देनी चाहिए. उसके बाद सेवकों आदि को भोजन कराकर गायों को घास खिलानी चाहिए. इसके बाद मित्रों तथा बंधु-बांधवों समेत स्वयं भोजन करना चाहिए.
हे सनत्कुमार मैंने आपको यह श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी व्रत विधि बतला दी, इसी प्रकार कृष्ण पक्ष की एकादशी में भी करना चाहिए. दोनों व्रतों में अनुष्ठान समान है, केवल देवताओं के नाम में भेद है. जनार्दन मुझ पर प्रसन्न हों यह वाक्य बोलना चाहिए. शुक्ल एकादशी के देवता श्रीधर हैं और कृष्ण एकादशी के देवता जनार्दन हैं. हे सनत्कुमार ! यह मैंने आपसे दोनों एकादशियों के व्रत का वर्णन कर दिया है. इस एकादशी व्रत के समान पुण्यव्रत न तो कभी हुआ और ना होगा. आपको यह व्रत गुप्त रखना चाहिए और दुष्ट हृदय वाले को नहीं प्रदान करना चाहिए।
ईश्वर बोले हे सनत्कुमार अब मैं द्वादशी तिथि में होने वाले श्रीहरि के पवित्रारोपण व्रत का वर्णन करूँगा. पिछले अध्याय में देवी की कही गई पवित्रारोपण विधि के समान ही इसका भी पवित्रारोपण है. इसमें जो विशेष बात है, उसे मैं बताऊंगा, सावधान चित्त होकर सुनिए. हे महामुने इस व्रत के लिए जो अधिकारी बताया गया है, उसे आप सुनें. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा स्त्री इन सभी को अपने धर्म में स्थित होकर भक्तिपूर्वक पवित्रारोपण करना चाहिए. द्विज को चाहिए कि अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे । पृथिव्याः सप्त धामभिः. इस मन्त्र से विष्णु की पूजा करें. स्त्रियों तथा शूद्रों के लिए नाम मन्त्र है जिसके द्वारा वे विष्णु की पूजा करें।
इसी प्रकार द्विज कद्रुद्राय. इस मन्त्र से शिवजी की पूजा करें स्त्रियों तथा शूद्रों के लिए नाम मन्त्र है जिसके द्वारा वे शिवजी की पूजा करें. सतयुग में मणिमय, त्रेता में सुवर्णमय, द्वापर में रेशम का और कलियुग में कपास का सूत्र पवित्रक के लिए बताया गया है. सन्यासियों को शुभ मानस पवित्रारोपण करना चाहिए. बनाए गए पवित्रक को सर्वप्रथम बाँस की सुन्दर टोकरी में रखकर शुद्ध वस्त्र से ढंककर भगवान् के सम्मुख रखें
और इस प्रकार कहें – हे प्रभो क्रियालोप के विधान के लिए जो आपने आच्छादन किया है, हे देव आपकी प्रसन्नता के लिए मैं इसे करता हूँ. हे देव मेरे इस कार्य में विघ्न न उत्पन्न हो, हे नाथ मुझ पर दया कीजिए. हे देव सब प्रकार से सर्वदा आप ही मेरी परम गति हैं. हे जगत्पते मैं इस पवित्रक से आपको प्रसन्न करता हूँ. ये काम-क्रोध आदि मेरे व्रत का नाश करने वाले ना हों. हे देवेश ! आप आज से लेकर वर्षपर्यंत अपने भक्त की रक्षा करें, आपको नमस्कार है. इस प्रकार कलश में देवता की प्रार्थना करके बाँस के शुभ पात्र में स्थित पवित्रक की आदरपूर्वक प्रार्थना करनी चाहिए।
हे पवित्रक वर्ष भर की गई पूजा की पवित्रता के लिए विष्णु लोक से आप इस समय यहां पधारें, आपको नमस्कार है. हे देव ! मैं विष्णु के तेज से उत्पन्न, मनोहर, सभी पापों का नाश करने वाले तथा सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले इस पवित्रक को आपके अंग में धारण कराता हूँ. हे देवेश हे पुराणपुरुषोत्तम आप मेरे द्वारा आमंत्रित हैं. अतः आप मेरे समीप पधारें, मैं आपका पूजन करूँगा, आपको नमस्कार है. मैं प्रातःकाल आपको यह पवित्रक निवेदन करूँगा.
उसके बाद पुष्पांजलि देकर रात्रि में जागरण करना चाहिए. एकादशी के दिन अधिवासन करें और द्वादशी के दिन प्रातःकाल पूजन करें. पुनः हाथ में गंध, दूर्वा तथा अक्षत के साथ पवित्रक लेकर ऐसा कहें हे देवदेव आपको नमस्कार है, वर्षपर्यंत की गई पूजा का फल देने वाले इस पवित्रक को पवित्रीकरण हेतु आप ग्रहण कीजिए. मैंने जो भी दुष्कृत किया है, उसके लिए आप मुझे आज पवित्र कीजिए. हे देव हे सुरेश्वर आपके अनुग्रह से मैं शुद्ध हो जाऊँ
इस प्रकार मूलमंत्र से सम्पुटित इन मन्त्रों के द्वारा पवित्रक अर्पण करें. उसके बाद महानैवेद्य अर्पित करके नीराजनकर प्रार्थना करें और मूलमंत्र से घृत सहित खीर का अग्नि में हवन करें. इसके बाद इसी मन्त्र से पवित्रक का विसर्जन करके इस प्रकार बोले– हे पवित्रक वर्ष भर की गई मेरी शुभ पूजा को पूर्ण करके अब आप विसर्जित होकर विष्णुलोक को प्रस्थान करें. इसके बाद पवित्रक को उतारकर ब्राह्मण को प्रदान कर दें अथवा जल में विसर्जित कर दें.
हे वत्स मैंने आपसे श्रीहरि के इस पवित्रारोपण का वर्णन कर दिया. इसे करने वाला इस लोक में सुख भोगकर अंत में वैकुण्ठ प्राप्त करता है।
इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास माहात्म्य में उभयैकादशी व्रत कथन और द्वादशी में विष्णुपवित्रारोपण कथन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ
श्रावण मास महात्म्य बीसवां अध्याय
श्रावण मास में त्रयोदशी और चतुर्दशी को किए जाने वाले कृत्यों का वर्णन
ईश्वर बोले हे सनत्कुमार अब मैं आपके समक्ष त्रयोदशी तिथि का कृत्य कहता हूँ. इस दिन सोलहों उपचारों से कामदेव का पूजन करना चाहिए. अशोक, मालतीपुष्प, देवताओं को प्रिय कमल, कौसुम्भ तथा बकुल पुष्पों और अन्य प्रकार के भी सुगन्धित पुष्पों, रक्त अक्षत, पीले चन्दन, शुभ सुगन्धित द्रव्यों तथा पुष्टि प्रदान करने वाले तथा तेज की वृद्धि करने वाले अन्य पदार्थों से पूजन करना चाहिए. नैवेद्य और मुख के लिए रोचक ताम्बूल अर्पित करना चाहिए. ताम्बूल (पान) में चिकनी उत्तम सुपारी, खैर, चूना, जावित्री, जायफल, लवंग, इलायची, नारिकेल बीज के छोटे टुकड़े, सोने तथा चाँदी के पात्र, कपूर और केसर– इन पदार्थों को मिलाना चाहिए.
मगध देश में उत्पन्न होने वाले, श्वेतवर्ण, पके हुए, पुराने, दृढ तथा रसमय ताम्बूल शंबरासुर के शत्रु कामदेव की प्रसन्नता के लिए अर्पित करना चाहिए. उसके बाद मोम से बनाई गई बत्तियों से कामदेव का नीराजन करें और पुनः पुष्पांजलि प्रदान करें. इसके बाद उनके नामों से प्रार्थना करें जो इस प्रकार से हैं समस्त उपमानों में सुन्दर तथा भगवान् का पुत्र प्रद्युम्न मीनकेतन, कंदर्प, अनंग, मन्मथ, मार, कामात्मसम्भूत, झषकेतु और मनोभव. कस्तूरी से सुशोभित जिनका वक्षस्थल आलिंगन के चिह्नों से अलंकृत है.
हे पुष्पधन्वन हे शंबरासुर के शत्रु हे कुसुमेश हे रतिपति हे मकरध्वज हे पंचेश हे मदन हे समर हे सुन्दर देवताओं की सिद्धि के लिए आप शिव के द्वारा दग्ध हो गए, उसी कार्य से आप परोपकार की मर्यादा कहे जाते हैं. आपके दिग्विजय करने में वसंत की सहायता निमित्तमात्र है. इंद्र दिन-रात आपका मनोरंजन करने में लगे रहते हैं क्योंकि अपने पद से च्युत होने की शंका में वे तपस्वियों से भयभीत रहते हैं. आपके अतिरिक्त दृढ मन वाला कौन है जो शिवजी से विरोध कर सकता है।
परब्रह्मानन्द के समान आनंद देने वाला आपके अतिरिक्त दुसरा कौन है तथा महामोह की सेनाओं में आपके समान तेजस्वी कौन है. अनिरुद्ध के स्वामी और मलयगिरि पर उत्पन्न चन्दन तथा अगरु से सुवासित विग्रह वाले जो देवेश कृष्णपुत्र है, वह आप ही हैं. हे शरत्कालीन चन्द्रमा के उत्तम मित्र हे जगत की सृष्टि के कारण ! जगत पर विजय के समय दक्षिण दिशा तथा पनवनदेव आपके सहायक थे. हे नाथ आपका अस्त्र महान, निष्फल न होनेवाला, अत्यंत दूर तक जाने वाला, मर्मस्थल का छेदन करने वाला, करुनाशून्य तथा प्रतिकाररहित है. सुना गया है कि वह अत्यंत कोमल होते हुए भी महान क्षोभ करने वाला और अपने तुल्य पदार्थ को भी दर्शन मात्र से ही क्षुभित करने वाला है.
जगत पर विजय करने में सहायक होने से प्रवृत्ति ही आपका मुख्य अलंकार है. हे विभो ! आपने सभी श्रेष्ठ देवताओं को उपहास के योग्य बना दिया क्योंकि ब्रह्माजी अपनी पुत्री में कामासक्त हो गए, विष्णु जी वृंदा में अनुरक्त कहे गए है और शिवजी परस्त्री के कारण अस्पृश्य हो गए. हे मानद यह वर्णन मैंने मुख्य रूप से किया है, अधिक कहने से क्या लाभ इस लोक में अपने वश में रहने वाले ब्राह्मण विरले हैं. अतः हे भगवन इस की गई पूजा से आप प्रसन्न हों।
श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन पूजा करके कामदेव प्रवृत्ति मार्ग के विषयासक्त व्यक्ति को अत्यधिक पराक्रम तथा शक्ति करते हैं और निवृत्ति मार्ग में संलग्न व्यक्ति से अपने विकार को हर लेते हैं. श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि में अपनी पूजा के द्वारा संतुष्ट होकर ये कामदेव सकाम पुरुष को अनेक प्रकार के अलंकारों से भूषित तथा मनोरम स्त्रियां प्रदान करते हैं और दीर्घजीवी, गुणों से संपन्न, सुख देने वाले तथा श्रेष्ठ वंश परंपरा वाले अनेक पुत्र देते हैं. हे मानद त्रयोदशी तिथि का जो शुभ कृत्य है उसे मैंने कह दिया, अब चतुर्दशी तिथि में जो करना चाहिए, उसे सुनिए.
अष्टमी को देवी का पवित्रारोपण करने को मैंने आपसे कहा है, वह यदि उस दिन न किया गया हो तो चतुर्दशी के दिन पवित्रक धारण कराये. चतुर्दशी तिथि को त्रिनेत्र शिव को पवित्रक अर्पण करना चाहिए. इसमें पवित्रक धारण कराने की विधि देवी तथा विष्णु जी की पवित्रक विधि के समान ही है, केवल प्रार्थना तथा नाम आदि में अंतर कर लेना चाहिए. शैव, आगम तथा जाबाल आदि ग्रंथों में इसकी जो विधि है, उसी को मैंने कहा है. विकल्प से इसमें जो कुछ विशेष है, उसे मैं आपको बताता हूँ।
ग्यारह अथवा अड़तालीस अथवा पचास तारों का समान ग्रंथि तथा समान अंतराल वाला पवित्रक बनाना चाहिए. पवित्रक बारह अंगुल प्रमाण के, आठ अंगुल प्रमाण के, चार अंगुल प्रमाण के अथवा पूजित शिवलिंग के विस्तार के प्रभाव वाले बनाकर शिवजी की प्रसन्नता के लिए अर्पण कर देने चाहिए. विधि पहले बताई गई है फल आदि पहले कहे जा चुके हैं. जो इस व्रत को करता है, वह कैलाश लोक प्राप्त करता है. हे वत्स ! मैंने यह सब आपसे कह दिया अब आप और क्या सुनना चाहते है ?
इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास माहात्म्य में त्रयोदशी-चतुर्दशी कर्तव्य कथन नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ
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