हिन्दू सनातन धर्म कर्मकांड और नित्यकर्म में संध्या उपासना को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है, इसलिए हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि त्रिकाल संध्या उपासना करते थे। भगवान श्रीराम और वसिष्ठ भी त्रिकाल संध्या करते थे। जीवन को तेजस्वी, सफल और उन्नत बनाने के लिए और वांछित फल की प्राप्ति के लिए मनुष्य को त्रिकाल संध्या अवश्य करनी चाहिए। भगवान् मनु ने कहा है।

ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वाद् दीर्घमायुरवाप्नुयुः । 

प्रज्ञा यशश्च कीर्ति च ब्रह्मवर्चसमेव च ॥

मनुस्मृति 4/94

अर्थात बहुत काल तक संध्योपासना करने के कारण ही ऋषियों ने दीर्घायु, बुद्धि, यश, कीर्ति (ख्याति) और ब्रह्मतेज की प्राप्ति की थी।

कूर्मपुराण अध्याय 18 श्लोक 26 से 31 में संध्या उपासना का महत्त्व इस प्रकार से बताया गया है जो संध्या है वही जगत को उत्पन्न करने वाली है, मायातीत है, निष्कल है और तीन तत्त्वों से उत्पन्न होने बाली ईश्वर की पराशक्ति है। विद्वान् ब्राह्मण को पूर्वाभिमुख होकर सूर्यमंडल में प्रतिष्ठित सावित्री (गायत्री मंत्र) का ध्यान-पूर्वक जप करते हुए संध्योपासना करनी चाहिए। संध्या से हीन द्विज व्यक्ति नित्य अपवित्र और सभी कमों को करने के अयोग्य होता है। वह जो भी कार्य करता है, उसका कोई फल उसे प्राप्त नहीं होता। पूर्वकाल में वेद के पारंगत शांत ब्राह्मणों ने अनन्य मन से संध्योपासना करके परमगति को प्राप्त किया था। उस उपासना से योगविग्रह परमदेव की उपासना हो जाती है।

त्रिकाल संध्या यानी प्रातःकाल (सूर्योदय से पूर्व ), मध्याह्न तथा सायंकाल तीनों कालों में की जाती है और प्रत्येक संध्या उत्तम, मध्यम और अधम प्रकार की मानी जाती है।

देवीभागवत 11/16/4-5 में कहा गया है प्रातः संध्या तारे दीखते हों उस समय करने पर उत्तम, तारे दीखने बंद होने पर मध्यम और सूर्य निकलने पर अधम होती है और सायं संध्या सूर्य रहते तक उत्तम. सूर्यास्त के समय मध्यम और तारे दीखने के बाद कनिष्ठा होती है।

तीनों काल की संध्या करते समय मुनि विश्वामित्र के मतानुसार पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके बैठना चाहिए। सांयकाल में पश्चिम की ओर मुख करके बैठना चाहिए।

प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व समय, दोपहर बारह बजे और सूर्यास्त के समय के पहले और बाद के 10 मिनट का समय संधिकाल कहलाता है। इस समय किया हुआ जप, प्राणायाम, ध्यान, भजन बहुत लाभदायक पुण्यदायी होता है। अधिक हितकारी और उन्नति करने वाला होता है, क्योंकि इस समय हमारी सब नाड़ियों का मूल आधार सुषुम्ना नाड़ी के द्वार खुले होते हैं। ऐसे में छुपी हुई शक्तियां जागृत होने लगती हैं, जीवनी शक्ति और कुंडलिनी शक्ति के जागरण में सहयोग मिलता है। इसलिए अपनी नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए नियमित रूप से त्रिकाल संध्या करनी चाहिए।

Must Read कुबेर उपासना विधि: जानें धनदायक श्री कुबेर उपासना संक्षिप्त विधि और मंत्र 

डिसक्लेमर इस लेख में निहित किसी भी जानकारी/सामग्री/गणना की सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/मान्यताओं/धर्मग्रंथों से संग्रहित कर ये जानकारियां आप तक पहुंचाई गई हैं। हमारा उद्देश्य महज सूचना पहुंचाना है, इसके उपयोगकर्ता इसे महज सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त, इसके किसी भी उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता की ही रहेगी।