देवी अपराजिता स्तोत्र विशेष हिंदी अर्थ सहित 

अपराजिता का अर्थ है जो कभी पराजित नहीं होता। देवी अपराजिता के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य भी जानने योग्य हैं जैसे कि उनकी मूल प्रकृति क्या है ?

देवी अपराजिता के पूजनारम्भ तब से हुआ जब देवासुर संग्राम के दौरान नवदुर्गाओं ने जब दानवों के संपूर्ण वंश का नाश कर दिया तब माँ दुर्गा अपनी मूल पीठ शक्तियों में से अपनी आदि शक्ति अपराजिता को पूजने के लिए शमी की घास लेकर हिमालय में अन्तरध्यान हुईं।

बाद में आर्यावर्त के राजाओं ने विजय पर्व के रूप में विजय दशमी की स्थापना की। जो कि नवरात्रों के बाद प्रचलन में आई। स्मरण रहे कि उस वक्त की विजय दशमी मूलतः देवताओं द्वारा दानवों पर विजय प्राप्त के उपलक्ष्य में थी। स्वभाविक रूप से नवरात्र के दशवें दिन ही विजय दशमी मनाने की परंपरा चली। इसके पश्चात पुनः जब त्रेता युग में रावण के अत्याचारों से पृथ्वी एवं देव-दानव सभी त्रस्त हुए तो पुनः पुरुषोत्तम राम द्वारा दशहरे के दिन रावण का अंत किया गया जो एक बार पुनः विजयादशमी के रूप सामने आया और इसके साथ ही एक सोपान और जुड़ गया दशमी के साथ।

अगर यह कहा जाये कि विजय दशमी और देवी अपराजिता का सम्बन्ध बहुत हद तक क्षत्रिय राजाओं के साथ ज्यादा गहरा और अनुकूल है तो संभवतः कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी किन्तु इसे किसी पूर्वधारणा की तरह नहीं स्वीकार करना चाहिए कि अपराजिता क्षत्रियों की देवी हैं और अन्य वर्ण के लोग इनकी साधना-आराधना नहीं कर सकते ।बहुत से स्थलों में देवी अपराजिता के सम्बन्ध में विभिन्न कथाएं और विधियां मिल जाती हैं लेकिन उनमे मूल भेद बहुत परिलक्षित होते हैं

अस्तु उनका साधन करने से पूर्व किसी जानकार व्यक्ति से सलाह अवश्य ही कर लेनी चाहिए जिससे अशुद्धिओं और गलतियों से कुछ हद तक छुटकारा पाया जा सके हालाँकि शत प्रतिशत शुद्धता ला पाना सर्वसाधारण के वश की बात नहीं हैं किन्तु अल्प अशुद्धियाँ सफलता के मापदंडों को बढ़ा ही देती हैं साथ ही भावयुक्त साधना भी अशुद्धिओं को तिरस्कृत कर देती है जिससे अधिक अच्छे परिणाम मिल ही जाते हैं देवी अपराजिताशक्ति की नौ पीठ शक्तियों में से एक हैं

जिनका क्रम निम्नप्रकार है एवं जया और विजया से सम्बंधित बहुत सी कथाएं भी प्रचलित हैं जो देवी पार्वती की बहुत ही अभिन्न सखियों के रूप में जानी जाती हैं – शक्ति की बहुत ही संहारकारी शक्ति है अपराजिता जो कभी अपराजित नहीं हो सकती और ना ही अपने साधकों को कभी पराजय का मुख देखने देती है – विषम परिस्थिति में जब सभी रास्ते बंद हों उस स्थिति में भी हंसी-खेल में अपने साधक को बचा ले जाना बहुत मामूली बात है महामाया अपराजिता के लिए।

अपराजिता की साधना के सम्बन्ध में” धर्मसिन्धु “जो वर्णनहै वह निम्न प्रकार है :-धर्मसिंधु में अपराजिता की पूजन की विधि संक्षेप में इस प्रकार है‌ :-“अपराह्न में गाँव के उत्तर पूर्व जाना चाहिए, एक स्वच्छ स्थल पर गोबर से लीप देना चाहिए, चंदन से आठ कोणों का एक चित्र खींच देना चाहिए उसके पश्चात संकल्प करना चहिए :

“मम सकुटुम्बस्य क्षेमसिद्ध्‌यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये”

राजा के लिए विहित संकल्प अग्र प्रकार है :

” मम सकुटुम्बस्य यात्रायां विजयसिद्ध्‌यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये”

इसके उपरांत उस चित्र (आकृति) के बीच में अपराजिता का आवाहन करना चाहिए और इसी प्रकार उसके दाहिने एवं बायें जया एवं विजया का आवाहन करना चहिए और ‘साथ ही क्रियाशक्तिको नमस्कार’ एवं ‘उमा को नमस्कार’ कहना चाहिए।इसके उपरांत :”अपराजितायै नम:,जयायै नम:,विजयायै नम:, मंत्रों के साथ अपराजिता, जया, विजया की पूजा 16 उपचारों के साथ करनी चाहिए और यह प्रार्थना करनी चाहिए, ‘हे देवी, यथाशक्ति जो पूजा मैंने अपनी रक्षा के लिए की है, उसे स्वीकर कर आप अपने स्थान को गमन करें जिससेकि मैं अगली बार पुनः आपका आवाहन और पूजन वंदन कर सकूँ ”

राजा के लिए इसमें कुछ अंतर है।राजा को विजय के लिए ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए :”वह अपाराजिता जिसने कंठहार पहन रखा है, जिसने चमकदार सोने की मेखला (करधनी) पहन रखी है, जो अच्छा करने की इच्छारखती है, मुझे विजय दे”इसके उपरांत उसे उपर्युक्त प्रार्थना करके विसर्जन करनाचाहिए। तब सबको गाँव के बाहर उत्तर पूर्व में उगे शमी वृक्ष की ओर जाना चाहिए और उसकी पूजा करनी चाहिए।शमी की पूजा के पूर्व या या उपरांत लोगों को सीमोल्लंघन करना चाहिए। राजा के द्वारा की जाने वाली पूजाका विस्तार से वर्णन हेमाद्रि तिथितत्त्व में वर्णित है।

मेरे अपने हिसाब से देवी अपराजिता का पूजन शक्ति क्रम में ही किया जाना चाहिए ठीक जैसे अन्य शक्ति साधनाएं संपन्न की जाती हैं प्रथम गुरु पूजन द्वितीय गणपति पूजन ,भैरव पूजन , देवी पूजनअपनी सुविधानुसार पंचोपचार,षोडशोपचार इत्यादि से पूजन संपन्न करें मन्त्र जप – स्तोत्र जप आदि संपन्न करें और अंत में होम विधि संपन्न करें।

मंत्रों के सम्बन्ध में बहुधा भ्रम की स्थिति रहती है क्योंकि यदि आपने थोड़ा सा भी अध्ययन और खोज आदि पूर्व में की हैं तो उस स्थिति में बहुत से मंत्र ऐसे होते हैं जो आपकी जानकारी से बाहर के होते हैं।

अर्थात कई बार उनके बीज भिन्न हो सकते हैं और कई बार मंत्र विन्यास भिन्न हो सकता है तो इस दशा में सीमित ज्ञान आपको भ्रमित कर देता है – अस्तु सभी मित्रों को मेरी एक ही सलाह है कि शक्ति मंत्रों में यदि “ह्रीं,क्लीं,क्रीं, ऐं,श्रीँ आदि आते हैं तो उन मंत्रों को भेदात्मक दृष्टि से ना देखें क्योंकि एक परम आद्या शक्ति के तीन भेद भक्तों के हितार्थ बने जिन्हे त्रिशक्ति के नाम से भी जाना जाता है।

( महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती) अन्य शक्ति भेद अथवा क्रम इन्ही तीन मूलों से निःसृत हैं अस्तु समस्त मन्त्र आदि इन्ही कुछ मूल बीजों के आस-पास घूमते हैं इसके अतिरिक्त इस बात पर मंत्र विन्यास निर्भर करता है कि जिस भी मंत्र वेत्ता ने उस मंत्र का निर्माण किया होगा उस समयवास्तव में उनका दृष्टिकोण और आवश्यकता क्या रही होगी ?

हालंकि यह सब बातें तो बहुत दूर की और लम्बी सोच की हैं अस्तु ज्यादा ना भटकते हुए बस इतना ही कहूँगा कि यदि कभी भी मंत्रों का संसार समझ में ना आये तो सबसे आसान उपाय है कि उस देवता या देवी के गायत्री मंत्र का प्रयोग करें।

“ॐ सर्वविजयेश्वरी विद्महे महाशक्तयै धीमहि तन्नो: अपराजितायै प्रचोदयात”

अपनी सामर्थ्यानुसार उपरोक्त गायत्री का जप करें और देवी अपराजिता का वरदहस्त प्राप्त करें देवी आपको सदा अजेय और संपन्न रखें यही मेरी कामना है।

।।अथ श्री अपराजिता स्तोत्र।।

ॐ नमोऽपराजितायै ।।

ॐ अस्या वैष्णव्याः पराया अजिताया महाविद्यायाः वामदेव-बृहस्पति-मार्केण्डेया ऋषयः ।गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहती छन्दांसि ।श्री लक्ष्मीनृसिंहो देवता ।ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं बीजम् ।हुं शक्तिः ।सकलकामनासिद्ध्यर्थं अपराजितविद्यामन्त्रपाठे विनियोगः ।।

विनियोग

ॐ नमोऽपराजितायै । ॐ अस्या वैष्णव्याः पराया अजिताया महाविद्यायाः वामदेव-बृहस्पति-मार्केण्डेया ऋषयः ।गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहती छन्दांसि । लक्ष्मीनृसिंहो देवता । ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं बीजम् । हुं शक्तिः । सकलकामनासिद्ध्यर्थं अपराजितविद्यामन्त्रपाठे विनियोगः ।

ध्यान:

ॐ निलोत्पलदलश्यामां भुजङ्गाभरणान्विताम् ।।शुद्धस्फटिकसङ्काशां चन्द्रकोटिनिभाननाम् ।।१।।

शङ्खचक्रधरां देवी वैष्ण्वीमपराजिताम् ।।

बालेन्दुशेखरां देवीं वरदाभयदायिनीम् ।।२।।

नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कण्डेयो महातपाः ।।३।।

मार्ककण्डेय उवाच :शृणुष्वं मुनयः सर्वे सर्वकामार्थसिद्धिदाम् ।।

असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीमपराजिताम् ।।४।।

ॐ नमो नारायणाय,नमो भगवते वासुदेवाय,नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रशीर्षायणे,क्षीरोदार्णवशायिने,शेषभोगपर्य्यङ्काय,गरुडवाहनाय,अमोघायअजायअजितायपीतवाससे ।। ॐ वासुदेव सङ्कर्षण प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, हयग्रिव, मत्स्य कूर्म्म, वाराह नृसिंह, अच्युत, वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर राम राम राम ।वरद, वरद, वरदो भव, नमोऽस्तु ते, नमोऽस्तुते, स्वाहा ।। ॐ असुर-दैत्य-यक्ष-राक्षस-भूत-प्रेत -पिशाच-कूष्माण्ड-सिद्ध-योगिनी-डाकिनी-शाकिनी-स्कन्दग्रहान् उपग्रहान्नक्षत्रग्रहांश्चान्या हन हन पच पच मथ मथ विध्वंसय विध्वंसय विद्रावय विद्रावय चूर्णय चूर्णय शङ्खेन चक्रेण वज्रेण शूलेन गदया मुसलेन हलेन भस्मीकुरुकुरु स्वाहा ।।

ॐ सहस्रबाहो सहस्रप्रहरणायुध, जय जय, विजय विजय, अजित, अमित, अपराजित, अप्रतिहत, सहस्रनेत्र, ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल, विश्वरूप बहुरूप, मधुसूदन, महावराह, महापुरुष, वैकुण्ठ, नारायण, पद्मनाभ, गोविन्द, दामोदर, हृषीकेश, केशव,सर्वासुरोत्सादन, सर्वभूतवशङ्कर, सर्वदुःस्वप्नप्रभेदन,सर्वयन्त्रप्रभञ्जन, सर्वनागविमर्दन, सर्वदेवमहेश्वर, सर्वबन्धविमोक्षण, सर्वाहितप्रमर्दन, सर्वज्वरप्रणाशन, सर्वग्रहनिवारण, सर्वपापप्रशमन, जनार्दन, नमोऽस्तुते स्वाहा ।।विष्णोरियमनुप्रोक्ता सर्वकामफलप्रदा ।।सर्वसौभाग्यजननी सर्वभीतिविनाशिनी ।।५।।

सर्वैंश्च पठितां सिद्धैर्विष्णोः परमवल्लभा ।।

नानया सदृशं किङ्चिद्दुष्टानां नाशनं परम् ।।६।।

विद्या रहस्या कथिता वैष्णव्येषापराजिता ।।

पठनीया प्रशस्ता वा साक्षात्सत्त्वगुणाश्रया ।।७।।

ॐ शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।।

प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ।।८।।

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ह्यभयामपराजिताम् ।।

या शक्तिर्मामकी वत्स रजोगुणमयी मता ।।९।।

सर्वसत्त्वमयी साक्षात्सर्वमन्त्रमयी च या ।।या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्मणि योजिता ।।सर्वकामदुधा वत्स शृणुष्वैतां ब्रवीमि ते ।।१०।।

य इमामपराजितां परमवैष्णवीमप्रतिहतां पठति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्यां जपति पठति शृणोति स्मरति धारयति कीर्तयति वा न तस्याग्निवायुवज्रोपलाशनिवर्षभयं, न समुद्रभयं, न ग्रहभयं, न चौरभयं, न शत्रुभयं, न शापभयं वा भवेत् ।

।क्वचिद्रात्र्यन्धकारस्त्रीराजकुलविद्वेषि-विषगरगरदवशीकरण-विद्वेष्णोच्चाटनवधबन्धनभयं वा न भवेत्।।एतैर्मन्त्रैरुदाहृतैः सिद्धैः संसिद्धपूजितैः ।।।। ॐ नमोऽस्तुते ।।

अभये, अनघे, अजिते, अमिते, अमृते, अपरे, अपराजिते, पठति, सिद्धे जयति सिद्धे, स्मरति सिद्धे, एकोनाशीतितमे, एकाकिनि, निश्चेतसि, सुद्रुमे, सुगन्धे, एकान्नशे, उमे ध्रुवे, अरुन्धति, गायत्रि, सावित्रि, जातवेदसि, मानस्तोके, सरस्वति, धरणि, धारणि, सौदामनि, अदिति, दिति, विनते, गौरि, गान्धारि, मातङ्गी कृष्णे, यशोदे, सत्यवादिनि, ब्रह्मवादिनि, कालि, कपालिनि, करालनेत्रे, भद्रे, निद्रे, सत्योपयाचनकरि, स्थलगतं जलगतं अन्तरिक्षगतं वा मां रक्ष सर्वोपद्रवेभ्यः स्वाहा ।।यस्याः प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि ।।म्रियते बालको यस्याः काकवन्ध्या च या भवेत् ।।११।।

धारयेद्या इमां विद्यामेतैर्दोषैर्न लिप्यते ।।

गर्भिणी जीववत्सा स्यात्पुत्रिणी स्यान्न संशयः ।।१२।।

भूर्जपत्रे त्विमां विद्यां लिखित्वा गन्धचन्दनैः ।।

एतैर्दोषैर्न लिप्येत सुभगा पुत्रिणी भवेत् ।।१३।।

रणे राजकुले द्यूते नित्यं तस्य जयो भवेत् ।।

शस्त्रं वारयते ह्योषा समरे काण्डदारुणे ।।१४।।

गुल्मशूलाक्षिरोगाणां क्षिप्रं नाश्यति च व्यथाम् ।।शिरोरोगज्वराणां न नाशिनी सर्वदेहिनाम् ।।१५।।

इत्येषा कथिता विध्या अभयाख्याऽपराजिता ।।

एतस्याः स्मृतिमात्रेण भयं क्वापि न जायते ।।१६।।

नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्कराः ।।

न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रवः ।।१७।।

यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहाः ।।

अग्नेर्भयं न वाताच्व न स्मुद्रान्न वै विषात् ।।१८।।

कार्मणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च ।।

उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा ।।१९।।

न किञ्चित्प्रभवेत्तत्र यत्रैषा वर्ततेऽभया ।।

पठेद् वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेऽथवा ।।२०।।

हृदि वा द्वारदेशे वा वर्तते ह्यभयः पुमान् ।।

हृदये विन्यसेदेतां ध्यायेद्देवीं चतुर्भुजाम् ।।२१।।

रक्तमाल्याम्बरधरां पद्मरागसमप्रभाम् ।।पाशाङ्कुशाभयवरैरलङ्कृतसुविग्रहाम् ।।२२।।

साधकेभ्यः प्रयच्छन्तीं मन्त्रवर्णामृतान्यपि ।।

नातः परतरं किञ्चिद्वशीकरणमनुत्तमम् ।।२३।।

रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा ।

प्रातः कुमारिकाः पूज्याः खाद्यैराभरणैरपि ।।

तदिदं वाचनीयं स्यात्तत्प्रीत्या प्रीयते तु माम् ।।२४।।

ॐ अथातः सम्प्रवक्ष्यामि विद्यामपि महाबलाम् ।।

सर्वदुष्टप्रशमनीं सर्वशत्रुक्षयङ्करीम् ।।२५।।

दारिद्र्यदुःखशमनीं दौर्भाग्यव्याधिनाशिनीम् ।।

भूतप्रेतपिशाचानां यक्षगन्धर्वरक्षसाम् ।।२६।।

डाकिनी शाकिनी-स्कन्द-कूष्माण्डानां च नाशिनीम् ।।

महारौद्रिं महाशक्तिं सद्यः प्रत्ययकारिणीम् ।।२७।।

गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वं पार्वतीपतेः ।।

तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः शृणु ।।२८।।

एकान्हिकं द्व्यन्हिकं च चातुर्थिकार्द्धमासिकम् ।।

द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्मासिकम् ।।२९।।

पाञ्चमासिकं षाङ्मासिकं वातिक पैत्तिकज्वरम् ।।

श्लैष्पिकं सात्रिपातिकं तथैव सततज्वरम् ।।३०।।

मौहूर्तिकं पैत्तिकं शीतज्वरं विषमज्वरम् ।द्व्यहिन्कं त्र्यह्निकं चैव ज्वरमेकाह्निकं तथा ।।क्षिप्रं नाशयेते नित्यं स्मरणादपराजिता ।।३१।।

ॐ हॄं हन हन, कालि शर शर, गौरि धम्, धम्, विद्ये आले ताले माले गन्धे बन्धे पच पच विद्ये नाशय नाशय पापं हर हर संहारय वा दुःखस्वप्नविनाशिनि कमलस्तिथते विनायकमातः रजनि सन्ध्ये, दुन्दुभिनादे, मानसवेगे, शङ्खिनि, चाक्रिणि गदिनि वज्रिणि शूलिनि अपमृत्युविनाशिनि विश्वेश्वरि द्रविडि द्राविडि द्रविणि द्राविणि केशवदयिते पशुपतिसहिते दुन्दुभिदमनि दुर्म्मददमनि ।।शबरि किराति मातङ्गि ॐ द्रं द्रं ज्रं ज्रं क्रं क्रं तुरु तुरु ॐ द्रं कुरु कुरु ।।ये मां द्विषन्ति प्रत्यक्षं परोक्षं वा तान् सर्वान् दम दम मर्दय मर्दय तापय तापय गोपय गोपय पातय पातय शोषय शोषय उत्सादय उत्सादय ब्रह्माणि वैष्णवि माहेश्वरि कौमारि वाराहि नारसिंहि ऐन्द्रि चामुन्डे महालक्ष्मि वैनायिकि औपेन्द्रि आग्नेयि चण्डि नैरृति वायव्ये सौम्ये ऐशानि ऊर्ध्वमधोरक्ष प्रचण्डविद्ये इन्द्रोपेन्द्रभगिनि ।।ॐ नमो देवि जये विजये शान्ति स्वस्ति-तुष्टि पुष्टि-विवर्द्धिनि ।

कामाङ्कुशे कामदुधे सर्वकामवरप्रदे ।।सर्वभूतेषु मां प्रियं कुरु कुरु स्वाहा ।आकर्षणि आवेशनि-, ज्वालामालिनि-, रमणि रामणि, धरणि धारिणि,तपनि तापिनि, मदनि मादिनि, शोषणि सम्मोहिनि ।।नीलपताके महानीले महागौरि महाश्रिये ।।महाचान्द्रि महासौरि महामायूरि आदित्यरश्मि जाह्नवि ।।यमघण्टे किणि किणि चिन्तामणि ।।सुगन्धे सुरभे सुरासुरोत्पन्ने सर्वकामदुघे ।।यद्यथा मनीषितं कार्यं तन्मम सिद्ध्यतु स्वाहा ।।ॐ स्वाहा ।।ॐ भूः स्वाहा ।।ॐ भुवः स्वाहा ।।ॐ स्वः स्वहा ।।ॐ महः स्वहा ।।ॐ जनः स्वहा ।।ॐ तपः स्वाहा ।।ॐ सत्यं स्वाहा ।।ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा ।।यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छतु स्वाहेत्योम् ।।अमोघैषा महाविद्या वैष्णवी चापराजिता ।।३२।।

स्वयं विष्णुप्रणीता च सिद्धेयं पाठतः सदा ।।

एषा महाबला नाम कथिता तेऽपराजिता ।।३३।।

नानया सद्रशी रक्षा. त्रिषु लोकेषु विद्यते ।।

तमोगुणमयी साक्षद्रौद्री शक्तिरियं मता ।।३४।।

कृतान्तोऽपि यतो भीतः पादमूले व्यवस्थितः ।।

मूलधारे न्यसेदेतां रात्रावेनं च संस्मरेत् ।।३५।।

नीलजीमूतसङ्काशां तडित्कपिलकेशिकाम् ।।उद्यदादित्यसङ्काशां नेत्रत्रयविराजिताम् ।।३६।।

शक्तिं त्रिशूलं शङ्खं च पानपात्रं च विभ्रतीम् ।।व्याघ्रचर्मपरीधानां किङ्किणीजालमण्डिताम् ।।३७।।

धावन्तीं गगनस्यान्तः तादुकाहितपादकाम् ।।

दंष्ट्राकरालवदनां व्यालकुण्डलभूषिताम् ।।३८।।

व्यात्तवक्त्रां ललज्जिह्वां भृकुटीकुटिलालकाम् ।।

स्वभक्तद्वेषिणां रक्तं पिबन्तीं पानपात्रतः ।।३९।।

सप्तधातून् शोषयन्तीं क्रुरदृष्टया विलोकनात् ।।

त्रिशूलेन च तज्जिह्वां कीलयनतीं मुहुर्मुहः ।।४०।।

पाशेन बद्ध्वा तं साधमानवन्तीं तदन्तिके ।।अर्द्धरात्रस्य समये देवीं धायेन्महाबलाम् ।।४१।।

यस्य यस्य वदेन्नाम जपेन्मन्त्रं निशान्तके ।।

तस्य तस्य तथावस्थां कुरुते सापि योगिनी ।।४२।।

ॐ बले महाबले असिद्धसाधनी स्वाहेति ।।अमोघां पठति सिद्धां श्रीवैष्ण्वीम् ।।४३।।

श्रीमदपराजिताविद्यां ध्यायेत् ।।

दुःस्वप्ने दुरारिष्टे च दुर्निमित्ते तथैव च ।।

व्यवहारे भेवेत्सिद्धिः पठेद्विघ्नोपशान्तये ।।४४।।

यदत्र पाठे जगदम्बिके मया, विसर्गबिन्द्वऽक्षरहीनमीडितम् ।।तदस्तु सम्पूर्णतमं प्रयान्तु मे, सङ्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायताम् ।।४५।।

तव तत्त्वं न जानामि कीदृशासि महेश्वरि ।।

यादृशासि महादेवी तादृशायै नमो नमः ।।४६।।

इस स्तोत्र का विधिवत पाठ करने से सब प्रकार के रोग तथा सब प्रकार के शत्रु और बन्ध्या दोष नष्ट हो जाते हैं ।विशेष रूप से मुकदमादि में सफलता और राजकीय कार्यों में अपराजित रहने के लिये यह पाठ रामबाण है।

अपराजिता स्तोत्र हिंदी अनुवाद 

(ये विशेष अपराजिता स्त्रोत्र का हिन्दी अनुवाद कुछ साधकों के अनुरोध पर लिखा गया है साधना के लिये नहीं। 

ॐ अपराजितादेवी को नमस्कार ।

विनियोग ॐ अस्या वैष्णव्याः पराया अजिताया महाविद्यायाः वामदेव बृहस्पति-मार्कण्डेया ऋषयः गायत्रि उष्णिग् अनुष्टुब् बृहति-छन्दांसि, लक्ष्मीनृसिंहो देवता, ॐ क्लीँ श्रीं ह्रीं बीजम्, हुं शक्तिः, सकलकामनासिद्ध्यर्थम् अपराजिताविद्यामन्त्रपाठे विनियोगः।

(इस वैष्णवी अपराजिता महाविद्या के वामदेव बृहस्पति मार्कण्डेय ऋषि गायत्री उष्णिग् अनुष्टुप् बृहति छन्द, लक्ष्मी नरसिंह देवता क्लीँ बीजम्, हुं शक्ति, सकलकामना सिद्धिके लिये अपराजिता विद्या मन्त्रपाठ में विनियोग।)

नीलकमलदल के समान श्यामल रंग वाली भुजङ्गों के आभरण से युक्त शुद्धस्फटिकके समान उज्ज्वल तथा कोटी चन्द्र के समान मुख वाली, शंख चक्र धारण करने वाली बालचन्द्र मस्तक पर धारण करने वाली, वैष्णवी अपराजिता देवीको नमस्कार करके महान् तपस्वी मार्कण्डेय ऋषि ने इस स्तोत्र का पाठ किया ।

मार्कण्डेय ऋषि ने कहा – हे मुनियो सर्वार्थ सिद्धि देने वाली असिद्धसाधिका वैष्णवी अपराजिता देवी (के इस स्तोत्र) को सुने।

1. ॐ नारायण भगवानको नमस्कार वासुदेव भगवान को नमस्कार, अनन्तभगवान् को नमस्कार जो सहस्र सिर वाले क्षीर सागर में शयन करने वाले, शेष नाग के शैया में शयन करने वाले, गरुड वाहन वाले, अमोघ, अजन्मा, अजित, तथा पीतांबर धारण करने वाले हैं।

2. ॐ हे वासुदेव, संकर्षण प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, हयग्रिव, मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, अच्युत, वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर, राम, बलाराम, परशुराम, हे वरदायक, आप मेरे लिये वरदायक हों। आपको नमस्कार है।

3. ॐ असुर दैत्य यक्ष राक्षस भूत प्रेत पिशाच कूष्माण्ड सिद्धयोगिनी डाकिनी शाकिनी शाकिनी स्कन्दग्रह उपग्रह नक्षत्रग्रह तथा अन्य ग्रहों को मारो मारो पाचन करो पाचन करो। मथन करो मथन करो विध्वंस करो विध्वंस करो तोड दो तोड दो चूर्ण करो चूर्ण करो। शङ्ख चक्र वज्र शूल गदा मुसल तथा हल से भस्म करो ।

4. ॐ हे सहस्र बाहु , हे सहस्र प्रहार आयुध वाले, जय , विजय, अजित, अमित, अपराजित, अप्रतिहत, सहस्रनेत्र, जलाने वाले, प्रज्वालित करने वाले, विश्वरूप, बहुरूप, मधुसूदन, महावराह, महापुरुष, वैकुण्ठ, नारायण, पद्मनाभ, गोविन्द, दामोदर, हृषिकेश, केशव, सभी असुरोंको उत्सादन करने वाले, हे सभी भूत प्राणियों को वश में करने वाले, हे सभी दुःस्वप्न नाश करने वाले, सभी यन्त्रों को नाश करने वाले, सभी नागों को विमर्दन करने वाले, सर्वदेवों के महादेव,

सभी बन्धनों का विमोक्ष करने वाले, सभी अहितों को मर्दन करने वाले, सभी ज्वरों को नाश करने वाले, सभी ग्रहों को निवारण करने वाले, सभी पापों को प्रशमन करने वाले, हे जनार्दन आप को नमस्कार है। ये भगवान् विष्णुकी विद्या सर्वकामना के देने वाली, सर्वसौभाग्य की जननी, सभी भयको नाश करने वाली है। ये विष्णुकी परम वल्लभा सिद्धों के द्वारा पठित है, इसके समान दुष्टनाश करने वाली कोई और विद्या नहीं है। ये वैष्णवी अपराजिता विद्या साक्षात् सत्वगुण समन्वित सदा पढने योग्य तथा प्रशस्ता है।

ॐ शुक्लवस्त्र धारण करने वाले चन्द्र वर्ण वाले चार भुजा वाले प्रसन्न मुख वाले भगवान का सर्व विघ्न विनाश करने के लिये ध्यान करें।

हे वत्स अब मैं मेरी अभया अपराजिता के विषय में कहूंगा जो रजोगुणमयी कही गई हैं। ये सभी सत्व वाली सभी मंत्रों वाली स्मृत पूजित जपित कर्मों में योजित सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाली हैं। इसको ध्यान पूर्वक सुनो। जो इस अपराजिता परम वैष्णवी अप्रतिहता पढने से सिद्ध होने वाली, स्मरण करने से सिद्ध होने वाली,विद्याको सुने पढें स्मरण करें धारण करें, कीर्तन करें, उसे अग्नि वायु वज्र पथ्थर खड्ग वृष्टि आदि का भय नहीं होता, समुद्र भय, चौर भय, शत्रु भय, शाप भय, भी नहीं होता। रात्रि में, अन्धकार में, राजकुल से विद्वेष करने वालों से, विष से विषदेने वालों से, वशीकरण आदि टोना टोटका करने वालों से, विद्वेषियों से, उच्चाटन करने वालों से, वध भय बन्धन का भय आदि समस्त भय से रहित हो जाते हैं। इन मन्त्रों के द्वारा कही गई सिद्ध साधकों द्वारा पूजित, अपराजिता शक्ति है। –

ॐ आप को नमस्कार है। हे भय रहित, पापरहित, परिमाण रहित, अमृत तत्त्ववाली, अपरा, अपराजिता, पढने से सिद्ध होने वाली, जप करने से सिद्ध होने वाली, स्मरण करने मात्र से सिद्धि देने वाली, नवासिवाँ स्थान वाली, अकेले रहने वाली, निश्चेता, सुद्रुमा, सुगन्धा, एक अन्न लेने वाली, उमा, ध्रुवा, अरुन्धती, गायत्री, सावित्री, जतवेदा, मानस्तोका, सरस्वति, धरणी, धारण करने वाली, सौदामिनी, अदिती, दिती, विनता, गौरी, गान्धारी, मातङ्गी, कृष्णा, यशोदा, सत्यवादिनी, बह्मवादिनी, काली कपालिनी, कराल नेत्र वाली, भद्रा, निद्रा, सत्य की रक्षा करने वाली, जलमे स्थल में अन्तिक्ष में सर्वत्र सभी प्रकार के उपद्रवों से रक्षा करो स्वाहा।

जिस स्त्री का गर्भ नष्ट होता है, गिर जाता है, बालक मर जाता है, अथवा वह काक बन्ध्या भी हो तो इस विद्या को धरण करने से गर्भिणी जीववत्सा होगी इसमे कोई संशय नहीं है।

इस मंत्र को भोजपत्र में चन्दन से लिख कर धारण करने से सौभग्यवती स्त्रियाँ पुत्रवती हो जाती है इसमे कोई संदेह नहीं।

युद्ध में राजकुल में जुआ में इस मन्त्र के प्रभाव से नित्य जय हो जाता है। भयंकर युद्ध में ये विद्या अस्त्र सस्त्रों से रक्षा करती है।

गुल्म रोग शूल रोग आँख के रोग की व्यथा शीघ्र नाश हो जाती है। ये विद्या शिरोवेदना, ज्वर आदि नाश करने वाली है। इस प्रकार की अभया अपराजिता विद्या कही गई है, इसके स्मरण मात्र से कहीं भी भय नहीं होता। सर्प भय रोग भय तस्करोंका भय , योद्धाओंका भय, राज भय, द्वेष करने वालोंका भय और शत्रु भय नहीं होता है। यक्ष राक्षस वेताल शाकिनी ग्रह अग्नि वायु समुद्र विष इत्यादि से भी भय नहीं होता।

क्रिया से शत्रु के द्वारा किये हुये वशीकरण हो, उच्चाटन स्तम्भन हो विद्वेषण हो इन सब का लेश मात्र भी प्रभाव नहीं होता जहाँ माँ अपराजिता का पाठ हो, यहाँ तक की मुख में कण्ठस्थ हो लिखित रूप में हो, चित्र अर्थात् यन्त्र रूप मे लिखा हो तो भी भय बाधायें कुछ नहीं होते। यदि माँ अपराजिता के इस स्तोत्र को तथा चतुर्भुजा स्वरू को हृदय में धारण करेगा तो बाहर भीतर सब प्रकार से भय रहित शान्त हो जाता है।

लाल पुष्प माला धारण की हुई , कोमल कमलकान्ति के समान कान्ती वाली, पाश अङ्कुश , तथा अभय मुद्राओं से समलङ्कृत सुन्दर स्वरूप वाली, साधकों को मन्त्र वर्ण रूप अमृत को देती हुई, माँ का ध्यान करें। इस विद्या से बढकर न कोई वशीकरण सिद्धि देने वाली विद्या है, न रक्षा करने वाली, न पवित्र। अतः इस विषय में कोई चिन्तन करनेकी आवश्यकता नहीं है। प्रात काल में साधकों को माँ के कुमारी रूप की पूजन विविध खाद्य सामग्री से अनेक प्रकार के आभरणों से करनी चाहिये, फिर इस मन्त्र का प्रेम पूर्वक पाठकरना चाहिये। कुमारी देवी के प्रसन्न होने से मेरी ( अपराजिता की ) प्रीति बढ जाती है।

ॐ अब मैं उस महान बलशालिनी विद्या को कहूंगा जो सभी दुष्ट दमन करने वाली सभी शत्रु नाश करने वाली, दारिद्र्य दुःख को नाश करने वाली, दुर्भाग्य का नाश करने वाली, रोग नाश करने वाली, भूत प्रेत पिशाच यक्ष गन्धर्व राक्षस का नाश करने वाली है। डाकिनी शाकिनी स्कन्द कुष्माण्ड आदि का नाश करने वाली, महा रौद्र रूपा, महा शक्ति शालिनी, तत्काल विश्वास देने वाली है। ये विद्या अत्यन्त गोपनीय तथा भगवान भूतभावन भोलेनाथ की तो सर्वस्व है इस लिये गुप्त रखना चाहिये। ऐसी विद्या तुम्हें कहता हूं सावधान होकर सुनो।

एक दो, चार दिन या आधे महिने एक महिने, दो महिने, तीन महिने, चार महिने, पाँच महिने, छह महिने, तक चलने वाला वात ज्वर पित्त संबन्धी ज्वर अथवा कफ दोष, या सन्निपात हो, या मुहूर्त मात्र रहने वाला पित्त ज्वर, विष का ज्वर , विषम ज्वर दो दिन वाला , तीन दिन वाला एक दिन वाला अथवा अन्य ज्वर हो वे सब अपराजिता के स्मरण मात्र से शिघ्र नाश हो जाते हैं।

ॐ हृ हन हन कालि शर शर, गौरि धम धम, हे विद्या स्वरूपा हे आले ताले माले गन्धे बन्धे विद्याको पचा दो पचा दो नाश करो नाश करो पाप हरण करो हरण करो संहार करो संहार करो , दुःस्वप्न विनाश करने वाली कमलपुष्प मे स्थित विनायक मात रजनि सन्ध्या स्वरूपा दुन्दुभि नाद करने वाली मानस वेग वाली शङ्खिनी चक्रिणी वज्रिणी शूलिनी अपस्मृत्यु नाश करने वाली विश्वेश्वरी द्रविडि द्राविडी द्रविणी द्राविणी केशव दयिते पशुपति सहिते, दुन्दुभी दमन करने वाली दुर्मद दमन करने वाली, शबरी किराती मातङ्गी ॐ द्रं द्रं ज्रं ज्रं क्रं क्रं तुरु तुरु ॐ द्रं कुरु कुरु।

जो प्रत्यक्ष या परोक्ष में मुझसे जलते हैं उन सब का दमन करो दमन करो मर्दन करो मर्दन करो, तापित करो तापित करो, छिपा दो छिपा दो , गिरा दो गिरा दो, शोषण करो शोषण करो, उत्सादित करो , उत्सादित करो, हे ब्रह्माणि हे वैष्णवी, हे माहेश्वरी, कौमारी, वाराही, हे नृसिंह संबन्धिनी, ऐन्द्री, चामुण्डा, महालक्ष्मी, हे विनायक संबन्धिनी, हे उपेन्द्र संबन्धिनी, हे अग्नी संबन्धिनी, हे चण्डी, हे नैऋत्य संबन्धिनी, हे वायव्या, हे सौम्या, हे ईशान संबन्धिनी, हे प्रचण्डविद्या वाली, हे इन्द्र तथा उपेन्द्र की भगिनी आप उपर तथा नीचे से रक्षा करें।

ॐ जया विजया शान्ती स्वस्ति तुष्टि पुष्टि बढाने वाली देवी आप को नमस्कार।

दुष्टकामनाओं को अंकुश करने वाली शुभ कामना देने वाली, सभी कामनाओं का वर देने वाली, सब प्राणियों मे मूझको प्रिय करो प्रिय करो स्वाहा।

आकर्षण करने वाली, आवेशित करने वाली, ज्वाला माला वाली, रमणी, रमाने वाली, पृथ्वी स्वरूपा, धारण करने वाली, तप करने वाली तपाने वाली, मदन रूपा, मद देने वाली, शोषण करने वाली, सम्मोहन करने वाली, नील ध्वज वाली महानील स्वरूपा, महागौरी, महाश्रिया, महाचान्द्री, महासौरी, महा मायूरी, आदित्य रश्मी, जाह् नवी। यमघण्टा किणि किणि ध्वनी वाली, चिन्तामणी, सुगन्ध वाली, सुरभा, सुर असुर उत्पन्न करने वाली, सब प्रकार के कामनाओं की पूर्ति करने वाली, जैसा मेरा मन इच्छित कार्य है (यहाँ अपनी कामना का चिन्तन कर सकते हैं ) वह सम्पन्न हो जाये स्वाहा।

ॐ स्वाहा । ॐ भूः स्वाहा । ॐ भुवः स्वाहा । ॐ स्वः स्वहा । ॐ महः स्वहा । ॐ जनः स्वहा । ॐ तपः स्वाहा । ॐ सत्यं स्वाहा । ॐ भूभःभुवः स्वः स्वाहा ।

जो पाप जहाँ से आया है वहीं लौट चलें स्वाहा इति ॐ ये महा वैष्णवी अपराजिता महा विद्या अमोघ फलदायी है। ये महाविद्या महा शक्तिशाली है अतः इसे अपराजिता अर्थात् किसी प्रकार के अन्य विद्या से पराजित न होने वाली कहा गया है। इसको स्वयं विष्णु ने निर्माण किया है सदा पाठ करने से सिद्धि प्राप्त होती है।

इस विद्या के समान तीनों लोकों में कोई रक्षा करने में समर्थ दूसरी विद्या नहीं है। ये तमोगुण स्वरूपा साक्षात् रौद्रशक्ति मानी गई है। इस विद्या के प्रभाव से यमराज भी डरकर चरणों में बैठ जाते हैं। इस विद्या को मूलाधार में स्थापित करना चाहिये तथा रात को स्मरण करना चाहिये। नीले मेघ के समान चमकती बिजली जैसे केश वाली चमकते सूर्यके समान तीन नेत्र वाली माँ मेरे प्रत्यक्ष विराजमान हैं। शक्ति त्रिशूल शङ्ख पानपात्र को धारण की हुई, व्याघ्र चर्म धारण की हुई,

किङ्किणियों से सुशोभित मण्डप में विराजमान, गगनमण्डल के भीतरी भाग में धावन करती हुई, तादुकाहित चरण वाली, भयंकर दाँत तथा मुख वाली, कुण्डल युक्त सर्प के आभरणों से सुसज्जित, खुले मुख वाली, जिह्वा को बाहर निकाली हुई, टेढी भौहें वाली, अपने भक्त से शत्रुता करने वालों का रक्त पानपात्र से पिने वाली, क्रूर दृष्टि से देखने से सात प्रकार के धातु शोषण करने वाली, बारंबार त्रिशूल से शत्रु के जिह्वा को कीलित कर देने वाली, पाश से बाँधकर उसे पास में लाने वाली, ऐसी महा शक्तिशाली माँ को आधे रात के समय में ध्यान करें। फिर रात के तीसरे प्रहर में जिस जिसका नाम लेकर जप किया जाये उस उस को वैसा बना देती हैं ये योगिनी माता।

ॐ बला महाबला असिद्धसाधनी स्वाहा इति। इस अमोघ सिद्ध श्रीवैष्णवी विद्या, श्रीमद् अपराजिता को दुःस्वप्न दुरारिष्ट आपद के अवस्था में, किसी कार्यके आरंभ में ध्यान करें इससे विघ्न बाधायें शान्त हो जायेंगी सिद्धि प्राप्ती होगी।

हे जगज्जननी माँ इस पाठ में मेरे द्वारा कहीं विसर्ग, अनुस्वार, अक्षर, पाठ छोडा गया हो तो भी माँ आप से क्षमा प्रार्थना करता हूँ मेरे पाठ का पूर्ण फल मिले, मेरे सङ्कल्प की सिद्धि हो।

हे माँ मैं आप के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता, आप कैसी हैं ये भी नहीं जानता, बस मूझे तो इतना पता है कि आप का रूप जैसा भी हो उसी रूप को मैं पूज रहा हूँ। आप के सभी रूपों को नमस्कार है।

ॐ श्री गुरवे नमः

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