Kokila Vrat : कोकिला व्रत को अत्यंत शुभ माना गया है. कोकिला व्रत का संबंध माता पार्वती से है. भगवान शिव को पाने के लिए पार्वती ने कोकिला व्रत को विधि पूर्वक किया था. 

कोकिला व्रत (Kokila Vrat ) आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि से कोकिला व्रत का आरंभ होता है जो श्रावण पूर्णिमा के दिन समाप्त होता है। कोकिला व्रत सभी प्रकार की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला व्रत माना गया है. शास्त्रों के अनुसार यह व्रत पहली बार माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए किया था। पार्वती रूप में जन्म लेने से पहले देवी पार्वती कोयल बनकर दस हजार वर्षों तक नंदन वन में भटकती रही। शाप मुक्त होने के बाद पार्वती जी ने कोयल की पूजा की इससे भगवान शिव प्रसन्न हुए और पत्नी के रूप में देवी पार्वती को स्वीकार किया कोकिला व्रत में जड़ी-बूटियों से स्नान का नियम है, इस दिन व्रतधारी महिलाओं के लिए कोयल के दर्शन या कोयल स्वर सुनाई देना अति शुभ बताया गया है।

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विवाह में आने वाली बाधाएं दूर होती हैं

कोकिला व्रत को लेकर मान्यता है कि इस व्रत को विधि पूर्वक करने से विवाह में आने वाली बाधाएं दूर होती हैं. वहीं दांपत्य जीवन में आने वाली परेशानियां भी दूर होती हैं. सुहागिन और कुंवारी कन्याएं इस व्रत को पूर्ण श्रद्धा और भक्तिभाव से पूर्ण करती है. ये व्रत जीवन में सुख, शांति और समृद्धि भी लाता है.

कोकिला व्रत का महत्व 

मान्यता है कि इस व्रत को रखने से सुयोग्य वर पाने की कामना पूर्ण होती है. इसीलिए इस व्रत को अविवाहित कन्याओं के लिए उत्तम माना गया है. वहीं सुहागिन स्त्रियां अपने पति की लंबी आयु के लिए भी इस व्रत को रखती है. पौराणिक कथा के अनुसार एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव की आज्ञा का उल्लघंन कर दिया. जिससे नाराज होकर भगवान शिव ने माता पार्वती को कोकिला पक्षी होने का श्राप दे दिया. श्राप के कारण वह कई वर्षों तक कोकिला पक्षी के रूप में नंदन वन में वास करती हैं. अगले जन्म में पार्वती जी ने इस व्रत को नियम पूर्वक पूर्ण किया. इस व्रत से प्रसन्न होकर शिव जी ने श्राप के प्रभाव को दूर किया.

कोकिला व्रत कथा 

कोकिला व्रत की कथा का संबंध भगवान शिव और देवी सती से बताया गया है. इस कथा अनुसार माता सती भगवान को पाने के लिए एक लम्बे समय तक कठोर तपस्या को करके उन्हें फिर से जीवन में पाती हैं ।

कोकिला व्रत कथा शिव पुराण में भी वर्णित बतायी जाती है । इस कथा के अनुसार देवी सती ने भगवान को अपने जीवन साथी के रुप में पाया । इस व्रत का प्रारम्भ माता पार्वती के पूर्व जन्म के सती रुप से है. देवी सती का जन्म राजा दक्ष की बेटी के रुप में होता है । राजा दक्ष को भगवान शिव से बहुत नफरत करते थे । परंतु देवी सती अपने पिता के अनुमति के बिना भगवान शिव से विवाह करती हैं । दक्ष सती को अपने मन से निकाल देते हैं ओर उसे अपने सभी अधिकारों से वंचित कर देते हैं । राजा दक्ष अपनी पुत्री सती से इतने क्रोधित होते हैं कि उन्हें अपने घर से सदैव के लिए निकाल देते हैं ।

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राजा दक्ष एक बार यज्ञ का आयोजन करते हैं । इस यज्ञ में वह सभी लोगों को आमंत्रित करते हैं ब्रह्मा, विष्णु, व सभी देवी देवताओं को आमंत्रण मिलता है किंतु भगवान शिव को नहीं बुलाया जाता है । ऎसे में जब सती को इस बात का पता चलता है कि उनके पिता दक्ष ने सभी को बुलाया लेकिन अपनी पुत्री को नही । तब सती से यह बात सहन न हो पाई । सती ने शिव से आज्ञा मांगी की वे भी अपने पिता के यज्ञ में जाना चाहतीं है । शिव ने सती से कहा कि बिना बुलाए जाना उचित नहीं होगा, फिर चाहें वह उनके पिता का घर ही क्यों न हो । सती शिव की बात से सहमत नहीं होती हैं और जिद्द करके अपने पिता के यज्ञ में चली जाती हैं ।

वह शिव से हठ करके दक्ष के यज्ञ पर जाकर पाती हैं, कि उनके पिता उन्हें पूर्ण रुप से तिरस्कृत किया जाता है । दक्ष केवल सती का ही नही अपितु भगवान शिव का भी अनादर करते हैं उन्हें अपश्ब्द कहते हैं । सती अपने पति के इस अपमान को सह नही पाति हैं और उसी यज्ञ की अग्नि में कूद जाती हैं । सती अपनी देह का त्याग कर देती हैं. भगवान शिव को जब सती के बारे में पता चलता है तो वह उस यक्ष को नष्ट कर देते हैं और दक्ष के अहंकार का नाश होता है ।

सती की जिद्द के कारण प्रजपति के यज्ञ में शामिल होने के कारण वह सती भी श्राप देते हैं कि हजारों सालों तक कोयल बनकर नंदन वन में निवास करेंगी । इस कारण से इस व्रत को कोकिला व्रत का नाम प्राप्त होता है क्योंकि देवी सती ने कोयल बनकर हजारों वर्षों तक भगवान शिव को पुन: पति रुप में पाने के लिए किया । उन्हें इस व्रत के प्रभाव से भगवान शिव फिर से प्राप्त होते हैं ।

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