ग्रह दोषों से मुक्ति पाने का अचूक उपाय है पंच महायज्ञ 

पंचमहायज्ञ क्यों ? 

धर्मशास्त्रों ने हर एक गृहस्थ को प्रतिदिन पंचमहायज्ञ करना आवश्यक कर्तव्य कहा है इस संबंध में मनुस्मृति में मनु ने कहा है

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।

होमो दैवो बलिभूतोनृयज्ञोऽतिथि पूजनम् ॥ 

-मनुस्मृति 3/70 

अर्थात् (पंचमहायज्ञों में) वेद पढ़ाना (अध्यापन) ब्रह्मयज्ञ, तर्पण पितृयज्ञ, हवन देवयज्ञ, पंचबलि भूतयज्ञ और अतिथियों का पूजन, सत्कार नृयज्ञ अथवा मनुष्ययज्ञ, अतिथियज्ञ कहा जाता है।

ब्रह्मयज्ञ का अर्थ वेदों, धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन और उन्हें दूसरों को पढ़ाना यानी अध्यापन। इसके नियमित करने से जहां बुद्धि बढ़ती है, वहीं विषयों के अर्थ अधिकाधिक स्पष्ट होने से पवित्र विचार मन में स्थिर हो जाते हैं। अतः संध्या वंदना के पश्चात् नियमित रूप से प्रतिदिन धार्मिक ग्रंथों का पाठ अवश्य करना चाहिए। गायत्री मंत्र के जप करने से भी ब्रह्मयज्ञ पूर्ण होता है।

पितृयज्ञ का अर्थ तर्पण, पिण्डदान और श्राद्ध। याज्ञवल्क्य स्मृति 1/269-70 में कहा गया है कि पुत्रों द्वारा दिए गए अन्न-जल आदि श्राद्धीय द्रव्य से पितर तृप्त होकर अत्यन्त प्रसन्न हो जाते हैं और उन्हें लंबी आयु, संतति, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख तथा अखंड राज्य भी प्रदान करते हैं। इसलिए पितरों का स्मरण करना, उनको तर्पण करना, पिंडदान देना आदि आवश्यक कर्तव्य बताए गए हैं। देवयज्ञ का अर्थ देवताओं का पूजन और होम, हवन है। समस्त विघ्नों का हरण करने वाले, दुख दूर करने वाले एवं सुख-समृद्धि प्रदान करने वाले देव ही हैं। अतः हर घर में देवी-देवताओं का नियमित पूजन, हवन होना चाहिए। हवन से घर का दूषित वातावरण शुद्ध होता है और स्वास्थ्य सुधरता है।

भूतयज्ञ का अर्थ है अपने अन्न में से दूसरे प्राणियों के कल्याण हेतु कुछ भाग देना। मनुस्मृति 3/92 में कहा गया है कि कुत्ता, पतित, चांडाल, कुष्ठी अथवा यक्ष्मादि पापजन्य रोगी व्यक्ति को तथा कौवों, चींटी और कीड़ों आदि के लिए अन्न को पात्र से निकालकर स्वच्छ भूमि पर रख दें। इस प्रकार सब जीवों की पूजा गृहस्थ द्वारा हो जाती है। इससे महान परोपकार व करुणा का भाव प्रदर्शित होता है और मोक्ष प्राप्त करना आसान बनता है।

शास्त्रों में गो-ग्रास देना बड़ा पुण्यकारी माना गया है। नृयज्ञ या अतिथियज्ञ का अर्थ है अतिथि का प्रेम और आदर से सत्कार व सेवा करना। अतिथि को पहले भोजन कराकर ही गृहस्थ को भोजन करना चाहिए। शास्त्रों में अतिथि को देवता समान माना गया है-अतिथि देवो भव। महाभारत शांतिपर्व 191/12 में कहा गया है कि जिस गृहस्थ के घर से अतिथि भूखा, प्यासा, निराश होकर वापस लौट जाता है, उसकी गृहस्थी नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। गृहस्थ महादुखी हो जाता है, क्योंकि अपना पाप उसे देकर उसका संचित पुण्य वह निराश अतिथि खींच ले जाता है।

महर्षि विश्वामित्र ने कहा है 

नित्यकर्माखिलं यस्तु उक्तकाले समाचरेत्।

जित्वा स सकलाल्लोकानन्ते विष्णुपुरं व्रजेत् ॥ 

-विश्वामित्र स्मृति 1/15/16 

अर्थात् नित्यकर्मों को प्रतिदिन तथा नियत समय पर पूरा करना चाहिए। जो ऐसा करता है, वह संपूर्ण लोकों को पार कर उत्तमोत्तम विष्णुलोक को प्राप्त करता है। इसलिए प्रत्येक गृहस्थ को पंचमहायज्ञ श्रद्धापूर्वक प्रतिदिन नियत समय पर करने चाहिए, तभी वह पूरी तरह से सुखी और शांत रह सकता है।

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