भगवान कृष्ण की भक्ति में लीन मीराबाई जी ने 300 से अधिक कविताओं कि रचना की है। शरद पूर्णिमा के दिन को मीराबाई जी के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। मीराबाई जी के बालमन में कृष्ण की ऐसी छवि बसी थी कि किशोरावस्था से लेकर मृत्यु तक उन्होंने केवल श्रीकृष्ण को ही अपना सब कुछ माना। कथाओं के अनुसार वे मंदिरों में जाकर श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने घंटो तक नाचती रहती । किन्तु मीराबाई की कृष्ण भक्ति उनके पति के परिवार को अच्छी नहीं लगी। जिस कारण उनके परिजनों ने इन्हें कई बार विष देकर मारने का प्रयास किया, पंरतु श्रीकृष्ण की कृपा से मीराबाई को कुछ नहीं होता। 

संत मीराबाई : जीवन चरित और कृति के बारे में सम्यक झलक

भगवान कृष्ण- भक्तिविभोरा संत मीराबाई वैष्णवीय भक्ति- शाखा की प्रमुख कवयित्री हैं। उनकी कृष्णर्पित भक्ति कविताओं में स्त्री पराधीनता के प्रति एक गहरी टीस है, जो भक्ति के रंग में रंगकर और गहरी हो गयी है। राधा रूपिणी वैष्णवी मीरा बाई ने कृष्ण भक्ति के स्फुट पदों की रचना की है

भगवान कृष्ण के प्रति आमरण उच्छर्गीकृत, उनकी भक्ति और श्रद्धा से भरी रचनाओं के लिए आज भी संत मीराबाई का नाम आदर से लिया जाता है। मीराबाई ने खुद के जीवन में बहुत दु:ख सहा था। इनका विवाह उदयपुर के महाराणा कुंवर भोजराज के साथ हुआ था, जो उदयपुर के महाराणा सांगा के पुत्र थे। विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहान्त हो गया।

पति की मृत्यु के बाद उन्हें पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया, किन्तु मीरा इसके लिए तैयार नही हुईं। वे संसार की ओर से विरक्त हो गयीं और साधु संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं। तत्कालीन सामाजिक स्थिति में राजघराने में जन्म और विवाह होकर भी मीराबाई को बहुत दु:ख झेलना पड़ा। इस वजह से उनमे वैराग्य तत्व बढ़ती गयी और वो कृष्णभक्ति के तरफ खींची चली गयी। उनका कृष्णप्रेम बहुत तीव्र होता गया। मीराबाई पर अनेक भक्ति- संप्रदाय का प्रभाव था। इसका चित्रण उनकी रचनाओं में दिखता है।।

पदावली– ये मीराबाई की एकमात्र प्रमाणभूत काव्यकृती है। ‘पायो जी मैंने रामरतन धन पायो’- ये संत मीराबाई की प्रसिद्ध रचना है। ‘मीरा के प्रभु गिरिधर नागर’- ऐसा वो खुद का उल्लेख करती है।।

संत मीराबाई के भाषाशैली में राजस्थानी, ब्रज और गुजराती का मिश्रण है। पंजाबी, खड़ीबोली, पुरबी– इन भाषाओं का भी मिश्रण दिखता है। मीराबाई की रचनाएं बहुत भावपूर्ण है। उनके दुखों का प्रतिबिंब कुछ पदों में गहराई से दिखता है। गुरु का गौरव, भगवान की तारीफ, आत्मसर्मपण ऐसे विषय भी पदों में है।।

पूरे भारत में मीराबाई और उनके ‘पद’ ज्ञात है। मराठी में भी उनके पदों का अनुवाद हुआ है। उनके जन्मकाल के बारे में ठीक से जानकारी नहीं है; फिर भी मध्यकालीन युग में हुई भारत की श्रेष्ठ आदर्श नारी संत कवयित्री आज भी आदरणीया होकर अमर हैं।।

संत मीराबाई ने चार ग्रंथों की रचना की :- 

1. नरसी का मायरा;

2. गीत गोविंद टीका;

3. राग गोविंद;

4. राग सोरठ के पद।

इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन “मीरांबाई की पदावली’ नामक ग्रन्थ में किया गया है।।

उनकी पूरा नाम- मीराबाई।

आनुमानिक धरावतरण-1498 में

जन्मस्थान- जोधपुर।

पिता रतन सिंह।

माता- विरकुमारी।

विवाह- महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ। 1557 में द्वारका में मीरा बाई की महाप्रयाण हुई थी।।

जय श्रीकृष्ण भगवान की..

संत मीराबाई की कहानी 

मित्रों, मीराबाई भक्तिकाल की एक ऐसी संत हैं, जिनका सब कुछ भगवान श्री कृष्ण के लिये समर्पित था यहां तक कि श्रीकृष्ण को ही वह अपना पति मान बैठी थीं, भक्ति की ऐसी चरम अवस्था कम ही देखने को मिलती है, सज्जनों! आज हम श्रीकृष्ण की दीवानी मीराबाई के जीवन की कुछ रोचक बातों को भक्ति के साथ आत्मसात करने की कोशिश करेंगे।

मीराबाई के बालमन में श्रीकृष्ण की ऐसी छवि बसी थी कि किशोरावस्था से लेकर मृत्यु तक उन्होंने भगवान् कृष्णजी को ही अपना सब कुछ माना, जोधपुर के राठौड़ रतनसिंह जी की इकलौती पुत्री मीराबाई का जन्म सोलहवीं शताब्दी में हुआ था, बचपन से ही वह कृष्ण-भक्ति में रम गई थीं।

मीराबाई के बचपन में हुई एक घटना की वजह से उनका कृष्ण-प्रेम अपनी चरम अवस्था तक पहुँचा, सज्जनों! हुआ यू की एक दिन उनके पड़ोस में किसी बड़े आदमी के यहाँ बारात आई, सभी औरतें छत पर खड़ी होकर बारात देख रही थीं, मीरा भी बारात देखने लगीं, बारात को देख मीरा ने अपनी माता से पूछा कि मेरा दूल्हा कौन है ?

इस पर उनकी माता ने कृष्ण की मूर्ति की ओर इशारा कर के कह दिया कि यही तुम्हारे दूल्हा हैं। बस यह बात मीरा के बालमन में एक गांठ की तरह बंध गई, बाद में मीराबाई की शादी महाराणा सांगा के पुत्र भोजराजजी से हुआ जो आगे चलकर महाराणा कुंभा कहलायें, शादी के बाद विदाई के समय वे श्री कृष्ण की वही मूर्ति अपने साथ ले गयीं जिसे उनकी माता ने उनका दूल्हा बताया था।

ससुराल में अपने घरेलू कामकाज निबटाने के बाद मीराबाई रोज भगवान् श्रीकृष्णजी के मंदिर चली जातीं और श्रीकृष्ण की पूजा करतीं, उनकी मूर्ति के सामने गातीं और नृत्य करतीं, ससुराल के परिवार वालों ने उनकी श्रद्धा-भक्ति को मंजूरी नहीं दी, मीराबाई की एक ननद थी उदाबाई, उन्होंने मीराबाई को बदनाम करने के लिये उनके खिलाफ एक साजिश रची।

उदाबाई ने राणा से कहा कि मीरा का किसी के साथ गुप्त प्रेम है और उसने मीरा को मंदिर में अपने प्रेमी से बात करते देखा है, राणा कुंभा अपनी बहन के साथ आधी रात को मंदिर गया और देखा कि मीराबा अकेले ही कृष्णजी की मूर्ति के सामने परम आनंद की अवस्था में बैठी मूर्ति से बातें कर रही थीं और मस्ती में गा रही थीं।

राणा मीरा पर चिल्लाया- मीरा तुम जिस प्रेमी से अभी बातें कर रही हो, उसे मेरे सामने लाओ, मीराबाई ने जवाब दिया- वह सामने बैठा है मेरा स्वामी जिसने मेरा दिल चुराया है, और वह समाधि में चली गयीं, घटना से राणा कुंभा का दिल टूट गया लेकिन फिर भी उसने एक अच्छे पति की भूमिका निभाई और मरते दम तक मीराबाई का साथ दिया।

हालाँकि मीराबाई को राजगद्दी की कोई चाह नहीं थी फिर भी राणा के संबंधी मीराबाई को कई तरीकों से सताने लगे, कृष्ण के प्रति मीरा का प्रेम शुरुआत में बेहद निजी था, लेकिन बाद में कभी-कभी मीरा के मन में प्रेमानंद इतना उमड़ पड़ता था कि वह आम लोगों के सामने और धार्मिक उत्सवों में नाचने-गाने लगती थीं।

मीराबाई रात में चुपचाप चित्तौड़ के किले से निकल जाती थीं और नगर में चल रहे सत्संग में हिस्सा लेती थीं, मीराबाई का देवर विक्रमादित्य जो चित्तौड़गढ़ का नया राजा बना, मीराबाई की भक्ति, उनका आम लोगों के साथ घुलना-मिलना और नारी-मर्यादा के प्रति उनकी लापरवाही का उसने कड़ा विरोध किया, उसने मीराबाई को मारने की कई बार कोशिश की।

यहां तक कि एक बार उसने मीराबाई के पास फूलों की टोकरी में एक जहरीला साँप रखकर भेजा और मीराबाई को संदेश भिजवाया कि टोकरी में फूलों के हार हैं, ध्यान से उठने के बाद जब मीराबाई ने टोकरी खोली तो उसमें से फूलों के हार के साथ भगवान् श्री कृष्णजी की एक सुंदर मूर्ति निकली, राणा के द्वारा तैयार किया हुआ कांटो का बिस्तर भी मीराबाई के लिये फूलों का सेज बन गया जब मीरा उस पर सोने चलीं।

जब यातनायें बरदाश्त से बाहर हो गयीं तो मीराबाई ने चित्तौड़ छोड़ दिया, वे पहले मेड़ता गईं, लेकिन जब उन्हें वहां भी संतोष नहीं मिला तो कुछ समय के बाद उन्होने वृंदावन का रुख कर लिया, मीराबाई मानती थीं कि वह गोपी ललिता ही हैं, जिन्होने फिर से जन्म लिया है, ललिता कृष्ण के प्रेम में दीवानी थीं।

मीराबाई ने अपनी तीर्थयात्रा जारी रखी, वे एक गांव से दूसरे गांव नाचती-गाती पूरे उत्तर भारत में घूमती रहीं, माना जाता है कि उन्होंने अपने जीवन के अंतिम कुछ साल गुजरात के द्वारका में गुजारे, ऐसा कहा जाता है कि दर्शकों की पूरी भीड़ के सामने मीरा द्वारकाधीश की मूर्ति में समा गईं।

सज्जनों इंसान आमतौर पर शरीर, मन और बहुत सारी भावनाओं से बना है, यही वजह है कि ज्यादातर लोग अपने शरीर, मन और भावनाओं को समर्पित किए बिना किसी चीज के प्रति खुद को समर्पित नहीं कर सकते, विवाह का मतलब यही है कि आप एक इंसान के लिए अपनी हर चीज समर्पित कर दें, अपना शरीर, अपना मन और अपनी भावनायें।

मीराबाई के लिए यह समर्पण, शरीर, मन और भावनाओं के परे, एक ऐसे धरातल पर पहुंच गयी जो बिलकुल अलग था, जहां यह उनके लिए परम सत्य बन गया था, मीराबाई जो कृष्ण को अपना पति मानती थीं, कृष्णजी को लेकर मीराबाई इतनी दीवानी थीं कि महज आठ साल की उम्र में मन ही मन उन्होंने श्रीकृष्ण से विवाह कर लिया, उनके भावों की तीव्रता इतनी गहन थी कि कृष्ण उनके लिए सच्चाई बन गयें।

यह मीराबाई के लिये कोई मतिभ्रम नहीं एक सच्चाई थी कि श्रीकृष्ण उनके साथ उठते-बैठते थे, घूमते थे, ऐसे में मीराबाई के पति को उनके साथ दिक्कत होने लगी, क्योंकि वह हमेशा अपने दिव्य प्रेमी श्रीकृष्ण के साथ रहतीं, उनके पति ने हर संभव समझाने की, क्योंकि वह मीराबाई को वाकई प्यार करता था, लेकिन वह नहीं जान सका कि आखिर मीरा के साथ हो क्या रहा है।

दरअसल, मीरा जिस स्थिति से गुजर रही थीं और उनके साथ जो भी हो रहा था, वह बहुत वास्तविक लगता था, लेकिन उनके पति को कुछ भी नजर नहीं आता था और वह बहुत निराश हो गया, मीराबाई के इर्द गिर्द के लोग शुरुआत में बड़े चकराये कि आखिर मीराबाई का क्या करें, बाद में जब भगवान् श्री कृष्ण के प्रति मीराबाई का प्रेम अपनी चरम ऊँचाइयों तक पहुँच गया तब लोगों को यह समझ आया कि वे कोई असाधारण औरत हैं।

फिर तो लोग उनका आदर करने लगे और उनके आस-पास भीड़ इकट्ठी होने लगी, पति के मरने के बाद मीराबाई पर व्यभिचार का आरोप लगा, उन दिनों व्यभिचार के लिए मत्यु दंड दिया जाता था, इसलिये शाही दरबार में उन्हें जहर पीने को दिया गया, उन्होंने भगवान् श्री कृष्णजी को याद किया और जहर पीकर वहां से चल दीं, लोग उनके मरने का इंतजार कर रहे थे, लेकिन वह स्वस्थ्य और प्रसन्न बनी रहीं।

इस तरह की कई घटनाएं हुयीं, दरअसल भक्ति ऐसी चीज है जो व्यक्ति को खुद से भी खाली कर देती है, जब मैं भक्ति कहता हूंँ तो मैं किसी मत या धारणा में विश्वास की बात नहीं कर रहा हूंँ, मेरा मतलब पूरे भरोसे और आस्था के साथ आगे बढ़ने से है, तो सवाल उठता है, कि मैं भरोसा कैसे करूं? भक्ति कोई मत या मान्यता नहीं है, भक्ति इस अस्तित्व में होने का सबसे खूबसूरत तरीका है।

सज्जनों जीव गोसांई वृंदावन में वैष्णव संप्रदाय के बड़े संत थे, मीराबाई जीव गोसांई के दर्शन करना चाहती थीं, लेकिन उन्होंने मीराबाई से मिलने से मना कर दिया, उन्होंने मीरा को संदेशा भिजवाया कि वह किसी औरत को अपने सामने आने की इजाजत नहीं देंगे, मीराबाई ने इसके जवाब में अपना संदेश भिजवाया कि वृँदावन में हर कोई औरत है।

अगर यहां कोई पुरुष है तो केवल गिरिधर गोपाल, आज मुझे पता चला कि वृंदावन में कृष्ण के अलावा कोई और पुरुष भी है, इस जबाब से जीव गोसाईं बहुत शर्मिंदा हुयें और तत्काल मीराबाई से मिलने गये और मीराबाई को भरपूर सम्मान दिया, मीराबाई ने गुरु के बारे में कहा है कि बिना गुरु धारण किये भक्ति नहीं होती।

कैसे समाई मीरा द्वारिकाधीश की मूर्ति में ? 

मीराबाई भक्तिकाल की एक ऐसी संत हैं, जिनका सब कुछ कृष्ण के लिए समर्पित था। यहां तक कि कृष्ण को ही वह अपना पति मान बैठी थीं। भक्ति की ऐसी चरम अवस्था कम ही देखने को मिलती है। आइए जानें मीराबाई के जीवन की कुछ रोचक बातें:

मीराबाई के बालमन में कृष्ण की ऐसी छवि बसी थी कि किशोरावस्था से लेकर मृत्यु तक उन्होंने कृष्ण को ही अपना सब कुछ माना। जोधपुर के राठौड़ रतनसिंह जी की इकलौती पुत्री मीराबाई का जन्म सोलहवीं शताब्दी में हुआ था। बचपन से ही वह कृष्ण-भक्ति में रम गई थीं।

मीराबाई के बचपन में हुई एक घटना की वजह से उनका कृष्ण-प्रेम अपनी चरम अवस्था तक पहुंचा। एक दिन उनके पड़ोस में किसी बड़े आदमी के यहां बारात आई। सभी औरतें छत पर खड़ी होकर बारात देख रही थीं। मीरा भी बारात देखने लगीं। बारात को देख मीरा ने अपनी माता से पूछा कि मेरा दूल्हा कौन है ? इस पर उनकी माता ने कृष्ण की मूर्ति की ओर इशारा कर के कह दिया कि यही तुम्हारे दूल्हा हैं। बस यह बात मीरा के बालमन में एक गांठ की तरह बंध गई।

बाद में मीराबाई की शादी महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज, जो आगे चलकर महाराणा कुंभा कहलाए, से कर दी गई।

इस शादी के लिए पहले तो मीराबाई ने मना कर दिया, लेकिन जोर देने पर वह फूट-फूट कर रोने लगीं। शादी के बाद विदाई के समय वे कृष्ण की वही मूर्ति अपने साथ ले गईं, जिसे उनकी माता ने उनका दूल्हा बताया था।

ससुराल में अपने घरेलू कामकाज निबटाने के बाद मीरा रोज कृष्ण के मंदिर चली जातीं और कृष्ण की पूजा करतीं, उनकी मूर्ति के सामने गातीं और नृत्य करतीं। उनके ससुराल वाले तुलजा भवानी यानी दुर्गा को कुल-देवी मानते थे। जब मीरा ने कुल-देवी की पूजा करने से इनकार कर दिया तो परिवार वालों ने उनकी श्रद्धा-भक्ति को मंजूरी नहीं दी।

मीराबाई की ननद उदाबाई ने उन्हें बदनाम करने के लिए उनके खिलाफ एक साजिश रची। उसने राणा से कहा कि मीरा का किसी के साथ गुप्त प्रेम है और उसने मीरा को मंदिर में अपने प्रेमी से बात करते देखा है।

देखा कि मीरा अकेले ही कृष्ण की मूर्ति के सामने परम आनंद की अवस्था में बैठी मूर्ति से बातें कर रही थीं और मस्ती में गा रही थीं। राणा मीरा पर चिल्लाया ’मीरा, तुम जिस प्रेमी से अभी बातें कर रही हो, उसे मेरे सामने लाओ।’ मीरा ने जवाब दिया– ‘वह सामने बैठा है मेरा स्वामी– नैनचोर, जिसने मेरा दिल चुराया है, और वह समाधि में चली गईं। इस घटना से राणा कुंभा का दिल टूट गया, लेकिन फिर भी उसने एक अच्छे पति की भूमिका निभाई और मरते दम तक मीरा का साथ दिया।

हालांकि मीरा को राजगद्दी की कोई चाह नहीं थी, फिर भी राणा के संबंधी मीरा को कई तरीकों से सताने लगे। कृष्ण के प्रति मीरा का प्रेम शुरुआत में बेहद निजी था, लेकिन बाद में कभी-कभी मीरा के मन में प्रेमानंद इतना उमड़ पड़ता था कि वह आम लोगों के सामने और धार्मिक उत्सवों में नाचने-गाने लगती थीं।

वे रात में चुपचाप चित्तौड़ के किले से निकल जाती थीं और नगर में चल रहे सत्संग में हिस्सा लेती थीं। मीरा का देवर विक्रमादित्य, जो चित्तौड़गढ़ का नया राजा बना, बहुत कठोर था। मीरा की भक्ति, उनका आम लोगों के साथ घुलना-मिलना और नारी-मर्यादा के प्रति उनकी लापरवाही का उसने कड़ा विरोध किया। उसने मीरा को मारने की कई बार कोशिश की।

यहां तक कि एक बार उसने मीरा के पास फूलों की टोकरी में एक जहरीला सांप रखकर भेजा और मीरा को संदेश भिजवाया कि टोकरी में फूलों के हार हैं। ध्यान से उठने के बाद जब मीरा ने टोकरी खोली तो उसमें से फूलों के हार के साथ कृष्ण की एक सुंदर मूर्ति निकली। राणा का तैयार किया हुआ कांटो का बिस्तर भी मीरा के लिए फूलों का सेज बन गया जब मीरा उस पर सोने चलीं।

जब यातनाएं बरदाश्त से बाहर हो गईं, तो उन्होंने चित्तौड़ छोड़ दिया। वे पहले मेड़ता गईं, लेकिन जब उन्हें वहां भी संतोश नहीं मिला तो कुछ समय के बाद उन्होने कृष्ण -भक्ति के केंद्र वृंदावन का रुख कर लिया। मीरा मानती थीं कि वह गोपी ललिता ही हैं, जिन्होने फिर से जन्म लिया है। ललिता कृष्ण के प्रेम में दीवानी थीं।

खैर, मीरा ने अपनी तीर्थयात्रा जारी रखी, वे एक गांव से दूसरे गांव नाचती-गाती पूरे उत्तर भारत में घूमती रहीं। माना जाता है कि उन्होंने अपने जीवन के अंतिम कुछ साल गुजरात के द्वारका में गुजारे। ऐसा कहा जाता है कि दर्शकों की पूरी भीड़ के सामने मीरा द्वारकाधीश की मूर्ति में समा गईं।

“इंसान आमतौर पर शरीर, मन और बहुत सारी भावनाओं से बना है। यही वजह है कि ज्यादातर लोग अपने शरीर, मन और भावनाओं को समर्पित किए बिना किसी चीज के प्रति खुद को समर्पित नहीं कर सकते। विवाह का मतलब यही है कि आप एक इंसान के लिए अपनी हर चीज समर्पित कर दें, अपना शरीर, अपना मन और अपनी भावनाएं। आज भी कई इसाई संप्रदायों में नन बनने की दीक्षा पाने के लिए, लड़कियां पहले जीसस के साथ विवाह करती हैं।

कुछ लोगों के लिए यह समर्पण, शरीर, मन और भावनाओं के परे, एक ऐसे धरातल पर पहुंच गया, जो बिलकुल अलग था, जहां यह उनके लिए परम सत्य बन गया था। ऐसे लोगों में से एक मीराबाई थीं, जो कृष्ण को अपना पति मानती थीं।

जीव गोसांई वृंदावन में वैष्णव-संप्रदाय के मुखिया थे। मीरा जीव गोसांई के दर्शन करना चाहती थीं, लेकिन उन्होंने मीरा से मिलने से मना कर दिया। उन्होंने मीरा को संदेशा भिजवाया कि वह किसी औरत को अपने सामने आने की इजाजत नहीं देंगे। मीराबाई ने इसके जवाब में अपना संदेश भिजवाया कि ‘वृंदावन में हर कोई औरत है। अगर यहां कोई पुरुष है तो केवल गिरिधर गोपाल।

आज मुझे पता चला कि वृंदावन में कृष्ण के अलावा कोई और पुरुष भी है।’ इस जबाब से जीव गोसाईं बहुत शर्मिंदा हुए। वह फौरन मीरा से मिलने गए और उन्हें भरपूर सम्मान दिया।

मीरा ने गुरु के बारे में कहा है कि बिना गुरु धारण किए भक्ति नहीं होती। भक्तिपूर्ण इंसान ही प्रभु प्राप्ति का भेद बता सकता है। वही सच्चा गुरु है। स्वयं मीरा के पद से पता चलता है कि उनके गुरु रैदास थे।

संत मीरा बाई शायरी

मीरा ने अनेक पदों व गीतों की रचना की। उनके पदों में उच्च आध्यात्मिक अनुभव हैं। उनमें दिए गए संदेश और अन्य संतों की शिक्षाओं में समानता नजर आती है। मीरा के पदों में भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति के साथ-साथ प्रेम की ओजस्वी प्रवाह-धारा और प्रीतम से वियोग की पीड़ा का मर्मभेदी वर्णन मिलता है। प्रेम की साक्षात् मूर्ति मीरा के बराबर शायद ही कोई कवि हो।

मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।

जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।

छांड़ि दई कुल की कानि कहा करै कोई।

संतन ढिग बैठि बैठि लोक लाज खोई।

अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।

दधि मथि घृत काढ़ि लियौ डारि दई छोई।

भगत देखि राजी भई, जगत देखि रोई।

दासी मीरा लाल गिरिधर तारो अब मोई।

पायो जी मैंने नाम रतन धन पायो।

बस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरु, किरपा कर अपनायो।

जनम जनम की पूंजी पाई, जग में सभी खोवायो।

खरचै नहिं कोई चोर न लेवै, दिन-दिन बढ़त सवायो।

सत की नाव खेवहिया सतगुरु, भवसागर तर आयो।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख-हरख जस पायो।।

भाई-बहनों भक्तिपूर्ण इंसान ही प्रभु प्राप्ति का भेद बता सकता है और वही सच्चा गुरु है, स्वयं मीराबाई के पद से पता चलता है कि उनके गुरु रैदासजी थे, मीरा के पदों में भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति के साथ-साथ प्रेम की ओजस्वी प्रवाह-धारा और प्रीतम से वियोग की पीड़ा का मर्मभेदी वर्णन मिलता है, मीराबाई की भक्ति की वंदना के साथ आज के पावन दिवस की पावन अपरान्ह आप सभी को मंगलमय् हो।

जय श्री कृष्ण 

जय श्री भक्त सिरोमणी मीराबाई 

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