पुरुषोत्तम मास महात्म्य कथा अध्याय 1 से अध्याय 10 तक 

अधिक मास (पुरुषोत्तम मास) में दान, धर्म, पूजन का विशेष महत्व बताया गया है। इस माह में व्रत उपवास करने से मनुष्य को कई गुना पुण्य फल प्राप्त होता है। इस महीने में पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा पढ़ने से भगवान विष्ण की कृपा प्राप्त होती है।

पुरुषोत्तम मास महात्म्य कथा अध्याय 1 

(Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 1)

कल्पवृक्ष के समान भक्तजनों के मनोरथ को पूर्ण करने वाले वृन्दावन की शोभा के अधिपति अलौकिक कार्यों द्वारा समस्त लोक को चकित करने वाले वृन्दावनबिहारी पुरुषोत्तम भगवान् को नमस्कार करता हूँ।

नारायण, नर, नरोत्तम तथा देवी सरस्वती और श्रीव्यासजी को नमस्कार कर जय की इच्छा करता हूँ।

यज्ञ करने की इच्छा से परम पवित्र नैमिषारण्य में आगे कहे गये बहुत से मुनि आये। जैसे, असित, देवल, पैल, सुमन्तु, पिप्पलायन, सुमति, कश्यप, जाबालि, भृगु, अंगिरा, वामदेव, सुतीक्ष्ण, शरभंग, पर्वत, आपस्तम्ब, माण्डव्य, अगस्त्य, कात्यायन, रथीतर, ऋभु, कपिल, रैभ्य, गौतम, मुद्गल, कौशिक, गालव, क्रतु, अत्रि, बभ्रु, त्रित, शक्ति, बधु, बौधायन, वसु, कौण्डिन्य, पृथु, हारीत, ध्रूम, शंकु, संकृति, शनि, विभाण्डक, पंक, गर्ग, काणाद, जमदग्नि, भरद्वाज, धूमप, मौनभार्गव, कर्कश, शौनक तथा महातपस्वी शतानन्द, विशाल, वृद्धविष्णु, जर्जर, जय, जंगम, पार, पाशधर, पूर, महाकाय, जैमिनि, महाग्रीव, महाबाहु, महोदर, महाबल, उद्दालक, महासेन, आर्त, आमलकप्रिय, ऊर्ध्वबाहु, ऊर्ध्वपाद,

एकपाद, दुर्धर, उग्रशील, जलाशी, पिंगल, अत्रि, ऋभु, शाण्डीर, करुण, काल, कैवल्य, कलाधार, श्वेतबाहु, रोमपाद, कद्रु, कालाग्निरुद्रग, श्वेताश्वर, आद्य, शरभंग, पृथुश्रवस् आदि।

शिष्यों के सहित ये सब ऋषि अंगों के सहित वेदों को जानने वाले, ब्रह्मनिष्ठ, संसार की भलाई तथा परोपकार करने वाले, दूसरों के हित में सर्वदा तत्पर, श्रौत, स्मार्त कर्म करने वाले। नैमिषारण्य में आकर यज्ञ करने को तत्पर हुए। इधर तीर्थयात्रा की इच्छा से सूत जी अपने आश्रम से निकले, और पृथ्वी का भ्रमण करते हुए उन्होंने नैमिषारण्य में आकर शिष्यों के सहित समस्त मुनियों को देखा। संसार समुद्र से पार करने वाले उन ऋषियों को नमस्कार करने के लिये, पहले से जहाँ वे इकट्‌ठे थे वहीं प्रसन्नचित्त सूतजी भी जा पहुँचे।

इसके अनन्तर पेड़ की लाल छाल को धारण करने वाले, प्रसन्नमुख, शान्त, परमार्थ विशारद, समग्र गुणों से युक्त, सम्पूर्ण आनन्दों से परिपूर्ण, ऊर्ध्वपुण्ड्रघारी, राम नाम मुद्रा से युक्त, गोपीचन्दन मृत्तिका से दिव्य, शँख, चक्र का छापा लगाये, तुलसी की माला से शोभित, जटा-मुकुट से भूषित, समस्त आपत्तियों से रक्षा करने वाले, अलौकिक चमत्कार को दिखाने वाले, भगवान् के परम मन्त्र को जपते हुए समस्त शास्त्रों के सार को जानने वाले, सम्पूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न, जितेन्द्रिय तथा क्रोध को जीते हुए, जीवन्मुक्त, जगद्गुरु श्री व्यास की तरह और उन्हीं की तरह निःस्पृह्‌ आदिगुणों से युक्त उनको देख उस नैमिषारण्य में रहने वाले समस्त महर्षिगण सहसा उठ खड़े हुए।

विविध प्रकार की विचित्र कथाओं को सुनने की इच्छा प्रगट करने लगे। तब नम्रस्वभाव सूतजी प्रसन्न होकर सब ऋषियों को हाथ जोड़कर बारम्बार दण्डवत् प्रणाम करने लगे।

ऋषि लोग बोले– ‘हे सूतजी! आप चिरन्जीवी तथा भगवद्भक्त होवो। हम लोगों ने आपके योग्य सुन्दर आसन लगाया है। हे महाभाग! आप थके हैं, यहाँ बैठ जाइये।’

ऐसा सब ब्राह्मणों ने कहा। इस प्रकार बैठने के लिए कहकर जब सब तपस्वी और समस्त जनता बैठ गयी तब विनयपूर्वक तपोवृद्ध समस्त मुनियों से बैठने की अनुमति लेकर प्रसन्न होकर आसन पर सूतजी बैठ गये।

तदनन्तर सूत को सुखपूर्वक बैठे हुए और श्रमरहित देखकर पुण्यकथाओं को सुनने की इच्छा वाले समस्त ऋषि यह बोले–‘हे सूतजी! हे महाभाग! आप भाग्यवान हैं। भगवान् व्यास के वचनों के हार्दि्‌क अभिप्राय को गुरु की कृपा से आप जानते हैं। क्या आप सुखी तो हैं ? आज बहुत दिनों के बाद कैसे इस वन में पधारे ? आप प्रशंसा के पात्र हैं। हे व्यासशिष्यशिरोमणे! आप पूज्य हैं। इस असार संसार में सुनने योग्य हजारों विषय हैं परन्तु उनमें श्रेयस्कर, थोड़ा-सा और सारभूत जो हो वह हम लोगों से कहिये। हे महाभाग! संसार-समुद्र में डूबते हुओं को पार करने वाला तथा शुभफल देने वाला, आपके मन में निश्चित विषय जो हो वही हम लोगों से कहिये।

हे अज्ञानरूप अन्धकार से अन्धे हुओं को ज्ञानरूप चक्षु देने वाले! भगवान् के लीलारूपी रस से युक्त, परमानन्द का कारण, संसाररूपी रोग को दूर करने में रसायन के समान जो कथा का सार है वह शीघ्र ही कहिये।

इस प्रकार शौनकादिक ऋषियों के पूछने पर हाथ जोड़कर सूतजी बोले–‘हे समस्त मुनियों! मेरी कही हुई सुन्दर कथा को आप लोग सुनिये। हे विप्रो! पहले मैं पुष्कर तीर्थ को गया, वहाँ स्नान करके पवित्र ऋषियों, देवताओं तथा पितरों को तर्पणादि से तृप्त करके तब समस्त प्रतिबन्धों को दूर करने वाली यमुना के तट पर गया, फिर क्रम से अन्य तीर्थों को जाकर गंगा तट पर गया। पुनः काशी आकर अनन्तर गयातीर्थ पर गया। पितरों का श्राद्ध कर तब त्रिवेणी पर गया। तदनन्तर कृष्णा के बाद गण्डकी में स्नान कर पुलह ऋषि के आश्रम पर गया। धेनुमती में स्नान कर फिर सरस्वती के तीर पर गया, वहाँ हे विप्रो! त्रिरात्रि उपवास कर गोदावरी गया।

फिर कृतमाला, कावेरी, निर्विन्ध्या, ताम्रपर्णिका, तापी, वैहायसी, नन्दा, नर्मदा, शर्मदा, नदियों पर गया। पुनः चर्मण्वती में स्नान कर पीछे सेतुबन्ध रामेश्वर पहुँचा। तदनन्तर नारायण का दर्शन करने के हेतु बदरी वन गया। तब नारायण का दर्शन कर, वहाँ तपस्वियों को अभिनन्दन कर, पुनः नारायण को नमस्कार कर और उनकी स्तुति कर सिद्धक्षेत्र पहुँचा। इस प्रकार बहुत से तीर्थों में घूमता हुआ कुरुदेश तथा जांगल देश में घूमता-घूमता फिर हस्तिनापुर में गया।

हे द्विजो! वहाँ यह सुना कि राजा परीक्षित राज्य को त्याग बहुत ऋषियों के साथ परम पुण्यप्रद गंगातीर गये हैं, और उस गंगातट पर बहुत से सिद्ध, सिद्धि हैं भूषण जिनका ऐसे योगिलोग और देवर्षि वहाँ पर आये हैं उसमें कोई निराहार, कोई वायु भक्षण कर, कोई जल पीकर, कोई पत्ते खाकर, कोई श्वास ही को आहार कर, कोई फलाहार कर और कोई-कोई फेन का आहार कर रहते हैं। हे द्विजो! उस समाज में कुछ पूछने की इच्छा से हम भी गये। वहाँ ब्रह्मस्वरूप भगवान् महामुनि, व्यास के पुत्र, बड़े तेजवाले, बड़े प्रतापी, श्रीकृष्ण के चरण-कमलों को मन से धारण किये हुए श्रीशुकदेव जी आये

उन १६ वर्ष के योगिराज, शँख की तरह कण्ठवाले, बड़े लम्बे, चिकने बालों से घिरे हुए मुखवाले, बड़ी पुष्ट कन्धों की सन्धिवाले, चमकती हुए कान्तिवाले, अवधूत रूपवाले, ब्रह्मरूप, थूकते हुए लड़कों से घिरे हुए मक्षिकाओं से जैसे मस्त हस्ती घिरा रहता है उसी प्रकार धूल हाथ में ली हुई स्त्रियों से घिरे हुए, सर्वांग धूल रमाए महामुनि शुकदेव को देख सब मुनि प्रसन्नता पूर्वक हाथ जोड़ कर सहसा उठकर खड़े हो गये।

इस प्रकार महामुनियों द्वारा सत्कृत भगवान शुक को देखकर पश्चात्ताप करती (पछताती) हुई स्त्रियाँ और साथ के बालक जो उनको चिढ़ा रहे थे, दूर ही खड़े रह गये और भगवान् शुक को प्रणाम करके अपने-अपने घरों की ओर चले गये।

इधर मुनि लोगों ने शुकदेव के लिए बड़ा ऊँचा और उत्तम आसन बिछाया। उस आसन पर बैठे हुए भगवान् शुक को कमल की कर्णिका को जैसे कमल के पत्ते घेरे रहते हैं उसी प्रकार मुनि लोग उनको घेर कर बैठ गये।

यहाँ बैठे हुए ज्ञानरूप महासागर के चन्द्रमा भगवान् महामुनि व्यासजी के पुत्र शुकदेव ब्राह्मणों द्वारा की हुई पूजा को धारण कर तारागणों से घिरे हुए चन्द्रमा की तरह शोभा पा रहे थे।

इति बृहन्नारदीये श्रीपुरुषोत्तममाहात्म्ये प्रथमोऽध्यायः ॥१॥

पुरुषोत्तम मास महात्म्य द्वितीय अध्याय  

(Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 2)

सूतजी बोले राजा परीक्षित के पहुंचने पर भगवान शुकदेवजी द्वारा कथित पुण्यप्रद श्रीमद् भागवत शुकदेवजी जी के से सुनकर अनंतर राजा का मोक्ष भी देखकर अब यहां यज्ञ करने के लिए उद्यत ब्राह्मणों को देखने के लिए मैं आया हूँ और यहां यज्ञ में दीक्षा लिए हुए ब्राह्मणों का दर्शन कर मैं कृतार्थ हुआ।

ऋषि बोले- हे साधु अन्य विषयों की बातों को सुनकर भगवान कृष्णद्वेपयन के प्रसाद से उनके मुख से जो आपने सुना है वहां अपूर्व विषय है।

आप हम लोगों से कहिए। हे महाभाग! संसार में जिससे परे कोई सार नही है, ऐसी मन को प्रसन्न करने वाली और जो सुधा से भी अधिकतर हितकर है ऐसी पुण्य कथा हम लोगों को सुनाइये।

सुत जी बोले विलोम (ब्राह्मण के चारु में क्षत्रिय चुरू मिल जाने से) उत्पन्न होने पर भी मैं धन्य हूँ जो श्रेष्ठ पुरूष होने पर भी आप लोग मुझसे पूछ रहे हैं। भगवान व्यास के मुख से जो कुछ सुना है। वह यथा ज्ञान मैं कहता हूँ। एक समय नारद मुनि नर-नारायण के आश्रम में गए। जो आश्रम बहुत से तपस्वियों, सिद्धों तथा देवताओं से भी युक्त है। और खैर, बहेड़ा, आंवला, बेल आम, अमड़ा, केच, जामुन, कदंब आदि और भी अन्य वृक्षों से सुशोभित है। भगवान विष्णु के चरणों से निकली हुई पवित्र गंगा और अलकनंदा भी जहाँ बह रही हैं।

ऐसे नर, नारायण के स्थान में श्री नारद मुनि ने जाकर महामुनि नारायण को प्रणाम किया। और परब्रम्ह की चिंता में लगा हुआ है मन जिनका ऐसे, जितेंद्रिय, काम, क्रोध आदि छहों शत्रुओ को जीते हुए, निर्मल चमक रही हैं अत्यंत प्रभा जिनके जिनके शरीर से, ऐसे देवताओं के भी देव, तपस्वी नारायण को साष्टांग दंडवत प्रणाम कर और हाथ जोड़कर नारद मुनि व्यापक प्रभु की स्तुति करने लगे।

नारद जी बोले हे देव देव जय जगन्नाथ हे कृपा सागर सत्पते, आप ही सत्यव्रत हो त्रिसत्य हो सत्यआत्मा हो और सत्य संभव हो। है सत्ययोने! आपको नमस्कार है। मैं आपकी शरण में आया हूँ। आपका जो तप है वह संपूर्ण प्राणियों की शिक्षा के लिए और मर्यादा की स्थापना के लिए है। यदि आप तपस्या ना करें तो कलयुग में एक के पाप करने से सारी पृथ्वी डूबती है वैसे ही एक के पुण्य करने से सारी पृथ्वी तरती है। इसमें तनिक भी संशय नहीं है।

पहले सतयुग आदि मैं जैसे एक पाप करता था तो सभी पापी हो जाते थे ऐसी स्थिति हटाकर कलयुग में केवल करता ही पापों से लिप्त होता है वह आपके तप की स्थिति है। हे भगवान ! कलियुग में जितने प्राणी हैं सब विषयों में आसक्त हैं। स्त्री पुरुष गृह में लगा है चित्त जिनका ऐसी प्राणियों का हित करने वाला जो हो और मेरे मेरा भी थोड़ा कल्याण हो सके ऐसा विषय सोचकर आपका कहने के योग्य हैं । आप के मुख से सुनने की इच्छा से मैं ब्रह्मलोक से यहाँ आया हुँ उपकार प्रिय विष्णु है ऐसे वेदों निश्चित है ।

इसलिए लोक उपकार के लिए कथा का सार इस समय आप सुनाइए । जिसके श्रवण मात्र से निर्भय मोक्ष पद की प्राप्ति होती है । इस प्रकार नारद जी के वचनों को सुनकर भगवान ऋषि आनंद से खिलखिला उठे और भुवन को पवित्र करने वाली पुण्य कथा आरंभ की ।

श्री नारायण बोले गोपों की स्त्रियों के मुख कमल के भ्रमर, रास के ईश्वर, रसिकों के आभरण वृंदावन बिहारी ब्रिज के पति आदि पुरुष भगवान की पुण्य कथा को कहते हैं हे नारद ! आप सुनो जो निमित्त मात्र समय मे जगत को उत्पन्न करने वाले है उनके कर्मों को हे वत्स इस पृथ्वी पर कौन वर्णन कर सकता है ?

हे नारद मुनि ! आप भी भगवान के चरित्र का सरस सार जानते हैं । और यह भी जानते हैं कि भगवान चरित्र वाणी द्वारा नहीं कहा जा सकता यद्यपि अद्भुत पुरुषोत्तम महात्मय आदर से कहते हैं । यह पुरुषोत्तम महात्मय दरिद्रता और वैधव्य को का नाश करने वाला यश का दाता सत पुत्र और मोक्ष को देने वाला है । अतः शीघ्र ही इसका प्रयोग करना चाहिए ।

नारद बोले है मुने ! पुरुषोत्तम नमक कौन देवता है ? उसका माहात्म्य क्या है ? यह अद्भुत सा प्रतीत होता है, अतः आप मुझे विस्तार पूर्वक कहिए ।

सूतजी बोले श्री नारद का वचन सुनकर नारायण क्षण मात्र पुरुषोत्तम में अच्छी तरह मन लगाकर बोले

श्री नारायण बोले- पुरुषोत्तम यह मास का नाम जो पढ़ा है वह भी कारण से युक्त । पुरुषोत्तम मास के स्वामी दयासागर पुरुषोत्तम ही हैं । इसलिए ऋषिगण इसको पुरुषोत्तम मास कहते हैं । पुरुषोत्तम मास के व्रत करने से भगवान पुरुषोत्तम प्रसन्न होते हैं ।

नारदजी बोले चेत्रादि मास जो है वह अपने-अपने स्वामियों देवताओं से युक्त हैं । ऐसा मैंने सुना है परंतु उनके बीच में पुरुषोत्तम नाम का मास नहीं सुना है । पुरुषोत्तम मास कौन है ? और पुरुषोत्तम मास के स्वामी कृपा के निधि पुरुषोत्तम कैसे हुए ? है कृपानिधि ! आप मुझे कहिए इस मास का स्वरुप विधान के सहित कहिए हे प्रभु सत्पते ! इस माह में क्या करना ? कैसे स्नान करना ? क्या दान करना ? इस मास का जप पूजा उपवास आदि क्या साधन है ? कहिये ? इस मास के विधान से कौन से देवता प्रसन्न होते हैं ? और क्या फल देते हैं ? इसके अतिरिक्त और जो कुछ भी तथ्य हो वह है तपोधन ! कहिये।

साधु दोनों के ऊपर कृपा करने वाले होते हैं । वह बिना पूछे कृपा करके सदुपदेश दिया करते हैं । इस पृथ्वी पर जो मनुष्य दूसरों के भाग्य के अनुवर्ती दरिद्रता से पीड़ित नित्य रोगी रहने वाले, पुत्रों को चाहने वाले । जड़, गूँगे, ऊपर से अपने को बड़ा धार्मिक दर्शाने वाले विद्या विहीन मलिन वस्त्रों को धारण करने वाले नास्तिक परस्त्रीगामी नीच जर्जर दासवृत्ति करने वाले आशा जिनकी नष्ट हो गई है । संकल्प जिनके भ्रष्ट हो गये हैं, तत्व जिनके क्षीण हो गए हैं , कुरूपी, रोगी, कुश्टी, टेढ़े-मेढ़े अंगों वाले, अंधे, इष्टवियोग, मित्रवियोग, स्त्रीवियोग, आतपुरुषयोग, माता-पिता विहीन, शोक- दुख आदि से सुख सूख गए हैं

जिनके अंग, अपने इष्ट वस्तु से रहित उत्पन्न हुआ करते हैं । वैसे जिन अनुष्ठानों के करने और सुनने से, पुनः उत्पन्न न हो , हे प्रभु ! ऐसे प्रयोग हमको सुनाइए । वैधव्य, वन्ध्या दोष, आँगहीनता, दुष्ट व्याधियां, रक्तपित्त आदि मिर्गी, राज्यक्षमादी जो दोष हैं । इन दोस्तों से दुखित मनुष्य को देख कर हे जगन्नाथ मैं दुखी हुँ । अतः मेरे ऊपर दया करके । हे ब्राह्मण मेरे मन को प्रसन्न करने वाले विषय का को विस्तार से बताइए से कहिए । हे प्रभु आप सर्वज्ञ हैं, समय से तत्वों के आयतन हैं । सूतजी कहते हैं इस प्रकार नारद के परोपकारी मधुर वचनों को सुनकर देव देव नारायण चंद्रमा की तरह शांत महा मुनि नारद से नए मेघों के समान गंभीर वचन बोले ।

इति श्री बृहन्नारदीये पुरुषोत्तम मास में नारायण नारद संवाद प्रश्न विधि विधि नामक द्वितीय अध्याय संपूर्ण। 

पुरुषोत्तम मास महात्म्य तीसरा अध्याय 

(Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 3)

ऋषि बोले हे महाभाग नर के मित्र नारायण नारद के प्रति जो शुभ वचन बोले वह आप विस्तार पूर्वक हमसे कहें

सूतजी जी बोले हे द्विजसत्तमो नारायण ने नारद के प्रति जो सुंदर वचन कहे वह जैसे मैंने सुने हैं वैसे ही कहता हूँ आप लोग सुने ।

नारायण बोले हे नारद पहले महात्मा श्रीकृष्णचन्द्र ने राजा युधिष्ठिर से जो कहा था वह मैं कहता हूँ सुनो । एक समय धार्मिक राजा अजातशत्रु, युधिष्टर, छल प्रिय धृतराष्ट्र के पुत्रों द्वारा द्यूतक्रीड़ा में हार गए । सबके देखते-देखते अग्नि से उत्पन्न हुई धर्मपरायण द्रोपती के बालों को पकड़कर दुष्ट दुशासन ने खींचा । और खींचने के बाद उसके वस्त्र उतारने लगा तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसकी रक्षा की । पीछे पांडव राज्य को त्याग काम्यवन में चले गए । वहाँ अत्यंत क्लेश से युक्त वे वन के फलों को खाकर जीवन बिताने लगे । जैसे जंगली हाथियों के शरीर में बाल रहते हैं

इसी प्रकार पांडवों के शरीर में बाल हो गए । इस प्रकार दुखित पांडवों को देखने के लिए भगवान देवकीसुत मुनियों के साथ काम्यवन में गए उन भगवान को देखकर मृत शरीर में प्राण आ जाने की तरह युधिष्टर , भीमसेन, अर्जुन आदि प्रेम विहल होकर सहसा उठ खड़े हुए और प्रीति से श्री कृष्ण से मिले और भगवान कृष्ण के चरण कमलों में भक्ति से नमस्कार करते भये । द्रोपती धीरे-धीरे आई आलस्य रहित होकर भगवान की शीश नमस्कार करती भई । उन दुखित पांडवों को रूरू मृग के चर्म के वस्त्र पहने देख और समस्त शरीर में धूल लगी हुई रूखा शरीर चारों तरफ बाल बिखरे हुए । द्रोपती को भी उसी प्रकार दुर्बल शरीर वाली और दुखों से घिरी हुई देखा । इस तरह दुखित पांडवों को देखकर अत्यंत दुखी भक्त वत्सल भगवान धृतराष्ट्र के पुत्रों को जला देने की इच्छा से उन पर क्रुद्ध हुए ।

विश्व के आत्माओं, भोहों को चढ़ा गुरेर कर देखने वाले । करोड़ों काल के कराल मुख की तरह मुख वाले, धधकती हुई प्रलय की अग्नि के समान उठे, हुए होठों को दांतों के नीचे जोर से दबा कर तीनों लोकों को जला देने की तरह । श्री सीता के वियोग में संतप्त भगवान रामचंद्र जी को रावण पर जैसा क्रोध आया था उसी प्रकार से क्रोध भगवान को देखकर कांपते हुए अर्जुन । श्री कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए द्रोपदी, धर्मराज तथा और लोगों से भी अनुमोदित होकर शीघ्र ही हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे ।

अर्जुन बोले हे कृष्ण हे जगन्नाथ जगत के नाथ ! हे नाथ ! में जगत के बाहर नहीं हूँ । आप ही जगत की रक्षा करने वाले हैं हे प्रभु ! क्या मेरी रक्षा आप न करेंगे । जिनके नेत्रों के देखने से ही ब्रह्मा का पतन हो जाता है उनके क्रोध करने से क्या नहीं हो सकता , यह कौन जानता है कि क्रोध से संसार का पालन प्रलय हो जाता है । सम्पूर्ण तत्व को जानने वाले के कारण, वेद और वेदांग के बीज के चित्त आप साक्षात श्री कृष्ण है। मैं आपकी वंदना करता हूँ । आप ईश्वर हैं इस चराचरतात्मक संसार को आपने उत्पन्न किया है सर्व मंगल के मंगल हैं और सनातन के भी बीज रुप हैं । इसलिए एक के अपराध से आप के बनाये समस्त विश्व का आप नाश कैसे करेंगे ? कौन भला ऐसा होगा जो मच्छरौं को जलाने के लिए अपने घर को जला देता हो ?

श्री नारायण बोले दूसरों की वीरता को मर्दन करने वाले अर्जुन ने भगवान से इस प्रकार निवेदन कर प्रणाम किया ।

सूत जी बोले श्री कृष्ण जी ने अपने क्रोध को शांत किया और स्वयं भी चंद्रमा की तरह शान्त हो गए । इस प्रकार भगवान को शान्त देखकर पांडव स्वस्थ होते भय । प्रेम से प्रसन्न मुख एवं प्रेम विहल हुए । सबों ने भगवान को प्रणाम किया और जंगली कंद, मूल, फल आदि से उनकी पूजा की ।

नारायण बोले तब शरण में जाने योग्य भक्तों के ऊपर कृपा करने वाले श्री कृष्ण को प्रसन्न जान विशेष प्रेम से भरे हुए नम्र अर्जुन ने बारंबार नमस्कार किया और जो प्रश्न आपने हमें किया है वही प्रश्न उन्होंने श्री कृष्ण से किया । इस प्रकार अर्जुन का प्रश्न सुनकर क्षण मात्र मन से सोच कर अपने सुहाद्र पांडवों को और व्रत को धारण की हुई द्रोपती को आश्वासन देते हुए वक्ताओं में श्रेष्ठ श्री कृष्ण पांडवों से हितकर वचन बोले ।

श्री कृष्ण जी बोले हे राजन ! हे महाभाग ! हे विभव ! अब मेरे वचन सुनो । आपने यह प्रश्न अपूर्व किया है । आपको उत्तर देने में मुझे उत्साह नहीं हो रहा है। इस प्रश्न का उत्तर गुप्त से गुप्त है ऋषियों को भी नहीं विदीत है । फिर भी है अर्जुन ! मित्र के नाते अथवा तुम हमारे भक्त हो इस कारण से हम कहते हैं । हे सुब्रत ! वह जो उत्तर है वह अति उग्र है, अतः क्रम से सुनो । चैत्र आदि जो बारह मास, निमिष, महीने के दिनों दोनों पक्ष घड़ियां । प्रहर तीन प्रहर, छः ऋतुयें, मुहूर्त दक्षिणायन और उत्तरायण, वर्ष चारों युग इस प्रकार परार्ध तक जो काल है यह सब । और नदी , समुद्र, कुँए, बावली, गढ़िया,‌ स्त्रोत्र, लता ,औषधियां ,वृक्ष ,बांस ,आदि पेड़ ।

वन की औषधियां, नगर, गांव, पर्वत, पुरियाँ यह सब मूर्ति वाले हैं और अपने गुणों से पूजे जाते हैं इसमें ऐसा कोई अपूर्व व्यक्ति नहीं है जो अपने अधिष्ठाता देवता के बिना रहता हो, अपने अपने अधिकार में पूजे जाने वाले यह सभी फल को देने वाले हैं । अपने-अपने अधिष्ठाता देवता के योग के महात्म्य से यह सब सो भाग्यवान हैं । हे पांडू ! नंदन एक समय अधिक मास उत्पन्न हुआ । उस उत्पन्न हुए असहाय, निंदित मास को सब लोग बोले कि यह मलमास सूर्य की संक्रांति से रहित है अतः पूजने योग्य नहीं है । यह मलमास मल रूप होने से छूने योग्य भी नहीं है और न शुभ कार्यों में अग्रणी है

इस प्रकार के वचनों को लोगों के मुख से सुनकर यह मलमास निरुद्योग, प्रभारहित, दुख से घिरा हुआ, अति खिन्न मन चिंता से ग्रस्त मन होकर व्यथित हृदय से मरणासन्न की तरह हो गया । फिर यह धैर्य धारण कर मेरी शरण में आया । हे नर ! वैकुंठ भवन में जहां मैं रहता था वहां पहुंचा और मेरे घर में आकर मुझे पुराण परम पुरुषोत्तम को इसने देखा । उस समय अमूल्य रत्नों से जड़ित स्वर्ण के सिंहासन पर बैठे मुझको देखकर यह भूमि पर साष्टांग दंडवत कर हाथ जोड़कर नेत्रों में बारंबार आंसुओं की धारा बहता हुआ धैर्य धारण कर गदगद वाणी से बोला ।

सूतजी बोले इस प्रकार महामुनि बद्रीनाथ कथा कह कर चुप हो गये । इस प्रकार नारायण के मुख से कथा सुन भक्तों के ऊपर दया करने वाले नारद मुनि पुनः बोले ।

नारदजी बोले- इस प्रकार अपनी पूर्णकला से विराजमान भगवान विष्णु के निर्मल भवन में जाकर भक्ति द्वारा मिलने वाले, जगत के पापों को दूर करने वाले, योगियों को भी शीघ्र न मिलने वाले, जगत को अभयदान प्रदान करने वाले, ब्रह्म रूप, मुकुंद जहां पर थे उनके चरण कमलों की शरण में आया हुआ अधिक मास क्या बोला ।

इतिश्री बृहन्नारदीय पुराणे पुरुषोत्तममासेअधिकमासे बैकुंठ पदार्पण नाम तृतीय अध्याय समाप्त 

पुरुषोत्तम मास महात्म्य चतुर्थ अध्याय 

(Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 4)

नारायण बोले- हे नारद भगवान पुरुषोत्तम के आगे जो शुभ वचन अधिक मास में कहे वह लोगों के कल्याण की इच्छा से हम कहते हैं, सुनो ।

अधिक मास बोला- हे नाथ ! हे कृपा निधान ! हे हरे ! मेरे से जो बलवान है उन्होंने यह मलमास है ऐसा कहकर मुझदीन को अपनी श्रेणी से निकाल दिया है ऐसा यहाँ आए हुए मेरी आप रक्षा क्यों नहीं करते ? अपने स्वामी देवता वाले मास आदि द्वारा शुभ कर्म में वर्जित मुझ स्वामी रहित को देखते ही आपकी दयालुता कहां चली गई और आज यह कठोरता कैसे आ गई है ?

हे भगवान कंस रूप अग्नि से जलती हुई वासुदेव की स्त्री देवकी की रक्षा जैसे आपने की वैसे ही दीनवत्सल ! कहिए मुझ शरण आए हुए को आज कैसे रक्षा नहीं करते ? पहले द्रुपद राजा की कन्या द्रोपदी की दुशासन के दुख से जैसे आपने रक्षा की वैसे ही दीनदयालु ! कहिए मुझे शरण आए की आज कैसे रक्षा नहीं करते ? यमुना में कालिया नाग के विष से गौ चराने वालों तथा पशुओं को अपने जैसे रक्षा की वैसे ही दीनवत्सल ! कहिए मुझ शरण आए कि आज कैसे रक्षा नहीं करते ? पशु और पक्षियों को पालने वाले एवं पशुपालकों की स्त्रियों की जैसे पहिले व्रज सरकंडों के वन में लगी हुई अग्नि इसे आप रक्षा की पहले वैसे ही दीनवत्सल कहिए मुझे शरण में आए हुए कि आज कैसे रक्षा नहीं करते ?

मगध देश के राजा जरासंध के बंधन से राजाओं की जैसी रक्षा की वैसी है दीनवत्सल ! कहिये मुझ शरण में आए हुए की आज कैसे रक्षा नहीं करते ? आप ने ग्राह के मुख से गजराज को झट आकर जैसे रक्षा की वैसे हे दीनवत्सल मुझ शरण में आए की आज रक्षा कैसे नहीं करते ?

श्री नारायण बोले- इस प्रकार भगवान को कह स्वामी रहित मलमास आंसू बहता हुआ मुख लिए जगतपति के सामने चुपचाप खड़ा रहा । उसको रोते देखते ही भगवान शीघ्र ही दयार्द्र हो गए और पास में खड़े दीनमुख मलमास से बोले ।

श्रीहरि बोले हे वत्स क्यों इस समय अत्यंत दुख में डूबे हुए हो ऐसा कौन बड़ा भारी दुख तुम्हारे मन में हैं ? दुख में डूबते हुए तुझको हम बचाएंगे , तुम शोक मत करो मेरी शरण में आया फिर शोक करने के योग्य नहीं रहता हैं । यहां आकर महा दुखी नीच भी शोक नहीं करता किसलिए तुम यहां आकर शोक में अपने मन को दबाए हुए हो जहां आने से न शोक होता है न कभी बुढ़ापा आता है न मृत्यु का भय रहता है, किंतु नित्य आनंद रहा करता है इस प्रकार के बैकुंठ में आकर तुम कैसे दुखित हो ? तुमको यह तुमको यहां पर दुखी देखकर वैकुंठवासी बड़े विस्मय को प्राप्त हो रहे हैं, हे वत्स । तुम कहां हो इस समय तुम मरने की इच्छा क्यों करते हो ?

श्री नारायण बोले- इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर बोझ लिया हुआ आदमी जैसे बुझा रखकर श्वास-प्रश्वास लेता है इसी प्रकार श्वासोच्छवास लेकर अधिक मास मधुसूदन से बोला ।

अधिक मास बोला हे भगवान आप सर्वव्यापी हैं, आप से अज्ञात कुछ नहीं है, आकाश की तरह आप विश्व में व्याप्त होकर बैठे हैं । चराचर में व्याप्त विष्णु आप सबके साक्षी हैं विश्वभर को देखते हैं विषय की सन्निधि में भी विकार शुन्य आप में शास्त्र मर्यादा के अनुसार सब भूत स्थित हैं । हे जगन्नाथ ! आपके बिना कुछ भी नहीं है । क्या आप मुझे भाग्य को के कष्ट को नहीं जानते हैं यद्यपि हे नाथ मैं अपनी व्यथा को कहता हूं जिस प्रकार मैं दुख जाल से घिरा हुआ हूं वैसे दुखित को मैंने ना कहीं देखा है और ना सुना है । क्षण , निमेष, महूर्त, पक्ष, मास, दिन और रात सब अपने-अपने स्वामियों के अधिकार में सर्वदा बिना भय के प्रसन्न रहते हैं ।

मेरा न कुछ नाम है, न मेरा कोई अधिपति है और ना कोई मेरे मुझको आश्रम है अतः क्षण आदि समस्त स्वामियों वाले देवो ने शुभकार्य से मेरा निरादर किया है । यह मलमास सर्वदा त्याज्य है, अंधा है, गर्त में गिराने वाला है, ऐसा सब कहते हैं । इसी कारण से मैं मरने की इच्छा करता हूँ । अब जीने की इच्छा नहीं है । निन्दित जीवन से तो मरना ही उत्तम है । जो सदा जला करता है वह किसी तरह सो सकता है हे महाराज ! इससे अधिक मुझको और कुछ कहना नहीं है ।

वेदों में आपकी इस तरह प्रसिद्धि है कि पुरुषोत्तम आप परोपकार प्रिय हैं और दूसरों के दुख को सहन नहीं करते हैं । अब आप अपना धर्म समझकर जैसी इच्छा हो वैसा करें आप प्रभु और महान हैं आपके सामने मुझ जैसे पामर को घड़ी-घड़ी कुछ कहते रहना उचित नहीं है । मैं मरूंगा मैं मरूंगा अब मैं न जीऊँगा ऐसा पुनः पुनः कह कर वह अधिक मास, हे ब्रह्मा ! के पुत्र चुप हो गया और एक एकाएक श्री विष्णु के निकट गिर गया । तब इस प्रकार गिरते हुए मलमास को देखकर भगवान की सभा में लोग बड़े विस्मय को प्राप्त हुए ।

श्री नारायण बोले- इस प्रकार कह कर चुप हुए अधिक मास के प्रति बहुत कृपा भार से अवसन्न हुए श्री कृष्ण मेघों के समान गंभीर वाणी से चंद्रमा की किरणों की तरह उसे शांत करते हुए बोले ।

सूतजी बोले- हे विप्रो ! वेद रूप रिद्धि के आश्रित नारायण का पापों के समूह रूप समुद्र को शोषण करने वाला वडवानल अग्नि के समान वचन सुनकर प्रसन्न हुए नारद मुनि पुनः आदि पुरुष के वचनों को सुनने की इच्छा से बोले ।

इति श्री वरहन्नादीय पुरुषोत्तममास महात्म मलमास विज्ञप्ति नामः चतुर्थ अध्याय संपूर्ण 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य पांचवां अध्याय 

(Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 5)

नारद जी बोले, ‘हे महाभाग हे तपोनिधे इस प्रकार अधिमास के वचनों को सुनकर हरि ने चरणों के आगे पड़े हुए अधिमास से क्या कहा?’श्रीनारायण बोले, ‘हे पाप रहित! हे नारद! जो हरि ने मलमास के प्रति कहा वह हम कहते हैं सुनो! हे मुनिश्रेष्ठ! आप जो सत्कथा हमसे पूछते हैं आप धन्य हैं।’

श्रीकृष्ण बोले, ‘हे अर्जुन! बैकुण्ठ का वृत्तान्त हम तुम्हारे सम्मुख कहते हैं, सुनो! मलमास के मूर्छित हो जाने पर हरि के नेत्र से संकेत पाये हुए गरुड़ मूर्छित मलमास को पंख से हवा करने लगे। हवा लगने पर अधिमास उठ कर फिर बोला हे विभो! यह मुझको नहीं रुचता है।

अधिमास बोला, ‘हे जगत्‌ को उत्पन्न करने वाले! हे विष्णो! हे जगत्पते! मेरी रक्षा करो! रक्षा करो! हे नाथ! मुझ शरण आये की आज कैसे उपेक्षा कर रहे हैं।’

इस प्रकार कहकर काँपते हुए घड़ी-घड़ी विलाप करते हुए अधिमास से, बैकुण्ठ में रहने वाले हृषीकेश हरि, बोले।

श्रीविष्णु बोले, ‘उठो-उठो तुम्हारा कल्याण हो, हे वत्स! विषाद मत करो। हे निरीश्वर! तुम्हारा दुःख मुझको दूर होता नहीं ज्ञात होता है।’

ऐसा कहकर प्रभु मन में सोचकर क्षणभर में उपाय निश्चय करके पुनः अधिमास से मधुसूदन बोले।

श्रीविष्णु बोले, ‘हे वत्स! योगियों को भी जो दुर्लभ गोलोक है वहाँ मेरे साथ चलो जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम, ईश्वर रहते हैं।

गोपियों के समुदाय के मध्य में स्थित, दो भुजा वाले, मुरली को धारण किए हुए नवीन मेघ के समान श्याम, लाल कमल के सदृश नेत्र वाले, शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान अति सुन्दर मुख वाले, करोड़ों कामदेव के लावण्य की मनोहर लीला के धाम, पीताम्बर धारण किये हुए, माला पहिने, वनमाला से विभूषित, उत्तम रत्ना भरण धारण किये हुए, प्रेम के भूषण, भक्तों के ऊपर दया करने वाले, चन्दन चर्चित सर्वांग, कस्तूरी और केशर से युक्त, वक्षस्थल में श्रीवत्स चिन्ह से शोभित, कौस्तुक मणि से विराजित, श्रेष्ठ से श्रेष्ठ रत्नों के सार से रचित किरीट वाले, कुण्डलों से प्रकाशमान, रत्नोंल के सिंहासन पर बैठे हुए, पार्षदों से घिरे हुए जो हैं, वही पुराण पुरुषोत्तम परब्रह्म हैं।

वे सर्वतन्त्रर स्वतन्त्रउ हैं, ब्रह्माण्ड के बीज, सबके आधार, परे से भी परे, निस्पृह, निर्विकार, परिपूर्णतम, प्रभु, माया से परे, सर्वशक्तिसम्पन्न, गुणरहित, नित्यशरीरी। ऐसे प्रभु जिस गोलोक में रहते हैं वहाँ हम दोनों चलते हैं वहाँ श्रीकृष्णचन्द्र तुम्हारा दुःख दूर करेंगे।’

श्रीनारायण बोले, ‘ऐसा कहकर अधिमास का हाथ पकड़ कर हरि, गोलोक को गये। हे मुने! जहाँ पहले के प्रलय के समय में वे अज्ञानरूप महा अन्धकार को दूर करने वाले, ज्ञानरूप मार्ग को दिखाने वाले केवल ज्योतिः स्वरूप थे। जो ज्योति करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा वाली, नित्य, असंख्य और विश्वप की कारण थी तथा उन स्वेच्छामय विभुकी ही वह अतिरेक की चरम सीमा को प्राप्त थी। जिस ज्योति के अन्दर ही मनोहर तीन लोक विराजित हैं। हे मुने! उसके ऊपर अविनाशी ब्रह्म की तरह गोलोक विराजित है।

तीन करोड़ योजन का चौतरफा जिसका विस्तार है और मण्डलाकार जिसकी आकृति है, लहलहाता हुआ साक्षात् मूर्तिमान तेज का स्वरूप है, जिसकी भूमि रत्नमय है। योगियों द्वारा स्वप्न में भी जो अदृश्य है, परन्तु जो विष्णु के भक्तों से गम्य और दृश्य है। ईश्वर ने योग द्वारा जिसे धारण कर रखा है ऐसा उत्तम लोक अन्तरिक्ष में स्थित है।

आधि, व्याधि, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, भय आदि से रहित है, श्रेष्ठ रत्नों से भूषित असंख्य मकार्नो से शोभित है। उस गोलोक के नीचे पचास करोड़ योजन के विस्तार के भीतर दाहिने बैकुण्ठ और बाँयें उसी के समान मनोहर शिवलोक स्थित है। एक करोड़ योजन विस्तार के मण्डल का बैकुण्ठ, शोभित है, वहाँ सुन्दर पीताम्बरधारी वैष्णव रहते हैं।

उस बैकुण्ठ के रहने वाले शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुए लक्ष्मी के सहित चतुर्भुज हैं। उस बैकुण्ठ में रहने वाली स्त्रियाँ, बजते हुए नूपुर और करधनी धारण की हैं, सब लक्ष्मी के समान रूपवती हैं।

गोलोक के बाँयें तरफ जो शिवलोक है उसका करोड़ योजन विस्तार है और वह प्रलयशून्य है सृष्टि में पार्षदों से युक्त रहता है। बड़े भाग्यवान्‌ शंकर के गण जहाँ निवास करते हैं, शिवलोक में रहने वाले सब लोग सर्वांग भस्म धारण किये, नाग का यज्ञोपवीत पहने रहते हैं। अर्धचन्द्र जिनके मस्तक में शोभित है, त्रिशूल और पट्टिशधारी, सब गंगा को धारण किये वीर हैं और सबके सब शंकर के समान जयशाली हैं।

गोलोक के अन्दर अति सुन्दर एक ज्योति है। वह ज्योति परम आनन्द को देने वाली और बराबर परमानन्द का कारण है। योगी लोग बराबर योग द्वारा ज्ञानचक्षु से आनन्द जनक, निराकार और पर से भी पर उसी ज्योति का ध्यान करते हैं। उस ज्योति के अन्दर अत्यन्त सुन्दर एक रूप है जो कि नीलकमल के पत्तों के समान श्याम, लाल कमल के समान नेत्र वाले करोड़ों शरत्पूर्णिमा के चन्द्र के समान शोभायमान मुख वाले, करोड़ों कामदेव के समान सौन्दर्य की, लीला का सुन्दर धाम दो भुजा वाले, मुरली हाथ में लिए, मन्दहास्य युक्त, पीताम्बर धारण किए, श्रीवत्स चिह्न से शोभित वक्षःस्थल वाले, कौस्तुभमणि से सुशोभित, करोड़ों उत्तम रत्नों से जटित चमचमाते किरीट और कुण्डलों को धारण किये, रत्नों के सिंहासन पर विराजमान्‌, वनमाला से सुशोभित।

वही श्रीकृष्ण नाम वाले पूर्ण परब्रह्म हैं। अपनी इच्छा से ही संसार को नचाने वाले, सबके मूल कारण, सबके आधार, पर से भी परे छोटी अवस्था वाले, निरन्तर गोपवेष को धारण किये हुए, करोड़ों पूर्ण चन्द्रों की शोभा से संयुक्त, भक्तों के ऊपर दया करने वाले निःस्पृह, विकार रहित, परिपूर्णतम, स्वामी रासमण्डप के बीच में बैठे हुए, शान्त स्वरूप, रास के स्वामी, मंगलस्वरूप, मंगल करने के योग्य, समस्त मंगलों के मंगल, परमानन्द के राजा, सत्यरूप, कभी भी नाश न होने वाले विकार रहित, समस्त सिद्धों के स्वामी, सम्पूर्ण सिद्धि के स्वरूप, अशेष सिद्धियों के दाता, माया से रहित, ईश्वनर, गुणरहित, नित्यशरीरी, आदिपुरुष, अव्यक्त, अनेक हैं नाम जिनके,

अनेकों द्वारा स्तुति किए जाने वाले, नित्य, स्वतन्त्र, अद्वितीय, शान्त स्वरूप, भक्तों को शान्ति देने में परायण ऐसे परमात्मा के स्वरूप को शान्तिप्रिय, शान्त और शान्ति परायण जो विष्णुभक्त हैं वे ध्यान करते हैं। इस प्रकार के स्वरूप वाले भगवान्‌ कहे जाने वाले, वही एक आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र हैं।’

श्रीनारायण बोले, ‘ऐसा कहकर भगवान्, सत्त्व स्वरूप विष्णु अधिमास को साथ लेकर शीघ्र ही परब्रह्मयुक्त गोलोक में पहुँचे।’

सूतजी बोले, ‘ऐसा कहकर सत्क्रिया को ग्रहण किये हुए नारायण मुनि के चुप हो जाने पर आनन्द सागर पुरुषोत्तम से विविध प्रकार की नयी कथाओं को सुनने की इच्छा रखने वाले नारद मुनि उत्कण्ठा पूर्वक बोले।’

इति श्रीबृहन्नारदीय पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: छठा अध्याय  (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 6)

नारदजी बोले, ‘भगवान् गोलोक में जाकर क्या करते हैं ? हे पापरहित! मुझ श्रोता के ऊपर कृपा करके कहिये।’

श्रीनारायण बोले, ‘हे नारद! पापरहित! अधिमास को लेकर भगवान् विष्णु के गोलोक जाने पर जो घटना हुई वह हम कहते हैं, सुनो।उस गोलोक के अन्दर मणियों के खम्भों से सुशोभित, सुन्दर पुरुषोत्तम के धाम को दूर से भगवान् विष्णु देखते हैं। उस धाम के तेज से बन्द हुए नेत्र वाले विष्णु धीरे-धीरे नेत्र खोलकर और अधिमास को अपने पीछे कर धीरे-धीरे धाम की ओर जाते हैं। अधिमास के साथ भगवान् के मन्दिर के पास जाकर विष्णु अत्यन्त प्रसन्न हुए और उठकर खड़े हुए द्वारपालों से अभिनन्दित भगवान् विष्णु पुरुषोत्तम भगवान् की शोभा से आनन्दित होकर धीरे-धीरे मन्दिर में गये और भीतर जाकर शीघ्र ही श्रीपुरुषोत्तम कृष्ण को नमस्कार करते हैं।

गोपियों के मण्डल के मध्य में रत्नमय सिंहासन पर बैठे हुए कृष्ण को नमस्कार कर पास में खड़े होकर विष्णु बोले।

श्रीविष्णु बोले, ‘गुणों से अतीत, गोविन्द, अद्वितीय, अविनाशी, सूक्ष्म, विकार रहित, विग्रहवान, गोपों के वेष के विधायक, छोटी अवस्था वाले, शान्त स्वरूप, गोपियों के पति, बड़े सुन्दर, नूतन मेघ के समान श्याम, करोड़ों कामदेव के समान सुन्दर, वृन्दावन के अन्दर रासमण्डल में बैठने वाले पीतरंग के पीताम्बर से शोभित, सौम्य, भौंहों के चढ़ाने पर मस्तक में तीन रेखा पड़ने से सुन्दर आकृति वाले, रासलीला के स्वामी, रासलीला में रहने वाले, रासलीला करने में सदा उत्सुक, दो भुजा वाले, मुरलीधर, पीतवस्त्रधारी, अच्युत, ऐसे भगवान् की मैं वन्दना करता हूँ।’ इस प्रकार स्तुति करके भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार कर, पार्षदों द्वारा सत्कृत विष्णु रत्नतसिंहासन पर कृष्ण की आज्ञा से बैठे।

श्रीनारायण बोले, ‘यह विष्णु का किया हुआ स्तोत्र प्रातःकाल उठ कर जो पढ़ता है उसके समस्त पाप नाश हो जाते हैं और अनिष्ट स्वप्न भी अच्छे फल को देते हैं, और पुत्रपौत्रादि को बढ़ाने वाली भक्ति श्रीगोविन्द में होती है, आकीर्ति का नाश होकर सत्कीर्ति की वृद्धि होती है।

भगवान् विष्णु बैठ गये और कृष्ण के आगे काँपते हुए अधिमास को कृष्ण के चरण कमलों में नमन कराते हैं।

तब श्रीकृष्ण ने विष्णु से पूछा कि यह कौन है? कहाँ से यहाँ आया है ? क्यों रोता है ? इस गोलोक में तो कोई भी दुःखभागी होता नहीं है। इस गोलोक में रहने वाले तो सर्वदा आनन्द में मग्न रहते हैं। ये लोग तो स्वप्न में भी दुष्टवार्ता या दुःखभरा समाचार सुनते ही नहीं। अतः हे विष्णो! यह क्यों काँपता है और आँखों से आँसू बहाता दुःखित हमारे सम्मुख किस लिये खड़ा है ?’

श्रीनारायण बोले, ‘नवीन मेघ के समान श्यामसुन्दर, गोलोक के नाथ का वचन सुन, सिंहासन से उठकर महाविष्णु मलमास की सम्पूर्ण दुःख-गाथा कहते हुए बोले।’

श्रीविष्णु बोले, ‘हे वृन्दावन की शोभा के नाथ! हे श्रीकृष्ण! हे मुरलीधर! इस अधिमास के दुःख को आपके सामने कहता हूँ, आप सुने। इसके दुःखित होने के कारण ही स्वामी रहित अधिमास को लेकर मैं आपके पास आया हूँ, इसके उग्र दुःखरूप अग्नि को आप शान्त करें। यह अधिमास सूर्य की संक्रान्ति से रहित है, मलिन है, शुभकर्म में सर्वदा वर्जित है। स्वामी रहित मास में स्नान आदि नहीं करना चाहिये, ऐसा कहकर वनस्पति आदिकों ने इसका निरादर किया है।

द्वादश मास, कला, क्षण, अयन, संवत्सर आदि सेश्विरों ने अपने-अपने स्वामी के गर्व से इसका अत्यन्त निरादर किया। इसी दुःखाग्नि से जला हुआ यह मरने के लिये तैयार हुआ, तब अन्य दयालु व्यक्तियों द्वारा प्रेरित होकर, हे हृषीकेश! शरण चाहने की इच्छा से हमारे पास आया और काँपते-काँपते घड़ी-घड़ी रोते-रोते अपना सब दुःखजाल इसने कहा। इसका यह बड़ा भारी दुःख आपके बिना टल नहीं सकता, अतः इस निराश्रय का हाथ पकड़कर आपकी शरण में लाया हूँ।

‘दूसरों का दुःख आप सहन नहीं कर सकते हैं’ ऐसा वेद जानने वाले लोग कहते हैं। अतएव इस दुःखित को कृपा करके सुख प्रदान कीजिये। हे जगत्पते! ‘आपके चरणकमलों में प्राप्त प्राणी शोक का भागी नहीं होता है’ ऐसा वेद जाननेवालों का कहना कैसे मिथ्या हो सकता है? मेरे ऊपर कृपा करके भी इसका दुःख दूर करना आपका कर्तव्य है क्योंकि सब काम छोड़कर इसको लेकर मैं आया हूँ मेरा आना सफल कीजिये। ‘बारम्बार स्वामी के सामने कभी भी कोई विषय न कहना चाहिये’ ऐसी नीति के जानने वाले बड़े-बड़े पण्डित सर्वदा कहा करते हैं।’

इस प्रकार अधिमास का सब दुःख भगवान् कृष्ण से कहकर हरि, कृष्ण के मुखकमल की ओर देखते हुए कृष्ण के पास ही हाथ जोड़ कर खड़े हो गये।

ऋषि लोग बोले, ‘हे सूतजी! आप दाताओं में श्रेष्ठ हैं आपकी दीर्घायु हो, जिससे हम लोग आपके मुख से भगवान् की लीला के कथारूप अमृत का पान करते रहें। हे सूत! गोलोकवासी भगवान् कृष्ण ने विष्णु के प्रति फिर क्या कहा ? और क्या किया ? इत्यादि लोकोपकारक विष्णु-कृष्ण का संवाद सब आप हम लोगों से कहिये।

परम भगवद्भक्त नारद ने नारायण से क्या पूछा ? हे सूत! इसको आप इस समय हम लोगों से कहिये। नारद के प्रति कहा हुआ भगवान्‌ का वचन तपस्वियों के लिये परम औषध है।’

इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये षष्ठोऽध्यायः ॥६॥

॥ हरिः शरणम् ॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: सातवां अध्याय  (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 7) 

सूतजी बोले, ‘हे तपोधन! आप लोगों ने जो प्रश्न किया है वही प्रश्न नारद ने नारायण से किया था सो नारायण ने जो उत्तर दिया वही मैंआप लोगों से कहता हूँ।’नारदजी बोले, ‘विष्णु ने अधिमास का अपार दुःख निवेदन करके जब मौन धारण किया तब हे बदरीपते! पुरुषोत्तम ने क्या किया ? सो इस समय आप हमसे कहिये।

श्रीनारायण बोले, ‘हे वत्स! गोलोकनाथ श्रीकृष्ण ने विष्णु के प्रति जो कहा वह अत्यन्त गुप्त है परन्तु भक्त, आस्तिक, सेवक, दम्भरहित, अधिकारी पुरुष को कहना चाहिये। अतः मैं सब कहता हूँ सुनो।

यह आख्यान सत्कीर्ति, पुण्य, यश, सुपुत्र का दाता, राजा को वश में करने वाला है और दरिद्रता को नाश करने वाला एवं बड़े पुण्यों से सुनने को मिलता है। जिस प्रकार इसको सुने उसी प्रकार अनन्य भक्ति से सुने हुए कर्मों को करना भी चाहिये।’

श्रीपुरुषोत्तम बोले, ‘हे विष्णो! आपने बड़ा अच्छा किया जो मलमास को लेकर यहाँ आये। इससे आप लोक में कीर्ति पावेंगे। आपने जिसका उद्धार स्वीकार किया, उसको हमने ही स्वीकार किया, ऐसा समझें। अतः इसको हम अपने समान सर्वोपरि करेंगे। गुणों से, कीर्ति के अनुभाव से, षडैश्वयर्य से, पराक्रम से, भक्तों को वर देने से और भी जो मेरे गुण हैं, उनसे मैं पुरुषोत्तम जैसे लोक में प्रसिद्ध हूँ। वैसे ही यह मलमास भी लोकों में पुरुषोत्तम करके प्रसिद्ध होगा। मेरे में जितने गुण हैं वे सब आज से मैंने इसे दे दिये। पुरुषोत्तम जो मेरा नाम लोक तथा वेद में प्रसिद्ध है, वह भी आपकी प्रसन्नता का अर्थ आज मैंने इसे दे दिया। हे मधुसूदन! आज से मैं इस अधिमास का स्वामी भी हुआ।

इसके पुरुषोत्तम इस नाम से सब जगत् पवित्र होगा। मेरी समानता पाकर यह अधिमास सब मासों का राजा होगा। यह अधिमास जगत्पूज्य एवं जगत् से वन्दना करवाने के योग्य होगा। इसकी पूजा और व्रत जो करेंगे उनके दुःख और दारिद्रय का नाश होगा। चैत्रादि सब मास सकाम हैं इसको हमने निष्काम किया है। इसको हमने अपने समान समस्त प्राणियों को मोक्ष देने वाला बनाया है। जो प्राणी सकाम अथवा निष्काम होकर अधिमास का पूजन करेगा वह अपने सब कर्मों को भस्म कर निश्चय मुझको प्राप्त होगा।

जिस परम पद-प्राप्ति के लिये बड़े भाग्यवाले, यति, ब्रह्मचारी लोग तप करते हैं और महात्मा लोग निराहार व्रत करते हैं एवं दृढ़व्रत लोग फल, पत्ता, वायु-भक्षण कर रहते हैं और काम, क्रोध रहित जितेन्द्रिय रहते हैं वे, और वर्षाकाल में मैदान में रहने वाले, जाड़े में शीत, गरमी में धूप सहन करने वाले, मेरे पद के लिये यत्न करते रहते हैं, हे गरुडध्वज! तब भी वे मेरे अव्यय परम पद को नहीं प्राप्त होते हैं, परन्तु पुरुषोत्तम के भक्त एक मास के ही व्रत से बिना परिश्रम जरा, मृत्यु रहित उस परम पद को पा लेंगे।

यह अधिमास व्रत सम्पूर्ण साधनों में श्रेष्ठ साधन है और समस्त कामनाओं के फल की सिद्धि को देने वाला है। अतः इस पुरुषोत्तम मास का व्रत सबको करना चाहिये। हल से खेत में बोये हुए बीज जैसे करोड़ों गुणा बढ़ते हैं तैसे मेरे पुरुषोत्तम मास में किया हुआ पुण्य करोड़ों गुणा अधिक होता है।

कोई चातुर्मास्यादि यज्ञ करने से स्वर्ग में जाते हैं, वह भी भोगों को भोगकर पृथ्वी पर आते हैं। परन्तु जो पुरुष आदर से विधिपूर्वक अधिमास का व्रत करता है वह अपने समस्त कुल का उद्धार कर मेरे में मिल जाता है इसमें संशय नहीं है। मुझे प्राप्त होकर प्राणी पुनः जन्म, मृत्यु, भय से युक्त एवं आधि, व्याधि और जरा से ग्रस्त संसार में फिर नहीं आता। जहाँ जाकर फिर पतन नहीं होता सो मेरा परम धाम है, ऐसा जो वेदों का वचन है वह सत्य है, असत्य कैसे हो सकता है ?

यह अधिमास और इसका स्वामी मैं ही हूँ और मैंने ही इसे बनाया है और ‘पुरुषोत्तम’ यह जो मेरा नाम है सो भी मैंने इसे दे दिया है। अतः इसके भक्तों की मुझे दिन-रात चिन्ता बनी रहती है। उसके भक्तों की मनःकामनाओं को मुझे ही पूर्ण करना पड़ता है। कभी-कभी मेरे भक्तों का अपराध भी गणना में आ जाता है, परन्तु पुरुषोत्तम मास के भक्तों का अपराध मैं कभी नहीं गिनता।

हे विष्णो! मेरी आराधना से मेरे भक्तों की आराधना करना मुझे प्रिय है। मेरे भक्तों की कामना पूर्ण करने में मुझे कभी देर भी हो जाती है, किन्तु मेरे मास के जो भक्त हैं उनकी कामना पूर्ण करने में मुझे कभी भी विलम्ब नहीं होता है। मेरे मास के जो भक्त हैं वे मेरे अत्यन्त प्रिय हैं। जो मनुष्य इस अधिमास में जप, दान नहीं करते वे महामूर्ख हैं और जो पुण्य कर्मरहित प्राणी स्नान भी नहीं करते एवं देवता, तीर्थ द्विजों से द्वेष करते हैं। वे दुष्ट अभागी और दूसरे के भाग्य से जीवन चलने वाले होते हैं। जिस प्रकार खरगोश के सींग कदापि नहीं होते वैसे ही अधिमास में स्नानादि न करने वालों को स्वप्न में भी सुख प्राप्त नहीं होता है। जो मूर्ख मेरे प्रिय मलमास का निरादर करते हैं और मलमास में धर्माचरण नहीं करते वे सर्वदा नरकगामी होते हैं।

प्रति तीसरे वर्ष पुरुषोत्तम मास प्राप्त होने पर जो प्राणी धर्म नहीं करते वे कुम्भीपाक नरक में गिरते हैं, और इस लोक में दुःख रूप अग्नि में बैठे स्त्री, पुत्र, पौत्र आदिकों से उत्पन्न बड़े भारी दुःखों को भोगते हैं। जिन प्राणियों को यह मेरा पुण्यतम पुरुषोत्तम मास अज्ञान से व्यतीत हो जाय वे प्राणी कैसे सुखों को भोग सकते हैं?

जो भाग्यशालिनी स्त्रियाँ सौभाग्य और पुत्र-सुख चाहने की इच्छा से अधिमास में स्नान, दान, पूजनादि करती हैं, उन्हें सौभाग्य, सम्पूर्ण सम्पत्ति और पुत्रादि यह अधिमास देता है। जिनका यह मेरे नामवाला पुरुषोत्तम मास दानादि से रहित बीत जाता है, उनके अनुकूल मैं नहीं रहता और न उन्हें पति-सुख प्राप्त होता है, भाई, पुत्र, धनों का सुख तो उसे स्वप्न में भी दुर्लभ है। अतः विशेष करके सब प्राणियों को अधिमास में स्नान, पूजा, जप आदि और विशेष करके शक्ति के अनुसार दान अवश्य कर्तव्य है।

जो मनुष्य इस पुरुषोत्तम मास में भक्तिपूर्वक मेरा पूजन करते हैं वे धन, पुत्र और अनेक सुखों को भोगकर पुनः गोलोक के वासी होते हैं। मेरी आज्ञा से सब जन मेरे अधिमास का पूजन करेंगे। मैंने सब मासों से उत्तम मास इसे बनाया है। इसलिये अधिमास की चिन्ता त्याग कर हे रमापते आप इस अतुलनीय पुरुषोत्तम मास को साथ लेकर अपने बैकुण्ठ में जाओ।’

श्रीनारायण बोले, ‘इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से रसिक वचन श्रवण कर विष्णु, अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक इस मलमास को अपने साथ लेकर, नूतन जलधर के समान श्याम भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम कर, गरुड़ पर सवार हो शीघ्र बैकुण्ठ के प्रति चल दिये।

इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये सप्तमोऽध्यायः ॥७॥

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा आठवां अध्याय 

(Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 8)

सूतजी बोले, ‘हे तपोधन! विष्णु और श्रीकृष्ण के संवाद को सुन सन्तुष्टमन नारद, नारायण से पुनः प्रश्न करने लगे।

नारदजी बोले, ‘हे प्रभो! जब विष्णु बैकुण्ठ चले गये तब फिर क्या हुआ? कहिये। आदिपुरुष कृष्ण और हरिसुत का जो संवाद है वह सब प्राणियों को कल्याणकर है।’

इस प्रकार प्रश्न् सुन फिर भगवान् बदरीनारायण जगत् को आनन्द देने वाला बृहत् आख्यान कहने लगे।

श्रीनारायण बोले, ‘तदनन्तर विष्णु बड़े प्रसन्न होकर बैकुण्ठ गये और वहाँ जाकर हे नारद! अधिमास को अपने पास ही बसा लिया अधिमास बैकुण्ठ में वास पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और बारहों मासों का राजा होकर विष्णु के साथ रहने लगा। बारहों मासों में मलमास को श्रेष्ठ बनाकर विष्णु मन से सन्तुष्ट हुए।

हे मुने! अनन्तर भक्तों के ऊपर कृपा करने वाले भगवान् युधिष्ठिर और द्रौपदी की ओर देखते हुए, कृपा करके अर्जुन से यह बोले।’

श्रीकृष्ण बोले, ‘हे राजशार्दूल! हमको मालूम होता है कि तपोवन में आकर आप लोगों ने दुःखित होने के कारण पुरुषोत्तम मास का आदर नहीं किया। वृन्दावन की शोभा के नाथ भगवान् का प्रियपात्र पुरुषोत्तम मास आप वनवासियों का प्रमाद से व्यतीत हो गया। भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण के भय से सन्त्रस्त मन आप सब लोगों ने भय और द्वेष से मुक्त होने के कारण प्राप्त पुरुषोत्तम मास का ध्यान नहीं किया।

कृष्णद्वैपायन व्यासदेव से प्राप्त विद्या के आराधन में तत्पर, रणवीर अर्जुन के इन्द्रकील पर्वत पर चले जाने पर उसके वियोग से दुःखित आप लोगों ने पुरुषोत्तम मास को नहीं जाना। अब यदि आप यह पूछें कि हम क्या करें? तो मैं यही कहूँगा कि भाग्य का अवलम्बन करो। पुरुषों का जैसा अदृष्ट होता है वैसा ही सदा भासता है। भाग्य से उत्पन्न जो फल है वह अवश्य ही भोगना पड़ता है। सुख, दुःख भय, कुशलता इत्यादि भाग्यानुसार ही मनुष्यों को प्राप्त होते हैं। अतः अदृष्ट पर विश्वास रखने वाले आप लोगों को अदृष्ट पर निर्भर रहना चाहिये।

अब इसके बाद आप लोगों के दुःख का दूसरा कारण और बड़ा आश्चर्यजनक इतिहास के सहित कहते हैं, ‘हे महाराज! हमारे मुख से कहा हुआ सुनो।

श्रीकृष्ण बोले, ‘यह भाग्यशालिनी द्रौपदी पूर्व जन्म में बड़ी सुन्दरी मेधावी ऋषि के घर में उत्पन्न हुई थी। समय व्यतीत होने पर जब १० वर्ष की हुई तब क्रम से रूप और लावण्य से युक्त, अति सुन्दरी और आकर्णान्त नेत्र से शोभायमान हुई। चातुर्य गुण से युक्त यह अपने पिता की एकमात्र इकलौती कन्या थी। अतः चतुरा, गुणवती, सुन्दरी, यह पिता की बड़ी लाड़ली थी।

मेधावी ने सदा लड़के की तरह इसे माना, कभी भी अनादर नहीं किया। यह भी साहित्यशास्त्र में पण्डिता और नीतिशास्त्र में भी प्रवीणा थी। इसकी माता इसकी छोटी अवस्था में ही मर गई थी, पिता ने ही प्रसन्नता पूर्वक पाला-पोसा था। पास में रहने वाली अपनी सखी के पुत्र-पौत्रादि सुख को देख इसको भी स्पृहा हुई, और तब यह सोचने लगी कि हमें भी यह सुख कैसे प्राप्त होगा? गुण और भाग्य का निधि, सुख देने वाला पति और सत्पुत्र कैसे होंगे ?

इस प्रकार मनोरथ विचारती हुई सोचने लगी कि पहले मेरा विवाह उपस्थित था, परन्तु भाग्य ने बिगाड़ दिया। अब क्या करने से अथवा क्या जानने से एवं किस देवता की उपासना करने से या किस मुनि के शरण जाने से अथवा किस तीर्थ का आश्रय करने से मेरी मनःकामना पूर्ण होगी। मेरा भाग्य कैसा सो गया कि कोई भी पति मुझको वरण नहीं करता है।

पण्डित भी मेरा पिता मेरे ही दुर्भाग्य से मूर्ख हो गया है, बड़ा आश्चर्य है! विवाह का समय उपस्थित होने पर भी मेरे समान वर को पिता ने नहीं दिया। मैं अपनी सहेलियों के बीच में प्रमुख हूँ, परन्तु कुमारी होने के कारण पति दुःख से पीड़ित हूँ। जैसे मेरी सखियाँ पति-सुख को भोगनेवाली हैं वैसे मैं नहीं हूँ। मेरी भाग्यवती माता क्यों पहले मर गयी? इस प्रकार चिन्ता से व्याकुल कन्या, मनोरथ रूप समुद्र के मोहरूप जल में निमग्न हो शोकमोहरूप लहरों से पीड़ित हो गई। इसके पिता मेधावी ऋषि भी कन्यादान के लिये कन्या के समान वर ढूँढ़ने के हेतु देश-विदेश भ्रमण करने के लिये निकले, परन्तु कन्या के अनुरूप वर न मिलने से अपने मनोरथ में निराश हुए।

कन्या के और अपने भाग्य से कन्या-दानरूप संकल्प के पूर्ण न होने से, दैवयोग के कारण बड़ा भारी दारुण ज्वर उन्हें आ गया। सब अंग ऐसे फूटने लगे जैसे समस्त अंग टूट-टूट कर अलग हो जायँगे और ज्वर की ज्वाला से व्याकुल हुए श्वासोच्छ्वास लेते महादारुण मूर्च्छा से मदिरा पान से उन्मत्त की तरह पैर लड़खड़ाते गिरते-पड़ते किसी तरह घर में आये और आते ही पृथ्वी पर गिर पड़े।

भय से विह्वल कन्या जब तक पिता को देखने आये तब तक कन्या को स्मरण करते हुए मेधावी मुनि मरणासन्न हो गये। भाग्य के फलरूप बल से एकाएक काँपने लगे और कन्या-दान प्रसंग से उठा हुआ जो महोत्सव था वह जाता रहा।

तदनन्तर पहले किये हुए गृहस्थाश्रम धर्म के परिश्रम के प्रभाव से संसारवासना को त्याग कर भगवान् में चित्त को लगाने लगे। उस मुमूर्षु मेधावी ऋषि ने शीघ्र ही नीलकमल के समान श्याम, त्रिवलि से सुन्दर आकृति वाले श्रीपुरुषोत्तम हरि का स्मरण किया, हे रास के स्वामी हे राधारमण हे प्रचण्ड भुजदण्ड से दूर से ही देवताओं के शत्रु दैत्य को मारने वाले हे अति उग्र दावानल को पान कर जाने वाले हे कुमारी गोपिकाओं के उतारे हुए वस्त्रों को हरण करने वाले हे श्रीकृष्ण हे गोविन्द हे हरे हे मुरारे हे राधेश हे दामोदर हे दीनानाथ मुझ संसार में निमग्न की रक्षा कीजिये। इन्द्रियों के ईश्वार आपको प्रणाम है।

इस प्रकार मेधावी के वचनों को दूर से ही सुन कर श्रीभगवान् के दूत चट-पट मुकुन्द लोक से आये और उस मरे हुए मुनि को हाथ से पकड़ कर ईश्वर के चरणकमलों में ले गये।

इस प्रकार अपने पिता के प्राणों को निकलता देख वह कन्या हाहाकार करके रोने लगी और पिता के शरीर को अपनी गोद में रखकर अति दुःख से विलाप करने लगी। चील्ह पक्षी की तरह बहुत देर तक विलाप करके अत्यन्त दुःख से विह्नल हुई और पिता को जीवित की तरह समझ कर बोली।

बाला बोली, ‘हाय-हाय हे पिता! हे कृपासिन्धो! हे अपनी कन्या को सुख देने वाले! मुझे आज किसके पास छोड़ कर आप बैकुण्ठ सिधारे हैं ? हे तात! पितृहीन मेरी कौन रक्षा करेगा? आज मेरे भाई, बन्धु, माता आदि कोई भी नहीं है। हे तात! मेरे भोजन, वस्त्र की चिन्ता कौन करेगा ? कैसे मैं रहूँगी, इस शून्य, वेद-ध्वनि-रहित निर्जन वन की तरह आपके घर में। हे मुनिश्रेष्ठ! अब मैं मर जाऊँगी ऐसे जीने में क्या रक्खा है ?

हे कन्या में प्रेम रखने वाले पिता! हे तात! विवाहविधि बिना किए ही आप कहाँ चले गये ? हे तपोनिधे! अब यहाँ आइये और अमृत के समान मधुर भाषण कीजिए। क्यों आप चुप हो गये! हे तात! बहुत देर से आप सोये हुए हैं अब जागिये।’

ऐसा कहकर आँसू बहाती हुई घड़ी-घड़ी कन्या विलाप करने लगी और पिता के मरने से दुःखित हुई आर्ता, चील्ह पक्षी की तरह मुक्तकण्ठ से रोने लगी। उस लड़की का रोदन सुन उस वन में रहने वाले ब्राह्मण आपस में कहने लगे कि इस तपोवन में अत्यन्त करुण शब्द से कौन रो रहा है ?

ऐसा कहकर सब तपस्वी चुप होकर ‘यह मेधावी ऋषि की कन्या का शब्द है’ ऐसा निश्चय कर घबड़ाये हुए हाहाकार करते मेधावी के घर में आये। और वहाँ आकर सबने कन्या के गोद में मरे हुए मेधावी ऋषि को देखा और देख कर उस वन के रहने वाले सब मुनि भी रोने लगे।

कन्या की गोद से शव को लेकर शिव मन्दिर के पास श्मशान पर गये। वहाँ काष्ठ की चिता लगाकर विधि से अन्त्येष्टि कर्मकर उसका दाह किये। दाह के अनन्तर कन्या को समझा कर सब ऋषि अपने-अपने आश्रम गये। इधर कन्या भी धैर्य धारण कर यथाशक्ति क्रिया के लिए द्रव्य खर्च किया।

इस प्रकार पिता की मरण-क्रिया को करके कन्या इसी तपोवन में निवास करने लगी और पिता के मरणरूप दुःखाग्नि से जली हुई रम्भा की तरह व्यथित होती हुई एवं बछड़े के मर जाने से जैसे गौ चिल्लाती है और खाती नहीं दुर्बल होती है वैसे ही यह बाला भी दुःखित हुई।

इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये अष्टमोऽध्यायः॥८॥

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा नौवां अध्याय 

(Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 9)

सूतजी बोले, ‘तदनन्तर विस्मय से युक्त नारद मुनि ने मेधावी ऋषि की कन्या का अद्‌भुत वृत्तान्त पूछा।

नारदजी बोले, ‘हे मुने! उस तपोवन में मेधावी की कन्या ने बाद में क्या किया? और किस मुनिश्रेष्ठ ने उसके साथ विवाह किया ?

श्रीनारायण बोले, ‘अपने पिता को स्मरण करते-करते और बराबर शोक करते-करते उस घर में कुछ काल उस कन्या का व्यतीत हुआ। यूथ से भ्रष्ट हुई हरिणी की तरह घबड़ाई, शून्य घर में रहनेवाली, दुःखरूप अग्नि से उठी हुई भाफ द्वारा बहते हुए अश्रुनेत्र वाली, जलते हुए हृत् कमल वाली, दुःख से प्रतिक्षण गरम श्वास लेनेवाली, अतिदीना, घिरी हुई सर्पिणी की तरह अपने घर में संरुद्ध, अपने दुःख को सोचती और दुःख से मुक्त होने के उपाय को न देखती हुई उस कृशोदरी को उसके शुभ भविष्य की प्रेरणा से सान्त्वना देने के लिए उस वन में अपनी इच्छा से ही परक्रोधी, ‘जिनको देखने से ही इन्द्र भयभीत होते हैं, ‘ऐसे, जटा से व्याप्त, साक्षात्‌ शंकर के समान भगवान्‌ दुर्वासा ऋषि आये।

हे नारद! भगवान्‌ कृष्ण ने राजा युधिष्ठिर से कहा कि हे राजेन्द्र! वह दुर्वासा आये जिसको कि आपकी माता कुन्ती ने बालापन में प्रसन्न किया था। तब उन सुपूजित महर्षि ने देवताओं को आकर्षण करने वाली विद्या उन्हें दी और हे भूपाल! जिन्होंने सब देवताओं से नमस्कार किए जाने वाले मुझको भी रुक्मिणी के साथ रथ में बैलों की जगह जोता।

दुर्वासा को बैठाकर रथ खींचते हुए जब हम दोनों मार्ग चलने लगे तब चलते-चलते मार्ग में अति तीव्र प्यास से सूख गये थे तालु और ओष्ठ जिस रुक्मिणी के ऐसी जल चाहने वाली रुक्मिणी ने जब मुझे सूचित किया तब कन्धे पर रथ की जोत को रखे हुए चलते-चलते ही पाँव के अग्रभाग से पृथ्वी को दबा कर रुक्मिणी के प्रेम के वशीभूत मैंने भोगवती नाम की नदी को उत्पन्न किया। तब वही भोगवती ऊपर से बहने लगी।

अनन्तर उसी के जल से, हे महाराज! रुक्मिणी की प्यास को मैंने बुझाया। इस प्रकार रुक्मिणी की प्यास का बुझना देख उसी क्षण अग्नि की तरह दुर्वासा क्रोध से जलने लगे और प्रलय की अग्नि के समान उठकर दुर्वासा ने शाप दिया। बोले, ‘बड़ा आश्चर्य है, हे श्रीकृष्ण! रुक्मिणी तुमको सदा अत्यन्त प्रिय है, अतः स्त्री के प्रेम से युक्त तुमने मेरी अवज्ञा कर अपना महत्व दिखलाते हुए इस प्रकार से उसे पानी पिलाया। अतः तुम दोनों का वियोग होगा, इस प्रकार उन्होंने शाप दिया था।

हे युधिष्ठिर! वही यह दुर्वासा मुनि हैं। साक्षात्‌ रुद्र के अंश से उत्पन्न, दूसरे कालरुद्र की तरह, महर्षि अत्रि के उग्र तपरूप कल्पवृक्ष के दिव्य फल। पतिव्रताओं के सिर के रत्न, अनुसूया भगवती के गर्भ से उत्पन्न, अत्यन्त मेधायुक्त दुर्वासा नाम के ऋषि।

अनेक तीर्थों के जल से भींगी हुई जटा से भूषित सिर वाले, साक्षात्‌ तपोमूर्ति दुर्वासा ऋषि को आते देखकर कन्या ने शोकसागर से निकल कर धैर्य से मुनि के चरणों में प्रार्थना की। प्रार्थना करने के बाद जैसे बाल्मीकि ऋषि को जानकी अपने आश्रम में लाई थीं वैसे ही यह भी दुर्वासा को अपने घर में लाकर अर्ध्य, पाद्य और विविध प्रकार के जंगली फलों और पुष्पों से स्वागत के लिए आज्ञा लेकर आदरपूर्वक पूजन कर तदनन्तर हे राजन्‌! यह बाला बोली।

कन्या बोली, ‘हे महाभाग! हे अत्रि कुल के सूर्य! आपको प्रणाम है। हे साधो! मेरी अभाग्या के घर में आज आपका शुभागमन कैसे हुआ? हे मुने! आपके आगमन से आज मेरा भाग्योदय हुआ है अथवा मेरे पिता के पुण्य के प्रवाह से प्रेरित मुझे सान्त्वना देने के लिये ही आप मुनिसत्तम आये हैं। आप जैसे महात्माओं के पाँव की धूल जो है वह तीर्थरूप है उस धूल का स्पर्श करने वाली मैं अपना जन्म आज सफल कर सकी हूँ, आज मेरा व्रत भी सफल है। आप जैसे पुण्यात्मा के जो मुझे आज दर्शन हुए। अतः आज मेरा उत्पन्न होना और मेरा पुण्य सफल है।’

ऐसा कहकर वह कन्या दुर्वासा के सामने चुपचाप खड़ी हो गयी। तब भगवान्‌ शंकर के अंश से उत्पन्न दुर्वासा मुनि मन्द हास्य युक्त बोले।

दुर्वासा बोले, ‘हे द्विजसुते! तू बड़ी अच्छी है तूने अपने पिता के कुल को तार दिया। यह मेधावी ऋषि के तप का फल है। जो उन्हें तेरी ऐसी कन्या उत्पन्न हुई। तेरी धर्म में तत्परता जान कैलास से मैं यहाँ आया और तेरे घर आकर तेरे द्वारा मेरा पूजन हुआ।

हे वरारोहे! मैं शीघ्र ही बदरिकाश्रम में मुनीश्वर सनातन, नारायण, देव के दर्शन के लिये जाऊँगा जो प्राणियों के हित के लिए अत्यन्त उग्र तप कर रहे हैं।’

कन्या बोली, ‘हे ऋषे! आपके दर्शन से ही मेरा शोकसमुद्र सूख गया। अब इसके बाद मेरा भविष्य उज्ज्वल है; क्योंकि आपने मुझे सान्त्वना दी, हे मुने! मेरी उस प्रादुर्भूत बड़ी भारी ज्वाला युक्त दुःख रूप अग्नि को क्या आप नहीं जानते हैं? हे दयासिन्धो! हे शंकर! उस दुःखाग्नि को शान्त कीजिये। मेरे विचार से हर्ष का कारण मुझे कुछ भी दिखलाई नहीं देता। न मुझे माता है, न पिता, न तो भाई है, जो धैर्य प्रदान करता, अतः दुःख समुद्र से पीड़ित मैं कैसे जीवित रह सकती हूँ?

जिस-जिस दिशा में मैं देखती हूँ वह-वह दिशा मुझे शून्य ही प्रतीत होती है, इसलिये हे तपोनिधे! मेरे दुःख का निस्तार आप शीघ्र करें। मेरे साथ विवाह करने के लिए कोई भी नहीं तैयार होता है। इस समय मेरा विवाह न हुआ तो मैं फिर वृषली शूद्रा हो जाऊँगी यह मुझे बड़ा भय है। इसी भय से न मुझे निद्रा आती है और न भोजन में मेरी रुचि होती है, हे ब्रह्मन्‌! अब मैं शीघ्र ही मरने वाली हूँ, यह मेरा इस समय निश्चय है।’

ऐसा कहकर आँसू बहाती हुई कन्या दुर्वासा के सामने चुप हो गयी तब दुर्वासा कन्या का दुःख दूर करने का उपाय सोचने लगे।

श्रीनारायण बोले, ‘इस प्रकार मुनि कन्या के वचन सुनकर और इसका अभिप्राय समझ कर बड़े क्रोधी मुनिराज दुर्वासा ने उस कन्या का कुछ हित विचार पूर्ण कृपा से उसे देखकर सारभूत उपाय बतलाया।

इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये नवमोऽध्यायः ॥९॥

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा दसवां अध्याय 

(Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 10)

सूतजी बोले, ‘तदनन्तर विस्मय से युक्त नारद मुनि ने मेधावी ऋषि की कन्या का अद्‌भुत वृत्तान्त पूछा।

नारदजी बोले, ‘हे मुने! उस तपोवन में मेधावी की कन्या ने बाद में क्या किया? और किस मुनिश्रेष्ठ ने उसके साथ विवाह किया?

श्रीनारायण बोले, ‘अपने पिता को स्मरण करते-करते और बराबर शोक करते-करते उस घर में कुछ काल उस कन्या का व्यतीत हुआ। यूथ से भ्रष्ट हुई हरिणी की तरह घबड़ाई, शून्य घर में रहनेवाली, दुःखरूप अग्नि से उठी हुई भाफ द्वारा बहते हुए अश्रुनेत्र वाली, जलते हुए हृत् कमल वाली, दुःख से प्रतिक्षण गरम श्वास लेनेवाली, अतिदीना, घिरी हुई सर्पिणी की तरह अपने घर में संरुद्ध, अपने दुःख को सोचती और दुःख से मुक्त होने के उपाय को न देखती हुई उस कृशोदरी को उसके शुभ भविष्य की प्रेरणा से सान्त्वना देने के लिए उस वन में अपनी इच्छा से ही परक्रोधी, ‘जिनको देखने से ही इन्द्र भयभीत होते हैं, ‘ऐसे, जटा से व्याप्त, साक्षात्‌ शंकर के समान भगवान्‌ दुर्वासा ऋषि आये।

हे नारद! भगवान्‌ कृष्ण ने राजा युधिष्ठिर से कहा कि हे राजेन्द्र! वह दुर्वासा आये जिसको कि आपकी माता कुन्ती ने बालापन में प्रसन्न किया था। तब उन सुपूजित महर्षि ने देवताओं को आकर्षण करने वाली विद्या उन्हें दी और हे भूपाल! जिन्होंने सब देवताओं से नमस्कार किए जाने वाले मुझको भी रुक्मिणी के साथ रथ में बैलों की जगह जोता।

दुर्वासा को बैठाकर रथ खींचते हुए जब हम दोनों मार्ग चलने लगे तब चलते-चलते मार्ग में अति तीव्र प्यास से सूख गये थे तालु और ओष्ठ जिस रुक्मिणी के ऐसी जल चाहने वाली रुक्मिणी ने जब मुझे सूचित किया तब कन्धे पर रथ की जोत को रखे हुए चलते-चलते ही पाँव के अग्रभाग से पृथ्वी को दबा कर रुक्मिणी के प्रेम के वशीभूत मैंने भोगवती नाम की नदी को उत्पन्न किया। तब वही भोगवती ऊपर से बहने लगी। अनन्तर उसी के जल से, हे महाराज! रुक्मिणी की प्यास को मैंने बुझाया। इस प्रकार रुक्मिणी की प्यास का बुझना देख उसी क्षण अग्नि की तरह दुर्वासा क्रोध से जलने लगे और प्रलय की अग्नि के समान उठकर दुर्वासा ने शाप दिया। बोले, ‘बड़ा आश्चर्य है,

हे श्रीकृष्ण! रुक्मिणी तुमको सदा अत्यन्त प्रिय है, अतः स्त्री के प्रेम से युक्त तुमने मेरी अवज्ञा कर अपना महत्व दिखलाते हुए इस प्रकार से उसे पानी पिलाया। अतः तुम दोनों का वियोग होगा, इस प्रकार उन्होंने शाप दिया था। हे युधिष्ठिर! वही यह दुर्वासा मुनि हैं। साक्षात्‌ रुद्र के अंश से उत्पन्न, दूसरे कालरुद्र की तरह, महर्षि अत्रि के उग्र तपरूप कल्पवृक्ष के दिव्य फल। पतिव्रताओं के सिर के रत्न, अनुसूया भगवती के गर्भ से उत्पन्न, अत्यन्त मेधायुक्त दुर्वासा नाम के ऋषि।

अनेक तीर्थों के जल से भींगी हुई जटा से भूषित सिर वाले, साक्षात्‌ तपोमूर्ति दुर्वासा ऋषि को आते देखकर कन्या ने शोकसागर से निकल कर धैर्य से मुनि के चरणों में प्रार्थना की। प्रार्थना करने के बाद जैसे बाल्मीकि ऋषि को जानकी अपने आश्रम में लाई थीं वैसे ही यह भी दुर्वासा को अपने घर में लाकर अर्ध्य, पाद्य और विविध प्रकार के जंगली फलों और पुष्पों से स्वागत के लिए आज्ञा लेकर आदरपूर्वक पूजन कर तदनन्तर हे राजन्‌! यह बाला बोली।

कन्या बोली, ‘हे महाभाग! हे अत्रि कुल के सूर्य! आपको प्रणाम है। हे साधो! मेरी अभाग्या के घर में आज आपका शुभागमन कैसे हुआ? हे मुने! आपके आगमन से आज मेरा भाग्योदय हुआ है अथवा मेरे पिता के पुण्य के प्रवाह से प्रेरित मुझे सान्त्वना देने के लिये ही आप मुनिसत्तम आये हैं। आप जैसे महात्माओं के पाँव की धूल जो है वह तीर्थरूप है उस धूल का स्पर्श करने वाली मैं अपना जन्म आज सफल कर सकी हूँ, आज मेरा व्रत भी सफल है। आप जैसे पुण्यात्मा के जो मुझे आज दर्शन हुए। अतः आज मेरा उत्पन्न होना और मेरा पुण्य सफल है।’

ऐसा कहकर वह कन्या दुर्वासा के सामने चुपचाप खड़ी हो गयी। तब भगवान्‌ शंकर के अंश से उत्पन्न दुर्वासा मुनि मन्द हास्य युक्त बोले।

दुर्वासा बोले, ‘हे द्विजसुते! तू बड़ी अच्छी है तूने अपने पिता के कुल को तार दिया। यह मेधावी ऋषि के तप का फल है। जो उन्हें तेरी ऐसी कन्या उत्पन्न हुई। तेरी धर्म में तत्परता जान कैलास से मैं यहाँ आया और तेरे घर आकर तेरे द्वारा मेरा पूजन हुआ।

हे वरारोहे! मैं शीघ्र ही बदरिकाश्रम में मुनीश्वर सनातन, नारायण, देव के दर्शन के लिये जाऊँगा जो प्राणियों के हित के लिए अत्यन्त उग्र तप कर रहे हैं।’

कन्या बोली, ‘हे ऋषे! आपके दर्शन से ही मेरा शोकसमुद्र सूख गया। अब इसके बाद मेरा भविष्य उज्ज्वल है; क्योंकि आपने मुझे सान्त्वना दी, हे मुने! मेरी उस प्रादुर्भूत बड़ी भारी ज्वाला युक्त दुःख रूप अग्नि को क्या आप नहीं जानते हैं? हे दयासिन्धो! हे शंकर! उस दुःखाग्नि को शान्त कीजिये। मेरे विचार से हर्ष का कारण मुझे कुछ भी दिखलाई नहीं देता। न मुझे माता है, न पिता, न तो भाई है, जो धैर्य प्रदान करता, अतः दुःख समुद्र से पीड़ित मैं कैसे जीवित रह सकती हूँ?

जिस-जिस दिशा में मैं देखती हूँ वह-वह दिशा मुझे शून्य ही प्रतीत होती है, इसलिये हे तपोनिधे! मेरे दुःख का निस्तार आप शीघ्र करें। मेरे साथ विवाह करने के लिए कोई भी नहीं तैयार होता है। इस समय मेरा विवाह न हुआ तो मैं फिर वृषली शूद्रा हो जाऊँगी यह मुझे बड़ा भय है। इसी भय से न मुझे निद्रा आती है और न भोजन में मेरी रुचि होती है, हे ब्रह्मन्‌! अब मैं शीघ्र ही मरने वाली हूँ, यह मेरा इस समय निश्चय है।’

ऐसा कहकर आँसू बहाती हुई कन्या दुर्वासा के सामने चुप हो गयी तब दुर्वासा कन्या का दुःख दूर करने का उपाय सोचने लगे।

श्रीनारायण बोले, ‘इस प्रकार मुनि कन्या के वचन सुनकर और इसका अभिप्राय समझ कर बड़े क्रोधी मुनिराज दुर्वासा ने उस कन्या का कुछ हित विचार पूर्ण कृपा से उसे देखकर सारभूत उपाय बतलाया।

इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये नवमोऽध्यायः ॥९।।

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय 10

नारद जी बोले, ‘हे तपोनिधे परम क्रोधीदुर्वासा मुनि ने विचार करके उस कन्या से क्या उपदेश दिया। सो आप मुझसे कहिये।

सूतजी बोले, ‘हे द्विजों नारद का वचन सुनकर, समस्त प्राणियों का हितकर दुर्वासा का गुह्य वचन बदरीनारायण बोले।

श्रीनारायण बोले, ‘हे नारद मेघावी ऋषि की कन्या के दुख को दूर करने के लिये दुर्वासा ऋषि ने जो कहा वह सुनो।

दुर्वासा ऋषि बोले, ‘हे सुन्दरि गुप्त से भी गुप्त उपाय मैं तुझसे कहता हूँ। यह विषय किसी से भी कहने योग्य नहीं है, तथापि तेरे लिये तो मैंने ये विचार ही लिया है। मैं विस्तार पूर्वक न कहकर तुझसे संक्षेप में कहता हूँ। हे सुभगे! इस मास से तीसरा मास जो आवेगा वह पुरुषोत्तम मास है। इस मास में तीर्थ में स्नान कर मनुष्य भ्रूणहत्या से छूट जाता है। हे सुन्दरि! कार्तिक आदि बारह मासों में इस पुरुषोत्तम मास के बराबर कोई मास नहीं है। जितने मास तथा पक्ष और पर्व हैं वे सब पुरुषोत्तम मास की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हैं। वेदोक्त साधन और जो परमपद प्राप्ति के साधन हैं वे भी इस मास की सोलहवीं कला के बराबर नहीं हैं। बारह हजार वर्ष गंगा स्नान करने से जो फल मिलता है और सिंहस्थ गुरु में गोदावरी पर एक बार स्नान करने से जो फल मिलता है,

हे सुन्दरि! वही फल पुरुषोत्तम मास में किसी भी तीर्थ पर एक बार स्नान करने मात्र से मिल जाता है। हे बाले! यह मास श्रीकृष्ण का अत्यन्त प्यारा है और नाम से ही यह भगवान् का स्मारक है। इस मास में पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा, पूजा करने से समस्त कामनायें सिद्ध होती हैं। अतः इस पुरुषोत्तम मास का तू शीघ्र व्रत कर। पुरुषोत्तम भगवान् की तरह प्रसन्नता पूर्वक मैंने भी इस मास की सेवा की है।

एक समय क्रोध में मैंने अम्बरीष राजा को भस्म करने के लिये अर्थ कृत्या भेजी थी, सो हे बाले! तब हरि ने जलता हुआ सुदर्शन चक्र मुझको ही भस्म करने के लियै उसी समय मेरे पास भेजा। तब पुरुषोत्तम मास के प्रभाव से ही वह चक्र हट गया। हे सुन्दरि! वह चक्र त्रैलोक्य को भस्म करने का सामर्थ्य रखने वाला जब मेरे पास आकर खाली चला गया तब मुझे बड़ा विस्मय हुआ। इसलिये हे सुभगे! तू श्रीपुरुषोत्तम मास का व्रत कर।’ इस प्रकार मुनि की कन्या को कहकर दुर्वासा ऋषि ने विराम लिया।

श्रीकृष्णजी बोले, ‘हे राजन! दुर्वासा का वचन सुन भावों की प्रबलता के कारण असूया से प्रेरित वह कन्या मूर्खतावश दुर्वासा से बोली।

बाला बोली, ‘हे ब्रह्मन्! हे मुने! आपने जो कहा वह मुझे रुचता नहीं है। माघादि मास कैसे कुछ भी फल देनेवाले नहीं हैं ? कार्तिक मास कम है ? ऐसा आप कैसे कहते हैं ? सो कहिये। वैशाख मास सेवित हुआ क्या इच्छित कामों को नहीं देता है ? सदाशिव आदि से लेकर सब देवता सेवा करने पर क्या फल नहीं देते हैं ? अथवा पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देव सूर्य और जगत् की माता देवी क्या सब कामनाओं को देने वाली नहीं हैं ? श्रीगणेश क्या सेवा पाकर इच्छित वर नहीं देते हैं ? व्यतिपात आदि योगों को और शर्व आदि देवताओं को भी, सबको उलंघन करके पुरुषोत्तम मास की प्रशंसा करते क्या आपको लज्जा नहीं आती है ? यह मास त़ बड़ा मलिन और सब कामों में निन्दित है।

हे मुने! इस रवि की संक्रांति से रहित मास को आप श्रेष्ठ कैसे कह सकते हैं ? सब दुःखों को छुड़ाने वाले परम श्रीहरि को मैं जानती हूँ। हे देव! दिन-रात श्रीहरि का चिन्तन करती मैं जानकीपति राम और पार्वतीपति शंकर के सिवाय और किसी को नहीं देखती हूँ। हे विपेन्द्र! अन्य कोई भी देवता ऐसा नहीं है जो मेरे इस दुःख को दूर करे। अतः हे मुने! इन सब फलदाताओं को छोड़कर कैसे इस मलमास की स्तुति आप कर रहे हो ?

इस प्रकार ब्राह्मण कन्या का कहा हुआ सुनकर दुर्वासा मुनि शरीर से एकदम जाज्वल्यमान हो गये और नेत्र क्रोध से लाल हो गये। इस प्रकार क्रोध आने पर भी कृपा करके मित्र की कन्या को श्राप नहीं दिया और सोचने लगे कि यह मूर्खा है हित-अहित को नहीं जानती है। अभी बुद्धि इसकी पूर्ण नहीं है। पुरुषोत्तम मास के माहात्म्य का विद्वानों को भी पता नहीं है तो थोड़ी बुद्धि वाले पुरूष और विशेष करके कुमारियों को तो हो ही कहाँ से सकता है। यह कुमारी कन्या माता-पिता से रहित दु:खाग्नि से जली हुई है अतः अति उग्र मेरे श्राप को कैसे सहन कर सकती है ? इस प्रकार सोचकर कृपा से मन में उठे क्रोध को शान्त किया और स्वस्थ होकर दुर्वासा मुनि, उस अति विह्वल कन्या से बोले।

दुर्वासा बोले, ‘हे मित्र पुत्रि! तेरे ऊपर मेरा कुछ भी क्रोध नहीं है, हे निर्भाग्ये! जो तेरे मन में आवे बैसा ही कर। हे बाले! और कुछ भविष्य कहता हूँ सुन। पुरुषोत्तम मास का जो तूने अनादर किया है उसका फल तुझे अवश्य मिलेगा। इस जन्म में मिले अथवा दूसरे जन्म में मिले। अब मैं नर-नारायण के आश्रम में जाऊँगा। तेरा पिता मेरा मित्र था इसलिये मैंने शाप नहीं दिया है, तू बाल भाव के कारण अपने शुभाशुभ तथा हिताहित को नहीं जानती है। शुभाशुभ भविष्य की कोई टाल नहीं सकता है। अच्छा हमारा बहुत समय व्यतीत हो गया, अब हम जाते हैं, तेरा कल्याण हो।’

श्रीकृष्ण बोले, ‘ऐसा कहकर महाक्रोधी दुर्वासा मुनि शीघ्र चले गये। दुर्वासा ऋषि के जाते ही पुरुषोत्तम की उपेक्षा करने के कारण कन्या निष्प्रभा हो गयी। तदनन्तर बहुत देर तक कन्या ने सोच विचार कर यह निश्चय किया कि देवताओं के भी देवता, तत्काल फल देने वाले, पार्वतीपति शिव की तप द्वारा आराधना करूँगी। हे नृप! मेधावी ऋषि की कन्या ने मन से इस प्रकार निश्चय करके अपने आश्रम में ही रहकर भगवान् शंकर के कठिन तप करने को तत्पर हो गयी।

सूतजी बोले, ‘बहुत फलों के दाता लक्ष्मीपति को और बैसे ही सावित्रीपति ब्रह्म को छोड़कर एवं दुर्वासा के प्रबल वचन की निन्दा कर वह ऋषि कन्या अपने आश्रम में ही अन्धक को मारने वाले शंकर की सेवा के लिये तत्पर हो गयी।

इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये दशमोऽध्यायः॥१०॥ 

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