पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा अध्याय 11 से अध्याय 20 तक 

Purushottam Mas Katha, शास्त्र कहते हैं कि यह भौतिक कार्यों के लिए अच्छा नहीं है। लेकिन राधा कृष्ण ने कहा ‘ठीक है हम आपको अपने माह के रूप में अपनाते हैं’। इसलिए यह पुरूषोत्तम मास विशेष रूप से भक्ति-योग के लिए है। आप पुरूषोत्तम माह में जो भी भक्ति करते हैं वह हजारों गुना बढ़ जाती है। अगर दामोदर मास सौ गुना है, तो पुरुषोत्तम एक हजार गुना है। यहाँ मायापुर में वैसे भी यह एक हजार गुना है। तो एक हजार गुना एक हजार क्या है? दस लाख. दस लाख। तो आप किस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं ? इस महीने में पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा पढ़ने से भगवान विष्ण की कृपा प्राप्त होती है। आईए पढ़ते हैं पुरुषोत्तम मास कथा अध्याय 11 से अध्याय 20 तक

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा अध्याय – 11

(Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 11) 

नारदजी बोले, ‘सब मुनियों को भी जो दुष्कर कर्म है ऐसा बड़ा भारी तप जो इस कुमारी ने किया वह हे महामुने! हमसे सुनाइये।

श्रीनारायण बोले, ‘अनन्तर ऋषि-कन्या ने भगवान्‌ शिव, शान्त, पंचमुख, सनातन महादेव को चिन्तन करके परम दारुण तप आरम्भ किया। सर्पों का आभूषण पहिने, देव, नन्दी-भृंगी आदि गणों से सेवित, चौबीस तत्त्वों और तीनों गुणों से युक्त, अष्ट महासिद्धियों तथा प्रकृति और पुरुष से युक्त, अर्धचन्द्र से सुशोभित मस्तकवाले, जटा-जूट से विराजित भगवान्‌ के प्रीत्यर्थ उस बाला ने परम तप आरम्भ किया। ग्रीष्म ऋतु के सूर्य होने पर पंचाग्नि के बीच में बैठकर, हेमन्त और शिशिर ऋतुओं में ठण्डे जल में बैठकर, खुले हुए मुखवाली जल में खिले हुए कमल की तरह शोभित होने लगी।

सिर के नीचे फैली हुई काली और नीली अलकों से ढँकी हुई वह जल में ऐसी मालूम होने लगी जैसे कीचड़ की लता सेवारों के समूह से घिरी हुई हो। शीत के कारण नासिका से निकलती हुई शोभित धूम्‌राशि इस तरह दिखाई देने लगी जैसे कमल से मकरन्द पार करके भ्रमरपंक्ति जा रही हो। वर्षाकाल में आसन से युक्त चौतरे पर बिना छाया के सोती थी और वह सुन्दर अंगवाली प्रातः-सायं धूमपान करके रहती थी। उस कन्या के इस प्रकार के कठिन तप को सुन कर इन्द्र बहुत चिन्तित हो गये। सब देवताओं से दुधुर्षा और ऋषियों से स्पृहणीया।

उस ऋषि-कन्या के तप में लगे रहने पर हे नृपनन्दन! हे क्षत्रिय भूषण! नौ हजार वर्ष व्यतीत हो गये। उस बाला के तप से भगवान्‌ शंकर ने प्रसन्न होकर उसे अपना इन्द्रियातीत निज स्वरूप दिखलाया। भगवान्‌ शंकर को देखकर देह में जैसे प्राण आ जाय वैसे सहसा खड़ी हो गई और तप से दुर्बल होने पर भी वह बाला उस समय हृष्टपुष्ट हो गयी। बहुत वायु और घाम से क्लेश पाई हुई वह शंकर को बहुत अच्छी लगी और उस कन्या ने झुककर पार्वतीपति शंकरजी को प्रणाम किया। उन विश्वोवन्दित भगवान्‌ का मानसिक उपचारों से पूजन करके और भक्तियुक्त चित्त से जगत्‌ के नाथ की स्तुति करने लगी।

कन्या बोली, ‘हे पार्वतीप्रिय हे प्राणनाथ हे प्रभो हे भर्ग हे भूतेश हे गौरीश हे शम्भो हे सोमसूर्याग्निनेत्र हे तमः हे मेरे आधार मुण्डास्थिमालिन्‌ आपको प्रणाम है।

अनेक तापों से व्याप्त है अंगों में पीड़ा जिसके ऐसा, तथा परम घोर संसाररूपी समुद्र में डूबा हुआ, दुष्ट सर्पों तथा काल के तीक्ष्ण दांतों से डँसा हुआ मनुष्य भी यदि आपकी शरण में आ जाए तो मुक्त हो जाता है।

हे विभो जिन आपने बाणासुर को अपनाया और मरी हुई अलर्क राजा की पत्नी को जिलाया ऐसे आप हे दयानाथ भूतेश चण्डीिश भव्य भवत्राण मृत्युञ्जय प्राणनाथ हे दक्षप्रजापति के मख को ध्वंस करने वाले हे समस्त शत्रुओं के नाशक हे सदा भक्तों को संसार से छुड़ाने वाले हे जन्म के हर्ता, हे प्रथम सृष्टि के कर्ता हे प्राणनाथ हे पाप के नाश करने वाले आपको नमस्कार है। अपने सेवकों की रक्षा कीजिये। हे नृप बड़ी भाग्यवती मेधावी की तपस्विनी कन्या इस प्रकार मन से और वाणी से शंकर की स्तुति करके चुप हो गयी।

श्रीकृष्ण बोले, ‘कन्या द्वारा की हुई स्तुति सुनकर और उसके किये हुए उग्रतप से प्रसन्न मुखकमल सदाशिव कन्या से बोले, ‘हे तपस्विनि! तेरा कल्याण हो, तेरे मन में जो अभीष्ट हो वह वर तू माँग, हे महाभागे! मैं प्रसन्न हूँ, तू खेद मत कर।’ ऐसा भगवान्‌ शंकर का वचन सुन वह कुमारी अत्यन्त आनन्द को प्राप्त हुई और हे राजन्‌! प्रसन्न हुए सदाशिव से बोली।

कन्या बोली, ‘हे दीनानाथ हे दयासिन्धो यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो हे प्रभो! मेरी कामना पूर्ण करने में देर न करें। हे महादेव! मुझको पति दीजिये, पति दीजिये, पति दीजिये, मैं पति चाहती हूँ, पति दीजिये, मैंने हृदय में और कुछ नहीं सोचा है।’ वह ऋषिकन्या इस प्रकार महादेव से कह कर चुप हो गयी तब यह सुन कर महादेव जी उससे बोले।

शिव बोले, ‘हे मुनिकन्यके! तूने जैसा अपने मुख से कहा है वैसा ही होगा क्योंकि तूने पाँच बार पति माँगा है, अतः हे सुन्दरी! तेरे पाँच पति होंगे और वे पाँचों वीर, सर्वधर्मवेत्ता, सज्जन, सत्यपराक्रमी, यज्ञ करनेवाले, अपने गुणों से प्रसिद्ध, सत्य प्रसिद्ध जितेन्द्रिय, तेरा मुख देखने वाले, सभी क्षत्रीय और गुणवान्‌ होंगे।’

श्रीकृष्ण बोले, ‘न तो अधिक प्रिय, न तो अधिक अप्रिय ऐसे महादेव के वचन को सुनकर, बोलने में चतुरा कन्या झुककर बोली।

बाला बोली, ‘हे गिरिजाकान्त! सदाशिव! संसार में एक स्त्री का एक ही पति होता है, अतः पाँच पति का वर देकर, लोक में मेरी हँसी न कराइये। एक स्त्री पाँच पतिवाली न देखी गयी है और न सुनी गयी है। हाँ, एक पुरुष की पाँच स्त्रियाँ तो हो सकती हैं।

हे शम्भो हे कृपानिधे! आपकी सेविका मैं पाँच पतियों वाली कैसे हो सकती हूँ आपको मेरे लिये ऐसा कहना उचित नहीं है। आपकी सेविका होने के कारण जो लज्जा मुझे हो रही है, वह आप अपने को ही समझिये।’ कन्या का यह वचन सुनकर शंकरजी पुनः उससे बोले।

शंकरजी बोले, ‘हे भीरु इस जन्म में तुझे पति सुख नहीं मिलेगा, दूसरे जन्म में जब तू तपोबल से बिना योनि के उत्पन्न होगी। तब पति सुख को भोग कर अनन्तर परमपद को प्राप्त होगी क्योंकि मेरी प्रिय मूर्ति दुर्वासा का तूने पहले अपमान किया है।

हे सुभ्रु! वह दुर्वासा यदि क्रोध करें तो तीनों भुवनों को जला सकते हैं सो तूने अभिमान वश ब्रह्मतेज का मर्दन किया है। जिस अधिमास को भगवान्‌ कृष्ण ने अपना ऐश्वर्य दे दिया उस भगवान्‌ के प्रिय पुरुषोत्तममास का व्रत तूने नहीं किया।

मैं ब्रह्मा आदि से लेकर सब देवता, नारद आदि से लेकर सब तपस्वी, जिसकी आज्ञा सदा मानते चले आये हैं, हे बाले! उसकी आज्ञा का कौन उलंघन करता है ? लोकपूजित पुरुषोत्तम मास की दुर्वासा की आज्ञा से तूने पूजा नहीं की हे मूढ़े! द्विजात्मजे! इसी लिये तेरे पाँच पति होंगे।

हे बाले पुरुषोत्तम के अनादर करने से अब अन्यथा नहीं हो सकता है। जो उस पुरुषोत्तम की निन्दा करता है वह रौरव नरक का भागी होता है। पुरुषोत्तम का अपमान करने वाले को विपरीत ही फल होता है, यह बात कभी अन्यथा नहीं हो सकती है। पुरुषोत्तम के जो भक्त हैं वे पुत्र, पौत्र और धनवाले होते हैं, और वे इस लोक को तथा परलोक की सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, प्राप्त होंगे और प्राप्त हो रहे हैं। और हम सब देवता लोग भी पुरुषोत्तम की सेवा करने वाले हैं।

जिस पुरुषोत्तम मास में व्रतादिक से पुरुषोत्तम शीघ्र ही प्रसन्न होते हैं उस सेवा करने योग्य मास को हे सुमध्यमे! हम लोग कैसे न भजें? उचित और अनुचित विचार की चर्चा करने वाले अतएव अनुकरणीय जो मुनि हैं उन अति उत्कट श्रेष्ठ तपस्वी पुरुषों का वचन कैसे मिथ्या हो सकता है? कहो

इस प्रकार कथन करते हुए भगवान्‌ नीलकण्ठ शीघ्र ही अन्तर्धान हो गये और वह बाला यूथ से भ्रष्ट मृगी की तरह चकित सी हो गयी।

सूतजी बोले, ‘हे मुनीश! रेखासदृश चन्द्रमा से युक्त मस्तकवाले सदाशिव जब उत्तर दिशा के प्रति चले गये तब वृत्रासुर को मारकर जैसे इन्द्र को चिन्ता हुई थी उसी प्रकार मुनिराज की कन्या को चिन्ता बाधा करने लगी।

इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये एकादशोऽध्यायः ॥११॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा अध्याय 12 

 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 12) 

नारदजी बोले, ‘जब भगवान शंकर चले गये तब हे प्रभो उस बाला ने शोककर क्या किया सो मुझ विनीत को धर्मसिद्धि के लिए कहिये।

श्रीनारायण बोले, ‘इसी प्रकार राजा युधिष्ठिर ने भगवान् कृष्ण से पूछा था सो भगवान् ने राजा के प्रति जो कहा सो हम तुमसे कहते हैं सुनो।

श्रीकृष्ण बोले, ‘हे राजन इस प्रकार जब शिवजी चले गये तब वह बाला प्रभावित हो गयी और लम्बे श्वास लेती हुई, बड़ी डरी और वह कृशोदरी अश्रुपातपूर्वक रोने लगी। हृदयाग्नि से उठी हुई ज्वाला से जलते हुए अंगवाली वह तपस्विनी कन्या वनाग्नि से जले हुए पत्ते वाली लता की तरह हो गयी।

दुःख और ईर्ष्या को प्राप्त उस कन्या का बहुत समय व्यतीत हो गया। जिस प्रकार चूहे के बिल में घुसकर आक्रमण करके सर्प उसे वश में कर लेता है उसी प्रकार उपर्युक्त शोचनीय अवस्था को प्राप्त उस तपस्विनी बाला पर उस प्रभु काल ने आक्रमण कर उसे वश में कर लिया। वर्षा ऋतु में मेघ से घिरे हुए आकाश में बिजली चमक कर जैसे नष्ट हो जाती है उसी प्रकार तपस्या से जले हुए पापवाली वह कन्या अपने आश्रम में मर गयी।

उसी समय धर्मिष्ठ यज्ञसेन नामक राजा ने बड़ी सामग्रियों से युक्त उत्तम यज्ञ किया। उस यज्ञकुण्ड से सुवर्ण के समान कान्ति वाली एक लड़की उत्पन्न हुई । वही कुमारी द्रुपदराज की कन्या के नाम से संसार में विख्यात हुई। पहले जो मेधावी ऋषि की कन्या थी वही सब लोकों में द्रौपदी नाम से प्रसिद्ध हुई । उसी को स्वयंवर में मछली को वेधकर भीष्म कर्ण आदि बहुत से राजाओं को तृण के समान कर क्षुभित रजमण्डदल में अर्जुन ने पांचाली को पाया। हे मुने वही द्रौपदी दुष्ट दुःशासन द्वारा बाल पकड़ कर खींची गयी और उसे हृदय विदीर्ण करने वाले वचन सुनाये गये। पुरुषोत्तम की अवहेलना करने के कारण मैंने भी उसकी उपेक्षा की। जब वह मेरे में स्नेह करके मेरा नाम बराबर लेने लगी।

हे दामोदर हे दयासिन्धो हे कृष्ण हे जगत्पते हे नाथ रमानाथ हे केशव हे क्लेशनाशन मेरे माता, पिता, भ्रातृवर्ग, सहेलियें, बहिन, भाञ्जे, बन्धु, इष्ट, पति आदि कोई भी नहीं है। हे हृषीकेश मेरे तो आप ही सब कुछ हैं। हे गोविन्द हे गोपिकानाथ दीनबन्धो दयानिधे दुःशासन से आक्रमण की गई मुझे क्या आप नहीं जानते।

यद्यपि पहली पुकार में मैंने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया था, पर जब दुःशासन से पराभूत होकर उसने मेरा पुनः स्मरण किया, तब गरुड़ पर चढ़ शीघ्र वहाँ पहुँच कर मैंने हे राजन उसे बहुत से वस्त्रों से परिपूर्ण कर दिया।

सदा मेरे में स्नेह करने वाली, मैं ही हूँ प्राण जिसके ऐसी, सदा मेरे भजन में परायण, मेरी अत्यन्त प्रिया, सती, सखी, मुझको प्राणों के समान होने पर भी पुरुषोत्तम की अवहेलना करने के कारण उसकी उपेक्षा करनी पड़ी। पुरुषोत्तम का तिरस्कार करने वाले का मैं पतन कर देता हूँ।

यह पुरुषोत्तम मुनियों और देवताओं से भी सेव्य है, फिर समस्त कामनाओं को देने वाला यह पुरुषोत्तम मनुष्यों द्वारा तो सेवनीय है ही। अतः आगामी पुरुषोत्तम की आराधना करो। चौदह वर्ष के सम्पूर्ण होने पर तुम्हारा कल्याण होगा। हे पाण्डुनन्दन! जिन पुरुषों ने द्रौपदी के बालों को खींचते हुए देखा है, हे महाराज! उनकी स्त्रियों की अलकों को मैं क्रोध से काटूँगा। दुर्योधन आदि राजाओं को यमराज के भवन को पहुँचाऊँगा, बाद तुम समस्त शत्रुओं का नाश कर राजा होंगे। न मेरे को लक्ष्मी प्रिय, न मेरे को बलभद्र जी प्रिय और न वैसे मेरे को देवी देवकी, न प्रद्युम्न, न सात्यकि प्रिय हैं, जैसे मेरे को भक्त प्रिय हैं वैसा कोई प्रिय नहीं है। जिसने मेरे भक्तों को पीड़ित किया उससे मैं सदा पीड़ित रहता हूँ।

हे पाण्डव उसके समान मेरा अन्य कोई शत्रु नहीं है, उसके अपराध का फल देने वाला यमराज है क्योंकि वह दुष्ट दण्ड देने के लिए भी मेरे से देखने के योग्य नहीं है।

श्रीनारायण बोले, ‘श्रीकृष्ण ने उन पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरादिकों को और द्रौपदी को समझा कर द्वारका जाने की इच्छा से कहा, हे राजन्‌! वियोग से व्याकुल द्वारका पुरी को आज जाऊँगा जहाँ पर महाभाग वसुदेव जी, हमारे बड़े भाई बलदेवजी, हमारी माता देवी देवकी तथा गद, साम्ब आदि और आहुक आदि यादव, रुक्मिणी आदि जो स्त्रियाँ हैं, दर्शन की उत्कण्ठा वाले वे सब हमारे आगमन की कामना से टकटकी लगाकर हमारा ही चिन्तन करते होंगे।

श्री नारायण बोले, ‘इस प्रकार कहते हुए देवेश श्रीकृष्ण के गमन को जानकर पाण्डु-पुत्र किस प्रकार गद्‌गद कण्ठ से बोले, जिस प्रकार जल में रहने वालों का जीवन जल है उसी तरह हम लोगों के जीवन तो आप ही हैं। हे जनार्दन! थोड़े ही दिनों के बाद फिर दर्शन हों, पाण्डवों के नाथ हरि हैं और तीनों लोको में दूसरा कोई नहीं है, इस प्रकार सामने ही सब लोग कहते हैं अतः हम लोगों की हमेशा रक्षा करें।

हे जगदीश्वर हम लोग आप के हैं, भूलियेगा नहीं। हम लोगों के चित्तरूपी भ्रमरों का जीवन आपका चरण कमल ही है। आप ही हमारे आधार हैं, इसलिए बारम्बार हम सब प्रार्थना करते हैं।

इन पाण्डुपुत्रों के निरन्तर इस तरह कहते रहने पर श्रीकृष्णचन्द्र प्रेमानन्द में मग्न होकर धीरे-धीरे रथ पर सवार होकर पीछे चलने वाले पाण्डुपुत्रों को लौटाकर द्वारका पुरी को गये।

श्रीनारायण बोले, ‘इसके बाद श्रीद्वारकानाथ श्रीकृष्णचन्द्र के द्वारका पुरी जाने पर, राजा युधिष्ठिर अपने छोटे भाइयों के साथ तप करते हुए तीर्थों मे भ्रमण को गये।

हे ब्रह्मन्‌ नारद भगवान्‌ के प्रिय पुरुषोत्तम मास में मन लगाकर और श्रीकृष्णचन्द्र के वचनों का स्मरण करते हुए, अपने छोटे भाइयों से तथा द्रौपदी से राजा युधिष्ठिर बोले, ‘अहो! पुरुषोत्तम मास में होने वाले अत्यन्त उग्र पुरुषोत्तम का माहात्म्य सुना है, पुरुषोत्तम भगवान्‌ के पूजन किये बिना सुख किस तरह मिलेगा ? इस भारतवर्ष में वह धन्य है, वह पूज्य है, वही श्रेष्ठ है, जो अनेक प्रकार के नियमों से पुरुषोत्तम भगवान्‌ का पूजनार्चन किया करता है। इस तरह समस्त तीर्थों में भ्रमण करते हुए पाण्डुपुत्र पुरुषोत्तम मास के आने पर विधिपूर्वक व्रत करने लगे। हे मुने नारद व्रत के अन्त में चौदह वर्ष के पूर्ण होने पर श्रीकृष्ण भगवान्‌ की कृपा से अतुल निष्कण्टक राज्य को प्राप्त किये।

पूर्वकाल में सूर्यवंश में होने वाला दृढ़धन्वा नाम का राजा पुरुषोत्तम मास के सेवन से बड़ी लक्ष्मी पुत्र पौत्र का सुख और अनेक प्रकार के भोगों को भोगकर, योगियों को भी दुर्लभ जो भगवान्‌ का वैकुण्ठ लोक है वहाँ गया। हे मुनिश्रेष्ठ! नारद! इस पुरुषोत्तम मास के अतुल माहात्य को करोड़ों कल्प समय मिलने पर भी मैं कहने को समर्थ नहीं हूँ।

सूतजी बोले, ‘हे विप्र लोग! पुरुषोत्तम मास का माहात्म्य कृष्णद्वैपायन (व्यास जी) से मैंने सुना है तथापि कहने को मैं समर्थ नहीं हूँ। इस पुरुषोत्तम मास के अखिल माहात्म्य को स्वयं नारायण जानते हैं या साक्षात्‌ वैकुण्ठवासी हरि भगवान्‌ जानते हैं। परन्तु ब्रह्मादि देवताओं से नमस्कार किये जाने वाले हैं चरणपीठ जिनके, ऐसे गोलोकनाथ श्रीकृष्णचन्द्र भी अपनाये हुए पुरुषोत्तम मास का सम्पूर्ण माहात्म्य नहीं जानते हैं तो मनुष्य कहाँ से जान सकता है ?

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये द्वादशोऽध्यायः ॥१२॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा अध्याय 13

(Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 13) 

ऋषि लोग बोले, ‘हे सूत हे महाभाग हे सूत हे बोलने वालों में श्रेष्ठ! पुरुषोत्तम के सेवन से राजा दृढ़धन्वा शोभन राज्य, पुत्र आदि तथा पतिव्रता स्त्री को किस तरह प्राप्त किया और योगियों को भी दुर्लभ भगवान्‌ के लोक को किस तरह प्राप्त हुआ? हे तात! आपके मुखकमल से बार-बार कथासार सुनने वाले हम लोगों को अमृत-पान करने वालों के समान कथामृत-पान से तृप्ति नहीं होती है। इस कारण से इस पुरातन इतिहास को विस्तार पूर्वक कहिये। हमारे भाग्य के बल से ही ब्रह्मा ने आपको दिखलाया है।

सूतजी बोले, ‘हे विप्र लोग सनातन मुनि नारायण ने इस पुरातन इतिहास को नारद जी के प्रति कहा है वही इतिहास इस समय मैं आप लोगों से कहता हूँ। मैंने जैसा गुरु के मुख से राजा दृढ़धन्वा का पापनाशक चरित्र पढ़ा है उसको सब मुनि श्रवण करें।’

श्रीनारायण बोले, ‘हे ब्रह्मन्‌ नारद सुनिये। मैं पवित्र करने वाली गंगा के समान राजा दृढ़धन्वा की सुन्दर तथा प्राचीन कथा कहूँगा।

हैहय देश का रक्षक, श्रीमान बुद्धिमान तथा सत्यपराक्रमी चित्रधर्मा नाम का राजा था। उसको दृढ़धन्वा नाम से प्रसिद्ध अति तेजस्वी, सब गुणों से युक्त, सत्य बोलने वाला, धर्मात्मा और पवित्र आचरण वाला पुत्र हुआ। कान तक लंबे नेत्र वाला, चौड़ी छाती वाला, बड़ी भुजा वाला, महातेजस्वी वह राजा दृढ़धन्वा प्रशस्त गुण समूहों के साथ-साथ बढ़ता गया।

वह चतुर राजा दृढ़धन्वा प्रसन्नता के साथ गुरु के मुख से एक बार कहने मात्र से पूर्व में पढ़े हुये के समान व्याकरण आदि छः अंगों के साथ चार वेदों का अध्ययन कर गुरु को दक्षिणा देकर और विधि पूर्वक उनकी पूजा कर बुद्धिमान्‌ राजा गुरु की आज्ञा से पिता चित्रधर्मा के पुर को गया।

अपने नगर में वास करने वाले प्रजावर्ग के नेत्रों को आनन्दित करता हुआ। जिस पुत्र को देख कर राजा चित्रधर्मा भी अत्यन्त हर्ष को प्राप्त हुआ। पुत्र जवान हो, सम्पूर्ण धर्म को जानने वाला हो और प्रजापालन में समर्थ हो, इससे बढ़ कर सारशून्य इस संसार में और क्या है? अर्थात्‌ कुछ नहीं है।

अब मैं दो भुजावाले, मुरली (वंशी) को धारण करने वाले, प्रसन्न मुख वाले, शान्त तथा भक्तों को अभय देनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र की आराधना करता हूँ।

जिस तरह ध्रुव, अम्बरीष, शर्धाति, ययाति प्रमुख राजा और शिवि, रन्तिदेव, शशबिन्दु, भगीरथ, भीष्म, विदुर, दुष्यन्त और भरत, पृथु, उत्तानपाद, प्रह्‌लाद, विभीषण। ये सब राजा तथा और अन्य राजा लोग भी अनेकों लोगों को त्याग कर, इस अनित्य शरीर से पुरुषोत्तम भगवान्‌ का आराधन कर, नित्य (सदा रहनेवाले) विष्णुपद को चले गये। उसी तरह स्त्री, मकान पुत्र आदि में स्नेहमय बन्धन को तोड़कर वन में जाकर हरि का सेवन करना हमारा भी कर्तव्य है।

ऐसा मन में निश्चय कर, समर्थ राजा दृढ़धन्वा को राज्य का भार देकर स्वयं विरक्त हो, शीघ्र पुलह ऋषि के आश्रम को चला गया। वहाँ जाकर सम्पूर्ण कामनाओं से निस्पृह हो और भोजन त्याग कर हर समय मन से श्रीकृष्णचन्द्र का स्मरण करता हुआ तप करने लगा। कुछ समय तक तप करके वह राजा चित्रवर्मा हरि भगवान्‌ के परम धाम को चला गया। राजा दृढ़धन्वा ने भी अपने पिता की वैष्णवी गति को सुना।

उस समय पिता के परमधाम गमन से हर्ष और वियोग होने से शोक-युक्त राजा दृढ़धन्वा पितृ-भक्ति से विद्वानों के वचन में स्थित होकर, पारलौकिक क्रिया को करने लगा।

नीतिशास्त्र में विशारद (चतुर) राजा दृढ़धन्वा अत्यन्त शोभित पवित्र पुष्करावर्तक नगर में राज्य करने लगा। अच्छे स्वभाववाली विदर्भराज की कन्या उसकी स्त्री गुणसुन्दरी नाम की थी, पृथ्वी पर रूप में उसके समान दूसरी स्त्री नहीं थी। उस गुणसुन्दरी ने सुन्दर, चतुर, शुभ आचरण वाले चार पुत्रों को उत्पन्न किया और सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त चारुमती नामक कन्या को उत्पन्न किया। चित्रवाक्‌, चित्रवाह, मणिमान्‌ और चित्रकुण्डल नाम वाले वे सब बड़े मानी, शूर अपने-अपने नाम से पृथक्‌ विख्यात होने लगे।

राजा दृढ़धन्वा सर्वगुणी, प्रसिद्ध, शान्त, दान्त, दृढ़प्रतिज्ञ, रूपवान्‌, गुणवान्‌, वीर, श्रीमान्‌, स्वभाव से सुन्दर चार वेद और व्याकरण आदि ६ अंगों को जानने वाला, वाग्मी (वाक्‌चतुर), धनुर्विद्या में निपुण, अरिषड्‌वर्ग (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य) को जीतने वाला, और शत्रु-समुदाय का नाश करने वाला, क्षमा में पृथिवी के समान, गम्भीरता में समुद्र के समान, समता (सम व्यवहार) में पितामह (ब्रह्मा) के समान, प्रसन्नता में शंकर के समान, एकपत्नी व्रत (एक ही स्त्री से विवाह करने का व्रत) को करने वाले दूसरे रामचन्द्र के समान, अत्यन्त उग्र पराक्रमशाली दूसरे कार्तवीर्य (सहस्रार्जुन) के समान था।

नारायण बोले, ‘एक समय रात्रि में शयन किये हुए उस राजा दृढ़धन्वा को चिन्ता हुई कि अहो! यह वैभव (सम्पत्ति) किस महान्‌ पुण्य के कारण हमें प्राप्त हुआ है। न तो मैंने तप किया, न तो दान दिया, न तो कहीं पर कुछ हवन ही किया। मैं इस भाग्योदय का कारण किससे पूछूँ ?

इस प्रकार चिन्ता करते ही राजा दृढ़धन्वा की रात्रि बीत गई। प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में उठकर विधिपूर्वक स्नान कर उदय को प्राप्त सूर्यनारायण का उपस्थान कर, भगवान्‌ की कला की पूजा कर अर्थात्‌ देवमन्दिरों में जाकर देवता का पूजन कर, ब्राह्मणों को दान देकर तथा नमस्कार करके घोड़े पर सवार हो गया। उसके बाद शिकार खेलने की इच्छा से शीघ्र वन को गया वहाँ पर बहुत से मृग, वराह (सूअर), सिंह और गवयों (चँवरी गाय) का शिकार किया।

उसी समय राजा दृढ़धन्वा के बाण से घायल होकर कोई मृग बाण सहित शीघ्र एक वन से दूसरे वन को चला गया। रुधिर गिरे हुए मार्ग से राजा भी मृग के पीछे गया। परन्तु मृग कहीं झाड़ी में छिप गया और राजा उस वन में उसे खोजता ही रह गया।

पिपासा (प्यास) से व्याकुल उस राजा ने समुद्र के समान एक तालाब को देखा वहाँ जल्दी से जाकर और पानी पीकर तीर (किनारे) पर चला आया। वहाँ घनी छाया वाले एक विशाल बट वृक्ष को देखा। उस वृक्ष की जटा में घोड़े को बाँधकर राजा वहीं बैठ गया। उसी समय वहाँ पर कोई एक परम सुन्दर सुग्गा राजा को मोहित करने वाली तुलना रहित मनुष्य वाणी को बोलता हुआ आया। केवल राजा को बैठे देख उसको सम्बोधित करता हुआ एक ही श्लोक को बार-बार पढ़ने लगा कि, इस पृथिवी पर विद्यमान अतुल सुख को देखकर तू तत्त्व (आत्मा) का चिन्तन नहीं करता है तो इस संसार के पार को कैसे जायगा ?

बार-बार इस श्लोक को राजा दृढ़धन्वा के सामने पढ़ने लगा। राजा उसके वचन को सुनकर प्रसन्न हुआ और उसपर मोहित हो गया, कि इस शुक पक्षी ने दुःख से जानने योग्य, सार भरे हुए नारियल फल के समान अगम्य एक ही श्लोक को बार-बार पढ़ते हुए क्या कहा ?

क्या यह कृष्णद्वैपायन (वेदव्यास) के श्रेष्ठ पुत्र शुकदेवजी तो नहीं हैं ? जो कि श्रीकृष्णचन्द्र के सेवक मुझको मूढ़ और संसार सागर में डूबा हुआ देखकर राजा परीक्षित के समान कृपा कर उद्धार करने की इच्छा से मेरे पास आये हैं? इस तरह चिन्ता करते हुए राजा दृढ़धन्वा की सेना समीप आ गई।

शुक पक्षी राजा को उपदेश देकर स्वयं अन्तर्धान (अलक्षित) हो गया। उस शुकपक्षी के वचन को स्मरण करता हुआ राजा अपने पुर में आकर बुलाने पर भी नहीं बोलता है और निद्रा रहित हो उसने भोजन को भी त्याग दिया था, तब एकान्त में उसकी रानी ने आकर राजा से पूछा।

गुणसुन्दरी बोली, ‘हे पुरुषों में श्रेष्ठ यह मन में मलिनता क्यों हुई? हे भूपाल! पृथिवी के रक्षक! उठिये उठिये। भोगों को भोगिये और वचन बोलिए।’

देवताओं से भी दुःख से जानने योग्य उस शुक पक्षी के सत्य वचन का स्मरण करता हुआ रानी गुणसुन्दरी के प्रार्थना करने पर भी राजा दृढ़धन्वा कुछ नहीं बोला। पति के दुःख से अत्यन्त पीड़ित वह रानी भी दीर्घ स्वाँस लेकर अपने स्वामी की चिन्ता के उत्कट कारण को नहीं जान सकी।

इस प्रकार चिन्ता में मग्न राजा का कितना ही समय बीत गया, परन्तु सन्देह-सागर से पार करने वाला कोई भी कारण वह देख न सकी।

नारदजी बोले, ‘हे मुने! इस तरह चिन्ता को करते हुए पृथिवीपति राजा दृढ़धन्वा का क्या हुआ सो आप कहें। क्योंकि हे मुने! निर्मल वैष्णव चरित्र थोड़ा भी यदि सुना जाय तो पापों का नाश हो जाता है।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 14 

(Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 14) 

श्रीनारायणजी बोले, ‘इसके बाद चिन्ता से आतुर राजा दृढ़धन्वा के घर बाल्मीकि मुनि आये जिन्होंने परम अद्भुत तथा सुन्दर रामचन्द्रजी का चरित्र वर्णन किया है। राजा दृढ़धन्वा ने दूर से ही बाल्मीकि मुनि को आते हुए देखकर घबड़ाहट के साथ जल्दी से उठकर भक्तियुक्त हो उनके चरणों में दण्डवत्‌ प्रणाम किया। भलीभाँति पूजा कर उत्तम आसन पर ऋषि को बैठाकर उनके चरणों को गोद में लेकर दोनों हाथों से धोया, और उस चरणोदक को बड़े हर्ष के साथ शिर से धारण कर शुक पक्षी की बात स्मरण करता हुआ राजा दृढ़धन्वा ने मधुर वचन से यों कहा।

दृढ़धन्वा बोला, ‘हे भगवन इस समय मैं कृतकृत्य हूँ। भाग्यवान हूँ। मेरा जन्म सफल हुआ। हे प्रभो आज मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ। आज आप के प्रत्यक्ष दर्शन से शास्त्रादिकों के यथार्थ अर्थ का ज्ञान सफल हुआ। हे जगत्‌ के पावन करने वालों के पावन करने वाले! आज मैं अपने भाग्य का क्या वर्णन करूँ ?’

श्रीनारायण बोले, ‘इस तरह बाल्मीकि मुनि को कहकर वह राजा मौन हो गये, बाद बाल्मीकि मुनि उस राजा को विनययुक्त देखकर बड़े प्रसन्न हुए और जनता को आनंदित करते हुए बोले।

बाल्मीकि मुनि बोले, ‘हे नृपश्रेष्ठ! ठीक है, ठीक है, तुममें उक्त प्रकार की सब बातों का होना सम्भव है। हे राजन्‌! तुम चिंता से आतुर क्यों हो ? सो सब मन की बात कहो। ऐसा मालूम पड़ता है कि तुम्हारी कुछ कहने की इच्छा है, इसलिये हे महामते! उसे कहो।

राजा दृढ़धन्वा बोला, ‘आपके चरणकमल की कृपा से हमेशा सुख है। परन्तु हे विद्वन्‌! हमारे हृदय में एक बड़ा सन्देह है। वन में होने वाले शुक पक्षी के मुख से निकले हुए बाण के समान उस वचन को दूर करें। किसी समय मैं शिकार खेलने के लिये गहन वन में निकल गया। वहाँ भ्रमण करता हुआ एक तालाब देखा, उसका जल पीया, बाद में थकावट दूर करने के लिये एक बड़े वटवृक्ष के नीचे बैठ गया। अत्यन्त घनी तथा सुन्दर छायावाले और मन एवं नेत्र को आनन्द देनेवाले उस वृक्ष पर बैठे हुए सुन्दर शुक पक्षी को देखा।

जब उस शुक पक्षी पर हमारी दृष्टि गई तब उसने हमारे सम्मुख होकर एक श्लोक पढ़ा, कि इस पृथिवी पर विद्यमान अतुल सुख को देखकर तूँ तत्त्व (आत्मा) का चिंतन नहीं करता है तो इस संसार के पार कैसे जायेगा? मैं इस प्रकार शुक पक्षी के वचन को सुनकर विस्मित हो गया, हे ब्रह्मन मैं नहीं जानता कि उस शुक पक्षी ने क्या कहा ?

इस हमारे हृदय के सन्देह को आप दूर करने के योग्य हैं। हमारा राज्य-सुख तथा सुन्दर चार पुत्र, सुन्दर पतिव्रता स्त्री, हाथी, घोड़ा, रथ सेना, हे ब्रह्मन ये सब अतुल समृद्धि इस समय हमें किस पुण्य से प्राप्त है ? यह सब विचार कर संक्षेप में कहने के आप योग्य हैं।

राजा दृढ़धन्वा के वचन को बाल्मीकि मुनि सुनकर, प्राणायाम कर, एक मुहूर्त तक ध्यान मैं मग्न हो, हाथ में रखे हुये आँवला के फल के समान विश्वा संसार के भूत, भविष्यत्‌ और जो वर्तमान विषयं हैं, उनको हृदय में समाधि के बल से जानकर और निश्चिय कर राजा से बोले।

बाल्मीकि मुनि बोले, ‘हे राजाओं में श्रेष्ठ अपने पूर्वजन्म का चरित्र तुम सुनो, हे राजेन्द्र! पूर्वजन्म में आप द्रविड़ देश में ताम्रपर्णी नदी के किनारे वास करने वाले सुदेव नामक ब्राह्मण थे। धार्मिक, सत्यवादी, जो मिल जाय। उतने ही में सन्तोष करने वाले, वेधाध्ययन में सम्पन्न, विष्णु भक्ति में परायण रहा करते थे। आपने अग्निहोत्र आदि यज्ञों के द्वारा भगवान्‌ हरि को प्रसन्न किया। इस प्रकार रहते हुये तुम्हारी गुणवती स्त्री थी। वह गौतम ऋषि की सुन्दर कन्या गौतमी नाम से प्रसिद्ध शंकर की सेवा में तत्पर पार्वती के समान तुम्हारी प्रेम से सेवा करती थी।

गृहस्थाश्रम धर्म में धर्मपूर्वक वास करते बहुत समय बीत गया परन्तु तुम्हें कोई सन्तान नहीं हुई। एक दिन अपने स्त्री से सेवित आसन पर बैठा हुआ दुःखित ब्राह्मण गद्‌गद स्वर से बोला, ‘अयि सुन्दरि! संसार में पुत्र से बढ़ कर दूसरा सुख नहीं है और तप दान से उत्पन्न पुण्य दूसरे लोक में सुख देने वाला होता है। शुद्ध वंश में होने वाली सन्तान इस लोक में तथा परलोक में कल्याण करने वाली होती है, उस श्रेष्ठ पुत्र के न मिलने से मेरा जीवन निष्फल है। न तो मैंने पुत्र को प्यार किया और न वेद पढ़ने के लिए सोने से जगाया, न तो उसका विवाह किया, इसलिए मेरा जन्म व्यर्थ में चला गया।

अभी मेरी मृत्यु हो, मेरे को आयुष्य प्रिय नहीं है। इस प्रकार अपने प्रिय पति का वचन सुनकर स्त्री गौतमी खिन्न मन हुई। बाद धैर्य धारण करती हुई, प्रिय वचन बोलने में चतुर, प्रिय पति के प्रेम में मग्न वह स्त्री अपने पति को समझाने के लिये सुन्दर वचन बोली।

गौतमी बोली, ‘हे प्राणेश्वर अब इस तरह तुच्छ वचनों को न कहिये। आपके समान भगवद्‌भक्त विद्वान्‌ लोग मोह को प्राप्त नहीं होते हैं। हे विभो! आप सत्यधर्म में तत्पर रहनेवाले हो, आपने स्वर्ग को जीत लिया है। हे सुव्रत! अर्थात्‌ हे सुन्दर व्रत करने वाले! आप जैसे ज्ञानी को पुत्रों से सुख की प्राप्ति कैसी ? अर्थात्‌ ज्ञानी पुरुष पुत्रों से होने वाले सुख की इच्छा नहीं करते हैं।

हे ब्रह्मन पहले चित्रकेतु नामक राजा पुत्र-शोक से सन्तप्त हुआ तब नारद और अंगिरा ऋषि के आने पर पुत्र-शोक से मुक्त हो संसार से उद्धार को प्राप्त हुआ। इसी प्रकार राजा अंग वेन नामक दुष्ट पुत्र के कारण रात्रि के समय वन को चला गया। इसी तरह हे स्वामिन आपको भी सन्ताति दुःख देनेवाली होगी। फिर भी हे तपोधन! यदि आपको सत्‌-पुत्र की लालसा है तो प्रसन्नता से जगत्‌ के नाथ, समस्त अर्थों के दाता, हरि भगवान्‌ की आराधना करें। हे ब्रह्मन पहले सांख्याचार्य कर्दम ऋषि ने जिनकी आराधना कर पुत्र को प्राप्त किया जो कि पुत्र योगियों में श्रेष्ठ कपिल देव नाम से प्रसिद्ध हुआ।

ब्राह्मण श्रेष्ठ इस प्रकार अपनी धर्मपत्नी के वचन सुनकर तथा निश्चय कर उस अपनी गौतमी स्त्री के साथ ताम्रपर्णी नदी के तट पर गया। वहाँ जाकर उस पवित्र तीर्थ में स्नान कर अत्यन्त श्रेष्ठ तप करता भया। पाँच-पाँच दिन के बाद सूखे पत्ते तथा जल का आहार करता था। इस प्रकार तप करते उस तपोनिधि सुदेव ब्राह्मण को चार हजार वर्ष व्यतीत हो गये, हे ब्रह्मन्‌! उसके इस तपस्या से तीनों लोक काँप उठे। भक्तवत्सल भगवान्‌ उस सुदेव ब्राह्मण के अत्यन्त उग्र तपस्या को देखकर जल्दी से गरुड़ पर सवार होकर प्रगट हुए।

श्रीनारायण बोले, ‘नवीन मेघ के समान, जगत्‌ की रक्षा करने में समर्थ चार भुजा वाले, प्रसन्नमुख मुरारि को देखकर सुदेव शर्मा ब्राह्मण हर्ष के साथ मुकुन्द भगवान्‌ को साष्टांग प्रणाम करता हुआ बोला।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये चतुर्दशोऽध्याय ॥१४॥ 

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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 15  (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 15)

श्रीनारायण बोले, ‘नारद सुदेव शर्मा ब्राह्मण हाथ जोड़कर गद्‌गद स्वर से भक्तवत्सल श्रीकृष्णदेव की स्तुति करता हुआ बोला, ‘हे देव हे देवेश हे त्रैलोक्य को अभय देने वाले हे प्रभो! आपको नमस्कार है। हे सर्वेश्वर आपको नमस्कार है, मैं आपकी शरण आया हूँ, हे परमेश्वर हे शरणागतवत्सल मेरी रक्षा करो। हे जगत्‌ के समस्त प्राणियों से नमस्कार किये जाने वाले! हे शरण में आये हुए लोगों के भय का नाश करने वाले! आपको नमस्कार है।आप जय के स्वरूप हो, जय के देने वाले हो, जय के मालिक हो, जय के कारण हो, विश्व के आधार हो, विश्व के एक रक्षक हो, दिव्य हो, विश्वो के स्थान हो,

फलों के बीज हो, फलों के आधार हो, विश्व में स्थित हो, विश्व के कारण के कारण हो। फलों के मूल हो, फलों के देनेवाले हो। तेजःस्वरूप हो, तेज के दाता हो, सब तेजस्वियों में श्रेष्ठ हो, कृष्ण (हृदयान्धकार के नाशक) हो, विष्णु (व्यापक) हो, वासुदेव (देवताओं के वासस्थान अथवा वसुदेव के पुत्र) हो, दीनवत्सल हो ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

हे जगत प्रभु आपकी स्तुति करने में ब्रह्मादि देवता भी समर्थ नहीं हैं। हे जनार्दन मैं तो अल्पबुद्धि वाला, मन्द मनुष्य हूँ किस तरह स्तुति करने में समर्थ हो सकता हूँ। अत्यन्त दुःखी, दीन, अपने भक्त की आप कैसे उपेक्षा (त्याग) करते हो। हे प्रभो! क्या आज संसार में वह आपकी लोकबन्धुता नष्ट हो गई ?

बाल्मीकि ऋषि बोले, ‘सुदेव शर्मा ब्राह्मण इस प्रकार विष्णु भगवान्‌ की स्तुति कर हरि के सामने खड़ा हो गया। हरि भगवान्‌ उसके वचन सुनकर मेघ के समान गम्भीर वचन से बोले।’

श्री हरि बोले, ‘हे वत्स तुमने जो तप किया वह बहुत अच्छी तरह से किया। हे महाप्राज्ञ! हे तपोधन! क्या चाहते हो? सो मुझसे कहो। तुम्हारे तप से प्रसन्न मैं उस वर को तुम्हारे लिये दूँगा क्योंकि आज के पहले ऐसा बड़ा भारी कर्म किसी ने भी नहीं किया है।’

सुदेव शर्मा बोले, ‘हे नाथ हे दीनबन्धो हे दयानिधे यदि आप प्रसन्न हैं तो हे विष्णो हे पुराण-पुरुषोत्तम कृपा कर आप मेरे लिये सत्पुत्र दीजिये। हे हरे पुत्र के बिना सूना यह गृहस्थाश्रम-धर्म मुझको प्रिय नहीं लगता।’ इस प्रकार हरि भगवान्‌ सुदेव शर्मा ब्राह्मण के वचन को सुनकर बोले।

श्रीहरि भगवान्‌ बोले, ‘हे द्विज पुत्र को छोड़ कर बाकी जो न देने के योग्य है उनको भी तुम्हारे लिये दूँगा। क्योंकि ब्रह्मा ने तुम्हारे लिये पुत्र का सुख नहीं लिखा है। मैंने तुम्हारे भालदेश में होने वाले समस्त अक्षरों को देखा उसमें सात जन्म तक तुमको पुत्र का सुख नहीं है।’

इस प्रकार वज्रप्रहार के समान निष्ठुर हरि भगवान्‌ के वचन को सुनकर जड़ के कट जाने से वृक्ष के समान वह सुदेव शर्मा ब्राह्मण पृथिवी तल पर गिर गया। पति को गिरे हुए देखकर गौतमी स्त्री अत्यन्त दुःखित हुई और पुत्र की अभिलाषा से वंचित अपने स्वामी को देखती हुई रुदन करने लगी। कुछ समय बाद धैर्य का आश्रय लेकर गौतमी स्त्री गिरे हुए पति से बोली।

गौतमी बोली, ‘हे नाथ उठिये, उठिये, क्या मेरे वचन का स्मरण नहीं करते हैं ? ब्रह्मा ने भालदेश में जो सुख-दुःख लिखा है वह मिलता है। रमानाथ क्या करेंगे? मनुष्य तो अपने किये कर्म का फल भोगता है। अभागे पुरुष का उद्योग, मरणासन्न पुरुष को औषध देने के समान निष्फल हो जाता है। जिसका भाग्य प्रतिकूल (उल्टा) है उसका किया हुआ सब उद्योग व्यर्थ होता है। समस्त वेदों में यज्ञ, दान, तप, सत्य, व्रत, आदि की अपेक्षा हरि भगवान्‌ का सेवन श्रेष्ठ कहा है परन्तु उससे भी भाग्य बल श्रेष्ठ है। इसलिये हे भूसुर सर्वत्र से विश्वास को हटा कर उठिये और शीघ्र दैव का ही आश्रय लीजिये। इसमें हरि का क्या काम है ?’

इस प्रकार उस गौतमी के अत्यन्त शोक से युक्त वचन को सुनकर दुःख से काँपते हुए गरुड़जी विष्णु भगवान्‌ से बोले।

गरुड़जी बोले, ‘हे हरे शोकरूपी समुद्र में डूबी हुई ब्राह्मणी को उसी तरह नेत्र से गिरते हुए अश्रुधारा से व्याकुल ब्राह्मण को देखकर हे दीनबन्धो हे दयासिन्धोश हे भक्तों के लिये अभय को देनेवाले! हे प्रभो भक्तों के दुःख को नहीं सहने वाले आपकी आज वह दया कहाँ चली गई ?

अहो आप वेद और ब्राह्मण की रक्षा करने वाले साक्षात्‌ विष्णु हो। इस समय आपका धर्म कहाँ गया ? अपने भक्त को देने के लिये चार प्रकार की मुक्ति आपके हाथ में ही स्थित कही गई है। अहो! फिर भी वे आपके भक्त उत्तम भक्ति को छोड़कर चतुर्विध मुक्ति की इच्छा नहीं करते हैं और उनके सामने आठ सिद्धियाँ दासी के समान स्थित रहती हैं। आपके आराधन का माहात्म्य सब जगह सुना है। तब इस ब्राह्मण के पुत्र की वाञ्छा आज पूर्ण करने में आपको क्या परिश्रम है ?

हाथी दान करने वाले पुरुष को अंकुश दान करने में क्या परिश्रम है? अब आज से कोई भी आपके चरण-कमल की सेवा नहीं करेगा। जो पुरुष के भाग्य में होता है वही निश्चय रूप से प्राप्त होता है। इस बात की प्रथा आज से संसार में चल पड़ी और आपकी भक्ति रसातल को चली गई अर्थात लुप्त हो गई।

हे नाथ आप करने तथा न करने में स्वतंत्र हैं यह आपका सामर्थ्य सर्वत्र विख्यात है आज वह सामर्थ्य इस ब्राह्मण को पुत्र प्रदान न करने से नष्ट होता है। इसलिये आप इस ब्राह्मण के लिये अवश्य एक पुत्र प्रदान कीजिये। सुदामा ब्राह्मण ने आपकी आराधना कर उत्तम वैभव को प्राप्त किया। आपकी कृपा से सान्दीपिनि गुरु ने मृत पुत्र को प्राप्त किया। इन कारणों से पुत्र की लालसा करनेवाले ये दोनों स्त्री-पुरुष आपकी शरण में आये हैं।’

श्रीनारायण बोले, ‘इस प्रकार विष्णु भगवान्‌ अमृत के समान गरुड़ के वचन को सुनकर गरुड़जी से बोले, ‘हे! पक्षिवर! हे वैनतेय! इस ब्राह्मण को अभिलाषित एक पुत्र शीघ्र दीजिये।’

इस प्रकार अपने अनुकूल हरि भगवान्‌ के वचन को सुनकर गरुड़जी ने अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर उस पृथिवी के देवता दुःखित ब्राह्मण के लिये अनुरूप सुन्दर पुत्र को जल्दी से दे दिया।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्ये पञ्चदशोऽध्यारयः ॥१५॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 16 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 16) 

श्रीनारायण बोले, ‘हे महाप्राज्ञ हे नारद बाल्मीकि ऋषि ने जो परम अद्भुत चरित्र दृढ़धन्वा राजा से कहा उस चरित्र को मैं कहता हूँ तुम सुनो।बाल्मीकि ऋषि बोले, ‘हे दृढ़धन्वन हे महाराज! हमारे वचन को सुनिये। गरुड़ जी ने केशव भगवान्‌ की आज्ञा से इस प्रकार ब्राह्मण श्रेष्ठ से कहा।

गरुड़जी बोले, ‘हे द्विजश्रेष्ठ तुमको सात जन्म तक पुत्र का सुख नहीं है यह जो वचन हरि भगवान्‌ ने कहा सो इस समय तुमको वैसा ही है, फिर भी कृपा से स्वा्मी की आज्ञा पाकर मैं तुमको पुत्र दूँगा। हे तपोधन हमारे अंश से तुमको पुत्र होगा। जिस पुत्र से गौतमी के साथ तुम मनोरथ को प्राप्त करोगे; किन्तु उस पुत्र से होनेवाला दुःख तुम दोनों को अवश्य होगा।

हे द्विजशार्दूल तुम धन्य हो जो तुम्हा्री बुद्धि हरि भगवान्‌ में हुई। हरिभक्ति सकाम हो अथवा निष्कातम हो, हरि भगवान्‌ को दोनों ही प्रिय हैं। मनुष्यों का शरीर जल के बुदबुद के समान क्षण में नाश होनेवाला है उस शरीर को प्राप्त कर जो हृदय में हरि के चरणों का चिन्तन करता है वह धन्य है। इस अत्यन्त दुस्तर संसार से तारनेवाले हरि भगवान्‌ के अलावा दूसरा और कोई नहीं है, यह हरि भगवान्‌ की ही कृपा से मैंने तुमको पुत्र दिया है। मन में श्रीहरि को धारणकर सुखपूर्वक विचारों और उदासीन भाव से संसार के सुखों को भोगो।

बाल्मीकि ऋषि बोले, ‘गौतमी और सुदेव दोनों स्त्री पुरुष के देखते-देखते उत्तम वर को देकर उसी समय गरुड़ पर सवार होकर भगवान्‌ हरि शीघ्र ही वैकुण्ठो को चले गये। सुदेव शर्मा भी स्त्री के साथ अपने मन के अनुसार पुत्ररूप वर को पाकर अपने घर को आया और उत्तम गृहस्थाश्रम के सुख को भोगने लगा।

कुछ समय बीतने के बाद गौतमी को गर्भ रहा और दशम महीना प्राप्त होने पर गर्भ पूर्ण हुआ। प्रसूतिकाल आने पर गौतमी ने उत्तम पुत्र पैदा किया और पुत्र के होने पर सुदेव शर्मा बहुत प्रसन्न हुआ। श्रेष्ठ ब्राह्मणों को बुलाकर जातकर्म संस्कार किया और अच्छी तरह स्नान कर ब्राह्मणश्रेष्ठ सुदेव शर्मा ने उन ब्राह्मणों को बहुत दान दिया। ब्राह्मण और स्वजनों के साथ बुद्धिमान्‌ सुदेव शर्मा ने नामकरण संस्कार किया। कृपालु गरुड़जी ने प्रेम से यह पुत्र हुआ था।

शरत्‌कालीन चन्द्रमा के समान उदय को प्राप्त, तेजस्वी, यह शुक के सदृश है इसलिए मेरा यह प्रिय पुत्र शुकदेव नामवाला हो। माता के मन को आनन्द देनेवाला वह पुत्र पिता के मनोरथों के साथ-साथ शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगा।

पिता ने हर्ष के साथ उपनयन संस्कार कर गायत्री मन्त्र का उपदेश किया। बाद वह बालक वेदारम्भ संस्कार को प्राप्त कर ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित हुआ। उस ब्रह्मचर्य के तेज से युक्त बालक साक्षात् दूसरे सूर्य के समान शोभित हुआ। बुद्धिसागर उस बालक ने वेद का अध्ययन प्रारम्भ किया। उस गुरुवत्सल बालक ने सद्‌बुद्धि से अपने गुरु को प्रसन्न किया और गुरु के एक बार कहने मात्र से समस्त विद्या को प्राप्त किया।

बाल्मीकि ऋषि बोले, ‘एक समय कोटि सूर्य के समान प्रभाव वाले देवल ऋषि आये। उनको देखकर हर्ष से सुदेव शर्मा ने दण्डवत्‌ प्रणाम किया। अर्ध्य, पाद्य आदि से विधिपूर्वक उन देवल मुनि की पूजा की और महात्मा देवल के लिए आसन दिया। अति तेजस्वी देवदर्शन देवल ऋषि उस आसन पर बैठ गये। बाद अपने चरणों पर बालक को गिरे हुए देखकर देवल ऋषि बोले।

देवल मुनि बोले, ‘अहो हे सुदेव तुम धन्य हो, तुम्हारे ऊपर भगवान्‌ प्रसन्न हुए, क्योंकि तुमने दुर्लभ, सुन्दर, श्रेष्ठ पुत्र को प्राप्त किया है। ऐसा विनीत, बुद्धिमान्‌, बोलने में चतुर वेदपाठी और शीलवान्‌ पुत्र कहीं भी किसी के यहाँ नहीं देखा।

हे पुत्र यहाँ आओ, तुम्हारे हाथ में यह कौतुक क्या देखता हूँ ? सुन्दर छत्र, दो चामर, यवरेखा के साथ कमल, जानु तक लटकने वाले हाथी के सूँड़ के समान ये तुम्हारे हाथ, कान तक फैले हुए विशाल लाल नेत्र, शरीर गोल आकार का, त्रिवली से युक्त पेट है। इस प्रकार उस बालक के विषय में कहकर उस ब्राह्मन को उत्कण्ठित देख कर देवल ऋषि फिर बोले, अहो! हे सुदेव यह तुम्हारा लड़का गुणों का समुद्र है। कंधा और कोख का सन्धि स्थान गूढ़ है, शंख के समान उतार-चढ़ाव युक्त गला वाला, चिक्कण टेढ़े शिर के बाल वाला, ऊँची छाती, लम्बी गर्दन, बराबर कान, बैल के समान कन्धा, इस तरह समस्त लक्षणों से युक्त यह पुत्र श्रेष्ठ भाग्य का निधि है।

एक ही बहुत बड़ा दोष है जिससे सब व्यर्थ हो गया। इस प्रकार कह कर शिर काँपते हुए दीर्घ श्वास लेकर देवल मुनि बोले, ‘प्रथम आयु की परीक्षा करना, बाद लक्षणों को कहना चाहिये। आयु से हीन बालक के लक्षणों से क्या प्रयोजन है ? हे सुदेव यह तुम्हारा लड़का बारहवें वर्ष में डूब कर मर जायगा, इससे तुम मन में शोक नहीं करना। अवश्य होने वाला निःसन्देह होकर ही रहता है, मरणासन्न को औषध देने के समान उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं है।

बाल्मीकि मुनि बोले, ‘देवल मुनि इस प्रकार कहकर ब्रह्मलोक को चले गये और गौतमी के साथ सुदेव ब्राह्मण पृथिवी पर गिर गया।

पृथिवी पर पड़ा हुआ देवल ऋषि के कहे हुए वचनों को स्मरण कर चिरकाल तक विलाप करने लगा। बाद उसकी स्त्री गौतमी धैर्य धारण करती हुई पुत्र का अपनी गोद में लेकर, प्रथम प्रेम से पुत्र का मुख चुम्बन कर बाद पति से बोली।

गौतमी बोली, ‘हे द्विजराज होने वाली वस्तु में भय नहीं करना चाहिये। जो नहीं होनेवाला है वह कभी नहीं होगा और जो होने वाला है वह होकर रहेगा। क्या राजा नल, रामचन्द्र और युधिष्ठिर दुःख को प्राप्त नहीं हुये ?

राजा बलि भी बन्धन को प्राप्त हुआ, यादव नाश को प्राप्त हुए, हिरण्याक्ष कठिन वध को प्राप्त हुआ, वृत्रासुर भी मृत्यु को प्राप्त हुआ। सहस्रार्जुन का शिर काटा गया, रावण के भी उसी तरह शिर काटे गये, हे मुने! भगवान्‌ रामचन्द्र भी वन में जानकी के विरह को प्राप्त हुए। राजर्षि परीक्षित भी ब्राह्मण से मृत्यु को प्राप्त हुये। हे मुनीश्वेर! इस प्रकार जो होने वाला है वह अवश्य होता है। इसलिये हे नाथ! उठिये और सनातन हरि भगवान्‌ का भजन करिये जो समस्त जीवों के रक्षक हैं और मोक्ष पद को देने वाले हैं।

बाल्मीकि ऋषि बोले, ‘इस प्रकार सुदेव शर्मा ने अपनी स्त्री गौतमी के वचन को सुन कर स्वस्थ हो हृदय में हरि भगवान्‌ के चरणों का ध्यान कर पुत्र से होने वाले शोक को जल्दी से त्याग दिया।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये षोडशोऽध्यायः ॥१६॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 17  (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 17)

नारदजी बोले, ‘हे कृपा के सिन्धु उसके बाद जागृत अवस्था को प्राप्त उस राजा दृढ़धन्वा का क्या हुआ ? सो मुझसे कहिये जिसके सुनने से पापों का नाश कहा गया है। नारायणजी बोले, ‘अपने पूर्व जन्म के चरित्र को सुनने से आश्चर्ययुक्त तथा और सुनने की इच्छा रखनेवाले राजा दृढ़धन्वा से बाल्मीकि ऋषि फिर बोले।

बाल्मीकि मुनि बोले, ‘इस तरह स्त्री के मुख से शीतल वाणी को सुनकर सुदेव शर्मा धैर्य धारण कर हरि भगवान्‌ में चित्त को लगाता हुआ दीर्घ श्वाास लेकर दीनमुख सुदेव शर्मा, जो होनेवाला है वह होगा यह मन में निश्चय कर पुष्प समिधा आदि के लिये वन को गया।

इस प्रकार करते उस सुदेवशर्मा का कितना ही समय बीत गया। बाद किसी दिन समिधा, कुश, फल, पुष्प आदि के लेने के लिये वन को गया, वहाँ जाकर सुदेवशर्मा मन से हरि भगवान्‌ के चरणकमलों का ध्यान करने लगा। उसी दिन उसका लड़का शुकदेव अपने मित्रों के साथ बावली को गया। बावली में प्रवेश कर समवयस्क मित्रों के साथ जलयन्त्रों से जल फेंकता हुआ और बार-बार हँसता हुआ खेलने लगा। गर्मी के ऋतु में बार-बार जल में खेलता हुआ हर्ष को प्राप्त हुआ।

इस तरह प्रेम में मग्न सब बालकों से खेल करते हुए अथाह जल में खड़ा हुआ वह शुकदेव बालक मित्र बालकों से पीड़ित होकर मित्र-वर्ग के भय से भागने की इच्छा करता हुआ, और भाग्य से प्रेरित हो अपने श्वाँस को रोक कर अपने मित्रों को छलने की इच्छा से वहाँ अथाह जल में गोता लगाया। किन्तु उस जल में व्याकुल होकर उससे बाहर निकलने की इच्छा करता सहसा उस अथाह जल में वह बालक मृत्यु को प्राप्त हो गया।

जल से निकलते हुए बालक को न देखकर, वे सब समवयस्क मित्र बालक चकित होकर हाहाकार करते हुए बहुत जोर से दौड़े, और अत्यन्त शोक से ग्रस्त वे बालक उसकी माता गौतमी से जाकर बोले। उन बालकों के अत्यन्त अप्रिय वज्रपात के समान वचन को सुनकर पुत्र में प्रेम करने वाली वह गौतमी तुरन्त पृथिवी पर गिर गई। उसी समय वन से सुदेवशर्मा आया। पुत्र का मरण सुनकर कटे वृक्ष के समान पृथिवी पर गिर गया।

बाद दोनों ब्राह्मण स्त्री-पुरुष उठकर बावली को गये। वहाँ जाकर मृत पुत्र का आलिंगन कर उसके शरीर को गोद में लेकर सुदेवशर्मा बारम्बार पुत्र का मुख चूमने लगा। अपने गोद में स्थित मृत पुत्र को बार-बार देखता हुआ, रोता-विलाप करता, गद्‌गद अक्षर से बोला।

सुदेवशर्मा बोला, ‘हे पुत्र मेरे शोक को नाश करने वाले, शीतल, सुन्दर और शुभ वचन को बोलो। हे वत्स! मेरे मन को प्रसन्न करो। वृद्ध माता-पिता को छोड़कर तुम जाने के योग्य नहीं हो। हे वत्स वेदाध्ययन के लिये तुम्हारा श्रेष्ठ मित्र बुला रहा है, और बड़े हर्ष से पढ़ाने के लिये उपाध्याय तुमको बुला रहे हैं। हे पुत्र! शीघ्र उठो। इस समय क्यों सो रहे हो ?

तुमको छोड़कर घर नहीं जाऊँगा। घर में मेरा क्या काम है ?। तुम्हारे बिना इस समय मेरा घर शून्य जंगल के समान हो गया है। तुमको फल मूल प्रिय हो तो मेरे सामने से उठो। यदि नहीं उठोगे तो वन को भी नहीं जाऊँगा। वन में क्या काम है?

मैंने कोई निन्दित काम नहीं किया और ब्रह्महत्या भी नहीं की फिर किस कर्म के फल से मेरा पुत्र मर गया। अहो ब्रह्मा तुमने ऐसा करके कौन-सा बड़ा फल प्राप्त किया ? हे निर्दय वृद्ध, दीन मेरे नेत्र को लेकर, निर्धन का धन और दोनों स्त्री-पुरुषों का सहारा इस पुत्र को हरण करते तुमको लज्जा? क्यों नहीं होती? सर्वत्र तुम दयालु हो परन्तु मेरे विषय में निर्दय हो गये, सो क्यों ? अहो आश्चर्य है। मेरे भाग्य से यह उलटा कैसे हुआ है। स्वभाव से सुन्दर पुत्र की खोज इस समय मैं कहाँ करूँ ? हे पुत्र तुम्हारे मुख और सुन्दर नेत्र को कहाँ देखूँगा।

मेघ जल को बरसाता है। पृथिवी धान्य को पैदा करती है। पर्वत रत्नों को और समुद्र मुक्तासार मणि को देते हैं। परन्तु उस देश को नहीं देखता हूँ जहाँ मरा हुआ पुत्र मिलता हो। जिसके शरीर का आलिंगन कर हृदय के ताप को छोड़ता है।

हे वत्स तुम एक बार शीघ्र वचन सुनाओ और दया करो। तुम्हारी माता लज्जा छोड़कर चील्ह के समान अत्यन्त विलाप करती है। हे पुत्र उसको देख कर तुमको दया क्यों नहीं पैदा होती है ? माता-पिता की आज्ञा बिना तुम कभी भी नहीं गये। हे पुत्र! हम दोनों से बिना पूछे ही दूर के मार्ग को गये हो क्या? इस समय किसके वेदाध्ययन की उत्तम वाणी को सुनूँगा। हे वत्स! आज तुम्हारे और तुम्हारे मनोहर मधुर वचन के स्मरण से मेरा हृदय सौ-सौ टुकड़ा नहीं हो रहा है।

क्योंकि मेरा हृदय लोहे के समान है। हे कोशलेन्द्र राजा दशरथ तुमको हम धन्य मानते हैं क्योंकि रामचन्द्र के वन जाने पर पुत्र के ताप से दग्ध वे प्राणों को नहीं रख सके। परन्तु पुत्र के मर जाने पर भी जीवित रहनेवाले मुझको धिक्काकर है। हे गोविन्द हे विष्णो हे यदुनाथ हे नाथ हे श्रीरुक्मिणी के प्राणपति हे मुरारे हे दीन पर दया करनेवाले हे दयालो पुत्ररूप अग्नि के ताप से सन्तप्त मेरी रक्षा करो। हे देवादिदेव हे समस्त लोक के नाथ हे गोपाल हे गोपीश हे चक्र को हाथ में धारण करने वाले हे यमुना के विष-दोष को हरनेवाले! पुत्र रूप अग्नि के ताप से सन्तप्त मेरी रक्षा करो। हे बैकुण्ठ के वासी विष्णो हे नरकासुर के नाशक हे चराचर के आधार! हे संसार रूप समुद्र से पार करने के लिए जहाज रूप!

अर्थात संसार समुद्र से पार उतारने वाले हे ब्राह्मादि देवताओं से नमस्कृत चरणपीठ वाले पुत्ररूप अग्नि के ताप से सन्तप्त मेरी रक्षा करो।

हमारे समान शठ दूसरा कोई नहीं है जो मैंने देवकीपुत्र श्रीकृष्णचन्द्र के वचनों का उल्लंघन कर पुत्र में दुराशा की। कौन अभागा पुरुष भाग्य में न रहने वाली वस्तु को प्राप्त कर सकता है।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये सप्तदशोऽध्यायः ॥१७॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 18 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 18)

नारद जी बोले, ‘हे तपोनिधे उसके बाद साक्षात्‌ भगवान्‌ बाल्मीकि मुनि ने राजा दृढ़धन्वा को क्या कहा सो आप कहिये।

श्रीनारायण बोले, ‘वह राजर्षि दृढ़धन्वा अपने पूर्व-जन्म का वृ्त्तान्त सुनकर आश्चर्य करता हुआ मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि मुनि से पूछता है।दृढ़धन्वा बोला, ‘हे ब्रह्मन्‌! आपके नवीन-नवीन सुन्दर अमृत के समान वचनों को बारम्बार पान कर भी मैं तृप्त नहीं हुआ। इसलिए पुनः उसके बाद का वृतान्त कहिये।

बाल्मीकि मुनि बोले, ‘हे जगतीपते इस प्रकार उस ब्राह्मण के विलाप करते समय गर्जना से दशो दिशाओं को गुँञ्जित करता हुआ असमय में होने वाला मेघ आया, पर्वतों को कँपाने के समान तीक्ष्ण स्पर्शों वाला वायु बहने लगा। और बिजली अत्यन्य चमकती हुई अपनी आवाज से दश दिशाओं को पूर्ण करती हुई। इस तरह एक मास तक वृष्टि हुई जिस जल से पृथ्वी भर गई परन्तु पुत्र-शोक रूप अग्नि के ताप से सन्तप्त वह ब्राह्मण कुछ भी नहीं जान सका।

न तो जलपान किया और न भोजन ही किया। केवल हे पुत्र! हे पुत्र! इस प्रकार कहकर विलाप करते हुए ब्राह्मण का उस समय जो मास व्यतीत हुआ, वह श्रीकृष्णचन्द्र का प्रिय पुरुषोत्तम मास था! सो न जानते हुए उस ब्राह्मण को पुरुषोत्तम मास का सेवन हो गया। उस पुरुषोत्तम मास के सेवन से अत्यन्त प्रसन्न नूतन मेघ के समान श्यामवर्ण, वनमाला से भूषित हरि भगवान स्वयं प्रगट हुए।

जगत्‌ के नाथ हरि भगवान्‌ के प्रगट होने पर मेघसमूह गायब हो गया। उस ब्राह्मण ने पुरुषोत्तम श्रीकृष्णचन्द्र को देखा। दर्शन होने के साथ ही गोद में लिए हुए पुत्र के शरीर को जमीन पर रख कर स्त्री सहित ब्राह्मण श्रीकृष्ण भगवान्‌ को दण्डवत्‌ नमस्कार करता हुआ, हाथ जोड़ कर श्रीकृष्ण भगवान्‌ के सामने खड़ा होकर श्रीकृष्ण भगवान्‌ ही हमारे रक्षक हों ऐसा विचार करता हुआ, भगवान्‌ भी पुरुषोत्तम की सेवा से प्रसन्न हो अमृत की वृष्टि करनेवाली अत्यन्त मधुर वाणी से बोले।

श्रीहरि भगवान्‌ बोले, ‘भो भो सुदेव तुम धन्य हो, इस समय आप भाग्यवान्‌ हो, तुम्हारे भाग्य के वर्णन करने में त्रलोक्य में कौन समर्थ है? हे वत्स! हे तपोधन! जो तुम्हारा होने वाला है उसको हम कहेंगे, तुम सुनो। हे ब्राह्मण! बारह हजार वर्ष की आयु वाला पुत्र तुमको होगा। इसके बाद तुमको पुत्र से होने वाले सुख में सन्देह नहीं है। हे द्विजात्तम! प्रसन्न मन से मैंने यह पुत्र तुमको दिया है। हमारे प्रसाद से होने वाले तुम्हारे पुत्र-सुख को देखकर हे द्विजोत्तम! देवता, गन्धर्व और मनुष्य लोग पुत्र-सुख की इच्छा करने वाले होंगे। इस विषय में तुमसे प्राचीन इतिहास मैं कहूँगा, जिस इतिहास को पहले मार्कण्डेय मुनि ने राजा रघु से कहा था।

प्रथम कोई श्रेष्ठ मनवाले धनुर्नामक मुनीश्वर लोकों को पुत्र रूप मानसिक चिन्ता से जले हुए देखकर दुःखित हुए, और अमर पुत्र की इच्छा करके दारुण तप करने लगे। हजार वर्ष बीत जाने पर धनुर्मुनि से देवता लोग बोले, ‘हे मुनीश्व्र तुम्हारे कठिन तप से हम सब प्रसन्न हैं इसलिए अपने मन के अनुसार श्रेष्ठ वर को माँगो।

श्रीनारायण बोले, ‘देवताओं के अमृत तुल्य इस वचन को सुनकर उन तपोधन धनुर्नामक मुनि ने बुद्धिमान्‌ और अमर पुत्र को माँगा। उस ब्राह्मण से देवताओं ने कहा कि पृथिवी में ऐसा पुत्र नहीं है। तब धनुर्मुनि ने देवताओं से कहा कि अच्छा ऐसा पुत्र दो जिसके आयु की मर्यादा बँधी हो। देवताओं ने कहा कि कैसी मर्यादा चाहिये ? कहो। इस पर उस मुनि ने भी कहा कि यह महान्‌ पर्वत जब तक रहे तब तक उसकी आयु होवे। ‘ऐसा ही हो’, इस प्रकार कह कर इन्द्रादि देवता स्वर्ग को चले गये। धनुशर्मा ने थोड़े समय में वैसा ही पुत्र को प्राप्त किया।

उस मुनि का पुत्र आकाश में चन्द्र के समान बढ़ने लगा। सोलहवें वर्ष के होने पर मुनीश्वर ने पुत्र से कहा, ‘हे वत्स! ये मुनि लोग कभी भी अपमान करने योग्य नहीं हैं। इस तरह शिक्षा देने पर भी उस पुत्र ने मुनियों का अनादर किया। आयु की मर्यादा के बल से उन्मत्त उसने ब्राह्मणों का अपमान किया। किसी समय परम क्रोधी महिष नामक मुनि ने विधि से शुभ फल देने वाले शालग्राम शिला का पूजन किया। उसी समय उस बालक ने वहाँ आकर शालग्राम की शिला को जल्दी से लेकर अपनी चंचलता के कारण हँसता हुआ पूर्ण जल वाले कूप में छोड़ दिया।

क्रोध से युक्त दूसरे कालरुद्र के समान महिष मुनि ने उस धनुर्मुनि के पुत्र को शाप दिया कि यह अभी मर जाय। परन्तु उसे मृत हुये न देखकर मन में मृत्यु के कारण का ध्यान किया। देवताओं ने इस धनुर्मुनि के पुत्र को निमित्तायु वाला बनाया है। इस तरह चिन्ता करते हुए महिष मुनि ने लम्बी साँस ली। जिससे कई कोटि महिष पैदा हो गये और उन महिषों ने पर्वत को टुकड़ा-टुकड़ा कर दिया। उसी समय मुनि का अत्यन्त दुर्मद लड़का मर गया।

धनुर्मुनि ने अत्यन्त दुःख से बार-बार विलाप किया। बाद अनेक प्रकार विलाप कर पुत्र के शरीर को लेकर, पुत्र के दुःख से अत्यन्त पीड़ित हो चिता की अग्नि में प्रवेश किया। इस प्रकार हठ से पुत्र प्राप्त करने वाले कहीं भी सुख को नहीं पाते हैं।

हे तपोधन गरुड़जी ने यह जो पुत्र दिया है इससे संसार में तुम प्रशंसनीय पुत्रवान्‌ होगे। हे अनघ मैंने प्रसन्न होकर पुरुषोत्तम के माहात्म्य से इस पुत्र को चिरस्थायी किया है, यह तुमको सुख देने वाला हो। पुत्र के साथ सर्वदा गृहस्थाश्रम के सुख को भोगने के बाद तुम ब्रह्मलोक को जाओगे, वहाँ उत्तम सुख देवताओं के वर्ष से हजार वर्ष पर्यन्त भोग कर पृथ्वी पर आओगे हे द्विजोत्तम यहाँ तुम चक्रवर्ती राजा होगे। दृढ़धन्वा नाम से प्रसिद्ध तथा सेना, सवारी से युक्त हो दस हजार वर्ष पर्यन्त पृथिवी के राजा का सुख भोगोगे। इन्द्र के पद से अधिक अखण्ड बल और ऐश्वर्य होवेगा। उस समय यह गौतमी स्त्री पटरानी होवेगी। नित्य पतिसेवा में तत्पर और गुणसुन्दरी नाम वाली होगी।

राजनीति विशारद तुमको चार पुत्र होंगे, और सुन्दर मुखवाली महाभागा सुशीला नाम की कन्या होगी। हे महाभाग! सुरों और असुरों को दुर्लभ संसार के सुखों को भोगकर तुम संसार रूपी समुद्र के पार करने वाले विष्णु भगवान को जब भूल जाओगे तब हे विप्र! उस समय वन में यह तुम्हारा पुत्र शुक पक्षी होकर वट वृक्ष के ऊपर बैठ कर, वैराग्य पैदा करने वाले श्लोेक को बार-बार पढ़ता हुआ तुमको इस प्रकार बोध करायेगा। शुक पक्षी के वचन को सुनकर दुःखित मन होकर घर आओगे। संसार के विषय सुखों को छोड़कर चिन्तारूपी समुद्र में मग्न, हे भूसुर! तुमको बाल्मीकि मुनि आकर ज्ञान करायेंगे। उनके वचन से निःसन्देह हो शरीर को छोड़कर हरि भगवान्‌ के पद को दोनों स्त्री-पुरुष तुम जाओगे, ‘जो कि पद आवागमन से रहित कहा गया है।

इस प्रकार महाविष्णु के कहने पर वह ब्राह्मण-बालक उठ खड़ा हुआ। वे दोनों स्त्री-पुरुष ब्राह्मण पुत्र को उठा हुआ देख कर अत्यन्त आनन्दित हो गये। सब देवता लोग भी सन्तुष्ट होकर पुष्पों की वर्षा करने लगे। शुकदेव ने भी श्रीहरि को और माता-पिता को प्रणाम किया। उस ब्राह्मण को पुत्र के साथ देख कर गरुड़जी भी अत्यन्त प्रसन्न हुए।

उस समय चकित होकर ब्राह्मण ने श्रीहरि भगवान्‌ को नमस्कार किया और हाथ जोड़ कर हृदय में होने वाले सन्देह को दूर करने ले लिए हर्ष के कारण गद्‌गद वचन से जगदीश्वर से बोला, ‘हे हरे मैंने चार हजार वर्ष पर्यन्त लगातार अत्यन्त दुष्कर तप किया उस समय मेरे को आपने वहाँ आकर जो कठोर वचन कहा कि हे वत्स! हमने अच्छी तरह देखा है। इस समय तुमको निश्चय पुत्र नहीं है। हे हरे उस वचन का उल्लंघन कर मेरे मृत पुत्र को जीवित करने का कारण क्या है ? सो आप कहिये।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये अष्टादशोऽध्यायः ॥१८॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 19  (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 19)

श्रीसूत जी बोले, ‘हे तपस्वियो इस प्रकार कहते हुए श्रीनारायण को मुनिश्रेष्ठ नारद मुनि ने मधुर वचनों से प्रसन्न करके कहा। हे ब्रह्मन्‌!तपोनिधि सुदेव ब्राह्मण को प्रसन्न विष्णु भगवान्‌ ने क्या उत्तर दिया सो हे तपोनिधे कहिये।श्रीनारायण बोले, ‘इस प्रकार महात्मा सुदेव ब्राह्मण ने विष्णु भगवान्‌ से कहा। भक्तवत्सल विष्णु भगवान् ने वचनों द्वारा सुदेव ब्राह्मण को प्रसन्न करके कहा।

हरि भगवान्‌ बोले, ‘हे द्विजराज जो तुमने किया है उसको दूसरा नहीं करेगा। जिसके करने से हम प्रसन्न हुए उसको आप नहीं जानते हैं। यह हमारा प्रिय पुरुषोत्तम मास गया है। स्त्री के सहित शोक में मग्न तुमसे उस पुरुषोत्तम मास की सेवा हुई। हे तपोनिधे! इस पुरुषोत्तम मास में जो एक भी उपवास करता है, हे द्विजोत्तम! वह मनुष्य अनन्त पापों को भस्म कर विमान से बैकुण्ठ लोक को जाता है। सो तुमको एक महीना बिना भोजन किये बीत गया और असमय में मेघ के आने से प्रतिदिन प्रातः मध्याह्न सायं तीनों काल में स्नान भी अनायास ही हो गया।

हे तपोधन तुमको एक महीना तक मेघ के जल से स्नान मिला और उतने ही अखण्डित उपवास भी हो गये। शोकरूपी समुद्र में मग्न होने के कारण ज्ञान से शक्ति से हीन तुमको अज्ञान से पुरुषोत्तम का सेवन हुआ। तुम्हारे इस साधन का तौल कौन कर सकता है ? तराजू के एक तरफ पलड़े में वेद में कहे हुए जितने साधन हैं उन सबको रख कर और दूसरी तरफ पुरुषोत्तम को रख कर देवताओं के सामने ब्रह्मा ने तोलन किया और सब हलके हो गये, पुरुषोत्तम भारी हो गया। इसलिये भूमि के रहने वाले लोगों से पुरुषोत्तम का पूजन किया जाता है।

हे तपोधन यद्यपि पुरुषोत्तम मास सर्वत्र है, फिर भी इस पृथिवी लोक में पूजन करने से फल देने वाला कहा है। इससे हे वत्स! इस समय आप सब तरह से धन्य हैं, क्योंकि आपने इस पुरुषोत्तम मास में उग्र तथा परम दारुण तप को किया। मनुष्य शरीर को प्राप्त कर जो लोग श्रीपुरुषोत्तम मास में स्नान दान आदि से रहित रहते हैं वे लोग जन्म-जन्मान्तर में दरिद्र होते हैं। इसलिये जो सब तरह से हमारे प्रिय पुरुषोत्तम मास का सेवन करता है वह मनुष्य हमारा प्रिय, धन्य और भाग्यवान्‌ होता है।’

श्रीनारायण बोले, ‘हे मुने जगदीश्वर हरि भगवान्‌ इस प्रकार कह कर गरुड़जी पर सवार होकर शुद्ध बैकुण्ठ भवन को शीघ्र चले गये। सपत्नीक सुदेव शर्मा पुरुषोत्तम मास के सेवन से मृत्यु से उठे हुए शुकदेव पुत्र को देखकर अत्यन्त दिन-रात प्रसन्न होने लगे।

मुझसे अज्ञानवश पुरुषोत्तम मास का सेवन हुआ और वह पुरुषोत्तम मास का सेवन फलीभूत हुआ। जिसके सेवन से मृत पुत्र उठ खड़ा हुआ। आश्चर्य है कि ऐसा मास कहीं नहीं देखा! इस तरह आश्चर्य करता हुआ उस पुरुषोत्तम मास का अच्छी तरह पूजन करने लगा। वह सपत्नीक ब्राह्मणश्रेष्ठ इस पुत्र से प्रसन्न हुआ और शुकदेव पुत्र ने भी अपने उत्तम कार्यों से सुदेव शर्मा पिता को प्रसन्न किया।

सुदेव शर्मा ने पुरुषोत्तम मास की प्रशंसा की तथा आदर के साथ श्रीविष्णु भगवान्‌ की पूजा की और कर्ममार्ग से होने वाले फलों में इच्छा का त्याग कर एक भक्तिमार्ग में ही प्रेम रक्खा। श्रेष्ठ पुरुषोत्तम मास को समस्त दुःखों का नाश करने वाला जान कर, उस मास के आने पर स्त्री के साथ जप-हवन आदि से श्रीहरि भगवान्‌ का सेवन करने लगा।

वह सपत्नीक श्रेष्ठ ब्राह्मण निरन्तर एक हजार वर्ष संसार के समस्त विषयों का उपयोग कर विष्णु भगवान्‌ के उत्तम लोक को प्राप्त हुआ।

जो योगियों को भी दुष्प्राप्य है, फिर यज्ञ करने वालों को कहाँ से प्राप्त हो सकता है? जहाँ जाकर विष्णु भगवान्‌ के सन्निकट वास करते हुए शोक के भागी नहीं होते हैं। वहाँ पर होने वाले सुखों को भोग कर गौतमी तथा सुदेव शर्मा दोनों स्त्री-पुरुष इस पृथ्वी में आये। वही तुम सुदेव शर्मा इस समय दृढ़धन्वा नाम से प्रसिद्ध पृथिवी के राजा हुये।

पुरुषोत्तम नाम के सेवन से समस्त ऋद्धियों के भोक्ता हुये। हे राजन्‌! यह आपकी पूर्व जन्म की पतिदेवता गौतमी ही पटरानी है। हे भूपाल! जो आपने मुझसे पूछा था सो सब मैंने कहा और शुक पक्षी तो पूर्वजन्म में जो पुत्र शुकदेव नाम से प्रसिद्ध थे और हरि भगवान्‌ ने जिसको जिलाया था वह बारह हजार वर्ष तक आयु भोग कर बैकुण्ठ को गया। वहाँ वन के तालाब के समीप वट वृक्ष पर बैठकर पूर्वजन्म के पिता तुमको आये हुए देखकर मेरे हितों के उपदेश करनेवाले, प्रत्यक्ष मेरे दैवत, विषयरूपी सर्प से दूषित संसार सागर में मग्न, इस प्रकार पिता को देख कर और अत्यन्त कृपा से युक्त वह शुक पक्षी विचार करने लगा कि यदि मैं इस राजा को ज्ञान का उपदेश नहीं करता हूँ तो मेरा बन्धन होता है।

जो पुत्र अपने पिता को पुन्नाम नरक से रक्षा करता है वही पुत्र है। आज मेरा यह श्रुति के अर्थ का ज्ञान भी वृथा हो जायगा। इसलिये अपने पूर्वजन्म के पिता का उपकार करूँगा। हे राजन्‌ दृढ़धन्वा! इस तरह निश्चय करके वह शुक पक्षी वचन बोला।

हे पाप रहित राजन जो आपने पूछा सो यह सब मैंने कहा। अब इसके बाद पापनाशिनी सरयू नदी को जाऊँगा।

श्रीनारायण बोले, ‘इस प्रकार बहुत समय तक उस प्रसिद्ध यशस्वी राजा दृढ़धन्वा के पूर्वजन्म का चरित्र कहकर जाते हुए बाल्मीकि मुनि की प्रार्थना कर असंख्य पुण्यवान्‌, राजाओं का राजा बाल्मीकि मुनि को नमस्कार करता हुआ कुछ बोला।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये नवदशोऽध्यायः ॥१९॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 20 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 20)

सूतजी बोले, ‘हे विप्रो नारायण के मुख से राजा दृढ़धन्वा के पूर्वजन्म का वृत्तान्त श्रवणकर अत्यन्त तृप्ति न होने के कारण नारद मुनि ने श्रीनारायण से पूछा।नारद जी बोले, ‘हे तपोधन महाराज दृढ़धन्वा ने मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि जी से क्या कहा‌ ? सो विस्तार सहित विनीत मुझको कहिये।

नारायण बोले, ‘हे नारद! सुनिये। राजा दृढ़धन्वा ने महाप्राज्ञ मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि मुनि की प्रार्थना कर, जो कुछ कहा सो मैं कहूँगा।

दृढ़धन्वा बोला, ‘मोक्ष की इच्छा करने वाले लोगों से पुरुषोत्तम मास का सेवन किस प्रकार किया जाय ? क्या दान दिया जाय ? और इसकी विधि क्या है ?

यह सब संपूर्ण लोक के कल्याण के लिये मुझसे कहिये, क्योंकि आपके समान महात्मा संसार के हित के लिये ही पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं। यह पुरुषोत्तम मास स्वयं साक्षात्‌ पुरुषोत्तम भगवान्‌ हैं, उस पुरुषोत्तम मास के सेवन से महान्‌ पुण्य होता है। यह बात मैंने आपके मुख से भली भाँति सुनी है। मैंने पूर्वजन्म में सुदेव नामक ब्राह्मण श्रेष्ठ होकर विधि से पुरुषोत्तम मास का सेवन किया। जिसके प्रताप से मेरा मृत पुत्र उठ खड़ा हो गया। हे ब्रह्मन पुत्रशोक के कारण निरन्तर निराहारी मेरा यह पुरुषोत्तम मास बिना जाने ही बीत गया। अज्ञान से हुये पुरुषोत्तम मास का ऐसा फल हुआ कि मृत्यु को प्राप्त भी शुकदेव उठ खड़ा हो गया। हरि भगवान्‌ के कहने पर इस अनुभूत पुरुषोत्तम मास का सेवन किया।

हे तपोधन मुझे इस जन्म में वह सब विस्मृत हो गया है। इसलिये इस पुरुषोत्तम मास का पूजन विधान विस्तार पूर्वक मुझसे फिर कहिये।

बाल्मीकि जी बोले, ‘ब्राह्म मुहूर्त में उठकर परब्रह्म का चिन्तन करे उसके बाद बड़े पात्र में जल लेकर नैर्ऋत्य दिशा में जाय। पुरुषोत्तम मास को सेवन करने वाला शौच के लिये ग्राम से बहुत दूर जाय। दिन में तथा सन्ध्या में कान पर जनेऊ को रख कर और उत्तरमुख होकर पृथिवी को तृण से आच्छादित कर वस्त्र से शिर बाँध कर और मुख को बन्द कर अर्थात्‌ मौन होकर रहे, न थूके और न श्वाँस ले।

इस तरह मल-मूत्र का त्याग करे। और यदि रात्रि हो तो दक्षिण मुख होकर मल-मूत्र का त्याग करे और मूत्रेन्द्रिय को पकड़ कर उठे। शुद्ध मिट्टी को ले, आलस्य छोड़कर दुर्गन्ध दूर करने के लिये मृत्तिका से शुद्धि करे। लिंग में एक बार, गुदा में पाँच बार, बायें हाथ में तीन बार, दोनों हाथों में दश बार मिट्टी लगावे, दोनों पैरों में १४ बार लगावे। यह गृहस्थाश्रमी को शौच कहा है। इस तरह शौच कर मिट्टी और जल से पैर और हाथ धोकर दूसरा कार्य करे।

तीर्थ में शौच न करे। तीर्थ से जल निकाल कर शौच करे। दो हाथ जलवाले गढ़ई को छोड़ कर यदि अनुद्‌धृत जल में अर्थात्‌ तीर्थ में शौच करे तो बाद तीर्थ की शुद्धि करे अन्यथा तीर्थ अशुद्ध हो जाता है। इस प्रकार पुरुषोत्तम का उत्तम व्रत करने वाला शौच करे।

तदनन्तर सोलह कुल्ला अथवा बारह कुल्ला करे। मूत्र का त्याग करने के बाद आठ अथवा चार कुल्ला गृहस्थ करे। उठकर प्रथम नेत्रों को धो डाले। दातुन ले आवे और इस मन्त्र को अच्छी तरह कह कर दन्तधावन करे।

हे वनस्पते आयु, बल, यश, वर्च, प्रजा, पशु, वसु, ब्रह्मज्ञान और मेधा को मेरे लिए दो।

अपामार्ग अथवा बैर की बारह अंगुल की छेदरहित दातुन कानी अंगुली के समान सोटी हो जिसके पर्व के आधे भाग में कूची बनी हो उस दातुन से मुख शुद्धि करे।

रविवार के दिन काष्ठ से दातुन करना मना किया है। इसलिये बारह कुल्ला से मुखशुद्धि करे। आचमन कर अच्छी तरह प्रातःकाल में स्नान करे।

स्नान के बाद उसी समय तीर्थ के देवताओं को तर्पण के द्वारा जल देवे। और समुद्र में मिली हुई नदी में स्नान करना उत्तम कहा है। बावली कूप तालाब में स्नान करना विद्वानों ने मध्यम कहा है और गृहस्थ को गृह में स्नान करना सामान्य कहा है।

स्नान के बाद शुद्ध और शुक्ल ऐसे दो वस्त्रों को धारण करे। ब्राह्मण कन्धे पर रखे जानेवाले उत्तरीय वस्त्र को सावधानी के साथ हमेशा धारण करे।

पवित्र स्नान में पूर्व मुख अथवा उत्तर मुख होकर बैठे और शिखा बाँध कर दोनों जाँघों के अन्दर हाथों को रखे।

कुश की पवित्री हाथ में धारण कर आचमन क्रिया को करे। ऐसा करने से पवित्री अशुद्ध नहीं होती है। परन्तु भोजन करने से पवित्री अशुद्ध हो जाती है। इसलिये भोजन के बाद उस पवित्री का त्याग करे।

आचमन के बाद गोपीचन्दन की मिट्टी से तिलक धारण करे। वह तिलक ऊर्ध्वपुण्ड्र हो, सीधा हो, सुन्दर हो, दण्ड के आकार का हो ऐसा धारण करे। ऊर्ध्वपुण्ड्र हो अथवा त्रिपुण्ड्र हो उसके मध्य में छिद्र बनावे।

ऊर्ध्वपुण्ड्र में लक्ष्मी के साथ हरि भगवान्‌ स्वयं निवास करते हैं। त्रिपु्ण्ड्र में पार्वती सहित साक्षात्‌ शंकर भगवान्‌ सर्वदा वास करते हैं। बिना छिद्र का पुण्ड्र कुत्ते के पैर के समान विद्वानों ने कहा है।

सफेद तिलक ज्ञान को देनेवाला है, लाल तिलक मनुष्यों को वशीकरण करनेवाला कहा है, पीला समस्त ऋद्धि को देनेवाला कहा है। इससे भिन्न तिलक को नहीं लगावे।

गोपीचन्दन की मिट्टी से शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि धारण करे। यह सम्पूर्ण पापों को नाश करने वाला और पूजा का अंग कहा गया है। जिसके शरीर में शंख चक्रादि भगवान्‌ के आयुधों का चिह्न देखने में आता है उस मनुष्य को, मनुष्य नहीं समझना। वह भगवान्‌ का शरीर है। जो शंख चक्र आदि चिह्नों को नित्य धारन करता है, उस देही के पाप पुण्यरूप हो जाते हैं। नारायण के आयुधों से जिसका शरीर चिह्नित रहता है उसका कोटि-कोटि पाप होने पर भी यमराज क्या कर सकता है ?

प्राणायाम करके सन्ध्यावन्दन करे। प्रातःकाल की सन्ध्या विधिपूर्वक नक्षत्र के रहने पर करे। जब तक सूर्यनारायण का दर्शन न हो तब तक गायत्री मन्त्र का जप करे और सूर्योपस्थान के मन्त्रों से उठकर अञ्जकलि बाँध कर उपस्थान करे।

सायंकाल के समय अपने पैर को पृथिवी में करके नमस्कार करे। जो कमी रह गई हो उसको इस मन्त्र से पूर्ण करे।

यस्य स्मृत्या च नामोक्त्याम तपोयज्ञक्रियादि्षु।

न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्‌॥

जो द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) श्रद्धा के साथ सन्ध्या करता है उसको तीनों लोक में कुछ भी दुष्प्राप्य नहीं है।

दिन के आदि भाग (प्रातःकाल) में होने वाले कृत्य को कहा! इस प्रकार प्रातःकाल की नित्य क्रिया को करके हरि भगवान्‌ की पूजा को करे।

लीपे हुए शुद्ध स्थान में नियम में स्थित होकर और मौन तथा पवित्र होकर गोबर से गोल अथवा चौकोर मण्डल को बना कर व्रत की सिद्धि के लिये चावलों से अष्टदल कमल बनावे। बाद सुवर्ण, चाँदी, ताँबा अथवा मिट्टी का मजबूत और नवीन छिद्र रहित शुद्ध कलश को उस मण्डल के ऊपर स्थापित करे और उस कलश में शुद्ध तीर्थों से लाये हुए कल्याणप्रद जल को भर कर।

कलश के मुख में विष्णु, कण्ठ में रुद्र भगवान्‌ अच्छी तरह वास करते हैं। उसके मूल में ब्रह्मा जी स्थित रहते हैं, मध्य भाग में मातृगण कहे गये हैं। कोख में समस्त समुद्र और सात द्वीप वाली वसुन्धरा, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्व वेद। व्याकरण आदि अंगों के साथ सब कलश में स्थित हों। इस प्रकार कलश को स्थापित करके उसमें तीर्थों का आवाहन करे, गंगा, गोदावरी, कावेरी और सरस्वती मेरी शान्ति के लिये तथा पापों के नाश करने के हेतु आवें।

तदनन्तर उस कलश का मन्त्रपाठ पूर्वक गन्ध, अक्षत, नैवेद्य और उस काल में होने वाले पुष्प आदि उपचारों से पूजन करके उसके ऊपर पीले वस्त्र से लपेटा हुआ ताँबे का पात्र स्थापित करे। उस पात्र के ऊपर राधा के साथ हरि की मूर्ति को स्थापित करे।

राधा के सहित सुवर्ण की पुरुषोत्तम भगवान्‌ की प्रतिमा बनावे और भक्ति में तत्पर होकर विधि के साथ उस प्रतिमा की पूजा करे।

पुरुषोत्तम मास के पुरुषोत्तम देवता हैं। पुरुषोत्तम मास के आने पर उनकी पूजा करनी चाहिये। जो इस संसारसागर में डूबे हुये को उबारता है उसकी इस लोक में भी मृत्यु धर्म वाला कौन मनुष्य पूजा नहीं करता है?

ग्राम फिर मिलते हैं, धन फिर मिलता है, पुत्र फिर मिलते हैं, गृह फिर मिलता है, शुभ-अशुभ कर्म फिर मिलते हैं, परन्तु शरीर फिर-फिर नहीं मिलता है। उस शरीर की रक्षा धर्म के लिये और धर्म की रक्षा ज्ञान के लिये हुआ करती है और ज्ञान से मोक्ष सुलभ हुआ करता है। इसलिये धर्म को करना चाहिये। देहरूप वृक्ष का फल सनातनधर्म कहा गया है जो शरीर धर्म से रहित है वह बाँझ वृक्ष के समान निष्फल है।

सहायता के लिये न माता कही गई है न स्त्री-पुत्र आदि कहे गये हैं तथा न पिता, न सहोदर भाई, न धन कहे गये हैं। केवल धर्म ही उसका प्रधान कारण कहा गया है।

वृद्धावस्था सिंहिनी के समान भय देने वाली है और रोग शत्रु के समान पीड़ा देने वाले हैं। फूटे हुए बर्तन से जल गिरने के समान आयु प्रतिदिन क्षीण होती रहती है। जल के तरंग के समान चंचल लक्ष्मी, पुष्प के समान क्षणमात्र में मुरझाने वाली युवावस्था, स्वप्न के राज्यसुख के समान संसार के विषयसुख प्रभृति सब निरर्थक हैं। धन चंचल है, चित्त चंचल है और संसार में होने वाला सुख चंचल है। ऐसा जान कर संसार से विरक्त होकर धर्म के साधन में तत्पर होवे।

जैसे सर्प से आधा देह निगले जाने पर भी मेढक मक्खी को खाने की इच्छा करता ही रहता है, उसी प्रकार काल से ग्रसा हुआ जीव दूसरे को पीड़ा देने में तथा दूसरे का धन अपहरण करने में प्रेम करता है। मृत्यु से ग्रस्त आयु वाले पुरुष को सुख क्या हर्ष करता है? वध के लिये वधस्थान को पहुँचाये जाने वाले पशु के समान सब सुख व्यर्थ हैं।

जब धर्म करने के लिये चित्त होता है तो उस समय धन का मिलना सुलभ नहीं होता है, जब धन होता है तो उस समय चित्त धर्म करने के लिये उत्सुक नहीं होता है। जब चित्त और धन दोनों होते हैं तो उस समय सम्पात्र नहीं मिलते हैं। इसलिये चित्त, वित्त, सत्पात्र इन तीनों का जिस समय सम्बन्ध हो जाय। उसी समय बिना विचार किये ही जो धर्म को करता है वही बुद्धिमान्‌ कहा गया है। अधिक धन के व्यय से होने वाले हजारों धर्म हैं, पुरुषोत्तम मास में थोड़े धन से महान्‌ धर्म होता है। स्नान, दान और कथा में विष्णु भगवान्‌ का स्मरण करना, इतना भी उत्तम धर्म यदि किया जाय तो वह महान्‌ भय से रक्षा करता है।

जिस प्रकार गंगा ही तीर्थ हैं, कामदेव ही धनुषधारी हैं, विद्या ही धन है और गुण ही रूप है उसी तरह संपूर्ण महीनों में उत्तम पुरुषोत्तम मास साक्षात्‌ पुरुषोत्तम ही हैं। यद्यपि यह पुरुषोत्तम मास प्रथम समस्त कार्यों में तथा यज्ञों में अत्यन्त निन्द्य था तो भी भगवान्‌ के प्रसाद से पृथिवी में साक्षात्‌ भगवान्‌ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जिस प्रकार हाथी के पैर में सब प्राणियों के पैर लीन हो जाते हैं उसी तरह समस्त धर्म और कला समस्त पुरुषोत्तम में विलीन हो जाते हैं। जिस प्रकार और-और नदियों की तुलना गंगा के समान नहीं की जा सकती।

कल्पवृक्ष के समान अन्य समस्त वृक्ष नहीं कहे जा सकते। चिन्तामणि के समान दूसरे रत्न पृथिवी में नहीं हो सकते। कामधेनु के समान दूसरी गौ नहीं हो सकती, राजा के समान दूसरे पुरुष नहीं हो सकते। वेदों के समान समस्त शास्त्र नहीं होते, उसी प्रकार समस्त पुण्यकाल इस पुरुषोत्तम मास के पुण्यकाल के समान नहीं हो सकते।

पुरुषोत्तम मास के देवता पुरुषोत्तम भगवान हैं। इसलिये भक्ति और श्रद्धा से पुरुषोत्तम भगवान की पूजा करनी चाहिये। शास्त्र को जाननेवाला, कुशल, शुद्ध, वैष्णव, सत्यवादी और विप्र आचार्य को बुलाकर उसके द्वारा पुरुषोत्तम की पूजा करे।

अन्तःकरण में होने वाले मोह, काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य आदि रूप बड़ी-बड़ी मछलियों से पूर्ण, अत्यन्त गम्भीर वेगवाले इस संसाररूप सागर को पार करने की इच्छा करता है वह इस भारतवर्ष में आदिदेवता पुरुषोत्तम भगवान्‌ का अच्छी तरह पूजन करे।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये विंशतितमोऽध्यायः ॥२०॥ 

Must Read पुरुषोत्तम मास महात्म्य कथा अध्याय 1 से अध्याय 10 तक