जानें पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 21 से अध्याय 31 तक 

Purushottam Mas Katha, शास्त्र कहते हैं कि यह भौतिक कार्यों के लिए अच्छा नहीं है। लेकिन राधा कृष्ण ने कहा ‘ठीक है हम आपको अपने माह के रूप में अपनाते हैं’। इसलिए यह पुरूषोत्तम मास विशेष रूप से भक्ति-योग के लिए है। आप पुरूषोत्तम माह में जो भी भक्ति करते हैं वह हजारों गुना बढ़ जाती है। अगर दामोदर मास सौ गुना है, तो पुरुषोत्तम एक हजार गुना है। यहाँ मायापुर में वैसे भी यह एक हजार गुना है। तो एक हजार गुना एक हजार क्या है? दस लाख. दस लाख। तो आप किस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं ? इस महीने में पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा पढ़ने से भगवान विष्ण की कृपा प्राप्त होती है। आईए पढ़ते हैं पुरुषोत्तम मास कथा अध्याय 21 से अध्याय 31 सम्पूर्ण तक

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 21 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 21)

बाल्मीकि मुनि बोले, ‘इसके बाद फिर प्रतिभा की अनलोत्तारण क्रिया करके प्राणप्रतिष्ठा करे। अन्यथा यदि प्राणप्रतिष्ठा नहीं करता है तो वह प्रतिमा धातु ही कही जायगी अर्थात्‌ उसमें देवता का अंश नहीं होता है।दाहिने हाथ से प्रतिमा के दोनों कपालों का स्पर्श कर हरि भगवान्‌ की उस प्रतिमा में प्राणप्रतिष्ठा अवश्य करे। प्रतिमाओं में प्राणों की प्रतिष्ठा न करने से सुवर्ण आदि का भाग पूर्व के समान ही रहता है उनमें देवता वास नहीं करते हैं। हे पार्थिव! दूसरे देवताओं की प्रतिमा में भी देवत्वसिद्धि के लिये प्राणप्रतिष्ठा करनी चाहिये।

पुरुषोत्तम भगवान्‌ के बीजमन्त्र से और “तद्विष्णोः परमम्पदँ सदा” इस मन्त्र से करना चाहिये, मन्त्रवेत्ता उसी प्रकार प्रतिमा के हृदय पर अंगुष्ठ निरन्तर रख कर हृदय में भी इन मन्त्रों से प्राणप्रतिष्ठा को करे। इस प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठित हों, इस प्रतिमा में प्राण चलायमान हों। इस प्रतिमा की पूजा के लिये देवत्व प्राप्त हो स्वाहा, इस तरह यजुर्मन्त्र को कहता हुआ मूलमन्त्रों से, अंगमन्त्रों से, वैदिकमन्त्रों से सर्वत्र प्रतिमाओं में प्राणप्रतिष्ठा को करे अथवा अच्छी तरह चतुर्थ्यन्त नाम मन्त्रों से स्वाहा पद अन्त में जोड़ कर तत्तद्‌ देवताओं का अनुस्मरण करता हुआ प्राणप्रतिष्ठा को करे।

इस प्रकार प्राणों की प्रतिष्ठा करके श्रीपुरुषोत्तम का ध्यान करे। श्रीवत्स चिह्न से चिह्नित वक्षःस्थल वाले, शान्त, नील कमल के दल के समान छविवाले, तीन जगहों से टेढ़ी आकृति होने से सुन्दर, राधा के सहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ का ध्यान करे।

देश काल को कह कर अर्थात्‌ संकल्प करके, नियम में स्थित होकर, मौन होकर, पवित्र होकर, षोडशोपचार से पुरुषोत्तम भगवान्‌ का पूजन करे।

हे देव हे देवेश हे श्रीकृष्ण हे पुरुषोत्तम राधा के साथ आप यहाँ मुझसे दिये हुए पूजन को ग्रहण कीजिये। श्रीराधिका सहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ को नमस्कार है। यह कह कर आवाहन करे। हे देवदेवेश हे पुरुषोत्तम अनेक रत्नों से युक्त अर्थात्‌ जटित और कार्तस्वर (सुवर्ण) से विभूषित इस आसन को ग्रहण करें। इस तरह कह कर आसन समर्पण करे। गंगादि समस्त तीर्थों से प्रार्थना पूर्वक लाया हुआ यह सुखस्पर्श वाला जल पाद्य के लिये ग्रहण करें। इस प्रकार कह कर पाद्य समर्पण करे। हे हरे गोपिकाओं के आनन्द के लिए महाराज नन्द गोप के घर में प्रकट हुए,

आप राधिका के सहित मेरे दिये हुए अर्ध्य को ग्रहण करें। यह कह कर अर्ध्य समर्पण करे। हे हृषीकेश अर्थात्‌ हे विषयेन्द्रिय के मालिक हे पुराण-पुरुषोत्तम! अच्छी तरह से लाया गया और सुवर्ण के कलश में स्थित गंगाजल से आप आचमन करें, यह कह कर आचमन समर्पण करे। हे हरे मेरे से लाये गये पंचामृत से राधिका के सहित जगत्‌ के धाता आपके पूजित होने पर अर्थात्‌ आपके पूजन से मेरे कार्य सिद्धि को प्राप्त हों। हे राधिका के आनन्द दाता दूध, दही, गौ का घृत, शहद और चीनी, इन द्रव्यों को ग्रहण करें। यह कह कर पंचामृत से स्नान समर्पण करे। हे नाथ योगेश्वर, देव, गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले, यज्ञों के स्वामी गोविन्द भगवान्‌ को नमस्कार है ।

हे कृष्ण गंगाजल के समान नदी तीर्थ का मेरे से दिया गया यह जल है। नन्द का आनन्द देनेवाले आप इसको ग्रहण करें। यह कहकर फिर स्नान समर्पण करे। हे देव! समस्त कार्यों की सिद्धि के लिये इन दो पीताम्बरों को भक्ति के साथ मैंने निवेदन किया है। हे सुरसत्तम आप ग्रहण करें। यह कह कर वस्त्र समर्पण करे और वस्त्र धारण के बाद आचमन देवे। हे दामोदर आपको नमस्कार है, इस भवसागर से मेरी रक्षा करें। हे पुरुषोत्तम! उत्तरीय वस्त्र के साथ जनेऊ को आप ग्रहण करें। यह कह कर जनेऊ समर्पण करे और आचमन देवे। हे सुरश्रेष्ठ! अत्यन्त मनोहर सुगन्धित, दिव्य, श्रीखण्ड चन्दन विलेपन आपके लिये है इसको ग्रहण करें।

यह कहकर चन्दन समर्पण करे। हे सुरश्रेष्ठ केशर से रंगे हुए शोभमान अक्षतों को भक्ति से मैंने निवेदन किया है, हे पुरुषोत्तम! आप ग्रहण करें। यह कहकर अक्षत समर्पण करे। हे प्रभो मैं मालती आदि सुगन्धित पुष्पों को आपके पूजन के लिये लाया हूँ। आप इनको ग्रहण करें। यह कह कर पुष्प समर्पण करे। इसके बाद अंगों का पूजन करे।

नंद-यशोदा के पुत्र, केशि दैत्य को मारने वाले, पृथ्वी के भार को उतारने वाले, अनन्त विष्णुरूप धारण करने वाले, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, श्रीकण्ठ, सकलास्त्रधृक, वाचस्पति, केशव और सर्वात्मा, इन नामों से। पैर, गुल्फ, जानु, जघन, कटी, मेढ्‌, नाभि, हृदय, कण्ठ, बाहु और मुख, नेत्र, शिर और सर्वांग का पुष्पों को हाथों में लेकर चतुर्थ्यन्त नामों को कह कर विश्व,रूपी जगत्पति भगवान्‌ का पूजन करे। इस प्रकार प्रत्यंग का पूजन कर फिर चतुर्थ्यन्त केशवादि नाममन्त्रों से।

एक-एक पुष्प हाथ में लेकर पुरुषोत्तम भगवान्‌ का पूजन करे। दिव्य वनस्पतियों के रस से बना हुआ, गन्ध से युक्त, उत्तम गन्ध, समस्त देवताओं के सूँघने के योग्य यह धूप है, इसको आप ग्रहण करें यह कहकर धूप समर्पण करे।

हे भगवन्‌ आप समस्त देवताओं के ज्योति हैं, तेजों में उत्तम तेज हैं, आत्मज्योति के परमधाम यह दीप आप ग्रहण करें। यह कहकर दीप समर्पण करे। हे देव नैवेद्य को ग्रहण करें और मेरी भक्ति को अचल करें। इच्छानुकूल वर को देवें और परलोक में उत्तम गति को देवें। यह कह कर नैवेद्य समर्पण करे। मध्य में जल समर्पण करे। आखिर में आचमन जल को देवें। हे हृषीकेश हे त्रैलोक्य के व्याधियों को शमन करने वाले! अच्छी तरह से सुवर्ण के कलश में गंगाजल को लाया हूँ, इस जल से आप आचमन करें। यह कहकर आचमन देवे। हे देव मैंने इस फल को आपके सामने स्थापित किया है, इसलिये मेरे को जन्म-जन्म में सुन्दर फलों की प्राप्ति हो।

यह कहकर श्रीफल (बेल) समर्पण करे। हे देव हे परमेश्वर गन्ध कपूर से युक्त, कस्तूरी आदि से सुवासित इस करोद्वर्तन (हाथ की शुद्धि के लिये उबटन) को ग्रहण करे। यह कहकर करोद्वर्तन समर्पण करे। हे देव सुपारी से युक्त कर्पूर सहित, मनोहर, भक्ति से दिये गये इस ताम्बूल को ग्रहण करें। यह कहकर ताम्बूल समर्पण करे।

ब्रह्मा के गर्भ में स्थित, अग्नि के बीज, अनन्त पुण्य के फल को देने वाला सुवर्ण आप ग्रहण करें और मेरे लिये शान्ति को देवें। यह कहकर दक्षिणा समर्पण करे।

शरत्‌ काल में होने वाले कमल के समान श्याम, तीन जगहों से टेढ़े होने से सुन्दर आकृति वाले, देवेश, राधिका के सहित हरि भगवान्‌ की आरती करता हूँ। यह कह कर नीराजन समर्पण करे।

हे जगन्नाथ रक्षा करो, रक्षा करो। हे त्रैलोक्य के नायक रक्षा करो। आप भक्तों पर कृपा करने वाले हों। मेरी प्रदक्षिणा को ग्रहण करें। ऐसा कह कर प्रदक्षिणा समर्पण करे।

यज्ञेश्वणर, देव यज्ञ के कारण, यज्ञों के स्वामी, गोविन्द भगवान्‌ को नमस्कार है। यह कह कर मन्त्रपुष्पाञ्जयलि समर्पण करे।

विश्वे्श्वर, विश्वारूप, विश्वा के उत्पन्न करने वाले, विश्वस के स्वामी, नाथ, गोविन्द भगवान्‌ को नमस्कार है, नमस्कार है। यह कह कर नमस्कार समर्पण करे।

“मन्त्रहीनं क्रियाहीनं” इस मन्त्र से पुरुषोत्तम भगवान्‌ को क्षमापन समर्पण करके स्वाहान्त नाम मन्त्रों से प्रतिदिन तिल से हवन करे। पुरुषोत्तम मास पर्यन्त घृत का अखण्ड दीप समस्त फल की सिद्धि के लिये और पुरुषोत्तम भगवान्‌ के प्रीत्यर्थ समर्पण करे। यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु॰। इस मन्त्र से जनार्दन भगवान्‌ को नमस्कार करके ‘प्रमादात्‌ कुर्वतां कर्म॰।’ इस मन्त्र से जो कुछ कमी रह गई हो उसको सम्पूर्ण करके सुख पूर्वक रहे।

इस प्रकार जो इस पृथिवी तल पर मनुष्य शरीर प्राप्त करके पुरुषोत्तम मास के आने पर वैष्णव ब्राह्मण को आचार्य बनाकर मेघ के समान श्यामवर्ण वाले, राधा के सहित श्रीपुरुषोत्तम भगवान्‌ का हर्ष और भक्ति के साथ प्रति दिन पूजन करेगा वह इस पृथिवी के अतुल समस्त सुखों को भोगकर बाद परम पद को जायगा।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये एकविंशोऽध्यायः ॥२१॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 22 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 22)

दृढ़धन्वा राजा बोला, ‘हे तपोधन पुरुषोत्तम मास के व्रतों के लिए विस्तार पूर्वक नियमों को कहिये। भोजन क्या करना चाहिये? और क्या नहीं करना चाहिये ? और व्रती को व्रत में क्या मना है ? विधान क्या है ? श्रीनारायण बोले, ‘इस प्रकार राजा दृढ़धन्वा ने बाल्मीकि मुनि से पूछा। बाद लोगों के कल्याण के लिए बाल्मीकि मुनि ने सम्मान पूर्वक राजा से कहा।

बाल्मीकि मुनि बोले, ‘हे राजन्‌ पुरुषोत्तम मास में जो नियम कहे गये हैं। मुझसे कहे जानेवाले उन नियमों को संक्षेप में सुनिए।

नियम में स्थित होकर पुरुषोत्तम मास में हविष्यान्न भोजन करे। गेहूँ, चावल, मिश्री, मूँग, जौ, तिल, मटर, साँवा, तिन्नी का चावल, बथुवा, हिमलोचिका, अदरख, कालशाक, मूल, कन्द, ककड़ी, केला, सेंधा नोन, समुद्रनोन, दही, घी, बिना मक्खन निकाला हुआ दूध, कटहल, आम, हरड़, पीपर, जीरा, सोंठ, इमली, सुपारी, लवली, आँवला, ईख का गुड़ छोड़ कर इन फलों को और बिना तेल के पके हुए पदार्थ को हविष्य कहते हैं। हविष्य भोजन मनुष्यों को उपवास के समान कहा गया है।

समस्त आमिष, माँस, शहद, बेर, राजमाषादिक, राई और मादक पदार्थ। दाल, तिल का तेल, लाह से दूषित, भाव से दूषित, क्रिया से दूषित, शब्द से दूषित, अन्न को त्याग करे।

दूसरे का अन्न, दूसरे से वैर, दूसरे की स्त्री से गमन, तीर्थ के बिना देशान्तर जाना व्रती छोड़ देवे।

देवता, वेद, द्विज, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री, राजा और महात्माओं की निन्दा करना पुरुषोत्तम मास में त्याग देवे।

सूतिका का अन्न मांस है, फलों में जम्बीरी नीबू मांस है, धान्यों में मसूर की दाल मांस है और बासी अन्न मांस है। बकरी, गौ, भैंस के दूध को छोड़कर और सब दूध आदि मांस है। और ब्राह्मण से खरीदा हुआ समस्त रस, पृथिवी से उत्पन्न नमक मांस है। ताँबे के पात्र में रखा हुआ दूध, चमड़े में रखा हुआ जल, अपने लिये पकाया गया अन्न को विद्वानों ने मांस कहा है।

पुरुषोत्तम मास में ब्रह्मचर्य, पृथिवी में शयन, पत्रावली में भोजन और दिन के चौथे पहर में भोजन करे।

पुरुषोत्तम मास में रजस्वला स्त्री, अन्त्यज, म्लेच्छ, पतित, संस्कारहीन, ब्राह्मण से द्वेष करने वाला, वेद से गिरा हुआ, इनके साथ बातचीत न करे। इन लोगों से देखा गया और काक पक्षी से देखा गया, सूतक का अन्न, दो बार पकाया हुआ और भूजे हुए अन्नो को पुरुषोत्तम मास में भोजन नहीं करे। प्याज, लहसुन, मोथा, छत्राक, गाजर, नालिक, मूली, शिग्रु इनको पुरुषोत्तम मास में त्याग देवे। व्रती इन पदार्थों को समस्त व्रतों में हमेशा त्याग करे। विष्णु भगवान्‌ के प्रीत्यर्थ अपनी शक्ति के अनुसार कृच्छ्र आदि व्रतों को करे।

कोहड़ा, कण्टकारिका, लटजीरा, मूली, बेल, इन्द्रयव, आँवला के फल, नारियल, अलाबू, परवल, बेर, चर्मशाक, बैगन, आजिक, बल्ली और जल में उत्पन्न होनेवाले शाक, प्रतिपद आदि तिथियों में क्रम से इन शाकों का त्याग करना। गृहस्थाश्रमी रविवार को आँवला सदा ही त्याग करे।

पुरुषोत्तम भगवान्‌ के प्रीत्यर्श्च जिन-जिन वस्तुओं का त्याग करे उन वस्तुओं को प्रथम ब्राह्मण को देकर फिर हमेशा भोजन करे। व्रती कार्तिक और माघ मास में इन नियमों को करे।

हे राजन व्रती नियम के बिना फलों को नहीं प्राप्त करता है। यदि शक्ति है तो उपवास करके पुरुषोत्तम का व्रत करे अथवा घृत पान करे अथवा दुग्ध पान करे अथवा बिना माँगे जो कुछ मिल जाय उसको भोजन करे। अथवा व्रत करनेवाला यथाशक्ति फलाहार आदि करे। जिसमें व्रत भंग न हो विद्वान्‌ इस तरह व्रत का नियम धारण करे।

पवित्र दिन प्रातःकाल उठ कर पूर्वाह्ण की क्रिया को करके भक्ति से श्रीकृष्ण भगवान्‌ का हृदय में स्मरण करता हुआ नियम को ग्रहण करे। हे भूपते! उपवास व्रत, नक्त व्रत और एकभुक्त इनमें से एक का निश्चय करके इस व्रत को करे।

पुरुषोत्तम मास में भक्ति से श्रीमद्भागवत का श्रवण करे तो उस पुण्य को ब्रह्मा कभी कहने में समर्थ नहीं होंगे। श्रीपुरुषोत्तम मास में लाख तुलसीदल से शालग्राम का पूजन करे तो उसका अनन्त पुण्य होता है। श्रीपुरुषोत्तम मास में कथनानुसार व्रत में स्थित व्रती को देख कर यमदूत सिंह को देख कर हाथी के समान भाग जाते हैं।

हे राजन यह पुरुषोत्तम मासव्रत सौ यज्ञों से भी श्रेष्ठ है क्योंकि यज्ञ के करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और पुरुषोत्तम मासव्रत करने से गोलोक को जाता है। जो पुरुषोत्तम मासव्रत करता है उसके शरीर में पृथ्वी के जो समस्त तीर्थ और क्षेत्र हैं तथा सम्पूर्ण देवता हैं वे सब निवास करते हैं।

श्रीपुरुषोत्तम मास का व्रत करने से दुःस्वप्न, दारिद्रय और कायिक, वाचिक, मानसिक पाप ये सब नाश को प्राप्त होते हैं। पुरुषोत्तम भगवान्‌ की प्रसन्नता के लिये इन्द्रादि देवता, पुरुषोत्तम मासव्रत में तत्पर हरिभक्त की विघ्नों से रक्षा करते हैं। पुरुषोत्तम मासव्रत को करने वाले जिन-जिन स्थानों में निवास करते हैं वहाँ उनके सम्मुख भूत-प्रेत पिशाच आदि नहीं रहते।

हे राजन इस प्रकार जो विधिपूर्वक पुरुषोत्तम मासव्रत को करेगा उस मासव्रत के फलों को यथार्थ रूप से कहने के लिये साक्षात्‌ शेषनाग भगवान्‌ भी समर्थ नहीं हैं।

श्रीनारायण बोले, ‘जो पुरुषों में श्रेष्ठ पुरुष मन से अत्यन्त आदर के साथ इस प्रिय पुरुषोत्तम मासव्रत को करता है वह पुरुषों में श्रेष्ठ और अत्यन्त प्रिय होकर रसिकेश्वर पुरुषोत्तम भगवान्‌ के साथ गोलोक में आनन्द करता है।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये द्वाविंशोऽध्यायः ॥२२॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 23 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 23)

दृढ़धन्वा राजा बोला, ‘हे मुनियों में श्रेष्ठ हे दीनों पर दया करने वाले! श्रीपुरुषोत्तम मास में दीप-दान का फल क्या है? सो कृपा करके मुझसे कहिये।श्रीनारायण बोले, ‘इस प्रकार राजा दृढ़धन्वा के पूछने पर अत्यन्त प्रसन्न, मुनियों में श्रेष्ठ बाल्मीकि मुनि ने हँसते हुए विनीत अत्यन्त नम्र राजा दृढ़धन्वा से कहा।

बाल्मीकि मुनि बोले, ‘हे राजाओं में सिंहसदृश पराक्रमवाले! पापों का नाश करने वाली कथा को सुनिये जिसके सुनने से पाँच प्रकार के महान्‌ पाप नाश को प्राप्त होते हैं।

सौभाग्य नगर में चित्रबाहु नाम से प्रसिद्ध, बड़ा बुद्धिमान्‌, अत्यन्त बलवान्‌ राजा था। वह क्षमाशील, समस्त धर्मों को जानने वाला, शील रूप और दया से युक्त, ब्राह्मणों का भक्त, भगवान्‌ का भक्त, कथा के श्रवण में तत्पर, हमेशा अपनी स्त्री में प्रेम करने वाला, पशु पुत्र से युक्त, चतुरंगिणी सेना से युक्त, ऐश्वर्य में कुबेर के समान था। उसकी चन्द्रकला नाम की स्त्री चौंसठ कला को जानने वाली, पतिव्रता, महान्‌ भाग्यवती, भगवान्‌ की भक्ति को करने वाली थी। उसके साथ युवा चित्रबाहु राजा पृथ्वी का भोग करने लगा। बिना श्रीकृष्ण के दूसरे देवता को नहीं जानता था।

एक दिन पृथिवीपति राजा चित्रबाहु ने दूर से ही आये हुए मुनियों में श्रेष्ठ अगस्त्य मुनि को देख कर पृथिवी में दण्डवत्‌ प्रणाम कर उनकी विधिपूर्वक पूजा की। और भक्ति से आसन देकर मुनिश्रेष्ठ के सम्मुख बैठ गया। विनय से नम्र होकर मुनिश्रेष्ठ से कहा। राजा बोला, ‘आज मेरा जन्म सफल हुआ, आज मेरा दिन सफल हुआ। आज मेरा राज्य सफल हुआ, आज मेरा गृह सफल हुआ जो आप श्रीकृष्णचन्द्र के सेवक आज मेरे गृह में आये हैं। आपसे देखा गया मैं तापपुञ्जष से मुक्त हो गया। आपको हाथी घोड़े रथ से युक्त समस्त राज्य समर्पण किया।

‘हे मुनिश्रेष्ठ आप वैष्णव हो, आपके लिये कोई भी अदेय वस्तु नहीं है। वैष्णव को थोड़ा भी दिया हुआ मेरु पर्वत के समान होता है। जो कौड़ी के बराबर शाक अथवा उत्तम अन्न जिस दिन वैष्णव ब्राह्मण को नहीं देता है, वह दिन उसका विफल है, ऐसा वेद के जानने वालों ने कहा है। जो कोई द्विजाति विष्णुभक्त हों वे सब पूज्य हैं उनका वाणी मन कर्म से सत्कार करना चाहिये। ऐसा मुझसे गर्ग, गौतम, सुमन्तु, ऋषि ने कहा है।

जब तक सूर्योदय नहीं होता है तभी तक तारागण की प्रभा रहती है। जब तक वैष्णव ब्राह्मण नहीं आता है, तभी तक दूसरे ब्राह्मण कहे गये हैं।’

अगस्त्य मुनि बोले, ‘हे चित्रबाहो हे महाभाग हे नृप इस समय तुम धन्य हो, ये सब प्रजा धन्य हैं जो तुम वैष्णवों की रक्षा करते हो। जो राज्य वैष्णव का नहीं हो उसके राज्य में वास नहीं करना। शून्य वन में वास करना अच्छा है, परन्तु अवैष्णव के राज्य में रहना अच्छा नहीं है।

जिस प्रकार नेत्रहीन शरीर, पतिहीन स्त्री, बिना पढ़ा हुआ ब्राह्मण निन्द्य है वैसे ही वैष्णव रहित देश निन्द्य है। जैसे दाँत के बिना हाथी, पंख के बिना पक्षी, दशमीविद्धा द्वादशी (एकादशी) कही गई है वैसे ही वैष्णव रहित देश है। जैसे कुशा रहित सन्ध्या, तिलहीन तर्पण, वृत्ति के लिये देवता की सेवा है वैसे ही वैष्णव रहित देश कहा है। जैसे केशों को धारण करनेवाली विधवा स्त्री, स्नान रहित व्रत, ब्राह्मणी में गमन करनेवाला शूद्र है वैसे ही बिना वैष्णव का राष्ट्र निन्द्य है।

जो श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों का आश्रय करने वाला है सत्पुरुषों से राजा कहा गया है उसका राष्ट्र हमेशा वृद्धि को प्राप्त होता है और उसकी प्रजा सुखी होती है।

हे राजन्‌ जो मैंने तुमको देखा इसलिए मेरी दृष्टि सफल हुई। भगवद्भक्त आपके साथ बात करने से आज मेरी वाणी सफल हुई। हे राजन्‌! मेरी आज्ञा से यह राज्य तुमको करना चाहिए। मैंने इस राज्य में तुमको प्रतिष्ठित किया। तुम्हारा कल्याण हो मैं जाऊँगा।

श्रीनारायण बोले, ‘इस प्रकार कह कर जाने की इच्छा करनेवाले श्रेष्ठ मुनि अगस्त्य को चित्रबाहु राजा की पतिव्रता स्त्री ने परमभक्ति के साथ प्रणाम किया।

अगस्त्य मुनि बोले, ‘हे शुभे तू सदा सौभाग्यवती हो और भक्ति से पति की सेवा कर। श्रीगोपीजन के वल्लभ श्रीकृष्णचन्द्र में तेरी सदा दृढ़ भक्ति हो। इस प्रकार आशीर्वाद देते हुए अगस्त्य ऋषि से विनयपूर्वक शिर नवा कर और अञ्जलि बाँध कर चित्रबाहु राजा ने फिर कहा।

चित्रबाहु बोला, ‘हे विप्रेन्द्र यह विपुल लक्ष्मी कैसे हुई ? निष्कण्टक राज्य कैसे हुआ? यह मेरी स्त्री इतनी पतिव्रता कैसे हुई ? और मैंने कौन-सा पुण्य किया था? हे विप्रेन्द्र! यह सब मेरे से आप कहिए। मैं आपकी शरण में आया हूँ। हे मुनीश्वर आप हाथ में स्थित दर्पण के समान सब जानते हो।

श्रीनारायण बोले, ‘इस प्रकार राजा चित्रबाहु के कहने पर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य एकाग्रचित्त होकर राजश्रेष्ठ चित्रबाहु से बोले।

अगस्त्य मुनि बोले, ‘हे राजन मैंने तुम्हारे पूर्वजन्म का चरित्र देख लिया है। इतिहास के सहित प्राचीन उस चरित्र को कहता हूँ।

सुन्दर चमत्कार पुर में शूद्र जाति में जीव हिंसा करने में तत्पर मणिग्रीव कामधारी तुम हुए। सो तुम नास्तिक, दुष्टचरित्र वाले, दूसरे की स्त्री को हरण करनेवाले, कृतध्न, दुर्विनीत, शिष्टाचार से रहित हुए, और तुम्हारी यह जो स्त्री है यही पूर्व जन्म में भी स्त्री थी। यह कर्म, मन और वचन से पतिसेवा में परायण थी। पतिव्रता, महाभागा, धर्म में प्रेम करनेवाली, मनस्विनी इसने कभी भी तुम्हारे विषय में दुष्टभाव नहीं किया।

पापकर्म को करनेवाले तुम्हारा जाति और बान्धवों ने त्याग कर दिया और क्रुद्ध होकर राजा ने सब उत्तम धन ले लिया। फिर उस समय बचा हुआ जो कुछ अवशेष धन था उसको जातिवालों ने भी लिया। तब उस समय धन के चले जाने से तुमको धन की भारी इच्छा हुई। परन्तु धन के नाश होने पर भी मन मलीन होकर इस पतिव्रता ने तुम्हारा त्याग नहीं किया। इस प्रकार सब लोगों से तिरस्कृत होने पर तुम निर्जन वन को गये।

हे महीपते वन में जाकर अनेक पशुओं को मारकर अपनी आत्मा का रक्षण किया। इस प्रकार स्त्री के सहित जीवन निर्वाह करते हुए धनुष को उठाकर मणिग्रीव मृग के मांस को खाने की इच्छा से बहुत से सर्प और मृग से भरे हुए वन को गया। उस मनुष्य रहित वन के मध्य मार्ग में उग्रदेव नाम के महामुनि दिशाज्ञान के नष्ट हो जाने से व्याकुल हो गये।

हे राजन मध्याह्न के समय तृषा से अत्यन्त पीड़ित हो वहाँ ही गिरकर मरणासन्न हो गये। उस समय रास्ते को भूले हुए उस दुःखित ब्राह्मण को देख कर तुमको दया आई। उस ब्राह्मण को उठाकर और उसको साथ लेकर तुम अपने आश्रम को गये। उस दुःखित ब्राह्मण की तुम दोनों स्त्री-पुरुष ने सेवा की। एक मुहूर्त के बाद उस समय महायोगी उग्रदेव चैतन्यता को प्राप्त हो आश्चर्य करने लगे कि मैं वहाँ था यहाँ कैसे आ गया? उस वन के बीच से कौन लाया ?

श्रीनारायण बोले, ‘मणिग्रीव ने उस ब्राह्मण से कहा कि यह सुन्दर तालाब है इसमें कमलिनी के पुष्प से सुगन्धित शीतल जल है। हे ब्रह्मन उस शीतल जल में स्नान करके मध्याह्न की क्रिया करके फलाहार करें और सुन्दर शीतल जल का पान करें। इस समय मैंने रक्षा की है। आप सुख से विश्राम करें। हे मुनिश्रेष्ठ! आप उठिये और आप कृपा करने के योग्य हैं।

अगस्त्यजी बोले, ‘उस समय उग्रदेव ब्राह्मण श्रमरहित सावधान हो मणिग्रीव का वचन सुन कर तृषा से व्याकुल हो उठा।

हे चित्रबाहो! मणिग्रीव की भुजा पकड़ कर वट-वृक्ष से शोभित तालाब के तट पर जाकर बैठ गये। वट की छाया में बैठकर क्षणमात्र विश्राम कर स्नान और नित्यकर्म कर वासुदेव भगवान्‌ का पूजन किया। देवता पितरों को तर्पण कर सुन्दर शीतल जल को पान कर उग्रदेव ब्राह्मण शीघ्र वट के मूल भाग में आकर बैठ गये। पत्नी सहित मणिग्रीव ने मुनिश्रेष्ठ उग्रदेव को नमस्कार किया और अतिथि सत्कार करने की इच्छा से विनययुक्त वाणी से बोला।

मणिग्रीव बोला, ‘हे ब्रह्मन आज मुझको तारने के लिये आप मेरे आश्रम को आये। आपके दर्शन से मेरे पाप नष्ट हो गये। इस प्रकार उस ब्राह्मण से कह कर प्रसन्न मणिग्रीव स्त्री से बोला, ‘अयि! सुन्दरी! जो जो स्वादिष्ट पके हुए फल हैं, उन आम्रफलों को तुम जल्दी लाओ विलम्ब मत करो। हे शुभानने और जो कुछ कन्द आदि हों उनको भी लाओ।

इस प्रकार स्त्री अपने पति के वचन को सुन फलों को और कन्दादिकों को लाकर हर्ष से ब्राह्मण के सामने रखती है।

मणिग्रीव फिर मुनिश्रेष्ठ से वचन बोला कि, ‘हे ब्रह्मन्‌ इन फलों को ग्रहण कर मुझ स्त्री-पुरुष को कृतार्थ करें।’

उग्रदेव ब्राह्मण बोला, ‘तुमको मैं नहीं जानता हूँ। तुम कौन हो ? सो मेरे से कहो। विद्वान्‌ ब्राह्मण को चाहिये कि अपरिचित का भोजन नहीं करे।’

मणिग्रीव बोला, ‘हे द्विजशार्दूल मैं मणिग्रीव नामक शूद्र जाति का, स्वजनों से, जातिवालों से, अपने बान्धवों से त्यागा हुआ हूँ।’

इस प्रकार शूद्र के वचन को सुनकर प्रसन्नात्मा उग्रदेव ने फलों को खाया, बाद जल को पीया। ब्राह्मण को सुख से बैठे देखकर मणिग्रीव उग्रदेव ब्राह्मण के पैरों को अपनी गोद में रख कर दबाता हुआ फिर वचन बोला।

मणिग्रीव बोला, ‘हे मुनिश्रेष्ठ आप कहाँ जायँगे ? इस निर्जन जलरहित हिंसक जन्तुओं से भरे दुष्ट वन में कहाँ से आये ?

उग्रदेव बोला, ‘हे महाभाग! मैं ब्राह्मण हूँ प्रयाग जाना चाहता हूँ। इस समय रास्ता न जानने के कारण भयंकर वन में चला आया हूँ। उस जगह थकावट और प्यास के कारण क्षणभर में ही मरणासन्नह हो गया। बाद तुमने मेरे को प्राण दिया। हे मणिग्रीव! बोलो, तुमको मैं क्या दूँ। हे मणिग्रीव तुम दोनों स्त्री-पुरुष ने किस दुःख के कारण वन में आश्रय लिया है। उस दुःख को मुझसे कहो मैं उस दुःख को दूर करूँगा।’

अगस्त्य मुनि बोले, ‘इस प्रकार उग्रदेव ब्राह्मण के वचन को सुनकर अपनी स्त्री के सामने उस मुनीश्वर उग्रदेव की प्रार्थना कर दरिद्रता समुद्र को पार करने की इच्छा वाले मणिग्रीव ने अपने कर्म के भयंकर फलरूप वृत्तान्त को कहा।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये त्रयोविंशोऽध्यायः ॥२३॥

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 24 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 24

मणिग्रीव बोला, ‘हे द्विज विद्वानों से पूर्ण और सुन्दर चमत्कारपुर में धर्मपत्नी के साथ में रहता था। धनाढय, पवित्र आचरण वाला, परोपकार में तत्पर मुझको किसी समय संयोग से दुष्ट बुद्धि पैदा हुई। दुष्ट बुद्धि के कारण मैंने अपने धर्म का त्याग किया, दूसरे की स्त्री का सेवन किया और नित्य अपेय वस्तु का पान किया। चोरी हिंसा में तत्पर रहता था, इसलिए बन्धुओं ने मेरा त्याग किया। उस समय महाबलवान्‌ राजा ने मेरा घर लूट लिया। बाद बचा हुआ जो कुछ धन था उसको बन्धुओं ने ले लिया।इस प्रकार सभी से तिरस्कृत होने के कारण वन में निवास किया। स्त्री के साथ इस घोर वन में निवास करते हुए मुझ दुरात्मा का नित्य जीवों का वध कर जीवन-निर्वाह होता है। हे ब्रह्मन्‌ इस समय आप मुझ पातकी पर अनुग्रह करें। प्राचीन पुण्य के समूह से आप इस घोर वन में आये हैं।

हे महामुने स्त्री के साथ मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप उपदेशरूप प्रसाद से कृतार्थ करने के योग्य हैं। जिस उपाय के करने से मेरी तीव्र दरिद्रता इसी क्षण में नष्ट हो जाय और अतुल वैभव को प्राप्त कर यथासुख विचरूँ।

उग्रदेव बोला, ‘हे महाभाग तुम कृतार्थ हो गये। जो तुमने मेरा अतिथि-सत्कार किया इसलिए इस समय स्त्रीसहित तुमको होनेवाले कल्याण को कहता हूँ। जो बिना व्रत के, बिना तीर्थ के, बिना दान के, बिना प्रयास के तुम्हारी दरिद्रता दूर हो जायगी, ऐसा मैंने विचार किया है।

इस मास के बाद तीसरा श्रीपुरुषोत्तम मास आने वाला है उस पुरुषोत्तम मास में सावधानी के साथ विधिपूर्वक तुम दोनों स्त्री-पुरुष, श्रीपुरुषोत्तम भगवान्‌ को प्रसन्न करने के लिये दीप-दान करना। उस दीप-दान से तुम्हारी यह दरिद्रता जड़ से नष्ट हो जायगी। तिल के तेल से दीप-दान करना चाहिये। विभव के होने पर घृत से दीप-दान करना चाहिये। परन्तु इस समय वन में वास करने के कारण घृत अथवा तेल इनमें से तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है।

हे अनघ मणिग्रीव पुरुषोत्तम मास भर स्त्री के साथ नियमपूर्वक इंगुदी के तेल से तुम दीप-दान करना। स्त्री के साथ इस तालाब में नित्य स्नान करके दीप-दान करना। इसी प्रकार तुम इस वन में एक मास व्रत करना। तुम्हारे अतिथिसत्कार से प्रसन्न मैंने यह वेद में कहा हुआ तुम दोनों स्त्री-पुरुष के लिये उपदेश किया है।

विधिहीन भी दीप-दान करने से मनुष्यों को लक्ष्मी की वृद्धि होती है। यदि पुरुषोत्तम मास में विधिपूर्वक दीप-दान किया जाय तो क्या कहना है। वेद में कहे हुए कर्म और अनेक प्रकार के दान पुरुषोत्तम मास में दीप-दान की सोलहवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकते हैं। समस्त तीर्थ, समस्त शास्त्र पुरुषोत्तम मास के दीप-दान की सोलहवीं कला को नहीं पा सकते हैं। योग, दान, सांखय, समस्त-तन्त्र भी पुरुषोत्तम मास के दीप-दान की सोलहवीं कला को नहीं पा सकते हैं।

कृच्छ्र, चान्द्रायण आदि समस्त व्रत पुरुषोत्तम मास के दीप-दान की सोलहवीं कला की बराबरी नहीं कर सकते हैं। वेद का प्रतिदिन पाठ करना, गयाश्राद्ध, गोमती नदी के तट का सेवन पुरुषोत्तम मास के दीप-दान की सोलहवीं कला की बराबरी नहीं कर सकते हैं। हजारों ग्रहण, सैकड़ों व्यतीपात पुरुषोत्तम मास के दीप-दान की सोलहवीं कला की बराबरी नहीं कर सकते हैं। कुरुक्षेत्र आदि श्रेष्ठ क्षेत्र, दण्डक आदि वन पुरुषोत्तम मास के दीप-दान की सोलहवीं कला की बराबरी नहीं कर सकते हैं।

हे वत्स यह अत्यन्त गुप्त व्रत जिस किसी से कहने लायक नहीं है। यह धन, धान्य, पशु, पुत्र, पौत्र और यश को करनेवाला है। वन्ध्या स्त्री के बाँझपन को नाश करनेवाला है और स्त्रियों को सौभाग्य देनेवाला है। राज्य से गिरे हुए राजा को राज्य देनेवाला है और प्राणियों को इच्छानुसार फल देने वाला है।

यदि कन्या व्रत करती है तो गुणी चिरञ्जीयवी पति को प्राप्त करती है, स्त्री की इच्छा करने वाला पुरुष सुशीला और पतिव्रता स्त्री को प्राप्त करता है। विद्यार्थी विद्या को प्राप्त करता है। सिद्धि को चाहने वाला अच्छी तरह सिद्धि को प्राप्त करता है। खजाना को चाहने वाला खजाना को प्राप्त करता है। मोक्ष को चाहने वाला मोक्ष को प्राप्त करता है। बिना विधि के, बिना शास्त्र के जो पुरुषोत्तम मास में जिस किसी जगह दीप-दान करता है वह इच्छानुसार फल को प्राप्त करता है।

हे वत्स विधिपूर्वक नियम से जो दीप-दान करता है तो फिर कहना ही क्या है ? इसलिये पुरुषोत्तम मास में दीप-दान करना चाहिये। मैंने इस समय यह तीव्र दरिद्रता को नाश करने वाला दीप-दान तुमसे कहा, तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारी सेवा से मैं प्रसन्न हूँ।’

अगस्त्य मुनि बोले, ‘इस प्रकार वह श्रेष्ठ ब्राह्मण मन से दो भुजावाले मुरली को धारण करने वाले श्रीहरि भगवान्‌ का स्मरण करते हुए प्रयाग को गये। वे दोनों अपने आश्रम से उग्रदेव के पीछे जाकर उनके पास कुछ मासपर्यन्त वास करके, प्रसन्न मन हो, दोनों स्त्री-पुरुष उग्रदेव को नमस्कार कर, फिर अपने आश्रम को चले आये।

अपने आश्रम में आकर भक्ति से पुरुषोत्तम में मन लगाकर, ब्राह्मण की भक्ति में तत्पर उन दोनों स्त्री-पुरुष ने दो मास बिताया। दो मास बीत जाने पर श्रीमान्‌ पुरुषोत्तम मास आया, उस पुरुषोत्तम मास में वे दोनों गुरुभक्ति में तत्पर हो दीप-दान को करते हुए, आलस्य को छोड़कर वे दोनों ऐश्वर्य के लिए इंगुदी के तेल से दीप-दान करते रहे। इस प्रकार दीप-दान करते उन दोनों को श्रीपुरुषोत्तम मास बीत गया।

उग्रदेव ब्राह्मण के प्रसाद से शुद्धान्तःकरण होकर समय पर काल के वशीभूत हो इन्द्र की पुरी को गये। वहाँ होनेवाले सुखों को भोग कर पृथिवी पर भारतखण्ड में उग्रदेव के प्रसाद से श्रेष्ठ जन्म को उन दोनों स्त्री-पुरुष ने धारण किया।

पूर्व जन्म में जो तुम मृग की हिंसा में तत्पर मणिग्रीव थे वह वीरबाहु के पुत्र चित्रबाहु नाम से प्रसिद्ध राजा हुए। इस समय यह चन्द्रकला नामक जो तुम्हारी स्त्री है वह पूर्व जन्म में सुन्दरी नाम से तुम्हारी स्त्री थी। पतिव्रत धर्म से यह तुम्हारे अर्धांग की भागिनी है। जो स्त्री पतिव्रता होती हैं वे अपने पति के पुण्य का आधा भाग लेनेवाली होती हैं। श्रीपुरुषोत्तम मास में इंगुदी के तेल से दीप-दान करने से तुमको यह निष्कण्टक राज्य मिला। जो पुरुष श्रीपुरुषोत्तम मास में घृत से अथवा तिल के तेल से अखण्ड दीप-दान करता है तो फिर कहना ही क्या है। पुरुषोत्तम मास में दीप-दान का यह फल कहा है इसमें कुछ सन्देह नहीं है। जो उपवास आदि नियमों से श्रीपुरुषोत्तम मास का सेवन करता है तो उसका कहना ही क्या है।

बाल्मीकि मुनि बोले, ‘इस प्रकार अगस्त्य मुनि राजा चित्रबाहु के पूर्व जन्म का वृत्तान्त कहकर और राजा चित्रबाहु से किए गये सत्कार को लेकर तथा अक्षय आशीर्वाद देकर चले गये।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये चतुर्विंशोऽध्यायः ॥२४॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 25 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 25) 

दृढ़धन्वा बोला, ‘हे ब्रह्मन्‌ हे मुने अब आप पुरुषोत्तम मास के व्रत करने वाले मनुष्यों के लिए कृपाकर उद्यापन विधि को अच्छी तरह से कहिए।बाल्मीकि मुनि बोले, ‘पुरुषोत्तम मास व्रत के सम्पूर्ण फल की प्राप्ति के लिए श्रीपुरुषोत्तम मास के उद्यापन विधि को थोड़े में अच्छी तरह से कहूँगा।

पुरुषोत्तम मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी, नवमी अथवा अष्टमी को उद्यापन करना कहा है। इस पवित्र पुरुषोत्तम मास में प्रातःकाल उठकर यथा उपलब्ध पूजन के सामान से पूर्वाह्न की क्रिया को कर, एकाग्र मन होकर सदाचारी, विष्णुभक्ति में तत्पर, स्त्री सहित ऐसे तीस ब्राह्मणों को निमन्त्रित करे।

हे भूपते अथवा यथाशक्ति अपने धन के अनुसार सात अथवा पाँच ब्राह्मणों को निमन्त्रित करे, बाद मध्याह्न के समय सोलह सेर, अथवा उसका आधा अथवा उसका आधा यथाशक्ति पंचधान्य से उत्तम सर्वतोभद्र बनावे।

सर्वतोभद्र मण्डल के ऊपर सुवर्ण, चाँदी, ताँबा अथवा मिट्टी के छिद्र रहित शुद्ध चार कलश स्थापन करना चाहिये। चार व्यूह के प्रीत्यर्थ चारों दिशाओं में बेल से युक्त, उत्तम वस्त्र से वेष्टित, पान से युक्त उन कलशों को करना चाहिये। उन चारों कलशों पर क्रम से वासुदेव, हलधर, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध देव को स्थापित करे।

पुरुषोत्तम मास व्रत के आरम्भ में स्थापित किये हुए राधिका सहित देवदेवेश पुरुषोत्तम भगवान्‌ को कलशयुक्त वहाँ से लाकर मण्डल के ऊपर मध्यभाग में स्थापित करे। वेद-वेदांग के जानने वाले वैष्णव को आचार्य बनाकर जप के लिए चार ब्राह्मणों का वरण करे। उनको अँगूठी के सहित दो-दो वस्त्र देना चाहिये। प्रसन्न मन से वस्त्र-आभूषण आदि से आचार्य को विभूषित करके फिर शरीरशुद्धि के लिये प्रायश्चित्त गोदान करे।

तदनन्तर स्त्री के साथ पूर्वोक्त विधि से पूजा करनी चाहिए। और वरण किए हुए चार ब्राह्मणों से चार व्यूह का जप कराना चाहिए। और चार दिशाओं में चार दीपक ऊपर के भाग में स्थापित करना चाहिये। फिर नारियल आदि फलों से क्रम के अनुसार अर्ध्यदान करना चाहिए।

घुटनों के बल से पृथिवी में स्थित होकर पञ्च रत्नत और यथालब्ध अच्छे फलों को दोनों हाथ में लेकर श्रद्धा भक्ति से युक्त स्त्री के साथ हर्ष से युक्त हो प्रसन्न मन से श्रीहरि भगवान्‌ का स्मरण करता हुआ अर्ध्यदान करे।

अर्ध्यदान का मन्त्र, ‘हे देवदेव हे पुरुषोत्तम आपको नमस्कार है। हे हरे! राधिका के साथ आप मुझसे दिये गये अर्ध्य को ग्रहण करें। नवीन मेघ के समान श्यामवर्ण, दो भुजाधारी, मुरली हाथ में धारण किये, पीताम्बरधारी, देव, राधिका के सहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ को नमस्कार है। इस प्रकार भक्ति के साथ राधिका के सहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ को नमस्कार करके चतुर्थ्यन्त नाममन्त्रों से तिल की आहुति देवे।

इसके बाद उनके मन्त्रों से तर्पण और मार्जन करे। बाद राधिका के सहित पुरुषोत्तम देव की आरती करे। अब नीराजन का मन्त्र-कमल के दल के समान कान्ति वाले, राधिका के रमण, कोटि कामदेव के सौन्दर्य को धारण करनेवाले देवेश का प्रेम से नीराजन करता हूँ।

अथ ध्यान मन्त्र-अनन्त रत्नों से शोभायमान सिंहासन पर स्थित, अन्तर्ज्योति, स्वरूप, वंशी शब्द से अत्यन्त मोहित व्रज की स्त्रियों से घिरे हुए हैं इसलिये वृन्दावन में अत्यन्त शोभायमान, राधिका और कौस्तुभमणि से चमकते हुए हृदय वाले शोभायमान रत्नों से जटित किरीट और कुण्डल को धारण करनेवाले, आप नवीन पीताम्बर को धारण किए हैं इस प्रकार पुरुषोत्तम भगवान्‌ का ध्यान करें।

फिर राधिका के सहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ को पुष्पाञ्जंलि देकर स्त्री के साथ साष्टांग नमस्कार करे। नवीन मेघ के समान श्यामवर्ण पीतवस्त्रधारी, अच्युत, श्रीवत्स चिन्ह से शोभित उरस्थल वाले राधिका सहित हरि भगवान्‌ को नमस्कार है।

ब्राह्मण को सुवर्ण के साथ पूर्णपात्र देवे। बाद प्रसन्नता के साथ आचार्य को बहुत-सी दक्षिणा देवे। सपत्नीक आचार्य को भक्ति से वस्त्र आभूषण से प्रसन्न करे, फिर ऋत्विजों को उत्तम दक्षिणा देवे। बछड़ा सहित, वस्त्र सहित, दूध देनेवाली, सुशीला गौ को घण्टा आभूषण से भूषित करके उसका दान करना चाहिये। ताँबे का पीठ, सुवर्ण का श्रृंग, चाँदी के खुर से भूषित कर देवे, घृतपात्र देवे और उसी प्रकार तिलपात्र देवे।

स्त्री-पुरुष को पहिनने के लिए उमा-महेश्वर के प्रीत्यर्थ वस्त्र का दान करे। आठ प्रकार का पद देवे और एक जोड़ा जूता देवे। यदि शक्ति हो तो आयु की चंचलता को विचारता हुआ वैष्णव ब्राह्मण को श्रीमद्भागवत का दान करे, देरी नहीं करे। श्रीमद्भागवत साक्षात्‌ भगवान्‌ का अद्भुत रूप है।

जो वैष्णव पण्डित ब्राह्मण को देता है, वह कोटि कुल का उद्धार कर अप्सरागणों से सेवित विमान पर सवार हो योगियों को दुर्लभ गोलोक को जाता है।

हजारों कन्यादान सैकड़ों वाजपेय यज्ञ, धान्य के साथ क्षेत्रों के दान और जो तुलादान आदि, आठ महादान हैं और वेददान हैं वे सब श्रीमद्भागवत दान की सोलगवीं कला की बराबरी नहीं कर सकते हैं। इसलिये श्रीमद्भागवत को सुवर्ण के सिंहासन पर स्थापित कर वस्त्र-आभूषण से अलंकृत कर विधिपूर्वक वैष्णव ब्राह्मण को देवे। काँसे के ३० (तीस) सम्पुट में तीस-तीस मालपूआ रखकर ब्राह्मणों को देवे।

हे पृथिवीपते हर एक मालपूआ में जितने छिद्र होते हैं उतने वर्ष पर्यन्त वैकुण्ठ लोक में जाकर वास करता है। योगियों को दुर्लभ, निर्गुण गोलोक को जाता है। जिस सनातन ज्योतिर्धाम गोलोक को जाकर नहीं लौटते हैं। अढ़ाई सेर काँसे का सम्पुट कहा गया। निर्धन पुरुष यथाशक्ति व्रतपूर्ति के लिये सम्पुट दान करे। अथवा पुरुषोत्तम भगवान्‌ के प्रीत्यर्थ मालपूआ का कच्चा सामान, फल के साथ सम्पुट में रखकर देवे।

हे नराधिप निमन्त्रित सपत्नीेक ब्राह्मणों को पुरुषोत्तम भगवान्‌ के समीप संकल्प करके देवे।

अब प्रार्थना लिखते हैं, ‘हे श्रीकृष्ण हे जगदाधार हे जगदानन्ददायक अर्थात्‌ हे जगत्‌ को आनन्द देने वाले! मेरी समस्त इस लोक तथा परलोक की कामनाओं को शीघ्र पूर्ण करें। इस प्रकार गोविन्द भगवान्‌ की प्रार्थना कर प्रसन्नता पूर्वक पुरुषोत्तम भगवान्‌ का स्मरण करता हुआ स्त्रीसहित सदाचारी ब्राह्मणों को भोजन करावे।

ब्राह्मणरूप हरि और ब्राह्मणीरूप राधिका का स्मरण करता हुआ भक्ति पूर्वक गन्धाक्षत से पूजन कर घृत पायस का भोजन करावे। व्रत करने वाला विधिपूर्वक भोजन सामान का संकल्प करे। अंगूर, केला, अनेक प्रकार के आम के फल, घी के पके हुए, सुन्दर उड़द के बने बड़े, चीनी घी के बने घेवर, फेनी, खाँड़ के बने मण्डक, खरबूजा, ककड़ी का शाक, अदरख, सुन्दर नीबू, आम और अनेक प्रकार के अलग-अलग शाक।

इस प्रकार षट्‌रसों से युक्त चार प्रकार का भोजन सुगन्धित पदार्थ से वासित गोरस को परोस कर, कोमल वाणी बोलते हुए, ‘यह स्वादिष्ट है, इसको आपके लिए तैयार किया है, प्रसन्नता के साथ भोजन कीजिये। हे ब्रह्मन्‌! हे प्रभो! जो इस पकाये हुए पदार्थों में अच्छा मालूम हो उसको माँगिये।

मैं धन्य हूँ, आज मैं ब्राह्मणों के अनुग्रह का पात्र हुआ, मेरा जन्म सफल हुआ, इस प्रकार कह कर आनन्द पूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराकर ताम्बूल और दक्षिणा देवे। इलायची, लौंग, कपूर, नागरपान, कस्तूरी, जावित्री, कत्था और चूना। इन सब पदार्थों को मिलाकर भगवान्‌ के लिये प्रिय ताम्बूल को देना चाहिये। इसलिये इन सामानों से युक्त करके ही आदर के साथ ताम्बूल देना चाहिए।

जो इस प्रकार ताम्बूल को ब्राह्मण श्रेष्ठ के लिये देता है वह इस लोक में ऐश्वर्य सुख भोग कर परलोक में अमृत का भोक्ता होता है। स्त्री के साथ ब्राह्मणों को प्रसन्न कर हाथ में मोदक देवे और ब्राह्मणियों को विधिपूर्वक वस्त्र आभूषण से अलंकृत कर वंशी देवे। सीमा तक उन ब्राह्मणों को पहुँचाकर विसर्जन करे।

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन॥

यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे॥१॥

और इस मन्त्र से पुरुषोत्तम भगवान्‌ को क्षमापन समर्पण करके

यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु॥

न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो बन्दे तमच्युतम्‌॥१॥

इस मन्त्र से जनार्दन भगवान्‌ को नमस्कार कर जो कुछ कमी रह गई हो वह अच्युत भगवान्‌ की कृपा से पूर्ण फल देनेवाला हो यह कहकर यथासुख विचरे। अन्न का यथाभाग विभाग कर भूतों को देकर मिथ्याभाषण से रहित हो, अन्न की निन्दा न करता हुआ कुटुम्बिजनों के साथ भोजन करे।

अमावस्या के दिन रात्रि में जागरण करे। सुवर्ण की प्रतिमा में राधिका के सहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ का पूजन करे। पूजा के अन्त में सपत्नीक व्रती प्रसन्नचित्त हो नमस्कार कर राधिका के साथ पुरुषोत्तम देव का विसर्जन करे। फिर आचार्यं को मूर्ति के सहित चढ़ा हुआ सामान को देवे। अपनी इच्छानुसार यथायोग्य अन्नुदान को देवे। जिस किसी उपाय से इस व्रत को करे और उत्तम भक्ति से द्रव्य के अनुसार दान देवे। स्त्री अथवा पुरुष इस व्रत को करने से जन्म-जन्म में दुःख, दारिद्रय और दौर्भाग्य को नहीं प्राप्त होते हैं।

जो लोग इस व्रत को करते हैं वे इस लोक में अनेक प्रकार के मनोरथों को प्राप्त करके सुन्दर विमान पर चढ़कर श्रेष्ठ वैकुण्ठ लोक को जाते हैं।

श्रीनारायण बोले, ‘इस प्रकार जो पुरुष श्रीकृष्ण भगवान्‌ का प्रिय पुरुषोत्तम मासव्रत विधिपूर्वक आदर के साथ करता है वह इस लोक के सुखों को भोगकर और पापराशि से मुक्त होकर अपने पूर्व पुरुषों के साथ गोलोक को जाता है ॥ ६६ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये पञ्चविंशोऽध्यायः ॥२५॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 26 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 26) 

अब उद्यापन के पीछे व्रत के नियम का त्याग कहते हैं। बाल्मीकि मुनि बोले, ‘सम्पूर्ण पापों के नाश के लिये गरुडध्वज भगवान्‌ की प्रसन्नता के लिये धारण किये व्रत नियम का विधि पूर्वक त्याग कहते हैं।हे राजन्‌! नक्तव्रत करनेवाला मनुष्य समाप्ति में ब्राह्मणों को भोजन करावे और बिना माँगे जो कुछ मिल जाय उसको खा कर रहने में सुवर्णदान करना। अमावास्या में भोजन का नियम पालन करने वाला दक्षिणा के साथ गोदान देवे। और जो आँवला जल से स्नान करता है वह दही अथवा दूध का दान देवे।

हे राजन्‌ फलों का नियम किया है तो फलों का दान करे। तेल का नियम किया है अर्थात्‌ तैल छोड़ा है तो समाप्ति में घृतदान करे और घृत का नियम किया है तो दूध का दान करे। हे राजन्‌! धान्यों के नियम में गेहूँ और शालि चावल का दान करे। हे राजन्‌ यदि पृथ्वी में शयन का नियम किया है तो रूई भरे हुए गद्देृ और चाँदनी के सहित, अपने को सुख देने वाली तकिया आदि रख कर शय्या का दान करे, वह मनुष्य भगवान्‌ को प्रिय होता है। जो मनुष्य पत्र में भोजन करता है वह ब्राह्मणों को भोजन करावे, घृत चीनी का दान करे।

मौनव्रत में सुवर्ण के सहित घण्टा और तिलों का दान करे। सपत्नीक ब्राह्मण को घृतयुक्त पदार्थ से भोजन करावे। हे राजन्‌! नख तथा केशों को धारण करने वाला बुद्धिमान्‌ दर्पण का दान करे। जूता का त्याग किया है तो जूता का दान करे। लवण के त्याग में अनेक प्रकार के रसों का दान करे। दीपत्याग किया है तो पात्र सहित दीपक का दान करे।

जो मनुष्य अधिकमास में भक्ति से नियमों का पालन करता है वह सर्वदा वैकुण्ठ में निवास करता है। ताँबे के पात्र में घृत और सुवर्ण की वत्ती रख कर दीपक का दान करे। व्रत की पूर्ति के लिये पलमात्र का ही दान देवे। एकान्त में वास करने वाला आठ घटों का दान करे। वे घट सुवर्ण के हों या मिट्टी के उनको वस्त्र और सुवर्ण के टुकड़ों के सहित देवे। और मास के अन्त में छाता-जूता के साथ ३० (तीस) मोदक का दान करे, और भार ढोने में समर्थ बैल का दान करे। इन वस्तुओं के न मिलने पर अथवा यथोक्त करने में असमर्थ होने पर,

हे राजन सम्पूर्ण व्रतों की सिद्धि को देने वाला ब्राह्मणों का वचन कहा गया है अर्थात्‌ ब्राह्मण से सुफल के मिलने पर व्रत पूर्ण हो जाता है। जो मलमास में एक अन्न का सेवन करता है। वह चतुर्भुज होकर परम गति को पाता है। इस लोक में एकान्न से बढ़कर दूसरा कुछ भी पवित्र नहीं है।

एक अन्न के सेवन से मुनि लोग सिद्ध होकर परम मोक्ष को प्राप्त हो गये। अधिकमास में जो मनुष्य रात्रि में भोजन करता है वह राजा होता है। वह मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त करता है इसमें जरा भी सन्देह नहीं है। देवता लोग दिन के पूर्वाह्ण में भोजन करते हैं और मुनि लोग मध्याह्न में भोजन करते हैं। अपराह्ण में पितृगण भोजन करते हैं। इसलिये अपने लिये भोजन का समय चतुर्थ प्रहर कहा गया है। हे नराधिप! जो सब बेला को अतिक्रमण कर चतुर्थ प्रहर में भोजन करता है, हे जनाधिप! उसके ब्रह्महत्यादि पाप नाश हो जाते हैं। हे महीपाल! रात्रि में भोजन करने वाला समस्त पुण्यों से अधिक पुण्य फल का भागी होता है, और वह मनुष्य प्रतिदिन अश्व मेध यज्ञ के करने का फल प्राप्त करता है।

भगवान्‌ के प्रिय पुरुषोत्तम मास में उड़द का त्याग करे। वह उड़द छोड़ने वाला समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को जाता है। जो पातकी ब्राह्मण होकर यन्त्र में तिल पेरता है, हे राजन्‌! वह ब्राह्मण तिल की संख्या के अनुसार उतने वर्ष पर्यन्त रौरव नरक में वास करता है फिर चाण्डाल योनि में जाता है और कुष्ठ रोग से पीड़ित होता है।

जो मनुष्य शुक्ल और कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि में उपवास करता है वह मनुष्य चतुर्भुज हो गरुड़ पर बैठ कर वैकुण्ठ लोक को जाता है, और वह देवताओं से पूजित तथा अप्सराओं से सेवित होता है। एकादशी व्रत करनेवाला दशमी और द्वादशी के दिन एक बार भोजन करे।

जो मनुष्य देवदेव विष्णु भगवान्‌ के प्रीत्यर्थ व्रत करता है वह मनुष्य स्वर्ग को जाता है। हे राजन सर्वदा भक्ति से कुशा का मुट्ठा धारण करे, कुशमुष्टि का त्याग न करे। जो मनुष्य कुशा से मल, मूत्र, कफ, रुधिर को साफ करता है वह विष्ठा में कृमियोनि में जाकर वास करता है। कुशा अत्यन्त पवित्र कहे गये हैं, बिना कुशा की क्रिया व्यर्थ कही गई है क्योंकि कुशा के मूल भाग में ब्रह्मा और मध्य भाग में जनार्दन वास करते हैं। कुशा के अग्रभाग में महादेव वास करते हैं इसलिये कुशा से मार्जन करे।

शूद्र जमीन से कुशा को न उखाड़े और कपिला गौ का दूध न पीवे। हे भूपते! पलाश के पत्र में भोजन न करे, प्रणवमन्त्र का उच्चा रण न करे, यज्ञ का बचा हुआ अन्न न भोजन करे। शूद्र कुशा के आसन पर न बैठे, जनेऊ को धारण न करे और वैदिक क्रिया को न करे। यदि विधि का त्याग कर मनमाना काम करता है तो वह शूद्र अपने पितरों के सहित नरक में डूब जाता है। चौदह इन्द्र तक नरक में पड़ा रहता है फिर मुरगा, सूकर, बानर योनि को जाता है। इसलिये शूद्र हमेशा प्रणव का त्याग करे। हे भूमिप! शूद्र ब्राह्मणों के नमस्कार करने से नष्ट हो जाता है।

हे महाराज इतना करने से व्रत परिपूर्ण कहा है। अथवा ब्राह्मणों को दक्षिणा न देने से मनुष्य नरक के भागी होते हैं। व्रत में विध्न होने से अन्धा और कोढ़ी होता है।

हे भूप मनुष्यों में श्रेष्ठ मनुष्य पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के वचन से स्वर्ग को जाते हैं। हे भूप! इसलिये कल्याण को चाहने वाला विद्वान्‌ मनुष्य उन ब्राह्मणों के वचनों का उल्लंघन न करे।

यह मैंने उत्तम, कल्याण को करनेवाला, पापों का नाशक, उत्तम फल को देनेवाला माधव भगवान्‌ को प्रसन्न करने वाला, मन को प्रसन्न करने वाला धर्म का रहस्य कहा इसका नित्य पाठ करे। हे राजन्‌! जो इसको हमेशा सुनता है अथवा पढ़ता है वह उत्तम लोक को जाता है जहाँ पर योगीश्वर हरि भगवान्‌ वास करते हैं।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये षड्‌विंशोऽध्यायः ॥२६॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 27  (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 27) 

श्रीनारायण बोले, ‘इस प्रकार कह कर मौन हुए मुनिश्वर बाल्मीकि मुनि को सपत्नीक राजा दृढ़धन्वा ने नमस्कार किया, और प्रसन्नता के साथ भक्तिपूर्वक पूजन किया। उस राजा दृढ़धन्वा से की हुई पूजा को लेकर आशीर्वाद को दिया। तुम्हारा कल्याण हो। पापों का नाश करने वाली सरयू नदी को मैं जाऊँगा। इस समय हम दोनों को इस प्रकार बात करते सायंकाल हो गया है। यह कह कर मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि मुनि शीघ्र चले गये। राजा दृढ़धन्वा भी सीमा तक बाल्मीकि मुनि को पहुँचा कर अपने घर लौट आया।

घर जाकर अपनी गुणसुन्दरी नामक सुन्दरी स्त्री से बोला।राजा दृढ़धन्वा बोला, ‘अयि सुन्दरी! राग, द्वेष, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य इन छ शत्रुओं से युक्त, गन्धर्व नगर के समान इस असार संसार में मनुष्यों को क्या सुख है ? कीट विष्टा भस्म रूप और वात पित्त कफ इनसे युक्त मल, मूत्र, रक्त से व्यप्त ऐसे इस शरीर से मेरा क्या प्रयोजन है ? हे वरारोहे अध्रुव शरीर से ध्रुववस्तु एकत्रित करने के लिये पुरुषोत्तम का स्मरण कर वन को जाता हूँ।’ तब वह गुणसुन्दरी ऐसा सुन के विनय से नम्रता युक्त तथा शुद्धता से हाथ जोड़ अपने पति से बोली।

गुणसुन्दरी बोली, ‘हे नृपते मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी, पतिव्रता स्त्रियों के पति ही देवता हैं। जो स्त्री पति के जाने पर पुत्र के गृह में रहती है, वह स्त्री पुत्रवधू के आधीन हो पराये गृह में कुत्ते के समान रहती है। पिता स्वल्प देता है और भाई भी स्वल्प ही देता है अत्यन्त देवेवाले पति के साथ कौन स्त्री न जायगी ?’

इस प्रकार प्रिया की बात को स्वीकार कर पुत्र का अभिषेक कर स्त्री सहित शीघ्र ही मुनियों से सेवित वन को गया। दोनों स्त्री-पुरुष हिमालय के समीप गंगाजी के निकट जाकर पुरुषोत्तम मास के आनेपर दोनों काल में स्नान करने लगे।

हे नारद वहाँ पुरुषोत्तम मास को प्राप्त कर विधि से पुरुषोत्तम का स्मरण कर भार्या सहित तपस्या करने लगे। ऊपर हाथ किये बिना अवलम्ब पैर के अंगूठे पर स्थिर आकाश में दृष्टि लगाये निराहार होकर राजा श्रीकृष्ण का जप करने लगे। इस प्रकार व्रत की विधि में स्थित हुए तपोनिधि राजा की पतिव्रता रानी सेवा में तत्पर हुई।

इस प्रकार तप करते हुए राजा का पुरुषोत्तम मास सम्पूर्ण होने पर घंटिमाओं के जल से विभूषित विमान वहाँ आया। ऐसे तत्काल आये हुए पुण्यशील और सुशील सेवित विमान को देख स्त्री सहित राजा आश्चर्य युक्त हो, विमान में बैठे हुए पुण्यशील और सुशील को नमस्कार किया। पुनः वे स्त्री सहित राजा को विमान में बैठने की आज्ञा दिये। स्त्री सहित राजा विमान में बैठ के सुन्दर नवीन शरीर धारण कर तत्काल गोलोक को गये।

इस प्रकार पुरुषोत्तम मास में तप करके भय रहित लोक को प्राप्त होकर हरि के निकट आनन्द करने लगे। और पतिव्रता स्त्री भी पुरुषोत्तम में तप करते हुए पति की सेवा कर उसी लोक को प्राप्त हुई।

श्रीनारायण बोले, ‘हे नारद मेरी एक जिह्वा है इस समय इसका क्या वर्णन करूँ ? इस पृथ्वी पर पुरुषोत्तम के समान कुछ भी नहीं है। सहस्र जन्म में तप करने से जो फल प्राप्त नहीं होता है वह फल पुरुषोत्तम के सेवन से पुरुष को प्राप्त हो जाता है।

श्री पुरुषोत्तम मास में बुद्धि पूर्वक अथवा अबुद्धि पूर्वक किसी भी बहाने यदि उपवास, स्नान, दान और जप आदि किया जाय तो करोड़ों जन्म पर्यन्त किये पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे दुष्ट बन्दर ने अबुद्धि पूर्वक तीन रात तक पुरुषोत्तम मास में केवल स्नान कर लिया तो उसके पूर्व जन्म के समस्त कुकर्मों का नाश हो गया, और वह बन्दर भी दिव्य शरीर धारण कर विमान पर चढ़कर जरामरण रहित गोलोक को प्राप्त हुआ। इसलिये यह पुरुषोत्तम मास संपूर्ण मासों में अत्यन्त श्रेष्ठ मास है क्योंकि इसने बिना जाने से ही पुरुषोत्तम मास में किये गये स्नानमात्र से दुष्ट वानर को हरि भगवान्‌ के समीप पहुँचाया।

अहो आश्चर्य है श्रीपुरुषोत्तम मास का सेवन जो नहीं करनेवाले हैं वे महामूर्ख हैं। वे धन्य हैं और कृतकृत्य हैं तथा उनका जन्म सफल है। जो पुरुष श्रीपुरुषोत्तम मास का विधि के साथ स्नान, दान, जप, हवन, उपवासपूर्वक सेवन करते हैं।

नारद मुनि बोले, ‘वेद में समस्त अर्थों का साधन करनेवाला मनुष्य शरीर कहा गया है। परन्तु यह वानर भी व्याज से पुरुषोत्तम मास का सेवन कर साक्षात्‌ मुक्त हो गया। हे तपोनिधे! संपूर्ण प्राणियों के कल्याण के निमित्त मुझसे इस कथा को कहिये। इस वानर ने तीन रात्रि तक स्नान कहाँ पर किया? यह वानर कौन था ? आहार क्या करता था ? उत्पन्न कहाँ हुआ ? कहाँ रहता था ? और श्रीपुरुषोत्तम मास में व्याज से उसको क्या पुण्य हुआ ? यह सब विस्तार से सुनने की इच्छा करने वाले मेरे से कहिये। आप से कथामृत श्रवण करते हुए मुझे तृप्ति नहीं होती है।

श्रीनारायण बोले, ‘कोई केरल देश का अत्यन्त लालची, शहद की मक्खियों के समान धन में प्रेम रखनेवाला, सर्वदा धन के संचय करने में तत्पर रहनेवाला ब्राह्मण था। उसी कर्म से लोक में कदर्यनाम से प्रसिद्ध था। उसके पिता ने भी प्रथम उसका नाम चित्रशर्मा रक्खा था।

उस कदर्य ने सुन्दर अन्न, सुन्दर वस्त्र का किसी समय उपभोग नहीं किया। उस कुबुद्धि ने अग्नि में आहुति, पितरों का श्राद्ध भी नहीं किया। यश के लिये कुछ नहीं किया और आश्रित वर्ग का पोषण नहीं किया। अन्याय से धन को इकट्‌ठा कर पृथिवी में गाड़ दिया। माघमास में उसने कभी तिलदान नहीं किया। कार्तिक मास में दीपदान और ब्राह्मणों को भोजन नहीं कराया। वैशाख मास में धान्य का दान नहीं किया और व्यतीतपात योग में सुवर्ण का दान नहीं किया। वैधृति योग में चाँदी का दान नहीं किया और ये सब दान कभी सूर्य संक्रान्ति काल में नहीं दिया। चन्द्रग्रहण-सूर्यग्रहण के समय न जप किया और न अग्नि में आहुति दी।

सर्वत्र नेत्रों में आँसू भरकर दीन वचन कहा करता था। वर्षा, वायु, आतप से दुःखित, दुबला और काले शरीर वाला वह मूर्ख सर्वदा धन के लोभ से पृथिवी पर घूमा करता था। ‘कोई भी इस पामर को कुछ दे देता’ इस तरह बार-बार कहता हुआ, गौ के दोहन समय तक कहीं भी ठहरने में असमर्थ था। लोक के प्राणियों के धिक्काररने से जला हुआ और उद्विग्ना मन होकर घूमता था।

उसका मित्र कोई बनेचर बाटिका का मालिक था। उस कदर्य ने उस माली से बार-बार रोते हुए अपने दुख को कहा। नगर के वासी मेरा नित्य तिरस्कार करते हैं इसलिये उस नगर में मैं नहीं रह सकता हूँ। इस प्रकार कहते हुए उस कदर्य ब्राह्मण के अत्यन्त दीन वचन को सुन कर माली दयार्द्र चित्त हो गया।

शरण में आये हुए उस दीन ब्राह्मण पर माली ने दया कर कहा कि हे कदर्य! इस समय तुम इसी वाटिका में वास करो। नगरवासियों से तिरस्कृत हुआ वह कदर्य उस माली के वचन को सुन प्रसन्न होकर उस वाटिका में रहने लगा। नित्य उस माली के पास वास करता और उसकी आज्ञा का पालन करता था। इसलिये उस कदर्य में माली ने दृढ़ विश्वास किया, और उस कदर्य में अत्यन्त विश्वास होने के कारण माली ने उस कदर्य ब्राह्मण को अपने से छोटा बगीचे का मालिक बना दिया। इसके बाद उस माली ने यह निश्चय किया कि कदर्य हमारा आदमी है। इसलिये वाटिका की चिन्ता को छोड़कर राजमन्दिर का सेवन किया।

राजा के यहाँ उस माली को बहुत कार्य रहता था इसलिए और पराधीनतावश वाटिका की ओर वह कभी नहीं आया। वह अत्यन्त दुर्बल कदर्य उस वाटिका के फलों को आनन्द से अच्छी तरह भोजन करता और लोभवश बचे हुए फलों को बेंच देता था। निर्भय पूर्वक उस बगीचा के फलों को बेंचकर सब धन स्वयं ले लेता था। जब माली पूछता था तो उसके सामने झूठ बोलता था कि नगर मैं फिरता-फिरता, भिक्षा माँगता-माँगता और खाता-खाता तुम्हारे वन की रक्षा करता हूँ। फिर भी पक्षीगण इस बगीचे के फलों को महीने में आकर खा जाते हैं। देखिये, मैंने कुछ खाते हुए पक्षियों को अच्छी तरह से मार डाला है। यहाँ चारों तरफ उन पक्षियों के मांस और पंख गिरे पड़े हैं उन मांस के टुकड़ों को और पंखों को देखकर उसका अत्यन्त विश्वास कर माली चला गया।

इस प्रकार अत्यन्त जर्जर उस दुष्ट कदर्य के वास करते ८७ (सत्तासी) वर्ष व्यतीत हो गये। वह मूढ़ वहाँ ही मर गया और उसको अग्नि और काष्ठ भी नहीं मिला। बिना भोगे पापों का नाश नहीं होता है ऐसा वेद के जानने वाले कहते हैं। इस कारण हाहाकार करता हुआ यमद्रूतों के मुद्‌गर के आघात से पीड़ित कष्ट के साथ अत्यन्त भयंकर दीर्घ मार्ग को गया। पूर्व में किये हुए कर्मों को स्मरण करता हुआ और प्रलाप करता हुआ तथा बुद्‌बुद‌ अक्षरों में कहता हुआ कि अहो! आश्चर्य है। मुझ दुष्ट कदर्य के अज्ञान को देखिये, कृष्णसार से युक्त पवित्र इस भारतखण्ड में देवताओं को भी दुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त कर मैंने धन के लोभ से क्या किया ?

अर्थात्‌ कुछ भी नहीं किया और मैंने जन्म व्यर्थ में खोया तथा मैंने बहुत दिनों में जो धन संचय किया था वह धन तो पराधीन हो गया। इस समय कालपाश में बँधा पराधीन होकर क्या करूँ? प्रथम मनुष्य शरीर को प्राप्त कर कुछ भी पुण्यकर्म नहीं किया। न तो दान दिया, न अग्नि में आहुति दी, न हिमालय की गुफा में जाकर तपस्या की, मकर के सूर्य होने पर माघ मास में न गंगा के जल का सेवन किया। पुरुषोत्तम मास के अन्त में तीन दिन उपवास भी नहीं किया और कार्तिक मास में तारागण के रहते प्रातः स्नान नहीं किया।

मैंने पुरुषार्थ को देनेवाले मनुष्य शरीर को भी पुष्ट नहीं किया। अहो! आश्चर्य है। मेरा संचित धन पृथिवी में निरर्थक गड़ा रह गया। दुष्ट बुद्धि होने के कारण जीवनपर्यन्त जीव को कष्ट दिया और मैंने जठराग्नि को भी कभी अन्न से तृप्त नहीं किया। किसी पर्व के समय भी उत्तम वस्त्र से शरीर को आच्छादित नहीं किया। न तो जाति के लोगों को, न बान्धवों को, न स्वजनों को, न बहिनों को, न दामाद को, न कन्या को, न पिता-माता, छोटे भाई को, न पतिव्रता स्त्री को, न ब्राह्मणों को प्रसन्न किया। इन लोगों को एक बार भी मिठाई से कभी तृप्त नहीं किया। इस प्रकार विलाप करते हुए उस कदर्य को यमदूत यमराज के समीप ले गये।

उसको देखकर चित्रगुप्त ने उसके पाप-पुण्य को देखा और अपने स्वामी धर्मराज से कहा कि हे महाराज! यह ब्राह्मणों में अधम कृपण है। धन के लोभी इस दुष्ट कदर्य का कुछ भी पुण्य नहीं है। वाटिका में रह कर इसने बहुत पाप किया है। माली का विश्वा्सपात्र बन कर साक्षात्‌ स्वयं फलों को चोराया और जो-जो पके हुए फल थे उनको खाया, और जो खाने से बचे हुए फल थे उनको इस दुष्ट ने धन के लोभ से बेच डाला। एक फलों के चोरी का पाप, दूसरा विश्वासघात का पाप। हे प्रभो! ये दो पाप इस कृपण में अत्यन्त उग्र हैं और भी इसमें कई प्रकार के अनेक पाप हैं।

नारद मुनि बोले, ‘इस प्रकार ब्रह्मा के पुत्र चित्रगुप्त के वचन को सुन कर अत्यन्त क्रोध से युक्त धर्मराज ने कहा कि यह कदर्य एक हजार बार वानर योनि में जाय और विश्वासघात का फल इसको बाद होवेगा।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये सप्तविंशोऽध्यायः ॥२७॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 28 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 28) 

श्रीनारायण बोले, ‘चित्रगुप्त धर्मराज के वचन को सुनकर अपने योद्धाओं से बोले, ‘यह कदर्य प्रथम बहुत समय तक अत्यन्त लोभ से ग्रस्त हुआ, बाद चोरी करना शुरू किया। इसलिये यह प्रथम प्रेतशरीर को प्राप्त कर बाद वानर शरीर में जाय, तब हम इसको बहुत-सी नरकयातना देंगे।हे भट लोग! धर्मराज के गृह में यही क्रम श्रेष्ठ है। इस प्रकार चित्रगुप्त से आज्ञा प्राप्त होने पर भयंकर भट लोगों ने चित्रगुप्त की आज्ञानुसार शीघ्र वैसा ही किया और उस ब्राह्मण को पीटते हुए प्रथम प्रेतशरीर में करके फलरहित वन में रक्खा। वह ब्राह्मण प्रेत योनि को प्राप्त कर उस निर्जन गहन वन में क्षुधा-तृषा से अत्यन्त व्याकुल होकर भ्रमण करने लगा।

प्रेतयोनि में होनेवाले दुःख को भोग कर बाद फलों के चोरी करने से होने वाली वानर योनि को गया। सुन्दर शीतल जल और छाया तथा फल-पुष्प से युक्त जम्बू खण्ड के मनोहर सुन्दर कालञ्जोर पर्वत पर वहाँ इन्द्र से बनाया हुआ उत्तम कुण्ड है। मानसरोवर के समान पवित्र, सत्पुरुषों से सेवित, पापों का नाश करने वाला देवताओं को भी दुर्लभ ‘मृगतीर्थ’ नाम से प्रसिद्ध था। जिसमें श्राद्ध करने से पितर लोग सद्‌गति को चले जाते हैं।

वहाँ पर देवता लोग दैत्यों के भय से मृग होकर निरन्तर, निर्भय स्नान करने लगे। इसलिये विद्वान्‌ लोग उस कुण्ड को मृगतीर्थ कहते हैं। मनुष्य शरीर को प्राप्त कर यह ब्राह्मण वहाँ पर फलों के चोरी करने के पाप से प्रथम वानर शरीर को प्राप्त हुआ।

नारद मुनि बोले, ‘त्रैलोक्य को पवित्र करने वाले रमणीय मृगतीर्थ में पापकोटि से युक्त वह दुष्ट वानर कैसे वास करता हुआ ? हे नाथ हे तपोधन मेरे मन के सन्देह को काटो। क्योंकि आपके समान गुरुजनों का अपने शिष्यों के विषय में कभी भी गोप्य नहीं होता है।’

सूतजी बोले, ‘हे विप्रलोग इस प्रकार नारद मुनि से प्रेरित होने पर अत्यन्त प्रसन्न तपोनिधि नारायण भगवान्‌ नारद मुनि का सत्कार करते हुए बोले।’

श्रीनारायण बोले, ‘कोई चित्रकुण्डल नाम का महान्‌ वैश्य था। पतिव्रत धर्म में परायणा तारका नाम की उस वैश्य की स्त्री थी। उन दोनों ने भक्ति से पवित्र श्रीपुरुषोत्तम मास का व्रत किया। जब श्रीपुरुषोत्तम मास का व्रत करते उन दोनों का श्रीपुरुषोत्तम मास बीत गया। अन्तिम वाले दिन के आने पर स्त्री के साथ हर्ष से युक्त श्रद्धापूर्वक चित्रकुण्डल ने उद्यापन किया। पुरुषोत्तममास के उद्यापन विधि करने के लिये वेद और वेदांग को जानने वाले गुणी स्त्री सहित ब्राह्मणों को बुलाया।

हे नारद वहाँ पर धन के लोभ से कदर्य भी आया। उद्यापन विधि के पूर्ण होने पर चित्रकुण्डल ने बहुत बड़े दानों से उन सपत्नीक ब्राह्मणों को प्रसन्न किया। उन समस्त ब्राह्मणों के प्रसन्न होने पर भूयसी दक्षिणा को दिया। उस दी हुई भूयसी दक्षिणा से प्रसन्न अन्य सब ब्राह्मण गृह को गये परन्तु अत्यन्त लोभी कदर्य उस वैश्य चित्रकुण्डल के सामने रोता हुआ खड़ा हो गया। और विनय से नम्र होकर गद्‌गद वाणी से बोला, ‘हे चित्रकुण्डल हे वैश्येश हे भगवद्भक्ति के सूर्य आपने पुरुषोत्तम मास का व्रत विधि से अच्छी तरह किया। इस तरह पृथिवी तल में कहीं पर किसी ने नहीं किया।

आप कृतार्थ हो, सर्वथा भाग्यवान्‌ हो जो तुमने परम भक्ति से पुरुषोत्तम भगवान्‌ का सेवन किया। तुम्हारे पिता धन्य हैं और तुम्हारी पतिव्रता माता धन्य हैं। जिन दोनों ने तुम्हारे समान हरिवल्लभ पुत्र को पैदा किया। यह पुरुषोत्तम मास धन्य से भी धन्य है। जिसके सेवन से मनुष्य इस लोक के और परलोक के फल को प्राप्त करता है।

हे विशांपते तुम्हारी इस पूजा को देखकर मैं चकित हो गया। अहो! तुमने बहुत बड़ा काम किया इसमें सन्देह नहीं है। हर्ष से दूसरे ब्राह्मणों को भी बहुत-सा धन दिया। हे भूरिद भाग्यहीन मेरे लिए क्यों नहीं देते हो ? इस प्रकार कदर्य के कहने पर चित्रकुण्डल वैश्य ने कदर्य को धन दिया। कदर्य ने धन को लेकर प्रसन्नता से उसको जमीन में गाड़ दिया।

वहाँ पर कदर्य ने श्रीपुरुषोत्तम की बड़ी पूजा देखी और धन के लोभ से पुरुषोत्तम मास की प्रशंसा की। पूजा के दर्शन माहात्म्य से और पुरुषोत्तम भगवान्‌ की स्तुति से तथा धन का लोभ होने पर भी मृगतीर्थ को आया।

सूतजी बोले, ‘दर्शन से, स्तुति से, धन के लोभ करने से भी दुष्ट वानर को उत्तम तीर्थ का सेवन हुआ। हे द्विजलोग! श्रद्धा से आदरपूर्वक पुरुषोत्तम देव के दर्शन और स्तुति में तत्पर सपत्नीक के पुण्य का क्या कहना है ?

नारद मुनि बोले, ‘हे ब्रह्मन्‌ सुन्दर वृक्षों से शोभित, सुन्दर शीतल जल वाले, मनोहर घनी छायावाले वन में उसके रहने का कारण क्या है ? सो आप कहिये।

श्रीनारायण बोले, ‘हे नारद हे अनघ! तुम सुनो, सुनने की इच्छा करनेवाले तुमको मैं कहूँगा। इसमें कुछ कारण है जिसके श्रवण से पापों का नाश हो जाता है। जब समस्त अर्थ और फलों के दाता दशरथ के पुत्र रामचन्द्रजी ने समुद्र में सेतु बाँधकर दुष्ट रावण का नाश किया। उन रामचन्द्रजी ने विभीषण को छोड़कर बाकी समस्त राक्षसों का वध किया किसी को नहीं छोड़ा। अग्नि में परीक्षा कर सीता को ग्रहण किया। ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि देवता रावण के वध से प्रसन्न होकर बोले कि हे राम! तुम वर को माँगो। ऐसा कहने पर भक्तों को अभय करने वाले रामचन्द्र बोले, ‘हे देवता लोग यदि इस समय वरदान देना है तो सुनो।

यहाँ पर राक्षसों से शूर वानर मारे गये हैं उनको हमारी आज्ञा से अमृत वृष्टि कर शीघ्र जिला दो। ‘तथास्तु’ यह कह कर ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि देवताओं ने अमृत की वृष्टि करके वानरों को जिला दिया। तदनन्तर वे जयशाली समस्त वानर जीवित हो गये और चिर-काल तक शयन कर उठे हुए के समान देखने में आये। रामचन्द्र चारों तरफ बैठे हुए समस्त वानरों के साथ पुष्पक विमान पर सवार होकर प्रसन्न मुखकमल वाले सपत्नीक रामचन्द्र बोले।

श्रीरामचन्द्रजी बोले, ‘हे सुग्रीव हे हनुमन्‌ हे तारात्मज! हे जाम्बवान वानरों के साथ आप लोगों ने मित्र का समस्त कार्य किया। आप लोग उन वानरों को आज्ञा दो, जिसमें यहाँ से आप लोगों की आज्ञा पाकर वानर अपनी-अपनी इच्छानुसार जंगलों में जायँ। हमारे ये दीर्घजीवी वानर जहाँ-जहाँ वास करें वहाँ के वृक्ष पुष्प फलों से युक्त हो जायँ

नदी मीठे जलवाली हो, शीतल जल वाले सुन्दर तालाब हों, इनको कोई भी मना नहीं करे। हमारी आशा से समस्त वानर जायँ।’

इसीलिए रामचन्द्र के प्रभाव से जहाँ वानर जाति के लोग वास करते हैं वहाँ वन में मीठे जलवाली नदी और सुंदर तालाब होते हैं। पुष्प पत्र से युक्त, सुन्दर फलवाले बहुत से वृक्ष हैं परन्तु अदृष्ट से होनेवाले पूर्वजन्म के सुखदुःख, जहाँ-जहाँ प्राणी निवास करता है वहाँ-वहाँ अवश्य जाते हैं क्योंकि बिना भोगे कर्म का नाश नहीं है। ऐसी वेद की आज्ञा है।

श्रीनारायण बोले, ‘फिर वहाँ पर यह लालची वानर पर्वत के समान बढ़ता हुआ भूख-प्यास से युक्त पीड़ित वन में विचरण करने लगा। उसके मुख में पित्त के प्रकोप से पीड़ा उत्पन्न हुई जो उसका जन्म का रोग था। जिस पीड़ा से मुख के घावों से दिन-रात रुघिर बहा करता है। अत्यन्त पीड़ा के कारण कुछ भी भोजन नहीं कर सकता था और वह वानर चंचलतावश वृक्षों में से उत्तम फलों को तोड़ कर मुख के पास ले जाकर बहुत से फलों को जमीन में गिरा दिया करता था। वहाँ वानर पीड़ा के कारण कहीं भी एक स्थान पर बैठने में असमर्थ था।

एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर जाता हुआ मृत्यु को सुख देनेवाला मानने लगा। किसी समय पृथिवी पर गिर पड़ा और अत्यन्त दुःखित हो विलाप करने लगा। शरीर के टूट जाने से जलहीन मछली के समान तड़फड़ाता हुआ रोदन करने लगा। शिथिल शरीर वाला, गलित मुखवाला वह वानर भूख-प्यास से पीड़ित हो गया। उसके समस्त दांत मुखरोग से पीड़ित होकर गिर गये। पूर्व जन्म के कृत पाप से इस तरह दुःख को प्राप्त हुआ।

इस प्रकार नित्यप्रति निराहार रहते हुए वानर को देवयोग से श्रीपुरुषोत्तम मास आया। उस पुरुषोत्तम मास में भी उसी प्रकार शीतवात आदि से पीड़ित रहा। किसी समय बहुल पक्ष में गहन वन में विचरण करता हुआ प्यासा वानर कुण्ड के पास पहुँचने पर भी जलपान करने को समर्थ नहीं हुआ, भूख से युक्त भी चपलता से वहाँ ऊँचे वृक्ष के ऊपर चढ़ गया। एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर जाते हुए उसके बीच में एक कुण्ड आ पड़ा। बहुत दिनों से निराहार शिथिल इन्द्रिय और जर्जर शरीर वाला निर्बल, शिथिल प्राणवाला कुण्ड के तटभाग में आया। इस प्रकार दशमी तिथि से चार दिन तक वानर को श्रीपुरुषोत्तम मास में उस कुण्ड में लोट-पोट करते बीत गये।

पाँचवे दिन के आनेपर मध्याह्न काल में उस तीर्थ में जल से भींगा शरीरवाला वानर प्राण से रहित होकर गिर गया और वह उस देह को त्याग कर पापों से रहित होकर तत्काल दिव्य आभूषणों से भूषित दिव्य देह को प्राप्त किया जो कि नीलकमल के दल के समान श्यामवर्ण, करोड़ों कामदेव के समान सुन्दर चमकते हुए रत्नों से जटित किरीटधारी, सुन्दर शोभमान मत्स्यकुण्डल वाला, शोभमान पवित्र पीतवस्त्रधारी, कमर में रत्नों से जटित मेखला वाला शोभमान बाजूबन्द, कंकण, अँगूठी, हार से शोभित, नीलवर्ण के टेढ़े चिकने बालों से आवृत सुन्दर मुख था।

उसी समय शीघ्र वहाँ वैष्णवों से युक्त विमान आया जिसमें भेरी, मृदंग, पटह, वेणु, वीणा का महान्‌ शब्द हो रहा है, और देवांगनाओं का नाच हो रहा है, गन्धर्व किन्नर के सुन्दर गान हो रहे हैं ऐसे उस विमान को महाभाग दिव्यदेहधारी वानर देखकर अत्यन्त विस्मय को प्राप्त हो कहने लगा कि पातकी मेरे को यह सुख कैसे हुआ ? यह विमान-सुख बड़े पुण्यात्मा को ही होना उचित है।

इसके बाद कोई देवांगना उसके ऊपर चन्द्रमा के समान श्वेकत छत्र को धारण करती हुई। कोई दो अप्सरायें हर्ष से उसको दोनों तरफ चामर को डुला रही हैं। कोई पान हाथ में लिये खड़ी है और उसके सामने अप्सरायें नाच कर रही हैं। कोई गंगाजल से भरी हुई झारी को लिये खड़ी है, कोई उसके सामने खड़ी गाने बजाने में तत्पर हैं। इस प्रकार उस वैभव को देखकर चित्र में बने हुए मे समान निश्चल हो गया।

यह क्या है ? मुझ दुष्ट पातकी को किस पुण्य से यह सब प्राप्त हुआ, मेरा कुछ भी पुण्य नहीं है जिसमें मैं हरि भगवान्‌ के परम पद को जाऊँ।

श्रीनारायण बोले, ‘इस प्रकार तर्क करते हुए कदर्य ने सुख का बहुत बड़ा खजाना दिव्य विमान को सामने देखकर आश्चर्य किया। बाद हरिभटों ने उस कदर्य का हार्दिक अभिप्राय जानकर उसके सामने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर उसके चरणों में नमस्कार कर वानरशरीर को त्यागे हुए उस कदर्य को सुन्दर वचन कहा।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे श्रीपुरुषोत्तममासमाहात्म्ये अष्टाविंशोऽध्यायः ॥२८॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 29 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 29)

पुण्यशील-सुशील बोले, ‘हे विभो गोलोक को चलो, यहाँ देरी क्यों करते हो ? तुमको पुरुषोत्तम भगवान्‌ का सामीप्य मिला है।कदर्य बोला, ‘मेरे बहुत कर्म अनेक प्रकार से भोगने योग्य हैं। परन्तु हमारा उद्धार कैसे हुआ जिससे गोलोक को प्राप्त हुआ ? जितनी वर्षा की धारायें हैं, जितने तृण हैं, पृथिवी पर धूलि के कण हैं, आकाश में जितनी तारायें हैं उतने मेरे पाप हैं। मैंने यह सुन्दर तथा मनोहर शरीर कैसे प्राप्त किया ? हे हरि भगवान्‌ के प्रिय! इसका अति उग्र कारण मुझसे कहिये।

श्रीनारायण बोले, ‘कदर्य के इस प्रकार वाणी को श्रवणकर हरि के दूतों ने कहा।

हरिदूत बोले, ‘अहो आश्चर्य है। हे देव आपने इस पद की प्राप्ति का कारण महान्‌ साधन कैसे नहीं जाना। हे प्रभो सबमें उत्तमोत्तम, विष्णु का प्रिय, महान्‌ पुण्यफल को देनेवाला, पुरुषोत्तममास नाम से प्रसिद्ध मास को क्यों नहीं जाना ? उस पुरुषोत्तम मास में देवताओं से भी न होनेवाला तप तुमने किया। हे महाराज! वन में वानर शरीर से अज्ञान में वह तप हुआ है। मुखरोग के कारण अज्ञान से अनाहार व्रत हुआ और तुमने बन्दरपने की चंचलतावश वृक्ष से फलों को तोड़कर पृथिवी पर फेंका उन फलों से दूसरे मनुष्य तृप्त हुए। अन्तःकरण में विशेष दुःख होने से पानी भी नहीं पान किया।

इस तरह श्रीपुरुषोत्तम मास में अज्ञानवश तुम से तीव्र तप हो गया। हे अनघ फलों के फेंकने से परोपकार भी हो गया। वन में घूमते-घूमते शीत, वायु, घाम को सहन किया और श्रेष्ठ तीर्थ में सुन्दर महातीर्थ में पाँच दिन गोता लगाया। जिससे श्रीपुरुषोत्तम मास में तुमको स्नान का पुण्य प्राप्त हो गया। इस प्रकार तुम्हारे रोगी के अज्ञान से उत्तम तप हो गया। सो यह सब सफल हुआ और तुमने इस समय अनुभव किया। जब बिना समझे पुरुषोत्तम मास के सेवन हो जाने से तुमको यह फल मिला है, तो मनुष्य इस पुरुषोत्तम मास के उत्तम माहात्म्य को जानकर श्रद्धा से विधिपूर्वक कर्म करे तो उसका क्या कहना है।

तुमने अपना जो अर्थ साधन किया वैसा करने को कौन समर्थ है ? पुरुषोत्तम भगवान्‌ को और कोई वस्तु प्रीति को देनेवाली नहीं है। इस भरतखण्ड में अति दुर्लभ मनुष्य योनि में जन्म लेकर जो पुरुषोत्तम भगवान्‌ की सेवा करते हैं। जिस पुरुषोत्तम मास में एक भी उपवास के करने से मनुष्य पापपुञ्ज से छूट जाता है वहाँ तुमने महीनों उपवास किया इस उग्र तपस्या का फल कहाँ जायगा ?

इस मास के समान वे प्राणी धन्य और कृतकृत्य हैं। वे सदा भाग्यवान्‌ पुण्यकर्म के करनेवाले पवित्र हैं और उनका जन्म सफल है जिनका सबमें उत्तम पुरुषोत्तम मास स्नान, दान, जप से व्यतीत हुआ है। श्रीपुरुषोत्तम मास में दान, पितृकार्य, अनेक प्रकार के तप ये सब अन्य मास की अपेक्षा कोटि गुण अधिक फल देने वाले हैं। जो पुरुषोत्तम मास के आने पर स्नान-दान से रहित रहता है उस नास्तिक, पापी, शठ, धर्मध्वज, खल को धिक्कार है।

श्रीनारायण बोले, ‘पुण्यशील और सुशील से वर्णित अपने अदृष्ट को सुनकर, चकित होता हुआ कदर्य प्रसन्न हो रोमांचित हो गया। तीर्थ के देवताओं को नमस्कार कर बाद कालञ्जार पर्वत को नमस्कार किया। और वन के देवताओं को तथा गुल्म, लता वृक्ष को नमस्कार किया। बाद विनय से युक्त हो विमान की प्रदक्षिणा कर मेघ के समान श्यामर्ण, सुन्दर पीताम्बर को धारण कर वह कदर्य विमान पर सवार हो गया।

सम्पूर्ण देवताओं के देखते हुए गन्धर्व आदि से स्तुत और किन्नर आदिकों से बार-बार बाजा बजाये जाने पर, इन्द्रादि देवताओं ने प्रसन्न होकर मन्द पुष्पवृष्टि को करते हुए उसका आदरपूर्वक पूजन किया। फिर आनन्द से युक्त, योगियों को दुर्लभ, गोप-गोपी-गौओं से सेवित, रासमण्डल से शोभित गोलोक को गया। जरामृत्यु रहित जिस गोलोक में जाकर प्राणी शोक का भागी नहीं होता है, उस गोलोक में यह चित्रशर्मा पुरुषोत्तम मास के सेवन से गया। व्याज से पुरुषोत्तम मास के सेवन से वानर शरीर छोड़कर दो भुजाधारी मुरली हाथ में लिये पुरुषोत्तम भगवान्‌‍ को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ।

श्रीनारायण बोले, ‘इस आश्चर्य को देखकर समस्त देवता चकित हो गये और श्रीपुरुषोत्तम की प्रशंसा करते अपने-अपने स्थान को गये।

नारद मुनि बोले, ‘हे तपोधन आपने दिन के प्रथम भाग का कृत्य कहा। पुरुषोत्तम मास के दिन के पिछले भाग में होने वाले कृत्य को कैसे करना चाहिये। हे बोलनेवालों में श्रेष्ठ! गृहस्थ के उपकार के लिये मुझसे कहिये। क्योंकि आपके समान महात्मा सदा सबके उपकार के लिये विचरण करते रहते हैं।

श्रीनारायण बोले, ‘प्रातःकाल के कृत्य को विधिपूर्वक समाप्त कर, बाद मध्याह्न में होनेवाली सन्ध्या को करके, तर्पण को करे। देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, सिद्ध, यक्ष, सर्ष, दैत्य, प्रेत, पिशाच, नाग ये सब जो अन्न की इच्छा करते हैं वे सब मेरे से दिये गये अन्न को ग्रहण करें। फिर पंचमहायज्ञ को करे, उसके बाद भूतबलि को करे और काक, कुत्ता को श्लोक पढ़ता हुआ बलि देवे। इस प्रकार कहकर समस्त भूतों को पृथक्‌-पृथक्‌ बलि देवे, फिर विधिपूर्वक आचमन कर प्रसन्न होकर श्रद्धा से अतिथि प्राप्ति के लिये गो दुहने के समय तक द्वार का अवलोकन करे। यदि भाग्य से अतिथि मिल जाय तो बुद्धिमान्‌ प्रथम वाणी से सत्कार करके उस अतिथि का देवता के समान पूजन करे और यथाशक्ति अन्न-जल से सन्तुष्ट करे।

फिर विधिपूर्वक सब व्यञ्जन से युक्त सिद्ध अन्न से निकाल कर भिक्षु और ब्रह्मचारी को भिक्षा देवे। संन्यासी और ब्रह्मचारी ये दोनों सिद्ध अन्न के मालिक हैं। इनको अन्न न देकर भोजन करनेवाला चन्द्रायण व्रत करे।

प्रथम संन्यासी के हाथ पर जल देकर भिक्षान्न देवे तो वह भिक्षान्न मेरु पर्वत के समान और जल समुद्र के समान कहा गया है। संन्यासी को जो मनुष्य सत्कार करके भिक्षा देता है उसको गोदान के समान पुण्य होता है इस बात को यमराज भगवान्‌ ने कहा है। फिर मौन होकर पूर्वमुख बैठकर शुद्ध और बड़े पात्र में अन्न को रखकर प्रशंसा करते हुए भोजन करे।

अपने आसन पर अपने बर्तन में एक वस्त्र से भोजन नहीं करे। स्वयम्‌ आसन पर बैठ कर स्वस्थचित्त, प्रसन्न मन होकर जो मनुष्य अकेला ही अपने काँसे के पात्र में भोजन करता है तो उसके आयु, प्रज्ञा, यश और बल ये चार बढ़ते हैं।

दिन में, ‘सत्यं त्वर्तेन परिषिञ्चामि’ रात्रि में, ‘ऋतं वा सत्येन परिपिञ्चामि’ इस मन्त्र से हाथ में जल लेकर निश्चय कर, घृत व्यञ्जैन युक्त अन्न का भोजन करे।

भोजन में से कुछ अन्न लेकर इस प्रकार कहे, ‘भूपतये नमः, प्रथम कहकर भुवनपतये नमः, कहे भूतानां पतये नमः, कह कर धर्मराज की बलि देवे फिर चित्रगुप्त को देकर भूतों को देने के लिये यह कहे, जिस किसी जगह स्थित, भूख-प्यास से व्याकुल भूतों की तृप्ति के लिये यथासुख यह अक्षय अन्न हावे, प्राणाय, अपानाय, व्यानाय, उदानाय तथा समानाय कहे।

प्रणव प्रथम उच्चातरण कर, अन्त में स्वाहा पद जोड़ कर घृत के साथ पाँच ग्रास जिह्वा से प्रथम निगल जाय, दाँतों से न दबावे। फिर तन्मय होकर प्रथम मधुर भोजन करे, नमक के पदार्थ और खट्टा पदार्थ मध्य में, कडुआ तीखा भोजन के अन्त में खाय। पुरुष प्रथम द्रव पदार्थ भोजन करे, मध्य में कठिन पदार्थ भोजन करे, अन्त में पुनः पतला पदार्थ भोजन करे तो बल और आरोग्य से रहित नहीं होता।

मुनि को आठ ग्रास भोजन के लिए कहा है। वानप्रस्थाश्रमी को सोलह ग्रास भोजन के लिये कहा है। गृहस्थाश्रमी को ३२ ग्रास भोजन कहा है और ब्रह्मचारी को अपरिमित ग्रास भोजन के लिये कहा है।

द्विज को शास्त्र के विरुद्ध भक्ष्य भोज्य आदि पदार्थों को नहीं खाना चाहिये। शुष्क और बासी पदार्थ को विद्वानों ने खाने के अयोग्य बतलाया है। घृत दूध को छोड़कर अन्य वस्तु सशेष भोजन करे। भोजन के बाद उस शेष को अंगुलियों के अग्र भाग में रख कर अञ्जलि जल से पूर्ण करे। उसका आधा जल पी जाय और अंगुलियों के अग्र भाग में स्थित शेष को पृथिवी में देकर ऊपर से अञ्जलि का शेष आधा जल। विद्वान्‌ उसी जगह इस मन्त्र को पढ़ता हुआ सिंचन करे। ऐसा न करने से ब्राह्मण पाप का भागी होता है, फिर प्रायश्चित्त करने से शुद्ध होता है।

रौरवे पूयनिलये पद्मार्बुदनिवासिनाम्‌॥

आर्थिनामुदकं दत्तमक्षय्यमुपतिष्ठतु॥

मन्त्रार्थ, ‘रौरव नरक में, पीप के गढ़े में पद्म अर्बुद वर्ष तक वास करने वाले तथा इच्छा करने वाले के लिये मेरा दिया हुआ यह जल अक्षय होता हुआ प्राप्त हो।

मन्त्र पढ़ के जल से सिंचन कर दाँतों को शुद्ध करे। आचमन कर गीले हाथ से पात्र को कुछ हटा कर उस भोजन स्थान से उठकर, बाहर बैठकर, स्वस्थ होकर, मिट्टी और जल से मुख-हाथ को शुद्ध कर, सोलह कुल्ला कर, शुद्ध हो सुख से बैठकर इन दो मन्त्रों को पढ़ता हुआ हाथ से उदर को स्पर्श करे।

अगस्त्यं कुम्भकर्णं च शनिं च वडवानलम्‌॥

आहारपरिपाकार्थं स्मरेद्भीमं च पञ्चमम्‌ ॥

आतापी मारितो येन वातापो च निपातितः॥

समुद्रः शोषितो येन स मेऽगस्त्यः प्रसीदतु॥

अगस्त्य, कुम्भकर्ण, शनि, बड़वानल और पंचम भीम को आहार के परिपाक के लिये स्मरण करे। जिसने आतापी को मारा और वातापी को भी मार डाला, समुद्र का शोषण किया वह अगस्त्य मेरे ऊपर प्रसन्न हों।

इसके बाद प्रसन्न मन से श्रीकृष्ण देव का स्मरण करे। फिर आचमन कर ताम्बूल भक्षण करे। भोजन करके बैठ कर परब्रह्म श्रीकृष्ण का उत्तम मार्ग के अविरोधी उत्तम शास्त्रों के विनोद से विचार करे। बुद्धिमान्‌ अध्यात्मविद्या का श्रवण करे। सर्वथा आजीविका से हीन मनुष्य भी एक मुहूर्त स्वस्थ मन होकर श्रवण करे।

जो श्रवण कर धर्म को जानता है, श्रवण कर पाप का त्याग करता है, श्रवण के बाद मोह की निवृत्ति होती है, श्रवण कर ज्ञानरूपी अमृत को प्राप्त करता है। नीच भी श्रवण करने से श्रेष्ठ हो जाता है और श्रेष्ठ भी श्रवण से रहित होने से नीच हो जाता है। फिर बाहर जाकर यथासुख व्यवहार आदि करे और सर्वथा सिद्धि को देनेवाले श्रीकृष्ण भगवान्‌ का मन से ध्यान करे।

सूर्यनारायण के अस्ताचल जाने के समय तीर्थ में जाकर अथवा गृह में ही पैर धोकर, पवित्र वस्त्र धारण कर, सायंसन्ध्या की उपासना करे। जो द्विजों में अधम, प्रमाद से सायंसन्ध्या नहीं करता है वह गोवध पाप का भागी होता है और मरने पर रौरव नरक को जाता है। कभी समय से न करने पर, संकट में, मार्ग में हो तो द्विजश्रेष्ठ आधी रात के पहले सायंसंध्या को करे। जो ब्राह्मण श्रद्धा के साथ प्रातः, मध्याह्न और सायंसन्ध्या की उपासना करता है उसका तेज घृत छोड़ने से अग्नि के समान अत्यन्त बढ़ता है।

सायंकाल में सूर्यनारायण के आधा अस्त होने पर प्राणायाम कर ‘आपो हिष्ठा’, ‘इस मंत्र से मार्जन करे। और सायंकाल ‘अग्निश्च मा॰-‘ इस मन्त्र से आचमन करे और प्रातःकाल ‘सूर्यश्च मा॰-‘ इस मन्त्र से आचमन करे। पश्चिम मुख बैठ कर मौन तथा समाहित मन होकर, प्रणय और व्याहृति सहित गायत्री मन्त्र का रुद्राक्ष की माला लेकर तारा के उदय होने तक जप करे। वरुण सम्बन्धी ऋचाओं से सूर्यनारायण का उपस्थान कर, प्रदक्षिणा करता हुआ दिशाओं को तथा पृथक्‌-पृथक्‌ दिशाओं के स्वामी को नमस्कार करे।

सायं सन्ध्या की उपासना कर अग्नि में आहुति देकर भृत्यवर्गों के साथ अल्प भोजन करे। बाद कुछ समय तक बैठ जाय। सायंकाल और प्रातःकाल भोजन की इच्छा नहीं होने पर भी वैश्वदेव और बलि कर्म सदा करना चाहिये। यदि नहीं करता है तो पातकी होता है। शाम को भोजन कर बैठने के बाद गृहस्थाश्रमी हाथ-पैर धोकर तकिया सहित कोमल शय्या पर जाय। अपने गृह में पूर्व की ओर शिर करके शयन करे, श्वसुर के गृह में दक्षिण की ओर शिर करके शयन करे, परदेश में पश्चिम की ओर शिर करके शयन करे, परन्तु उत्तर की ओर शिर करके कभी शयन नहीं करे। रात्रिसूक्त का जप करे और सुखशायी देवताओं का स्मरण कर अविनाशी विष्णु भगवान्‌ को नमस्कार कर, स्वस्थचित्त हो, रात्रि में शयन करे।

अगस्त्य, माधव, महाबली मुचुकुन्द, कपिल, आस्तीक मुनि ये पाँच सुखशायी कहे गये हैं। मांगलिक जल से पूर्ण घट को शिर के पास रखकर वैदिक और गारुड़ मन्त्रों से रक्षा करके शयन करे। ऋतुकाल में स्त्री के पास जाय और सदा अपनी स्त्री से प्रेम करे, ब्रती रति की कामना से पर्व को छोड़ कर अपनी स्त्री के पास जाय। प्रदोष और प्रदोष के पिछले प्रहर में वेदाभ्यास करके समय व्यतीत करे। फिर दो पहर शयन करनेवाला ब्रह्मतुल्य होने के योग्य होता है।

यह सब प्रतिदिन के समस्त कृत्यसमुदाय को कहा। गृहस्थाश्रमी भलीभाँति इसको करे और यही गृहस्थाश्रम का लक्षण है। अहिंसा, सत्य वचन, समस्त प्राणी पर दया, शान्ति यथाशक्ति दान करना, गृहस्थाश्रम का धर्म कहा है। पर स्त्री से भोग नहीं करना, अपनी धर्मपत्नी की रक्षा करना, बिना दी हुई वस्तु को नहीं लेना, शहद, मांस को नहीं खाना। यह पाँच प्रकार का धर्म बहुत शाखा वाला, सुख देनेवाला है। शरीर से होने वाले धर्म को उत्तम प्राणियों को करना चाहिये।

श्रीनारायण बोले, ‘सम्पूर्ण वेदों में कहा हुआ यह उत्तम चरित्र गृहस्थाश्रम का लक्षण है। हे मुने! इसको लोक के हित के लिये संक्षेप में लक्षण के साथ आपसे मैंने अच्छी तरह कहा।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥२९॥ 

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 30 

(Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 30) 

नारदजी बोले, ‘हे तपोनिधे तुमने पहले पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा की है अब आप उनके सब लक्षणों को मुझसे कहिये।सूतजी बोले, ‘हे पृथिवी के देवता ब्राह्मणो! इस प्रकार नारद मुनि के पूछने पर स्वयं प्राचीन मुनि नारायण ने पतिव्रता स्त्री के लक्षणों को कहा।

श्रीनारायण बोले, ‘हे नारद सुनो मैं पतिव्रताओं के उत्तम व्रत को कहता हूँ। पति कुरूप हो, कुत्सित व्यवहारवाला हो, अथवा सुरूपवान्‌ हो, रोगी हो, पिशाच हो, क्रोधी हो, मद्यपान करनेवाला हो, मूर्ख हो, मूक हो, अन्धा हो अथवा बधिर हो, भयंकर हो, दरिद्र हो, कुपण हो, निन्दित हो, दीन हो, अन्य स्त्रियों में आसक्त हो। परन्तु सती स्त्री सदा वाणी, शरीर, कर्म से पति का देवता के समान पूजन करे। कभी भी स्त्री पति के साथ कठोर व्यवहार नहीं करे।

बाला हो, युवती हो अथवा वृद्धा हो परन्तु स्त्री स्वतन्त्रतापूर्वक अपने गृह में भी कुछ कार्य को नहीं करे। अहंकार और काम-क्रोध का सर्वदा त्याग कर पति के मन को सदा प्रसन्न करती रहे और दूसरे के मन को कभी भी प्रसन्न नहीं करे। जो स्त्री दूसरे पुरुष से कामना सहित देखी जाने पर, प्रिय वचनों से प्रलोभन देने पर अथवा जनसमुदाय में स्पर्श होने पर विकार को नहीं प्राप्त होती है, तो स्त्रियों के शरीर में जितने रोम होते हैं उतने हजार वर्ष तक यह स्त्री स्वर्ग में वास करती है।

दूसरे पुरुष के धन के लोभ देने पर जो स्त्री पर-पुरुष का मन, वचन, कर्म से सेवन नहीं करती है तो वह स्त्री लोक में भूषण और सती कही गई है। दूती के प्रार्थना करने पर भी, बलपूर्वक पकड़ी जाने पर भी, वस्त्र-आभूषण आदि से आच्छादित होने पर भी, जो स्त्री अन्य पुरुष की सेवा नहीं करती है तो वह सती कही जाती है। जो दूसरे से देखी जाने पर नहीं देखती है और हँसाई जानेपर भी हँसती नहीं है, बात करने पर बोलती नहीं है वह उत्तम लक्षण वाली प्रतिव्रता स्त्री है।

रूप यौवन से युक्त और गाने-नाचने में होशियार होने पर भी अपने अनुरूप पुरुष को देखकर विकार को नहीं प्राप्त होती है वह स्त्री सती है। सुरूपवान्‌, जवान, मनोहर कामिनियों का प्रिय ऐसे पर-पुरुष के मिलने पर भी जो स्त्री इच्छा नहीं करती है तो वह महासती कही गयी है।

पतिव्रताओं को पति के सिवाय दूसरा देवता, मनुष्य, गन्धर्व भी प्रिय नहीं होता, इसलिए स्त्री अपने पति का अप्रिय कभी नहीं करे। जो पति के भोजन करने पर भोजन करती है, दुःखित होने पर दुःखित होती है, प्रसन्न होने पर प्रसन्न होती है, परदेश जाने पर मैला वस्त्र को पहनती है, जो पति के सो जाने पर सोती है और पहले जागती है, पति के मरने पर अग्नि में प्रवेश करती है, जो दूसरे को चित्त से नहीं चाहती है वह पतिव्रता स्त्री है। सास, श्वसुर में भक्ति करती है और विशेष करके पति में भक्ति करती है, धर्म कार्य में अनुकूल रहती है, धन-संचय में अनुकूल, गृह के कार्य में प्रतिदिन तत्पर रहने वाली है।

खेत से, वन से, ग्राम से पति के आने पर स्त्री उठकर आसन और जल देकर प्रसन्न करे, नित्य प्रसन्नमुख रहे, समय पर भोजन देवे, भोजन करते समय कभी भी खराब वाणी नहीं कहे, गृह में प्रधान स्त्री सदा आसन, भोजन, दान, सम्मान, प्रिय भाषण में तत्पर रहे, गृह के खर्च के लिये स्वामी ने जो धन दिया है उससे घर के कार्य को करके बुद्धिपूर्वक कुछ बचा लेवे, दान के लिये दिये हुए धन में से लोभ करके,

कुछ कोरकसर नहीं करे और बिना पति की आज्ञा के अपने बन्धुओं को धन नहीं देवे, दूसरे के साथ बातचीत, असन्तोष, दूसरे पुरुष के व्यापार की बातचीत, अत्यन्त हँसना, अत्यन्त रोष और क्रोध को पतिव्रता स्त्री छोड़ देवे, पति जिस वस्तु का पान नहीं करता है, जिस वस्तु को खाता नहीं है, जिस वस्तु का भोजन नहीं करता है उन सब वस्तुओं का पतिव्रता स्त्री त्याग करे, तैल लगाना, स्नान, शरीर में उबटन लगाना, दाँतों की शुद्धि, पतिव्रता स्त्री पति की प्रसन्नता के लिये करे।

हे मुने त्रेतायुग से स्त्रियों को प्रतिमास रजोदर्शन होता है उस दिन से तीन दिन त्याग कर गृहकार्य के लिये शुद्ध होती है। प्रथम दिन चाण्डाली है, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी है, तीसरे दिन रजकी है। चतुर्थ दिन शुद्ध होती है।

स्नान, शौच, गाना, रोदन, हँसना, सवारी पर चढ़ना, मालिश, स्त्रियों के साथ जूआ खेलना, चंदनादि लगाना, विशेष करके दिन में शयन, दातुन करना, मानसिक अथवा वाचिक मैथुन करना, देवता का पूजन करना, देवताओं को नमस्कार रजस्वला स्त्री नहीं करे। रजस्वला का स्पर्श और उसके साथ बातचीत नहीं करे। रजस्वला तीन रात तक अपने मुख को नहीं दिखाये। जब तक शुद्धिस्नान नहीं करे तब तक अपने वचनों को नहीं सुनावे। रजस्वला स्त्री स्नान कर दूसरे पुरुष को नहीं देखे, सूर्यनारायण को देखे, बाद पंचगव्य का पान करे। अपनी शुद्धि के लिये केवल पंचगव्य अथवा दूध का पान करे। श्रेष्ठ स्त्री कहे हुए नियम में स्थित रहे।

यदि स्त्री गर्भवती हो जाय तो नियम में तत्पर रहे, वस्त्र-आभूषण अलंकार आदि से अलंकृत रहे और पति के प्रिय करने में यत्न्पूर्वक तत्पर रहे। प्रसन्नमुख रहे, अपने धर्म में तत्पर रहे और शुद्ध रहे, अपनी रक्षा कर विभूषित रहे और वास्तुपूजन में तत्पर रहे। खराब स्त्रियों के साथ बातचीत न करे, सूप की हवा शरीर में नहीं लगे, मृतवत्सा आदि का संसर्ग, दूसरे के यहाँ भोजन गर्भवती स्त्री नहीं करे। भद्दी चीज को नहीं देखे, भयंकर कथा को नहीं सुने, गरिष्ठ और अत्यन्त उष्ण भोजन नहीं करे और अजीर्ण न हो ऐसा भोजन करे। इस विधि से रहने पर पतिव्रता स्त्री श्रेष्ठ पुत्र को प्राप्त करती है, अन्यथा गर्भ गिर जाय, अथवा स्तम्भन हो जाय।

अपने गुणों से हीन दूसरी सौत की निन्दा नहीं करे, ईर्ष्या, राग से होनेवाले मत्सरता आदि के होने पर भी सौत स्त्री परस्पर में अप्रिय वचन नहीं कहे, दूसरे के नाम का गान न करे और दूसरे की प्रशंसा नहीं करे, पति से दूर वास नहीं करे, किन्तु पति के समीप में वास करे और पति के कहे हुए स्थान में, पृथिवी पर पति के सामने मुख करके वास करे। स्वतन्त्रता पूर्वक दिशाओं को न देखे और दूसरे पुरुष को नहीं देखे। विलास पूर्वक पति के मुखकमल को देखे, पति से कही जाने वाली कथा को आदर पूर्वक स्त्री श्रवण करे। पति के भाषण के समय स्वयं स्त्री बातचीत नहीं करे, रति में उत्कण्ठा वाली स्त्री पति के बुलाने पर, शीघ्र रतिस्थान को जाय। पति के उत्साह पूर्वक गाने के समय स्त्री प्रसन्नचित्त से श्रवण करे,

गाते हुये पति को देख कर स्त्री आनन्द में मग्न हो जावे, पति के समीप व्यग्र (चंचल) चित्त से व्याकुल हो नहीं बैठे, कलह के योग्य होने पर भी पति के साथ स्त्री कलह न करे। पति से भर्त्सित होने पर, निन्दा की जाने पर, ताड़ित होने पर भी पतिव्रता स्त्री व्यथित (दुःखित) होने पर भी भय छोड़ कर पति को कण्ठ से लगावे, ऊँचे स्वर से रोदन न करे और पति को कोसे नहीं स्त्री अपने गृह से बाहर भाग कर न जाय, यदि बन्धुओं के यहाँ उत्सव आदि में जाय तो पति की आज्ञा को लेकर और अध्यक्ष (रक्षक) से रक्षित होकर जाय और वहाँ अधिक समय तक वास न करे, पतिव्रता स्त्री अपने घर को लौट आवे।

पति के विदेशयात्रा के समय अमंगल वचन को न बोले, निषेध वचन से मना न करे और उस समय रोदन न करे। पति के देशान्तर जाने पर नित्य उबटन न लगावे और जीवन रक्षा के लिये स्त्री निन्दित कर्म को न करे। श्वसुर-सास के पास शयन करे, अन्यत्र शयन न करे और प्रतिदिन प्रयत्नोपूर्वक पति के समाचार की खोज लेती रहे। पति के कल्याण समाचार मिलने के लिये दूत को भेजे और प्रसिद्ध देवताओं के समीप मांगलिक याचना करे। पति के परदेश जाने पर पतिव्रता इस प्रकार के कार्यों को करे। अंगों को न धोना, मलिन वस्त्र को धारण करना, तिलक न लगाना, आँजन न लगाना, सुगन्धित पदार्थ माला आदि का त्याग, नख, बाल का संस्कार न करना, दाँतों में मिस्सौ आदि नहीं लगाना, ऊँचे स्वर से हँसना, दूसरे से हँसी,

दूसरे की चाल व्यवहार का विशेष रूप से चिन्तन करना, स्वच्छन्द भ्रमण करना, दूसरे पुरुष के अंगों का मर्दन करना, एक वस्त्र से घूमना, लज्जा रहित (उतान) होकर चलना, इत्यादि दोष स्त्रियों को अत्यन्त दुःख देने वाले कहे गये हैं।

गृह में कार्यों को करके हरदी लेपन से और शुद्ध जल से शरीर को शुद्ध कर स्वच्छ श्रृंगार को करे। खिले हुए कमल के समान प्रसन्न मुख होकर पति के समीप जाय, स्त्री के इस व्यवहार से युक्त और मन, वचन, शरीर से युक्त स्त्री पति से बुलाई जाने पर गृह के कार्यों को छोड़कर शीघ्र पति के पास जाय और कहे कि हे स्वामिन्‌! किस लिये बुलाया है कृपा पूर्वक कहें। द्वार पर अधिक समय तक खड़ी न होवे। द्वार का सेवन न करे, स्वामी से मिली हुई चीज दूसरे को कभी न देवे, पति के उच्छिष्ट मीठा, अन्न, फल आदि को यह महाप्रसाद है यह कहकर निरन्तर प्रसन्न रहे, सुख से सोये, सुख से बैठे, स्वेच्छा से रमण करते हुए और आतुर कार्यों में पति को नहीं उठावे, अकेली कहीं न जाय, नग्न होकर स्नान न करे, पति से द्वेष करने वाली स्त्री को पतिव्रता न समझे।

उलूखल, मूसल झाड़ू, पत्थर, यन्त्र, देहली पर पतिव्रता कभी भी न बैठे। तीर्थ में स्नान की इच्छा करने वाली स्त्री पति के चरणजल को पीवे, स्त्री के लिये शंकर से भी अथवा विष्णु भगवान्‌ से भी अधिक पति ही कहा गया है।

जो स्त्री पति का वचन न मानकर व्रत उपवास नियमों को करती है वह पति के आयुष्य का हरण करती है और मरने के बाद नरक को जाती है। किसी कार्य के लिये कहीं जाने पर, जो स्त्री क्रोध कर पति के प्रति जवाब देती है वह ग्राम में कुतिया होती है और निर्जन वन में सियारिन होती है।

स्त्रियों के लिये एक ही उत्तम नियम कहा गया है कि स्त्री सदा पति के चरणों का पूजन करके भोजन करे। जो स्त्री पति का त्याग कर अकेली मिठाई खाती है वह वृक्ष के खोंड़रे में सोने वाली क्रूर उलूकी होती है। जो स्त्री पति का त्याग कर अकेली एकान्त में फिरती है वह ग्राम में सूकरी होती है अथवा अपनी विष्ठा को खाने वाली गोह होती है। जो स्त्री पति को हुँकार कह कर अप्रिय वचन बोलती है वह मूक अवश्य होती है, जो अपनी सौत के साथ सदा ईर्ष्या करती है वह दूसरे जन्म में दुर्भगा होती है। जो स्त्री पति की दृष्टि बचा कर किसी दूसरे पुरुष को देखती है वह कानी होती है अथवा विमुखी और कुरूपा होती है।

जो स्त्री पति को बाहर से आया हुआ देखकर जल्दी से जल, आसन, ताम्बूल, व्यंजन, पैर को दबाना आदि, अत्यन्त प्रिय वचनों से पति की सेवा करती है वह स्त्री पतिव्रताओं में शिरोरत्न के समान पण्डितों से कही गई है। पति देवता हैं, पति गुरु हैं, पति धर्म तीर्थ व्रत है, इसलिये सबका त्याग कर एक पति का ही पूजन करे।

जिस तरह जीव से हीन देह क्षण भर में अशुचि हो जाता है उसी प्रकार पति से हीन स्त्री अच्छी तरह स्नान करने पर भी सदा अपवित्र है। सब अमंगल वस्तुओं की अपेक्षा विधवा स्त्री अत्यन्त अमंगल है, विधवा स्त्री के दर्शन से कभी भी कार्य-सिद्धि नहीं होती है। आशीर्वाद को देने वाली एक माता को छोड़ कर दूसरी स्त्री के आशीर्वाद को भी सर्प के समान त्याग देवे।

ब्राह्मण लोग विवाह के समय कन्या से इस प्रकार कहलाते हैं कि पति के जीवित तथा मृत दशा में सहचारिणी हो। इसलिये अपनी छाया के समान पति का अनुगमन करना चाहिये। इस प्रकार पतिव्रता स्त्री को भक्ति से सदा पति के अनुकूल होकर रहना चाहिये।

जिस प्रकार सर्प को पकड़ने वाला बलपूर्वक बिल से सर्प को निकाल लेता है उसी प्रकार सती स्त्री यमदूतों से छुड़ा कर पति को स्वर्ग ले जाती है। यमराज के दूत दूर से ही पतिव्रता स्त्री को देखकर पापकर्म करने वाले भी उसके पतित पति को छोड़कर भाग जाते हैं। जितनी अपने शरीर में रोम की संख्या है उतने दश कोटि वर्ष पर्यन्त पतिव्रता स्त्री पति से साथ रमण करती हुई स्वर्ग सुख को भोगती है।

दुष्ट व्यवहार वाली स्त्रियाँ शील का नाश कर दोनों कुलों को डुबा देती हैं और इस लोक में तथा परलोक में दुःखित रहती हैं। यदि दैववश पति के पीछे पति का अनुगमन नहीं करती हैं तो उस दशा में भी शील की रक्षा करनी चाहिये, क्योंकि शील को तोड़ने से नरकगामिनी होती है। स्त्री-दोष से पिता और पति स्वर्ग से गिर जाते हैं। विधवा स्त्री का कबरीबन्धन पति के बन्धन के लिये होता है।

विधवा स्त्री सर्वदा शिर के बालों को मुड़ा देवे, एक बार भोजन करे, कभी भी दूसरी बार भोजन नहीं करे। खाट पर सोने वाली विधवा स्त्री अपने पति को नीचे गिरा देती है इसलिये पति के सुख के लिये पृथिवी पर सोवे। अंगों में उबटन नहीं लगावे और ताम्बूल को न खाय, सुगन्ध का सेवन विधवा न करे। प्रतिदिन कुश तिल जल से पति का तर्पण करे और पति के पिता का तथा उनके पिता का नाम गोत्र कहकर तर्पण करे। सदा श्वेत वस्त्र धारण करे ऐसा न करने से रौरव नरक को जाती है। इस प्रकार नियमों से युक्त विधवा स्त्री पतिव्रता है।

श्रीनारायण बोले, ‘लोकों में तथा देवताओं में पति के समान कोई देवता नहीं है। जब पति प्रसन्न होते हैं तो समस्त मनोरथों को प्राप्त करती है। यदि पति कुपित होते हैं तो समस्त कामनायें नष्ट हो जाती हैं। उस पति से सन्तान, विविध प्रकार के भोग, शय्या, आसन, अद्‌भुत प्रकार के भोजन, वस्त्र, माला, सुगन्धित पदार्थ और इस लोक तथा स्वर्ग लोक में विविध प्रकार के यश मिलते हैं।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये त्रिंशोऽध्यायः ॥३०॥ 

पुरुषोतम मास माहात्म्य अध्याय– 31 

(Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 31) 

सूतजी बोले:-

हे विप्रो! नारद मुनि इस प्रकार पतिव्रता के धर्म को सुनकर कुछ पूछने की इच्छा से पुरातन नारायण मुनि से बोले ॥ १ ॥

नारदजी बोले :-

हे बदरीपते! आपने समस्त दानों में अधिक फल को देने वाला काँसा के सम्पुट का दान कहा है, इसे स्पष्ट करके मुझसे कहिये ॥ २ ॥

श्रीनारायण बोले :-

हे ब्रह्मन्‌! प्रथम एक समय पार्वती ने इस व्रत को किया था। उस समय श्रीमहादेवजी से पूछा कि हे महादेवजी! इस व्रत में उत्तम दान क्या देना चाहिये ॥ ३ ॥

जिसके देने से मेरा पुरुषोत्तम व्रत सम्पूर्ण हो जावे। हे दयासिन्धो! समस्त प्राणियों के कल्याण के लिये उस दान को मेरे से कहिये ॥ ४ ॥

पार्वती की वाणी सुन शम्भु ने श्रीपुरुषोत्तम भगवान्‌ का ध्यान करते हुए मन में इस बात का विचार कर समस्त लोक के हित को चाहने वाली उमा से कहा ॥ ५ ॥

श्रीमहादेवजी बोले :-

हे अपर्णे! श्रीपुरुषोत्तम मास में व्रतविधि को पूर्ण करने के योग्य वेद में कहीं पर भी कोई दान नहीं है ॥ ६ ॥

हे गिरिसुते! जो-जो उत्तम दान कहे हैं वे सब श्रीकृष्ण के प्रिय पुरुषोत्तम मास में गौण हो गये हैं ॥ ७ ॥

हे सुन्दरि! कहीं भी ऐसा दान नहीं है जिसको श्रीपुरुषोत्तम मास में करने से तुम्हारा व्रत पूर्ण हो ॥ ८ ॥

हे अंगने! इस पुरुषोत्तम मास व्रत की पूर्ति के लिये सम्पुटाकार ब्रह्माण्ड का दान है उसको देना चाहिये ॥ ९ ॥

हे वरानने! वह दान किसी से देने योग्य नहीं है। इस ब्रह्माण्ड के बदले में काँसे का सम्पुट बनाकर ॥ १० ॥

हे प्रिये! उसके भीतर प्रसन्नता से ३० मालपूआ रखकर, सात तन्तु से बाँध कर, विधिपूर्वक पूजन करके ॥ ११ ॥

व्रतपूर्ति के लिये विद्वान्‌ ब्राह्मण को देवे। यदि विभव हो तो तीस सम्पुट देवे ॥ १२ ॥

धूर्जटि भगवान्‌ के उपकारक और सुन्दर वचन को सुनकर पार्वती प्रसन्न हो गईं ॥ १३ ॥

हे नारद! पार्वती तीस काँसे के सम्पुट को विद्वान्‌ ब्राह्मणों को देकर तथा व्रतविधि को पूर्ण कर अत्यन्त प्रसन्न हुईं ॥ १४ ॥

सूतजी बोले :-

हे विप्र लोग! इस प्रकार नारद मुनि नारायण की वाणी सुन अत्यन्त तृप्त हो बारम्बार नमस्कार कर पुनः बोले ॥ १५ ॥

नारद मुनि बोले:-

सब साधनों से श्रेष्ठ यह पुरुषोत्तम मास है। इसका उत्तम माहात्म्य सुन मेरे को ऐसा निश्चय हुआ ॥ १६ ॥

केवल भक्ति पूर्वक श्रवण करने से भी मनुष्यों के महान्‌ पापों का क्षय हो जाता है तो श्रद्धा और विधि से करनेवाले का फिर कहना ही क्या है? ऐसा मेरा मत है ॥ १७ ॥

इसके बाद मेरे को सुनने को कुछ भी शेष नहीं रहा है; क्योंकि अमृत से तृप्त मनुष्य दूसरे जल की इच्छा नहीं करता है ॥ १८ ॥

सूतजी बोले :-

मुनिश्रेष्ठ विप्र नारदजी इस प्रकार कह कर चुप हो गये और प्राचीन मुनि नारायण के श्रेष्ठ चरणकमल को नमस्कार किये ॥ १९ ॥

जो प्राणी इस भारतवर्ष में जन्म को प्राप्त कर उत्तम श्रीपुरुषोत्तम मास का सेवन नहीं करते हैं, न श्रवण करते हैं, वे मनुष्य गृह में आसक्त रहने वाले मनुष्यों में अधम हैं ॥ २० ॥

इस संसार में जन्म और मरण को प्राप्त होते हैं और जन्म-जन्म में पुत्र, मित्र, स्त्री, श्रेष्ठ जन के वियोग से दुःख के भागी होते हैं ॥ २१ ॥

हे द्विजश्रेष्ठ! इस पुरुषोत्तम मास में असत्‌ शास्त्रों को नहीं कहे, दूसरे की शय्या पर शयन नहीं करे, कभी असत्य बातचीत नहीं करे ॥ २२ ॥

कभी दूसरे की निन्दा नहीं करे, परान्न को नहीं खाये और दूसरे की क्रिया को नहीं करे ॥ २३ ॥

शठता त्याग ब्राह्मण को दान देवे। धन रहने पर शठता करने वाला रौरव नरक को जाता है ॥ २४ ॥

प्रतिदिन ब्राह्मण को भोजन देवे और व्रत करने वाला दिन के चार बजने पर भोजन करे ॥ २५ ॥

वे पुरुष धन्य हैं जो इस लोक में भक्ति और विधान से प्रेमपूर्वक पुरुषोत्तम भगवान्‌ का नित्य पूजन करते हैं ॥ २६ ॥

इन्द्रद्युम्न, शतद्युम्न, यौवनाश्व् और भगीरथ राजा पुरुषोत्तम का आराधन कर भगवान्‌ के समीप चले गये ॥ २७ ॥

इसलिये समस्त साधनों से श्रेष्ठ, समस्त अर्थदायक पुरुषोत्तम भगवान्‌ का सब तरह से सेवन करना चाहिये ॥ २८ ॥

गोवर्धनधारी, गोपस्वरूप, गापाल, गोकुल के उत्सवस्वरूप, ईश्वहर, गोपिकाओं के प्रिय, गोविन्द भगवान्‌ को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २९ ॥

प्रथम कौण्डिन्य ऋषि ने इस मन्त्र को बार-बार कहा कि जो इस मन्त्र का भक्ति से जप करता हुआ पुरुषोत्तम मास को व्यतीत करता है वह पुरुषोत्तम भगवान्‌ को प्राप्त करता है ॥ ३० ॥

नवीन मेघ के समान श्याम, दो भुजावाले, सुरलीधर, शोभमान, पीतवस्त्रधारी, सुन्दर, राधिका के सहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ का ध्यान करे ॥ ३१ ॥

पुरुषोत्तम भगवान्‌ का ध्यान और पूजन करता हुआ पुरुषोत्तम मास को व्यतीत करे। इस प्रकार जो मनुष्य भक्ति से व्रत करता है वह अपने समस्त अभीष्ट को प्राप्त करता है ॥ ३२ ॥

हे तपोधन! यह गुप्त से भी गुप्त व्रत जिस किसी को नहीं कहना चाहिये। मैंने भी किसी के सामने नहीं कहा है ॥ ३३ ॥

हे विप्रलोग! अभीष्ट फलदायक, पवित्र इस पुराण को आदरपूर्वक सर्वदा श्रवण करना चाहिये। एक श्लोाकमात्र के श्रवण से मनुष्यों के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ३४ ॥

हे मुनिश्रेष्ठ! गंगादि समस्त तीर्थों में स्नान से जो फल मिलता है वह फल पुरुषोत्तम मास माहात्म्य के श्रवण से मिलता है ॥ ३५ ॥

मनुष्य पृथिवी की प्रदक्षिणा करता हुआ जिस पुण्य को प्राप्त करता है वह पुण्य पुरुषोत्तम मास माहात्म्य के श्रवण से होता है ॥ ३६ ॥

ब्राह्मण ब्रह्मतेज वाला, क्षत्रिय पृथिवी का मालिक, वैश्य धन का मालिक होता है और शूद्र श्रेष्ठ हो जाता है ॥ ३७ ॥

और जो दूसरे पशुचर्या में तत्पर किरात, हूण आदि हैं वे सब पुरुषोत्तम के माहात्म्यश्रवण से मुक्ति को प्राप्त करते हैं ॥ ३८ ॥

जो पुरुषोत्तम मास के माहात्म्य को लिख कर और वस्त्र-आभूषण आदि से भूषित कर विधिपूर्वक ब्राह्मण को देता है ॥ ३९ ॥

वह तीनों कुलों का उद्धार करके जहाँ पर गोपिकाओं के समूह से घिरे हुए पुरुषोत्तम भगवान्‌ हैं ऐसे दुर्लभ गोलोक को जाता है ॥ ४० ॥

जो इस उत्तम माहात्म्य को लिखकर गृह में रखता है उसके गृह में समस्त तीर्थ निरन्तर विलास करते हैं ॥ ४१ ॥

अनन्त पुण्य को देने वाले महीनों में श्रेष्ठ पुरुषोत्तम मास के माहात्म्य को सुन समस्त मुनि लोग आश्चैर्य करने लगे और वे भगवान्‌ की चरण-सेवा में अत्यन्त निपुण मुनि लोग विनयपूर्वक सूतजी के पुत्र से बोले ॥ ४२ ॥

ऋषि लोग बोले :-

हे सूत हे सूत हे महाभाग हे महामते तुम धन्य हो। तुम्हारे मुख से अमृत पान कर हम सब अत्यन्त कृतार्थ हो गये ॥ ४३ ॥ हे सूत! हे पौराणिकों में शिरोमणि! तुम सदा चिरंजीवी होवो और तुम्हारी कीर्ति निरन्तर जगत्‌ में पवित्रों को भी पवित्र करने वाली हो ॥ ४४ ॥

तुम्हारे मुखकमल से निकले हुए श्रीमुकुन्द के कथामृत के पान में लोल नैमिषारण्य में स्थित, मुनीन्द्रों द्वारा आपके लिए अत्यन्त पूज्य ब्रह्मा का आसन दिया गया ॥ ४५ ॥

जब तक विष्णु भगवान्‌ की कीर्ति पृथिवी पर रहे तब तक इस पृथिवी पर मुनियों के समाज में हरि भगवान्‌ की सुन्दर कथा को आप कहते रहें ॥ ४६ ॥

इस प्रकार ब्राह्मणों के आशीर्वाद को ग्रहण कर और समस्त ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा और नमस्कार कर अपने कृत्य को करने के लिए गंगा के तट पर सूत जी के पुत्र गये ॥ ४७ ॥

नैमिषारण्य में स्थित सब लोग परस्पर कहने लगे कि यह प्राचीन पुरुषोत्तम मास का श्रेष्ठ और दिव्य माहात्म्य इच्छित अर्थों को देने में कल्पवृक्ष ही है ॥ ४८ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे पुरुषोत्तममासमाहात्म्यश्रवणफलकथनं नाम एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥ इति ॥

निर्मल मन से राधा कृष्ण का ध्यान करें। इस अति पावन मंगलकारी अधिक मास में। ज्यादा कुछ न कर सके तो सिर्फ उनका नाम और उनका ध्यान करे। नाम आप कोई भी काम करते हुए अपने मन में ले सकते है। ज्यादा मुश्किल मन्त्र जपने में परेशानी हो तो सिर्फ “श्री राधे” का जाप करिये। आपकी सारी मुश्किलें आसान हो जाएँगी। गुप्त रूप से प्रेम रुपी सरकार को मनाएं वो मान गए तो आपका जीवन प्रेम खुशियों और वैभवता से भर देंगे। 

Must Read पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा अध्याय 11 से अध्याय 20 तक