शनिदेव जन्मोत्सव ज्येष्ठ अमावस्या को शनि जयंती (Shani Jayanti) मनाते हैं. आइए जानते हैं शनि जयंती के मुहूर्त, मंत्र, पूजन सामग्री और पूजा विधि के बारे में.

शनि जिन्हें कर्मफलदाता माना जाता है। दंडाधिकारी कहा जाता है, न्यायप्रिय माना जाता है। जो अपनी दृष्टि से राजा को भी रंक बना सकते हैं। हिंदू धर्म में शनि देवता भी हैं और नवग्रहों में प्रमुख ग्रह भी जिन्हें ज्योतिषशास्त्र में बहुत अधिक महत्व मिला है। शनिदेव को सूर्य का पुत्र माना जाता है। मान्यता है कि ज्येष्ठ माह की अमावस्या को ही सूर्यदेव एवं छाया (संवर्णा) की संतान के रूप में शनि का जन्म हुआ।

शनि पूजा (साधना) की सामान्य विधि

शनिदेव की पूजा करने के लिये कुछ अलग नहीं करना होता। इनकी पूजा भी अन्य देवी-देवताओं की तरह ही होती है। शनि जन्मोत्सव के दिन उपवास भी रखा जाता है।

शनिदेव का जन्म दोपहर के समय हुआ था, अतः शास्त्र अनुसार शनि देव की पूजा उपासना मध्यकाल के समय ही कि जानी चाहिये। भारत में अनेक स्थानों पर उदय तिथि के (पंचांग) अनुसार के पर्व संपन्न होता हैं।

शारीरिक शुद्धि के पश्चात लकड़ी के एक पाट पर साफ-सुथरे काले रंग के कपड़े को बिछाना चाहिये। कपड़ा नया हो तो बहुत अच्छा अन्यथा साफ अवश्य होना चाहिये। फिर इस पर शनिदेव की प्रतिमा स्थापित करें। यदि प्रतिमा या तस्वीर न भी हो तो एक सुपारी के दोनों और शुद्ध घी व तेल का दीपक जलाये। इसके पश्चात धूप जलाएं। फिर इस स्वरूप को पंचगव्य, पंचामृत, इत्र आदि से स्नान करवायें। सिंदूर, कुमकुम, काजल, अबीर, गुलाल आदि के साथ-साथ नीले या काले फूल शनिदेव को अर्पित करें। इमरती व तेल से बने पदार्थ अर्पित करें। श्री फल के साथ-साथ अन्य फल भी अर्पित कर सकते हैं। पंचोपचार व पूजन की इस प्रक्रिया के बाद शनि मंत्र की एक माला का जाप करें। माला जाप के बाद शनि चालीसा का पाठ करें। फिर शनिदेव की आरती उतार कर पूजा संपन्न करें।

साधना के नियम

साधना-शनिअमावस्या शनिवार या शनि जयन्ती से आरम्भ करें।

साधना-समय सूर्योदय के पूर्व या सूर्यास्त के बाद

पुरुष सफेद या नीला वस्त्र करके

स्त्री नीला वस्त्र धारण करके

मुख की दिशा दक्षिण

लकड़ी की चौकी पर सवा मीटर काला वस्त्र बिछा कर चारो किनारे पर कील लगा दे, ध्यान रहे [ बर्तन स्टील या लोहे का ही प्रयोग करे ] एक बड़ी थाली या परात में सवा किलो काला [ खड़ा ] उड़द और सवा किलो काला तिल रख लें,

अब सवा सौ ग्राम सरसों का तेल उडद और तिल में मिला दें, अब पुनः एक स्टील के पात्र में शनिदेव की प्रतिमा या शनि यंत्र रख दे, अब आप शनि यंत्र या प्रतिमा पर कुंकुम केसर अष्टगंध से तिलक करे

और फिर कुंकुम अष्टगंध से उस परात या थाली में “श्रीं” लिख दें अब

सामाग्री सहित यंत्र या प्रतिमा स्थापित कर दे। और निम्न मंत्रो से शनिदेव की अंगपूजा करें।

ॐ श्री शनिदेवाय नमो नमः ॐ श्री शनिदेवाय शान्ति भव: ॐ श्री शनिदेवाय शुभम फल: ॐ श्री शनिदेवाय फल: प्राप्ति फल:।

अंगपूजन के बाद हाथ जोड़कर ध्यान करे।

ॐ भगभवाय विदमहे मृत्यु रूपाय धीमहि तन्नो शौरि: प्रचोदयात।

ध्यान के बाद पंचोपचार विधि से शनिदेव का पुजन करें इसके बाद तिल-लडडू गुड का भोग लगाये।

शनि देव के लिये सप्तधान्य 

मूंगी, उड़द, गेहूं, काले-चने, जौ, धान्य “तंदुल” कंगनी आदि शनिदेव को अर्पण कर दान करें।

अष्टगंध धूप

अगर, छरीला, जटामासी, कर्पूर-कचरी, गुग्गल, देव दारू, गोघृत, सफ़ेद चन्दन आदि की धूप से पूजन करें।

अष्टगंध

अगर, कस्तूरी, कुकुम, कर्पूर, चन्दन, लौंग, देवदारु, गुग्गुल आदि अष्टगंध का प्रयोग पूजा में करें। पूजन के उपरांत शनिदेव की आरती करें आरती के बाद क्षमायाचना करें।

शनिदेव की आरती

जय जय श्री शनिदेव भक्तन हितकारी।

सूर्य पुत्र प्रभु छाया महतारी॥

जय जय श्री शनि देव….

श्याम अंग वक्र-दृ‍ष्टि चतुर्भुजा धारी।

नी लाम्बर धार नाथ गज की असवारी॥

जय जय श्री शनि देव….

क्रीट मुकुट शीश राजित दिपत है लिलारी।

मुक्तन की माला गले शोभित बलिहारी॥

जय जय श्री शनि देव….

मोदक मिष्ठान पान चढ़त हैं सुपारी।

लोहा तिल तेल उड़द महिषी अति प्यारी॥

जय जय श्री शनि देव….

देव दनुज ऋषि मुनि सुमिरत नर नारी।

विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी॥

जय जय श्री शनि देव भक्तन हितकारी।।

शनिदेव व्रत कथा

एक समय स्वर्गलोक में सबसे बड़ा कौन के प्रश्न को लेकर सभी देवताओं में वाद-विवाद प्रारम्भ हुआ और फिर परस्पर भयंकर युद्ध की स्थिति बन गई. सभी देवता देवराज इंद्र के पास पहुंचे और बोले, देवराज! आपको निर्णय करना होगा कि नौ ग्रहों में सबसे बड़ा कौन है? देवताओं का प्रश्न सुनकर देवराज इंद्र उलझन में पड़ गए. और कुछ देर सोच कर बोले, देवगणों! मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूं.

पृथ्वीलोक में उज्ज्यिनी नगरी में राजा विक्रमादित्य का राज्य है. हम राजा विक्रमादित्य के पास चलते हैं क्योंकि वह न्याय करने में अत्यंत लोकप्रिय हैं. उनके सिंहासन में अवश्य ही कोई जादू है कि उस पर बैठकर राजा विक्रमादित्य दूध का दूध और पानी का पानी अलग करने का न्याय करते हैं.

देवराज इंद्र के आदेश पर सभी देवता पृथ्वी लोक में उज्ज्यिनी नगरी में पहुंचे. देवताओं के आगमन का समाचार सुनकर स्वयं राजा विक्रमादित्य ने उनका स्वागत किया. महल में पहुंचकर जब देवताओं ने उनसे अपना प्रश्न पूछा तो राजा विक्रमादित्य भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे. क्योकि सभी देवता अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान शक्तिशाली थे. किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुंच सकती थी.

तभी राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं- स्वर्ण, रजत, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक, व लोहे के नौ आसन बनवाए. धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवा कर उन्होंने देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा, सब देवताओं के बैठने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा, आपका निर्णय तो स्वयं हो गया. जो सबसे पहले सिंहासन पर विराजमान है, वही सबसे बड़ा है. राजा विक्रमादित्य के निर्णय को सुनकर शनि देवता ने सबसे पीछे आसन पर बैठने के कारण अपने को छोटा जानकर क्रोधित होकर कहा, राजन! तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है.

तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो. मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा, सूर्य एक राशि पर एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं लेकिन मैं किसी राशि पर साढ़े सात वर्ष रहता हूं. बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है. राम को साढ़े साती के कारण ही वन में जाकर रहना पड़ा और रावण को साढ़े साती के कारण ही युद्ध में मृत्यु का शिकार बनना पड़ा.

उसके वंश का सर्वनाश हो गया. राजा! अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बच सकेगा. राजा विक्रमादित्य शनि देवता के प्रकोप से थोड़ा भयभीत तो हुए, लेकिन उन्होंने मन में विचार किया, मेरे भाग्य में जो लिखा होगा, ज्यादा से ज्यादा वही तो होगा. फिर शनि के प्रकोप से भयभीत होने की आवश्यकता क्या है?

उसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ वहां से चले गए, लेकिन शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहां से विदा हुए. राजा विक्रमादित्य पहले की तरह ही न्याय करते रहे. उनके राज्य में सभी स्त्री पुरुष बहुत आनंद से जीवन-यापन कर रहे थे. कुछ दिन ऐसे ही बीत गए. उधर शनिदेवता अपने अपमान को भूले नहीं थे. विक्रमादित्य से बदला लेने के लिए एक दिन शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ उज्ज्यिनी नगरी में पहुंचे.

राजा विक्रमादित्य ने राज्य में किसी घोड़े के व्यापारी के आने का समाचार सुना तो अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने के लिए भेजा. अश्वपाल ने वहां जाकर घोड़ों को देखा तो बहुत खुश हुआ. लेकिन घोड़ों का मूल्य सुन कर उसे बहुत हैरानी हुई. घोड़े बहुत कीमती थे. अश्वपाल ने जब वापस लौटकर इस संबंध में बताया तो राजा ने स्वयं आकर एक सुंदर व शक्तिशाली घोड़े को पसंद किया.

घोड़े की चाल देखने के लिए राजा उस घोड़े पर सवार हुआ तो वह घोड़ा बिजली की गति से दौड़ पड़ा. तेजी से दौड़ता हुआ घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर राजा को वहां गिराकर जंगल में कहीं गायब हो गया. राजा अपने नगर को लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा.

लेकिन उसे लौटने का कोई रास्ता नहीं मिला. राजा को भूख-प्यास लग आई. बहुत घूमने पर उसे एक चरवाहा मिला. राजा ने उससे पानी मांगा. पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दे दी. फिर उससे रास्ता पूछकर वह जंगल से बाहर निकलकर पास के नगर में पहुंचा.

राजा ने एक सेठ की दुकान पर बैठकर कुछ देर आराम किया. उस सेठ ने राजा से बातचीत की तो राजा ने उसे बताया कि मैं उज्ज्यिनी से आया हूं. राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठजी की बहुत बिक्री हुई. सेठ ने राजा को बहुत भाग्यवान समझा और उसे अपने घर भोजन के लिए ले गया. सेठ के घर में सोने का एक हार खूंटी पर लटका हुआ था. राजा को उस कमरे में अकेला छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर गया.

तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी. राजा के देखते-देखते सोने के उस हार को खूंटी निगल गई, सेठ ने कमरे में लौटकर हार को गायब देखा तो चोरी का सन्देह राजा पर ही किया, क्योंकि उस कमरे में राजा ही अकेला बैठा था. सेठ ने अपने नौकरों से कहा कि इस परदेसी को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो. राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसके देखते ही देखते खूंटी ने हार को निगल लिया था.

इस पर राजा ने क्रोधित होकर चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया, राजा विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटकर उसे नगर की सड़क पर छोड़ दिया गया. कुछ दिन बाद एक तेली उसे उठाकर अपने घर ले गया और उसे अपने कोल्हू पर बैठा दिया. राजा आवाज देकर बैलों को हांकता रहता. इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा. शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ॠतु प्रारम्भ हुई.

राजा विक्रमादित्य एक रात मेघ मल्हार गा रहा था कि तभी नगर के राजा की लड़की राजकुमारी मोहिनी रथ पर सवार उस तेली के घर के पास से गुजरी. उसने मेघ मल्हार सुना तो उसे बहुत अच्छा लगा और दासी को भेजकर गानेवाले को बुला लाने को कहा. दासी ने लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया.

राजकुमारी उसके मेघ मल्हार पर बहुत मोहित हुई थी. अत:उसने सब कुछ जानकर भी अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय कर लिया. राज कुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वे हैरान रह गये. राजा को लगा कि उसकी बेटी पागल हो गई है. रानी ने मोहिनी को समझाया, बेटी! तेरे भाग्य में तो किसी राजा की रानी होना लिखा है. फिर तू उस अपंग से विवाह करके अपने पांव पर कुल्हाड़ी क्यों मार रही है ?

राजा ने किसी सुंदर राजकुमार से उसका विवाह करने की बात कही. लेकिन राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी. अपनी जिद पूरी कराने के लिए उसने भोजन करना छोड़ दिया और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया. आखिर राजा, रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पडा. विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे. उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा, आज! तुमने मेरा प्रकोप देख लिया. मैंने तुम्हें अपने अपमान का दण्ड दिया है.

राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की, हे शनिदेव! आपने जितना दु:ख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना, शनिदेव ने कुछ सोचते हुए कहा, अच्छा! मैं तेरी प्रार्थना स्वीकार करता हूं. जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, शनिवार को व्रत कर के मेरी कथा सुनेगा, उस पर मेरी अनुकम्पा बनी रहेगी. उसे कोई दुख नहीं होगा.

शनिवार को व्रत करने और चींटियों को आटा डालने से मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूरी होंगी. प्रात:काल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पांव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई. उसने मन-ही-मन शनिदेव को प्रणाम किया. राजकुमारी भी राजा के हाथ-पांव सही सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई. तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी कह सुना.

सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ तेली के घर पहुंचा और राजा के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा. राजा ने उसे क्षमा कर दिया, क्योकि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था. सेठ राजा को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया. भोजन करते समय वहां एक आश्चर्यजनक घटना घटी. सबके देखते-देखते उस खूंटी ने वह हार उगल दिया. सेठजी ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया.

राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ उज्ज्यिनी पहुंचे तो नगरवासियों ने हर्ष से उनका स्वागत किया. उस रात उज्ज्यिनी नगरी में दीप जलाकर लोगों ने दीवाली मनाई. अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा करवाई, च्शनिदेव सब देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं.

प्रत्येक स्त्री पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रत कथा अवश्य सुनें. राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए. शनिवार का व्रत करने और कथा सुनने के कारण सभी लोगों की मनोकामनाएं शनिदेव की अनुकम्पा से पूरी होने लगीं. सभी लोग आनन्दपूर्वक रहने लगे।

पौराणिक कथा शनिदेव की

शनि देव को आज के युग मे कौन नही जानता।अक्सर शनि का नाम सुनते ही आफत नजर आने लगती है,लोग सहमने लग जाते हैं, शनि के प्रकोप का खौफ खा जाते हैं। कुल मिलाकर शनि को क्रूर ग्रह माना जाता है लेकिन असल में ऐसा है नहीं। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार शनि न्यायधीश या कहें दंडाधिकारी की भूमिका का निर्वहन करते हैं। वह अच्छे का परिणाम अच्छा और बूरे का बूरा देने वाले ग्रह हैं। अगर कोई शनिदेव के कोप का शिकार है तो रूठे हुए शनिदेव को मनाया भी जा सकता है। शनि जयंती का दिन तो इस काम के लिये सबसे उचित माना जाता है। आइये जानते हैं शनिदेव के बारे में, क्या है इनके जन्म की कहानी और क्यों रहते हैं शनिदेव नाराज।

शनिदेव के जन्म के बारे में स्कंदपुराण के काशीखंड में जो कथा मिलती वह कुछ इस प्रकार है। राजा दक्ष की कन्या संज्ञा का विवाह सूर्यदेवता के साथ हुआ। सूर्यदेवता का तेज बहुत अधिक था जिसे लेकर संज्ञा परेशान रहती थी। वह सोचा करती कि किसी तरह तपादि से सूर्यदेव की अग्नि को कम करना होगा। जैसे तैसे दिन बीतते गये संज्ञा के गर्भ से वैवस्वत मनु, यमराज और यमुना तीन संतानों ने जन्म लिया। संज्ञा अब भी सूर्यदेव के तेज से घबराती थी फिर एक दिन उन्होंने निर्णय लिया कि वे तपस्या कर सूर्यदेव के तेज को कम करेंगी

लेकिन बच्चों के पालन और सूर्यदेव को इसकी भनक न लगे इसके लिये उन्होंने एक युक्ति निकाली उन्होंने अपने तप से अपनी हमशक्ल को पैदा किया जिसका नाम संवर्णा रखा। संज्ञा ने बच्चों और सूर्यदेव की जिम्मेदारी अपनी छाया संवर्णा को दी और कहा कि अब से मेरी जगह तुम सूर्यदेव की सेवा और बच्चों का पालन करते हुए नारीधर्म का पालन करोगी लेकिन यह राज सिर्फ मेरे और तुम्हारे बीच ही बना रहना चाहिये।

अब संज्ञा वहां से चलकर पिता के घर पंहुची और अपनी परेशानी बताई तो पिता ने डांट फटकार लगाते हुए वापस भेज दिया लेकिन संज्ञा वापस न जाकर वन में चली गई और घोड़ी का रूप धारण कर तपस्या में लीन हो गई। उधर सूर्यदेव को जरा भी आभास नहीं हुआ कि उनके साथ रहने वाली संज्ञा नहीं सुवर्णा है। संवर्णा अपने धर्म का पालन करती रही उसे छाया रूप होने के कारण उन्हें सूर्यदेव के तेज से भी कोई परेशानी नहीं हुई। सूर्यदेव और संवर्णा के मिलन से भी मनु, शनिदेव और भद्रा (तपती) तीन संतानों ने जन्म लिया।

एक अन्य कथा के अनुसार शनिदेव का जन्म महर्षि कश्यप के अभिभावकत्व में कश्यप यज्ञ से हुआ। छाया शिव की भक्तिन थी। जब शनिदेव छाया के गर्भ में थे तो छाया ने भगवान शिव की कठोर तपस्या कि वे खाने-पीने की सुध तक उन्हें न रही। भूख-प्यास, धूप-गर्मी सहने के कारण उसका प्रभाव छाया के गर्भ मे पल रही संतान यानि शनि पर भी पड़ा और उनका रंग काला हो गया। जब शनिदेव का जन्म हुआ तो रंग को देखकर सूर्यदेव ने छाया पर संदेह किया और उन्हें अपमानित करते हुए कह दिया कि यह मेरा पुत्र नहीं हो सकता।

मां के तप की शक्ति शनिदेव में भी आ गई थी उन्होंने क्रोधित होकर अपने पिता सूर्यदेव को देखा तो सूर्यदेव बिल्कुल काले हो गये, उनके घोड़ों की चाल रूक गयी। परेशान होकर सूर्यदेव को भगवान शिव की शरण लेनी पड़ी इसके बाद भगवान शिव ने सूर्यदेव को उनकी गलती का अहसास करवाया। सूर्यदेव अपने किये का पश्चाताप करने लगे और अपनी गलती के लिये क्षमा याचना कि इस पर उन्हें फिर से अपना असली रूप वापस मिला। लेकिन पिता पुत्र का संबंध जो एक बार खराब हुआ फिर न सुधरा आज भी शनिदेव को अपने पिता सूर्य का विद्रोही माना जाता है।

शनि जयंती के दिन न करें ये काम

शनि जयंती के दिन सरसों का तेल, लकड़ी, उड़द की दाल नहीं खरीदना चाहिए. न ही बाल या नाखून काटने या कटवाने चाहिए. इसके साथ ही जूते-चप्पल खरीदना और तुलसी, पीपल या बेलपत्र का तोड़ना वर्जित बताया गया है. इन चीजों को आप अन्य दिन खरीद सकते हैं. इन चीजों को खरीदने से जीवन में कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है.

शनिदेव की तिरछी नजर का राज

शनिदेव के गुस्से की एक वजह उपरोक्त कथा में सामने आयी कि माता के अपमान के कारण शनिदेव क्रोधित हुए लेकिन वहीं ब्रह्म पुराण इसकी कुछ और ही कहानी बताता है। ब्रह्मपुराण के अनुसार शनिदेव भगवान श्री कृष्ण के परम भक्त थे। जब शनिदेव जवान हुए तो चित्ररथ की कन्या से इनका विवाह हुआ। शनिदेव की पत्नी सती, साध्वी और परम तेजस्विनी थी लेकिन शनिदेव भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में इतना लीन रहते कि अपनी पत्नी को उन्होंनें जैसे भुला ही दिया।

एक रात ऋतु स्नान कर संतान प्राप्ति की इच्छा लिये वह शनि के पास आयी लेकिन शनि देव हमेशा कि तरह भक्ति में लीन थे। वे प्रतीक्षा कर-कर के थक गई और उनका ऋतुकाल निष्फल हो गया। आवेश में आकर उन्होंने शनि देव को शाप दे दिया कि जिस पर भी उनकी नजर पड़ेगी वह नष्ट हो जायेगा। ध्यान टूटने पर शनिदेव ने पत्नी को मनाने की कोशिश की उन्हें भी अपनी गलती का अहसास हुआ लेकिन तीर कमान से छूट चुका था जो वापस नहीं आ सकता था अपने श्राप के प्रतिकार की ताकत उनमें नहीं थी। इसलिये शनि देवता अपना सिर नीचा करके रहने लगे।

शनि ग्रह ज्योतिष में

यह नौ ग्रहों में सबसे अधिक रहस्यमयी ग्रह है. भारतीय ज्योतिष में इसे अन्त्यज माना गया है, इसलिए इसका मौलिक गुण एकाकी, गोपनीय किन्तु अपने उद्ïदेश्य के प्रति दृढ़ संकल्प वाला क्योंकि प्रत्येक कार्य से यह अपने वर्ग की उन्नति करना चाहता है. यह जब शुक्र द्वारा शासित राशि में हो तो यह मौलिक मानवी स्वभाव का होता है. इसका अकेलापन अधिक आकर्षक और क्रूरता अधिक परिष्कृत हो जाती है. इसलिए वह तुला में उच्च का होता है. शनि मेष में मंगल द्वारा शासित राशि में नीच का होता है क्योंकि एक एकाकी में समाज से कटा हुआ व्यक्ति अपनी शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन करने में निरा अकेला होता है.

अपने मौलिक गुणों में वह हमेशा हारा हुआ ही रहता है. वस्तुत: सूर्य और शनि एक-दूसरे से विपरीत दो स्तम्भ हैं. मंगल जो राजा सूर्य की सेनाओं का प्रधान सेनापति है- कैसे एक आम व्यक्ति को अपनी ही राशि में शक्तिशाली बनने दे सकता है ?

इस प्रकार ग्रहों की मौलिक विशेषताओं को समझकर कोई भी व्यक्ति के जीवन पर पडऩे वाले प्रभाव का फलादेश कर सकता है. शनि ग्रह की मूल विशेषताओं को सूत्र रूप में कहा जा सकता है। अपने आपमें सीमित, धैर्यशाली और दृढ़ संकल्पी. दृष्टि और युति को लिया जाये तो शनि 7वें, तीसरे और 10वें भावों को देखता है. युति में मित्र ग्रहों की ओर अशुभ ग्रहों की दृष्टियां अच्छे और बुरे परिणाम देती है. केन्द्र और त्रिकोणाधिपतियों की शुभ युतियां अच्छे परिणाम देती हैं. चूंकि सूर्य और चंद्रमा को छोड़कर शेष सभी ग्रह दो-दो भावों के स्वामी होते हैं इसलिए एक अकेला ग्रह योगकारक हो सकता है. यह व्यक्तिगत कुंडली पर निर्भर करता है. कई बार दो ग्रहों की एक राशि में युति से विशेष प्रकार का योग बनता है. इसमें एक ग्रह उच्च का हो और दूसरा नीच का हो.

ये योग नीच भंग राजयोग, चंद्र मंगल योग और गुरु चांडालयोग के नाम से जाने जाते हैं. ये विशेष योग हैं और इनका प्रभाव इनके संयुक्त रूप से ही देखा जाना चाहिए.

शनि सम्बन्धी रोग 

उन्माद नाम का रोग शनि की देन है, जब दिमाग में सोचने विचारने की शक्ति का नाश हो जाता है, जो व्यक्ति करता जा रहा है, उसे ही करता चला जाता है, उसे यह पता नही है कि वह जो कर रहा है, उससे उसके साथ परिवार वालों के प्रति बुरा हो रहा है, या भला हो रहा है, संसार के लोगों के प्रति उसके क्या कर्तव्य हैं, उसे पता नही होता, सभी को एक लकडी से हांकने वाली बात उसके जीवन में मिलती है, वह क्या खा रहा है, उसका उसे पता नही है कि खाने के बाद क्या होगा, जानवरों को मारना, मानव वध करने में नही हिचकना, शराब और मांस का लगातार प्रयोग करना, जहां भी रहना आतंक मचाये रहना, जो भी सगे सम्बन्धी हैं, उनके प्रति हमेशा चिन्ता देते रहना आदि उन्माद नाम के रोग के लक्षण है।

वात रोग का अर्थ है वायु वाले रोग, जो लोग बिना कुछ अच्छा खाये पिये फ़ूलते चले जाते है, शरीर में वायु कुपित हो जाती है, उठना बैठना दूभर हो जाता है, शनि यह रोग देकर जातक को एक जगह पटक देता है।यह रोग लगातार सट्टा, जुआ, लाटरी, घुडदौड और अन्य तुरत पैसा बनाने वाले कामों को करने वाले लोगों मे अधिक देखा जाता है।

भगन्दर रोग गुदा मे घाव या न जाने वाले फ़ोडे के रूप में होता है। अधिक चिन्ता करने से यह रोग अधिक मात्रा में होता देखा गया है। चिन्ता करने से जो भी खाया जाता है, वह आंतों में जमा होता रहता है, पचता नही है, और चिन्ता करने से उवासी लगातार छोडने से शरीर में पानी की मात्रा कम हो जाती है, मल गांठों के रूप मे आमाशय से बाहर कडा होकर गुदा मार्ग से जब बाहर निकलता है तो लौह पिण्ड की भांति गुदा के छेद की मुलायम दीवाल को फ़ाडता हुआ निकलता है, लगातार मल का इसी तरह से निकलने पर पहले से पैदा हुए घाव ठीक नही हो पाते हैं, और इतना अधिक संक्रमण हो जाता है, कि किसी प्रकार की एन्टीबायटिक काम नही कर पाती है।

गठिया रोग शनि की ही देन है। शीलन भरे स्थानों का निवास, चोरी और डकैती आदि करने वाले लोग अधिकतर इसी तरह का स्थान चुनते है, चिन्ताओं के कारण एकान्त बन्द जगह पर पडे रहना, अनैतिक रूप से संभोग करना और लकडी, प्लास्टिक, आदि से यौनि को लगातार खुजलाते रहना, शरीर में जितने भी जोड हैं, रज या वीर्य स्खलित होने के समय वे भयंकर रूप से उत्तेजित हो जाते हैं।

और हवा को अपने अन्दर सोख कर जोडों के अन्दर मैद नामक तत्व को खत्म कर देते हैं, हड्डी के अन्दर जो सबल तत्व होता है, जिसे शरीर का तेज भी कहते हैं, धीरे धीरे खत्म हो जाता है, और जातक के जोडों के अन्दर सूजन पैदा होने के बाद जातक को उठने बैठने और रोज के कामों को करने में भयंकर परेशानी उठानी पडती है, इस रोग को देकर शनि जातक को अपने द्वारा किये गये अधिक वासना के दुष्परिणामों की सजा को भुगतवाता है।

स्नायु रोग के कारण शरीर की नशें पूरी तरह से अपना काम नही कर पाती हैं, गले के पीछे से दाहिनी तरफ़ से दिमाग को लगातार धोने के लिये शरीर पानी भेजता है, और बायीं तरफ़ से वह गन्दा पानी शरीर के अन्दर साफ़ होने के लिये जाता है, इस दिमागी सफ़ाई वाले पानी के अन्दर अवरोध होने के कारण दिमाग की गन्दगी साफ़ नही हो पाती है, और व्यक्ति जैसा दिमागी पानी है, उसी तरह से अपने मन को सोचने मे लगा लेता है, इस कारण से जातक में दिमागी दुर्बलता आ जाती है, वह आंखों के अन्दर कमजोरी महसूस करता है, सिर की पीडा, किसी भी बात का विचार करते ही मूर्छा आजाना मिर्गी, हिस्टीरिया, उत्तेजना, भूत का खेलने लग जाना आदि इसी कारण से ही पैदा होता है, इस रोग का कारक भी शनि है।

इन रोगों के अलावा पेट के रोग, जंघाओं के रोग, टीबी, कैंसर आदि रोग भी शनि की देन है।

शनि की दशा अन्तर्दशा अरिष्ट शांति के कुछ आसान उपाय

अगर किसी व्यक्ति के ऊपर शनि की कोई भी दशा चल रही है तो सबसे पहले अपने पैरों को साफ़ रखना शुरू कर दे , यह अति आवश्यक है , उन्हें साबुन से अच्छी तरह धोये , दिन में एक बारी अवश्य ही नहाना चाहिए और गर्मियों में कम से कम दो बारी स्नान ले , दाड़ी और बाल समय से कटवा लेने चाहिए , और हमेशा साफ़ सुथरे रहने का प्रयास करे , शनि की किसी भी दशा में चन्दन का इत्र लगाकर रखे , और अपने आस पास भी चन्दन की खुशबू प्रयोग में लाना शुरू कर दे । अगर आप मोज़े / जुराबे पहनते हो तो हमेशा रोज़ बदले । शनि की दशा में आपको गन्दा रहने , न नहाने , आलस्य के कारण बढे हुए बाल रखने की आदत पड़ जाती है , तो शनि के कारण होने वाले बुरे प्रभावों से बचने के लिए यह सब उपाय करे और हमेशा साफ सुथरे रहे ,

किसी की भी आलोचना से बचे अपने ऑफिस या कार्यालय में दोस्तों से सम्बन्ध अच्छे रखें ।

सप्ताह में एक बार शनि या भेरो मंदिर में दर्शन करें

हनुमान चालीसा का नियम से पाठ करें

मन में आत्मविश्वास बनाये रखें अपने पर विश्वास रखें किसी को धोखा ना दें।

बुजुर्गों , मां और पत्नी पर क्रोध ना करें

ज़रूरी बातों में घर के और बाहर के बुजुर्ग लोगों से समय समय पर सलाह मशवरा लेते रहे उन्हे क्रोध और अपमानित करने से बचे देखिएगा , शनि के बुरे प्रभाव अपने आप कम हो जायेंगे

कुछ अन्य उपाय रूठे शनिदेव को प्रसन्न करने के लिये

रुष्ठ शनि देव जी को प्रसन्न करने के उपाय अर्थात शनि शांति उपाय :

1 नीले रंग के कपड़ों का अधिक प्रयोग करें।

2 शनिवार के दिन अपंग, नेत्रहीन, कोढ़ी, अत्यंत वृद्ध या गली के कुत्ते को खाने की सामग्री दें।

3 पीपल या शम्मी पेड़ के नीचे शनिवार संध्या काल में तिल का दीपक जलाएं।

4 समर्थ हैं तो काली भैंस, जूता, काला वस्त्र, तिल, उड़द का दान सफाई करने वालों को दें।

5 सरसों तेल की मालिश करें व आंखों में सुरमा लगाएं।

6 पानी में सौंफ, खिल्ला या लोबान मिलाकर स्नान करें।

7 लोहे का छल्ला मध्यम अंगुली में शनिवार से धारण करें।

8 लोहे की कटोरी में सरसों तेल में अपना चेहरा देखकर दान करें।

9 घर के या पड़ोस के बुजुर्गो की सेवा कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करें।

10 शम्मी की जड़ काले कपड़े में बांह में बांधें।

शनि देव का वैदिक मंत्र- 

ॐ खां खीं खौं स: ॐ भूर्भव: स्व: ॐ शन्नो देवीरभिष्टय आपो भन्तु पीतये शं योरभिस्त्रवन्तु न:

ॐ स्व: भुव: भू: ॐ स: खौं खीं खां ॐ शनैश्चराय नम: ।।

पौराणिक मंत्र-

नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्‌।

छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामी शनैश्चरम्‌॥

बीज मंत्र-

ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः।

सामान्य मंत्र-

ॐ शं शनैश्चराय नमः।

जप संख्या २३००० जप समय संध्या काल

निम्न मंत्रो का संभव हो तो शनि मंदिर अथवा घर मे संध्या का समय शुद्ध तन एवं मन से जाप करने से शनि जानित अरिष्ट में शांति आती है।

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