भगवान शिव के पूजन के लिए स्तुति एवं प्रार्थनाएं
आज की भागदौड़ भरी जिन्दगी में यदि आप भगवान शिव की पूजा के लिए समय न निकाल पाएं तो केवल मन के भावों को शब्दों में व्यक्त करके भी भगवान आशुतोष को प्रसन्न किया जा सकता है । यहां इस पोस्ट में भगवान शिव की कुछ स्तुतियां दी जा रही हैं जिन्हें पढ़कर हम भगवान शिव के चरणों में अपने स्तुति रूपी श्रद्धासुमन अर्पित कर उनका कृपा प्रसाद पा सकते हैं
ध्यान और नमस्कार का श्लोक Meditation and Salutation
ॐ शान्ताकारं शिखरशयनं सर्पहारं महेशम्म ।
विश्वाधारं स्फटिकसदृशं शुभ्रवर्णं शुभांगम् ।।
गौरीकान्तं मदनदहनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् ।
वन्दे शम्भुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ।।
अर्थात जिनका विग्रह सौम्य (शान्त) है, जो कैलाश के शिखर पर निवास करते है, गले में सर्प का हार धारण करते हैं, सभी देवों के देव हैं, सारे संसार का आधार है, स्फटिक के समान जिनकी शुभ्र कान्ति है, और सुन्दर अंग हैं, वे गौरी के पति और कामदेव को भस्म करने वाले, ध्यान के द्वारा योगियों को दर्शन देते हैं, ऐसे संसार के भय को दूर करने वाले और त्रिभुवन के नाथ भगवान शंभु को मैं नमस्कार करता हूँ ।
भगवान शिव की महिमा की स्तुति Praise of the Glory of Lord Shiva
एक बार युधिष्ठिर ने भीष्मपितामह से भगवान शिव की महिमा बताने को कहा । तब भीष्मपितामह ने अपनी असमर्थता बताते हुए कहा ‘साक्षात् विष्णु के अवतार भगवान श्रीकृष्ण के अतिरिक्त किसी मनुष्य में सामर्थ्य नहीं कि वह भगवान सदाशिव की महिमा का वर्णन कर सके।’
भगवान शिव के समान न कोई दाता है, न तपस्वी, न ज्ञानी है, न त्यागी, न वक्ता है और न उपदेशक । शिव के समान ऐश्वर्यशाली भी कोई नहीं है । इसलिए भगवान गिरिजापति की महिमा का गान कौन कर सकता है ? यही इस श्लोक का सार है ।
असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे ।
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी।।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं ।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ।।
हे ईश यदि काले पर्वत की स्याही हो, समुद्र की दवात हो, कल्पवृक्ष की शाखाओं की कलम बने, पृथ्वी कागज बने और इन साधनों से यदि सरस्वती जीवनपर्यन्त आपके गुणों को लिखें तो भी वे आपके गुणों का पार नहीं पा सकेंगी । (श्रीशिवमहिम्न:-स्तोत्र ३२)
अवढरदानी शिव की स्तुति Praise of Avadhardani Shiva
सदाशिव सर्व वरदाता दिगम्बर हो तो ऐसा हो ।
हरे सब दु:ख भक्तन के दयाकर हो तो ऐसा हो ।।
शिखर कैलाश के ऊपर कल्पतरुओं की छाया में ।
रमे नित संग गिरिजा के रमणधर हो तो ऐसा हो ।।
शीश पर गंग की धारा, सुहावे भाल में लोचन ।
कला मस्तक में चन्द्रमा की, मनोहर हो तो ऐसा हो ।।
भयंकर जहर जब निकला, क्षीरसागर के मथने से ।
धरा सब कंठ में पीकर जो विषधर हो तो ऐसा हो ।।
सिरों को काटकर अपने, किया जब होम रावण ने ।
दिया सब राज्य दुनिया का दिलावर हो तो ऐसा हो ।।
किया नन्दी ने जा वन में कठिन तप काल के डर से ।
बनाया खास गण अपना अमरकर हो तो ऐसा हो ।।
बनाये बीच सागर में तीन पुर दैत्य सेना ने ।
उड़ाये एक ही शर में त्रिपुर हर हो तो ऐसा हो ।।
पिता के यज्ञ में जाकर तजी जब देह गिरिजा ने ।
किया सब ध्वंस पल भर में भयंकर हो तो ऐसा हो ।।
देव और दैत्यगण सारे जपें नित नाम शंकर का ।
वो ब्रह्मानन्द दुनिया में उजागर हो तो ऐसा हो ।।
श्री उमा महेश्वर के चरणों में प्रार्थना Prayer at the feet of Shri Uma Maheshwar
झांकी उमा महेश की आठों पहर किया करुं ।
नैनों के पात्र में सुधा भर-भर के मैं पिया करुं ।।
वाराणसी का वास हो, और न कोई पास हो ।
गिरिजापति के नाम का सुमिरन भजन किया करुं ।।
जयति जय महेश हे ! जयति नन्दिकेश हे ! जयति जय उमेश हे ! प्रेम से मैं जपा करुं ।।
अम्बा कहीं श्रमित न हों, सेवा का भार मुझको दो ।
जी भर के तुम पिया करो, घोट के मैं दिया करुं ।।
मन में है तुम्हारी लगन, पर खींचते हैं व्यसन ।
हरदम चलायमन मन, इसका उपाय क्या करुं ।।
भिक्षा में नाथ दीजिए, अपनी शरण में लीजिए ।
ऐसा प्रबन्ध कीजिए, सेवा में मैं रहा करुं ।।
भक्ति सुधा का प्रेम से, प्याला सदा पिया करुं ।
छिद्रयुक्त नौका मेरी जब मंझधार में है आ पड़ी ।
पतवार लेना हाथ में विकल जब मैं हुआ करुं ।।
झगड़े जगत के छोड़कर तेरी शरण में आऊं मैं ।
भगवत भजन में मैं सदा अलमस्त ही रहा करुं ।।
क्षमा प्रार्थना के लिए स्तुति Praise for Forgiveness
यह भवसागर अति अगाध है, पार उतर कैसे बूझै ।
ग्राह मगर बहु कच्छप छाये मार्ग कहो कैसे सूझै ।।
नाम तुम्हारा नौका निर्मल तुम केवट शिव अधिकारी ।
भोलेनाथ भक्त-दुखगंजन भवभंजन शुभ सुखकारी।।
मैं जानूं तुम सद्गुणसागर अवगुण मेरे सब हरियो ।
किंकर की विनती सुन स्वामी सब अपराध क्षमा करियो ।।
तुम तो सकल विश्व के स्वामी मैं हूँ प्राणी संसारी ।
भोलेनाथ भक्त-दुखगंजन भवभंजन शुभ सुखकारी।।
भुक्ति-मुक्ति के दाता शंकर नित्य-निरन्तर सुखकारी ।
भोलेनाथ भक्त-दुखगंजन भवभंजन शुभ सुखकारी।।
अंत में हे गिरिश आपसे यही विनती है कि आप दीनानाथ और दीनबंधु हैं और मैं दीनों का सरदार हूँ। बन्धु का कर्तव्य है कि वह अपने सम्बन्धी को सर्वनाश से बचाए । फिर क्या आप मेरे सारे अपराधों को क्षमाकर मुझे इस घोर भवसागर से नहीं उबारेंगे ? अवश्य उबारेंगे, अन्यथा आप अपने कर्तव्य से च्युत होंगे और आपके ‘दीनबन्धु’ नाम पर बट्टा लग जायेगा ।
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