श्रावणी उपाकर्म विशेष: उपाकर्म क्या है जानें श्रावणी उपाकर्म विधि महत्व और कथा 

Shravani Upakarma उपाकर्म साल में एक बार आता है. ये सावन महीने में आता है, तमिल कैलेंडर के अनुसार ये धनिष्ठा नक्षत्र के दिन आता है. हमारे चार वेदों में ब्राह्मण समुदाय अलग अलग तरीके से उसे मानता है. तो ऋग्वेद मानने वाले ब्राह्मण सावन माह की पूर्णिमा के एक दिन पहले, मतलब शुक्ल पक्ष के श्रावण नक्षत्र में इसे मनाते है, इसे ऋग्वेद उपाकर्म भी कहते है. यजुर्वेद मानने वाले ब्राह्मण इसे सावन महीने की पूर्णिमा के दिन मनाते है. इसे यजुर्वेद उपाकर्म कहते है. इसके अगले दिन गायत्री जप कर संकल्प लिया जाता है. गायत्री जयंती और मन्त्र के बारे में जानने के लिए पढ़े. सामवेद को मानने वाले ब्राह्मण सावन माह की अमावस्या के दुसरे दिन मतलब भाद्रपद की हस्ता नक्षत्र को इसे मनाते है. इसे सामवेद उपाकर्म कहते है. उपाकर्म को उपनयनं एवं उपनायाना भी कहते है.

उपाकर्म इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व 

उपाकर्म का अर्थ है प्रारंभ करना। उपाकरण का अर्थ है आरंभ करने के लिए निमंत्रण या निकट लाना। वैदिक काल में यह वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों का गुरु के पास एकत्रित होने का काल था। इसके आयोजन काल के बारे में धर्मगंथों में लिखा गया है कि जब वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, श्रावण मास के श्रवण व चंद्र के मिलन (पूर्णिमा) या हस्त नक्षत्र में श्रावण पंचमी को उपाकर्म होता है। इस अध्ययन सत्र का समापन, उत्सर्जन या उत्सर्ग कहलाता था। यह सत्र माघ शुक्ल प्रतिपदा या पौष पूर्णिमा तक चलता था।

श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के शुभ दिन रक्षाबंधन के साथ ही श्रावणी उपाकर्म का पवित्र संयोग बनता है। विशेषकर यह पुण्य दिन ब्राह्मण समुदाय के लिए बहुत महत्व रखता है।

क्या होता है श्रावणी उपाकर्म 

जिन लोगों का यज्ञोपवीत संस्कार यानी जनेऊ हो चुका होता है, वे लोग इस दिन अपने पुराने जनेऊ को उतारकर नया जनेऊ धारण करते हैं. इसके लिए सबसे पवित्र और शुभ मुहूर्त रक्षाबंधन को ही माना जाता है

गुरू के सान्निध्य में करें श्रावणी उपाकर्म 

सावन माह के पुर्णिमा के दिन प्रातः काल पवित्र नदी में स्नान करने के पश्चात् श्रावणी उपाकर्म का कार्य किसी योग्य गुरू के सान्निध्य में करें. इस दिन पंचगव्य यानी गौमाता के दूध, दही, घी, गोबर, मूत्र और पवित्र कुश से स्नान करे. इसके साथ पूरे साल किए गए पापों का प्राश्चित करें. इसके बाद अपने इष्ट देवता का ध्यान कर जनेऊ उतारने के मंत्र “एतावद्दिन पर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया. जीर्णत्वात्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथा सुखम्..” का जप करते हुए जनेऊ उतारें. साथ ही जनेऊ पहनने के मंत्र “ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्. आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः”.. का जप करते हुए नया जनेऊ धारण करें.

श्रावणी उपाकर्म का महत्त्व 

हिन्दू धर्म में श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाए जाने वाले श्रावणी उपाकर्म का एक अलग ही महत्व होता है। वहीं, इस महापर्व का संबंध उस पवित्र ब्रह्मसूत्र से है, जिसके तीन धागे देवऋण, पितृऋण के साथ ऋषिऋण के प्रतीक माने जाते हैं। यह ब्रह्मसूत्र, यज्ञोपवीत या कहें तो जनेऊ से जुड़ा पर्व साल भर में एक बार आता है। इसी कारण है कि लोग इस त्योहार का बड़ी बेसब्री से इंतजार करते हैं। इस श्रावणी उपाकर्म को आत्मशुद्धि का पर्व माना जाता है। आइये हम इस पर्व की पूजा विधि के बारे में जानते हैं।

श्रावणी उपाकर्म 

सनातन धर्म में ब्राह्मण समाज से जुड़े लोगों में यज्ञोपवीत या फिर यूं कहें तो जनेऊ बहुत ही अनिवार्य माना गया है। इसी के चलते इस समाज से जुड़े लोगों के लिए श्रावणी उपाकर्म एक विशेष महत्व माना गया है। दरअसल, इस पावन पर्व के शुभ अवसर पर हिंदू धर्म से जुड़े सभी समाज के लोग पूरे निष्ठा के साथ विधि-विधान से अपने जनेऊ को बदलते हैं। उत्तर भारत में लोग इस पर्व को श्रावणी उपाकर्म के नाम से जानते हैं। वहीं अगर दक्षिण भारत की बात की जाए तो इस अबित्तम के नाम से जाना जाता है। दरअसल, श्रावणी उपाकर्म के दिन पूरे विधि-विधान से पुराने जनेऊ उतारकर नया जनेऊ धारण किया जाता है।

जानिए क्या होता है जनेऊ 

सनातन परंपरा अनुसार यज्ञोपवीत यानी जनेऊ एक महत्वपुर्ण संस्कार होता है. इसे धारण करने वाले लोगों को इससे जुड़े नियमों का पालन करना पड़ता है. हिंदू धर्म की मान्यता अनुसार बिना यज्ञोपवीत संस्कार के जनेऊ संस्कार नहीं होने चाहिए.

श्रावणी उपाकर्म तिथि:- श्रावण पूर्णिमा में यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिये।

‘भद्रायां ग्रहणं वापि पोर्णिमास्या यदा भवेत। 

उपाकृतिस्तु पंचम्याम कार्या वाजसेनयिभः’ 

संक्रांति व पूर्णिमा युति या ग्रहण पूर्णिमा युति में वाजसेनी आदि सभी शाखा के ब्राह्मणों को उपाकर्म (श्रावणी) पंचमी को कर लेनी चाहिये। शास्त्र सम्मत श्रावण उपाकर्म भद्रा दोष, ग्रहण युक्त पूर्णिमा, संक्राति युक्त पूर्णिमा में नहीं किया जाता तब उससे पूर्व श्रावण शुक्ल पंचमी नागपंचमी में श्रावणी स्नान उपाकर्म करने के शास्त्रोत्त निर्देश हैं। हेमाद्रिकल्प, स्कंद पुराण, स्मृति महार्णव, निर्णय सिंधु, धर्म सिंधु आदि योतिष व धर्म के निर्णय ग्रंथों में इसके प्रमाण हैं। कुछ ग्रंथों के प्रमाण इस प्रकार हैं-

 ‘श्रावण शुक्लया: पूर्णिमायां ग्रहणं संक्रांति वा भवेतदा।

यजुर्वेदिभिः श्रावण शुक्ल पंचम्यामुपाकर्म कर्तव्यं॥’ 

अर्थात श्रावण पूर्णिमा में यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिये। एक अन्य श्लोक के उल्लेख के अनुसार भद्रा में दो कार्य नहीं करना चाहिये एक श्रावणी अर्थात उपाकर्म, रक्षाबंधन, श्रवण पूजन आदि और दूसरा फाल्गुनि होलिका दहन। भद्रा में श्रावणी करने से राजा की मृत्यु होती है तथा फाल्गुनी करने से नगर ग्राम में आग लगती है तथा उपद्रव होते हैं। श्रावणी अर्थात उपाकर्म रक्षाबंधन, श्रवण पूजन भद्रा के उपरांत ही की जा सकती है। लेकिन ग्रहण युक्त पूर्णिमा भी श्रावणी उपाकर्म में निषिध्द है ब्राह्मणों का यह अतिमहत्वपूर्ण कर्म हैं।

श्रावणी पर्व श्रावणी पर्व द्विजत्व की साधना को जीवन्त, प्रखर बनाने का पर्व है । जो इस पर्व के प्राण-प्रवाह के साथ जुड़ते हैं, उनका द्विजत्व-ब्राह्मणत्व जाग्रत होता जाता है तथा वे आदिशक्ति, गुरुसत्ता के विशिष्ठ अनुदानों के प्रामाणिक पात्र बन जाते हैं। द्विजत्व की साधना को इस पर्व के साथ विशेष कारण से जोड़ा गया है । युगऋषि ने श्रावणी पर्व के सम्बन्ध में लिखा है कि यह वह पर्व है जब ब्रह्म का ‘एकोहं बहुस्यामि’ का संकल्प फलित हुआ। पौराणिक उपाख्यान सबको पता है। भगवान की नाभि से कमलनाल निकली, उसमें से कमल पुष्प विकसित हुआ।

उस पर स्रष्टा ब्रह्मा प्रकट हुए, उन्होंने सृष्टि की रचना की । युगऋषि इस अंलकारिक आख्यान का मर्म स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- “संकल्पशक्ति क्रिया में परिणित होती है और उसी का स्थूल रूप वैभव एवं घटनाक्रम बनकर सामने आता है । नाभि (संकल्प) में से अन्तरंग बहिरंग बनकर विकसित होने वाली कर्म-वर्लरी को ही पौराणिक अलंकरण में कमलबेल कहा गया है । पुष्प इसी बेल का परिपक्व परिणाम है। सृष्टि का सृजन हुआ, इसमें दो तत्व प्रयुक्त हुए- 1. ज्ञान, 2. कर्म ।

इन दोनों के संयोग से सूक्ष्म चेतना, संकल्प शक्ति स्थूल वैभव में परिणत हो गई और संसार का विशाल कलेवर बनकर खड़ा हो गया। उसमें ऋद्धि-सिद्धियों का आनन्द-उल्लास भर गया । यही कमल-पुष्प की पखुड़ियाँ हैं । इसका मूल है ज्ञान और कर्म, जो ब्रह्म की इच्छा और प्रत्यावर्तन प्रक्रिया द्वारा सम्भव हुआ । ज्ञान और कर्म के आधार पर ही मनुष्य की गरिमा का विकास हुआ है ।” मनुष्य की महान गरिमा के अनुरूप जीवन जीने के अभ्यास को द्विजत्व की साधना कहा गया है । द्विजत्व की साधना सहज नहीं है । मन की कमजोरियों और परिस्थितियों की विषमताओं के कारण प्रयास करने पर भी साधकों से चूकें हो जाती हैं ।

समय-समय पर आत्म समीक्षा द्वारा उन भूल-चूकों को चिन्हित करके उन्हें ठीक करना, अपने अन्दर सन्निहित महान सम्भावनाओं को जाग्रत्-साकार करने के प्रयास करना जरूरी होता है। इस सदाशयतापूर्ण संकल्प को पूरा करने के लिए श्रावणी पर्व-ब्राह्मी संकल्प के फलित होने वाले पर्व से श्रेष्ठ और कौन-सा समय हो सकता है ? इसलिए ऋषियों ने द्विजत्व के परिमार्जन-विकास के लिए श्रावणी पर्व को ही चुना है।

श्रावणी उपाकर्म विधि 

श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है- प्रायश्चित्त संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। सर्वप्रथम होता है।

प्रायश्चित्त रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्ष भर में जाने- अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। आज के दिन जिनका यज्ञोपवित संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवित उतारकर नया धारण करते हैं। और पुराने यज्ञोपवित का पूजन भी करते हैं । इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है।

उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस सत्र का अवकाश समापन से होता है।

इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है। वर्तमान में श्रावणी पूर्णिमा के दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं। प्रतीक रूप में किया जाने वाला यह विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है। यह जीवन शोधन की एक अति महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक आध्यात्मिक प्रक्रिया है । उसे पूरी गम्भीरता के साथ किया जाना चाहिए । श्रावणी पर्व वैदिक काल से शरीर, मन और इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व माना जाता है । इस पर्व पर की जाने वाली सभी क्रियाओं का यह मूल भाव है कि बीते समय में मनुष्य से हुए ज्ञात-अज्ञात बुरे कर्म का प्रायश्चित करना और भविष्य में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देना।

द्विज और द्विजत्व द्विज सम्बोधन यहाँ किसी जाति-वर्ग विशेष के लिए नहीं है, यह एक गुणवाचक सम्बोधन है । जीवन साधना की उच्चतम कक्षा के सफल साधक का पर्याय है। द्विज का अर्थ होता है दुबारा जन्म लेने वाला । संस्कृत साहित्य में पक्षियों को भी द्विज कहा जाता है । माँ जन्म देती है अण्डे को । माँ के गर्भ से जन्म ले लेने की प्रक्रिया पूरी हो जाने पर भी बच्चे का स्वरूप जन्मदात्री के स्वरूप के अनुरूप नहीं होता । परन्तु अण्डे के अंदर जो जीव है, उसमें जन्मदात्री के अनुरूप विकसित होने की सभी संभावनाएँ होती हैं । प्रकृति के अनुशासन का पालन किये जाने पर उसका समुचित विकास हो जाता है और वह अण्डे में बँधी अपनी संकीर्ण सीमा को तोड़कर अपने नये स्वरूप में प्रकट हो जाता है ।

इस प्रक्रिया को उसका दूसरा जन्म कहना हर तरह से उचित है यह प्रक्रिया पूरी होने पर ही उसे प्रकृति की विराटता का बोध होता है। तभी माँ उसे उड़ने का प्रशिक्षण देती है । ऋषियों ने अनुभव किया कि मनुष्य स्रष्टा की अद्भुत कृति है । उसमें दिव्य शक्तियों, क्षमताओं के विकास की अनंत सँभावनाएँ हैं सामान्य रूप से तो माँ के गर्भ से जन्म लेने के बाद भी वह पशुओं जैसी आहार, निद्रा, भय, मैथुन की संकीर्ण प्रवृत्तियों के घेरे में ही कैद रहता है। मनुष्य की अंतःचेतना जब पुष्ट होकर संकीर्णता के उस अण्डे जैसे घेरे को तोड़कर बाहर आने का पुरुषार्थ करती है, तब उसका दूसरा जन्म होता है। तभी माता (आदिरशक्ति) उसे सदाशयता और सत्पुरुषार्थ (सद्ज्ञान एवं सत्कर्म) के पंख फैलाकर जीवन की ऊँचाइयों में उड़ने का प्रशिक्षण देती है ।

श्रावणी उपाकर्म तैयारी करें

जो साधक वास्तव में इसका यथेष्ट लाभ उठाना चाहते हैं, उन्हें इसके लिए कम से कम एक दिन पूर्व से विचार मंथन करना चाहिए । गुरुदीक्षा के समय अथवा अगले चरण के साधना प्रयोगों में जो नियम-अनुशासन स्वीकार किये गये थे, उन पर ध्यान दिया जाना चाहिए । भूलों को समझे और स्वीकार किए बिना उनका शोधन संभव नहीं । आत्मसाधना में समीक्षा के बाद ही शोधन, निर्माण एवं विकास के कदम बढ़ाये जा सकते हैं । जो भुल-चूकें हुई हों, उन्हें गुरुसत्ता के सामने सच्चे मन से स्वीकार किया जाना चाहिए । क्षति पूर्ति के लिए अपने कत्तव्य निश्चित करके गुरुसत्ता से उसमें समुचित सहायता की प्रार्थना करनी चाहिए ।

श्रावणी उपाकर्म के सामूहिक क्रम में जो शामिल हों, उन्हें सामूहिक कर्मकाण्ड का लाभ तभी मिलेगा, जब वे उसके लिए व्यक्तिगत मंथन कर चुके होंगे । उसके बाद शिखा सिंचन उच्च विचार-ज्ञान साधना को तेजस्वी बनने के लिए किया जाता है । यज्ञोपवीत परिवर्तन यज्ञीय कर्म अनुशासन को अधिक प्रखर प्रामाणिक बनाने के लिए किया जाता है । ब्रह्मा का, वेद का और ऋषियों का आवाहन, पूजन उनकी साक्षी में संकल्प करने तथा उनके सहयोग से आगे बढ़ते रहने के भाव से किया जाता है। रक्षाबंधन प्रगति के श्रेष्ठ संकल्पों को पूरा करने के भाव से किया-कराया जाता है ।

प्रकृति के अनुदानों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के साथ उसके ऋण से यथाशक्ति उऋण होने के भाव से वृक्षारोपण करने का नियम है । श्रावणी पर हर दीक्षित साधक को साधना का परिमार्जन करने के साथ उसको श्रेष्ठतर स्तरों पर ले जाने के संकल्प करने चाहिए । ऐसा करने वाले साधक ही इष्ट, गुरु या मातृसत्ता के उच्च स्तरीय अनुदानों को प्राप्त करने की पात्रता अर्जित कर सकते हैं। यदि सामूहिक पर्व क्रम में शामिल होने का सुयोग न बने तथा विशेष कर्मकाण्डों का करना-कराना संभव न हो, तो भी अपने साधना स्थल पर भावनापूर्वक पर्व के आवश्यक उपचारों द्वारा श्रावणी के प्राण- प्रवाह से जुड़कर उसका पर्याप्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है । इसके लिए सभी को एक दिन पहले से ही जागरूकता पूर्वक प्रयास करने कराने चाहिए।

भूलों के सुधार तथा विकास के लिए निर्धारित नियमों को लिखकर पूजा स्थल पर रख लेना चाहिए । उपासना के समय उन पर दृष्टि पड़ने से होने वाली भूलों, विसंगतियों से बचना संभव होता है । हमारे सार्थक प्रयास हमें उच्च स्तरीय प्रगति का अधिकारी बना सकते हैं।

उपाकर्म के लिये सामग्री 

1. हल्दी

2. कलावा (मौली)

3. अगरबत्ती

4. कपूर

5. तिल

6. जो

7. यज्ञोपवीत

8. चावल

9. अबीर

10. गुलाल

11. माचिस

12. सिंदूर

13. रोली

14. सुपारी, (बड़ी)

15. नारियल

16. सरसो

17. हवन सामग्री

18. शहद (मधु)

19. शक्कर

20. घृत (शुद्ध घी)

21. अगरबत्ती

22. धुप बत्ती

23. सप्तमृत्तिका

हाथी के स्थान की मिट्टि, घोड़ा बांधने के स्थान की मिट्टी, बॉबी की मिट्टी, दीमक की मिट्टी, नदी संगम की मिट्टी, तालाब की मिट्टी, गौ शाला की मिट्टी, राज द्वार की मिटटी

24. पंचगव्य

गाय का गोबर, गौ मूत्र, गौ घृत, गाय का दूध, गाय का दही

25. सप्त धान्य

कुलबजन- 100ग्राम, जौ, गेहूँ, चावल, तिल, काँगनी, उड़द, मूँग

26. कुशा

27. दूर्वा

28. पुष्प कई प्रकार के

29. गंगाजल

30. ऋतुफल

31. स्वेतवस्त्र

ब्राह्मण को अपने लिए उपयोगी सामग्री 

धोती, दुपट्टा, आंगोछा, आसन, माला, गौमुखी, लोटा, पंचपात्र, चमची, तष्टा, अर्घा, डाभ अंगूठी, जनेऊ गांठ लगा हुआ।

श्रावणी रक्षाबंधन के दिन उपाकर्म के अंतर्गत पाप कर्म की मुक्ति के लिए इन 10 चीजों से एक एक करके स्नान किया जाता हैं- मिट्टी, गाय का गोबर, गाय का दूध, गाय का घी, गाय का पंचगव्य, भस्म, अपामार्ग, कुशा+दूर्वा, शहद एवं गंगाजल, आदि 10 पदार्थो के द्वारा स्नान किया जाता है । इस स्नान से शारीरिक शुद्धि होती है और ऋषिपूजन, देवपूजन, द्वारा आध्यात्मिक शांति प्राप्त होती है। इस क्रम को करने के बाद नये यज्ञोपवित का पूजन कर पहनने के बाद पुराने को बदला जाता हैं, बाद में हवन करके सूर्य भगवान को अर्घ्य चढ़ाया जाता है । साथ इस दिन आत्मशुद्धि के बाद वेद शास्त्रों के अध्यन का भी नियम होता है

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उपाकर्म व अवनी अवित्तम से जुड़ी कहानी 

भगवान् विष्णु के अवतार हयाग्रिवा ने जिस दिन धरती पर अवतार लिया था, उस दिन को हयाग्रिवा जयंती के रूप में मनाते है. हयाग्रिवा भगवान् विष्णु का एक अद्भुत अवतार है. उनका सर घोड़े का होता है, लेकिन धड़ (शरीर) मानव जैसा होता है. असुरों से वेदों को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने ये अवतार लिया था. इसी दिन को ब्राह्मण उपाकर्म या अवनि अवित्तम के रूप में मनाते है.

हयाग्रिवा अवतार या जयंती 

भगवन विष्णु ने सावन माह की पूर्णिमा के दिन घोड़े के रूप में अवतार लिया था. असुरी शक्ति मधु और कैताभा ने वेद को भगवान् ब्रम्हा से चुरा लिया था. इसे बचाने के लिए विष्णु ने अवतार लिया था.

भगवान विष्णु ने जब भगवान् ब्रह्मा जी को बनाया था, तब उन्होंने उन्हें सारे वेद पुराण का ज्ञान अच्छे से दिया था. जब ब्रह्मा जी को इन सब का अच्छे से ज्ञान हो जाता है तो उन्हें लगता है वे ही केवल इकाई है. वे गर्व से भर जाते है उन्हें लगता है, सभी अनन्त और पवित्र वेदों का ज्ञान केवल उन्हें ही है. जब भगवान् विष्णु को ये पता चलता है तो वे कमल के फूल की दो पानी की बूंदों से असुर मधु और कैताभा को जन्म देते है. फिर विष्णु उन असुरों को बोलते है कि वे जाकर ब्रम्हा से उन वेदों को चुरा लें और कहीं छुपा दें. वेद चोरी हो जाने के बाद ब्रह्मा अपने आप को इसका ज़िम्मेदार समझते है,

उन्हें लगता है कि दुनिया की सबसे पवित्र, अनमोल चीज को बचा नहीं पाए, जिसके बाद वे भगवान् विष्णु से मदद के लिए प्रार्थना करते है. भगवान विष्णु हयाग्रिवा या हयावदाना का अवतार लेते है, और सभी वेदों को बचा लेते है. इस प्रकार ब्रह्मा का गर्व भी नष्ट हो जाता है. इस प्रकार हयाग्रिवा की उत्पत्ति का दिन हयाग्रिवा जयंती और उपाकर्म के रूप में मनाया जाता है.

जिस तरह वेद को बचाकर भगवान् विष्णु ने नयी रचना की थी, उपाकर्म को भी मनाने का यही उद्देश्य है, नयी रचना, नया आरम्भ. असम के हाजो में हयाग्रिवा माधव मंदिर है, जहाँ भगवान् हयाग्रिवा की पूजा अर्चना की जाती है. हयाग्रिवा अवतार को महाभारत एवं पुराण में शांति पर्व के रूप में व्याखित किया गया है. यह भगवान विष्णु के कम प्रसिद्ध अवतारों में से एक है. कुछ क्षेत्रों में, हयाग्रीवा को वेदों का संरक्षक देवता कहा जाता है।

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