श्री दुर्गासप्तशती पाठ छठा अध्याय अर्थ सहित (हिंदी अनुवाद सहित सम्पूर्ण)

।।ॐ नमश्चण्डिकायै।।

षष्ठोऽध्यायः

इस अध्याय का पाठ किसी भी प्रकार की तंत्र बाधा हटाने के लिए किया जाता है।इसके अलावा आपको लगता है कि आपके ऊपर जादू ,टोना किया गया हो,आपके परिवार को बांध दिया हो,या राहु और केतु से आप पीड़ित हो तो छठवें अध्याय का पाठ इन सभी कष्टों से आपको मुक्ति दिलाता है।

ध्यानम्

ॐ नागाधीश्वरविष्टरां फणिफणोत्तंसोरुरत्नावली

भास्वद्देहलतां दिवाकरनिभां नेत्रत्रयोद्धासिताम्।

मालाकुम्भकपालनीरजकरां चन्द्रार्धचूडां परां

सर्वज्ञेश्वरभैरवाङ्कनिलयां पद्मावतीं चिन्तये॥

मैं सर्वज्ञेश्वर भैरव के अंक में निवास करने वाली परमोत्कृष्ट पद्मावती देवी का चिन्तन करता हूँ। वे नागराज के आसन पर बैठी हैं, नागों के फणों में सुशोभित होने वाली मणियों की विशाल माला से उनकी देहलता उद्भासित हो रही है। सूर्य के समान उनका तेज है, तीन नेत्र उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। वे हाथों में माला, कुम्भ, कपाल और कमल लिये हुए हैं तथा उनके मस्तक में अर्धचन्द्र का मुकुट सुशोभित है।

ॐ’ ऋषिरुवाच॥ १ ॥

ऋषि कहते हैं-॥१ ॥

इत्याकर्ण्य वचो देव्याः स दूतोऽमर्षपूरितः।

समाचष्ट समागम्य दैत्यराजाय विस्तरात् ॥ २॥

देवी का यह कथन सुनकर दूत को बड़ा अमर्ष हुआ और उसने दैत्यराज के पास जाकर सब समाचार विस्तारपूर्वक कह सुनाया॥ २ ॥

तस्य दूतस्य तद्वाक्यमाकण्य्यासुरराट् ततः।

सक्रोधः प्राह दैत्यानामधिपं धूम्रलोचनम् ॥ ३ ॥

दूत के उस वचन को सुनकर दैत्यराज कुपित हो उठा और दैत्यसेनापति धूम्रलोचनसे बोला- ॥ ३ ॥

हे धूम्रलोचनाशु त्वं स्वसैन्यपरिवारितः ।

तामानय बलाद् दुष्टां केशाकर्षणविह्वलाम् ॥ ४ ॥

धूम्रलोचन! तुम शीघ्र अपनी सेना साथ लेकर जाओ और उस दुष्टा के केश पकड़कर घसीटते हुए उसे बलपूर्वक यहाँ ले आओ ॥ ४ ॥

तत्परित्राणदः कश्चिद्यदि वोत्तिष्ठतेऽपरः ।

स हन्तव्योऽमरो वापि यक्षो गन्धर्व एव वा॥ ५ ॥

उसकी रक्षा करने के लिये यदि कोई दूसरा खड़ा हो तो वह देवता, यक्ष अथवा गरन्धर्व ही क्यों न हो, उसे अवश्य मार डालना’॥ ५ ॥

ऋषिरुवाच॥ ६॥

ऋषि कहते हैं-॥६॥

तेनाज्ञप्तस्ततः शीघ्रं स दैत्यो धूम्रलोचनः ।

वृतः षष्ट्या सहस्त्राणामसुराणां द्रुतं ययौ॥ ७ ॥

शुम्भ के इस प्रकार आज्ञा देने पर वह धूम्रलोचन दैत्य साठ हजार असुरों की सेना को साथ लेकर वहाँसे तुरंत चल दिया॥ ७ ॥

स दृष्ट्वा तां ततो देवीं तुहिनाचलसंस्थिताम्।

जगादोच्चैः प्रयाहीति मूलं शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ८ ॥

न चेत्प्रीत्याद्य भवती मद्धत्तरमुपैष्यति।

ततो बलान्नयाम्येष केशाकर्षणविह्वलाम् ॥ ९ ॥

वहाँ पहुँचकर उसने हिमालय पर रहने वाली देवी को देखा और ललकारकर कहा- ‘अरी ! तू शुम्भ-निशुम्भ के पास चल । यदि इस समय प्रसन्नतापूर्वक मेरे स्वामी के समीप नहीं चलेगी तो मैं बलपूर्वक झोंटा पकड़कर घसीटते हुए तुझे ले चलूँगा’॥ ८-९॥

देव्युवाच॥ १० ॥

देवी बोलीं-॥ १०॥

दैत्येश्वरेण प्रहितो बलवान् बलसंवृतः ।

बलान्नयसि मामेवं ततः किं ते करोम्यहम् ।॥ ११ ॥

तुम्हें दैत्यों के राजाने भेजा है, तुम स्वयं भी बलवान् हो और तुम्हारे साथ विशाल सेना भी है; ऐसी दशा में यदि मुझे बलपूर्वक ले चलोगे तो मैं तुम्हारा क्या कर सकती हूँ? ॥ ११ ॥

ऋषिरुवाच॥ १२॥

ऋषि कहते हैं-॥ १२॥

इत्युक्तः सोऽभ्यधावत्तामसुरो धूम्रलोचनः ।

हुंकारेणैव तं भस्म सा चकाराम्बिका ततः ॥ १३ ॥

देवी के यों कहने पर असुर धूम्रलोचन उनकी ओर दौड़ा, तब अम्बिकाने ‘हुं’ शब्द के उच्चारणमात्र से उसे भस्म कर दिया॥ १३ ॥ 

अथ क्रुद्धं महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका’।

ववर्ष सायकैस्तीक्ष्णैस्तथा शक्तिपरश्वधैः ॥ १४॥

फिर तो क्रोधमें भरी हुई दैत्यों की विशाल सेना और अम्बिका ने एक-दूसरे पर तीखे सायकों, शक्तियों तथा फरसों की वर्षा आरम्भ की ॥ १४॥

ततो धुतसटः कोपात्कृत्वा नादं सुभैरवम् ।

पपातासुरसेनायां सिंहो देव्याः स्ववाहन: ॥ १५ ॥।

इतने में ही देवी का वाहन सिंह क्रोध में भरकर भयंकर गर्जना करके गर्दन के बालों को हिलाता हुआ असुरों की सेना में कूद पड़ा ॥ १५॥

कांश्चित् करप्रहारेण दैत्यानास्येन चापरान्।

आक्रम्य चाधरेणान्यान् स जघान महासुरान् ॥ १६॥

उसने कुछ दैत्यों को पंजों की मार से, कितनों को अपने जबड़ों से और कितने ही महादैत्यों को पटककर ओठ की दाढ़ों से घायल करके मार डाला॥ १६ ॥

केषांचित्पाटयामास नखैः कोष्ठानि केसरी”।

तथा तलप्रहारेण शिरांसि कृतवान् पृथक् ॥ १७॥

उस सिंह ने अपने नखों से कितनों के पेट फाड़ डाले और थप्पड़ मारकर कितनों के सिर धड़ से अलग कर दिये॥ १७॥

विच्छिन्नबाहुशिरसः कृतास्तेन तथापरे।

पपौ च रुधिरं कोष्ठादन्येषां धुतकेसरः ॥ १८॥

कितनों की भुजाएँ और मस्तक काट डाले तथा अपनी गर्दन के बाल हिलाते हुए उसने दूसरे दैत्यों के पेट फाड़कर उनका रक्त चूस लिया॥ १८॥

क्षणेन तद्बलं सर्वं क्षयं नीतं महात्मना ।

तेन केसरिणा देव्या वाहनेनातिकोपिना ॥ १९॥

अत्यन्त क्रोध में भरे हुए देवी के वाहन उस महाबली सिंहने क्षणभर में ही असुरों की सारी सेना का संहार कर डाला॥ १९ ॥

श्रुत्वा तमसुरं देव्या निहतं धूम्रलोचनम् ।

बलं च क्षयितं कृत्स्नं देवीकेसरिणा ततः॥ २०॥

चुकोप दैत्याधिपतिः शुम्भः प्रस्फुरिताधरः।

आज्ञापयामास च तौ चण्डमुण्डौ महासुरौ॥ २१ ॥

शुम्भने जब सुना कि देवी ने धूम्रलोचन असुर को मार डाला तथा उसके सिंह ने सारी सेना का सफाया कर डाला, तब उस दैत्यराज को बड़ा क्रोध हुआ। उसका ओठ कॉँपने लगा। उसने चण्ड और मुण्ड नामक दो महादैत्यों को आज्ञा दी-॥ २०-२१ ॥

हे चण्ड हे मुण्ड बलैर्बहुभि: परिवारितौ ।

तत्र गच्छत गत्वा च सा समानीयतां लघु॥ २२ ॥

कैशेष्वाकृष्य बद्ध्वा वा यदि वः संशयो युधि।

तदाशेषायुधैः सर्वैरसुरैर्विनिहन्यताम् ॥ २३॥

‘हे चण्ड! और हे मुण्ड! तुमलोग बहुत बड़ी सेना लेकर वहाँ जाओ, उस देवी के झोंटे पकड़कर अथवा उसे बाँधकर शीघ्र यहाँ ले आओ। यदि इस प्रकार उसको लानेमें संदेह हो तो युद्धमें सब प्रकारके अस्त्र शस्त्रों तथा समस्त आसुरी सेना का प्रयोग करके उसकी हत्या कर डालना।॥ २२-२३॥

तस्यां हतायां दुष्टायां सिंहे च विनिपातिते।

शीघ्रमागम्यतां बद्ध्वा गृहीत्वा तामथाम्बिकाम्। ॥ॐ ॥ २४॥

उस दुष्टाकी हत्या होने तथा सिंह के भी मारे जाने पर उस अम्बिका को बाँधकर साथ ले शीघ्र ही लौट आना’ ॥ २४॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णि के मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये शुम्भनिशुम्भ सेनानी धूम्रलोचन वधो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य में ‘धूम्रलोचन- वध’ नामक छठा अध्याय पूरा हुआ॥ ६ ॥

क्रमशः.. अगले लेख में सप्तम अध्याय जय माता जी की। 

Must Read Puja Path Rules: जानें क्या मासिक धर्म के दौरान क्या पूजा पाठ की जा सकती हैं जानें मासिक धर्म पूजा के नियम