माहेश्वरी शक्ति स्वरुपिणी षोडशी सबसे मनोहर श्रीविग्रह वाली सिद्ध देवी हैं। महाविद्याओं में भगवती षोडशी का तीसरा स्थान है। षोडशी महाविद्या को श्रीविद्या भी कहा जाता है। षोडशी महाविद्या के ललिता, त्रिपुरा, राज राजेश्वरी, महात्रिपुरसुन्दरी, बालापञ्चदशी आदि अनेक नाम हैं। लक्ष्मी सरस्वती, ब्रह्माणी – तीनों लोकों की सम्पत्ति एवं शोभा का ही नाम श्री है। ‘त्रिपुरा’ शब्द का अर्थ बताते हुए- ‘शक्तिमहिम्न स्तोत्र’ में कहा गया है

श्री माँ महाविद्या 

‘तिसृभ्यो मूर्तिभ्यः पुरातनत्वात् त्रिपुरा।

अर्थात जो ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश- इन तीनों से पुरातन हो वही त्रिपुरा हैं। ‘त्रिपुरार्णव’ ग्रन्थ में कहा गया है

नाडीत्रयं तु त्रिपुरा सुषुम्ना पिङ्गला विडा।

मनो बुद्धिस्तथा चित्तं पुरत्रयमुदाहृतम्।

तत्र तत्र वसत्येषा तस्मात् तु त्रिपुरा मता।।

अर्थात ‘सुषुम्ना, पिंगला और इडा – ये तीनों नाडियां हैं और मन, बुद्धि एवं चित्त – ये तीन पुर हैं। इनमें रहने के कारण इनका नाम त्रिपुरा है।

प्रशान्त हिरण्यगर्भ ही शिव हैं और उन्हीं की शक्ति षोडशी जी हैं। तन्त्रशास्त्रों में महाविद्या षोडशी देवी को पञ्चवक्त्रा अर्थात् पाँच मुखों वाली बताया गया है। चारों दिशाओं में चार मुख और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें पञ्चवक्त्रा कहा जाता है। देवी के पाँचों मुख तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव अघोर और ईशान शिव के पाँचों रूपों के प्रतीक हैं। पाँचों दिशाओं के रंग क्रमशः हरित, रक्त, धूम्र, नील और पीत होने से ये मुख भी इन्हीं रंगों के हैं । देवी षोडशी के दस हाथों में क्रमश: अभय, टंक, शूल, वज्र, पाश, खड्ग, अंकुश, घण्टा, नाग और अग्नि हैं। षोडश कलाएँ पूर्णरूप से विकसित होने के कारण ये महाविद्या षोडशी कहलाती हैं।

त्रिपुरारहस्य में वर्णन है कि त्रिपुराम्बा ललिता भगवती ने भण्डासुर नामक असुर का वध किया था। ललिता मां को आद्याशक्ति माना जाता है। अन्य विद्याएँ भोग या मोक्ष में से एक ही देती हैं परंतु भगवती महात्रिपुरसुंदरी ललिता महाविद्या अपने उपासक को भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करती हैं। इन आद्याशक्ति षोडशी महाविद्या के स्थूल, सूक्ष्म, पर तथा तुरीय चार रूप हैं।

एक बार पराम्बा पार्वतीजी ने भगवान् शिव से पूछा- “भगवन्  आपके द्वारा प्रकाशित तन्त्रशास्त्र की साधना से जीव के आधि-व्याधि, शोक-संताप, दीनता-हीनता तो दूर हो जायेंगे किन्तु गर्भवास और मरण के असह्य दुःख की निवृति तो इससे नहीं होगी। कृपा करके इस दुःख से निवृत्ति और मोक्षपद की प्राप्ति का कोई उपाय बताइये ।”

परम कल्याणमयी पराम्बा के अनुरोध पर भगवान् शंकर ने षोडशी श्रीविद्यासाधना-प्रणाली को प्रकट किया। भगवान् शङ्कराचार्य ने भी श्रीविद्या के रूप में इन्हीं षोडशी देवी की उपासना की थी। इसीलिये आज भी सभी शाङ्कर पीठों में भगवती षोडशी राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी की श्रीयन्त्र के रूप में आराधना करने की परम्परा चली आ रही है।

भैरवयामल तथा शक्तिलहरी में षोडशी मां की उपासना का विस्तृत परिचय मिलता है। दुर्वासा ऋषि श्रीविद्याके परमाराधक हुए हैं। षोडशी महाविद्या की उपासना श्रीचक्र में होती है। श्रीयन्त्र को यन्त्रराज की संज्ञा दी गई है इसमें दसों महाविद्याओं का अर्चन सम्पन्न हो जाता है। यदि पूजा के लिए कोई विग्रह उपलब्ध न हो तो मान्यता है कि शालग्राम, पारद शिवलिंग और श्रीयन्त्र इन तीनों में से कोई एक विग्रह भी उपलब्ध हो तो उसमें ही समस्त देवी-देवताओं की आराधना सम्पन्न की जा सकती है।

इस लोक में श्रीविद्या का सामान्य ज्ञान रखने वाले कुछ साधक तो सुलभ हैं परंतु विशेष ज्ञाता अत्यन्त दुर्लभ हैं। कारण, श्रीविद्या रहस्यमयी गुप्तविद्या है, इसका मंत्रोपदेश गुरु परम्परा द्वारा योग्य साधकों को ही दिया जाता है। भगवती की आराधना खाली दिखावे के लिये नहीं होनी चाहिये। उत्तम तो यही है कि जिनके पास पर्याप्त समय हो, विश्वास हो, श्रद्धा हो, जो नित्य इसका जप आदि कर सकने में सक्षम हों वे ही योग्य गुरु से श्रीविद्या के मन्त्र की दीक्षा लें और नित्य जपादि करें। हालांकि योग्य गुरु न मिलने पर आगमोक्त “मन्त्र ग्रहण विधि” का आश्रय लेकर भी साधक स्वयमेव दीक्षित हो सकता है परन्तु मार्गदर्शन तो गुरु ही करता है। इस श्रीविद्या का प्रकाशन हर किसी के समक्ष नहीं करना चाहिये। सामान्य आराधकों को स्तोत्रों के पाठ से ही भगवती की आराधना करनी चाहिये।

श्रीविद्योपासक दुर्गुणों का सर्वथा त्याग करे, श्रीविद्या की आराधना में सुपात्र बनना अति आवश्यक है। गुणवानों की निरन्तर निन्दा करने वाले, आर्जवशून्य (जिसमें इंद्रियों का दासत्व, सीधेपन का अभाव हो,कुटिल), नित्य स्त्रीप्रसंग करने वाले, उद्दण्ड, मन-वाणी-कर्म से गुरूभक्तिहीनता आदि दोषों से युक्त व्यक्ति से श्रीविद्या की सदा रक्षा करनी

चाहिये। ‘षोडशिकार्णव’ में कहा गया है “पराये गुरु के शिष्यों, नास्तिकों को, सुनने की अनिच्छा वालों को एवं अर्थ का अनर्थ ढाने वालों को यह विद्या कभी नहीं देनी चाहिये। अन्यथा उपदेष्टा गुरु शिष्य के पापों से लिप्त हो जाता है।” ध्यान की महिमा मन्त्र जप से भी अधिक बतलाई गई है। आद्याशक्ति श्रीविद्या के ये तीन प्रकार के मुख्य स्वरूप हैं- श्री बाला त्रिपुरसुन्दरी, श्री षोडशी त्रिपुरसुन्दरी और श्री ललिता त्रिपुरसुन्दरी।

श्रीविद्या की विस्तृत पूजा के विधि-विधान बहुत समयसाध्य हैं, अतः खड्गमाला, अष्टोत्तरशत नाम, सहस्रनाम आदि स्तोत्रों के द्वारा भी श्री ललिता महाविद्या की आराधना की जाती है। तन्त्र ग्रन्थों में षोडशी महाविद्या के प्रातः स्मरण, शतनाम, सहस्रनाम, मानस पूजन, कवच, हृदय, खड्गमाला आदि बहुत से उत्तम स्तोत्र मिलते हैं जिनके माध्यम से भगवती षोडशी की स्तोत्रात्मक स्तुति उत्तम प्रकार से की जाती है। आद्य शंकराचार्य जी द्वारा रचित ‘सौंदर्य लहरी’ नामक स्तोत्र सौ श्लोकों का है।

श्रीविद्या के सामान्य आराधकों को भगवती के विविध स्तोत्रों का सहारा ले लेना चाहिये। धर्मग्रन्थों में भगवती महात्रिपुरसुन्दरी के विविध स्तोत्रों का विशाल संग्रह प्राप्त होता है। यहां भगवती ललिताम्बा का प्रातः स्मरण स्तोत्र प्रस्तुत है, शङ्कराचार्यजी के द्वारा रचित इस स्तोत्र को ललितापंचक स्तोत्र अथवा ललिता पञ्चरत्न स्तोत्र भी कहा जाता है।

श्रीललितापञ्चरत्नम्

प्रात: स्मरामि ललिता-वदनारविन्दं विम्बाधरं पृथुल-मौक्तिक-शोभिनासम्। आकर्णदीर्घनयनं मणिकुण्डलाढ्यं मन्दस्मितं मृगमदोज्ज्वलभालदेशम्॥१॥

प्रातःकाल ललितादेवी के उस मनोहर मुखकमल का स्मरण करता हूँ, जिनके बिम्बसमान रक्तवर्ण अधर, विशाल मौक्तिक(मोती के बुलाक) से सुशोभित नासिका और कर्णपर्यन्त फैले हुए विस्तीर्ण नयन हैं जो मणिमय कुण्डल और मन्द मुसकान से युक्त हैं तथा जिनका ललाट कस्तूरिकातिलक से सुशोभित है।

प्रातर्भजामि ललिताभुजकल्पवल्लीं रक्ताङ्गुलीय-लसदङ्गुलि-पल्लवाढ्याम्। माणिक्यहेम-वलयाङ्गद-शोभमानां पुण्ड्रेक्षुचाप-कुसुमेषु-सृणीदधानाम्॥२॥

मैं श्रीललिता देवी की भुजारूपिणी कल्पलता का प्रातःकाल स्मरण करता हूँ जो लाल अंगूठी से सुशोभित सुकोमल अंगुलिरूप पल्लवों वाली तथा रत्नखचित सुवर्णकंकण और अंगदादि से भूषित है एवं जिन्होंने पुण्डू-ईख के धनुष, पुष्पमय बाण और अंकुश धारण किये हैं।

प्रातर्नमामि ललिताचरणारविन्दं भक्तेष्टदाननिरतं भवसिन्धुपोतम्। पद्मासनादि-सुरनायकपूजनीयं पद्माङ्कुश-ध्वज-सुदर्शन-लाञ्च्छनाढ्यम्॥३॥

मैं श्रीललितादेवी के चरणकमलों को, जो भक्तों को अभीष्ट फल देने वाले और संसारसागर के लिये सुदृढ़ जहाजरूप हैं तथा कमलासन श्रीब्रह्माजी आदि देवेश्वरों से पूजित और पद्म, अंकुश, ध्वज एवं सुदर्शनादि मंगलमय चिह्नों से युक्त हैं, प्रातःकाल नमस्कार करता हूँ।

प्रात: स्तुवे परशिवां ललितां भवानी त्रय्यन्त-वेद्यविभवां करुणानवद्याम्।

विश्वस्य सृष्टिविलयस्थिति-हेतुभूतां विद्येश्वरीं निगम-वाङ्गनसातिदूराम्॥४॥

मैं प्रातःकाल परमकल्याणरूपिणी श्रीललिता भवानी की स्तुति करता हूँ जिनका वैभव वेदान्तवेद्य है जो करुणामयी होने से शुद्धस्वरूपा हैं, विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय की मुख्य हेतु हैं, विद्याकी अधिष्ठात्री देवी हैं तथा वेद, वाणी और मन की गति से अति दूर हैं।

प्रातर्वदामि ललिते तव पुण्यनाम कामेश्वरीति कमलेति महेश्वरीति। श्रीशाम्भवीति जगतां जननी परेति वाग्देवतेति वचसा त्रिपुरेश्वरीति॥५॥

हे ललिते! मैं तेरे पुण्यनाम कामेश्वरी, कमला, महेश्वरी, शाम्भवी, जगज्जननी, परा, वाग्देवी तथा त्रिपुरेश्वरी आदि का प्रातःकाल अपनी वाणी द्वारा उच्चारण करता हूँ।

य: श्लोकपञ्चकमिदं ललिताम्बिकाया: सौभाग्यदं सुललितं पठति प्रभाते। तस्मै ददाति ललिता झटिति प्रसन्ना विद्यां श्रियं विमल-सौख्यमनन्तकीर्तिम्॥६॥

माता ललिता के अति सौभाग्यप्रद और सुललित इन पाँच श्लोकों को जो पुरुष प्रातःकाल पढ़ता है उसे शीघ्र ही प्रसन्न होकर ललितादेवी विद्या, धन, निर्मल सुख और अनन्त कीर्ति देती हैं।

॥श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं श्रीललितापञ्चरत्नम् तत्सत्॥ 

भगवान् आद्य शङ्कराचार्य ने सौन्दर्यलहरी में ललिताम्बा षोडशी श्रीविद्या की स्तुति करते हुए कहा है कि “अमृत के समुद्र में एक मणि का द्वीप है, जिसमें कल्पवृक्षों की बारी है, नवरत्नों के नौ परकोटे हैं उस वन में चिन्तामणि से निर्मित महल में ब्रह्ममय सिंहासन है जिसमें पञ्चकृत्य के देवता ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर आसन के पाये हैं और सदाशिव फलक हैं। सदाशिव की नाभि से निर्गत कमल पर विराजमान भगवती षोडशी त्रिपुरसुन्दरी का जो ध्यान करते हैं वे धन्य हैं। भगवती ललिता के प्रभाव से उन्हें भोग और मोक्ष दोनों सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं।”

जो षोडशी माता का आश्रय ग्रहण कर लेते हैं उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता है। वस्तुत: ललिताम्बा भगवती षोडशी की महिमा अवर्णनीय है। श्रीचक्रवासिनी षोडशी महाविद्या सर्वत्र व्याप्त हैं। संसार के समस्त मन्त्र-तन्त्र इनकी ही आराधना किया करते हैं। वेद भी इन महात्रिपुरसुन्दरी मां का वर्णन कर सकने में असमर्थ हैं। भक्तों को ललिता महाविद्या प्रसन्न होकर सब कुछ दे देती हैं अभीष्ट तो सीमित अर्थवाच्य है।

आद्याशक्ति भगवती षोडशी महाविद्या की जयंती तिथि – माघ मास की पूर्णिमा तिथि को जगज्जननी ललिता माता की विशेष आराधना की जाती है।

श्री विद्या आत्म साधना का क्रमांश 

श्री विद्या साधना 

इस साधना का साधक भोग तथा मोक्ष दोनों प्राप्त करने में समर्थ होता है। तंत्र में इस साधना कि पूर्णता को सर्वोच्च स्थिति माना गया है। इसकी पूर्ण सिद्धि प्राप्त साधक फिर पुरुष न रह कर युगपुरुष हो जाता है। इस साधना के द्वारा निम्नलिखित लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं।

1. विवाह बाधा का निवारण।

2. गृहस्थ सुख में पूर्णता।

3. पूर्ण पौरुष प्राप्ति।

4. संतान प्राप्ति।

5. पूर्ण ऐश्वर्य।

6. विद्वत्व, कवित्व तथा कला निपुणता।

7. पूर्ण कुण्डलिनी जागरण।

8. आध्यात्मिक पूर्णता।

षोडशी त्रिपुर सुंदरी मंत्र। 

“ह्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं स क ल ह्रीं। ”

यदि यह मंत्र न कर सकें तो निम्नलिखित बीज मंत्र का जाप भी कर सकते हैं। 

षोडशी त्रिपुर सुंदरी बीज मंत्र 

!ह्रीं! 

विशेष :- 

1. साधना के रूप में इसका पुरश्चरण सवा लाख मन्त्रों का होगा।

2. रात्रि 9 से 1 बजे तक का समय श्रेस्ठ माना जाता है।

3. प्रतिदिन षोडशी स्तोत्र या श्री सूक्त का पाठ आर्थिक लाभ देगा।

4. अपनी क्षमता के अनुसार ताम्बा, चांदी या सोने से निर्मित श्री यन्त्र के सामने जाप करना लाभप्रद होगा। अभाव में जगदम्बा के चित्र, मूर्ति, यन्त्र या मंदिर में जाप करना लाभप्रद होगा।

5. यह जाप यदि यन्त्र के सामने कर रहे हों तो जाप के बाद यन्त्र को गुलाबी रंग के रेशमी कपडे में लपेट कर रखें। प्रयास करें कि इस यन्त्र को कोई देख या स्पर्श न कर सके।

6. यन्त्र देवता तथा आपके बीच का एक माध्यम है, इसे यथा सम्भव गोपनीय तथा सात्विकता के साथ रखें।

7. मंत्र या स्तोत्र का पाठ पूरे मन से करें। विश्वास तथा श्रद्धा के साथ किया गया जाप सदैव जापकर्ता के लिए लाभदायक होता है।

8. साधना काल में प्रत्येक स्त्री को सम्मान दें, क्यूंकि प्रत्येक स्त्री जगदम्बा का ही प्रतिरूप है।

9. साधना काल में सामने दीपक जलाएं। माघ पूर्णिमा या किसी पूर्णिमा से जाप प्रारम्भ करें।

10. सात्विक भोजन करें। साधना काल में क्रोध न करें।

11. यदि चाहें तो साधना के स्थान पर प्रतिदिन पूजन के साथ कुछ समय के लिए उपरोक्त मंत्र का जाप कर सकते हैं।

त्रिपुर सुंदरी की साधना तथा मंत्र जाप जिस घर में होता है वह घर सभी दृष्टियों से पूर्ण होता है। ऐसे घर में स्वयं माँ अपने साधकों कि भौतिक तथा आध्यात्मिक इच्छाओं की पूर्ती के लिए तत्पर रहती हैं। भगवती षोडशी महात्रिपुरसुन्दरी के श्री चरणों में हमारा अनन्त बार प्रणाम है।

श्री महात्रिपुरसुन्दरी ललिता माँ के प्रादुर्भाव की कथा 

भगवती राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी की श्रीयन्त्र के रूप में आराधना करने की परम्परा पुरातन काल से ही चली आ रही है। मान्यता है कि जगज्जननी माँ ललिता का प्रादुर्भाव माघमास की पूर्णिमा को हुआ था। आद्याशक्ति भगवती ललिताम्बा की जयंती तिथि को इन भगवती की विशेष आराधना की जाती है। श्रीयंत्र-निवासिनी भगवती षोडशी महाविद्या ही त्रिपुराम्बा, श्रीविद्या, ललिता, महात्रिपुरसुन्दरी, श्रीमाता, त्रिपुरा आदि नामों से सुविख्यात हैं। ‘ललिता नाम की व्युत्पत्ति पद्मपुराण में कही गयी है।

‘लोकानतीत्य ललते ललिता तेन चोच्यते।’ जो संसार से अधिक शोभाशाली हैं, वही भगवती ललिता हैं।

श्रीविद्या के लीलाविग्रह तो अनन्त हैं। श्रीमत्रिपुरसुन्दरी ललिता महाविद्या के विषय में कुछ भी लिखना सूर्यदेव को दीप दिखाने जैसा हैं क्योंकि अनंत का जितना भी वर्णन करें कम ही है। परंतु ऐसा होने पर भी ललिताम्बा की जो महिमा वर्णित हुई है ब्रह्माण्डपुराण, त्रिपुरारहस्य आदि पुराणेतिहासों में, उसके माध्यम से इन महात्रिपुरसुन्दरी मां की भक्ति में हम लग जाएं तो निश्चय ही जीवन सफल है। ललिता मां के प्रादुर्भाव के सन्दर्भ में ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरखण्ड में जो मुख्य कथा वर्णित की गई है यहां प्रस्तुत है।

पूर्वकाल में शिवजी की क्रोधाग्नि द्वारा दग्ध काम की उस भस्म से गणेशजी के साथ खेलने के लिये भगवती पार्वती जी ने एक पुतला बनाया और उसको प्राणयुक्त कर दिया। तब उस तमोगुणी पिण्ड में भगवती रमा के द्वारा शापित माणिक्यशेखर के जीवन का प्रवेश होने से पिण्ड ने भयंकर रूप धारण कर लिया। यही भण्डासुर की उत्पत्ति का निमित्त बना।

उस भण्ड नाम के असुर ने श्रीशिवशंकर जी की आराधना की और उनसे अभय वर प्राप्त कर त्रिलोक आधिपत्य करते हुए देवताओं के हविर्भाग का भी स्वयमेव भोग करना आरम्भ किया। दुष्ट भण्डासुर जब इन्द्राणी का हरण करने की सोचने लगा तो इन्द्राणी उस असुर के डर से गौरी के निकट आश्रयार्थ गयीं। इधर भण्ड ने विशुक्र को पृथिवी का और विषङ्ग को पाताल का आधिपत्य दिया। उस दुष्ट ने स्वयं इन्द्रासन पर आरूढ़ होकर इन्द्रादि देवताओं को अपनी पालकी ढोने पर नियुक्त किया। दैत्यगुरु शुक्राचार्यजी ने दयावश होकर इन्द्रादिकों को इस दुर्गति से मुक्त किया।

असुरों की मूल राजधानी शोणितपुर को ही मयासुर के द्वारा स्वर्ग से भी सुन्दर बनवाकर उसका नया नाम शून्यकपुर रखकर वहीं पर भण्ड दैत्य राज्य करने लगा। स्वर्ग को उसने नष्ट कर डाला। दिक्पालों के स्थान में अपने बनाये हुए दैत्यों को ही उसने बैठाया। इस प्रकार एक सौ पाँच ब्रह्माण्डों पर उसने आक्रमण किया और उनको अपने अधिकार में कर लिया।

अनन्तर भण्ड दैत्य ने फिर घोर तपस्या कर शिवजी से अमरत्व का वरदान पाया। इन्द्राणी ने गौरी का आश्रय पाया है, यह सुनकर दुष्ट भण्डासुर दैत्यसेना के साथ कैलास गया और गणेशजी की भर्त्सना कर उनसे इन्द्राणी को अपने लिये माँगने लगा। भण्डासुर की ऐसी दुष्टता देखकर गणेशजी क्रुद्ध होकर प्रमथादि गणों को साथ लेते हुए उससे युद्ध करने लगे। अपने पुत्र गणेश को युद्धप्रवृत्त देखकर गणेशजी की सहायता करने के लिये भगवती गौरी अपनी कोटि-कोटि शक्तियों के साथ युद्धस्थल में आकर दैत्यों से युद्ध करने लगीं।

इधर गणेशजी की गदा के प्रहार से मूर्छित होकर पुन: प्रकृतिस्थ होते ही भण्डासुर ने उनको अङ्कुशाघांत से गिराया। माता गौरी यह देखकर बहुत क्रुद्ध हुईं और हुङ्कार से भण्डासुर को बाँधकर ज्यों ही मारने के लिये उद्यत हुईं त्यों ही ब्रह्माजी ने गौरी को शङ्करजी के दिये हुए अमरत्व-वर- प्रदान का स्मरण दिलाया। शिवजी के वरदान का मान रखने के लिये विवश होकर गौरी ने भण्डासुर को छोड़ दिया।

इस प्रकार भण्ड दैत्य से त्रस्त होकर इन्द्रादि देवों ने देवगुरु वृहस्पतिजी की आज्ञानुसार हिमाचल में त्रिपुरादेवी के उद्देश्य से ‘तान्त्रिक महायाग’ करना आरम्भ किया। अन्तिम दिन याग समाप्त कर जब देवगण श्रीमाता की स्तुति कर रहे थे, इतने ही में ज्वाला के बीच से महाशब्दपूर्वक अत्यन्त तेजस्विनी त्रिपुराम्बा प्रादुर्भूत हुईं। उस महाशब्द को सुनकर तथा उस लोकोत्तर प्रकाशपुञ्ज को देखकर देवगुरु वृहस्पति के सिवा सब देवतागण बधिर तथा अन्ध होते हुए मूर्च्छित हो गये।

साक्षात् ललिताम्बा को समक्ष देख देवगुरु तथा ब्रह्माजी ने हर्षगद्गद स्वर से श्रीमाता की स्तुति की। श्रीमाता ने प्रसन्न होकर उनका अभीष्ट पूछा। उन्होंने भी भण्डासुर की कथा सुनाकर उसके नाश की प्रार्थना की। माता ने भी उस दुष्ट असुर को मारना स्वीकार किया और मूर्च्छित इन्द्रादि देवों को अपनी अमृतमय कृपादृष्टि से चैतन्य करते हुए अपने दर्शन की योग्यता प्रदान करने के लिये उनको विशेष रूप से तपस्या करने की आवश्यकता बतलायी। देवता लोग भी माता की आज्ञानुसार तपस्या करने लगे। इधर भण्डासुर ने देवों पर धावा बोल दिया।

कोटि-कोटि सैनिकों के साथ आते हुए भण्ड दैत्य को देखकर देवों ने त्रिपुराम्बा की प्रार्थना करते हुए अपने शरीर अग्निकुण्ड में अर्पित कर दिये। भगवती त्रिपुराम्बा की आज्ञानुसार ‘ज्वालामालिनी’ शक्ति ने देवगणों के आसमन्तात्(चारों ओर) एक ज्वालामण्डल प्रकट किया। देवों को ज्वाला में भस्मीभूत समझकर भण्ड दैत्य सैन्य के साथ वापस चला गया। दैत्य के जाने के बाद देवतागण जब अपने अवशिष्टाङ्गों की पूर्णाहुति करने के लिये ज्यों ही उद्यत हुए त्यों ही ज्वाला के मध्य से तडित्पुञ्जनिभा ‘त्रिपुराम्बा आविर्भूत हुईं। देव लोगों ने जयघोषपूर्वक पूजनादिद्वारा भगवती ललिता की स्तुति की।

देवों को अपना दर्शन सुलभ हो इसलिये श्रीमाता ने विश्वकर्मा के द्वारा सुमेरु शिखर पर निर्मित श्रीनगर में सर्वदा निवास करना स्वीकार किया। उसके बाद श्रीमाता ललिताम्बा ने देवों की प्रार्थना के अनुसार श्रीचक्रात्मक रथ पर आरुढ़ होकर भण्ड दैत्य को मारने के लिये प्रस्थान किया। महाभयानक युद्ध प्रारम्भ हुआ। श्रीमाता के कुमार श्रीमहागणपति तथा कुमारी बालाम्बा ने भी युद्ध में बहुत पराक्रम दिखाया। श्रीमाता की मुख्य दो शक्तियों- 1- मन्त्रिणी – ‘राजमातङ्गीश्वरी’, 2- दण्डिनी – ‘वाराही’ और अन्य अनेक शक्तियों ने अपने प्रबल पराक्रम के द्वारा दैत्य-सैन्य में खलबली मचा दी।

अन्त में बड़ी कठिनता उपस्थित होने पर जब श्रीमाता ने महाकामेश्वरास्त्र चलाया, तब सपरिवार भण्ड दैत्य मारा गया। देवों का भय दूर हुआ और वे पूर्ववत् स्वर्ग में अपने-अपने पदों पर अधिष्ठित हो गये। दैत्य द्वारा आक्रान्त एक सौ पाँच ब्रह्माण्डों में भी पुनः चैन की वंशी बजने लगी।

इस प्रकार संक्षेप में यहाँ ये कथा बतलाई गई है। विस्तृत विवरण के लिये विशेष जिज्ञासुओं को त्रिपुरारहस्य का माहात्म्यखण्ड देखना चाहिये। तन्त्र ग्रन्थों में ललिता भगवती के प्रातः स्मरण, अष्टक, कवच, हृदय, खड्गमाला आदि शतनाम, सहस्रनाम, मानस पूजा और भी बहुत से उत्तम स्तोत्र मिलते हैं जिनके माध्यम से भगवती त्रिपुरसुन्दरी की स्तोत्रात्मक स्तुति उत्तम प्रकार से की जाती है। आद्य शंकराचार्य जी द्वारा रचित ‘सौंदर्य लहरी’ नामक स्तोत्र तो सौ श्लोकों का है।

ध्यान

पराम्बिका भगवती ललिताम्बा के तीन प्रकार के ध्यान यहां प्रस्तुत हैं

श्री बाला त्रिपुर सुन्दरी 

अरुणकिरण-जालै रज्जितासावकाशा । विधृतजप-वटीका पुस्तकाभीति-हस्ता ॥ इतरकर-वराढ्या फुल्ल-कलार-संस्था । निवसतु हृदि बाला नित्य कल्याणरूपा ॥

अर्थात भगवती श्रीबाला-त्रिपुर-सुन्दरी के शरीर की आभा अरुणोदय काल के सूर्य-बिम्ब के जैसी रक्त-वर्ण की है। उस आभा की किरणों से सभी दिशाएँ एवं अन्तरिक्ष लाल रङ्ग से रँगे हुए हैं। चार कर-कमलों में जप-माला, पुस्तक, अभय और वर-मुद्राएँ हैं। पूर्ण खिले हुए रक्त कमल के पुष्प पर विराजमान हैं। ऐसी श्रीबाला जगत् का नित्य कल्याण करने वाली हैं। वे मेरे हदय में निवास करें।

सिन्दूरारुणविग्रहां त्रिनयनां माणिक्यमौलिस्फुरत् तारानायकशेखरां स्मितमुखीमापीनवक्षोरुहाम्। पाणिभ्यामलिपूर्णलनचषकं रक्तोत्पलं बिभ्रतीं सौम्यां रत्नघटस्थरक्तचरणां ध्यायेत् परामम्बिकाम्।।

अर्थात सिन्दूर के समान अरुण विग्रह वाली, तीन नेत्रों से सम्पन्न, माणिक्यजटित प्रकाशमान मुकुट तथा चन्द्रमा से सुशोभित मस्तकवाली, मुसकानयुक्त मुखमण्डल एवं स्थूल वक्षःस्थलवाली, अपने दोनों हाथों में से एक हाथ में मधु से परिपूर्ण रत्ननिर्मित मधूकलश तथा दूसरे हाथ में लाल कमल धारण करने वाली ओर रत्नमय घट पर अपना रक्त चरण रखकर सुशोभित होने वाली शान्तस्वभाव भगवती पराम्बिका का ध्यान करना चाहिये।

ध्यायेत्पद्मासनस्थां पद्मपत्रायताक्षी वराङ्गीम्। सर्वालङ्कारयुक्तां सततमभयदां भक्तनम्रां भवानी विकसितवदनां हेमाभां पीतवस्त्रां करकलितलसद्धेमपद्मां श्रीविद्यां शान्तमूर्ति सकलसुरनुतां सर्वसम्पत्प्रदात्रीम्॥

अर्थात कमल के आसन पर विराजमान, प्रसन्न मुखमण्डल वाली, कमल-दल के सदृश विशाल नेत्रों वाली, स्वर्ण के समान आभा वाली, पीतवर्ण के वस्त्र धारण करने वाली, अपने कोमल हाथ में स्वर्णिम कमल धारण करने वाली, सुन्दर शरीरावायव से सुशोभित, सभी प्रकार के आभषणों से अलङकत. निरन्तर अभय प्रदान करने वाली, भक्तों के प्रति कोमल स्वभाव वाली, शान्त मूर्ति, सभी देवताओं से नमस्कृत तथा सम्पूर्ण सम्पदा प्रदान करने वाली भवानी श्रीविद्या का ध्यान करना चाहिये।

वेद भी इन महात्रिपुरसुन्दरी मां का वर्णन कर सकने में असमर्थ हैं। भक्तों को ललिता महाविद्या प्रसन्न होकर सब कुछ दे देती हैं अभीष्ट तो सीमित अर्थवाच्य है। ‘श्रीविद्या के विषय में अब भी बहुत वक्तव्य अवशिष्ट रह गया है, इस हेतु निश्चित रूप से आगे भी कई लेख प्रस्तुत किए जायेंगे। श्रीललिता जयंती पर ‘श्रीमाता ललिताम्बा प्रीयताम् कहते हुए भगवती ललिता महात्रिपुरसुन्दरी के श्री चरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम है।

हमारे अगले लेख में श्रीविद्या (श्रीयंत्र) उपासना की सूक्ष्म एवं सामान्य विधि दी जाएगी इन विधि से पूजा करने पर परम्बिका ललिता देवी की पूजा पूर्ण मानी जाती है।

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