सेवा छोटी-बड़ी नहीं होती है । जिस सेवाकार्य में अभिमान नहीं, कोई स्वार्थ नहीं, वह छोटी सेवा भी महान सेवा बन जाती है । भरत जी ने भगवान श्रीराम की चरण-पादुका की सेवा को और लक्ष्मण जी ने श्रीराम की चरणरज की सेवा को ही अपना जीवनधन माना था

प्राय: हम सभी के घरों में साफ-सफाई (मंदिर की भी) का काम घरेलु सहायिका करती हैं । साफ-सफाई का कार्य बहुत ही निम्न श्रेणी का माना जाता है; इसलिए आधुनिक पढ़े-लिखे लोग इसे करने से कतराते हैं । लेकिन शास्त्रों में सेवा धर्म को सबसे कठिन माना गया है ।

भगवान के राज्य में उनके लिए किए जाने वाले छोटे-से-छोटे कार्य का भी अत्यंत महत्व है । प्रभु श्रीराम के अपने आश्रम में आगमन की आस में तपस्विनी शबरी प्रतिदिन आश्रम के प्रवेश-द्वार तक के मार्ग को बुहारती और उसे सुन्दर पुष्पों से ओट देती थी । उनके स्वागत के लिए प्रतिदिन ताजे पके कंद, फल-मूल का संग्रह करती । उसका भगवान के प्रति यह प्रेम और समर्पण सफल हुआ और श्रीराम लक्ष्मण के साथ उनके आश्रम में पधारे। जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वह शबरी को प्राप्त हो गई ।

देवमन्दिर की साफ-सफाई करने का महत्व

विभिन्न पुराणों में भगवान के मंदिर की साफ-सफाई करने का महत्व विभिन्न प्रकार के यज्ञ, जप के अनुष्ठानों के बराबर माना गया है । पुराणों के अनुसार ।

जो मनुष्य मंदिर की भूमि को जल से सींचता (धोता) है, वह स्वर्गलोक पाता है।

जो मनुष्य देवमंदिर को चंदन मिश्रित जल से धोते समय जितने कणों को भिगोता है, वह उतने कल्प तक देवता के समीप रहता है ।

इसी प्रकार जो मनुष्य मंदिर में साफ सफाई कर गेरु-खड़िया आदि विभिन्न प्रकार के द्रव्यों से स्वस्तिक आदि चिह्न बनाता है, वह अनंत पुण्य का भागी होता है ।

यदि मंदिर की सफाई करते समय मनुष्य प्राण त्याग करता है तो वह सीधे ब्रह्मलोक को जाता है ।

नित्य देव मंदिर की सफाई करने से मनुष्य का हृदय भी शीशे के समान निर्मल हो जाता है, मुख पर प्रसन्नता और ओज छा जाता है । वह मनुष्य दीर्घायु होता है और सभी प्रकार के सौभाग्य प्राप्त करता है ।

यद्यपि मंदिर की साफ-सफाई करने में मनुष्य को शारीरिक कष्ट होता है; परंतु इसे कष्ट न समझकर तप रूप मानना चाहिए । मनुष्य को जो छोटा-सा जीवन मिला है, उसका कुछ समय भगवत्सेवा कार्य में अवश्य लगाना चाहिए ।

शास्त्रों में पूजा के पांच प्रकार बतलाए गए हैं

(१) अभिगमन भगवान के स्थान को साफ करना, पोंछा लगाना, निर्माल्य (चढ़ी हुई पूजा सामग्री) को हटाना, आदि को ‘अभिगमन’ कहते हैं

(२) उपादान पूजा के लिए चंदन, पुष्प आदि सामग्री तैयार करना ‘उपादान’ है

(३) योग इष्टदेव की आत्मरूप से भावना करना ‘योग’ है

(४) स्वाध्याय मन्त्र-जप, स्तोत्र पाठ, कीर्तन और धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन आदि ‘स्वाध्याय’ है ।

(५) इज्या विभिन्न उपचारों (वस्तुओं) से अपने आराध्य की पूजा ‘इज्या’ है ।

भगवान को सम्बन्ध निभाना बहुत अच्छे से आता है । अगर हम भगवान से चाकर (सेवक) का सम्बन्ध भी रखें तो उसमें कोई घाटे का सौदा नहीं है । राजरानी मीरा स्वयं रात्रि में तीन बजे उठ कर अपने भगवान का मंदिर साफ करतीं थी । उसके बाद पूजा के बर्तन धो-मांज कर रखतीं । पुष्प चुन कर अपने गोपाल के लिए माला बनातीं और सुन्दर भोग-प्रसाद तैयार करती थीं ।

इस पद में मीरा के भाव कितने ऊंचे हैं 

स्याम मने चाकर राखो जी ।

गिरधारीलाल चाकर राखो जी ।।

चाकर रहसूँ बाग लगासूँ नित उठ दरसण पासूँ।

बिंद्राबन की कुंजगलिन में तेरी लीला गासूँ।।

चाकरी में दरसण पाऊँ सुमिरण पाऊँ खरची ।

भाव भगति जागीरी पाऊँ, तीनूँ बाता सरसी ।।

मीरा श्रीकृष्ण से गुहार लगा रही हैं कि वे उन्हें अपना चाकर (सेविका) बना लें सेविका बन कर वे श्रीकृष्ण के लिए फूलों की सुंदर बगिया बनायेगी और रोज सुबह उठकर श्रीकृष्ण के दर्शन प्राप्त करेंगी । वृंदावन की कुंजगलियों में श्रीकृष्ण के गुण गाएंगी । इस प्रकार से भक्ति करने पर मीराबाई को तीन फायदे होंगे पहला तो उन्हें अपने गोविंद के दर्शन होते रहेंगे और दूसरा उनको खर्च करने के लिए श्रीकृष्ण सुमिरन मिलेगा और भाव और भक्ति की जागीर प्राप्त होगी । है ना फायदे का सौदा

भगवान की सेवा करते समय बहुत सावधान रहने की आवश्यकता होती है । सेवा करते समय जरा भी मन में यह विचार आया कि ‘मैं ये कार्य करता हूँ’ आदि तो इससे अभिमान आता है और वह सभी किए कराए पर पानी फेर देता है। अभिमान मनुष्य को पतन के रास्ते पर ले जाता है ।

भगवान की सेवा के सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध दोहा है 

सेवा कर नर मन लगा, सेवा से सतकाम ।

सेवा से श्रद्धा बढ़े, श्रद्धा से श्रीराम ।। 

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