वैशाखमास-माहात्म्य अध्याय 10 इस अध्याय में:- वैशाख मास के माहात्म्य-श्रवण से सर्प के उद्धार और एक वैशाख धर्म के पालन तथा रामनाम-जप से व्याध का वाल्मीकि होना

देव कहते हैं- तदनन्तर व्याध सहित शंख मुनि ने विस्मित होकर पूछा तुम कौन हो ? और तुम्हें यह दशा कैसे प्राप्त हुई थी?

सर्प ने कहा–पूर्वजन्म में मैं प्रयाग का ब्राह्मण था। मेरे पिता का नाम कुशीद मुनि और मेरा नाम रोचन था मैं धनाढ्य, अनेक पुत्रों का पिता और सदैव अभिमान से दूषित था। बैठे-बैठे बहुत बकवाद किया करता था। बैठना, सोना, नींद लेना मैथुन करना, जुआ खेलना, लोगों की बातें करना और सूद लेना यही मेरे व्यापार थे। मैं लोकनिन्दा से डरकर नाम मात्र के शुभ कर्म करता था; सो भी दम्भ के साथ उन कर्मों में मेरी श्रद्धा नहीं थी। इस प्रकार मुझ दुष्ट और दुर्बुद्धि के कितने ही वर्ष बीत गये। तदनन्तर इसी वैशाख मास में जयन्त नामक ब्राह्मण प्रयाग क्षेत्र में निवास करने वाले पुण्यात्मा द्विजों को वैशाख मास के धर्म सुनाने लगे स्त्री, पुरुष, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- सहस्रों श्रोता

प्रात:काल स्नान करके अविनाशी भगवान् विष्णु की पूजा के पश्चात् प्रतिदिन जयन्त की कही हुई कथा सुनते थे। वे सभी पवित्र एवं मौन होकर उस भगवत् कथा में अनुरक्त रहते थे एक दिन मैं भी कौतूहलवश देखने की इच्छा से श्रोताओं की उस मण्डली में जा बैठा। मेरे मस्तक पर पगड़ी बँधी थी। इसलिये मैंने नमस्कार तक नहीं किया और संसारी वार्तालाप में अनुरक्त हो कथा में विघ्न डालने लगा। कभी मैं कपड़े फैलाता, कभी किसी की निन्दा करता और कभी जोर से हँस पड़ता था। जब तक कथा समाप्त हुई, तब तक मैंने इसी प्रकार समय बिताया। तत्पश्चात् दूसरे दिन सन्निपात रोग से मेरी मृत्यु हो गयी। मैं तपाये हुए शीशे के जल से भरे हुए हलाहल नरक में डाल दिया गया और चौदह मन्वन्तरों तक वहाँ यातना भोगता रहा।

उसके बाद चौरासी लाख योनियों में क्रमश: जन्म लेता और मरता हुआ में इस समय क्रूर तमोगुणी सर्प होकर इस वृक्ष के खोंखले में निवास करता था। मुने ! सौभाग्यवश आपके मुखारविन्द से निकली हुई अमृतमयी कथा को मैंने अपने दोनों नेत्रों से सुना, जिससे तत्काल मेरे सारे पाप नष्ट हो गये मुनिश्रेष्ठ ! मैं नहीं जानता कि आप किस जन्म के मेरे बन्धु हैं; क्योंकि मैंने कभी किसी का उपकार नहीं किया है तो भी मुझ पर आपकी कृपा हुई। जिनका चित्त समान है, जो सब प्राणियों पर दया करने वाले साधु पुरुष हैं, उनमें परोपकार की स्वाभाविक प्रवृति होती है। उनकी कभी किसी के प्रति विपरीत बुद्धि नहीं होती। आज आप मुझ पर कृपा कीजिये, जिससे मेरी बुद्धि धर्म में लगे।

देवाधिदेव भगवान् विष्णु की मुझे कभी विस्मृति न हो और साधु चरित्र वाले महापुरुषों का सदा ही संग प्राप्त हो। जो लोग मद से अंधे हो रहे हों, उनके लिये एकमात्र दरिद्रता ही उत्तम अंजन है। इस प्रकार नाना भाँति से स्तुति करके रोचन ने बार-बार शंख को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर चुपचाप उनके आगे खड़ा हो गया।

तब शंख ने कहा–ब्रह्मन् तुमने वैशाख मास और भगवान् विष्णु का माहात्म्य सुना है, इससे उसी क्षण तुम्हारा सारा बन्धन नष्ट हो गया। द्विजश्रेष्ठ! परिहास भय, क्रोध, द्वेष, कामना अथवा स्नेह से भी एक बार भगवान् विष्णु के पापहारी नाम का उच्चारण करके बड़े भारी पापी भी रोग-शोक रहित वैकुण्ठधा में चले जाते हैं। फिर जो श्रद्धा से युक्त हो क्रोध और इन्द्रियों को जीतकर सबके प्रति दया भाव रखते हुए भगवान् की कथा सुनते हैं, वे उनके लोक में जाते हैं, इस विषय में तो कहना ही क्या है। कितने ही मनुष्य केवल भक्ति के बल से एकमात्र भगवान् की कथा-वार्ता में तत्पर हो अन्य सब धर्मों का त्याग कर देने पर भी भगवान् विष्णु के परम पद को पा लेते हैं।

भक्ति से अथवा द्वेष आदि से भी जो कोई भगवान् की भक्ति करते हैं, वे भी प्राण हारिणी पूतना की भाँति परमपद को प्राप्त होते हैं। सदा महात्मा पुरुषों का संग और उन्हीं के विषय में वार्तालाप करना चाहिये। रचना शिथिल होने पर भी जिसके प्रत्येक श्लोक में भगवान् के सुयश सूचक नाम हैं, वही वाणी जनसमुदाय की पापराशि का नाश करने वाली होती है; क्योंकि साधु पुरुष उसी को सुनते, गाते और कहते हैं। जो भगवान् किसी से कष्ट साध्य सेवा नहीं चाहते, आसन आदि विशेष उपकरणों की इच्छा नहीं रखते तथा सुन्दर रूप और जवानी नहीं चाहते, अपितु एक बार भी स्मरण कर लेने पर अपना परम प्रकाशमय वैकुण्ठ धाम दे डालते हैं, उन दयालु भगवान् को छोड़कर मनुष्य किसकी शरण में जाय।

उन्हीं रोग-शोक से रहित, चित्त द्वारा चिन्तन करने योग्य, अव्यक्त, दयानिधान, भक्तवत्सल भगवान् नारायण की शरण में जाओ। महामते ! वैशाख मास में कहे हुए इन सब धर्मों का पालन करो, उससे प्रसन्न होकर भगवान् जगन्नाथ तुम्हारा कल्याण करेंगे। ऐसा कहकर शंख मुनि व्याध की ओर देखकर चुप हो रहे। तब उस दिव्य पुरुष ने पुन: इस प्रकार कहा–’मुने ! मैं धन्य हूँ, आप-जैसे दयालु महात्मा ने मुझपर अनुग्रह किया है। मेरी कुत्सित योनि दूर हो गयी और अब मैं परमगति को प्राप्त हो रहा हूँ, यह मेरे लिये सौभाग्य की बात है।’ यो कहकर दिव्य पुरुष ने शंख मुनि की परिक्रमा की तथा उनकी आज्ञा लेकर वह दिव्य लोक को चला गया।

तदनन्तर सन्ध्या हो गयी। व्याध ने शंख को अपनी सेवा से सन्तुष्ट किया और उन्होंने सांयकाल की सन्ध्योपासना करके शेष रात्रि व्यतीत की। भगवान् के लीलावतारों की कथावार्ता द्वारा रात व्यतीत करके शंख मुनि ब्राह्ममुहूर्त में उठे और दोनों पैर धोकर मौनभाव से तारक ब्रह्म का ध्यान करने लगे। तत्पश्चात् शौचादि क्रिया से निवृत्त होकर वैशाख मास में सूर्योदय से पहले स्नान किया और सन्ध्या-तर्पण आदि सब कर्म समाप्त करके उन्होंने हर्षयुक्त हृदय से व्याध को बुलाया। बुलाकर उसे ‘राम’ इस दो अक्षर वाले नाम का उपदेश दिया, जो वेद से भी अधिक शुभकारक है।

उपदेश देकर इस प्रकार कहा–’भगवान् विष्णु का एक-एक नाम भी सम्पूर्ण वेदों से अधिक महत्त्वशाली माना गया है। ऐसे अनन्त नामों से अधिक है भगवान् विष्णुका सहस्रनाम। उस सहस्रनाम के समान राम-नाम माना गया है। इसलिये व्याध! तुम निरन्तर रामनाम का जप करो और मृत्युपर्यन्त मेरे बताये हुए धर्मो का पालन करते रहो। इस धर्म के प्रभाव से तुम्हारा वल्मिक ऋषि के घर जन्म होगा और तुम इस पृथ्वी पर वाल्मीकि नाम से प्रसिद्ध होओगे।’

व्याध को ऐसा आदेश देकर मुनिवर शंख ने दक्षिण दिशा को प्रस्थान किया व्याध ने भी शंख मुनि की परिक्रमा करके बार-बार उनके चरणों में प्रणाम किया और जब तक वे दिखायी दिये, तब तक उन्हीं की ओर देखता रहा। फिर उसने अति योग्य वैशाखोक्त धर्मो का पालन किया। जंगली कैथ, कटहल, जामुन और आम आदि के फलों से राह चलने वाले थके-माँदे पथिकों को वह भोजन कराता था। जूता, चन्दन, छाता, पंखा आदि के द्वारा तथा बालू के बिछावन और छाया आदि की व्यवस्था से पथिकों के परिश्रम और पसीने का निवारण करता था। प्रात:काल स्नान करके दिन-रात राम-नाम का जप करता था।

इस प्रकार धर्मानुष्ठान करके वह दूसरे जन्म में बल्मिक का पुत्र हुआ। उस समय वह महायशस्वी बाल्मीकि के नामसे विख्यात हुआ। उन्हीं बाल्मीकिजी ने अपने मनोहर प्रबन्ध रचना द्वारा संसार में दिव्य राम-कथा को प्रकाशित किया, जो समस्त कर्म-बन्धनों का उच्छेद करने वाली है। मिथिलापते ! देखो, वैशाख का माहात्म्य कैसा ऐश्वर्य प्रदान करने वाला है, जिससे एक व्याध भी परम दुर्लभ ऋषिभाव को प्राप्त हो गया यह सेमांचकारी उपाख्यान सब पापों का नाश करने वाला हैं। जो इसे सुनता और सुनाता है, वह पुनः माता के स्तनका दूध पीने वाला नहीं होता।

जय जय श्री हरि 

Also Read Puja Niyam : 30 खास नियमों को जो पूजा करने के दौरान याद रखने पर शीघ्र मिलता है शुभ फल