वैशाख मास माहात्म्य अध्याय – 09 इस अध्याय में:- भगवान् विष्णु के स्वरूप का विवेचन, प्राण की श्रेष्ठता, जीवों के विभिन्न स्वभावों और कर्मों का कारण तथा भागवत धर्म

व्याध ने पूछा–ब्रह्मन आपने पहले कहा था कि भगवान् विष्णु की प्रीति के लिये कल्याणकारी भागवतधर्मो का और उनमें भी वैशाख मास में कर्तव्यरूप से बताये हुए नियमों का विशेष रूप से पालन करना चाहिये। वे भगवान् विष्णु कैसे हैं ? उनका क्या लक्षण है ? उनकी सत्ता में क्या प्रमाण है तथा वे सर्वव्यापी भगवान् किनके द्वारा जानने योग्य हैं ? वैष्णव धर्म कैसे हैं ? और किससे भगवान् श्रीहरि प्रसन्न होते हैं ? महामते मैं आपका किंकर हूँ मुझे ये सब बातें बताइये।

व्याध के इस प्रकार पूछने पर शंख ने रोगशोक से रहित सम्पूर्ण जगत् के स्वामी भगवान् नारायण को प्रणाम करके कहा–व्याध! भगवान् विष्णु का स्वरूप कैसा है, यह सुनो। भगवान् समस्त शक्तियों के आश्रय, सम्पूर्ण गुणों की निधि तथा सबके ईश्वर बताये गये हैं। वे नि्गुण, निष्कल तथा अनन्त हैं। सत्-चित् और आनन्द-यही उनका स्वरूप है। यह जो अखिल चराचर जगत् है, अपने अधीश्वर और आश्रय के साथ नियत रूप से जिसके वश में स्थित है, जिससे इसकी उत्पत्ति, पालन, संहार, पुनरावृत्ति तथा नियमन आदि होते हैं, प्रकाश, बन्धन, मोक्ष और जीविका-इन सबकी प्रवृत्ति जहाँ से होती है, वे ही ब्रह्म नाम से प्रसिद्ध भगवान् विष्णु हैं।

वे ही विद्वानों के सम्मान्य सर्वव्यापी परमेश्वर हैं। ज्ञानी पुरूषों ने उन्हीं को साक्षात् परब्रह्म कहा है। वेद, शास्त्र स्मृति, पुराण, इतिहास पांचरात्र और महाभारत–सब विष्णु स्वरूप हैं–विष्णु के ही प्रतिपादक हैं। इन्हीं के द्वारा महाविष्णु जानने योग्य हैं। वेदवेद्य, सनातनदेव भगवान् नारायण को कोई इन्द्रियों से (प्रत्यक्ष प्रमाणद्वारा), अनुमान से और तर्क से भी नहीं जान सकता है। उन्हीं के दिव्य जन्म-कर्म तथा गुणों को अपनी बुद्धि के अनुसार जानकर उनके अधीन रहने वाले जीव-समूह सदा मुक्त होते हैं। यह सम्पूर्ण जगत् प्राण से उत्पन्न हुआ है, प्राणस्वरूप है, प्राणरूपी सूत्र में पिरोया हुआ है तथा प्राणसे ही चेष्टा करता है। सबका आधारभूत यह सूत्रात्मा प्राण ही विष्णु है, – ऐसा विद्वान् पुरुष कहते हैं।

व्याध ने पूछा–ब्रह्मन जीवों में यह सूत्रात्मा प्राण सबसे श्रेष्ठ किस प्रकार है ?

शंख ने कहा–व्याध पूर्वकाल में सनातन देव भगवान् नारायण ने ब्रह्मा आदि देवताओं की सृष्टि करके कहा- ‘देवताओ! मैं तुम्हारे सम्राट् के पद पर ब्रह्माजी की स्थापना करता हूँ, यही तुम सबके स्वामी हैं। अब तुम लोगों में जो सबसे अधिक शक्तिशाली हो, उसे तुम स्वयं ही युवराज के पद पर प्रतिष्ठित करो।’ भगवान् के इस प्रकार कहने पर इन्द्र आदि सब देवता आपस में विवाद करते हुए कहने लगे–’मैं युवराज होऊँगा, मैं होऊँगा।

किसी ने सूर्य को श्रेष्ठ बताया और किसी ने इन्द्र को। किन्हीं की दृष्टि में कामदेव ही सबसे श्रेष्ठ थे। कुछ लोग मौन ही खड़े रहे। आपस में कोई निर्णय होता न देखकर वे भगवान् नारायण के पास पूछने के लिये गये और प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोले–’महाविष्णो! हम सबने अच्छी तरह विचार कर लिया, किंतु हम सबमें श्रेष्ठ कौन है, यह हम अभी तक किसी प्रकार निश्चय न कर सके। अब आप ही निर्णय कीजिये।’ तब भगवान् विष्णु ने हँसते हुए कहा- ‘इस विराट् ब्रह्माण्डरूपी शरीर से जिसके निकल जाने पर यह गिर जायगा और जिसके प्रवेश करने पर पुन: उठकर खड़ा हो जायगा, वही देवता सबसे श्रेष्ठ है।

भगवान के ऐसा कहने पर सब देवताओं ने कहा अच्छा ऐसा ही हो।’ तब सबसे पहले देवेश्वर जयन्त विराट् शरीर के पैर से बाहर निकला। उसके निकलने से उस शरीर को लोग पंगु कहने लगे; परंतु शरीर गिर न सका। यद्यपि वह चल नहीं पाता था तो भी सुनता, पीता, बोलता, सूँघता और देखता हुआ पूर्ववत स्थिर रहा। तत्पश्चात् गुह्यदेश से दक्ष प्रजापति निकलकर अलग हो गये। तब लोगों ने उसे नपुंसक कहा; किंतु उस समय भी वह शरीर गिर न सका। उसके बाद विराट् शरीर के हाथ से सब देवताओं के राजा इन्द्र बाहर निकले। उस समय भी शरीरपात नहीं हुआ। विराट् पुरुष को सब लोग हस्तहीन (लूला) कहने लगे। इसी प्रकार नेत्रों से सूर्य निकले।

तब लोगों ने उसे अंधा और काना कहा। उस समय भी शरीर का पतन नहीं हुआ। तदनन्तर नासिका से अश्विनीकुमार निकले, किंतु शरीर नहीं गिर सका। केवल इतना ही कहा जाने लगा कि यह सूँघ नहीं सकता। कान से अधिष्ठातृ देवियाँ दिशाएँ निकलीं। उस समय लोग उसे बधिर कहने लगे; परंतु उसकी मृत्यु नहीं हुई। तत्पश्चात् जिह्वा से वरुणदेव निकले। तब लोगों ने यही कहा कि यह पुरुष रस का अनुभव नहीं कर सकता किंतु देहपात नहीं हुआ। तदनन्तर वाक्-इन्द्रिय से उसके स्वामी अग्निदेव निकले। उस समय उसे गूँगा कहा गया; किन्तु शरीर नहीं गिरा। फिर अन्तःकरण से बोधस्वरूप रुद्र देवता अलग हो गये। उस दशा में लोगों ने उसे जड कहा; किंतु शरीर पात नहीं हुआ। सबके अन्तर में उस शरीर से प्राण निकला तब लोगों ने उसे मरा हुआ बतलाया।

इससे देवताओं के में बड़ा विस्मय हुआ। वे बोले-‘हम लोगों में से जो भी इस शरीर में प्रवेश करके इसे पूर्ववत् उठा देगा, जीवित कर देगा, वही युवराज होगा।’ ऐसी प्रतिज्ञा करके सब क्रमशः उस शरीर में प्रवेश करने लगे। जयन्त ने पैरों में प्रवेश किया; किंतु वह शरीर नहीं उठा। प्रजापति दक्ष ने गुह्य इन्द्रियों में प्रवेश किया; फिर भी शरीर नहीं उठा। इन्द्र ने हाथ में, सूर्य ने नेत्रों में, दिशाओं ने कान में, वरुणदेव ने जिह्वा में, अश्विनीकुमार ने नासिका में, अग्नि ने वाक्-इन्द्रिय में तथा रुद्र ने अन्त:करण में प्रवेश किया; किंतु वह शरीर नहीं उठा, नहीं उठा। सबके अन्त में प्राण ने प्रवेश किया, तब वह शरीर उठकर खड़ा हो गया। तब देवताओं ने प्राण को ही सब देवताओं में श्रेष्ठ निश्चित किया।

बल, ज्ञान, धैर्य, वैराग्य और जीवन शक्ति में प्राण को ही सर्वाधिक मानकर देवताओं ने उसी को युवराज पद पर अभिषिक्त किया। इस उत्कृष्ट स्थिति के कारण प्राण को उक्थ कहा गया है। अंत: समस्त चराचर जगत् प्राणात्मक है। जगदीश्वर प्राण अपने पूर्ण एवं बलशाली अंशों द्वारा सर्वत्र परिपूर्ण है। प्राण हीन जगत् का अस्तित्व नहीं है। प्राण हीन कोई भी वस्तु वृद्धि को नहीं प्राप्त होती। इस जगत् में किसी भी प्राण हीन वस्तु की स्थिति नहीं हैं; इस कारण प्राण सब जीवों में श्रेष्ठ, सबका अन्तरात्मा और सर्वाधिक बलशाली सिद्ध हुआ। इसलिये प्राणोपासक प्राण को ही सर्वश्रेष्ठ कहते हैं।

प्राण सर्वदेवात्मक है, सब देवता प्राणमय हैं। वह भगवान् वासुदेव का अनुगामी तथा सदा उन्हीं में स्थित है। मनीषी पुरुष प्राण को महाविष्णु का बल बतलाते हैं। महाविष्णु के माहात्म्य और लक्षण को इस प्रकार जानकर मनुष्य पूर्वबन्धन का अनुसरण करने वाले अज्ञानमय लिंग को उसी प्रकार त्याग देता है, जैसे सर्प पुरानी केंचुल को। लिंग देह का त्याग करके वह परम पुरुष अनामय भगवान् नारायणको प्राप्त होता है।

शंख मुनि की कही हुई यह बात सुनकर व्याध ने पुन: पूछा–ब्रह्मन् ! यह प्राण जब इतना महान् प्रभावशाली और इस सम्पूर्ण जगत् का गुरु एवं ईश्वर है, तब लोक में इसकी महिमा क्यों नहीं प्रसिद्ध हुई ?

शंख ने कहा–पहले की बात है। प्राण अश्वमेध यज्ञों द्वारा अनामय भगवान नारायण का यजन करने के लिये गंगा के तटपर प्रसन्नता पूर्वक गया। अनेक मुनिगणों के साथ उसने फलों के द्वारा पृथ्वी का शोधन किया। उस समय वहाँ समाधि में स्थित हुए महात्मा कण्व बाँबी की मिट्टी में छिपे हुए बैठे थे। हल जोतने पर बाँबी गिर जाने से वे बाहर निकल आये और क्रोध पूर्वक देखकर सामने खड़े हुए महाप्रभु प्राण को शाप देते हुए बोले-‘देवेश्वर ! आज से लेकर आपकी महिमा तीनों लोकों में-विशेषत: भूलोक में प्रसिद्ध न होगी। हाँ, आपके अवतार तीनों लोकोंमें विख्यात होंगे।

व्याध तभी से संसार में महाप्रभु प्राण की महिमा प्रसिद्ध नहीं हुई। भूलोक में तो उसकी ख्याति विशेष रूप से नहीं।

व्याध ने पूछा–महामते भगवान् विष्णु के रचे हुए करोड़ों एवं सहस्रों सनातन जीव नाना मार्ग पर चलने और भिन्न-भिन्न कर्म करने वाले क्यों दिखायी देते हैं ? इन सबका एक-सा स्वभाव क्यों नहीं है ? यह सब विस्तारपूर्वक बतलाइये ?

शंख ने कहा रजोगुण, तमोगुण और सत्त्वगुण के भेद से तीन प्रकार के जीवसमुदाय होते हैं। उनमें राजस स्वभाव वाले जीव राजस कर्म, तमोगुणी जीव तामस कर्म तथा सात्त्विक स्वभाव वाले जीव सात्त्विक कर्म करते हैं। कभी-कभी संसार में इनके गुणों में विषमता भी होती है, उसी से वे ऊँच और नीच कर्म करते हुए तदनुसार फल के भागी होते हैं। कभी सुख, कभी दु:ख और कभी दोनों को ही ये मनुष्य गुणों की विषमता से प्राप्त करते हैं। प्रकृति में स्थित होने पर जीव इन तीनों गुणों से बँधते हैं। गुण और कर्मो के अनुसार उनके कर्मो का भिन्न-भिन्न फल होता है।

ये जीव फिर गुणों के अनुसार ही प्रकृति को प्राप्त होते हैं। प्रकृति में स्थित हुए प्राकृतिक प्राणी गुण और कर्म से व्याप्त होकर प्राकृतिक गति को प्राप्त होते हैं। तमोगुणी जीव तामसी वृत्ति से ही जीवन निर्वाह करते और सदा महान् दुःख में डूबे रहते हैं। उनमें दया नहीं होती, वे बड़े क्रूर होते हैं और लोक में सदा द्वेष से ही उनका जीवन चलता है। राक्षस और पिशाच आदि तमोगुणी जीव हैं, जो तामसी गति को प्राप्त होते हैं। राजसी लोगोंकी बुद्धि मिश्रित होती है। वे पुण्य तथा पाप दोनों करते हैं; पुण्य से स्वर्ग पाते और पाप से यातना भोगते हैं। इसी कारण ये मन्द भाग्य पुरुष बार-बार इस संसार में आते-जाते रहते हैं।

जो सात्त्विक स्वभाव के मनुष्य हैं, वे धर्मशील, दयालु, श्रद्धालु, दूसरों के दोष न देखने वाले तथा सात्त्विक वृत्ति से जीवननिर्वाह करने वाले होते हैं। इसीलिये भिन्न-भिन्न कर्म करने वाले जीवों के एक-दूसरे से पृथक् अनेक प्रकार के भाव हैं; उनके गुण और कर्म के अनुसार महाप्रभु विष्णु अपने स्वरूप की प्राप्ति कराने के लिये उनसे कर्मो का अनुष्ठान करवाते हैं। भगवान् विष्णु पूर्ण काम हैं, उनमें विषमता और निर्दयता आदि दोष नहीं हैं। वे समभाव से ही सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। सब जीव अपने गुण से ही कर्म फल के भागी होते हैं। जैसे माली बगीचे में लगे हुए सब वृक्षों को समानरूप से सींचता है। और एक ही कुआँ के जल से सभी वृक्ष पलते हैं तथापि वे पृथक् पृथक् स्वभाव को प्राप्त होते हैं। बगीचा लगाने वाले में किसी प्रकार विषमता और निर्दयता का दोष नहीं होता।

देवाधिदेव भगवान् विष्णु का एक निमेष ब्रह्माजी के एक कल्प के समान माना गया है। ब्रह्मकल्प के अन्त में देवाधिदेव शिरोमणि भगवान् विष्णु का उन्मेष होता है अर्थात् वे आँख खोलकर देखते हैं। जब तक निमेष रहता है तब तक प्रलय है। निमेष के अन्त में भगवान् अपने उदर में स्थित सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि करने की इच्छा करते हैं। सृष्टि की इच्छा होने पर भगवान् अपने उदर में स्थित हुए अनेक प्रकार के जीव समूहों को देखते हैं। उनकी कुक्षि में रहते हुए भी सम्पूर्ण जीव उनके ध्यान में स्थित होते हैं। अर्थात् कौन जीव कहाँ किस रूप में है, इसकी स्मृति भगवान् को सदा बनी रहती है।

भगवान् विष्णु चतुरव्यहस्वरूप हैं। वे उन्मेष काल के प्रथम भाग में ही चतुर्व्यह रूप में प्रकट हो, व्यूह गामी वासुदेव स्वरूप से महात्माओं मे से किसी को सायुज्य-साधक तत्त्वज्ञान, किसी को सारूप्य, किसी को सामीप्य और किसी को सालोक्य प्रदान करते हैं। फिर अनिरुद्ध मूर्ति के वश में स्थित हुए सम्पूर्ण लोकों को वे देखते हैं, देखकर उन्हें प्रद्युम्न मूर्ति के वश में देते हैं और सृष्टि करने का संकल्प करते हैं। भगवान् श्रीहरि ने पूर्ण गुण वाले वासुदेव आदि चार व्यूहों के द्वारा क्रमश: माया, जया, कृति और शान्ति को स्वयं स्वीकार किया है। उनसे संयुक्त चतुर्व्यूहात्मक महाविष्णु ने पूर्णकाम होकर भी भिन्न-भिन्न कर्म और वासना वाले लोकों की सृष्टि की है। उन्मेष काल का

अन्त होने पर भगवान् विष्णु पुनः योग माया का आश्रय लेकर व्यूहगामी संकर्षण स्वरूप से इस चराचर जगत् का संहार करते हैं। इस प्रकार महात्मा विष्णु का यह सब चिन्तन करने योग्य कार्य बतलाया गया, जो ब्रह्मा आदि योग से सम्पन्न पुरुषों के लिये भी अचिन्त्य एवं दुर्विभाव्य है।

व्याध ने पूछा–मुने भागवत धर्म कौन-कौन से हैं और किनके द्वारा भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं ?

शंख ने कहा–जिससे अन्तःकरण की शुद्धि होती है, जो साधु पुरुषों का उपकार करने वाला हैं तथा जिसकी किसी ने भी निन्दा नहीं की है, उसे तुम सात्त्विक धर्म समझो। वेदों और स्मृतियों में बताये हुए धर्म का यदि निष्काम भाव से पालन किया जाय तथा वह लोक से विरुद्ध न हो, तो उसे भी सात्त्विक धर्म जानना चाहिये। वर्ण और आश्रम विभाग के अनुसार जो चार-चार प्रकार के धर्म हैं, वे सभी नित्य, नैमित्तिक और काम्य भेद से तीन प्रकार के माने गये हैं। वे सभी अपने-अपने वर्ण और आश्रम के धर्म जब भगवान् विष्णु को समर्पित कर दिये जाते हैं, तब उन्हें सात्त्विक धर्म जानना चाहिये।

वे सात्त्विक धर्म ही मंगलमय भागवतधर्म हैं। अन्यान्य देवताओं की प्रीति के लिये सकाम भाव से किये जाने वाले धर्म राजस माने गये हैं। यक्ष, राक्षस, पिशाच आदि के उद्देश्य से किये जाने वाले लोकनिष्ठुर, हिंसात्मक निन्दित कर्मों को तामस धर्म कहा गया है। जो सत्त्वगुण में स्थित हो भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने वाले शुभ कारक सात्त्विक धर्मों का सदा निष्कामभाव से अनुष्ठान करते हैं, वे भागवत (विष्णुभक्त) माने गये हैं। जिनका चित्त सदा भगवान् विष्णु में लगा रहता है, जिनकी जिह्वा पर भगवान् का नाम है। और जिनके हृदय में भगवान् के चरण विराजमान हैं, वे भागवत कहे गये हैं। जो सदाचार परायण, सबका उपकार करने वाले और सदैव ममता से रहित हैं, वे भागवत माने गये हैं। जिनका शास्त्र में गुरु में और सत्कर्मों में विश्वास है तथा जो सदा भगवान् विष्णु के भजन में लगे रहते है, उन्हें भागवत कहा गया है।

उन भगवद्भक्त महात्माओं को जो धर्म नित्य मान्य हैं, जो भगवान् विष्णु को प्रिय हैं तथा वेदों और स्मृतियों में जिनका प्रतिपादन किया गया है, वे ही सनातन धर्म माने गये हैं। जिनका चित्त विषयों में आसक्त है, उनका सब देशों में घूमना, सब कर्मो को देखना और सब धर्मो को सुनना कुछ भी लाभ कारक नहीं है। साधु-पुरुषों का मन साधु-महात्माओं के दर्शन से पिघल जाता है। निष्काम पुरुषों द्वारा श्रद्धा पूर्वक जिसका सेवन किया जाता है तथा जो भगवान् विष्णु को सदा ही प्रिय है, वह भागवत धर्म माना गया है।

भगवान् विष्णु ने क्षीरसागर में सबके हित की कामना से भगवती लक्ष्मीजी को दही से निकाले हुए मक्खन की भाँति सब शास्त्रों के सारभूत वैशाख धर्म का उपदेश किया है। जो दम्भ रहित होकर वैशाख मास के व्रत का अनुष्ठान करता है, सब पापों से रहित हो सूर्यमण्डल को भेदकर भगवान् विष्णु के योगिदुर्लभ परम धाम में जाता है।

इस प्रकार द्विजश्रेष्ठ शंख के द्वारा भगवान् विष्णु के प्रिय वैशाख मास के धर्मो का वर्णन होते समय वह पाँच शाखाओं वाला वटवृक्ष तुरंत ही भूमि पर गिर पड़ा। उसके खोंखले में एक विकराल अजगर रहता था, वह भी पापयोनिमय शरीर को त्यागकर तत्काल दिव्य स्वरूप हो मस्तक झुकाये शंख के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।

जय जय श्री हरि

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