जानें अनन्त चतुर्दशी पूजा विधि व्रत के नियम अनन्त चतुर्दशी का महत्व अनन्त चतुर्दशी कथा और मंत्र  

हिन्दू धर्म में अनन्त चतुर्दशी का बड़ा महत्व है, इसे अनन्त चौदस के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन भगवान विष्णु के अनन्त रूप की पूजा की जाती है। भाद्रपद मास में शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी कहा जाता है। इस दिन व्रत रखने और अनन्त सूत्र को बाँधने से जीवन की सभी समस्याओं से मुक्ति मिलती है। इस दिन कई जगहों पर धार्मिक झांकियां निकाली जाती है।

अनन्त चतुर्दशी पर भगवान विष्णु, यमुना नदी और शेषनाग जी की पूजा की जाती है। शास्त्रों के अनुसार अनन्त चतुर्दशी का व्रत मनुष्य को जीवन के सभी कष्टों से बाहर निकलता है। लेकिन अनन्त चतुर्दशी व्रत के नियमों का पालन किए बिना आप इसे पूर्ण नहीं कर सकते हैं और न हीं इसके शुभफलों को प्राप्त कर सकते है। अनन्त चतुर्दशी का व्रत करने से पहले आपको इस व्रत के नियम अवश्य ही जान लेनी चाहिये।

अनन्त चतुर्दशी व्रत के नियम

01. अनन्त चतुर्दशी का व्रत करने वाले साधक को ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए और स्नान आदि करने के बाद व्रत का संकल्प लेना चाहिए।

02. इस दिन भगवान विष्णु, माता यमुना और शेषनाग जी की पूजा की जाती है, इसलिए इनकी पूजा अवश्य करें।

03. अनन्त चतुर्दशी के दिन भगवान विष्णु के साथ कलश के रूप में माता यमुना और दूर्वा के रूप में शेषनाग जी को स्थापित करें

04. इस दिन अनन्त सूत्र भी धारण किया जाता है, इसलिए पूजा के समय 14 गाँठों वाला अनन्त धागा भगवान विष्णु के चरणों में अवश्य रखें, इसके बाद ही इसे धारण करें

05. अनन्त चतुर्दशी के दिन आपको अनन्त चतुर्दशी की कथा अवश्य सुननी और पढ़नी चाहिए।

06. यदि आपने अनन्त चतुर्दशी का व्रत किया है तो आपको इस दिन झूठ बिल्कुल भी नहीं बोलना चाहिए और न हीं किसी की निंदा करनी चाहिए।

07. अगर आपने अनन्त चतुर्दशी के दिन व्रत किया है तो आपको अनन्त धागे को साल भर अवश्य बाँधना चाहिए, यदि आप ऐसा नहीं कर सकते तो कम से कम 14 दिन तक जरूर बाँधे।

08. अनन्त चतुर्दशी के दिन यदि आपने व्रत किया है तो आपको इस दिन नमक का सेवन बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए आपको इस दिन मीठा ही भोजन करना चाहिए।

09. इस दिन आपको सिर्फ एक ही समय भोजन करना चाहिए, क्योंकि अनन्त चतुर्दशी के व्रत में केवल पारण के समय ही भोजन किया जाता है।

10. अनन्त चतुर्दशी के दिन आपको निर्धन व्यक्ति और ब्राह्मण को भोजन कराकर अपने सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा अवश्य देनी चाहिए।

अनन्त चतुर्दशी पूजा विधि 

इस दिन सुबह सुबह स्नान कर साफ सुथरे कपडे़ पहन लें। उसके बाद भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए व्रत का संकल्प लें और पूजा स्थल पर कलश की स्थापना करें। कलश पर कुश से बने अनन्त की स्थापना करें। आप अगर चाहें तो भगवान विष्णु की प्रतीमा भी लगा सकते हैं। अब एक डोरी या धागे में कुमकुम, केसर और हल्दी से रंगकर अनन्त सूत्र बना लें, जिसमें 14 गाँठें लगाएं। इस सूत्र को भगवान विष्णु को अर्पित करें। अब भगवान विष्णु और अनन्त सूत्र की षोडशोपचार विधि से पूजा शुरू करें।

इस मंत्र का करें जाप

अनन्त संसार महासुमद्रे मग्रं समभ्युद्धर वासुदेव।

अनन्तरूपे विनियोजयस्व ह्रानंतसूत्राय नमो नमस्ते।।

पूजन के बाद इस अनन्त सूत्र को अपनी बाजू पर बाँध लें। इस बात का ध्यान रखें कि अनन्त सूत्र पुरुष अपने दाएं हाथ पर और महिलाएं बाएं हाथ पर बाँधे। ऐसा करने के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराएं और सपरिवार प्रसाद ग्रहण करें।

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अनन्त चतुर्दशी का महत्व 

पौराणिक मान्यता के अनुसार महाभारत काल से अनन्त चतुर्दशी व्रत की शुरुआत हुई। यह भगवान विष्णु का दिन माना जाता है। अनन्त भगवान ने सृष्टि के आरंभ में चौदह लोकों तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, पाताल, भू, भुवः, स्वः, जन, तप, सत्य, मह की रचना की थी। इन लोकों का पालन और रक्षा करने के लिए वह स्वयं भी चौदह रूपों में प्रकट हुए थे, जिससे वे अनन्त प्रतीत होने लगे। इसलिए अनन्त चतुर्दशी का व्रत भगवान विष्णु को प्रसन्न करने और अनन्त फल देने वाला माना गया है।

मान्यता है कि इस दिन व्रत रखने के साथ-साथ यदि कोई व्यक्ति श्री विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करता है, तो उसकी समस्त मनोकामना पूर्ण होती है। धन-धान्य, सुख-संपदा और संतान आदि की कामना से यह व्रत किया जाता है। भारत के कई राज्यों में इस व्रत का प्रचलन है। इस दिन भगवान विष्णु की लोक कथाएं सुनी जाती है।

अनन्त चतुर्दशी कथा 

एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मंडप का निर्माण सुन्दर तो था ही, अद्भुत भी था वह यज्ञ मंडप इतना मनोरम था कि जल व थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मंडप में धोखा खा चुके थे।

एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मंडप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया। द्रौपदी ने यह देखकर ‘अंधों की संतान अंधी’ कह कर उनका उपहास किया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया।

यह बात उसके हृदय में बाण समान लगी। उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पांडवों से बदला लेने की ठान ली। उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे। उसने बदला लेने के लिए पांडवों को द्यूत-क्रीड़ा में हरा कर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पांडवों को जुए में पराजित कर दिया।

पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पांडवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पांडव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख कहा और दुख दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा- ‘हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनन्त भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।’ इस संदर्भ में श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को एक कथा सुनाई –

प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक नेक तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसकी एक परम सुन्दरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी। जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई।

पत्नी के मरने के बाद सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। सुशीला का विवाह ब्राह्मण सुमंत ने कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बाँध कर दे दिए।

कौंडिन्य ऋषि दुखी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए। परन्तु रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर संध्या करने लगे। सुशीला ने देखा- वहाँ पर बहुत-सी स्त्रियाँ सुन्दर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा पर रही थीं। सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनन्त व्रत की महत्ता बताई। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गाँठों वाला डोरा हाथ में बाँध कर ऋषि कौंडिन्य के पास आ गई।

कौंडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। उन्होंने डोरे को तोड़ कर अग्नि में डाल दिया, इससे भगवान अनन्त जी का अपमान हुआ। परिणामत: ऋषि कौंडिन्य दुखी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनन्त भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं।पश्चाताप करते हुए ऋषि कौंडिन्य अनन्त डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए। वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े। तब अनन्त भगवान प्रकट होकर बोले-

हे कौंडिन्य तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। तुम दुखी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनन्त व्रत करो। चौदह वर्षपर्यंत व्रत करने से तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे। कौंडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई।

श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनन्त भगवान का व्रत किया जिसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे।

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