चातुर्मास महात्म्य अध्याय एक से दस तक सम्पूर्ण 

आषाढ मास में शुक्ल पक्ष कि द्वादशी अथवा पूर्णिमा या जब सूर्य का मिथुन राशि से कर्क राशि में प्रवेश होता हैं तब से चातुर्मास के व्रत का आरंभ होता हैं। चातुर्मास के व्रत की समाप्ति कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष कि द्वादशी को होती है। साधु संन्यासी आषाढ मास की पूर्णिमा से ही चातुर्मास मानते हैं।

सनातन धर्म के अनुयायी के मत से भगवान विष्णु सर्वव्यापी हैं एवं सम्पूर्ण ब्रह्मांड भगवान विष्णु कि शक्ति से संचालित होता हैं। इसलिये सनातन धर्म के लोग अपने सभी मांगलिक कार्यों का शुभारंभ प्रभु श्रीविष्णु को साक्षी मानकर करते हैं।शास्त्रों में वर्णित है कि वर्षाऋतु के चारों मास में लक्ष्मी जी भगवान विष्णु की सेवा करती हैं। इस अवधि में कुछ नियमों का पालन करके अपनी मनोकामना पूर्ति हेतु व्रत करने से विशेष लाभ प्राप्त होता हैं।यह आध्यात्मिक दृष्टि से अतिविशिष्ट काल होता है।चातुर्मास में व्रत करने वाले साधक को प्रतिदिन सूर्योदय के समय स्नान इत्यादि कृत्यों से निवृत्त होकर भगवान विष्णु की आराधना करनी चाहिये।

चातुर्मास महात्म्य अध्याय 01  

इस अध्याय में पढ़िये चातुर्मास व्रत का महात्म्य, संयम-नियम, दया धर्म तथा चौमासे में अन्न आदि दानों की महिमा का वर्णन। 

नारदजी बोले देवाधिदेव इस समय मैं शुभ कारक चातुर्मास्य व्रत को सुनना चाहता हूँ।

ब्रह्माजी ने कहा देवर्षे ये भगवान विष्णु ही सबको मोक्ष देने वाले तथा संसार सागर से पार उतारने वाले हैं। इनके स्मरण मात्र से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। संसार में मनुष्य-जन्म दुर्लभ है। उसमें भी उत्तम कुल में जन्म पाना और दुर्लभ है। कुलीन होने पर भी दयालु स्वभाव का होना और कठिन है। यह सब होने पर भी कल्याणमय सत्संग प्राप्त होना और भी दुर्लभ है। जहाँ सत्संग नहीं, विष्णु भक्ति नहीं और व्रत नहीं हैं, वहाँ कल्याण की प्राप्ति दुर्लभ हैं।

विशेषतः चातुर्मास्य में भगवान् विष्णु का व्रत करने वाला मनुष्य उत्तम माना गया है। सब तीर्थ, दान, पुण्य और देवस्थान चातुर्मास्य आने पर भगवान् विष्णु की शरण लेकर स्थित होते हैं। जो चातुर्मास्य में श्रीहरि को प्रणाम करता है, उसी का जीवन शुभ है। संसार में मनुष्य का जन्म और भगवान् विष्णु की भक्ति दोनों ही दुर्लभ हैं। जो मनुष्य चातुर्मास्य में नदी स्नान करता है, वह सिद्धि को प्राप्त होता है। जो झरना, तड़ाग और बावली में स्नान करता है, उसके सहस्त्रों पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। पुष्कर, प्रयाग अथवा और किसी महातीर्थ के जल में जो चातुर्मास्य में स्नान करता है, उसके पुण्य की संख्या नहीं है। नर्मदा, भास्कर क्षेत्र, प्राची सरस्वती तथा समुद्र-संगम में एक दिन भी जो चातुर्मास्य में स्नान करता है, उसमें पाप का लेशमात्र भी नहीं रह जाता।

जो नर्मदा में एकाग्रचित्त होकर तीन दिन भी चौमासे का स्नान करता है, उसके पाप के सहस्रों टुकड़े हो जाते हैं। जो गोदावरी नदी में सूर्योदय के समय चौमासे में पंद्रह दिन तक स्नान करता है, वह कर्मजनित शरीर का परित्याग करके भगवान् विष्णु के धाम में जाता है। जो मनुष्य तिल मिश्रित एवं आँवला मिश्रित जल से अथवा बिल्वपत्र के जल से चातुर्मास्य में स्नान करता है, उसमें दोष का लेशमात्र भी नहीं रह जाता। देवाधिदेव भगवान् विष्णु के चरणों के अंगुष्ठ से प्रवाहित होने वाली गंगाजी सदा ही पापनाशिनी कही गयी हैं चातुर्मास्य में उनका यह माहात्म्य विशेष रूप से प्रकट होता है। भगवान् विष्णु स्मरण करने पर सहस्रों पाप भस्म कर डालते हैं, इसलिये उनका चरणोदक मस्तक पर चौमासे में धारण किया जाय तो वह कल्याणकारी होता है।

चातुर्मास्य में भगवान् नारायण जल में शयन करते हैं, अत: उसमें भगवान् विष्णु के तेज का अंश व्याप्त रहता है। उस समय उसमें किया हुआ स्नान सब तीर्थों से अधिक फल देने वाला होता है। नारद! बिना स्नान के जो पुण्यकार्यमय शुभ कर्म किया जाता है, वह निष्फल होता है, उसे राक्षस ग्रहण कर लेते हैं। स्नान से मनुष्य सत्य को पाता है। स्नान सनातन धर्म है, धर्म से मोक्ष रूप फल पाकर मनुष्य फिर दु:खी नहीं होता। रात को और सन्ध्या काल में बिना ग्रहण के स्नान न करे, गर्म जल से भी स्नान नहीं करना चाहिये। सूर्य के दर्शन से सब कर्मों में शुद्धि कही गयी है। चातुर्मास्य में विशेष रूप से जल की शुद्धि होती है।

शरीर असमर्थ हो तो भस्मस्नान से उसकी शुद्धि होती है। मन्त्र स्नान से, भगवान् विष्णुके चरणोदक से अथवा भगवान् नारायण के आगे क्षेत्र, तीर्थ और नदी आदि में जो स्नान करता है, उसका चित्त शुद्ध हो जाता है। चातुर्मास्य में यह महत्त्व और बढ़ जाता है।

चातुर्मास में भगवान् के शयन करने पर प्रतिदिन स्नान के अन्तर में श्रद्धायुक्त चित्त से पितरों का तर्पण करना चाहिये। इससे महान् फल की प्राप्ति होती है। नदियों के संगम में स्नान के पश्चात् पितरों और देवताओं का तर्पण करके जप, होम आदि कर्म करने से अनन्त फल की प्राप्ति होती है। पहले भगवान् गोविन्द का स्मरण करके पीछे शुभ कर्मो का अनुष्ठान करना चाहिये। ये भगवान् गोविन्द ही देवता, पितर और मनुष्य आदिको तृप्ति देने वाले हैं। चातुर्मास्य सब गुणों से उत्कृष्ट समय है। उसमें धर्मयुक्त श्रद्धा एवं स्मृति से पवित्र समस्त कर्मो का अनुष्ठान करना चाहिये।

सत्संग, ब्राह्मण भक्ति, गुरु, देवता और अग्नि का तर्पण, गोदान, वेदपाठ, सत्कर्म, सत्यभाषण, गोभक्ति और दान में प्रीति–ये सब सदा धर्म के साधन हैं। भगवान् विष्णु के शयन करने पर उक्त धर्मो का साधन एवं नियम भी महान् फल देने वाला होता है। दो घड़ी भी भगवान् विष्णु का ध्यान एवं उन निरंजन परमेश्वर के सेवन से सौ जन्मों का पाप भस्म हो जाता है। यदि मनुष्य चौमासे में भक्ति पूर्वक योग के अभ्यास में तत्पर न हुआ, तो नि:सन्देह उसके हाथ से अमृत गिर गया। बुद्धिमान् मनुष्य को सदैव मन को संयम में रखने का प्रयत्न करना चाहिये; क्योंकि मन के भली भाँति वश में होने से ही पूर्णतः ज्ञान की प्राप्ति होती है। यह बात निश्चय पूर्वक कही जा सकती है।

अत: क्षमा के द्वारा मन को वश में करना चाहिये। एकमात्र सत्य ही परम धर्म है, एक सत्य ही परम तप है, केवल सत्य ही परम ज्ञान है और सत्य में ही धर्म की प्रतिष्ठा है। अहिंसा धर्म का मूल है, इसलिये उस अहिंसा को मन, वाणी और क्रिया के द्वारा आचरण में लाना चाहिये। पराये धन का अपहरण और चोरी आदि पाप कर्म सदा सब मनुष्यों के लिये वर्जित हैं। चातुर्मास्य में इनसे विशेष रूप से बचना चाहिये। ब्राह्मण तथा देवता की सम्पत्ति का विशेष रूप से त्याग करना चाहिये। न करने योग्य कर्मो का आचरण विद्वान् पुरुषों के लिये सदैव त्याज्य है।

नारद जो सम्पूर्ण कार्यों में निष्काम भाव से प्रवृत्त होता है, जिसमें अहं बुद्धि का अभाव है, जो बुद्धि के नेत्रों से ही देखता है, ऐसा पुरुष ही महाज्ञानी और योगी है। मनुष्यों के शरीर में यह अहंकार विष है। अत: वह सदैव त्याग देने योग्य है। मनुष्य कामना के त्याग द्वारा क्रोध और लोभ को जीते। ऐसे मनुष्य के सहस्त्रों पाप उसके शरीर से निकलकर सहस्रों टुकड़ों में नष्ट हो जाते हैं। शान्ति के द्वारा मोह और मन को जीत कर विचार के द्वारा शान्ति भाव को अपनाना चाहिये। सन्तोष से भी शान्ति का उदय होता है। जो अपनी कोमलता एवं सरलता के द्वारा ईर्ष्या भाव को दबा देता है, यह मुनीश्वर है। चातुर्मास्य में जीवदया विशेष धर्म है। प्राणियों से द्रोह करना कभी भी धर्म नहीं माना गया है।

अत: सदा सब मासों में भूतद्रोह का परित्याग करना चाहिये। मनीषी पुरुष इस भूतद्रोह को सहस्रों पापों का मूल बताते हैं। इसलिये मनुष्यों को सर्वथा प्रयत्न करके प्राणियों के प्रति दया करनी चाहिये। सब प्राणियों के हृदय में सदा भगवान् विष्णु विराज रहे हैं। जो उन प्राणियों से द्रोह करने वाला है, उसके द्वारा भगवान् का ही तिरस्कार होता है। जिस धर्म में दया नहीं है, वह दूषित माना गया है दया के बिना न विज्ञान होता है, न धर्म होता है और न ज्ञान ही होता है। अत: सब प्राणियों के प्रति आत्मभाव रखकर सबके ऊपर दया करना सनातन, धर्म है, जो सब पुरुषों के द्वारा सदा सेवन करने योग्य है।

सब धर्मो में दान धर्म की विद्वान् लोग सदा प्रशंसा करते हैं। वेद में अन्न को ब्रह्म कहा गया है, अन्न में ही प्राणों की प्रतिष्ठा है। अत: मनुष्य सदा अन्न एवं जल का दान करे। जल देने वाला तृप्ति को और अन्न-दान करने वाला मनुष्य अक्षय सुख को पाता है। अन्न और जल के समान दूसरा कोई दान न हुआ है, न होगा। मणि, रत्न, मूँगा, चाँदी, सोना और वस्त्र तथा अन्य वस्तुओं के दानों में भी अन्नदान ही सबसे बढ़कर है। चातुर्मास्य में अन्न और जल का दान, गोदान, प्रतिदिन वेदपाठ और अग्नि में हवन-ये सब महान् फल देने वाले हैं।

यदि भगवान् विष्णु के साथ समागम के लिये वैकुण्ठ धाम में जाने की इच्छा हो, तो सब पापों के नाश के लिये चौमासे में अन्नदान करना चाहिये। अन्नदान करने से सब प्राणी प्रसन्न होते हैं। देवता भी अन्नदाता की स्पृहा रखते हैं। गुरु और ब्राह्मणों को भोजन कराना, घृतदान करना तथा सत्कर्मों में संलग्न रहना- ये सब बातें चातुर्मास्य काल में जिसमें मौजूद हैं, वह साधारण मनुष्य नहीं है। सद्धर्म, सत्कथा, सत्पुरुषों की सेवा, संतों का दर्शन, भगवान् विष्णु का पूजन और दान में अनुराग- ये सब बातें चौमासे में दुर्लभ बतायी गयी हैं। जो मनुष्य चौमासे में पितरों के उद्देश्य से अन्नदान करता है, वह सब पापों से शुद्धचित्त होकर पितरों के लोक में जाता है।

उसके अन्नदान से तृप्त हुए देवता लोग उसे मनोवांछित वस्तु प्रदान करते हैं। चींटी भी उसके घर से भोजन लेकर जाती है। अन्नदान सबसे उत्तम है, उसका न रात में निषेध है, न दिन में। चौमासे में वह विशेष रूप से पापों का नाश करने वाला है। शत्रुओं को भी अन्न देना मना नहीं है। चौमासे में दूध, दही एवं मट्टा का दान महान् फल देने वाला होता है। जन्म काल में जिससे यह शरीर पुष्ट हुआ है, उस अन्न एवं दुग्ध का दान उत्तम है। साग देने वाला मनुष्य न कभी नरक में जाता है और न यमलोक का दर्शन करता है। वस्त्र देने वाला प्रलय काल तक चन्द्रलोक में निवास करता है।

जो चातुर्मास्य में चन्दन, अगुरु और धूप का दान करता है, वह मनुष्य पुत्र – पौत्रों सहित विष्णु रूप होता है। भगवान् विष्णु के शयन काल में जो मनुष्य वेदवेत्ता ब्राह्मण को फल दान करता है, वह यमलोक को नहीं देखता जो चौमासे में भगवान् विष्णु की प्रीति के लिये विद्यादान, गोदान और भूमिदान करता है, वह अपने पूर्वजों का उद्धार कर देता है। जो जिस देवता के उद्देश्य से चौमासे में गुड़, नमक, तेल, शहद, तिक्त पदार्थ, तिल और अन्न देता है, वह उसी के लोक में जाता है। विशेषतः चातुर्मास्य में मनुष्य को अग्नि में आहुति देनी चाहिये, ब्राह्मण को दान देना चाहिये और गौओं की भली भाँति सेवा पूजा करनी चाहिये।

भविष्य में दान देने की प्रतिज्ञा न करके शीघ्र ही दे डालना चाहिये। मनुष्य जो कुछ देने की इच्छा करे, वह अवश्य दे डाले। जिसको देने का निश्चय किया हो उसे ही दे, दूसरे को न दे। दी हुई वस्तु उससे वापस न ले। जो श्रीहरि के शयनकाल में ब्राह्मणों के लिये सब प्रकार का दान देता है, वह पूर्वजों सहित अपने को पापों से मुक्त कर लेता है।

संदर्भ: श्रीस्कन्द महापुराण

चातुर्मास महात्म्य अध्याय 02 

इस अध्याय में पढ़िये चातुर्मास में इष्ट वस्तु के परित्याग तथा नियम-पालन का महत्त्व। 

ब्रह्माजी कहते हैं मनुष्य सदा प्रिय वस्तु की इच्छा करता है। अत: जो चातुर्मास्य में भगवान् नारायण की प्रीति के लिये अपने प्रिय भोगों का पूर्ण प्रयत्न पूर्वक त्याग करता है, उसकी त्यागी हुई वे वस्तुएँ उसे अक्षयरूप में प्राप्त होती हैं। जो मनुष्य श्रद्धा पूर्वक प्रिय वस्तु का त्याग करता है, वह अनन्त फल का भागी होता है। धातु पात्रों का त्याग करके पलाश के पत्ते में भोजन करने वाला मनुष्य ब्रह्म भाव को प्राप्त होता है। गृहस्थ मनुष्य ताँबे के पात्र में कदापि भोजन न करे चौमासे में तो ताँबे के पात्र में भोजन विशेष रूप से त्याज्य है। मदार के पत्ते में भोजन करने वाला मनुष्य अनुपम फल को पाता है।

चातुर्मास्य में विशेषत: वट के पत्र में भोजन करना चाहिये चातुर्मास्य में भगवान् विष्णु को प्रीति के लिये गृहस्थ-आश्रम का परित्याग करके बाह्य आश्रम का सेवन करने वाले मनुष्य का पुनर्जन्म नहीं होता। मिर्च छोड़ने से राजा होता है, रेशमी वस्त्रों के त्याग से अक्षय सुख मिलता है, उड़द और चना छोड़ देने से पुनर्जन्म की प्राप्ति नहीं होती। चातुर्मास्य में विशेषतः काले रंग का वस्त्र त्याग देना चाहिये। नीले वस्त्र को देख लेने से जो दोष लगता है, उसकी शुद्धि भगवान् सूर्यनारायण के दर्शन से होती है। कुसुम्भ रंग के परित्याग करने से मनुष्य यमराज को नहीं देखता। केशर के त्याग से वह राजा का प्रिय होता है। फूलों को छोड़ने से मनुष्य ज्ञानी होता है, शय्या का परित्याग करने से महान् सुख की प्राप्ति होती है।

असत्यभाषण के त्याग से मोक्ष का दरवाजा खुल जाता है। चातुर्मास्य में परनिन्दा का विशेषप रूप से परित्याग करे। पर-निन्दा महान् पाप है, पर निन्दा महान् भय है, पर निन्दा महान् दु:ख है और परनिन्दा से बढ़कर दूसरा कोई पातक नहीं है। परनिन्दा को सुनने वाला भी पापी होता है। चौमासे में केशों का सँवारना (हजामत) त्याग दे तो वह तीनों तापों से रहित होता है। जो भगवान् के शयन करने पर विशेषत: नख और रोम धारण किये रहता है, उसे प्रतिदिन गंगा स्नान का फल मिलता है। मनुष्य को सब उपायों द्वारा योगियों के ध्येय भगवान् विष्णु को ही प्रसन्न करना चाहिये। समस्त वर्णों एवं श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा भी भगवान् श्रीहरि का ही चिन्तन करना चाहिये। भगवान् विष्णु के नाम से मनुष्य घोर बन्धन से मुक्त हो जाता है। चातुर्मास्य में उनका विशेष रूप से स्मरण करना उचित है।

कर्क की संक्रान्ति के दिन भगवान् विष्णु का भक्ति पूर्वक पूजन करके प्रशस्त एवं शुभ जामुन के फलों से अर्घ्य देना चाहिये। अर्घ्य देते समय इस भाव का चिन्तन करे- ‘छ: महीने के भीतर जहाँ कहीं भी मेरी मृत्यु हो जाय तो मानो मैंने स्वयं ही अपने-आपको भगवान् वासुदेव के चरणों में ही समर्पित कर दिया।’ सर्वथा प्रयत्न करके भगवान् जनार्दन का सेवन करना चाहिये। जो मनुष्य भगवान् विष्णु की कथा, पूजा, ध्यान और नमस्कार सब कुछ उन्हीं श्रीहरि की प्रसन्नता के लिये करता है, वह मोक्ष का भागी होता है। सत्य स्वरूप सनातन विष्णु वर्णाश्रम-धर्म के स्वरूप हैं।

जन्म-मृत्यु आदि के कष्ट का उन्हीं के द्वारा नाश होता है। अत: चातुर्मास्य में विशेष रूप से व्रत द्वारा श्रीहरि को ही ग्रहण करना चाहिये। तपोनिधि भगवान् नारायण के शयन करने पर अपने इस शरीर को तपस्या द्वारा शुद्ध करना चाहिये। भगवान् विष्णु की भक्ति से युक्त जो व्रत है, उसे विष्णुव्रत जानो। धर्म में संलग्न होना तप है। व्रतों में सबसे उत्तम व्रत है – ब्रह्मचर्य का पालन। ब्रह्मचर्य तपस्या का सार है और ब्रह्मचर्य महान् फल देने वाला है। इसलिये समस्त कर्मों में ब्रह्मचर्य को बढ़ावे। ब्रह्मचर्य के प्रभाव से उग्र तपस्या होती है। ब्रह्मचर्य से बढ़कर धर्म का उत्तम साधन दूसरा नहीं है।

विशेषत: चातुर्मास्य में भगवान् विष्णु के शयन करने पर यह महान् व्रत संसार में अधिक गुणकारक है- ऐसा जानो। जो इस वैष्णवधर्म का पालन करता है, वह कभी कर्मो से लिप्त नहीं होता। भगवान् के शयन करने पर जो यह प्रतिज्ञा करके कि- ‘हे भगवन्! मैं आपकी प्रसन्नता के लिये अमुक सत्कर्म करूँगा। उसका पालन करता है, तो उसी को व्रत कहते हैं। वह व्रत अधिक गुणों वाला होता है। अग्निहोत्र, ब्राह्मण भक्ति, धर्मविषयक श्रद्धा, उत्तम बुद्धि, सत्संग, विष्णुपूजा, सत्य भाषण, हृदय में दया, सरलता एवं कोमलता, मधुर वाणी, उत्तम चरित्र में अनुराग वेदपाठ, चोरी का त्याग, अहिंसा, लज्जा, क्षमा, मन और इन्द्रियों का संयम, लोभ, क्रोध और मोह का अभाव, इन्द्रिय संयम में

प्रेम, वैदिक कर्मों का उत्तम ज्ञान तथा श्रीकृष्ण को अपने चित्त का समर्पण- ये नियम जिस पुरुष में स्थिर हैं, वह जीवन्मुक्त कहा गया है। वह पातकों से कभी लिप्त नहीं होता। एक बार का किया हुआ व्रत भी सदैव महान् फल देने वाला होता है। चातुर्मास्य में ब्रह्मचर्य आदि का सेवन अधिक फलद होता है। चातुर्मास्य व्रत का अनुष्ठान सभी वर्ण के लोगों के लिये महान् फलदायक है। व्रत के सेवन में लगे हुए मनुष्यो द्वारा सर्वत्र भगवान् विष्णु का दर्शन होता है। चातुर्मास्य आने पर व्रत का यत्न पूर्वक पालन करे। विष्णु, ब्राह्मण और अग्निस्वरूप तीर्थ का सेवन करे। चारों वेदमय स्वरूप वाले अजन्मा विराट् पुरुष को भजे, जिनके प्रसाद से मनुष्य मोक्षरूपी महान् वृक्ष के ऊपर चढ़ जाता है और कभी सन्ताप को नहीं प्राप्त होता।

संदर्भ: श्रीस्कन्द महापुराण 

चातुर्मास महात्म्य अध्याय 03 

इस अध्याय में पढ़िये- चातुर्मास्य में विशेष-विशेष तप और भगवान् की षोडशोपचार पूजा का क्रम। 

ब्रह्माजी कहते हैं षोडशोपचार से सदैव भगवान् विष्णु की पूजा करना तप है और भगवान् के शयन करने पर वही महातप कहा गया है। इसी प्रकार सदा पंचयज्ञों का अनुष्ठान भी तप है; परंतु चातुर्मास्य में श्रीहरि को निवेदन करने पर वही महातप हो जाता है। ऋतुकाल में स्त्री के साथ सम्बन्ध करना गृहस्थ के लिये सदा ही तप माना गया है, किंतु वही चातुर्मास्य में श्रीहरि की प्रीति के लिये किया जाय तो महातप है। सदा सत्य बोलना तप है। यह भूतल पर निवास करने वाले प्राणियों के लिये दुर्लभ तप कहा गया है। देवेश्वर श्रीहरि के शयन करने पर यह सत्यभाषण रूपी तपस्या करने वाला मनुष्य अनन्त फल का भागी होता है।

अहिंसा आदि गुणों का पालन करना सदा ही तप है; किंतु चातुर्मास्य में वैरभाव का परित्याग करके उसका पालन किया जाय तो वह महातप कहा गया है। पंचायतन पूजा महातप है। मनुष्य चातुर्मास्य में श्रीहरि की प्रीति के लिये इस महातप का विशेष रूप से अनुष्ठान करे। सभी पर्वो के अवसर पर सदा दान देना चाहिये, यह तप है; परंतु चातुर्मास्य में विशेष रूप से उसका पालन करने पर वह दान अनन्त होता है।

चौमासे में दो प्रकार का शौच ग्रहण करना चाहिये। एक बाह्य शौच और दूसरा आन्तरिक शौच। जल से नहाना-धोना बाह्य शौच कहलाता है और श्रद्धा से अन्त:करण को शुद्ध करना आन्तरिक शौच है। इन्द्रियों का निग्रह करना चाहिये। यह तपस्या का उत्तम लक्षण है। किंतु चातुमर्मास्य में इन्द्रियों की चंचलता दूर हो तो वह महातप कहा गया है। इन्द्रियरूपी घोड़ों को काबू में रखकर मनुष्य सदा सुख पाता है। वे इन्द्रियरूपी अश्व जब कुमार्ग से चलने लगते हैं, तब जीव को नरक में गिराते हैं। यह काम महान् शत्रु है। इस एकको ही दृढ़ता पूर्वक जीते। जिन महात्माओं ने काम को जीत लिया है, उन्होंने सम्पूर्ण जगत् पर विजय पा ली है। काम और संकल्प पर विजय पा लेना ही तपस्या का मृल है।

वही सबसे उत्तम ज्ञान है जिसके द्वारा काम को जीत लिया जाय। लोभ सदा त्याग देने योग्य है; क्योंकि लोभ में पाप की स्थिति है। लोभ को जीत लेना ही तप है। चातुर्मास्य में इसका विशेष महत्त्व है। मोह का अर्थ है अविवेक। वह सदा त्याग देने योग्य है। जो मोह से रहित है, वही ज्ञानी है। मनुष्यों के शरीर में रहने वाला मद ही महान् शत्रु है। यों तो सदा ही किंतु चातुर्मास्य में विशेष रूप से उसका निग्रह करना चाहिये। मान बड़ा भयंकर शत्रु है। वह सब प्राणियों के भीतर निवास करता है। उसे क्षमा द्वारा जीतना चाहिये। चातुर्मास्य में उसे जीतना अधिक गुणकारी होता है। मात्सर्य (ईर्ष्या) भी महान् पातक का कारण है।

अत: विद्वान् पुरुष चातुर्मास्य में उसको जीते। जिसने उसे जीत लिया, उसने तीनों लोक जीत लिये। अहंकार के वशीभूत हुए अजितेन्द्रिय मुनि धर्म मार्ग को छोड़कर कुमार्ग के कर्म करने लगते हैं। अत: अहंकार का परित्याग करके मनुष्य सदैव सुख पाता है। विशेषत: चातुर्मास्य में अहंकार के त्याग का महान् फल है। यह तपस्या का मूल है। जो मनुष्य विष्णु के शयन काल में प्रतिदिन एक समय भोजन करता है, उसे द्वादशाह यज्ञ का फल मिलता है। जो मनुष्य चातुमर्मास्य में प्रतिमास नित्य चान्द्रायणव्रत करता है, उसके पुण्य का वर्णन नहीं किया जा सकता।

जो भगवान् विष्णु के शयनकाल में कृच्छू व्रत का सेवन करता है, वह पापराशि का नाश करके वैकुण्ठ में भगवान् का पार्षद होता है। जो चातुर्मास्य में केवल दूध पीकर रहता है, उसके सहस्रों पाप तत्काल विलीन हो जाते हैं। यदि धीर पुरुष चौमासे में नित्य परिमित अन्न का भोजन करता है, तो वह सब पातकों का नाश करके वैकुण्ठधाम पाता है। चौमासे में एक अन्न भोजन करने वाला मनुष्य रोगी नहीं होता। जो क्षार लवण का सेवन करने वाला नहीं है, उसमें पाप का अभाव हो जाता है।

चौमासे में भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये फलाहार करने वाला मनुष्य बड़े-बड़े पापों से मुक्त हो जाता है। जो कन्द-मूल का आहार करता है, वह अपने साथ पूर्वजों का भी घोर नरक से उद्धार करके भगवान् विष्णु के लोक में जाता है। जो प्रतिदिन चौमासे में केवल जल पीकर रहता है, उसे रोज-रोज अश्वमेधयज्ञ का फल प्राप्त होता है। जो मनुष्य चौमासे में श्रीहरि की प्रीति के लिये शीत और वर्षा सहन करता है, उस पर प्रसन्न होकर भगवान् जगन्नाथ उसे अपने-आपको दे डालते हैं। जो मन-ही-मन भगवान् नारायण का चिन्तन करके इस परम पवित्र और पाप की शुद्धि के हेतुभूत पुराण को सुनता अथवा पढ़ता है, वह मरकर मोक्ष को प्राप्त होता है।

नारदजी ने पूछा प्रजापते सोलह उपचारों से किस प्रकार भगवान् की पूजा की जाती है ?

ब्रह्माजी ने कहा- वेदों और शास्त्रोंक्ष के विधान के अनुसार भगवान् विष्णु की भक्ति दृढ़ करनी चाहिये। यह सब जो कुछ दिखायी देता है, सबका मूल वेद है और वेद सनातन भगवान् विष्णु का स्वरूप है। वेदों के आधार हैं ब्राह्मण तथा ब्राह्मणों के देवता अग्नि हैं। अग्नि में आहुति डालने वाला ब्राह्मण यज्ञ में सदा भगवान् श्रीहरि का यजन करता हुआ तथा श्रीविष्णु की पूजा में निरन्तर संलग्न रहता हुआ सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है। भगवान् नारायण का स्मरण और ध्यान क्लेश, दु:ख आदि का नाश करने वाला है। चातुर्मास्य में भगवान् श्रीहरि जल में विशेष रूप से व्याप्त रहते हैं। जल से अन्न पैदा होता है, जिससे जगत् की तृप्ति होती है। वह अन्न भगवान् विष्णु के शरीर के अंश से उत्पन्न होता है। अन्न को ‘ब्रह्म’ कहते हैं।

वह अन्न आवाहन पूर्वक भगवान् विष्णु को समर्पण करके मनुष्य पुनर्जन्म, वृद्धता और क्लेश के संस्कारों द्वारा तिरस्कृत नहीं होता। ‘सहस्त्रशीर्षा पुरुष:०’ इत्यादि जो सोलह ऋचाओं वाला यजुर्वेद का महासूक्त है, वह सर्वोत्कृष्ट नारायणमय है। उसके पाठमात्र से भी ब्रह्महत्या दूर हो जाती है। ब्राह्मण को उचित है कि वह पहले स्मृतियों में बतायी हुई विधि के अनुसार अपने शरीर में उक्त सोलह सूक्तों का न्यास करे। तत्पश्चात् भगवान् की प्रतिमा अथवा शालिग्राम शिला में विशेष रूप से न्यास करे। फिर क्रमश: आवाहन आदि करे।

वैकुण्ठधाम में विराजमान, कौस्तुभ मणि से सुशोभित, कोटि-कोटि सूर्यो के समान तेजस्वी, दण्डधारी, शिखासूत्र से सुशोभित पीताम्बरधारी रूप से भगवान् विष्णु का आवाहन करके ध्यान करे। सब पापों के समूह का नाश करने वाले श्रीविष्णु को इस रूप में अपने ध्यान में स्थिर करके उन्हें पूजा के लिये अपने आगे आवाहन करे पुरुषसूक्त की प्रथम ऋचा ‘सहस्त्रशीर्षा पुरुष:’ इत्यादि मन्त्र के आदि में ॐकार जोड़कर उसका उच्चारण करे और उसी के द्वारा भगवान् का आवाहन करे। इसी प्रकार दूसरी ऋचा ‘पुरुष एवेदम्’ इत्यादि से पार्षदों सहित श्रीहरि को आसन समर्पित करे। वे सभी आसन सुवर्णमय हैं, ऐसा मन-ही-मन चिन्तन करे।

भक्तियोग से चिन्तन करनेपर वह परिपूर्ण होता है। फिर तीसरी ऋचा से पाद्य समर्पण करे और उसमें गंगाजी का स्मरण करें। उसके बाद सरिताओं तथा सातों समुद्रों के जल से जगदीश भगवान् विष्णु को अर्घ्य दे। सरिताओं और सागरों का चिन्तनमात्र करना चाहिये। चौथी ऋचा से अर्घ्य दान करना उचित है। इसके बाद श्रीहरि को अमृत से आचमन करावे। तीन आचमन से ब्राह्मण की शुद्धि बतायी गयी है। आचमन का जल स्वच्छ एवं फेन और बुद्बुद से रहित होना चाहिये। ब्राह्मण इतने जल से आचमन करे कि वह उसके हृदय तक पहुँच जाय, क्षत्रिय कण्ठ तक जाने लायक जल से आचमन करे और वैश्य तालुतक पहुँचने लायक जल से आचमन करे।

स्त्री और शूद्र एक बार जल का स्पर्श मात्र करने से शुद्ध हो जाते हैं। पाँचवीं ऋचा के द्वारा भक्तियुक्त चित्त से आचमन करना चाहिये। भगवान् हृषीकेश भक्ति से ग्रहण करने योग्य हैं। भक्ति से वे अपने-आपको भी समर्पित कर देते हैं। तत्पश्चात् सुगन्धित पदार्थो द्वारा सुवासित और सभी ओषधियों से युक्त सुवर्णमय कलशों में रखे हुए जल से भगवान् को स्नान करावे। श्रद्धा पूर्वक मन से भावना द्वारा लाये हुए तीर्थ जल से स्नान कराना चाहिये। श्रद्धा के बिना दी हुई रत्नों की राशि भी निष्फल होती है और श्रद्धा से दिया हुआ जल भी अक्षय फल देने वाला होता है। छठी ऋचा से स्नान कराकर पुनः आचमन कराना चाहिये।

सातवीं ऋचा से भगवान् विष्णु के लिये वस्र देना चाहिये। आठवीं से यज्ञोपवीत समर्पित करे, नवीं ऋचा से यज्ञमूर्ति श्रीहरि के श्रीअंगों पर उत्तम चन्दन का लेप करना चाहिये। जिसने सुन्दर यक्षकर्दम के द्वारा जगद्गुरु भगवान् विष्णु के अंगों में लेप किया है, उसने अपने सुयश से इस संसार को आच्छादित एवं तृप्त किया है। चन्दन देने वाला मनुष्य संसार में अपने तेज से भगवान् सूर्य के समान होकर देवभाव को प्राप्त होता और ब्रह्मादि देवताओं के लोक में आनन्द का अनुभव करता है। जो मनुष्य चातुर्मास्य में भगवान विष्णु को चन्दन के आलेप से सुन्दर रूप में देखते हैं, वे कभी यमपुरी में नहीं जाते।

दसवीं ऋचा से भक्ति पूर्वक पुष्प चढ़ाकर भगवान कघ पूजा करे। पुष्पों से पूजित हुए भगवान् विष्णु को यदि दूसरे लोग भी प्रणाम करते हैं, तो उन्हें भी अक्षय लोक प्राप्त होते हैं। ग्यारहवीं ऋचा से श्रीहरि को धूपदान करना चाहिये- ‘उत्तम गन्ध से युक्त दिव्य वनस्पति का रस तथा अतिशय सुगन्धित यह धूप सम्पूर्ण देवताओं के सूँघने योग्य है, भगवन आप इसे ग्रहण करें। इस मन्त्र का उच्चारण करके भगवान् को अगुरु का धूप निवेदन करे। चातुमर्मास्य में इसका महान् फल है। कपूर, चन्दनदल, मिश्री, मधु और जटामासी से युक्त धूप श्रीहरि के शयनकाल में निवेदन करना चाहिये। देवता सूँघने से ही प्रसन्न होते हैं।

अत: धूप उनकी घ्राणेन्द्रिय को तृप्त करने का शुभ साधन है। मुक्ति की इच्छा रखने वाले पुरुषों को बारहवीं ऋचा से दीपदान करना चाहिये। जो चातुर्मास्य में भगवान् विष्णु के आगे दीपदान करता है, उसकी पापराशि पल भर में जलकर भस्म हो जाती है।

दीपदान के अनन्तर मोक्ष पद में स्थित भक्ति युक्त पुरुषों को तेरहवीं ऋचा के द्वारा भगवान् को अन्नमय नैवेद्य निवेदन करना चाहिये। अन्नदान के अनन्तर भगवान् को पुन: आचमन कराना चाहिये। तत्पश्चात चौदहवीं ऋचा से सब पापों का नाश करने वाली आरती उतारे और भगवान को नमस्कार करे। पंद्रहवीं ऋचा के द्वारा ब्राह्मणों के साथ भगवान के चारों ओर घूमकर परिक्रमा करनी चाहिये। चार बार परिक्रमा करने से चराचर प्राणियों सहित सम्पूर्ण जगत् की परिक्रमा तथा भगवत्सम्बन्धी तीर्थों की यात्रा सम्पन्न हो जाती है।

तदनन्तर सोलहवीं ऋचा द्वारा भगवान् विष्णु के साथ अपनी एकता का चिन्तन करे -‘मैं ही सदा विष्णु हूँ’ इस प्रकार अपने मन में भावना करने वाला ब्राह्मण जीवन्मुक्त हो जाता है। चौमासे में ब्राह्मण को विशेष रूप से योगयुक्त होना चाहिये। इस प्रकार यहाँ मोक्ष मार्ग प्रदान करने वाले भगवान विष्णु की भक्ति बतायी गयी।

संदर्भ:- श्रीस्कन्द महापुराण 

चातुर्मास महात्म्य अध्याय 04 

इस अध्याय में पढ़िये ब्रह्माजी के द्वारा मानसी और शारीरिक सृष्टि का प्रादुर्भाव, चारों वर्णों के धर्म तथा शूद्र जातियों के भेदों का वर्णन। 

नारदजी ने पूछा- पितामह अट्ठारह प्रकार की प्रजाएँ कौन-कौन-सी हैं ? उनकी जीवनवृत्ति और धर्म क्या है? यह सब बताइये।

ब्रह्माजी ने कहा- अपने काल के परिमाण से जब जगदीश्वर भगवान् श्रीहरि योगनिद्रा से जाग्रत् हुए, तब उस समय उनकी नाभि से प्रकट हुए कमल कोष से मेरा जन्म हुआ। तदनन्तर उस कमल की नाल से भगवान् के उदर में प्रवेश करके जब मैंने देखा, तब वहाँ मुझे कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों के दर्शन हुए; परंतु फिर जब बाहर आया तब सृष्टि के पदार्थ और उसके हेतुओं को भूल गया।

तब आकाशवाणी हुई- महामते तपस्या करो। यह भगवदीय आदेश पाकर मैंने दस हजार वर्षों तक तपस्या की। फिर मन के द्वारा पहले मानसी सृष्टि का चिन्तन किया उससे मरीचि आदि मुनीश्वर ब्राह्मण प्रकट हुए।

नारद उन्हीं में सबसे छोटे होकर तुम उत्पन्न हुए तुम ज्ञानी एवं वेदान्त के पारंगत पण्डित हुए। वे सब मुनि कर्मनिष्ठ हो सदा सृष्टि विस्तार के लिये उद्योग करने लगे। परंतु तुम अनन्य भाव से भगवान् विष्णु के भक्त हुए। एकान्तत: ब्रह्मचिन्तन परायण, ममता और अहंकार से शून्य हुए। तुम भी मेरे मानस पुत्र ही हो। मानसी सृष्टि के पश्चात मैंने देहजा सृष्टि की रचना की मेरे मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, दोनों ऊरुओं से वैश्य और चरणों से शूद्र उत्पन्न हुए अनुलोम और विलोम क्रम से शूद्र से नीचे-नीचे सब मेरे चरणतलों से ही प्रकट हुए हैं। वे सब प्रकृतियाँ (प्रजाजन) मेरे शरीर के अवयव विशेष से उत्पन्न हैं।

नारद मैं तुमसे उनके नाम बताता हूँ, सुनो- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन ही द्विज हैं। वेद, तपस्या, पठन, यज्ञ करना और दान देना–ये सब इनके कर्म हैं। द्विजों को पढ़ाने और थोड़ा-सा प्रतिग्रह लेने से ब्राह्मणों की जीविका चलती है यद्यपि ब्राह्मण तपस्या के प्रभाव से दान ग्रहण करने में समर्थ है, तथापि वह प्रतिग्रह न स्वीकार करे; क्योंकि उसे अपने तपोबल की रक्षा सदा करनी चाहिये। वेदपाठ, विष्णु-पूजन, ब्रह्मध्यान, लोभ का अभाव, क्रोध न होना, ममता शून्यता, क्षमासारता, आर्यता (श्रेष्ठ आचार का पालन), सत्कर्म परायणता, दानरूपी कर्म तथा सत्यभाषण आदि सद्गुणों से जो सदा विभूषित होता है, वह ब्राह्मण कहलाता है।

क्षत्रिय को तपस्या, यज्ञ, दान, वेदपाठ और ब्राह्मण भक्ति–ये सब कर्म करने चाहिये। शस्त्रों से इनकी जीविका चलती है स्त्री बालक, गौ, ब्राह्मण और भूमि की रक्षा के लिये, स्वामी पर आये हुए संकट को टालने के लिये, शरण में आये हुए की रक्षा के लिये तथा पीड़ितों की आर्त पुकार सुनकर उन सबका संकट दूर करने के लिये जो सदा तत्पर रहते हैं, वे ही क्षत्रिय हैं।

वैश्य धन बढ़ाने वाला पशुओं का पालक, कृषि कर्म करने वाला रस आदि का विक्रेता तथा देवताओं और ब्राह्मणों का पूजक है। वह सूद लेकर धन की उत्पत्ति करे, यज्ञ आदि कर्मो का अनुष्ठान करता रहे, दान और स्वाध्याय भी करे। ये सब वैश्य के कर्म बताये गये हैं।

शूद्र भी प्रात:काल उठकर भगवान् का चरण-वन्दन करके विष्णु भक्ति मय श्लोकों का पाठ करते हुए भगवान् विष्णु के स्वरूप को प्राप्त होता है। जो वर्ष में आने वाले सभी व्रतों का तिथि तथा वारके अधिदेवता की प्रसन्नता के लिये पालन करता है और सब जीवों को अन्नदान करता है, वह शूद्र गृहस्थ श्रेष्ठ माना गया है। वह वेदमन्त्रों के उच्चारण के बिना ही इस लोक में सब कर्म करते हुए मुक्त होता है। चातुर्मास्य का व्रत करने वाला शूद्र भी श्रीहरि के स्वरूप को प्राप्त होता है।

महामुने सभी वर्णों, आश्रमों और जातियों के लिये भगवान् विष्णु की भक्ति सबसे उत्तम मानी गयी है। जो पवित्र चित्त वाला मनुष्य इस परम पवित्र पुराण को पढ़ता अथवा सुनता है, वह पूर्वजन्मोपार्जित समस्त पापों का नाश करके श्रीविष्णु की आराधना में तत्पर हो विष्णुलोक को प्राप्त होता है।

संदर्भ श्रीस्कन्द महापुराण 

चातुर्मास महात्म्य अध्याय 05

इस अध्याय में पढ़िये (पैजवन शूद्र और महर्षि गालव का संवाद तथा शालग्राम शिला के पूजन का महत्त्व) 

ब्रह्माजी कहते हैं- महामते प्राचीन त्रेता युग में पैजवन नाम से प्रसिद्ध एक शूद्र था, जो धर्म में तत्पर और विष्णु तथा ब्राह्मणों का पूजक था। वह न्यायपूर्वक धन का उपार्जन करता और सदा शान्त भाव से रहता था। सभी लोग उससे प्रेम करते थे। वह सत्यवादी और विवेकशील था। उसकी स्त्री समान कुल में उत्पन्न, धर्म पूर्वक विवाहित तथा शुभ आचरणवाली पतिव्रता थी। वह भी सदा देवताओं और ब्राह्मणों के हित में तत्पर रहती थी। महात्मा पैजवन को पूर्व पुण्य के प्रभाव से धन की प्राप्ति हुई थी। वह सदा स्वजनों के द्वारा स्वदेश और परदेश में व्यापार किया करता था। अपने और दूसरे के धन से भी वह व्यापार करता-कराता था। इस प्रकार धर्म पर दृष्टि रखने वाले उस पैजवन को नाना प्रकार का प्रचुर धन प्राप्त हुआ। उसके दो पुत्र हुए।

वे दोनों ही पिता की सेवा-शुश्रुषा में लगे रहने वाले थे। धन आदि का अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं गया था। वे अपने धर्मयुक्त आचरण से शोभा पाते थे और पिता-माता की सेवा के अतिरिक्त दूसरी किसी वस्तु का आदर नहीं करते थे। उनकी स्त्रियाँ भी अपने सास-श्वशुर की सेवा में अनिवार्य-रूप से लगी रहती थीं पैजवन का घर धनु धान्य से भरा रहता था। वह स्वयं भी सदा धर्मपरायण हो देवताओं और अतिथियों के पूजन में तत्पर रहता था। उसके घर पर आया हुआ कोई भी अतिथि विमुख नहीं लौटता था। वह शीतकाल में धन और उष्णकाल में अन्न एवं जल का दान करता था। वर्षाकाल में वस्त्र तथा अन्न बाँटा करता था। भगवान् शिव और विष्णु के व्रत में स्थित होकर उचित समय में वह बावली, कूप, तड़ाग, प्याऊ तथा देवमन्दिर बनवाता था। चातुर्मास्य में वह विशेषरूप से भगवान् विष्णु के भजन में लगा रहता था।

एक दिन ब्रह्मज्ञान परायण शान्त तपस्वी परम जितेन्द्रिय गालव मुनि पैजवन शुद्र के घर में आये। वह अभ्युत्थान और आसन आदि उपचारों से मुनि की पूजा करके मधुर वाणी में बोला – ‘आज मेरा जन्म सफल हो गया, जीवन अति उत्तम हो गया, आज मेरा धर्माचरण भी सार्थक हुआ। मुने ! आपने यहाँ पधार कर कुल सहित मुझे उन्नत कर दिया। आपकी दृष्टि से मेरे सहस्त्रों पाप जलकर भस्म हो गये, मुझ गृहस्थ के सम्पूर्ण गृह को आज आपने पवित्र कर दिया।

उस शुद्र की भक्ति से गालव मुनि बहुत प्रसन्न हुए। उनकी सारी थकावट दूर हो गयी। वे हाथ जोड़कर खड़े हुए शूद्र से बोले- ‘सौम्य! तुम कुशल से तो हो न ? तुम्हारा मन धर्म में लगता है न, क्योंकि भाई-बन्धु, स्त्री -पुत्र आदि सब लोग सदा स्वार्थ से ही सम्बन्ध रखते हैं। तुम गोविन्द में सदा भक्ति रखते हो न? दान में तो तुम्हारी रुचि है न? क्या धर्म, अर्थ और काम सम्बन्धी कार्यों में तुम्हारा मन उत्साह के साथ संलग्न होता है ? भगवान् विष्णु का चरणोदक प्रतिदिन सिर पर धारण करते हो न? भगवान् विष्णु का भजन, श्रीविष्णु की कथा, श्रीविष्णु का स्तोत्र, श्रीविष्णु का नमस्कार, श्रीविष्णु का ध्यान और भगवान् विष्णु का पूजन, यह सब भगवान् के शयनकाल (चातुर्मास्य) में किया जाय तो मोक्ष देने वाला होता है।

ऐसा कहते हुए मुनि को प्रणाम करके शूद्र ने फिर कहा-मुने! आपकी कृपा दृष्टि से ही मुझे इस आश्रम का पूरा-पूरा फल मिल गया। तथापि मैं आपकी उपदेश युक्त वाणी सुनना चाहता हूँ। आपके आगमन का क्या प्रयोजन है, यह कृपा करके बतावें ?

तब गालवजी ने उस धर्मात्मा एवं सत्यवादी शूद्र से कहा-इधर तीर्थ यात्रा में लगे हुए मुझे कई मास व्यतीत हो गये, अब चातुर्मास्य आ गया है अत: अपने आश्रम को जाऊँगा। भगवान् नारायण की प्रसन्नता के लिये आषाढ़ शुक्ला एकादशी को अपने घर पर चातुर्मास्य का नियम ग्रहण करूँगा।

पैजवन बोला-द्विजश्रेष्ठ मेरे ऊपर अनुग्रह करके कोई ज्ञान की बात मुझे भी बताइये। वेद में मेरा अधिकार नहीं है। वेद सार के जप का भी मुझे अधिकार नहीं है। अत: विशेषत: चातुर्मास्य में पालन करने योग्य यदि कोई मोक्ष साधक उपाय हो तो उसे बताइये।

गालवजी ने कहा- जो मनुष्य शालग्राम में स्थित भगवान विष्णु का पूजन करते हैं, भक्ति उनसे दूर नहीं है। जिसका मन भगवान् शालग्राम के चिन्तन में लगा हुआ है, उसके द्वारा जो कुछ भी शुभ कर्म किया जाता है, वह अक्षय होता है। चातुमर्मास्य में इसका विशेष माहात्म्य है। जहाँ शालग्राम-शिला और द्वारका की शिला दोनों का संगम हो, वहाँ मनुष्य के लिये मुक्ति दुर्लभ नहीं है। जिस भूमि में सैकड़ों पापों से युक्त मनुष्यों द्वारा भी शालग्राम की शिला पूजी जाती है, वहाँ यह शिला पाँच कोस तक के प्रदेश को पवित्र करती है। यह शालग्राम शिला तेजोमय पिण्ड है, साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है।

इसके दर्शन मात्र से भी तत्काल सब पापों का नाश हो जाता है। महाशृद्र शालग्राम शिला की उपस्थिति से सब तीर्थ और देवमन्दिर पवित्र हो जाते हैं तथा समस्त नदियाँ तीर्थत्व को प्राप्त होती हैं। शालग्राम शिला की सन्निधि मात्र से सर्वत्र सम्पूर्ण क्रियाएँ शोभन होती हैं। जिसके घर में शुभ शालग्राम शिला का कोमल तुलसीदलों द्वारा पूजन होता है, वहाँ यमराज अपना मुँह नहीं दिखाते। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा सच्छूद्रों को भी शालग्राम शिला के पूजन का अधिकार है।

सच्छूद्र ने पूछा-ब्रह्मन आप वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। सुना जाता है कि स्त्री और शुद्र आदि के लिये शालग्राम शिला के पूजन का निषेध है। अत: मेरे जैसा मनुष्य किस प्रकार शालग्राम का पूजन करे ?

गालवजी ने कहा-मानद शृद्रों में केवल असत् शृद्र के लिये शालग्राम शिला का निषेध है। स्त्रियों में भी पतिव्रता स्त्रियों के लिये उसका निषेध नहीं किया गया है। जो शालग्राम शिला के ऊपर चढ़ायी हुई माला अपने मस्तक पर धारण करते हैं, उनके सहस्रों पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। जो शालग्राम शिला के आगे दीपदान करते हैं, उनका कभी यमपुर में निवास नहीं होता। जो शालग्राम में व्याप्त भगवान् विष्णु की मनोहर पुष्पो द्वारा पूजा करते तथा जो भगवान् विष्णु के शयनकाल (चातुर्मास्य) में शालग्राम शिला को पंचामृत से स्नान कराते हैं, वे मनुष्य संसार बन्धन में कभी नहीं पड़ते।

मुक्ति के आदि कारण निर्मल शालग्राम गत श्रीहरि को अपने हृदय में स्थापित करके जो प्रतिदिन भक्ति पूर्वक उनका चिन्तन करता है, वह मोक्ष का भागी होता है। जो सब समय में, विशेषत: चातुर्मास्य काल में, भगवान् शालग्राम के ऊपर तुलसी दल की माला चढ़ाता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। तुलसी देवी भगवान् विष्णु को सदा प्रिय हैं। शालग्राम महाविष्णु के स्वरूप हैं और तुलसी देवी साक्षात् लक्ष्मी हैं। इसलिये चन्दन-चर्चित सुगन्धित जल से तुलसीमंजरी सहित शालग्राम शिलारूप श्रीहरि को नहला कर जो तुलसी की मंजरियों से उनका पूजन करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं को पाता है।

उत्तम पुष्पों से पूजित भगवान् शालग्राम का दर्शन करके मनुष्य सब पापों से शुद्ध चित्त होकर श्रीहरि में तन्मयता को प्राप्त होता है। शालग्राम-शिला के चौबीस भेद हैं, उनका वर्णन सुनो। पहले केशव हैं, उनकी पूजा करनी चाहिये। दूसरे मधुसूदन, तीसरे संकर्षण, चौथे दामोदर, पाँचवें वासुदेव, छठें प्रद्युम्न, सातवें विष्णु, आठवें माधव, नवें अनन्तमूर्ति, दसवें पुरुषोत्तम, ग्यारहवें अधोक्षज, बारहवें जनार्दन, तेरहवें गोविन्द, चौदहवें त्रिविक्रम, पंद्रहवें श्रीधर, सोलहवें हृषीकेश, सत्रहवें नृसिंह, अठारहवें विश्वयोनि, उन्नीसवें वामन, बीसवें नारायण, इक्कीसवें पुण्डरीकाक्ष, बाईसवें उपेन्द्र, तेईसवें हरि और चौबीसवें श्रीकृष्ण कहे गये हैं।

ये चौबीस मूर्तियाँ चौबीस एकादशियों से सम्बन्ध रखती हैं। साल भर में चौबीस एकादशियाँ और ये चौबीस मूर्तियाँ पूजी जाती हैं। इनकी नित्य पूजा करने वाला मनुष्य भक्तिमान् होता है। जो मनुष्य भक्ति पूर्वक इस प्रसंग को सुनता और पढ़ता है, उसके ऊपर भृतसृष्टि की रक्षा करने वाले भगवान् श्रीहरि प्रसन्न होते हैं।

संदर्भ: श्रीस्कन्द महापुराण

चातुर्मास महात्म्य अध्याय 06 

इस अध्याय में पढ़िये (सती का देहत्याग, पार्वती विवाह, भगवान् शिव का हरिहर रूप में प्राकट्य और शालग्राम शिला का महत्त्व) 

गालवजी कहते हैं भगवान विष्णु जिस प्रकार शालग्राम शिला के स्वरूप को प्राप्त हुए हैं। और भगवान शिव भी जिस प्रकार लिंगाकार में स्थित हुए हैं, वह सब प्रसंग में तुमसे कहता हूँ, सुनो। पूर्वकाल में ब्रह्माजी के अंगूठे से प्रजापति दक्ष उत्पन्न हुए थे। दक्ष के सती नाम की एक पुत्री हुई, जो उत्तम लक्षणों से सम्पन्न और बड़ी साध्वी थी विधि के ज्ञाता भगवान् शंकर ने सती के साथ वेदोक्त विधि से विवाह किया दक्ष प्रजापति का चित मोहवश मूढता को प्राप्त हो गया था। उन्होंने एक महान् यज्ञ का आयोजन किया और उसमें भगवान् शंकर के प्रति द्वेष-भाव का परिचय दिया। पिता के उस महान् द्वेष से सती देवी कुपित हो उठीं और यज्ञवेदी में आकर प्राणायाम में तत्पर हो उन्होंने अग्निमयी धारणा के द्वारा अपना शरीर त्याग दिया।

उनके शरीर में जो पैतृक अंश था, उसका परित्याग करके अपने भाग के साथ सतीदेवी ने मन-ही-मन शीतल हिमालय का चिन्तन किया मृत्युकाल में अपने कर्म के अधीन हुआ मन जहाँ-जहाँ जाता हैं वहाँ वहीं उसका अवतार होता है। अंत: अग्नि में जली हुई सती देवी शीतल हिमालय का चिन्तन करने के कारण हिमालय की पुत्री हुईं। वहाँ पर्वत कन्या होकर उन्होंने शिव भक्ति में तत्पर हो बड़ी उग्र तपस्या की। तदनन्तर सहस्रों वर्षों के पश्चात् भूतभावन भगवान् महेश्वर ब्राह्मण का वेष धारण कर उस स्थान पर आये और पार्वती के कर्म एवं स्वभाव की परीक्षा लेकर उन्हें तपस्या से विशुद्ध जाना।

तत्पश्चात् दिव्य शरीर धारण करके भगवान् शिव ने पार्वती का हाथ पकड़ लिया और कहा- देवि तुमने तपस्या से मुझे जीत लिया है, बोलो तुम्हारा कौन- सा प्रिय कार्य करूँ ? तब पार्वती ने महेश्वर से कहा-‘आप मुझे अंगीकार करने में मेरे पिता को निमित्त बनाइये।’ उनके इस प्रकार कहने पर भगवान शंकर ने सप्तर्षियों को हिमालय के पास भेजा। सप्तर्षियों ने हिमालय के पास जाकर लग्न का समय बतलाया और महादेवजी से सब समाचार कहकर वे अपने स्थान को चले गये। तदनन्तर लग्न के दिन इन्द्र आदि सब देवता ब्रह्मा, विष्णु और अग्नि को आगे करके आये और ‘वर’ वेष में भगवान् शंकर का दर्शन करके बड़े प्रसन्न हुए।

हिमवान् ने दूलह-वेष में भगवान् शंकर का दर्शन करके अपने को कृतार्थ माना और प्रसन्नता पूर्वक मधुपर्क आदि शुभ उपचारों से उनका पूजन किया। तत्पश्चात् वेदोक्त विधि से उस गुणवती कन्या को हिमवान् ने भगवान् शिव को सौंप दिया। उसके बाद भगवान् शिव ने अग्नि की परिक्रमा की और जब उनसे गोत्र आदि पूछा गया, तब वे लज्जित-से हो गये। तत्पश्चात् ब्रह्माजी के कथनानुसार विवाह की शेष विधि पूरी की गयी। जो यज्ञ में चरु ग्रहण करते समय अपने पाँच मुख प्रकाशित करने वाले हैं वे ही भगवान् महेश्वर गिरिराज नन्दिनी के लिये सुन्दर रूप और वेष-भूषा सम्पन्न ‘वर’ बने हुए विराजमान थे।

पार्वती ने भगवान् शंकर को ही अपना प्राणवल्लभ स्वीकार किया। विवाह के पश्चात् दहेज देकर हिमालय ने शिवजी को विदा किया। वहाँ से भगवान् शिव मन्दराचल पर्वत पर आये। वहाँ विश्वकर्मा ने उनके लिये क्षण भर में मणिमय भवन का निर्माण किया। वह मन्दिर देवाधिदेव भगवान् शिव की इच्छा के अनुसार बढ़ने वाला था। उस सुन्दर भवन में पार्वती के साथ निवास करते हुए भगवान् शंकर की दृष्टि में वायुरूप धारी कामदेव आया। कामदेव ने शिवजी को देखकर इस प्रकार स्तवन किया- ‘वृषभध्वज आपको नमस्कार है। आप सर्वस्वरूप हैं. आपको नमस्कार है। आप गणों के स्वामी हैं,

आपको नमस्कार है। हे नाथ मेरी रक्षा कीजिये। प्रभो आपके इस चराचर जगत् में कोई ऐसी वस्तु नहीं दिखायी देती, जो आप से रहित हो। आप ही रक्षक, आप ही सृष्टि करने वाले तथा आप ही समस्त संसार का संहार करने वाले हैं। महादेव! मुझ पर कृपा कीजिये और मुझे देह दान दीजिये।

भगवान शिव बोले- कामदेव मैंने पूर्व काल में तुम्हें पार्वती के आगे भस्म किया है। अब पुनः उन्हीं के समीप शरीरधारी हो जाओ।

भगवान शिव के ऐसा कहने पर कामदेव ने अपना शरीर धारण किया और विनय से नम्र हो उसने पार्वती के दोनों चरणों में प्रणाम किया। उस समय उसके मन में बड़ी प्रसन्नता थी। पार्वती और परमेश्वर का प्रसाद पाकर महामोह एवं बल से सम्पन्न महातेजस्वी कामदेव तीनों लोकों में विचरण करने लगा।

प्राचीन काल में देवासुर-संग्राम के अवसर पर भयंकर रूप धारण करने वाले बलोन्मत्त दानवों ने देवताओं को मारा देवता भयभीत होकर ब्रह्माजी की शरण में गये वृहस्पति आदि सभी देवताओं ने जगत पिता ब्रह्मा को नमस्कार करके उनका स्तवन किया। फिर सबके सब हाथ जोड़कर खड़े ही गये तब ब्रह्माजी ने उनसे पृछा- देवताओ किसलिये मेरे पास आये हो ?

देवता बोले-तात अद्भुत पराक्रम करने वाले देत्यों ने युद्ध में हमें परास्त कर दिया। अत: हम सब लोग आपकी शरण में आये हैं। देवेश्वर! अपनी शरण में आये हुए हम लोगों की आप रक्षा कीजिये।

देवताओं की यह बात सुनकर ब्रह्माजीने कहा- एक समय शिव भक्तों ने भगवान् विष्णु के भक्तों के साथ एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से बड़ा विवाद हुआ। तब भगवान् शंकरने अपने भक्तोंके देखते-देखते एक परम अद्भुत रूप धारण किया। वह उनका हरिहरस्वरूप था। वे आधे शरीर से शिव और आधे शरीर से विष्णु हो गये एक ओर भगवान् विष्णु के चिह्न और दूसरी ओर भगवान् शिव के चिह्न प्रकट हुए। एक ओर गरुड़ और दूसरी ओर नन्दी वृषभ उपस्थित थे। एक ओर मेघ के समान श्याम वर्ण था तो दृसरी ओर कर्पूर के समान गौर वर्ण। दोनों में एकता का स्परष्टीकरण हुआ। इसी प्रकार सम्पूर्ण विश्व में एक ही भगवान् व्यापक हैं।

अत: विश्व भगवान् से भिन्न नहीं है। इस तरह भगवान् की एकता का बोध हुआ। श्रुतियों और स्मृतियों के अर्थ को बाधित करने वाली भेद बुद्धि नष्ट हो गयी। पाखण्डी और युक्तिवादी सब आश्चर्य चकित हो गये सबने अपने-अपने मत का आग्रह छोड़कर मोक्ष मार्ग की शरण ली। मन्दराचल पर्वत पर वह हरिहर-मूर्ति आज भी विद्यमान है, जिसकी प्रमथ आदि गण सदा स्तुति करते रहते हैं। सृष्टि, पालन और संहार करने वाली वह मूर्ति सम्पूर्ण विश्व का बीज एवं अनन्त है।

शिव और विष्णु की उस संयुक्त मूर्ति का स्मरण करने पर वह सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली है। वह परम सत्य एवं योगी पुरुषों के द्वारा चिन्तन करने योग्य है। मुक्ति की इच्छा करने वाले मनुष्य उस मूर्ति का ध्यान करके परम पद को प्राप्त होते हैं। चातुर्मास्य में विशेष रूप से उसका ध्यान करके मनुष्य फिर मानव लोक में जन्म नहीं लेता। उस हरिहर-मूर्ति के समीप जो लोग जाते हैं, उनका वे भगवान् कल्याण करते हैं।

ऐसा कहकर ब्रह्माजी वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् वे अग्नि आदि देवता मन्दराचल पर्वत पर गये और भगवान् महेश्वर को खोजते हुए वहीं भ्रमण करने लगे। तदनन्तर चातुर्मास्य पूर्ण होने पर हरिहर स्वरूपधारी भगवान् शिव उनके ऊपर प्रसन्न हो प्रत्यक्ष दर्शन देकर बोले-‘ देवेश्वरो! अब तुम लोग जाओ और अपने-अपने अधिकारों का उपभोग करो। मैंने उन दानवों को जिनसे तुम्हें भय था, मार डाला है। तब प्रसन्नचित्त एवं बाधा रहित देवता कोटि-कोटि विमानों के द्वारा अपने-अपने अधिकारों को प्राप्त हुए।

एक समय सब देवताओं तथा भगवान् विष्णु और शिव के द्वारा भी पार्वतीजी की इच्छा के प्रतिकूल कोई कार्य हो गया इससे उन्होंने देवताओं को मत्त्यलोक में प्रस्तर-प्रतिमा होने का शाप दिया। उसी समय उन्होंने भगवान् विष्णु से कहा- ‘आप भी मत्त्यलोक में शिलारूप होंगे और शिवजी को भी ब्राह्मणों के शाप से लिंगाकार प्रस्तररू प्राप्त होगा। तब भगवान् विष्णु ने पार्वतीजी को प्रणाम करके कहा-‘महाव्रते महाद्रेवि आप सदैव महादेवजी की प्रिया हैं। सम्पूर्ण भूतों की जननि आपको नमस्कार है। आप कल्याणमयी हैं, आपको नमस्कार है। तब पार्वतीजी ने प्रसन्न होकर कहा- जनार्दन आप शिलारूप में रहकर भी योगीश्वरों को मोक्ष देनेवाले होंगे।

विशेषतः चातुर्मास्य में सब भक्तों की कामनाएँ पूर्ण करने वाले होंगे ब्रह्माजी की प्यारी पुत्री जो गण्डकी नामवाली नदी है, वह महान् जलराशि से भरी हुई और परम पुण्यदायिनी है। उसी के अत्यन्त निर्मल नीर में आपका निवास होगा। पुराणों के ज्ञाता आपको चौबीस स्वरूपों में देखेंगे। आपके मुख में सुवर्ण होगा और शालग्राम आपकी संज्ञा होगी। गोलाकार तेजोमय शरीर अपूर्व शोभा से युक्त होगा। उस शालग्राम स्वरूप में आप सम्पूर्ण सामर्थ्य से युक्त होकर योगियों को भी मोक्ष देने वाले होंगे। शालग्राम-शिला में व्याप्त हुए आपका जो मनुष्य पूजन करेंगे, उन भक्तों को आप मनोवांछित सिद्धि प्रदान करेंगे।

गालवजी कहते हैं- महाशूद्र भगवान् विष्णु जिस प्रकार शालग्राम-शिलामय स्वरूप को प्राप्त हुए, वह सब प्रसंग मैंने तुम्हें बता दिया।

संदर्भ: श्रीस्कन्द महापुराण

चातुर्मास महात्म्य अध्याय – 07 

इस अध्याय में पढ़िये (शालग्राम पूजन, द्वादशाक्षर मन्त्र एवं राम नाम की महिमा)

गालवजी कहते हैं- गण्डकी नदी में भगवान विष्णु शालग्राम रूप से प्रकट होते हैं और नर्मदा नदी में भगवान् शिव नर्मदेश्वर रूप से उत्पन्न होते हैं। ये दोनों स्वयं प्रकट हैं कृत्रिम नहीं। शालग्राम शिला में व्याप्त भगवान् विष्णु चौबीस भेदों से उपलब्ध होते हैं; किन्तु भगवान् सदाशिव सदा एक हाथ से ही नर्मदा से प्रकट होते हैं। जहाँ गण्डकी के जल में  शालग्रामशिला उपलब्ध होती है, वहाँ स्नान और जलपान करके मनुष्य ब्रह्मपद को प्राप्त होता है। गण्डकी से प्रकट होने वाली शालग्राम शिला का पूजन करके मनुष्य शुद्धात्मा योगीश्वर होता है।

भगवान् विष्णु पूजन, पठन, ध्यान और स्मरण करने पर समस्त पापों का नाश करने वाले हैं। फिर शालग्राम शिला में उनकी पूजा की जाय, तो उसके महत्त्व के विषय में क्या कहना है; क्योंकि शालग्राम में साक्षात् श्रीहरि विराजमान होते हैं। चातुर्मास्य में शालग्राम गत भगवान् विष्णु को नैवेद्य, फल और जल अर्पण करना विशेष रूप से शुभ होता है। चातुर्मास्य में शालग्राम शिला सबको पवित्र करती है। जहाँ शालगराम स्वरूप भगवान् विष्णु की पूजा की जाती है, वहाँ पाँच कोस तक के भूभाग को वे भगवान् पवित्र कर देते हैं वहाँ कोई अशुभ नहीं होता जहाँ लक्ष्मीपति भगवान् शालग्राम का पूजन होता है, वहाँ वह पूजन ही सबसे बड़ा सौभाग्य है, वही महान् तप है और वही उत्तम मोक्ष है।

जहाँ दक्षिणावर्त शंख, लक्ष्मीनारायण स्वरूप शालग्राम शिला, तुलसी का वृक्ष, कृष्णसार मृग और द्वारका की शिला (गोमतीचक्र) हो, वहाँ लक्ष्मी, विजय, विष्णु और मुक्ति-इन चारों की उपस्थिति होती है। भगवान् लक्ष्मीनारायण (शालग्राम)-की पूजा करने वाले मनुष्य को भगवान् अति पुण्य प्रदान करते हैं, जिससे वह उसी क्षण मुक्त हो जाता है। भगवान् विष्णु का ध्यान पापों का नाश करने वाला है तुलसी की मंजरियों से पूजित हुए भगवान् शालग्राम पुनर्जन्म का नाश करने वाले हैं। सब प्रकार से यत्न करके उन्हीं जगदीश्वर विष्णु का सेवन करना चाहिये। वे सम्पूर्ण संसार में व्याप्त होकर स्थित हैं।

एक समय पार्वतीजी ने शिवजी से कहा- महेश्वर आपके हाथ में यह रुद्राक्ष की माला सदा मौजूद रहती है। देव! आप किस मन्त्र का जप करते हैं, यह सन्देह मेरे मन में उठा करता है; क्योंकि आप ही सबके स्वामी हैं। आपसे बढ़कर दूसरे किसी को मैं नहीं जानती। फिर भी आप बड़ी भक्ति से सदा किसी मन्त्र का जप करते हुए दिखायी देते हैं देवेश! आपसे भी श्रेष्ठ और कौन है, जिसका आप मन-ही-मन चिन्तन किया करते हैं।

भगवान् शिव बोले- प्रिये! भगवान् विष्णु के सहस्र नामों में जो सारभूत नाम है, मैं उसी का नित्य निरन्तर चिन्तन करता हूँ। मैं राम नाम जपता हूँ और उसी के अंक की इस माला द्वारा गणना करता हूँ। श्रीराम का अवतार बहुत ही श्रेष्ठ है। द्वादश अक्षरों से युक्त जो सनातन ब्रह्मरूप प्रणव है वह अ, ऊ, म-इन तीन अक्षरों से सम्बद्ध है, तीन ग्रामों से युक्त है उस बिन्दुयुक्त प्रणव-मन्त्र का में सदैव माला द्वारा जप करता हूँ। यह सम्पूर्ण वेदों का सारभूत है। यह नित्य, अक्षर, निर्मल, अमृत, शान्त, तद्रूप, अमृततुल्य, कलातीत, सम्पूर्ण जगत् का आधार, मध्य और कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों का बीज है। इसको जानकर मनुष्य शीघ्र ही घोर संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है।

ॐकार सहित जो द्वादशाक्षर बीज है, उसका जप करने वाले मनुष्य के लिये वह कोटि-कोटि पापों का दाह करने वाला दावानल बन जाता है। द्वादशाक्षर मन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय)- का चिन्तन ही सबसे उत्तम ज्ञान है, जो शुभ और अशुभ दोनों का विनाश करने वाला है। द्वादशाक्षर मन्त्र करोड़ों जन्मों में कहीं किसी को उपलब्ध होता है। चातुर्मास्य में उसका स्मरण विशेषरूप से ब्रह्म की प्राप्ति कराने वाला तथा मनोवांछित वस्तु देने वाला है। इस अक्षर से प्रकट हुए मन्त्र का जो मन, वाणी और क्रिया द्वारा आश्रय लेता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। जो भगवान् विष्णु की भक्ति में तत्पर हो उनके बारह मास सम्बन्धी पापहारी नामों का शालग्राम शिला में न्यास करता है,

उसे प्रतिदिन द्वादशाह यज्ञ का फल प्राप्त होता है। द्वादशाक्षर मंत्र के माहात्म्य का सहसत्रों जिह्वाओं द्वारा भी वर्णन नहीं किया जा सकता। संसार में इसका जप, ध्यान और स्तवन करने पर यह महामन्त्र सभी मासों में पाप-नाश करने वाला होता है; किंतु चातुर्मास्य में तो इसका यह माहात्म्य विशेष रूप से बढ जाता है। इस मन्त्र के चिन्तन मात्र से ही मनुष्यों को मनचाही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इसके जप से सनातन मोक्ष प्राप्त होता है। शान्ति परायण जप एवं ध्यान से मनुष्य निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त होता है। शूद्रों और स्त्रियों के लिये प्रणव रहित जप का विधान है।

पूर्वोक्त अठारह शूद्र जाति वाले मनुष्यों को जप-तप करने की आवश्यकता नहीं है। वे ब्राह्मण-भक्ति, दान और विष्णु भगवान् के चिन्तन से सिद्ध हो जाते हैं। उनके लिये रामनाम मन्त्र ही है यही उन्हें कोटि मन्त्रों से अधिक फल देनेवाला होता है। राम’ इस दो अक्षर के नाम का जप सब पापों का नाश करने वाला है। मनुष्य चलते, खड़े होते और सोते समय भी श्रीरामनाम का कीर्तन करने से इहलोक में सुख पाता है और अन्त में भगवान् विष्णु का पार्षद होता है ‘राम’ यह दो अक्षरों का मन्त्र कोटिशत मन्त्रों से भी बढ़कर है। यह सभी संकर जातियों के पाप का नाशक बतलाया गया है। चातुर्मास्य प्राप्त होने पर तो यह राममन्त्र अनन्त फल देने वाला होता है।

इस भूतल पर राम नाम से बढ़कर कोई पाठ नहीं है। जो राम नाम की शरण ले चुके हैं, उन्हें कभी यमलोक की यातना नहीं भोगनी पड़ती। जो-जो विघ्नकारक दोष हैं, सब राम नाम का उच्चारण करने मात्र से नष्ट हो जाते हैं। जो परमात्मा समस्त स्थावरजंगम प्राणियों में अन्तर्यामी आत्मा रूप से रम रहा है, उसे ‘राम’ कहते हैं। ‘राम’ यह मन्त्र राज भय तथा व्याधियों का नाश करने वाला है। यह युद्ध में किजय देने वाला तथा समस्त कार्यों एवं मनोरथों को सिद्ध करने वाला है। रामनाम को सम्पूर्ण तीर्थों का फल कहा गया है। वह ब्राह्मणों के लिये भी मनोवांछित फल देनेवाला है।

रामचन्द्र, राम-राम इत्यादि रूप से उच्चारण किया जाने वाला यह दो अक्षरों का मन्त्रराज भूतल पर सब कार्य सिद्ध करने वाला है। देवता भी राम नाम के गुण गाते हैं। इसलिये पार्वती तुम भी सदा राम नाम का जप करो। जो राम नाम का जप करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। राम नाम से ही सहस्र नामों का पुण्य होता है। विशेषत: चातुर्मास्य में उसका पुण्य दस गुना बढ़ जाता है। राम नाम के उच्चारण से हीन जाति में उत्पन्न हुए लोगों का महान् पाप भी भस्म हो जाता है। ये भगवान् श्रीराम सम्पूर्ण जगत् को अपने तेज से व्याप्त करके स्थित हैं और सब मनुष्यों में अन्तरात्मा रूप से रहकर उनके पूर्व जन्मोपार्जित स्थूल एवं सूक्ष्म पापों को क्षण भर में भस्म करके उन्हें पवित्र कर देते हैं।

संदर्भ:- श्रीस्कन्द महापुराण 

चातुर्मास महात्म्य अध्याय 08 

आज की कथा में पढ़िये (भगवान् शिव का नर्मदेश्वर शिवलिंग रूप होना तथा गालव-शूद्र-संवाद का उपसंहार) 

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती द्विजों के लिये ॐकार सहित द्वादशाक्षर मन्त्र का विधान है तथा स्त्रियों और शुद्रों के लिये ॐकार रहित नमस्कार पूर्वक (नमो भगवते वासुदेवाय) द्वादशाक्षर मन्त्र का जप बताया गया है ?

संकर जातियों के लिये राम नाम का षडक्षर मन्त्र (ॐ रामाय नमः) है। वह भी प्रणव से रहित ही होना चाहिये, ऐसा पुराणों और स्मृतियों का निर्णय है यही क्रम सब वर्णों के लिये है और संकर जातियों के लिये भी सदा ऐसा ही क्रम है। पार्वती! प्रणव जप में तुम्हारा अधिकार नहीं है। अत: तुम्हें सदा ‘नमो भगवते वासुदेवाय’ इसी मन्त्र का जप करना चाहिये। यह प्रणव सब देवताओं का आदि कहा गया है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव सभी अपनी प्रिय पत्नियों के साथ प्रणव में निवास करते हैं। सब प्राणी और समस्त तीर्थ उसमें विभाग पूर्वक स्थित हैं। प्रणव सर्वतीर्थमय तथा कैवल्य ब्रह्ममय है। शुभानने जब तुम चातुर्मास्य में भंगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये तप करोगी, तब प्रणव सहित द्वादशाक्षर के जप करने के योग्य हो ओगी।

जब तपस्या की वृद्धि होती है, तब भगवान् विष्णु में भक्ति होती है। प्रतिदिन भगवान् विष्णु का स्मरण करना चाहिये। इससे जिह्वा पवित्र होती है। जैसे दीपक प्रज्वलित होने पर बड़े भारी अन्धकार का नाश हो जाता है, उसी प्रकार भगवान् विष्णु की कथा सुनने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं। अत: पार्वती ! तुम भगवान् विष्णु के शयनकाल में द्वादशाक्षर मन्त्रराज का विशुद्धचित्त होकर जप करो। वे ही भगवान् सन्तुष्ट होकर तुम्हें द्वादशाक्षर सहित अखण्ड ब्रह्मस्वरूप का उत्तम ज्ञान प्रदान करेंगे। तुम ब्रह्माजी के कोटि कल्पों तक द्वादशाक्षर मन्त्र का जप करती रहो। जो प्रणव सहित मन्त्रराज का ध्यान करता है, उसका कभी नाश नहीं होता।

महादेवजी के ऐसा कहने पर पार्वती जी चौमासा आने पर हिमालय के शिखर पर तपस्या करने के लिये गयीं। वे तीन वस्त्रों से युक्त हो ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करती हुई प्रात:, मध्याह्न और सांय तीनों समय भगवान् के हरिहर स्वरूप का ध्यान करने लगीं। उनके साथ उनकी सखियाँ भी थीं। विशाल नेत्रों वाली पार्वती ने अपने पिता हिमालय के मनोहर शिखर पर क्षमा आदि गुणों से सुशोभित हो तपस्या की।

पार्वतीजी के तपस्या में संलग्न होने पर भगवान् शंकर सब ओर पृथ्वी पर विचरण करने लगे। एक दिन उन्होंने जल की उत्ताल तरंग-मालाओं से सुशोभित यमुनाजी को देखकर उसमें स्नान करने का विचार किया। वे ज्यों ही जल में घुसे कि उनके शरीर की अग्नि के तेज से वह जल काला हो गया। यमुना भी दिव्यरूप धारण करके अपने श्याम स्वरूप से प्रकट हुईं और भगवान् शंकर की स्तुति एवं नमस्कार करके बोलीं- देवेश्वर मुझ पर प्रसन्न होइये, मैं आपके अधीन हूँ।

महादेवजी ने कहा- जो मनुष्य इस पुण्य तीर्थ में स्नान करेगा, उसके सहस्रों पाप क्षण भर में नष्ट हो जायँगे। यह पवित्र तीर्थ संसार में ‘हरतीर्थ’ के नाम से विख्यात होगा ऐसा कहकर भगवान् शिव यमुना को प्रणाम करके अन्तर्धान हो गये।

उन्होंने यमुना के किनारे मनोहर रूप धारण करके हाथ में वाद्य ले लिया और ललाट में त्रिपुण्ड् धारण करके शिखर पर जटा बढ़ाये मुनियों के घरों में स्वेच्छानुसार घूम-घूमकर अंगों की चपल चेष्टा का प्रदर्शन प्रारम्भ किया वे कहीं गीत गाते और कहीं अपनी मौज से नाचने लगते थे। स्त्रियों के बीच में जाकर कभी क्रोध करते और कभी हँसने लगते थे। इस प्रकार उन्हें सब ओर घूमते देखकर मुनि लोगों ने क्रोध किया और यह शाप दिया कि ‘तुम लिंग रूप हो जाओ।’ शाप होने पर भगवान् शिव अन्यत्र बहुत दूर चले गये। उनका वह लिंग रूप अमरकण्टक पर्वत के रूप में अभिव्यक्त हुआ और वहाँ से नर्मदा नामक नदी प्रकट हुई। नर्मदा में नहाकर, उसका जल पीकर तथा उसके जल से पितरों का तर्पण करके मनुष्य इस पृथ्वी पर दुर्लभ कामनाओं को भी प्राप्त कर लेता है।

जो मनुष्य नर्मदा में स्थित शिवलिंगों का पूजन करेंगे, वे शिव स्वरूप हो जायँगे। विशेषतः चातुर्मास्य में शिवलिंग की पूजा महान् फल देने वाली है। चातुर्मास्य में रुद्रमन्त्र का जप, शिव की पूजा और शिव में अनुराग विशेष फलद है। जो पंचामृत से भगवान् शिव को स्नान कराते हैं, उन्हें गर्भ की वेदना नहीं सहन करनी पड़ती। जो शिवलिंग के मस्तक पर मधु से अभिषेक करेंगे, उनके सहस्रों दुःख तत्काल नष्ट हो जायँगे। जो चातुर्मास्य में शिवजी के आगे दीपदान करते हैं, वे शिवलोक के भागी होते हैं। जो जलधारा से युक्त नर्मदेश्वर महालिंग का चातुर्मास्य में विधि पूर्वक पूजन करता है, वह शिव स्वरूप हो जाता है।

गालवजी कहते हैं यह सब श्रीविष्णु के शालग्राम होने की और महेश्वर शिव के लिंगरूप होने की कथा सुनायी गयी। अत: जो लिंगरूपी शिव और शालग्रामगत श्रीविष्णु का भक्ति पूर्वक पूजन करते हैं, उन्हें दुःखमयी यातना नहीं भोगनी पड़ती। चौमासे में शिव और विष्णु का विशेष रूप से पूजन करना चाहिये। दोनों में भेद भाव न रखते हुए यदि उनकी पूजा की जाय तो वे स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाले होते हैं। जो भक्तिपूर्वक हरि और हर की पूजा करते हैं, उन्हें भगवान् श्रीहरि मोक्ष प्रदान करते हैं। विवेक आदि गुणों से युक्त शूद्र उत्तम गति को प्राप्त होता है। हे महाशृद्र तुम्हें बिना मन्त्र के भगवान् विष्णु और गिरिजापति महादेवजी का षोडशोपचार से पूजन करना चाहिये। उनकी पूजा बड़े-बड़े पापों का नाश करनेवाली है।

ऐसा कहकर पैजवन से पूजित हो महर्षि गालव शीघ्र ही अपने आश्रम को चले गये। जो मनुष्य इस प्रसंग को सुनता और पढ़कर दूसरों को भी सुनाता है, उसके पुण्य का कभी अन्त नहीं होता।

संदर्भ: श्रीस्कन्द महापुराण 

चातुर्मास महात्म्य अध्याय 09 

आज के अध्याय में पढ़िये (महादेवजी के द्वारा पार्वती के प्रति ध्यानयोग एवं ज्ञानयोग का निरूपण)

पार्वतीजी बोलीं-देवेश्वर आप ऐसा उपाय कीजिये, जिससे मैं ध्यानयोग को पाकर ज्ञानयोग की प्राप्ति कर सकूँ।

महादेवजी ने कहा- प्रिये पहले जिस द्वादशाक्षर नामक मन्त्रराज का वर्णन किया गया है, उसी का तुम्हें जप करना चाहिये। वह वेद का सनातन सार तत्त्व है। प्रणव (ॐकार) सब वेदों का आदि है। वह समस्त ब्रह्माण्डों का याजक है तथा समस्त कार्यो में प्रथम उच्चारण करने योग्य तथा सब सिद्धियों का दाता है। उसका शुक्ल वर्ण है, मधुच्छन्दा ब्रह्मा ऋषि हैं, परमात्मा देवता हैं, गायत्री छन्द है तथा समस्त कर्मों में उसका विनियोग किया जाता है।

देवि जो प्रतिदिन सम्पूर्ण बीजाक्षरमय द्वादशाक्षर मन्त्र का जप करता है, वह पापों से लिप्त नहीं होता। यह द्वादश लिंगमय अक्षरों से युक्त द्वादशाक्षर मन्त्र कूर्मचक्र में स्थित है। विनियोग सहित प्रत्येक वर्ण के ध्यान, ऋषि, बीज, छन्द और देवता आदि के चिन्तन पूर्वक ध्यान, जप और पूजन करने पर भक्तों का कर्म जनित बन्धनों से मोक्ष हो जाता है। ध्यानयोग से समस्त पापों का नाश होता है। जप और ध्यान ही योग का स्वरूप है। शब्दब्रह्म (ॐकार एवं वेद)-से प्रकट हुआ द्वादशाक्षर मन्त्र वेद के समान है। ध्यान से मनुष्य सब कुछ पाता है। ध्यान से वह शुद्धता को प्राप्त होता है, ध्यान से परब्रह्म का बोध होता है तथा संगण स्वरूप में चित्तवृत्ति की एकाग्रता रूप योग भी ध्यान से ही सम्भव होता है

ध्यानयोग दो प्रकार का होता है। एक सालम्ब (सवशेष) और दूसरा निरालम्ब (निर्विशेष)। सगुण साकार विग्रह नारायण का दर्शन सालम्ब ध्यान है। दूसरा जो निरालम्ब ध्यान है, वह ज्ञानयोग के द्वारा बताया गया है। वह सबका आलम्ब है। रूपरहित, अप्रमेय तथा सर्वस्वरूप जो सनातन तेज है, जिसका प्रकाश कोटि-कोटि विद्युतों के समान है, जो सदा उदयशील एवं पूर्णतम है, जो निष्कल, सकल एवं निरंजन मय है, आकाश के समान सर्वव्यापक है, सुखस्वरूप एवं तुरीयातीत है, जिसकी कहीं उपमा नहीं है, वही परमेश्वर का निराकारस्वरूप निरालम्ब ध्यान योग के द्वारा चिन्तन करने योग्य है। वह द्वन्दोवों से रहित एवं साक्षी मात्र है।

शुद्ध स्फटिक के समान निर्मल है। अपने तेज से उपमा रहित और अगाध है। उसी को तुम अंगीकार करो।

भगवान् नारायण का सूर्य मस्तक है, पृथ्वी लोक हृदय है तथा रसातल चरण है। वे मूर्तामृर्त स्वरूप से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में स्थित हैं। भगवान् विष्णु ही ब्रह्मरूप से ज्ञानयोग के आश्रय हैं। वे ही समस्त प्राणियों की सृष्टि और पालन करते हैं तथा वे ही सबका संहार करते हैं। वे सर्वदेवमय हैं। सनातन काल से ही भगवान् विष्णु बारह मासों के अधिपति हैं। इसलिये सम्पूर्ण मासों, समस्त दिनों और सब प्रहरों में श्रीहरि का स्मरण करने वाला पुरुष संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है।

यह कथा जिस किसी (अनधिकारी) -के सामने नहीं कहनी चाहिये। जो नित्य भक्त, जितेन्द्रिय तथा शम (मनोनिग्रह) आदि गुणों से युक्त हो, उससे यह कथा कहनी चाहिये। भगवान् विष्णु का भक्त शृद्र हो या ब्राह्मण, उसे भी यह कथा सुनाने योग्य है। पार्वती ! मेरी भक्ति से तुम शीघ्र योगसिद्धि प्राप्त करो और ज्ञानसे प्राप्त होने योग्य सर्वोत्कृष्ट भगवान् नारायण के स्वरूप को समझो। योग का अभ्यास सदा करना चाहिये। विशेषत: चातुर्मास्य में योग की साधना करने वाला पुरुष अपने सब पापों का नाश करता है। जो योगी दो घड़ी भी अपने कानों को बंद करके अपने मन को ब्रह्मरन्ध्र में स्थापित करता है, वह पापों से मुक्त हो जाता है।

जिसके घर में एक भी योगी पुरुष एक ग्रास अन्न भी भोजन कर लेता है, वह अपने सहित तीन पीढ़ियों का अवश्य उद्धार कर देता है। यदि ब्राह्मण योगी हो तो वह दर्शन से भी अवश्य सब प्राणियों की पापराशि का संहार कर देता है। यदि ब्रह्मपरायण उत्तम कर्मो वाला श्रेष्ठ शूद्र योग का अभ्यास करता है, सद्गुरु में भक्ति रखता है और नियमित आहार करते हुए जो योगी परब्रह्म की समाधि में स्थित होता है, वह भगवान् विष्णु का सायुज्य प्राप्त करता है। भगवान् श्रीहरि की प्रीति से मनुष्य उनके स्वरूप में लीन हो जाता है। पार्वती ! यह योग ज्ञान की सिद्धि प्रदान करनेवाला है। सनकादि आचार्यों तथा मुक्ति की इच्छा वाले देवेश्वरों ने भी इसका सेवन किया है।

सर्वप्रथम योगियों के जो सदा ज्ञान की सम्पत्ति होती है, उस ज्ञान सम्पत्ति से गृहीत होकर मनुष्य योगी होता है। तदनन्तर योगी के आगे अणिमा आदि सिद्धियाँ उपस्थित होती हैं, परंतु श्रेष्ठ योगी उनमें मन नहीं लगाता। योग से सम्पूर्ण दानों और यज्ञों का फल प्राप्त होता है। योग से सम्पूर्ण कामनाओं की प्राप्ति होती है। कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो योग से प्राप्त न होती हो। योग से हृदय की गाँठ नहीं रहने पाती। योग से ममता रूपी शत्रु नहीं पैदा होता। योगसिद्ध पुरुष का मन कोई भी लुभा नहीं सकता। भगवान् विष्णु स्वयं ही इस चराचर जगत् में व्याप्त हैं। योगेश्वरों के परम उपास्य उन भगवान् को अपने ब्रह्मरन्ध्र में स्थित जानकर मनुष्य इस मायामय जगत का मोह उसी प्रकार छोड़ देता है, जैसे सर्प अपनी केंचुल को त्याग देता है।

संदर्भ: श्रीस्कन्द महापुराण 

चातुर्मास महात्म्य अध्याय 10 

इस अध्याय में पढ़िये (ज्ञानयोग और उसके साधन, स्कन्द स्वामी का सेनापतित्व और कौमार व्रत) 

महादेवजी कहते हैं जब शरीर में ममता नहीं रहती, जब चित्त अत्यन्त निर्मल होता है और जब श्रीहरि में भक्ति योग दृढ़ होता है, तब कर्म से बन्धन नहीं होता। जब कर्म करते हुए ही मनुष्यों का मन सदा शान्त रहे, तब योगमयी सिद्धि प्राप्त होती है। भगवान् विष्णु को कर्मो के स्वामी जानो। उनमें सब कर्मो का समर्पण करके मनुष्य संसार-बन्धन से छूट जाता है। यही उत्तम ज्ञान है, यही उत्तम तप है और यही उत्तम श्रेय हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण को सर्वकर्म समर्पण कर दिया जाय। यही निर्मल योग है इसी को निर्गुण कहा गया है। संसार में वही ज्ञानवान्, वही योगियों में अग्रगण्य और वही महायज्ञों का अनुष्ठान करने वाला है, जो श्रीहरि के चरणों में भक्ति रखता है।

निरंजन भगवान् विष्णु को जान लेने पर जिसने मनोमय, कर्ममय और वाणीमय दण्ड को धारण किया है- यानी इन तीनों को वश में कर लिया है, वही त्रिदण्डी जानने योग्य है। अज्ञानी सदा बन्धनात्मक कर्म द्वारा बाँधा जाता है। द्विजों को श्रुतियों और स्मृतियों के अनुशीलन से मोक्ष का मार्ग प्राप्त होता है। यह मोक्ष मानो एक नगर है, जिसके चार दरवाजे हैं। उन दरवाजों पर शम आदि चार द्वारपाल सदा विद्यमान रहते हैं। वे ही मोक्ष-नगर में प्रवेश कराने वाले हैं। अत: मनुष्यों को पहले उन्हीं चारों का सेवन करना चाहिये। उनके नाम इस प्रकार हैं-शम, सद्रिचार, सन्तोष और साधुसंग। ये चारों जिसके हाथ में हैं, उसकी सिद्धि दूर नहीं है।

भगवान् विष्णु की भक्ति तथा उत्तम धर्म के आचरण से मनुष्यों को योग सिद्धि प्राप्त होती है। मनुष्य ज्ञान के लिये विद्यालयों में भटकता फिरता है। यदि कहीं सद्गुरु प्राप्त हो जायँ तो उनसे तत्काल निर्मल दीपशिखा की भाँति यथार्थ ज्ञान की उपलब्धि हो जाती है। राग और द्वेष छोड़कर जो क्रोध और लोभ से रहित हो गया है, जिसकी सर्वत्र समान दृष्टि है, जो विष्णु भक्त का दर्शन करता है, जिसके हृदय में सब जीवों के प्रति दया का भाव स्थिर है तथा जो शौच एवं सदाचार से युक्त है, वह योगी कभी दुःख नहीं पाता। जो माया आदि के आवरणों से रहित तथा मिथ्या वस्तु से विरक्त है और कुसंग से दूर रहता है, वह योगसिद्ध पुरुष है।

बुद्धि दो प्रकार की होती है। एक त्याज्य और दूसरी ग्राह्य। संसार विषयक बुद्धि त्याग देने योग्य है और परब्रह्म के चिन्तन में लगने वाली कल्याणमयी बुद्धि ग्रहण करने योग्य है। पार्वती श्रीविष्णु का जो साकार और निराकार स्वरूप है, उसमें प्रतिष्ठित होने वाले इस अक्षर, अव्यक्त, अमृत एवं सम्पूर्ण तत्त्व को बताया गया। इस प्रकार जानकर योगीपुरुष संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है। मनुष्य सद्गुरु के उपदेश से इस ज्ञान को पाता है। जब उसके ऊपर गुरु प्रसन्नचित्त होते हैं, तब मानो सम्पूर्ण विश्व प्रसन्न हो जाता है, जिसने गुरु को सन्तुष्ट किया, उसने समस्त देवताओं और पितरों को सन्तुष्ट कर लिया।

गुरु का उपदेश, भगवत् प्रतिमा का पूजन, उत्तम विचार, शम में मन का तत्पर होना और ज्ञान पूर्वक कर्म का अनुष्ठान करना- यह सब मोक्षसिद्धि का लक्षण है। द्वादशाक्षरमन्त्र सब पापों का नाश करने वाली है। यह दुष्टों का दमन करने वाला और परब्रह्म की प्राप्ति कराने वाला है। देवि! द्वादशाक्षर रूपधारी निर्मल परब्रह्म के स्वरूप को मैंने तुम से प्रकाशित किया है। जो मनुष्य इस द्वादशाक्षर मन्त्र रूप भगवत् स्वरूप को, जो योगियों के ध्यान करने योग्य तथा भक्ति से ग्राह्य है, चातुर्मास्य में श्रद्धापूर्वक चिन्तन करता है, भगवान् विष्णु उसके कोटि जन्मों के पापों को जलाकर मोक्ष प्रदान करते हैं।

ब्रह्माजी कहते हैं- एक समय महाबली तारकासुर के भय से भागे हुए देवताओं ने महादेवजी की स्तुति की और उनकी आज्ञा से कुमार कार्तिकेय को अपना सेनापति बनाया। फिर स्कन्द के तेज से प्रबल होकर सब देवता तारकासुर से युद्ध करने लगे। उस समय देवताओं ने दानवों की सेना को मार गिराया। भगवान् विष्णु के चक्र से छिन्न-भिन्न होकर सहस्रों दैत्य पृथ्वीपर गिर पड़े। युद्ध में दानव सेना को नष्ट होती देख तारकासुर देवताओं का सामना करने लगा देवेश्वर स्कन्द ने बाणों की बौछार से उसकी सेना को शीघ्र ही तितर-बितर कर डाला।

तत्पश्चात् भगवान् विष्णु को प्रेरणा से कार्तिकेयजी ने शक्ति का प्रहार करके सारथि सहित तारकासुर को क्षण भर में भस्म कर दिया। शेष दैत्य तारकासुर को मरा हुआ देख पाताल में भाग गये तब देवताओं ने कुमार के पराक्रम की भूरि-भूरि प्रशंसा की। विजय प्राप्त करके शिव आदि सब देवताओं ने स्वामी कार्तिकेय को देवताओं के सेनापति पद पर अभिषिक्त किया। इस प्रकार तारकासुर को मारकर सातवें दिन बालक कार्तिकेय ने मन्दराचल पर जा अपने माता-पिता को प्रसन्न किया। परमानन्द में निमग्न हो स्कन्द ने सब वृत्तान्त स्वयं ही माता-पिता से कहा।

उस समय भगवान् शंकर ने पुत्र का विवाह कर देते का विचार किया और कार्तिकेय से वत्स! तुम्हारे विवाह का समय प्राप्त है, तुम पत्नी प्राप्त करके उसके साथ धर्माचरण करो।’ पिता की यह बात सुनकर स्वामी कार्तिकेय ने कहा-‘ भगवन्! संसार के दृश्य और अदृश्य पदार्थों में से मैं किसका ग्रहण और किसका त्याग करूँ। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब मेरे लिये माता पार्वती के समान हैं और जितने भी पुरुष हैं, उन सबको मैं आपके रूप में देखता हूँ। आप मेरे गुरु हैं, अत: मुझे नरक में डूबने से बचाइये। मैंने आपके प्रसाद से यह विवेक प्राप्त किया है। भयंकर संसार- सागर में मैं फिर न गिर जाऊँ, इसकी चेष्टा रखें।

जैसे दीपक हाथ में लेकर किसी वस्तु को खोजने वाला पुरुष उस वस्तु को देख लेने पर उसके लिये स्वीकार किये जाने वाले अन्य सब साधनों को त्याग देता है, उसी प्रकार योगी ज्ञान प्राप्त कर लेने पर संसार को त्याग देता है। सर्वज्ञ परमेश्वर सर्वव्यापी ब्रह्म को जानकर जिसके सब कर्म निवृत्त हो जाते हैं, उसको विद्वान् पुरुष योगी कहते हैं। महेश्वर! मानवों के लिये ज्ञान अत्यन्त दुर्लभ है ज्ञानीजन प्राप्त किये हुए ज्ञान को किसी प्रकार भी खोना नहीं चाहते। यह ज्ञान आपके प्रभाव से ही प्राप्त होने योग्य है। मैं संसार बन्धन से छूटने की इच्छा रखता हूँ। अत: मुझसे इस प्रकार विवाह आदि करने की बात नहीं कहनी चाहिये।

जब देवी पार्वती ने विवाह के लिये बार-बार आग्रह किया, तब कार्तिकेयजी पिता-माता को प्रणाम करके क्रौंच पर्वतपर चले गये और वहाँ परम पवित्र आश्रम में बैठकर बड़ी भारी तपस्या करने लगे। उन्होंने द्वादशाक्षर बीजरूप परब्रह्म का जप किया और पहले ध्यान से सब इन्द्रियों का वश में करके एक मासतक मन को योग में लगाकर ज्ञानयोग प्राप्त कर लिया। जब उनके सामने अणिमा आदि सिद्धियाँ आयीं, तब वे उनसे क्रोधपूर्वक बोले- अरी यदि अपनी दुष्टता के कारण तुम लोग मेरे पास भी चली आयीं, तो मेरे-जैसे शान्त पुरुषों का कभी पराभव न कर सकोगी।

यह चातुर्मास्य का माहात्म्य सब पापों का नाश करने वाला है। जो भगवान् शिव अथवा विष्णु को अपने हृदय में स्थापित करके अभेद-बुद्धि से उनके अद्वितीय स्वरूप का चिन्तन करता है, उसके लिये शत्रु भी अत्यन्त प्रिय हो जाता है।

चातुर्मास महात्मय सम्पूर्ण 

संदर्भ: श्रीस्कन्द महापुराण 

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