माता कालिका के अनेक रूप हैं जिनमें से प्रमुख है-
1. दक्षिणा काली
2. क्षशमशान काली
3. मातृ काली
4. महाकाली
इसके अलावा श्यामा काली, गुह्य काली, अष्ट काली और भद्रकाली आदि अनेक रूप भी है। सभी रूपों की अलग अलग पूजा और उपासना पद्धतियां हैं।
दशमहाविद्यान्तर्गत भगवती दक्षिणा काली (दक्षिण काली) की उपासना की जाती है। ऐसा माना जाता है कि महाकाल की प्रियतमा काली ही अपने दक्षिण और वाम रूप में प्रकट हुई और दस महाविद्याओं के नाम से विख्यात हुई। बृहन्नीलतंत्र में कहा गया है कि रक्त और कृष्णभेद से काली ही दो रूपों में अधिष्ठित है। कृष्णा का नाम दक्षिणा और रक्तवर्णा का नाम सुंदरी है।
कराली, विकराली, उमा, मुञ्जुघोषा, चन्द्र-रेखा, चित्र-रेखा, त्रिजटा, द्विजा, एकजटा, नीलपताका, बत्तीस प्रकार की यक्षिणी, तारा और छिन्नमस्ता ये सभी दक्षिण कालिका के स्वरुप हैं।
श्रीमद दक्षिण कालिका पुरश्चरण विधि
शक्ति शब्द { शक् } धातु से व्युतपन्न है । शक् धातु का अर्थ है कुछ करने में समर्थ होगा । कुछ कर सकने की योग्यता या सामर्थ्य ही शक्ति है भारतीय मनीषा में शक्ति तत्त्व की परिकल्पना अद्वितीय है विश्व ब्रह्माण्ड में छोटे से छोटे अणु में जो चेतना है, जो स्पन्दन है वह महामाया शक्ति का ही रूप है शक्ति से सारा संचार चक्र संचरणशील है शक्ति के प्रभाव से ही छोटा सा चीज़ विशाल वृक्ष बन जाता है नन्हें से पिण्ड से विराट् मनुष्य बन जाता है ।
माँ के रूप में महाशक्ति जगत् की धात्री है । अतः वह वन्दनीय है। जो कुछ भी हो रहा है सब शक्ति का ही खेल है उसी के संकेत पर जन्म, मृत्यु, बन्धन और मुक्ति होती है माँ ही सारी चेतना. त्रिकालातीत सत्ता में विराजमान है सभी वस्तुओं में सभी गुणों में केवल सत्ता ही नहीं तन में भी वही है वह त्रिगुण मखी है। शुद्ध तत्व गुणमयी है तीनों गुणों से संयुक्त होते हुये भी उनसे परे है । आचार्यों द्वारा यह भी कहा जाता है कि जब सब देवता जीवित रहते है तब भी शक्ति सदा जगती रहती है इसलिये भक्तों की पुकार वह तुरन्त सुन लेती है
शक्तितत्व शुद्ध चेतन और शुद्ध चिति- ये एक तत्त्व के दो नाम हैं । पुस्त्व दृष्टि से चित और स्त्रीत्व दृष्टि से चिति कहते है माया प्रतिविम्बित उसी तत्व की जब पुरुष रूप से उपासना की जाती है, तब उसे ईश्वर, शिव, अथवा भगवान नामों से पुकारा जाता है और जब स्त्री रूप से उसकी उपासना करते हैं तो उसीको ईश्षी दुर्गा अथवा भगवती कहते हैं । इस प्रकार शिव गौरी, कृष्ण राधा, राम सीता, विष्णु महालक्ष्मी परस्पर अभिन्न ही हैं । इनमें वस्तुतः कोई भेद नहीं है ।
जब जब विश्व व्यवस्था बिगड़ने लगती है समाज उच्छृखल होने लगता है जब लोक में दानकी बाधा { अव्यवस्था } उपस्थित हो जाती है तथा अनीति, दुराचार फैल जाता है तब ये अचिन्त्य चैतन्य शक्ति अवतार धारण लेकर नाम रूपकी उपाधिधारण कर लोक शत्रुओं का अर्थात समाज विरोधी तत्वों का नाश करती है । अतः हम दावे के साथ कह सकते है कि शक्ति ही जीवन है शक्ति ही सर्वस्व है यह समझकर परमात्मा रूपा महाशक्ति का अनन्य रूप से आश्रय ग्रहण करना चाहिये
भगवती स्वयं ही कहती हैं- पुण्यात्माओं के घर में स्वयं ही लक्ष्मी रूप से पापियों के यहाँ दरिद्रता रूप से, शुद्ध अन्तःकरण वाले पुरुषों के हृदय में वृद्धि रूप से सत्पुरुषों में श्रद्धा रूप से तथा कुलीन मनुष्यों में लज्जा रूप से निवास करती हूँ । उन भगवती को हम बार बार प्रणाम करते हैं । जय हो महाभगवती की
माँ काली साधकों के सुविधार्थ आज पहली बार पूर्ण श्रीमद् दक्षिणकालिका पुरश्चरण विधि प्रेषित है । “कोई भी साधना Google FB पर देखकर नही हो सकती। यदि Google FB पर देख कर कोई साधना होती तो सभी सिद्ध हो जाते । Google FB पर साधना संबंधी post करने का तात्पर्य है उक्त देव या देवी के विषय मे ज्ञान प्राप्त करना, उनके विषय मे जानना । साधना करने के लिए सद्गुरु का होना परम आवश्यक है । शक्ति साधना करने के लिए शक्तभिषेक , पूर्णाभिषेक का भी होना परमावश्यक है । “अतएव आप किसी कौलचार्य के मार्गदर्शन मे ही कोई साधना करे तो उसका परिणाम बहुत ही लाभदायक होगा ।
जय माँ काली आप सभी का मंगल हो
श्रीमद् दक्षिणकालिका पुरश्चरण विधि
1. आचमन
निम्न मंत्र पढ़ते हुए तीन बार आचमन करें-
ॐ ह्रीं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ह्रीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
फिर यह मंत्र बोलते हुए हाथ धो लें
ॐ ह्रीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
2. पवित्रीकरण
बाएँ हांथ मे जल लेकर दाहिनी मध्यमा, अनामिका द्वारा अपने सिर पर छिड़कें-
ॐ अपवित्र : पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा।
य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि :॥
ॐ पुंडरीकाक्ष: पुनातुः, ॐ पुंडरीकाक्ष: पुनातुः, ॐ पुंडरीकाक्ष: पुनातुः ।
3. जल शुद्धि
तृकोनश्च-वृतत्व-चतुष्मंडलम कृत्वा ह्रीं आधारशक्तये पृथिवी देव्यै नमः
पंचपात्र के ऊपर हुङ् ईति अवगुंठ, वं इति धेनुमुद्रा, मं इति मत्स्य मुद्रा..
फिर पंचपात्र के ऊपर दाहिनी अंगुष्ठा को हिलाते हुए निम्न मंत्र को पढ़ें
ॐ गंगेश यमुनाष्चैव गोदावरी सरस्वती ।
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेहस्मिन सन्निधिम कुरु ॥
4. आसन शुद्धि
ॐ आसन मंत्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषि सुतलं छन्द कूर्म देवता आसने उपवेसने विनियोग: – पंचपात्र मे से एक आचमनी जल छोड़ें-
आसन के नीचे दाहिनी अनामिका द्वारा -तृकोनश्च-वृतत्व-चतुष्मंडलम कृत्वा ॐ ह्रीं आधारशक्तये पृथिवी देव्यै नमः असनं स्थापयेत ।
आसन को छूकर – ॐ पृथ्वी त्वयाधृता लोका देवि त्यवं विष्णुनाधृता। त्वं च धारयमां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥
बाएँ हांथ जोड़कर – बामे गुरुभ्यो नमः , परमगुरुभ्यो नमः , परात्पर गुरुभ्यो नमः , परमेष्ठि गुरुभ्यो नमः ।
दाहिने हांथ जोड़कर – श्रीगणेशाय नमः
सामने हांथ जोड़कर सिर मे सटाकर
मध्ये श्रीमद् दक्षिणकालिका देव्यै नमः
5. स्वस्तिवाचन
ॐ स्वस्ति न:इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पुषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
6. गुरुध्यान :- (कूर्म मुद्रा मे)
ॐ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वाधिसाक्षिभूतं,
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं त्वं नमामि।।
7. मानस पूजन
अपने गोद पर बायीं हथेली पर दाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें-
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि । ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि। ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि। ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि । ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि। ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि।
8. गुरु प्रणाम
दोनों हांथ जोड़कर
ॐअखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः ।
तत्त्वज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
मन्नाथः श्रीजगन्नाथः मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः ।
मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
ज्ञानशक्तिसमारूढः तत्त्वमालाविभूषितः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
अनेकजन्मसंप्राप्त कर्मबन्धविदाहिने ।
आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
9. गणेशजी का ध्यान
विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय,
लम्बोदराय सकलाय जगत् हिताय ।
नागाननाय श्रुतियज्ञभूषिताय,
गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ॥
10. मानस पूजन
अपने गोद पर बायीं हथेली पर दाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें-
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि । ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि। ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि। ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि । ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि। ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि।
11. गणेश प्रणाम
प्रणम्य शिरसा देवं, गौरीपुत्रं विनायकम।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायु: कामार्थसिद्धये।।
वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसंप्रभ:।
निर्विघ्न कुरुवे देव सर्वकार्ययेषु सर्वदा।।
लम्बोदर नमस्तुभ्यं सततं मोदकंप्रियं।
निर्विघ्न कुरुवे देव सर्वकार्ययेषु सर्वदा।।
सर्वविघ्नविनाशाय, सर्वकल्याणहेतवे।
पार्वतीप्रियपुत्राय, श्रीगणेशाय नमो नम: ।।
गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्।
12. ईष्टदेवी प्रणाम
ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥
ॐ काली महाकाली कालिके परमेश्वरी ।
सर्वानन्दकरी देवी नारायणि नमोऽस्तुते ।।
13. संकल्प
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: ॐ तत्सत् श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णुराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्यश्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे भूप्रेदेशे——प्रदेशे——मासे—–राशि स्थिते भास्करे—-पक्षे—–तिथौ—-वासरे अस्य—–गोत्रोत्पन्न——नामन:/नाम्नी अस्य श्रीमद् दक्षिणकलिका संदर्शनं प्रीतिकाम: सर्वसिद्धि पूर्णकाम: “क्रीं” मन्त्रस्य दशसहस्रादि जप तत् दशांश होमं अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप तत् दशांश तर्पणम् अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप तत् दशांश अभिसिंचनम् अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप तत् दशांश ब्राह्मण भोजनं अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप पंचांग पुरश्चरण कर्माहम् करिष्ये।
14. कपाट भंजन
हूं मन्त्र का १० बार जप ।
15. कामिनी तत्व
ह्रदय में क्रों मन्त्र का १० बार जप।
16. कामिनी ध्यान
सिंहस्कन्ध समारूढां रक्तवर्णाम् चतुर्भुजाम्,
नानालंकार भूषाढ्याम् रक्तवस्त्र विभूषिताम् ।
शंखचक्र धनुर्बाण विराजित कराम्बुजाम् ॥
17. कामिनी मानसपूजन
अपने गोद पर दायीं हथेली पर बाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि । ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि। ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि। ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि । ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि। ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि।
पूजन उपरांत कं मन्त्र का १० बार जप ।
18. जपरहस्य
प्रफुल्ल:- लं मन्त्र का १० बार जप ।
प्राणायाम :- “क्रीं” मन्त्र से ४/१६/८ ।
भुतशुद्धि :-
1. ॐ भूतशृंगाटाच्छिर सुषुम्नापथेन जीवशिवं परमशिव पदे योजयामी स्वाहा ।
2. ॐ यं लिंगशरीरं शोषय शोषय स्वाहा ।
3. ॐ रं संकोचशरीरं दह दह स्वाहा ।
4. ॐ परमशिव सुषुम्नापथेन मूलशृंगाटमूल्लसोल्लस ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल सोऽहं हंस: स्वाहा।
19. माँ काली कवच
कवचं श्रोतुमिच्छामि तां च विद्यां दशाक्षरीम्।
नाथ त्वत्तो हि सर्वज्ञ भद्रकाल्याश्च साम्प्रतम्॥
नारायण उवाच
श्रृणु नारद वक्ष्यामि महाविद्यां दशाक्षरीम्।
गोपनीयं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम्॥
ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहेति चदशाक्षरीम्।
दुर्वासा हि ददौ राज्ञे पुष्करे सूर्यपर्वणि॥
दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धि: कृता पुरा।
पञ्चलक्षजपेनैव पठन् कवचमुत्तमम्॥
बभूव सिद्धकवचोऽप्ययोध्यामाजगाम स:।
कृत्स्नां हि पृथिवीं जिग्ये कवचस्य प्रसादत:॥
नारद उवाच
श्रुता दशाक्षरी विद्या त्रिषु लोकेषु दुर्लभा।
अधुना श्रोतुमिच्छामि कवचं ब्रूहि मे प्रभो॥
नारायण उवाच
श्रृणु वक्ष्यामि विपे्रन्द्र कवचं परमाद्भुतम्।
नारायणेन यद् दत्तं कृपया शूलिने पुरा॥
त्रिपुरस्य वधे घोरे शिवस्य विजयाय च।
तदेव शूलिना दत्तं पुरा दुर्वाससे मुने॥
दुर्वाससा च यद् दत्तं सुचन्द्राय महात्मने।
अतिगुह्यतरं तत्त्वं सर्वमन्त्रौघविग्रहम्॥
ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मे पातु मस्तकम्।
क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं ह्रीमिति लोचने॥
ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां मे सदावतु।
क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा दन्तं सदावतु॥
ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा पातुमेऽधरयुग्मकम्।
ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा कण्ठं सदावतु॥
ह्रीं कालिकायै स्वाहा कर्णयुग्मं सदावतु।
क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा स्कन्धं पातुसदा मम॥
क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्ष: सदावतु।
क्रीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं सदावतु॥
ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पष्ठं सदावतु।
रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तौ सदावतु॥
ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा पादौ सदावतु।
ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सर्वाङ्गं मे सदावतु॥
प्राच्यां पातु महाकाली आगन्य्यां रक्त दन्तिका।
दक्षिणे पातु चामुण्डा नैर्ऋत्यां पातु कालिका॥
श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु चण्डिका।
उत्तरे विकटास्या च ऐशान्यां साट्टहासिनी॥
ऊध्र्व पातु लोलजिह्वा मायाद्या पात्वध: सदा।
जले स्थले चान्तरिक्षे पातु विश्वप्रसू:सदा॥
इति ते कथितं वत्ससर्वमन्त्रौघविग्रहम्।
सर्वेषां कवचानां च सारभूतं परात्परम्॥
सप्तद्वीपेश्वरो राजा सुचन्द्रोऽस्य प्रसादत:।
कवचस्य प्रसादेन मान्धाता पृथिवीपति:॥
प्रचेता लोमशश्चैव यत: सिद्धो बभूव ह।
यतो हि योगिनां श्रेष्ठ: सौभरि: पिप्पलायन:॥
यदि स्यात् सिद्धकवच: सर्वसिद्धीश्वरो भवेत्।
महादानानि सर्वाणि तपांसि च व्रतानि च॥
निश्चितं कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥
इदं कवचमज्ञात्वा भजेत् कलीं जगत्प्रसूम्।
शतलक्षप्रप्तोऽपि न मन्त्र: सिद्धिदायक:॥
20. ऋषयादिन्यास
ॐ अस्य श्रीमद् दक्षिणकलिका मन्त्रस्य भैरव ऋषिः उष्णिक छन्द: श्रीमद् दक्षिणकलिका देवता ह्रीं बीजं ह्रूं शक्ति: क्रीं कीलकम् मम धर्मार्थ सर्वाभीष्ट सिध्यर्थे जपे विनियोग:(पंचपात्र से थोड़ा जल सामने पात्र मे छोड़े )
ॐ भैरव ऋषये नम: – शिरसे ।
ॐ उष्णिक छन्दसे नम: – मुखे ।
ॐ श्रीमद् दक्षिणकलिका देवतायै नम: – ह्रदये।
ॐ ह्रीं बीजाय नम: – गुह्ये (फिर हाथ धोए)।
ॐ हूँ शक्तये नम: – पादयो ।
ॐ क्रीं कीलकाय नम: – नाभौ।
ॐ विनियोगाय नम: – सर्वांगे।
21. करन्यास
ॐ क्रां अंगुष्ठाभ्यां नम:। ॐ क्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा । ॐ क्रूं मध्यमाभ्यां वषट्। ॐ क्रैं अनामिकाभ्यां हूं। ॐ क्रौं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्। ॐ क्र: करतलकरपृष्ठाभ्याम् अस्त्राय फट्।
22. अंगन्यास
ॐ क्रां हृदयाय नम:। ॐ क्रीं शिरसे स्वाहा। ॐ क्रूं शिखायै वषट्। ॐ क्रैं कवचाय हूं। ॐ क्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ क्र: अस्त्राय फट्।
23. तत्वन्यास
ॐ क्रीं आत्मतत्वाय स्वाहा। [ तत्व मुद्रा बना कर पैर से नाभि तक स्पर्श करे ]
ॐ क्रीं विद्यातत्वाय स्वाहा। [ तत्व मुद्रा बना कर नाभि से हृदय तक स्पर्श करे ]
ॐ क्रीं शिवतत्वाय स्वाहा। [ तत्व मुद्रा बना कर हृदय से सहस्त्रसार तक स्पर्श करे ]
24. व्यापक न्यास
क्रीं मन्त्र से ७ बार
25. माँकाली ध्यान
शवारुढां महाभीमां घोरदृंष्ट्रां वरप्रदाम्।
हास्य युक्तां त्रिनेत्रां च कपाल कर्तृकाकराम्।
मुक्त केशी ललजिह्वां पिबंती रुधिरं मुहु:।
चतुर्बाहूयुतां देवीं वराभयकरां स्मरेत्॥
26. माँकाली मानस पूजन
अपने गोद पर दायीं हथेली पर बाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें-
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि ।
ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि ।
ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि ।
ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि । ।
ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि ।
ॐ शं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि ।
27. इसके उपरान्त योनि मुद्रा द्वारा प्रणाम करना चाहिए
28. डाकिन्यादि मंत्रो का न्यास:- (तत्वमुद्रा द्वारा)
मूलाधार में डां डाकिन्यै नम:।
स्वाधिष्ठान में रां राकिन्यै नम:।
मणिपुर में लां लाकिन्यै नम:।
अनाहत में कां काकिन्यै नम:।
विशुद्ध में शां शाकिन्यै नम:।
आज्ञाचक्र में हां हाकिन्यै नम:।
सहस्रार में यां याकिन्यै नम:।
29. मन्त्र शिखा
श्वास को रुधकर भावना द्वारा कुलकुण्डलिनी को बिलकुल सहस्रार में ले जाये एवं उसी क्षण ही मूलाधार में ले आये। इस तरह से बार बार करते करते सुषुम्ना पथ पर विद्युत की तरह दीर्घाकार का तेज लक्षित होगा।
30. मन्त्र चैतन्य
ईं क्रीं ईं मन्त्र को ७ बार जपे।
31. मंत्रार्थ भावना
देवता का शरीर और मन्त्र अभिन्न है, यही चिंतन करें।
32. निंद्रा भंग
ईं क्रीं ईं मन्त्र को ह्रदय में १० बार जपे ।
33. कुल्लुका
क्रीं हूं स्त्रीं ह्रीं फट् मन्त्र को मस्तक पर ७ बार जपे।
34. महासेतु
क्रीं मन्त्र को कंठ में ७ बार जपे।
35. सेतु
ऐं हूं ऐं मन्त्र को ह्रदय में ७ बार जपे ।
36. मुखशोधन
क्रीं क्रीं क्रीं ॐ ॐ ॐ क्रीं क्रीं क्रीं मन्त्र को मुख में ७ बार जपे ।
37. जिव्हाशुद्धि
मत्स्यमुद्रा से आच्छादित करके हें सौ: मन्त्र को ७ बार जपे ।
38. करशोधन
क्रीं ईं क्रीं करमाले अस्त्राय फट् मन्त्र को ७ बार जपे ।
39. योनिमुद्रा मूलाधार से लेकर ब्रह्मरंध्र पर्यंत अधोमुख त्रिकोण एवं ब्रह्मरंध्र से लेकर मूलाधार पर्यंत उर्ध्वमुख त्रिकोण अर्थात् इस प्रकार का षट्कोण की कल्पना कर बाद मे ऐं मन्त्र का १० बार जप करे।।
40. निर्वाण
ॐ अं क्रीं ऐं ऐं क्रीं अं ॐ १ बार नाभि प्रदेश में जपे ।
41. प्राणतत्व
अनुस्वारयुक्त प्रत्येक मातृकावर्णो से बीजमंत्रो कोयुक्त करके जपकरे। अथवा अं कं चं टं तं पं यं शं से युक्त करके मन्त्र का जप करे। जैसे — अं क्रीं । कं क्रीं । चं क्रीं जपे।
42. प्राणयोग ह्रीं क्रीं ह्रीं – ७ बार ह्रदय में जपे।
43. दीपनी ॐ क्रीं ॐ – ७ बार ह्रदय में जपे।
44. अमृतयोग ॐ उं ह्रीं – १० बार ह्रदय में जपे।
45. सप्त्च्छदा क्रीं क्लीं ह्रीं हूं ॐ औं – १० बार ह्रदय में जपे।
46. मन्त्रचिंता
मन्त्रस्थान में मन्त्र का चिंतन करे। अर्थात रात्रि के प्रथम दशदण्ड (4 घंटे) में ह्रदय में, परवर्ती दशदण्ड में विन्दुस्थान (मनश्चक्र के ऊपर), उसके बाद के दशदण्ड के बीच कलातीत स्थान में मन्त्र का ध्यान करे। दिवस के प्रथम दशदण्ड के बीच ब्रह्मरंध्र में मन्त्र का ध्यान करे। दिवस के द्वितीय दशदण्ड में ह्रदय में एवं तृतीय दशदण्ड में मनश्चक्र में मन्त्र का चिंतन करे।
47. उत्कीलन देवता की गायत्री १० बार जपे।
ॐ क्रीं कलिकायै विद्महे शमशान वासिनयै धीमहि तन्नो घोरे प्रचोदयात्।
48. दृष्टिसेतु नासाग्र अथवा भ्रूमध्य में दृष्टि रखते हुए १० बार प्रणव का जप करे। प्रणव के अनाधिकारी औं मन्त्र का १० बार जप करे।
49. जपारंभ
सहस्रार में गुरु का ध्यान, जिव्हामूल में मन्त्रवर्णो का ध्यान और ह्रदयमें ईष्टदेवता का ध्यान करके बाद में सहस्रार में गुरुमूर्ति तेजोमय, जिव्हामूल में मन्त्र तेजोमय और ह्रदयमें ईष्टदेवता की मूर्ति तेजोमय, इस तरह से चिंतन करे। अनंतर में तीनों तेजोमय की एकता करके, इस तेजोमय के प्रभाव से अपने को भी तेजोमय और उससे अभिन्न की भावना करे। इसके बाद कामकला का ध्यान करके अपना शरीर नहीं है अर्थात् कामकला का रूप त्रिविन्दु ही अपना शरीर के रूप में सोचकर जप का आरम्भ कर दे।
50. पुन: प्राणायाम: क्रीं मंत्र से 4/16/8
51. पुन: कुल्लुका, सेतु, महासेतु, अशोचभंग का जप
कुल्लुका:- क्रीं हूं स्त्रीं ह्रीं फट् मन्त्र को मस्तक पर ७ बार जपे।
महासेतु:- “क्रीं” मन्त्र को कंठ में ७ बार जपे
सेतु:- “ऐं हूं ऐं” मन्त्र को ह्रदय में ७ बार जपे
अशौचभंग:- “ॐ क्रीं ॐ” – ७ बार ह्रदय में जपे
52. जपसमर्पण
एक आचमनी जल लेकर निम्न मंत्र पढ़कर सामने पात्र मे जल छोड़ दें –
ॐ गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् ।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरि ॥
53. क्षमायाचना
अपराधसहस्राणि क्रियंतेऽहर्निशं मया ।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ॥१॥
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् ।
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ॥२॥
मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि ।
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे ॥३॥
अपराधशतं कृत्वा जगदंबेति चोचरेत् ।
यां गर्ति समबाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ॥४॥
सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जग
ड्रदानीमनुकंप्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ॥५॥
अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् च ।
तत्सर्व क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥६॥
कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानंदविग्रहे ।
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ॥७॥
54. प्रणाम
ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥
ॐ काली महाकाली कालिके परमेश्वरी ।
सर्वानन्दकरी देवी नारायणि नमोऽस्तुते ।।
55. जप के पश्चात स्त्रोत, ह्रदय आदि का पाठ करना चाहिए
56. आसन छोडे:-
आसन के नीचे १ आचमनी जल छोडकर दाहिनी अनामिका द्वारा ३ बार “शक्राय वषट” कहकर उसी जल द्वारा तिलक कर तभी आसन छोड़ें। ऐसा नही करने पर इन्द्र आपकी सारी पुण्य को ले जाते हैं ।
विशेष द्रष्टव्य
यह क्रिया पूर्णतः तांत्रिक है । किसी कौलचार्य से शाक्ताभिषेक या पूर्णाभिषेक दीक्षा लेकर ही उपरोक्त अनुष्ठान करें ।
पुरश्चरण काल में लाल वस्त्र का एवं लाल ऊनी आसन का प्रयोग करें । नियमों का पालन करें ।
दक्षिणकालिका पुरश्चरण मे ९ दिन मे कम से कम १ लाख मंत्र जप होना अनिवार्य है।
दक्षिणकालिका देवी के मन्त्र रात्रि के समय जप करने से शीघ्र सिद्धि प्रदान करती है। वे सभी साधकों के लिए सिद्धिदायक है।
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