जानें सकट चौथ व्रत कथा व्रत विधि महत्व
पंचांग के अनुसार, माघ मास के कृष्ण पक्ष की संकष्टी चतुर्थी को सकट चौथ कहा जाता है. सकट चौथ का दूसरा नाम लंबोदर संकष्टी चतुर्थी है. इस दिन भगवान गणेश जी की पूजा करने और व्रत रखने से सभी संकटों का नाश होता है. परिवार और संतान की रक्षा के लिए सकट चौथ का व्रत हर साल रखा जाता है. सकट चौथ के दिन गणेश जी को दूर्वा और मोदक अर्पित किया जाता है. गणेश स्तुति, गणेश चालीसा का पाठ और सकट चौथ की व्रत कथा का पाठ किया जाता है. उसके बाद गणेश जी की आरती की जाती है. सकट चौथ के दिन चंद्रमा का दर्शन कर जल अर्पित करते हैं.
सकट चौथ का महत्व (Importance of Sakat Chauth)
यह व्रत माघ मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है। यह व्रत स्त्रियाँ अपने सन्तान की दीर्घायु और सफलता के लिये करती हैं। इस व्रत के प्रभाव से सन्तान को रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होती है तथा उनके जीवन में आने वाली सभी विघ्न-बाधायें गणेश जी दूर कर देते हैं। इस दिन स्त्रियाँ पूरे दिन निर्जला व्रत रखती है और शाम को गणेश पूजन तथा चन्द्रमा को अर्घ्य देने पश्चात् ही जल ग्रहण करती हैं।
1. भगवान श्री गणेश को समर्पित सकट चौथ एक बहुत ही महत्वपूर्ण त्यौहार है.
2. इस व्रत में भगवान श्री गणेश जी की मुख्य रूप से आराधना की जाती है साथ ही इस व्रत में चौथ माता या सकट माता की भी आराधना की जाती है.
3. भगवान श्री गणेश जी को बिघ्न हर्ता कहा जाता है. सकट चतुर्थी का व्रत करने और श्री गणेश जी की सच्चे ह्रदय से पूजा करने से सभी प्रकार के संकटों से गणेश जी रक्षा करतें हैं.
4. इस व्रत में महिलाएं दिन भर निर्जला व्रत रखती हैं, और साम को गणेश जी की पूजा आराधना करने के पश्चात चंद्र दर्शन करके व्रत का समापन किया जाता है.
5. सकट चौथ के व्रत में भगवान श्री गणेश जी को तिल के लडडू के साथ अन्य पकवान का भोग लगाया जाता है.
सकट चौथ व्रत की विधि (Method of Sakat Chauth fasting)
माघ मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को सकट का व्रत किया जाता है। इस दिन संकट हरण गणपति का पूजन होता है। इस दिन विद्या, बुद्धि, वारिधि गणेश तथा चन्द्रमा की पूजा की जाती है। भालचंद्र गणेश की पूजा सकट चौथ को की जाती है। प्रात:काल नित्य क्रम से निवृत होकर षोड्शोपचार विधि से गणेश जी की पूजा करें। निम्न श्लोक पढ़कर गणेश जी की वंदना करें
गजाननं भूत गणादि सेवितं, कपित्थ जम्बू फल चारू भक्षणम्।
उमासुतं शोक विनाशकारकम्, नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम्॥
इसके बाद भालचंद्र गणेश का ध्यान करके पुष्प अर्पित करें।
पूरे दिन मन ही मन श्री गणेश जी के नाम का जप करें। सुर्यास्त के बाद स्नान कर के स्वच्छ वस्त्र पहन लें। अब विधिपूर्वक (अपने घरेलु परम्परा के अनुसार) गणेश जी का पूजन करें। एक कलश में जल भर कर रखें। धूप-दीप अर्पित करें। नैवेद्य के रूप में तिल तथा गुड़ के बने हुए लड्डु, ईख, गंजी (शकरकंद), अमरूद, गुड़ तथा घी अर्पित करें।
यह नैवेद्य रात्रि भर बांस के बने हुए डलिया (टोकरी) से ढ़ंककर यथावत् रख दिया जाता है। पुत्रवती स्त्रियाँ पुत्र की सुख समृद्धि के लिये व्रत रखती है। इस ढ़ंके हुए नैवेद्य को पुत्र ही खोलता है तथा भाई बंधुओं में बाँटता है। ऐसी मान्यता है कि इससे भाई-बंधुओं में आपसी प्रेम-भावना की वृद्धि होती है। अलग-अलग राज्यों मे अलग-अलग प्रकार के तिल और गुड़ के लड्डु बनाये जाते हैं। तिल के लड्डु बनाने हेतु तिल को भूनकर, गुड़ की चाशनी में मिलाया जाता है, फिर तिलकूट का पहाड़ बनाया जाता है, कहीं-कहीं पर तिलकूट का बकरा भी बनाते हैं। तत्पश्चात् गणेश पूजा करके तिलकूट के बकरे की गर्दन घर का कोई बच्चा काट देता है।
सकट चौथ कथा – 01 (Sakat Chauth Katha – 01)
एक साहूकार और एक साहूकारनी थे। वह धर्म पुण्य को नहीं मानते थे। इसके कारण उनके कोई बच्चा नहीं था। एक दिन साहूकारनी पडोसी के घर गयी। उस दिन सकट चौथ था, वहा पड़ोसन सकट चौथ की पूजा कर के कहानी सुना रही थी।
साहूकारनी ने पड़ोसन से पूछा – “तुम क्या कर रही हो ?” तब पड़ोसन बोली की आज चौथ का व्रत है, इसलिए कहानी सुना रही हूँ। तब साहूकारनी बोली चौथ के व्रत करने से क्या होता है ? तब पड़ोसन बोली इसे करने से अन्न, धन, सुहाग, पुत्र सब मिलता है। तब साहूकारनी ने कहा यदि मेरा गर्भ रह जाये तो मैं सवा सेर तिलकुट करुँगी और चौथ का व्रत करुँगी।
श्री गणेश भगवान की कृप्पा से साहूकारनी के गर्भ रह गया। तो वह बोली की मेरे लड़का हो जाये, तो में ढाई सेर तिलकुट करुँगी। कुछ दिन बाद उसके लड़का हो गया, तो वह बोली कि “हे चौथ भगवान ! मेरे बेटे का विवाह हो जायेगा, तो सवा पांच सेर का तिलकुट करुँगी।” कुछ वर्षो बाद उसके बेटे का विवाह तय हो गया और उसका बेटा विवाह करने चला गया। लेकिन उस साहूकारनी ने तिलकुट नहीं किया। इस कारण से चौथ देव क्रोधित हो गये और उन्होंने फेरो से उसके बेटे को उठाकर पीपल के पेड़ पर बिठा दिया। सभी वर को खोजने लगे पर वो नहीं मिला, हतास हो कर सरे लोग अपने अपने घर को लोट गए। इधर जिस लड़की से साहूकारनी के लड़के का विवाह होने वाला था, वह अपनी सहेलियों के साथ गणगौर पूजने के लिए जंगल में दूब लेने गयी।
तभी रस्ते में पीपल के पेड़ से आवाज आई – “ओ मेरी अर्धब्यहि” यह बात सुनकर जब लड़की घर आयी उसके बाद वह धीरे-धीरे सुख कर काँटा होने लगी। एक दिन लड़की की माँ ने कहा – “मै तुम्हे अच्छा खिलाती हूँ, अच्छा पहनाती हूँ, फिर भी तू सूखती जा रही है ? ऐसा क्यों ?” तब लड़की अपनी माँ से बोली की वह जब भी दूब लेने जंगल जाती है, तो पीपल के पेड़ से एक आदमी बोलता है की ओ मेरी अर्धब्यहि। उसने मेहँदी लगा रखी है और सेहरा भी बबाँध रखा है। तब उसकी माँ ने पीपल के पेड़ के पास जा कर देखा की यह तो उसका जमाई है। तब उसकी माँ ने जमाई से कहा – “यहाँ क्यों बैठा है ? मेरी बेटी तो अर्धब्यहि कर दी और अब क्या लेगा ?”
साहूकारनी का बेटा बोलै – “मेरी माँ ने चौथ का तिलकुट बोला था लेकिन नहीं किया, इस लिए चौथ माता ने नाराज हो कर यहाँ बैठा दिया।” यह सुनकर उस लड़की की माँ साहूकारनी के घर गई और उससे पूछा की तुमने सकट चौथ का कुछ बोला है क्या ? तब साहूकारनी बोली – तिलकुट बोला था। उसके बाद साहूकारनी बोली मेरा बेटा घर आ जाये, तो ढाई मन का तिलकुट करुँगी।
इससे श्री गणेश भगवन प्रसन्न हो गए और उसके बेटे को फेरों में ला कर बैठा दिया। बेटे का विवाह धूम धाम से हो गया। जब साहूकारनी के बेटे बहु घर को आ गए तब साहूकारनी ने ढाई मन तिलकुट किया और बोली हे चौथ देव ! आप के आशीर्वाद से मेरे बेटा बहु घर आये है, जिससे में हमेशा तिलकुट करके व्रत करुँगी। इसके बाद सारे नगर वासियो ने तिलकुट के साथ सकट व्रत करना प्रारम्भ कर दिया।
हे सकट चौथ जिस तरह साहूकारनी को बेटे बहु से मिलवाया, वैसे हम सब को मिलवाना। इस कथा को कहने सुनने वालो का भला करना।
बोलो सकट चौथ की जय। श्री गणेश देव की जय।
सकट चौथ कथा – 2 (Sakat Chauth Katha – 02)
एक बार महादेवजी पार्वती सहित नर्मदा के तट पर गए। वहाँ एक सुन्दर स्थान पर पार्वतीजी ने महादेवजी के साथ चौपड़ खेलने की इच्छा व्यक्त की। तब शिवजी ने कहा- हमारी हार-जीत का साक्षी कौन होगा ? पार्वती ने तत्काल वहाँ की घास के तिनके बटोरकर एक पुतला बनाया और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करके उससे कहा- “बेटा ! हम चौपड़ खेलना चाहते हैं, किन्तु यहाँ हार-जीत का साक्षी कोई नहीं है। अतः खेल के अन्त में तुम हमारी हार-जीत के साक्षी होकर बताना कि हममें से कौन जीता, कौन हारा ?”
खेल आरम्भ हुआ। दैवयोग से तीनों बार पार्वतीजी ही जीतीं। जब अंत में बालक से हार-जीत का निर्णय कराया गया तो उसने महादेवजी को विजयी बताया। परिणामतः पार्वतीजी ने क्रुद्ध होकर उसे एक पाँव से लंगड़ा होने और वहाँ के कीचड़ में पड़ा रहकर दुःख भोगने का शाप दे दिया।
बालक ने विनम्रतापूर्वक कहा- “माँ मुझसे अज्ञानवश ऐसा हो गया है। मैंने किसी कुटिलता या द्वेष के कारण ऐसा नहीं किया। मुझे क्षमा करें तथा शाप से मुक्ति का उपाय बताएँ।” तब ममतारूपी माँ को उस पर दया आ गई और वे बोलीं- “यहाँ नाग-कन्याएँ गणेश-पूजन करने आएँगी। उनके उपदेश से तुम गणेश व्रत करके मुझे प्राप्त करोगे।” इतना कहकर वे कैलाश पर्वत चली गईं।
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एक वर्ष बाद वहाँ श्रावण में नाग-कन्याएँ गणेश पूजन के लिए आईं। नाग-कन्याओं ने गणेश व्रत करके उस बालक को भी व्रत की विधि बताई। तत्पश्चात बालक ने 12 दिन तक श्रीगणेशजी का व्रत किया। तब गणेशजी ने उसे दर्शन देकर कहा- “मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूँ। मनोवांछित वर माँगो।” बालक बोला- “भगवन ! मेरे पाँव में इतनी शक्ति दे दो कि मैं कैलाश पर्वत पर अपने माता-पिता के पास पहुँच सकूँ और वे मुझ पर प्रसन्न हो जाएँ।”
गणेशजी ‘तथास्तु’ कहकर अंतर्धान हो गए। बालक भगवान शिव के चरणों में पहुँच गया। शिवजी ने उससे वहाँ तक पहुँचने के साधन के बारे में पूछा। तब बालक ने सारी कथा शिवजी को सुना दी। उधर उसी दिन से अप्रसन्न होकर पार्वती शिवजी से भी विमुख हो गई थीं। तदुपरांत भगवान शंकर ने भी बालक की तरह 21 दिन पर्यन्त श्रीगणेश का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पार्वती के मन में स्वयं महादेवजी से मिलने की इच्छा जाग्रत हुई।
वे शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर आ पहुँची। वहाँ पहुँचकर पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा- भगवन ! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया जिसके फलस्वरूप मैं आपके पास भागी-भागी आ गई हूँ। शिवजी ने ‘गणेश व्रत’ का इतिहास उनसे कह दिया।
तब पार्वतीजी ने अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा से 21 दिन पर्यन्त 21-21 की संख्या में दूर्वा, पुष्प तथा लड्डुओं से गणेशजी का पूजन किया। 21वें दिन कार्तिकेय स्वयं ही पार्वतीजी से आ मिले। उन्होंने भी माँ के मुख से इस व्रत का माहात्म्य सुनकर व्रत किया।
बोलो सकट चौथ की जय। श्री गणेश देव की जय।
सकट चौथ कथा – 03 (Sakat Chauth Katha – 03)
एक शहर में देवरानी जेठानी रहती थी। जेठानी अमीर थी और देवरानी गरीब थी। देवरानी गणेश जी की भक्त थी। देवरानी का पति जंगल से लकड़ी काट कर बेचता था और अक्सर बीमार रहता था। देवरानी जेठानी के घर का सारा काम करती और बदले में जेठानी बचा हुआ खाना, पुराने कपड़े आदि उसको दे देती थी। इसी से देवरानी का परिवार चल रहा था।
माघ महीने में देवरानी ने तिल चौथ का व्रत किया। पाँच रूपये का तिल व गुड़ लाकर तिलकुट्टा बनाया। पूजा करके तिल चौथ की कथा (तिल चौथ की कहानी) सुनी और तिलकुट्टा छींके में रख दिया और सोचा की चाँद उगने पर पहले तिलकुट्टा और उसके बाद ही कुछ खायेगी।
कथा सुनकर वह जेठानी के यहाँ चली गई। खाना बनाकर जेठानी के बच्चों से खाना खाने को कहा तो बच्चे बोले माँ ने व्रत किया हैं और माँ भूखी हैं। जब माँ खाना खायेगी हम भी तभी खाएंगे। जेठजी को खाना खाने को कहा तो जेठजी बोले, ”मैं अकेला नही खाऊँगा, जब चाँद निकलेगा तब सब खाएंगे तभी मैं भी खाऊँगा” जेठानी ने उसे कहा कि आज तो किसी ने भी अभी तक खाना नहीं खाया तुम्हें कैसे दे दूँ ? तुम सुबह सवेरे ही बचा हुआ खाना ले जाना।
देवरानी के घर पर पति, बच्चे सब आस लगाए बैठे थे की आज तो त्यौहार हैं इसलिए कुछ पकवान आदि खाने को मिलेगा। परन्तु जब बच्चों को पता चला कि आज तो रोटी भी नहीं मिलेगी तो बच्चे रोने लगे। उसके पति को भी बहुत गुस्सा आया कहने लगा सारा दिन काम करके भी दो रोटी नहीं ला सकती तो काम क्यों करती हो ? पति ने गुस्से में आकर पत्नी को कपड़े धोने के धोवने से मारा। धोवना हाथ से छूट गया तो पाटे से मारा। वह बेचारी गणेश जी को याद करती हुई रोते-रोते पानी पीकर सो गयी।
उस दिन गणेश जी देवरानी के सपने में आये और कहने लगे, ”धोवने मारी पाटे मारी सो रही है या जाग रही है।” वह बोली, ”कुछ सो रही हूँ, कुछ जाग रही हूँ।” गणेश जी बोले, ”भूख लगी है, कुछ खाने को दे।” देवरानी बोली, ”क्या दूँ , मेरे घर में तो अन्न का एक दाना भी नहीं है। जेठानी बचा खुचा खाना देती थी आज वो भी नहीं मिला। पूजा का बचा हुआ तिल कुट्टा छींके में पड़ा हैं वही खा लो।”
तिलकुट्टा खाने के बाद गणेश जी बोले, ”धोवने मारी पाटे मारी निमटाई लगी है, कहाँ निमटें।” वो बोली, ”ये पड़ा घर, जहाँ इच्छा हो वहाँ निमट लो।” फिर गणेश जी बोले, ”अब कहाँ पोंछू।” अब देवरानी को बहुत गुस्सा आया कि कब के तंग करे जा रहे है, सो बोली, ”मेरे सर पर पोंछो और कहाँ पोंछोगे।”
सुबह जब देवरानी उठी तो यह देखकर हैरान रह गई कि पूरा घर हीरे-मोती से जगमगा रहा है, सिर पर जहाँ बिनायकजी पोंछनी कर गये थे वहाँ हीरे के टीके व बिंदी जगमगा रहे थे।
उस दिन देवरानी जेठानी के काम करने नहीं गई। बड़ी देर तक राह देखने के बाद जेठानी ने बच्चो को देवरानी को बुलाने भेजा। जेठानी ने सोचा कल खाना नहीं दिया इसीलिए शायद देवरानी बुरा मान गई है। बच्चे बुलाने गए और बोले चाची चलो माँ ने बुलाया है सारा काम पड़ा हैं। दुनियाँ में चाहे कोई मौका चूक जाए पर देवरानी जेठानी आपस में कहने का मौके नहीं छोड़ती। देवरानी ने कहा, ”बेटा बहुत दिन तेरी माँ के यहाँ काम कर लिया, अब तुम अपनी माँ को ही मेरे यहाँ काम करने भेज दो।”
बच्चो ने घर जाकर माँ को बताया कि चाची का तो पूरा घर हीरे मोतियों से जगमगा रहा है। जेठानी दौड़ती हुई देवरानी के पास आई और पूछा कि ये सब हुआ कैसे ? देवरानी ने उसके साथ जो हुआ वो सब कह डाला।
घर लौटकर जेठानी अपने पति से कहा कि आप मुझे धोवने और पाटे से मारो। उसका पति बोला कि भलीमानस मैंने कभी तुम पर हाथ भी नहीं उठाया। मैं तुम्हें धोवने और पाटे से कैसे मार सकता हूँ। वह नहीं मानी और जिद करने लगी। मजबूरन पति को उसे मारना पड़ा। उसने ढ़ेर सारा घी डालकर चूरमा बनाया और छीकें में रखकर और सो गयी। रात को चौथ विनाययक जी सपने में आये कहने लगे, भूख लगी है, क्या खाऊँ ? जेठानी ने कहा हे गणेश जी महाराज, मेरी देवरानी के यहाँ तो आपने सूखा चूँटी भर तिलकुट्टा खाया था मैने तो झरते घी का चूरमा बनाकर आपके लिए छींके में रखा है, फल और मेवे भी रखे हैं जो चाहें खा लीजिये।
गणेश जी बोले, अब निपटे कहाँ ? जेठानी बोली, ”उसके यहाँ तो टूटी फूटी झोंपड़ी थी मेरे यहाँ तो कंचन के महल हैं जहाँ चाहो निपटो। फिर गणेश जी ने पूछा, अब पोंछू कहाँ ? जेठानी बोली, मेरे ललाट पर बड़ी सी बिंदी लगाकर पोंछ लो।
धन की भूखी जेठानी सुबह बहुत जल्दी उठ गयी। सोचा घर हीरे जवाहरात से भर चुका होगा पर देखा तो पूरे घर में गन्दगी फैली हुई थी। तेज बदबू आ रही थी। उसके सिर पर भी बहुत सी गंदगी लगी हुई थी। उसने कहा, “हे गणेश जी महाराज, ये आपने क्या किया ? मुझसे रूठे और देवरानी पर टूटे।” जेठानी ने घर और सिर की सफाई करने की बहुत ही कोशिश की, परन्तु गंदगी और ज्यादा फैलती गई। जेठानी के पति को मालूम चला तो वह भी बहुत गुस्सा हुआ और बोला तेरे पास इतना सब कुछ था, फिर भी तेरा मन नहीं भरा।
परेशान होकर चौथ के बिनायक जी (गणेशजी) से मदद की विनती करने लगी। बिंदायक जी ने कहा, देवरानी से जलन के कारण तूने जो किया था यह उसी का फल है। अब तू अपने धन में से आधा उसे देगी तभी यह सब साफ होगा।
उसने आधा धन बाँट दिया किन्तु मोहरों की एक हांडी चूल्हे के नीचे गाढ़ रखी थी। उसने सोचा किसी को पता नहीं चलेगा और उसने उस धन को नहीं बाँटा। उसने कहा, ”हे चौथ बिनायक जी, अब तो अपना यह बिखराव समेटो।” वे बोले, पहले चूल्हे के नीचे गाढ़ी हुयी मोहरो की हाँडी सहित ताक में रखी दो सुई की भी पांति कर। इस प्रकार बिनायकजी ने सुई जैसी छोटी चीज का भी बंटवारा करवाकर अपनी माया समेटी
हे गणेश जी महाराज, जैसी आपने देवरानी पर कृपा करी वैसी सब पर करना। कहानी कहने वाले, सुनने वाले व हुंकारा भरने वाले सब पर कृपा करना। किन्तु जेठानी को जैसी सजा दी वैसी किसी को मत देना।
बोलो सकट चौथ की जय। श्री गणेश देव की जय।
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