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भगवान चैतन्य प्रभु कहते हैं, आप वेदों को कैसे भी पढिए, सीधे या घुमाकर जिस ढंग से आपको ठीक लगे आप वेद भी पढिए, परन्तु परम उद्देश्य कृष्ण ही है।

बात श्रद्धा और विश्वास की है घर के आंगन में मोरपंख गिरा था दादी बोली मोरपंख गिरा पड़ा है, दादा बोले लगता है मोर आया था, पोता बोला क्या पता कृष्ण खुद आए हों.. 

ये है पोता का विश्वास.. 

बस अपने भक्तों का ये विश्वास, श्रद्धा, भरोसा ही जगत के नाथ, परम ईश्वर कृष्ण को भी गोलोक से धरती पे आने को विवश कर देता है।

कृष्ण प्रेम श्रीकृष्ण एवं श्रीकृष्ण के धाम या भगवद्धाम के सिवा अन्य देवी देवता व उनके धाम शाश्वत नहीं हैं, वे सभी काल की सीमा में बंधे हुए हैं। इसलिए हैं शाश्वत सुख-शांति की प्राप्ति श्री कृष्ण की आराधना में में है। जैसे वृक्ष की जड़ में पानी देने से पूरा वृक्ष हरा-भरा रहता है, उसी प्रकार सभी देवी देवताओं के मूल कारण श्री कृष्ण हैं। इसलिए श्री कृष्ण भजन से सारे मनोरथ सफल हो जाते हैं, अलग से कुछ नहीं करना पड़ता। 

एक बुजुर्ग से किसी ने पूछा “कुछ नसीहत कर दीजिये” उन्होंने अजीब सवाल किया, “कभी बर्तन धोये हैं ?” उस शख्श ने हैरान होकर जवाब दिया “जी धोये हैं।” उन्होंने पूछा “क्या सिखा? उस शख्श ने कहा, “इसमें सिखने वाली बात क्या है ?” बुजुर्ग ने मुस्कुराकर जवाब दिया “बर्तन को बाहर से कम अन्दर से ज़्यादा धोना पड़ता है।” बाहर की शुचिता से अंदर की पवित्रता ज्यादा आवश्यक है।

भक्ति नामजप साधना अपने चंचल मन को नियंत्रित करने, उस मन को सही दिशा देने, उससे अपेक्षित कार्य करने का सर्वोत्तम अभ्यास है। 

कृष्ण प्रेम श्री कृष्ण की जड़माया के निरंतर संसर्ग से आत्मा का शुद्ध स्वरूप ढक जाता है। सभी मनुष्यों के स्वभाव, गुण, कर्म आदि भिन्न भिन्न होते हैं | माया बद्ध जीव मायिक पदार्थों में सुख समझ कर उन्हें प्राप्त करने के लिए नाना देवी-देवताओं की उपासना करता है । इससे उन्हें अपने इच्छित भोग प्राप्त हो जाते हैं, परंतु इन भोगों से उसे शाश्वत सुख नहीं मिलता। 

सब कुछ भगवान द्वारा बनाया गया है। और वास्तविक अधिकार उनका ही है। लेकिन उन वस्तुओं का उपभोग करते समय मनुष्य को उस वस्तु से इतना लगाव हो जाता है कि उसे यह अहसास ही नहीं रहता कि वह उसकी नहीं है। इसमें से जिसने प्राप्त की उसकी महत्वाकांक्षा बढ़ती है और जिसने खो दी उसका दुख बढ़ जाता है। 

एक कदम सफलता की और भगवद गीता में लिखा है मन अंधा होता है। इसके पास अपना कोई ज्ञान नहीं होता है। मन कुछ नहीं जानता और ना ही सही मार्गदर्शन करता है। इसलिए आप अंधे मन की बातें मान कर जरूरी कामों को टालना बंद किजिए। आप हमेशा अपनी बुद्धि से काम लीजिये मन से नहीं। क्योंकि अंधा मन आपको हमेशा जरूरी कामो को करने से रोक देता है। जब आप बुद्धि के जरिए जरूरी कामों को करना शुरू कर देंगे तो धीरे धीरे आपका मन आपका मित्र बनता चला जायेगा लेकिन अभी आपका मन आपका दुश्मन बना हुआ है जो आपको दिन पे दिन बर्बाद कर रहा है।

“प्रायश्चित कर्म” कर्म मनुष्य मात्र का स्वभाव है तो कर्म फल का का भोग भी मनुष्य जीवन की अनिवार्यता है। मनुष्य जिस प्रकार के कर्म करता है उस प्रकार का फल उसे न चाहते हुए भी अवश्य भोगना ही पड़ता है। जाने अनजाने मनुष्य से अनेक पाप कर्म बन ही जाते हैं। मनुष्य द्वारा जा अनजाने किये जाने वाले उन्हीं पाप कर्मों के फल स्वरूप उसके कर्म फल का भी निर्धारण किया जाता है और उनक पाप कर्मों के आधार पर ही उसके दण्ड का भी निर्धारण होता है। उन पाप कर्मों के फल से बचने के लिए शास्त्रों ने जो विधान निश्चित किया गया है, उसी को प्रायश्चित कर्म कहा गया है। सरल अर्थों में मनुष्य का अपराध बोध ही उसका प्रायश्चित कहलाता है | दैन्य भाव से प्रभु चरणों की शरणागति एवं प्रभु के मंगलमय नामों का दृढ़ाश्रय ही जीव का सबसे बड़ा प्रायश्चित है।

संसार उसको बाँध नहीं सकता संत जन कहते हैं कि जो भगवान की कथा श्रवण करता है, वाचन करता है वो संसार में रहता तो है लेकिन रहता हुआ भी वो मुक्त रहता है। संसार उसको बाँध नहीं सकता। जिस प्रकार नौका समुद्र में रहती है लेकिन समुद्र नौका में नहीं होना चाहिए। नही तो नौका डूब जायेगी। उसी प्रकार हम संसार में तो रहें लेकिन संसार हमारे अन्दर न रहे नहीं तो पतन निश्चित है। कमल कीचड़ में रहता है लेकिन अनासक्त भाव से। इसी प्रकार से हम सबको भी इस संसार मे रहना चाहिये। रहे तो संसार मे लेकिन हृदय गोविंद के चरणों से समर्पित रहना चाहिए। एक पल भी ठाकुर का विस्मरण न हो यही सच्ची सम्पत्ति हैं। 

किसी भी मार्ग में सफलता प्राप्त करने के लिए उचित समय, उचित सोच एवं उचित प्रयास ये तीन बातें अति महत्वपूर्ण हैं | उचित सोच- प्रथमतः सफलता प्राप्त करने के लिए किसी भी व्यक्ति के पास उचित सोच का होना अति आवश्यक है क्योंकि सोच ही तो वो बीज है जो बाद में एक विशाल वृक्ष का रुप लेने वाला है।

उचित समय- उचित सोच के साथ-साथ आपका समय भी उचित होना चाहिए क्योंकि अनुचित समय पर किया गया बीजारोपण कभी भी अंकुरित नहीं हो पाता है।

उचित प्रयास- उचित सोच हो, साथ ही उचित समय हो और उससे महत्वपूर्ण ये कि उचित प्रयास भी जरूर होना चाहिए क्योंकि बिना यथायोग्य प्रयास के न समझ काम आती है न समय काम आता है। जहाँ उचित समझ, उचित समय और उचित प्रयास है, वहाँ सफलता भी आपकी दासी बन जाती है। 

ज्ञानी भक्त नही हो सकता लेकिन भक्त ज्ञानी होता है प्रभु कृपा से। सन्तजन कहते है जिसको श्री ठाकुरजी अपनी भक्ति देते है उसके ह्रदय में समस्त में श्रुतियों का ज्ञान स्वतः स्फुरित होने लगता है। ज्ञानी प्रयास इधर उधर से ज्ञान बटोर कर ज्ञानी बनता है लेकिन भक्त प्रभु कृपा से ज्ञानी हो जाता है स्वतः बिना किसी प्रयास के बिना किसी खोजबीन के। 

मनुष्य का परम धर्म यही है जिसका आचरण करने से भगवान में प्रेम हो जाये। प्रभु से प्रेम का नाम है भक्ति। भक्ति सर्वोपरि है। धर्म का हेतु मोक्ष हैं। धर्म का हेतु काम नहीं हैं। काम का फल मोक्ष नहीं है। कोई भी कामना शेष रहेगी तो फिर जन्म लेना पड़ेगा। पिछली जन्म की कामनाओ का परिणाम ही यह शरीर हैं। काम अर्थात कामना उतनी ही होनी चाहिये जितने से प्रयोजन की सिद्धि हो जाय, उतने में ही निर्वाह करें। वासना वासित अन्तःकरण वाला व्यक्ति धर्माचरण तो करता है लेकिन उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। हरे कृष्ण महामंत्र का जप व भगवान की कथाओं को श्रवण किये बिना चित्त की शुद्धि सम्भव नहीं है। 

“अनुग्रह” जिस प्रकार एक वैद्य के द्वारा दो अलग- अलग रोग के रोगियों को अलग अलग दवा दी जाती है। किसी को मीठी तो किसी को अत्याधिक कड़वी दवा दी जाती है। लेकिन दोनों के साथ भिन्न-भिन्न व्यवहार किये जाने के बावजूद भी उसका उद्देश्य एक ही होता है, रोगी को स्वास्थ्य लाभ प्रदान करना। ठीक इसी प्रकार उस ईश्वर द्वारा भी भले ही देखने में भिन्न-भिन्न लोगों के साथ भिन्न-भिन्न व्यवहार नजर आये मगर उसका भी केवल एक ही उद्देश्य होता है और वह है, कैसे भी हो मगर जीव का कल्याण करना । सुदामा को अकिंचन बनाके तारा तो राजा बलि को सम्राट बनाकर तारा। शुकदेव जी को परम ज्ञानी बनाकर तारा तो विदुर जी को प्रेमी बना कर। पांडवों को मित्र बना कर तारा व कौरवों को शत्रु बनाकर । स्मरण रहे भगवान केवल क्रिया से भेद करते हैं भाव से नहीं। 

जो कर्म हम दूसरों के भले के लिये करते हैं, वो हमारे कर्तव्य होते हैं। और जो कर्म हम अपने सुख के लिये करते हैं वो भोग होते है। 

इस मानव शरीर में सच्चा सुख क्या है ? उस सुख का परिणाम क्या है ? इसका वास्तविक स्वरूप क्या है ? यह सब समझने के लिए यह मानव शरीर है। क्या विषय से मिलने वाला सुख ही वास्तविक सुख है ? यह मानव जन्म कैसे मिलता है ? जन्म और मृत्यु के संकट से बचने के लिए क्या करना चाहिए ? इन सब बातों का विचार करना ही मनुष्य जन्म का प्रथम कर्तव्य है। 

प्रसन्नता जीवन का सौंदर्य है। चित्त की अप्रसन्नता में चेहरे का सौंदर्य कोई मायने नहीं रखता है। जीवन तो वही सुंदर है जिसमें चेहरे पर खूबसूरती हो न हो मगर हृदय में प्रसन्नता अवश्य होनी चाहिए। महत्वपूर्ण ये नहीं कि आप कितने सुंदर हैं, महत्वपूर्ण ये है कि आप कितने प्रसन्न हैं। प्रसन्नचित्त व्यक्ति सकारात्मक सोच का भी पर्याय है। व्यक्ति की सोच जितनी सकारात्मक होगी उसका मन उतना ही प्रसन्न भी रहेगा। सकारात्मक विचारों से ही जीवन में सकारात्मक नजरिये का निर्माण संभव हो पाता है और सकारात्मक विचार सदैव श्रेष्ठ संग से प्राप्त होते हैं। आपके अंतःकरण की प्रसन्नता निसंदेह आपके संग पर भी निर्भर करती है।

जीवन में प्रायः यही पाया गया है कि जिनके पास श्रेष्ठ विचार वाले व्यक्तियों का संग रहा वो पाण्डवों की तरह विपरीत परिस्थितियों में भी प्रसन्नता पूर्वक जी सके। जीवन में सदैव श्रेष्ठ का संग करें ताकि उनसे प्राप्त प्रेरक विचार आपके जीवन परिवर्तन का कारण बन सकें और सुविचारों की महक से पुष्प की तरह आपका जीवन भी प्रसन्न एवं सौंदर्यपूर्ण बन सके। 

सुख दुख का चक्र हमेशा चलता रहता है संसारिक व्यक्ति इन सुख दुख मे विचलित हो जाता है जिसकी वजह से वो 8400000 योनियो मे चक्कर काटता है। 

आपको बहुत सारी चीजें बहुत मिलेगी तो आपको बहुत सारा सुख मिलेगा यह भ्रम है। सत्य अथवा बहुत सारा सुख यानी शाश्वत, सनातन सुख है। यह शाश्वत वस्तु के साथ है, अर्थात् ईश्वर के साथ है। 

मनुष्य को शुभ कार्य करके इस देह का सदुपयोग करना चाहिए । जो मनुष्य प्रत्येक दिन सत्कार्य करते हैं, वास्तव में उनका ही जीवन सफल होता है। आपको बोध होना चाहिए कि वह प्रेम स्वरूप परमात्मा हमारे भीतर विराजमान है। किसी से राग द्वेष कुछ न करें।

स्वयं के हृदय में जब तक करुणा, परोपकार भावना, सत्यता, सरलता नही आएगी तब तक भगवान की कृपा और भक्ति प्राप्त नहीं होती। जब तक भीतर से परमात्मा के लिऐ तीव्र जिज्ञासा और तड़प नही होगी, तब तक ईश्वर की ना अनुभूति होगी ना प्राप्ति होगी। प्रभु के निकट आना हो तो उसे श्रीकृष्ण पर भरोसा रखने की जरूरत है और फिर भगवान आपका भरोसा कभी भी टूटने नही देंगे। अतः सत्कर्म करते रहे। एक छोटा सा नित्य किया गया सत्कर्म आपको गोविंद के चरणों तक पहुंचा सकता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम्हारा चिन्तन अगर सच्चा हो गया, तो यकीन मानिए श्रीकृष्ण और राधा रानी आपके साथ हर पल होंगे। 

संसार से बांधने वाली भी इच्छा है और प्रभु से मिलाने वाली भी ‘इच्छा’ ही है। इसलिए अपनी इच्छाओं को कृष्ण की तरफ लगाइए। 

त्याग का अर्थ वस्तुओं को बाह्य रूप से त्याग देना नहीं है, अपितु इसका तात्पर्य है हृदय से अवांछित तत्वों को पूरी लगन के साथ निकाल फेंकना। 

आलस्य बहुत खतरनाक होता है। शरीर द्वारा किसी काम को करने की असमर्थता व्यक्त करना, यह शारीरिक आलस्य है। मगर किसी काम को करने से पहले ही यह सोच लेना कि यह काम मेरे वश का नहीं है अथवा किसी काम को करने से पहले ही हार मानकर बैठ जाना, पीछे हट जाना यह मानसिक है।

इस मानसिक आलस्य के कारण बहुत लोग दुखी होते हैं, असफल होते हैं और इसी निराशा के कारण डिप्रेशन तक पहुँच जाते हैं। इस मानसिक आलस्य को दूर करने का उपाय है सदचिन्तन, सकारात्मक चिन्तन, प्रभु उपासना और अच्छे लोगों का संग। एक विचार आदमी के संसार को बदल देता है। यदि वह विचार शुभ है तो वह ना केवल स्वयं की प्रगति का कारण बनता है अपितु दूसरे लोगों के जीवन को भी बदलने तक की सामर्थ्य रखने वाला होता है। अतः हमेशा अच्छा सोचो ताकि मानसिक आलस्य से बच सको। 

भगवान अपने भक्तों द्वारा इच्छित वस्तु उन्हें प्रदान नहीं करते। भगवान् उन्हें वे ही वस्तु प्रदान करते हैं जिनमें भक्त का परमहित हो। 

चित्त शुद्धि के बिना, हमारे मन में हर जगह भगवद्भाव उत्पन्न नहीं होगा। इसलिए जब भी हम दूसरों के दोष देखते हैं, तो यह समझे कि हमारा अपना ही चित्त अशुद्ध है। हमें परमात्मा से दया के लिए भीख मांगते हुए उनकी शरण में जाना चाहिए, और उनसे ‘मेरे चित्त को शुद्ध’ करने का अनुरोध करना चाहिए। ऐसा करने से हमारा चित्त शुद्ध होता है और फिर भगवान को पाने में देर नहीं लगती। 

ईमानदार साधक का इष्ट एक ही 

जैसे एक पत्नी का पति एक होता है। उसके ससुर जेठ देवर भी होते हैं वह उनका भी पर्याप्त सम्मान करती है। लेकिन संग पति का ही करती है, ऐसे ही एक पुत्र का पिता एक ही होता है। उसके चाचा ताऊ दादा बड़े दादा छोटे दादा आदि अनेक होते हैं । और वह उनका भी सम्मान करता है । लेकिन पिता, पिता ही होता है। उसी प्रकार एक ईमानदार साधक का इष्ट एक ही होता है साथ ही वह अपने इष्ट के अन्य स्वरूपों का भी सम्मान करता है। लेकिन उपासना अपने इष्ट की ही करता है। और अन्य स्वरूप उसके इष्ट स्वरूप से पृथक होते ही हैं अपमान किसी का भी नहीं करता है। 

गुरु कृपा गुरु कृपा चार प्रकार से होती है:

१. स्मरण से, २. दृष्टि से, ३. शब्द से, ४. स्पर्श से स्मरण से :- जैसे कछुवी रेत के भीतर अंडा देती है पर खुद पानी के भीतर रहती हुई उस अंडे को याद करती रहती है तो उसके स्मरण से अंडा पक जाता है। ऐसे ही गुरु की याद करने मात्र से शिष्य को ज्ञान हो जाता है। यह है स्मरण दीक्षा। 

दृष्टि से :- जैसे मछली जल में अपने अंडे को थोड़ी-थोड़ी देर में देखती रहती है तो देखने मात्र से अंडा पक जाता है। ऐसे ही गुरु की कृपा दृष्टि से शिष्य को ज्ञान हो जाता है। यह दृष्टि दीक्षा है।

शब्द से :- जैसे कुररी पृथ्वी पर अंडा देती है, और आकाश में शब्द करती हुई घूमती है तो उसके शब्द से अंडा पक जाता है। ऐसे ही गुरु अपने शब्दों से शिष्य को ज्ञान करा देता है। यह शब्द दीक्षा है।

स्पर्श से :- जैसे मयूरी अपने अंडे पर बैठी रहती है तो उसके स्पर्श से अंडा पक जाता है। ऐसे ही गुरु के हाथ के स्पर्श से शिष्य को ज्ञान हो जाता है। यह स्पर्श दीक्षा है। 

वर्तमान में हरिनाम जप की ऋतु आयी हुई है। वर्षा ऋतु में खेती बढ़िया होती है। हरिनाम जप सस्ता मिलता है, मँहगा बिकता है। हरिनाम जप में समय तो सत्ययुग के अनुसार लगता है, पर फल मिलता है कलियुग के अनुसार। आप हरिनाम जप का स्वभाव बना लें। गया समय फिर मिलेगा नहीं, पर जो समय हाथ में है, उसे अच्छे-से-अच्छे काम में लगाओ। जबतक थोड़ी भी रस्सी हाथ में है, कुएँ से जल निकाल सकते हैं, पर रस्सी ही हाथ से निकल गयी तो ?

दूसरे को भगवान में लगाने के समान कोई पुण्य नहीं है। दूसरे को भोजन दोगे तो उसे पुनः भूख लग जायगी, पर भगवान् में लगा दोगे तो अनन्त जन्मों की भूख मिट जायगी। 

ज्ञान – अज्ञान बात बहुत पुरानी है। एक बार एक धनी व्यक्ति किसी फकीर के पास गया और बोला, ‘महाराज, मैं प्रार्थना करना चाहता हूं। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद प्रार्थना नहीं कर पाता। मुझमें अंदर ही अंदर वासना बनी रहती है। चाहे कितनी आंखें बंद कर लूं। लेकिन परमात्मा के दर्शन नहीं होते हैं। यह सुनकर फकीर मुस्कुराया और उसे एक खिड़की के पास ले गया। जिसमें साफ कांच लगा हुआ था। इसके पार पेड़, पक्षी, बादल और सूर्य सभी दिखाई दे रहे थे।

इसके बाद फकीर उस धनिक को दूसरी खिड़की के पास ले गया जहां कांच पर चांदी की चमकीली परत लगी हुई थी। जिससे बाहर का कुछ साफ दिखाई नहीं दे रहा था। बस धनिक का चेहरा ही दिखाई दे रहा था। फकीर ने समझाया कि जिस चमकीली परत के कारण तुमको सिर्फ अपनी शक्ल दिखाई दे रही है। वह तुम्हारे मन के चारों तरफ भी है। इसीलिए तुम ध्यान जिधर भी देखते हो केवल खुद को ही देखते हो। जब तक तुम्हारे ऊपर वासना की परत है तब तक परमात्मा और ब्रह्म तुम्हारे लिए बेमानी है। फकीर ने कहा कि तुम इस वासना रूपी चांदी की परत से हटो। शीशे जैसे पारदर्शी और स्वच्छ मन से उसका ध्यान रखो और देखना ईश्वर तुम्हारे जरूर साथ रहेंगे। 

पतझड़ होता है तो तभी वृक्षों पर हरी कोपलें फूटती हैं और सूर्यास्त होता है तो तभी अंधकार के बाद एक नया सबेरा भी जन्म लेता है। पतझड़ होता है ताकि हरियाली छा सके एवं अंधकार होता है ताकि अरूणोदय की लालिमा का आनंद हम सबको प्राप्त हो सके। जीवन भी कुछ इस तरह का ही है। यहाँ विसर्जन के साथ ही सृजन जुड़ा हुआ है।

हमारे दुखों का एक प्रमुख कारण यह भी है कि हम जीवन को केवल एक दृष्टि से देखते हैं। हम जीवन को सूर्यास्त की दृष्टि से तो देखते हैं पर सूर्योदय की दृष्टि से नहीं देख पाते। परमात्मा से शिकायत मत किया करो क्योंकि वो हमसे बेहतर इस बात को जानते हैं कि हमारे लिए क्या अच्छा हो सकता है।

उस ईश्वर ने आपकी झोली खाली की है तो चिंता मत करना क्योंकि शायद वह पहले से कुछ बेहतर उसमे डालना चाहते हों। सुख और दुख जीवन रुपी रथ के दो पहिये हैं। सुख के बिना दुख का कोई अस्तित्व नहीं तो दुख के बिना सुख का भी कोई महत्व नहीं। इसलिए दुख आने पर धैर्य के साथ प्रभु नाम का आश्रय लेकर इस विश्वास के साथ प्रतीक्षा करो कि प्रकाश भी नहीं टिका तो भला अंधकार कैसे टिक सकता है ? 

कृष्ण प्रेम शरीर से श्रेष्ठ व सूक्ष्म इंद्रियाँ, इंद्रियों से श्रेष्ठ व सूक्ष्म मन, मन से श्रेष्ठ व सूक्ष्म बुद्धि, बुद्धि से श्रेष्ठ व सूक्ष्म आत्मा है। आत्मा के सिवा शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि सभी जड़ हैं। आत्मा नित्य, शाश्वत, अपरिवर्तनशील एवं चेतन है, जो श्रीकृष्ण की शक्ति का विभिन्नांश है। आत्मा सभी जड़ पदार्थों से श्रेष्ठ व बलवान होने पर भी माया के प्रभाव से अपने स्वरूप को भूला हुआ है। इसलिए जन्म जन्मांतर से दुख भोग रहा है। 

भक्त के मन में साधना के साथ यदि मिलन की व्याकुलता भी हो तो भगवान की प्राप्ति अति शीघ्र सम्भव है। 

भक्ति मन को निर्विषयी नहीं किया जा सकता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसे भगवान मे नहीं लगाया जा सकता। बेलगाम घोड़े को जैसे लगाम खींचकर काबू में करते हैं। ऐसे ही मन के साथ करना चाहिए। वृत्ती जहां पर पलटने लगे वहां सावधान रहें। भगवान का नाम स्मरण करना भूल गए तो कुछ अस्वस्थता जैसा लगना चाहिए। आज अवांछित नाम स्मरण बलपूर्वक किया जाना चाहिए, अर्थात मनचाहे विषयों का नाश हो जाता है। 

लग जाओगे तो पा जाओगे.. सन्त वैष्णव सद्गुरु कृपा से शास्त्र अध्ययन से यह ज्ञान हो गया यह जीवन भजन के लिये मिला है। भगवद भजन भगवद प्रेम प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य है। गृहस्थ धर्म काम आदि रास्ते में पड़ने वाले पड़ाव हैं इनको अनासक्त भाव से करते हुए आगे बढ़ते जाना है और भगवदप्रेम को प्राप्त करना है। हमारा मुख्य लक्ष्य भगवद् चरण सेवा है। पता भी है के साधन भक्ति के अंगों का अनुष्ठान करना है। श्रवण कीर्तन आदि नवविधा भक्ति के बारे में ज्ञान है ।

संसार की असारता के बारे में भी मालूम है दीख भी रहा है के कितना दुख है कितनी अशांति है फिर भी इन्हें छोड़ना नहीं चाहते भजन को दृढ़ता से पकड़ते नहीं भगवान ने तो कृपा करके मनुष्य शरीर दिया अब हमें भजन को प्राथमिकता देनी है। अतः भ्रम में मत रहो। भगवान को मानते हो साधन को जानते हो श्रीगुरुदेव को पहचानते हो, जान चुके हो तो लग जाओ जग जाओ आज ही प्रारंभ कर दो अभी भी देर नहीं हुई है लग जाओगे तो पा जाओगे..

पितुः ऋणमोचनकर्तारः सुतादयः सन्ति (संसार) बन्धमोचनकर्ता तु स्वस्मात् अन्यः न कश्चन (अस्ति) ।

पिता का ऋण चुकाने के लिये, उसके पुत्र और अन्य परिवार गण होते हैं, परन्तु उसे भव-बंधन से मुक्ति दिलाने वाला उसके स्वयं के अतिरिक्त और कोई नहीं होता है।

यदि आपको लगता कि आपने अपने जीवन में कोई गलती ही नहीं की तो आपने अपने जीवन में कुछ नया करने का प्रयास भी नहीं किया। निसंदेह गलती उन्हीं से होती है जो अपने जीवन में कुछ नया करने का प्रयास किया करते हैं। जब हमारे द्वारा जीवन में कुछ नया सीखने का प्रयास किया जाता है तो गलतियाँ होने की संभावना भी और अधिक बढ़ जाती हैं।

गलती हो जाने के डर से नया प्रयास ही न करना, नये प्रयास को करने में गलती कर देना कई गुना बेहतर है। जीवन में एक बात और ध्यान रखने जैसी है, वो ये कि गलती करना कोई बुरी बात नहीं, मगर एक गलती को बार-बार दोहराना अवश्य बुरी बात है। जीवन में हमें स्वयं की गलतियों से ये सीख अवश्य लेनी चाहिए कि हम और अधिक गलती करने से कैसे बच सकें। गलतियाँ सिखाने के लिए होती हैं, डराने के लिए नहीं। 

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जब हम मैं और मेरा के संबंध में सोचना समाप्त कर देते हैं और इसके स्थान पर हमारा सोचते हैं, तो हमारी जड़ें प्रेम, विश्वास और अनुग्रह की मिट्टी में दृढ़ होंगी, हमें स्मरण दिलाएंगी कि दुसरों को प्रदान करने में हम कुछ प्राप्त करते हैं। 

 

कृष्ण प्रेम गृहस्त व्यक्ति के पास सब साधन उपलब्ध रहते हैं । इसलिए वे श्री ठाकुर जी की सेवा अच्छी प्रकार से कर सकते हैं । घर आए हर वैष्णव की यथायोग्य सेवा भी कर सकते हैं। और उन्हें करनी भी चाहिए, नहीं तो उन्हें वित्त शाठ्य दोष होता है । श्रीमन् महाप्रभु ने भी गृहस्थ भक्तों के लिए दो क्रियाएं आवश्यक रूप से निर्धारित की हैं-नाम संकीर्तन और वैष्णव सेवा । इसी को हमें यथा शक्ति आत्मसात करने का प्रयास करना चाहिए।

भक्ति भगवान की सेवा में निरंतर मग्न रहना, कथा कीर्तन सुनना कथा कीर्तन के माध्यम से लोगों को भगवान के बारे में बताना और भगवान का प्रेम पाने में आने वाली मुश्किलें दूर करना ही भक्ति है 

कृष्ण प्रेम भगवान का स्वभाव है दयालुता, प्रेम करना जैसे आग का स्वभाव है जलाना और पानी का स्वभाव है भिगोना भगवान तो इतने दयालु हैं कि पूतना जैसी राक्षसी को भी उन्होंने माता का दर्जा दिया अतः राक्षसों को भगवान ने मारा नहीं अपितु तारा है भगवान से ज्यादा दयालु तो कोई हो ही नहीं सकता किंतु आजकल लोग तथाकथित कष्टों के लिए भगवान को जिम्मेदार ठहराते हैं। जबकि इसकी जिम्मेदारी भगवान की नहीं, अपितु हमारे खराब कर्मों की होती है।

सेवा क्या है सेवा कर्म काटने का माध्यम है, सेवा आपके मन को विनम्र बनाती है, तन को चुस्त रखती है, मन में स्थिरता का माहौल पैदा करती है, सेवा ख़ुशी है, सेवा विश्वास है, निस्वार्थ सेवा जीवन में सुख शांति लाने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। सेवा प्यार है, बड़े भाग्यशाली हैं वो लोग जिन्हें सेवा का मौका मिलता है। क्योंकि सेवा भी उसी को मिलती है जिन पर परमात्मा की कृपा होती है। 

सबसे प्रेम छोड़ कर भगवान से प्रेम करो। परमात्मा को छोड़कर औरों से प्रेम करने के कारण ही तो करोडों जन्मों तक भटकते रहे। भगवान से प्रेम हुए बिना भटकना नही मिटेगा। 

अभी जिस स्थिति में हो, इसी स्थिति में भगवान् की प्राप्ति के लिये भजन में लग जाओ। मनुष्य जीवन का सबसे ऊँचा ध्येय एकमात्र यही है। 

हमें जो चीजें बहुत ज्यादा अच्छी लगती है और जिसमें हमारा मन सहजता से रमता है और जिस वजह से हमें दुनिया में महत्वपूर्णता प्राप्त होती है उसे भगवान को दे देना इसका नाम दान है। ऐसा दान देने के बाद, भगवान के नाम का प्रेम पीछे लगेगा। 

श्री राधा सर्वेश्वरी, रसिकेश्वर घनश्याम कर

हूँ निरंतर वास मै, श्री वृंदावन धाम 

भावार्थ हे सर्वेश्वरी श्री राधा एंव रसिकेश्वर श्री कृष्ण, ऐसी कृपा कीजिए कि मैं नित्य ही वृंदावन धाम में वास करता रहूँ कृष्ण प्रेम भगवान चैतन्य प्रभु कहते हैं, आप वेदों को कैसे भी पढ़िए, सीधे या घुमाकर जिस ढंग से आपको ठीक लगे आप वेद पढ़िए, परन्तु परम उद्देश्य कृष्ण ही हैं। 

वस्त्रों का त्याग साधना नहीं है लेकिन किसी वस्त्रहीन को देखकर अपना वस्त्र देकर उसके तन को ढक देना यह अवश्य साधना है। भोजन का त्याग भी साधना नहीं है किसी भूखे की भूख मिटाने के लिए भोजन का त्याग यह साधना है। साधना का अर्थ है स्वयं के स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज के लिए, राष्ट्र के लिए त्याग करना। दूसरों के लिए विष तक पी जाने की भावना के कारण ही तो भगवान शिव महादेव बने जो स्वयं के लिए जीये वो देव, जो सबके लिए जीये वो महादेव।

आज का आदमी धर्म को जीने की बजाय खोजने में लगा है। धर्म ना तो सुनने का विषय है ना बोलने का, सुनते बोलते धर्ममय हो जाना है। धर्म आवरण नहीं आचरण है। धर्म चर्चा नहीं चर्या है। 

वैदिक साहित्य में कृष्ण आकर्षण का केंद्र बिंदु हैं और उनकी सेवा हमारी गतिविधि है । कृष्ण प्रेम के मंच को प्राप्त करना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है । इसलिए कृष्ण , कृष्ण की सेवा और कृष्ण का प्रेम जीवन के तीन महान धन हैं । 

तीर्थकोटी सहस्राणि तीर्थकोटि शतानिच ।

तानि सर्वान्यवाप्नोति विष्णोर्नामानी कीर्तनात् ॥

सैकड़ों हजारों प्रकार के तीर्थस्थलों की यात्रा से प्राप्त होने वाले फल विष्णु के नामों का कीर्तन करने से सहजता से प्राप्त हो जाते है।- वामन पुराण 

मौखर्यं लाघवकरं मौनमुन्नतिकारकम् ।

मुखरं नूपूरं पादे कण्ठे हारो विराजते ॥ 

ज्यादा बोलने का स्वभाव छोटेपन को और मौन रहने का स्वभाव उन्नति प्रदान करता है जैसे बोलनेवाला नूपुर पैरों में और चुप रहनेवाला हार गले में पहना जाता है। इसलिए जो बोलें वह सारगर्भित हो ।। 

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