सनातन संस्कृति में माथे पर तिलक लगाने की पंरपरा का विशेष महत्व है। कई प्रकार के तिलक किए जाते हैं जिनमें कई अलग-अलग सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि तिलक लगाने से तन-मन शुद्ध होता है और बुरे प्रभावों से हमारी रक्षा भी होती है। तिलक को देखते ही भगवान् का स्मरण भी स्वत: हो जाता है।
भारत के अलावा शायद ही और कहीं माथे पर तिलक लगाने की परम्परा होगी, इस प्राचीन रिवाज व शास्त्रानुसार माना जाता है कि मनुष्य के मस्तक के मध्य में भगवान श्री विष्णुजी का निवास होता है, और तिलक भी ठीक इसी स्थान पर इस भाव से लगाया जाता है कि हमारा मस्तिष्क ऊंचा रहे ।
हमारी संस्कृति में किसी भी पूजा, पाठ, यज्ञ, अनुष्ठान आदि का शुभारंभ श्रीगणेश पूजा से आरंभ होता है । उसी प्रकार बिना तिलक धारण किए कोई भी पूजा-प्रार्थना आरंभ नहीं होती । धर्म मान्यतानुसार सूने मस्तक को अशुभ और असुरक्षित माना जाता है । तिलक चंदन, रोली, कुंकुम, सिंदूर तथा भस्म का लगाया जाता है । तंत्रशास्त्र में तिलक की अनेक क्रिया-विधियां विभिन्न कार्यों की सफलता के लिए बताई गई हैं परम्परा में मस्तक पर तिलक लगाना शुभ माना जाता है इसे सात्विकता का प्रतीक माना जाता है विजयश्री प्राप्त करने के उद्देश्य रोली, हल्दी, चन्दन या फिर कुम्कुम का तिलक या कार्य की महत्ता को ध्यान में रखकर, इसी प्रकार शुभकामनाओं के रुप में हमारे तीर्थस्थानों पर, विभिन्न पर्वो-त्यौहारों, विशेष अतिथि आगमन पर आवाजाही के उद्देश्य से भी लगाया जाता है ।
सामुद्रिकशास्त्र के अनुसार भी अनामिका तथा अंगूठा तिलक करने में सदा शुभ माने गए हैं । अनामिका अंगुली से तिलक धारण करने पर शांति मिलती है । मघ्यमा अंगुली मनुष्य की आयु वृद्धि करती है । अंगूठा प्रभाव और ख्याति तथा आरोग्य प्रदान कराता है । इसीलिए राजतिलक अथवा विजय तिलक अंगूठे से ही करने की परंपरा रही है ।
माथे में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है उस भाग को आज्ञाचक्र कहा जाता है । शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं, तो मस्तष्क के अन्दर एक तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है । इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है हमारे ऋषिगण इस बात को भली भाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा-उपासना व शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन से बार-बार उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल-सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें । इस आसान तरीके से सर्वसाधारण की रुचि धार्मिकता की ओर, आत्मिकता की ओर, तृतीय नेत्र जानकर इसके उन्मीलन की दिशा में किया गया प्रयास जिससे आज्ञाचक्र को नियमित उत्तेजना मिलती रहती है ।
माथे पर लगा हुआ तिलक हिंदू संस्कृति में एक पहचान चिन्ह का काम करता है । तिलक केवल धार्मिक मान्यता ही नहीं है बल्कि इसके कई वैज्ञानिक कारण भी हैं । हिंदू धर्म में साधु, संतों के जितने पंथ है, संप्रदाय हैं वे सब अपने अलग-अलग प्रकार के तिलक लगाते हैं ।
धर्म, शास्त्र कहते है कि तिलक के बिना कोई भी सत्कर्म सफल नही हो पाते । तिलक बैठकर लगाना चाहिये । मिट्टी, चन्दन एवं भस्म आदि के तिलक को विद्वान या अन्य किसी के द्वारा लगाना चाहिये, लेकिन भगवान पर चढ़ाने से बचे हुए चन्दन को ही लगाना चाहिये । अगर दोपहर से पहले भस्म का टीका तिलक लगाया जाता है तो उसमें जल मिलाकर ही लगाना चाहिये । दोपहर के बाद बिना जल मिलाये लगाना चाहिए । सुबह या दोपहर में चन्दन, अष्टगंध या कुमकुम का तिलक लगाने से मन मस्तिष्क में शांति बनी रहेगी ।
हिन्दू धर्म में स्त्रियां लाल कुंकुम का तिलक लगाती हैं । लाल रंग ऊर्जा एवं स्फूर्ति का प्रतीक होता है । तिलक स्त्रियों के सौंदर्य में अभिवृद्धि करता है । तिलक लगाना देवी की आराधना से भी जुड़ा है । देवी की पूजा करने के बाद माथे पर तिलक लगाया जाता है । तिलक देवी के आशीर्वाद का प्रतीक माना जाता है ।
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ग्रह दोषों का होता है निवारण
कई पौराणिक ग्रंथों में वैष्णव तिलक की महत्ता बताई गई है। ब्रह्माण्ड पुराण में स्वयं श्रीविष्णु के हवाले से उद्धृत किया गया है कि जो वैष्णव ऊध्र्व-पुण्ड्र लगा कर किसी के घर भोजन करता है, उस घर की बीस पीढिय़ों को मैं घोर नरकों से निकाल लेता हूँ। गरुण पुराण में उल्लेख है कि जिसके माथे पर वैष्णव चन्दन का तिलक अंकित होता है उसे कोई ग्रह-नक्षत्र बाधित नहीं कर सकते। यहां तक कि उसे यक्ष, भूत-पिशाच, सर्प आदि भी कभी हानि नहीं पहुंचा सकते।
तिलक के प्रकार
सनातन धर्म में शैव, शाक्त, वैष्णव और अन्य मतों में अलग-अलग तिलक लगाये जाते हैं ।
1- शैव- शैव परंपरा में ललाट पर चंदन की आड़ी रेखा या त्रिपुंड लगाया जाता है ।
2- शाक्त- शाक्त सिंदूर का तिलक लगाते हैं । सिंदूर उग्रता का प्रतीक है । यह साधक की शक्ति या तेज बढ़ाने में सहायक माना जाता है ।
3- वैष्णव- वैष्णव परंपरा में चौंसठ प्रकार के तिलक बताए गए हैं । इनमें प्रमुख हैं- लालश्री तिलक-इसमें आसपास चंदन की व बीच में कुंकुम या हल्दी की खड़ी रेखा बनी होती है ।
4- विष्णुस्वामी तिलक- यह तिलक माथे पर दो चौड़ी खड़ी रेखाओं से बनता है । यह तिलक संकरा होते हुए भोहों के बीच तक आता है ।
5- रामानंद तिलक- विष्णुस्वामी तिलक के बीच में कुंकुम से खड़ी रेखा देने से रामानंदी तिलक बनता है ।
6- श्यामश्री तिलक- इसे कृष्ण उपासक वैष्णव लगाते हैं । इसमें आसपास गोपीचंदन की तथा बीच में काले रंग की मोटी खड़ी रेखा होती है ।
7- अन्य तिलक- गाणपत्य, तांत्रिक, कापालिक आदि के भिन्न तिलक होते हैं । साधु व संन्यासी भस्म का तिलक लगाते हैं ।
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माथे पर इस प्रकार तिलक या टीका एक धार्मिक प्रक्रिया प्रतीत होते हुए भी उसमें विज्ञान और दर्शन का साथ-साथ समावेश है ।
हिन्दू परंपरा के अनुसार ललाट (माथे) को सुना नहीं रखना चाहिए। किसी प्रकार का तिलक या टीका लगाना चाहिए। हम लोगों के माथे पर तरह-तरह के तिलक देखते हैं। लेकिन आपने कभी सोचा है कि आखिर इन तिलक का महत्व क्या है? आप यह तो भली भांति जानते होंगे कि माथे पर राख या चंदन की तीन आड़ी रेखाओं वाला तिलक लगाने वाला शिव भक्त है। इसी तरह कुछ लोग अपने माथे के ऊपर तिकोन या “V” चिन्ह दर्शाने वाला तिलक लगाते हैं।
इस तिलक को वैष्णव तिलक कहा जाता है। जो भगवान विष्णु के भक्त लगाते हैं। आपको शायद ही इस तिलक के महत्व बारे में पता होगा। आज हम आपको वैष्णव तिलक लगाने की विधि और इसके महत्व के बारे में बताने जा रहे हैं। जो आज से पहले आपने शायद ही सुना होगा।
गोपी-चंदन से ही लगता है वैष्णव तिलक लोग कई प्रकार के तिलक लगाते है। कोई राख, कोई चंदन, कोई कुम-कुम तथा कोई सिंदूर का तिलक अपने माथे पर लगाता है। लेकिन वैष्णव तिलक गोपी-चन्दन नामक मिट्टी से लगाया जाता है। यह मिट्टी द्वारका से कुछ दूर एक स्थान पर पायी जाती है। जिस स्थान पर यह मिट्टी पाई जाती है उसके बारे में बताया जाता है कि भगवान कृष्ण जब धरती से अपनी लीलाएं समाप्त करके वापस गोलोक गए तो उनकी गोपियों ने इसी स्थान पर एक नदी में शामिल होकर में अपने शरीर त्यागे थे। तब से यहां की मिट्टी से यह वैष्णव तिलक लगाया जाता है।
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वैष्णव तिलक गोपी
चन्दन से लगाया जाता है। गोपी-चन्दन को गीला करने भगवान विष्णु के नाम का उच्चारण करते हुए अपने माथे पर “V” चिन्ह की तरह लगाए। वैष्णव तिलक को अपनी भुजाओं, वक्ष स्थल और पीठ पर भी लगाया जा सकता है। इस तिलक को देखते ही भगवान श्री कृष्ण का स्मरण होता है। यह तिलक मनुष्य के शरीर को एक मंदिर की तरह अंकित करता है। यह मानव शरीर को शुद्ध कर बुरे प्रभाव से रक्षा भी करता है।
वैष्णव तिलक का महत्व
वैष्णव तिलक का महत्व अनेक शास्त्रों एवं ग्रंथो में मिलता है। गर्ग संहिता के अनुसार जो मनुष्य प्रतिदिन गोपी-चंदन का वैष्णव तिलक धारण करता है। उसे एक हजार अश्वमेघ यज्ञों तथा राजसूय यज्ञों का फल प्राप्त होता है। इस तिलक को धारण करने वाले को समस्त तीर्थ स्थानों में दान देने तथा व्रत पालन करने का फल मिलता है। साथ ही वह जीवन में परम लक्ष्य को प्राप्त करता है। बताया यह भी जाता है कि प्रतिदिन गोपी-चंदन से वैष्णव तिलक धारण करने वाला पापी मनुष्य भी भगवान कृष्ण के धाम, गोलोक वृन्दावन को प्राप्त होता है। जो इस भौतिक संसार से बहुत परे है।
श्रीवैष्णव तिलक
तिलक हमारे शरीर को एक मंदिर की भाँति अंकित करता है, शुद्ध करता है और बुरे प्रभावों से हमारी रक्षा भी करता है। इस तिलक को हम स्वयं देखें या कोई और देखे तो उसे स्वतः ही श्रीलक्ष्मीनारायण भगवान् का स्मरण हो आता है। वैष्णव तिलक के माहात्म्य का वर्णन विस्तार रूप में गर्ग-संहिता के छठवें स्कंध, पन्द्रहवें अध्याय में किया गया है। उसके अतिरिक्त कई अन्य शास्त्रों में भी इसके माहात्म्य का उल्लेख मिलता है।
श्रीवैष्णव शरीर के बारह स्थानों पर वैष्णव विधि से तिलक लगाते हैं। तिलक सफ़ेद मिट्टी और हल्दी-चावल(चूर्ण मिश्रित) का लगाया जाता है। ध्यान रहे चावल और चावल का आधा हल्दी (दोनों का अनुपात 1/2 होना चाहिए) लेकर चूर्ण बना कर सफ़ेद तिलक के मध्य में माँ लक्ष्मी के रूप में धारण किया जाता है।सफ़ेद तिलक भगवान् विष्णु के चरण-चिह्न के रूप में धारण किया जाता है।
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वैष्णव तिलक के महत्व का वर्णन हमारे ग्रंथों में कुछ इस प्रकार हैं –
अगर कोई वैष्णव जो ऊर्ध्व -पुण्ड्र लगा कर किसी के घर भोजन करता है, तो उस घर के २० पीढ़ियों को मैं (परम पुरुषोत्तम भगवान) घोर नरकों से निकाल लेता हूँ।
(हरी-भक्तिविलास ४.२०३, ब्रह्माण्ड पुराण से उद्धृत)
हे पक्षिराज! (गरुड़) जिसके माथे पर वैष्णव चन्दन का तिलक अंकित होता है, उसे कोई ग्रह-नक्षत्र, यक्ष, भूत-पिशाच, सर्प आदि हानि नहीं पहुंचा सकते।
(हरी-भक्ति विलास ४.२३८, गरुड़ पुराण से उद्धृत)
जिन भक्तों के गले में तुलसी या कमल की कंठी-माला हो, कन्धों पर शंख-चक्र अंकित हों, और तिलक शरीर के बारह स्थानों पर चिह्नित हो, वे समस्त ब्रह्माण्ड को पवित्र करते हैं ।
पद्म पुराण
तिलक भगवान विष्णु के प्रति हमारे समर्पण का एक बाह्य प्रतीक है। इसका आकार और उपयोग की हुयी सामग्री,हर सम्प्रदाय या आत्म-समर्पण की प्रक्रिया पर निर्भर करती है।
श्रीवैष्णव-तिलक का नियम
पद्म पुराण के उत्तर खंड में भगवान शिव, पार्वती जी से कहते हैं कि वैष्णवों के ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक के बीच में जो स्थान है उसमे लक्ष्मी एवं नारायण का वास है। इसलिए जो भी शरीर इन तिलकों से सजा होगा उसे श्री विष्णु के मंदिर के समान समझना चाहिए ।
पद्म पुराण में एक और स्थान पर तलाक के विषय में निर्देश-संकेत इस प्रकार है–
वाम्-पार्श्वे स्थितो ब्रह्मा
दक्षिणे च सदाशिवः।
मध्ये विष्णुम् विजानीयात्
तस्मान् मध्ये न लेपयेत्।।
तिलक के बायीं ओर ब्रह्मा जी विराजमान हैं, दाहिनी ओर सदाशिव परन्तु सबको यह ज्ञात होना चाहिए कि मध्य में श्री विष्णु का स्थान है। इसलिए मध्य भाग में कुछ लेपना नहीं चाहिए।
बायीं हथेली पर थोड़ा सा जल लेकर उस पर चन्दन को रगड़ें।सर्वप्रथम सफ़ेद मिट्टी का तिलक ,फिर हल्दी चावल के मिश्रण से बना पीला तिलक सफ़ेद मिट्टी के मध्य में लगाएँ। तिलक लगाते समय पद्म पुराण में वर्णित निम्नलिखित मन्त्र का क्रम से उच्चारण करते हुए तिलक धारण करना चाहिए –
ललाटे केशवं ध्यायेत्
नारायणम् अथोदरे
वक्ष-स्थले माधवम् तु
गोविन्दम कंठ-कुपके
विष्णुम् च दक्षिणे कुक्षौ
बाहौ च मधुसूदनम्
त्रिविक्रमम् कन्धरे तु
वामनम् वाम्-पार्श्वके
श्रीधरम् वाम्-बाहौ तु
ऋषिकेशम् च कंधरे
पृष्ठे-तु पद्मनाभम् च
कत्यम् दमोदरम् न्यसेत्
तत प्रक्षालन-तोयं तु
वसुदेवेति मूर्धनि।
माथे पर – ॐ केशवाय नमः
नाभि के ऊपर – ॐ नारायणाय नमः
वक्ष-स्थल – ॐ माधवाय नमः
कंठ – ॐ गोविन्दाय नमः
उदर के दाहिनी ओर – ॐ विष्णवे नमः
दाहिनी भुजा – ॐ मधुसूदनाय नमः
दाहिना कन्धा – ॐ त्रिविक्रमाय नमः
उदर के बायीं ओर – ॐ वामनाय नमः
बायीं भुजा – ॐ श्रीधराय नमः
बायां कन्धा – ॐ ऋषिकेशाय नमः
पीठ का ऊपरी भाग – ॐ पद्मनाभाय नमः
पीठ का निचला भाग – ॐ दामोदराय नमः।
अंत में जो भी चन्दन बचे उसे ‘ॐ वासुदेवाय नमः’ का उच्चारण करते हुए शिखा में पोंछ लेना चाहिए।
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