Hindi Suvichar: A Great Collection of 2022 Best Suvichar Quotes, Indian Quotes, Anmol Vachan Suvichar, Inspirational & Motivational Quotes on Life in Hindi. Also, Find Here the Best Suvichar Thoughts Images for WhatsApp. पढ़िए यहाँ पर जीवन बदल देने वाले सर्वश्रेष्ठ प्रेरणादायक सुविचार हिंदी में। 

जीवन मे सफल होना है तो इन पांच बातों को दिमाग से निकाल दें

1. लोग क्या कहेंगे ?

2. मुझसे नही होगा

3. मेरा मूड नही है।

4. मेरी किस्मत खराब है।

5. मेरे पास टाइम नही है। 

एक छोटी सी चींटी आपके पैर को काट सकती है, पर आप उसके पैर को नहीं काट सकते इसलिए जीवन में किसी को छोटा न समझे वह जो कर सकता है! शायद आप न कर पाये..

ताकत और पैसा जिंदगी के फल है जबकि परिवार और मित्र जिंदगी की जड़ है 

विचार गतिशील व भिन्न होते है इसका जीवंत उदाहरण है सब्जी की टोकरी में से हर व्यक्ति सब्जी छांटता और मजे की बात है कि बिक भी पूरी जाती है 

भीड़ में उन्हीं चेहरों को पहचाना जाता है जिन्होंने अपनी अपनी पहचान बना ली हो जो लोग नज़रों से गिर जाते हैं उनकी तरफ देखना भी पसंद नहीं करते हैं लोग 

सत्य वचन

जिन चार लोगों में बैठकर आप दूसरों की बुराई करते हैं, यकीन मानिए आपके जाते ही वहां पर आपकी बुराई शुरू हो जाएगी 

क्षमा, दया और करुणा मनुष्य के अनमोल गुण है

नाम की वाणी 

जब भी कोई भक्त भगवान के नाम को गाता है या याद करता है, तो उसी क्षण भगवान उस भक्त के ऋणी हो जाते है। 

ईश्वर पर आप तभी विश्वास कर सकते हैं,

जब आपको खुद पर विश्वास हो,

क्योंकि ईश्वर बाहर नहीं हमारे अंदर ही हैं।

जिसके जीवन मे हरिनाम नही है हरि नही है वे अंनत धन वैभव होने पर भी एक भिकारी के समान ही। असल मे वह जीता नही केवल समय काट रहा है। जहाँ समय खत्म हुआ सीधा काल का ग्रास बन जाएगा । इसलिए सावधान.. 

स्वयं पर विजय प्राप्त करना दूसरों पर विजय प्राप्त करने से बड़ा काम है 

विपत्ति में धैर्य, वैभव में दया और संकट में सहनशीलता ही श्रेष्ठ व्यक्तियों के लक्षण हैं.. 

कृष्ण प्रेम 

जिस प्रकार जागतिक विद्या प्राप्त करने के लिए हम जागतिक गुरु के पास जाते हैं, प्रमाणिक स्कूल में दाखिला लेते हैं, उनके निर्देशों के अनुसार चलते हैं, तभी हमें सफलता प्राप्त होती है। ठीक इसी प्रकार पारमार्थिक विद्या प्राप्त करने के लिए हम हमारे मनोधर्म से नहीं चल सकते। बल्कि हमें भगवान की इच्छा के अनुसार ही चलना पड़ेगा तभी हमें लक्ष्य की प्राप्ति होगी। और भगवान की इच्छा सभी शास्त्रों में वर्णित है। 

आज तुम्हें एहसास हुआ 

एक व्यक्ति बहुत परेशान था। उसके दोस्त ने उसे सलाह दी कि कृष्ण भगवान की पूजा शुरू कर दो। उसने एक कृष्ण भगवान की मूर्ति घर लाकर उसकी पूजा करना शुरू कर दी। कई साल बीत गए लेकिन कोई लाभ ने नहीं हुआ। एक दूसरे मित्र ने कहा कि तू काली माँ की पूजा कर, जरूर तुम्हारे दुख दूर होंगे। अगले ही दिन वो एक काली माँ की मूर्ति घर ले आया। कृष्ण भगवान की मूर्ति मंदिर के ऊपर बने एक टांड पर रख दी और काली माँ की मूर्ति मंदिर में रखकर पूजा शुरू कर दी।

कई दिन बाद उसके दिमाग में ख्याल आया कि जो अगरबत्ती, धूपबत्ती काली जी को जलाता हूँ उसे तो श्रीकृष्ण जी भी सूँघते होंगे। ऐसा करता हूँ कि श्रीकृष्ण का मुँह बाँध देता हूँ। जैसे ही वो ऊपर चढ़कर श्रीकृष्ण का मुँह बाँधने लगा कृष्ण भगवान ने उसका हाथ पकड़ लिया। वो हैरान रह गया और भगवान से पूछा इतने वर्षों से पूजाकर रहा था तब नहीं आए आज कैसे प्रकट हो गए ? भगवान श्रीकृष्ण ने समझाते हुए कहा, “आज तक तू एक मूर्ति समझकर मेरी पूजा करता था । किन्तु आज तुम्हें एहसास हुआ कि “कृष्ण साँस ले रहा है” बस मैं आ गया। 

भगवान की शक्ति को हरे और स्वयं भगवान को कृष्ण के रूप में सम्बोधित करने से भगवान भक्त के हृदय में स्थित हो जाते हैं। इस तरह राधा और कृष्ण को सम्बोधित करने से मनुष्य भगवान की प्रत्यक्ष सेवा में संलग्न हो जाता है। 

मुश्किलों में हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, बल्कि मुस्किलों का डटकर सामना करना चाहिए। 

कृष्ण प्रेम

भक्ति पथ में बढ़ने पर साधक को छह अंगों का पालन करना आवश्यक है। श्री कृष्ण भजन करने में उत्साह होना, सेवा में दृढता होना, धैर्य धारण करना, श्री कृष्ण सेवा संबंधी सभी कार्यों में संलग्न रहना, श्री कृष्ण विमुख लोगों का दूर से ही त्याग करना, तथा साधु पुरुषों के समान सतोगुण प्रधान वृत्ति धारण करना। इन छह अंगों का पालन करने से भक्ति में शीघ्र उन्नति होती है।

अगर कृष्ण आपको पसंद करते हैं, तो वे आपको सब कुछ देंगे, और अगर वो आपसे प्यार करते है तो वह आपसे सब कुछ छीन लेंगे ।

कृष्ण प्रेम

श्री कृष्ण के अर्थार्थी भक्त श्री ध्रुव जी, आर्त भक्त श्री द्रोपदी जी, जिज्ञासु भक्त श्री अक्रूर जी एवं ज्ञानी भक्त श्री प्रहलाद जी महाराज हैं। इन सभी से श्रेष्ठ और श्रीकृष्ण को अत्यंत प्रिय उनका प्रेमी भक्त होता है। श्रीकृष्ण के सुख में सुखी और एवं दुख में दुखी होने वाला भक्त प्रेमी भक्त है। प्रेमी भक्तों में सर्वश्रेष्ठ श्री ब्रज गोपीका वृंद है और उनमें भी सर्वश्रेष्ठा श्रीमती राधारानी हैं।

यह जरुरी नहीं कि जीवन में हमेशा प्रिय क्षण ही आएं दूसरे लोगों का अनुकूल व्यवहार ही हमें प्राप्त हो। अपमान, शोक, वियोग, हानि, असफलता आदि तमाम स्थितियां आती रहती हैं और जाती भी रहती हैं। दुनिया का कोई भी शरीर धारी जीव इन विविधताओं से बच नहीं पाता।

जरा सी बात पर परेशान हो जाना, निराश हो जाना, रोना, उत्तेजित हो जाना, क्रोधांध स्थिति में आकर ना कहने योग्य बात को कह जाना और ना करने योग्य कार्य को कर जाना, यह सब मनुष्य की आंतरिक कमजोरी, दुर्बलता, जड़ता के लक्षण हैं। हमें अपने मानसिक बल को बढ़ाने की आवश्यकता है।

कठिन से कठिन विकट स्थिति में विवेक पूर्वक और धैर्यपूर्वक निर्णय लेना है। उत्तेजना और क्रोध में कहा गया शब्द और किया गया कर्म स्थिति को और बिगाड़ देता है। इसलिए मौन और मुस्कुराहट को अपना आभूषण बनायें। संसार का चक्र ऐसे ही चलता रहेगा, मुस्कुराकर हर क्षण को स्वीकार करो। 

अनियन्त्रित इन्द्रियाँ 

जिस प्रकार जल में अपने गन्तव्य स्थान की ओर जाती हई नौका को प्रबल वायु दो प्रकार से विचलित करती है या तो उसे पथभ्रष्ट करके जल की भीषण तरंगो में भटकाती है या अगाध जल में डुबो देती है। उसी प्रकार जिसके मन इन्द्रिय वश में नहीं हैं, ऐसा मनुष्य यदि अपनी बुद्धि को परमात्मा के स्वरूप में निश्चल करना चाहता है तो भी उसकी इन्द्रियाँ उसके मन को आकर्षित करके उसकी बुद्धि को दो प्रकार से विचलित करती है । इन्द्रियों का बुद्धिरूप नौका को परमात्मा से हटाकर नाना प्रकार के भोगों की प्राप्ति का उपाय सोचने में लगा कर, उसे भीषण तरंगों में भटकाता है, और पापों में प्रवृत्त करके उसका अध:पतन करा कर, उसे डुबो देता है। 

आपका समय और जीवन दूसरों से अपेक्षा करने में बर्बाद न करें । बस कृष्ण पर भरोसा रखो, और जीवन को कृष्ण के मार्ग पर चलने दो 

जो नित्य निरन्तर बदल रही हैं उन संसारी वस्तुओं के प्रेम में हम डूबे रहते हैं, और जो सदा सर्वत्र एक समान विद्यमान हैं उन प्रभु से हम विमुख रहते हैं। 

पवित्र नाम वह रस्सी है जो हमें कृष्ण से इस दुनिया से आध्यात्मिक दुनिया से जोड़ती है। 

मित्रता

कृष्ण और सुदामा का प्रेम बहुत गहरा था। प्रेम भी इतना कि कृष्ण, सुदामा को रात दिन अपने साथ ही रखते थे। कोई भी काम होता, दोनों साथ-साथ ही करते। एक दिन दोनों वनसंचार के लिए गए और रास्ता भटक गए। भूखे-प्यासे एक पेड़ के नीचे पहुँचे। पेड़ पर एक ही फल लगा था। कृष्ण ने घोड़े पर चढ़कर फल को अपने हाथ से तोड़ा। कृष्ण ने फल के छह टुकड़े किए और अपनी के आदत के मुताबिक पहला टुकड़ा सुदामा को दिया। सुदामा ने टुकड़ा खाया और बोला, ‘बहुत स्वादिष्ट ऐसा फल कभी नहीं खाया। एक टुकड़ा और दे दें। दूसरा टुकड़ा भी सुदामा को मिल गया।

सुदामा ने एक टुकड़ा और कृष्ण से मांग लिया। इसी तरह सुदामा ने पांच टुकड़े मांग कर खा लिए जब सुदामा ने आखिरी टुकड़ा मांगा, तो कृष्ण ने कहा, यह सीमा से बाहर है। आखिर मैं ने भी तो भूखा हूँ। मेरा तुम पर प्रेम है, पर तुम मुझसे प्रेम नहीं करते। और कृष्ण ने फल का टुकड़ा मुँह में रख लिया। मुँह में रखते ही कृष्ण ने उसे थूक दिया, क्योंकि वह कड़वा था। कृष्ण बोले:- तुम पागल तो नहीं, इतना कड़वा फल कैसे खा गए ? उस सुदामा का उत्तर था, जिन हाथों से बहुत मीठे फल खाने को मिले, एक कड़वे फल की शिकायत कैसे करूँ ? सब टुकड़े इसलिए लेता गया ताकि आपको पता न चले। 

मेरे हालात तो एक दिन सुधर जाएंगे लेकिन बहुत से लोग मेरे दिल से उतर जाएंगे। 

रात भर गहरी नींद आना, इतना आसान नहीं। उसके लिए दिन भर ईमानदारी से जीना पड़ता है। 

इस संसार में सबसे बड़ी सम्पत्ति “बुद्धि” सबसे अच्छा हथियार “धैर्य” सबसे अच्छी सुरक्षा “विश्वास” सबसे बढ़िया दवा ” हँसी और आश्चर्य की बात “ये सब निशुल्क हैं 

भोगों की कामना

भोगों की कामना करने वाले के हृदय में कभी भक्ति का वास नहीं होता। जब तक उसकी कामना पूर्ण नहीं होती, तब तक तो उसके हृदय में बैसे ही आग लगी रहती है और जब कामना की पूर्ति होती है तो कामना की आग और बढ़ जाती है। भोगों और उनकी कामना का रिश्ता अग्नि और घी की तरह होता है जैसे-जैसे घी पड़ता जाता है वैसे-वैसे अग्नि और भड़कती जाती है, और अन्ततः यह भोगासक्ति मनुष्य का सर्वस्व स्वाह कर देती है। 

विचार करें, आप स्वयं मन हैं या आप मन के हैं या मन आपका है ? मन आपका है तो क्या आपके लगे बिना मन लग जायगा ? हम लगे नहीं, हमारा हाथ लग जाय यह कैसे होगा ? मन लगेगा तो भूल हो जायगी, खुद लगोगे तो भूल नहीं होगी। ‘मैं विवाहित हूँ इसकी भूल होती है क्या ? इसकी भूल नहीं होती, क्योंकि यह स्वयं की स्वीकृति है। आप खुद लग जाओ, फिर मन, बुद्धि, धन, जमीन, कुटुम्ब आदि आपकी सब चीजें श्रीकृष्ण में लग जायँगी। मन मेरा है तो मेरे में लगेगा, श्रीकृष्ण में कैसे लगेगा ?

मन श्रीकृष्ण का है तो भगवान् श्रीकृष्ण में लगेगा। मन लगाने से समाधि लग जायगी, पर मुक्ति, कल्याण नहीं होगा। कल्याण भी हो जाय तो प्रेम नहीं होगा। प्रेम तो स्वयं लगने से ही होगा। मनुष्य में तीन शक्तियाँ हैं करने की शक्ति, जानने की शक्ति और मानने की शक्ति । सेवा करने से करने की शक्ति सार्थक हो जाती है। स्वयं को जानने से जानने की शक्ति सार्थक हो जाती है। श्रीकृष्ण को मानने से मानने की शक्ति सार्थक हो जाती है। मानने से भी बढ़कर है श्रीकृष्ण को प्राप्त करना। 

कृष्ण प्रेम 

प्रहलाद जी अपने सहपाठियों से कहते थे हे मित्रों! इस जीवन का कोई भरोसा नहीं कब अंत हो जाए । वैसे भी बचपन की आयु खेल-कूद में, पौगण्ड एवं किशोर अवस्था पढ़ाई-लिखाई में, जवानी स्त्री के मोह पाश एवं सन्तान के पालन पोषण में निकल जाती है। फिर वृद्धावस्था में शरीर इन्द्रियों सहित कमजोर हो जाता है, आत्म कल्याण का समय ही नहीं मिलता। इसलिए बचपन से आत्म धर्म-भागवत धर्म को अपना कर आत्म कल्याण कर लेना ही बुद्धिमान का कर्तव्य है। 

कृष्ण प्रेम 

जो काम, क्रोध एवं लोभ को त्याग नहीं सके, वे भगवत प्राप्ति के साधक प्रतीत होते हुए भी अपनी साधना में भ्रमित रहते हैं। वे वैष्णव अपराध फिर सन्त गुरु अपराध एवं श्री हरि अपराध कर अपना इह लोक एवं परलोक दोनों के सुख आनन्द से वञ्चित जाते हैं। सदैव अशान्त चित्त रहते हैं। अतः साधक को प्रयत्न पूर्वक काम, क्रोध एवं लोभ की दिशा बदलना श्रेयस्कर है। 

सर्वोच्च भक्ती

मान-अपमान, लाभ-हानि, विजय-पराजय, सुख-दुःख आदि का परित्याग कर फल की आसक्ति, अहंकार रहित, शरीर और संसार में स्वयं के प्रति स्नेह का त्याग कर, हमारा एकमेव परम, प्रियतम श्रीभगवान ही हमारे परम आश्रय, परम गती, परम सुहृद् मानकर अनन्य भाव से अत्यंत श्रद्धेसहित प्रेमपूर्वक निरंतर तेल की एक धारा की तरह उस भगवान के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का ध्यान करते हुए, परमानंदा मे मग्न रहना और इस तरह प्रिय भगवान के लिए, उनकी रुचियों और इच्छाओं के अनुसार, उनकी प्राप्ति के लिए,

केवल उन्हें ही सुख देने के लिए, दृढ आणि परम स्वार्थ से प्रेरित होकर सभी प्रकार से निःस्वार्थ भावना से, शरीर के, और वाणी से और मन के समस्त कर्मे आचरण में लाना यानी भक्ति है । अगर किसी कारण से क्षण भर के लिए भी उनका चिंतन और स्मरण छूट जाता है तो पानी से बाहर निकाली हुई मछली से अनंत तह से अधिक व्याकुलता का अनुभव करना, यही सर्वोच्चभक्ती है। 

एक सच्ची बात 

बुरे समय में दिलासा देने वाला अजनबी ही क्यों न हो

वो दिल में उतर जाता है और बुरे समय में किनारा करने वाला अपना ही क्यों न हो वो दिल से उतर जाता है। 

सत्य का दरवाजा

इतना छोटा और तंग होता है कि उसमें दाखिल होने से पहले सिर को झुकाना पड़ता है 

कृष्ण प्रेम 

हम सभी माया में फंसे हुए हैं। यह शरीर मैं हूं और इस संसार की वस्तुएं मेरी हैं, यह अहंता और ममता ही माया का स्वरूप है पर इस माया से छूटना बड़ा ही दुष्कर है “छूटे नहीं माया अरु जीती नहीं जाए साधु गुरु कृपा बिना नाही कोई उपाय” केवल हरि गुरु वैष्णव कृपा के द्वारा ही इससे मुक्त हुआ जा सकता है। 

गलतियां

जीवन का हिस्सा हैं पर इन्हें स्वीकार करने का साहस बहुत कम लोगों में होता है 

कृष्ण प्रेम 

श्री कृष्ण के शुद्ध भक्तों के लक्षण शास्त्रों में अनेक प्रकार के कहे गए हैं, सहनशीलता, निराभिमानता, निर्दम्भता, अभयताष, अमात्सर्यता, निरपेक्षता, समानता, पर-दुख कातरता, सरलता, श्रीकृष्ण सेवा परायणता आदि दिव्य गुण संपन्न थे ऐसे परम दिव्य गुण ज्ञानी, योगी, कर्मी, तपी, व्रती, दानी आदि में होना कठिन है स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इसलिए अपने भक्तों की महिमा गाई है। श्रीकृष्ण के लिए अपने भक्तों से श्रेष्ठ कोई भी नहीं है। 

 

मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु यदि कोई है तो वह है उसका अज्ञान 

मत सोच इतना जिंदगी के बारे में जिसने जिंदगी दी है

उसने भी तो कुछ सोचा होगा 

खुद पर काबू पा लेना ही मनुष्य की सबसे महत्वपूर्ण जीत होती है। 

साधना की उन्नति 

आपका मन जहाँ है, वहीं आप हैं इस बात को गाँठ बाँधकर याद कर लें। यहाँ बैठे हुए आप यदि कलकत्ते की दूकान का चिन्तन करते हैं तो आप असल में कलकत्ते में ही हैं। इसी प्रकार यदि शरीर यहाँ है, पर मन शरीर को छोड़कर दिव्य वृन्दावन-धाम की लीला में है तो आप वृन्दावनधाम में ही हैं। प्रारब्ध में पूरा होने पर शरीर गिर जायगा और आप सदा के लिये उसी लीला में सम्मिलित हो जायेंगे। सब कुछ आपकी इच्छा पर निर्भर है। इस अटूट सिद्धान्त को मानकर साधना में लगे रहने से ही उन्नति हो सकती है। 

मेरी मोहब्बत की उम्र हो इतनी मोहन

हरि नाम से शुरू हरि नाम पर खत्म… 

दर्द दिये इस दुनिया ने

मोहन ने प्रेम बरसाया… 

लिख दूँ तो लफज़ तुम हो ,

सोच लूँ तो ख्याल तुम हो ,

माँग लूँ तो मन्नत तुम हो ,

और चाह लूँ तो मोहब्बत भी तुम ही हो। 

संसार में सबसे श्रेष्ठ संबंध भगवान के साथ ही है जिस में कभी दुःख नहीं मिलता।  

कृष्ण प्रेम 

श्री कृष्ण की नौ प्रकार की भक्ति में सर्वश्रेष्ठ भक्ति श्री कृष्ण के नामों का संकीर्तन करना है। क्योंकि संकीर्तन करने से श्रवण, कीर्तन, स्मरण आदि अंगों का पालन स्वयं ही होता रहता है। श्री कृष्ण विग्रह एवं उनका नाम अभिन्न है। श्री कृष्ण ने अपने नामों में सर्व शक्ति एवं सर्व सिद्धि भर दी है। दोनों ही चिन्मय तत्व हैं। 

सत्य का साथ

अगर परिस्थिति ऐसी बन जाये जब शांति और सत्य में से किसी एक को चुनना पड़े तो निःसंकोच सत्य को चुन लेना ही श्रेष्ठ है। शांति बनाये रखने के लिए सत्य को छोड़ देना उचित नहीं है। भगवान राम और कृष्ण चाहते तो अपनी शांति के लिए कभी भी असत्य का विरोध ना करते। उन्होंने अशांत जीवन स्वीकारा ताकि सत्य का वरण और रक्षण किया जा सके। यद्यपि जीवन का लक्ष्य शान्ति प्राप्ति ही है, मगर वो शांति, जिसकी प्राप्ति सत्य के द्वारा होती है। अतः सत्य के लिए शांति छोड़ी जा सकती है मगर शांति के लिए सत्य कदापि नहीं । 

क्या करना है सिर्फ और सिर्फ यही हमारे हाथ में है लेकिन क्या होगा यह हमारे नहीं सिर्फ उस परमात्मा के हाथ में है। 

कृष्ण प्रेम 

भगवान का स्वभाव है दयालुता, प्रेम करना जैसे आग का स्वभाव है जलाना और पानी का स्वभाव है भिगोना। भगवान तो इतने दयालु हैं कि पूतना जैसी राक्षसी को भी उन्होंने माता का दर्जा दिया अतः राक्षसों को भगवान ने मारा नहीं अपितु तारा है। भगवान से ज्यादा दयालु तो कोई हो ही नहीं सकता। किंतु आजकल लोग तथाकथित कष्टों के लिए भगवान को जिम्मेदार ठहराते हैं। जबकि इसकी जिम्मेदारी भगवान की नहीं, अपितु हमारे खराब कर्मों की होती है। 

संपत्ति के उत्तराधिकारी अनेक लोग हो सकते है, लेकिन कर्मों के उत्तराधिकारी केवल हम स्वयं ही होते है.. 

जितना आसान किसी की तरफ उंगली उठाना है उससे कई गुना मुश्किल है किसी को सहारा देने के लिए उसकी उंगली पकड़ना । 

कृष्ण प्रेम

श्रीकृष्ण अपने प्रति किए गए अपराध को उनकी शरण में जाने पर क्षमा कर सकते हैं, परंतु अपने भक्तों के प्रति किए अपराध को सहन करते हैं और न ही उनकी शरण में जाने से क्षमा करते हैं । इसलिए श्री कृष्ण भक्ति में संलग्न साधक को वैष्णव अपराध से बचना बहुत जरूरी है। इसमें श्रीमद् भागवत में वर्णित राजा अंबरीष व दुर्वासा जी का प्रसंग, प्रमाण स्वरूप सभी जानते हैं। 

भगवान श्रीकृष्ण बड़े कृपालु हैं। जीव किसी भी भाव से उनकी शरण ले ले वे उसका कल्याण कर देते हैं। गंगा जी में मिलते ही गन्दा नाला भी गंगा जैसा पवित्र हो जाता है। जीव तभी तक अपवित्र है जब तक वह ठाकुर जी से सम्बन्ध नहीं रखता है।

भगवद विमुख जब तक हम हैं तब तक वासना, लोभ, क्रोध, पाप कर्म के विचार हमारा पीछा नहीं छोड़ते हैं। गीता में भगवान् कहते हैं कि मेरी कृपा के बिना, मेरा आश्रय लिए बिना, भजन किये बिना मेरी बनाई हुई माया से कोई मुक्त नहीं हो सकता है।

श्रीकृष्ण में कैसे भी हमारा चित्त लग जाए। एक बार उनसे सम्बन्ध बन जाये तो फिर कल्याण होने में देर नहीं लगती। ठाकुर जी को कुछ ना कुछ जरूर बनाओ। दास नहीं बन सकते हो तो मित्र, पुत्र, पति, प्रेमी, स्वामी बनाओ नहीं तो कंस, दुर्योधन की तरह शत्रु भी बना लोगे तो भी कल्याण निश्चित है। 

जल्दी सोना और जल्दी उठना इंसान को स्वस्थ, समृद्ध और बुद्धिमान बनाता है। 

हर चीज चली जाएगी वक्त के साथ, एक हौसला ही है जो कभी हमारा साथ नहीं छोड़ता। 

कोई तन दुखी कोई मन दुखी कोई धन बिन रहे उदास थोड़े थोड़े सब दुखी पर सुखी राम को दास 

भगवान की सेवा के अतिरिक्त हम जो कुछ भी माँगते है. वह माया के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता। 

बीज की यात्रा वृक्ष तक है, नदी की यात्रा सागर तक है, और मनुष्य की यात्रा परमात्मा तक.. संसार में जो कुछ भी हो रहा है. हम वह सब ईश्वरीय विधान है.. आप केवल निमित्त मात्र हैं इसलिए कभी ये भ्रम न पालें कि मैं न होता तो क्या होता.. 

 

जीवन जीने के लिए होता है, लेकिन ज्यादातर लोग इसे सोचने में गुजार देते हैं 

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