शनिवार व्रत 

शनिवार का व्रत यूं तो आप वर्ष के किसी भी शनिवार के दिन शुरू कर सकते हैं परंतु श्रावण मास में शनिवार का व्रत प्रारम्भ करना अति मंगलकारी है।

इस व्रत का पालन करने वाले को शनिवार के दिन प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करके शनिदेव की प्रतिमा की विधि सहित पूजन करनी चाहिए। शनि भक्तों को इस दिन शनि मंदिर में जाकर शनि देव को नीले लाजवन्ती का फूल, तिल, तेल, गुड़ अर्पण करना चाहिए। शनि देव के नाम से दीपोत्सर्ग करना चाहिए।

शनि के व्रत में श्रद्धा–भक्ति तथा पूर्ण समर्पण भाव सहित स्वयं के कष्ट निवारण का आग्रह मन ही मन करना चाहिए। व्रत करने वाले स्त्री-पुरुष को चाहिए कि शनिवार को प्रात:काल स्नान कर सर्वप्रथम देव, ऋषि तथा पितृ तर्पण करें। पीपल अथवा शमी वृक्ष के नीचे भक्तिपूर्वक वेदी बनाकर उसे गौ के गोबर से लीप देना चाहिए।

इसके पश्चात् लौह निर्मित शनि की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान करा कर, काले चावलों से निर्मित, चौबीस दल के कमल पर स्थापित करें। (यदि घर पर नहीं कर सकते तो शनि मंदिर मे जाकर पुजा करें।) काले रंग के गंध, पुष्प, धूप, दीप, अष्टांग धूप तथा नैवैद्य आदि से भक्तिपूर्वक शनि देवता का पूजन करें। पूजन के बाद इन दस नामों का उच्चारण करें- कोणस्थ, पिंगला, बभ्रु, कृष्णे रौद्रातको, यम, सौरि, शनैश्चर, मंद, पिप्पला

इसके पश्चात् “ऊँ शनिश्चरायै नम:” मंत्र का उच्चारण करते हुए पीपल अथवा शमी वृक्ष को कच्चे सूत के धागे से सात बार लपेट कर सात बार परिक्रमा करे। इसके पश्चात् वृक्ष का पूजन करे। यहा पूजा उपासना सूर्योदय से पूर्व करनी चाहिए। पूजन के पश्चात् शनिदेव के व्रत कथा का भक्तिपूर्वक श्रवण करना चाहिए। कथा वाचक को श्रद्धानुसार यथाशक्ति दान देना चाहिए। तिल, जौ, गुड़ , उड़द, लोहा, तेल तथा काले वस्त्र का दान करना चाहिए। शनि देवता की आरती, भजन, पूजन कर प्रसाद वितरित करना चाहिए।

शनिवार के दिन शनिदेव की पूजा के पश्चात उनसे अपने अपराधों एवं जाने अनजाने जो भी आपसे पाप कर्म हुआ हो उसके लिए क्षमा याचना करनी चाहिए।शनि महाराज की पूजा के पश्चात राहु और केतु की पूजा भी करनी चाहिए।

इसी प्रकार नियम पूर्वक तैंतीस शनिवार तक इस व्रत का श्रद्धापूर्वक पालन करे। यदि किसी कारण वस ३३ शनिवार नही कर सकते तो कम से कम ७ शनिवार व्रत करे। जो श्रद्धालुजन इस प्रकार नियम पुर्वक शनि देवता का व्रत करते है उनके समस्त कष्टों तथा दु:ख –दारिद्रय का नाश होकर उन्हें उत्तम सुख सौभाग्य तथा धन-धान्य सहित पुत्र-पौत्रादि होकर दीर्घायु प्राप्त होती है।

शनिदेव के व्रत विधान का भक्ति पूर्वक पालन करने से शनिदेव का कोप शांत होकर इनकी कृपा प्राप्त होती है। इसके साथ ही राहु और केतु के दोष निवारण के लिए भी शनि देवता का व्रत विधान पूर्ण उपयोगी तथा उत्तम फलदायी है।

शनिवार व्रत का महत्व

अग्नि पुराण के अनुसार शनि ग्रह से मुक्ति के लिए “मूल” नक्षत्र युक्त शनिवार से आरंभ करके शनिदेव की पूजा करनी चाहिए और व्रत करना चाहिए। लौकिक जीवन में शनि ग्रह के अनिष्टों, अरिष्टों की शांति के लिए, सुख-समृद्धि की प्राप्ति के लिए शनि देवता का व्रत एक उत्तम साधन है। श्रद्धा भक्ति सहित विधिपूर्वक शनि महाराज का व्रत उत्तम फल्दायी है। इसके द्वारा सांसारिक दुखों का नाश होता है। शनि ग्रह जनित समस्त उपद्रवों, रोग, शोक का निवारण होता है। दीर्घायु, धन, वैभव, सुख, समृद्धि की प्राप्ति होती है।

संसार के समस्त उद्योग धंधे, व्यवसाय, कल-कारखाने, मशीनरी सामान, धातु उद्योग, लोहा, समस्त लौह वस्तु, सारे तिल, काले वर्ण के सम्स्त पदार्थ, जीव-जंतू, जानवर, अकाल, अकाल मृत्यु, रोगभय, अर्थ हाँइ, चोर भय, राज्य भय, कारागार भय, पुलिस भय, गुर्दे के रोग, जुआ, सट्टा, लाटरी, दैवी विपत्ति, आकस्मिक हानि सहित समस्त क्रूर तथा अपराधिक कर्मों का स्वामी ग्रह शनिदेव को ही माना गया है। समस्त भय, कष्ट और लौकिक विपत्तियों का स्वामी ग्रह शनिदेव ही है। प्राय:सभी स्त्री-पुरुषों पर जीवन में तीन बार आयुभेद से जन्म कुंडली के ग्रह चक्रों के अनुसार शनि देवता का प्रभाव होता है।

शनि ग्रह के कष्टों के निवारण का एकमात्र उपाय शनि देवता की आराधना तथा व्रत ही है। जिसे सभी स्त्री-पुरुष तथा बच्चे भी कर सकते हैं। किसी भी शनिवार से शनि देवता का व्रत कर सकते हैं। विशेष रूप से श्रावण मास के किसी शनिवार से यह व्रत प्रारम्भ करना अति उत्तम तथा शीघ्र फलदायी होता है।

शनि पक्षरहित होकर अगर पाप कर्म की सजा देते हैं तो उत्तम कर्म करने वाले मनुष्य को हर प्रकार की सुख सुविधा एवं वैभव भी प्रदान करते हैं। शनि देव की जो भक्ति पूर्वक व्रतोपासना करते हैं वह पाप की ओर जाने से बच जाते हैं जिससे शनि की दशा आने पर उन्हें कष्ट नहीं भोगना पड़ता।

शनिवार व्रत पूजा की सामग्री 

काले रंग के गंध, पुष्प, धूप, दीप, अष्टांग धूप तथा नैवैद्य

विशेष– शनिवार को लोहा या लोहे की कोई वस्तु, नमक, लकड़ी या लकड़ी का कोई भी सामान, सरसों का तेल, काले रंग के कपड़े या जूते, काले तिल या काली मिर्च, माचिस, कोई भी ज्वलनशील वस्तु, गैस, लाइटर इत्यादि ना खरीदें।

शनि व्रत कथा

एक समय सभी नवग्रहओं : सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु में विवाद छिड़ गया, कि इनमें सबसे बड़ा कौन है? सभी आपस में लड़ने लगे, और कोई निर्णय ना होने पर देवराज इन्द्र के पास निर्णय कराने पहुँचे।

इन्द्र इससे घबरा गये, और इस निर्णय को देने में अपनी असमर्थता जतायी। परन्तु उन्होंने कहा, कि इस समय पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य हैं, जो कि अति न्यायप्रिय हैं। वे ही इसका निर्णय कर सकते हैं।

सभी ग्रह एक साथ राजा विक्रमादित्य के पास पहुँचे, और अपना विवाद बताया। साथ ही निर्णय के लिये कहा। राजा इस समस्या से अति चिंतित हो उठे, क्योंकि वे जानते थे, कि जिस किसी को भी छोटा बताया, वही कुपित हो उठेगा।

तब राजा को एक उपाय सूझा। उन्होंने सुवर्ण, रजत, कांस्य, पीतल, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लौह से नौ सिंहासन बनवाये, और उन्हें इसी क्रम से रख दिय। फिर उन सबसे निवेदन किया, कि आप सभी अपने अपने सिंहासन पर स्थान ग्रहण करें। जो अन्तिम सिंहासन पर बैठेगा, वही सबसे छोटा होगा।

इस अनुसार लौह सिंहासन सबसे बाद में होने के कारण, शनिदेव सबसे बाद में बैठे। तो वही सबसे छोटे कहलाये। उन्होंने सोचा, कि राजा ने यह जान बूझ कर किया है। उन्होंने कुपित हो कर राजा से कहा– “राजा! तू मुझे नहीं जानता। सूर्य एक राशि में एक महीना, चन्द्रमा सवा दो महीना दो दिन, मंगल डेड़ महीना, बृहस्पति तेरह महीने, व बुद्ध और शुक्र एक एक महीने विचरण करते हैं। परन्तु मैं ढाई से साढ़े-सात साल तक रहता हूँ। बड़े बड़ों का मैंने विनाश किया है। श्री राम की साढ़े साती आने पर उन्हें वनवास हो गया, रावण की आने पर उसकी लंका को बंदरों की सेना से परास्त होना पढ़ा था। अब तुम सावधान रहना।”

ऐसा कहकर कुपित होते हुए शनिदेव वहाँ से चले। अन्य देवता खुशी खुशी चले गये। कुछ समय बाद राजा की साढ़े साती आयी। तब शनि देव घोड़ों के सौदागर बनकर वहाँ आये। उनके साथ कई बढ़िया घड़े थे। राजा ने यह समाचार सुन अपने अश्वपाल को अच्छे घोड़े खरीदने की आज्ञा दी। उसने कई अच्छे घोड़े खरीदे व एक सर्वोत्तम घोड़े को राजा को सवारी हेतु दिया।

राजा ज्यों ही उस पर बैठा, वह घोड़ा सरपट वन की ओर भागा। भीषण वन में पहुँच वह अन्तर्धान हो गया, और राजा भूखा प्यासा भटकता रहा। तब एक ग्वाले ने उसे पानी पिलाया। राजा ने प्रसन्न हो कर उसे अपनी अंगूठी दी।

वह अंगूठी देकर राजा नगर को चल दिया, और वहाँ अपना नाम उज्जैन निवासी वीका बताया। वहाँ एक सेठ की दूकान उसने जल इत्यादि पिया। और कुछ विश्राम भी किया। भाग्यवश उस दिन सेठ की बड़ी बिक्री हुई। सेठ उसे खाना इत्यादि कराने खुश होकर अपने साथ घर ले गया।

वहाँ उसने एक खूंटी पर देखा, कि एक हार टंगा है, जिसे खूंटी निगल रही है। थोड़ी देर में पूरा हार गायब था। तब सेठ ने आने पर देखा कि हार गायब है। उसने समझा कि वीका ने ही उसे चुराया है। उसने वीका को कोतवाल के पास पकड़वा दिया। फिर राजा ने भी उसे चोर समझ कर हाथ पैर कटवा दिये। वह चौरंगिया बन गया, और नगर के बाहर फिंकवा दिया गया।

वहाँ से एक तेली निकल रहा था, जिसे दया आयी, और उसने वीका को अपनी गाड़ी में बिठा लिया। वह अपनी जीभ से बैलों को हाँकने लगा। उस काल राजा की शनि दशा समाप्त हो गयी।

वर्षा काल आने पर वह मल्हार गाने लगा। तब वह जिस नगर में था, वहाँ की राजकुमारी मनभावनी को वह इतना भाया, कि उसने मन ही मन प्रण कर लिया, कि वह उस राग गाने वाले से ही विवाह करेगी। उसने दासी को ढूंढने भेजा। दासी ने बताया कि वह एक चौरंगिया है। परन्तु राजकुमारी ना मानी।

अगले दिन वह अनशन पर बैठ गयी, कि विवाह करेगी तो उसी से। उसे बहुतेरा समझाने पर भी जब वह ना मानी, तो राजा ने उस तेली को बुला भेजा, और विवाह की तैयारी करने को कहा। फिर उसका विवाह राजकुमारी से हो गया।

एक दिन सोते हुए स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा: राजन्, देखा तुमने मुझे छोटा बता कर कितना दुःख झेला है। तब राजा ने उनसे क्षमा मांगी, और प्रार्थना की– ‘हे शनिदेव जैसा दुःख मुझे दिया है, किसी और को ना दें।’ शनिदेव मान गये, और कहा– ‘जो मेरी कथा और व्रत कहेगा, उसे मेरी दशा में कोई दुःख ना होगा। जो नित्य मेरा ध्यान करेगा, और चींटियों को आटा डालेगा, उसके सारे मनोरथ पूर्ण होंगे।’ साथ ही राजा को हाथ पैर भी वापस दिये।

प्रातः आँख खुलने पर राजकुमारी ने देखा, तो वह आश्चर्यचकित रह गयी। वीका ने उसे बताया, कि वह उज्जैन का राजा विक्रमादित्य है। सभी अत्यंत प्रसन्न हुए। सेठ ने जब सुना, तो वह पैरों पर गिरकर क्षमा मांगने लगा।

राजा ने कहा, कि वह तो शनिदेव का कोप था। इसमें किसी का कोई दोष नहीं। सेठ ने फिर भी निवेदन किया, कि मुझे शांति तब ही मिलेगी जब आप मेरे घर चलकर भोजन करेंगे।

सेठ ने अपने घर नाना प्रकार के व्यंजनों ने राजा का सत्कार किया। साथ ही सबने देखा, कि जो खूंटी हार निगल गयी थी, वही अब उसे उगल रही थी। सेठ ने अनेक मोहरें देकर राजा का धन्यवाद किया, और अपनी कन्या श्रीकंवरी से पाणिग्रहण का निवेदन किया जिसे राजा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।

कुछ समय पश्चात राजा अपनी दोनों रानियों मनभावनी और श्रीकंवरी को सभी दहेज सहित लेकर उज्जैन नगरी को चले। वहाँ पुरवासियों ने सीमा पर ही उनका स्वागत किया। सारे नगर में दीपमाला हुई, व सबने खुशी मनायी।

राजा ने घोषणा की, कि मैंने शनि देव को सबसे छोटा बताया था, जबकि असल में वही सर्वोपरि हैं। तबसे सारे राज्य में शनिदेव की पूजा और कथा नियमित होने लगी। सारी प्रजा ने बहुत समय खुशी और आनन्द के साथ बिताया।

जो कोई शनि देव की इस कथा को सुनता या पढ़ता है, उसके सारे दुःख दूर हो जाते हैं। व्रत के दिन इस कथा को अवश्य पढ़ना चाहिये।

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