अरण्य षष्ठी व्रत, कथा एवं पूजन विधि 

यह व्रत माताएँ अपने बालको के अच्छे स्वास्थ्य, आयु, ऐश्वर्य, बुद्धि, बल में वृद्धि के लिए करती है।

स्कन्द पुराण के अनुसार नर नारायण संवाद में अरण्य षष्ठी के दिन संतान प्राप्ति और संतान की सभी पीड़ाओं के निवारण हेतु देवी विध्यवासिनी और स्कन्द भगवान की पूजा की जाती है।

इस दिन माताएँ अपने हाथों में पंखे एवं तीर को लेकर अरण्य(वन या जंगल) मे भ्रमण करती है। वन में दिव्य रूप से निवास करने वाले ऋषियों, देवताओ से अपने बालक के सदैव कुशल की कामना करती है।

अरण्य षष्ठी व्रत विधि 

प्रातः काल उठकर स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करे। स्कन्द भगवान की प्रतिमा का पूजन करे। पुष्प, अक्षत, वस्त्र, रोली, चंदन, फल, नारियल, दक्षिण आदि भेंट कर। अखंड दीपक स्थापित करे और अपनी संतान हेतु जो भी कामना है उनके चरणों मे भाव से निवेदन करे।

अरण्य षष्ठी व्रत कथा 

तारकासुर, वज्रांग नामक दैत्य का पुत्र और असुरों का अधिपति था। देवताओं को जीतने के लिये उसे घोर तपस्या की और असुरों पर राजत्व तथा शिवपुत्र के अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यक्ति से न मारे जा सकने का महादेव का वरदान प्राप्त किया।

परिणामस्वरूप वह अत्यंत दुर्दातं हो गया और देवतागण उसकी सेवा के लिये विवश हो गए। देवताओं ने भी ब्रह्मा की शरण ली और उन्होने उन्हें यह बताया कि तारकासुर का अंत शिव के पुत्र से ही हो सकेगा।

देवताओं ने कामदेव और रति के सहारे पार्वती के माध्यम से शिव को वैवाहिक जीवन के प्रति आकृष्ट करने का प्रयत्न किया। शिव ने क्रुद्ध होकर काम को जला डाला। किंतु पार्वती ने आशा नहीं छोड़ी और रूपसम्मोहन के उपाय को व्यर्थ मानती हुई तपस्या में निरत होकर शिवप्राप्ति का उपाय शुरू कर दिया।

शिव प्रसन्न हूए, पार्वती का पाणिग्रहण किया और उनसे कार्तिकेय (स्कंद) की उत्पत्ति हुई। स्कंद को देवताओं ने अपना सेनापति बनाया और देवासुरसंग्राम में उनके द्वारा तारकासुर का संहार हुआ।

स्कंद पुराण के अनुसार भगवान शिव के दिये वरदान के कारण अधर्मी अत्यन्त शक्तिशाली बने वाला राक्षस तारकासुर जिसको बध करने के लिए शिव के वीर्य से उत्पन्न पुत्र कार्तिकेय ने जन्म लिया।

कृतिकाओं के द्वारा लालन पालन होने के कारण कार्तिकेय नाम पड़ गया। कार्तिकेय ने बड़ा होकर राक्षस तारकासुर का संहार किया।

अरण्य षष्ठी की उपासना से ही प्रियव्रत ने अपने मृत शिशु को जीवित किया था।

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