कार्तिक माह महात्म्य चौबीसवां अध्याय Kartik Month Mahatmya Twenty Fourth Chapter 

लिखवाओ से निज दया से, सुन्दर भाव बताकर।

कार्तिक मास चौबीसवाँ अध्याय सुनो सुधाकर।।

राजा पृथु बोले– हे मुनिश्रेष्ठ आपने तुलसी के इतिहास, व्रत, माहात्म्य के विषय में कहा. अब आप कृपाकर मुझे यह बताइए कि कार्तिक मास में क्या और भी देवताओं का पूजन होता है ? यह भी विस्तारपूर्वक बताइए. नारद जी बोले– पूर्व काल की बात है. सह्य पर्वत पर करवीकर में धर्मदत्त नामक विख्यात कोई धर्मज्ञ ब्राह्मण रहते थे. एक दिन कार्तिक मास में भगवान विष्णु के समीप जागरण करने के लिए वे भगवान के मन्दिर की ओर चले. उस समय एक पहर रात बाकी थी. भगवान के पूजन की सामग्री साथ लिये जाते हुए ब्राह्मण ने मार्ग में देखा कि एक भयंकर राक्षसी आ रही है.

उसका शरीर नंगा और मांस रहित था. उसके बड़े-बड़े दाँत, लपकती हुई जीभ और लाल नेत्र देखकर ब्राह्मण भय से थर्रा उठे. उनका सारा शरीर कांपने लगा. उन्होंने साहस कर के पूजा की सामग्री तथा जल से ही उस राक्षसी के ऊपर प्रहार किया. उन्होंने हरिनाम का स्मरण कर के तुलसीदल मिश्रित जल से उसको मारा था इसलिए उसका सारा पातक नष्ट हो गया. अब उसे अपने पूर्व जन्म के कर्मों के परिणाम स्वरुप प्राप्त हुई दुर्दशा का स्मरण हो आया. उसने ब्राह्मण को दण्डवत प्रणाम कर के इस प्रकार कहा– ब्रह्मन् मैं पूर्व जन्म के कर्मों के फल से इस दशा को पहुंची हूँ. अब मुझे किस प्रकार उत्तम गति प्राप्त होगी ?

धर्मदत्त ने उसे इस प्रकार प्रणाम करते देखकर आश्चर्यचकित होते हुए पूछा– किस कर्म के फल से तुम इस दशा को पहुंची हो ? कहां की रहने वाली हो ? तुम्हारा नाम क्या है और आचार-व्यवहार कैसा है ? ये सारी बातें मुझे बताओ.

उस राक्षसी का नाम कलहा था, कलहा बोली– ब्रह्मन मेरे पूर्व जन्म की बात है, सौराष्ट्र नगर में भिक्षु नामक एक ब्राह्मण रहते थे, मैं उनकी पत्नी थी. मेरा नाम कलहा था और मैं बड़े क्रूर स्वभाव की स्त्री थी. मैंने वचन से भी कभी अपने पति का भला नहीं किया, उन्हें कभी मीठा भोजन नहीं परोसा. सदा अपने स्वामी को धोखा ही देती रही. मुझे कलह विशेष प्रिय था इसलिए मेरे पति का मन मुझसे सदा उद्विग्न रहा करता था. अन्ततोगत्वा उन्होंने दूसरी स्त्री से विवाह करने का निश्चय कर लिया तब मैंने विष खाकर अपने प्राण त्याग दिये, फिर यमराज के दूत आये और मुझे बाँधकर पीटते हुए यमलोक में ले गये. वहाँ यमराज ने मुझे देखकर चित्रगुप्त से पूछा – चित्रगुप्त! देखो तो सही इसने कैसा कर्म किया है? जैसा इसका कर्म हो, उसके अनुसार यह शुभ या अशुभ प्राप्त करे.

चित्रगुप्त ने कहा– इसका किया हुआ कोई भी शुभ कर्म नहीं है. यह स्वयं मिठाईयाँ उड़ाती थी और अपने स्वामी को उसमें से कुछ भी नही देती थी. इसने सदा अपने स्वामी से द्वेष किया है इसलिए यह चमगादुरी होकर रहे तथा सदा कलह में ही इसकी प्रवृति रही है इसलिए यह विष्ठाभोजी सूकरी की योनि में रहे. जिस बर्तन में भोजन बनाया जाता है उसी में यह सदा अकेली खाया करती थी. अत: उसके दोष से यह अपनी ही सन्तान का भ़ाण करने वाली बिल्ली हो. इसने अपने पति को निमित्त बनाकर आत्मघात किया है इसलिए यह अत्यन्त निन्दनीय स्त्री प्रेत के शरीर में भी कुछ काल तक अकेली ही रहे. इसे यमदूतों द्वारा निर्जल प्रदेश में भेज देना चाहिए, वहाँ दीर्घकाल तक यह प्रेत के शरीर में निवास करे. उसके बाद यह पापिनी शेष तीन योनियों का भी उपभोग करेगी.

कलहा ने कहा– विप्रवर मैं वही पापिनी कलहा हूँ. इस प्रेत शरीर में आये मुझे पाँच सौ वर्ष बीत चुके हैं. मैं सदैव भूख-प्यास से पीड़ित रहा करती हूँ. एक बनिये के शरीर में प्रवेश कर के मैं इस दक्षिण देश में कृष्णा और वेणी के संगम तक आयी हूँ. ज्यों ही संगम तट पर पहुंची त्यों ही भगवान शिव और विष्णु के पार्षदों ने मुझे बलपूर्वक बनिये के शरीर से दूर भगा दिया तब से मैं भूख का कष्ट सहन करती हुई इधर-उधर घूम रही हूँ. इतने में ही आपके ऊपर मेरी दृष्टि पड़ गई. आपके हाथ से तुलसी मिश्रित जल का संसर्ग पाकर मेरे सब पाप नष्ट हो गये हैं. द्विजश्रेष्ठ अब आप ही कोई उपाय कीजिए. बताइए मेरे इस शरीर से और भविष्य में होने वाली भयंकर तीन योनियों से किस प्रकार मुक्त होऊँगी ?

कलहा का यह वचन सुनकर धर्मदत्त उसके पिछले कर्मों और वर्तमान अवस्था को देखकर बहुत दुखी हुआ, फिर उसने बहुत सोच-विचार करने के बाद कहा–

(धर्मदत्त ने जो भी कहा उसका वर्णन पच्चीसवें अध्याय में किया गया है)

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