माघ मास माहात्म्य 1 से 10 अध्याय सम्पूर्ण Magh month greatness chapter 1 to 10 complete in Hindi 

माघ एक ऐसा माह जो भारतीय संवत्सर का ग्यारहवां चंद्रमास व दसवां सौरमास कहलाता है। दरअसल मघा नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होने के कारण यह महीना माघ का महीना कहलाता है। वैसे तो इस मास का हर दिन पर्व के समान जाता है। लेकिन कुछ खास दिनों का खास महत्व भी इस महीने में हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, आदित्य, मरुदगण तथा अन्य सभी देवी-देवता माघ में संगम स्नान करते है मान्यता है कि प्रयाग में माघ मास में तीन बार स्नान करने का फल दस हज़ारअश्वमेघ यज्ञ से भी ज्यादा होता है। पूरे महीने माघ स्नान करने वाले मनुष्यों पर भगवान विष्णु प्रसन्न रहते है तथा उन्हें सुख-सौभाग्य, धन-संतान और मोक्ष प्रदान करते है।

यदि सकामभाव से माघ स्नान किया जाय तो उससे मनोवांछित फल की सिद्धि होती है और निष्काम भाव से स्नान आदि करने पर वह मोक्ष देने वाला होता है ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। मान्यता है कि इन दिनों में प्रयागराज में अनेक तीर्थों का समागम होता है इसलिए जो प्रयाग या अन्य पवित्र नदियों में भी भक्तिभाव से स्नान करते है वह अनेकों पाप और कष्टों से मुक्त होकर स्वर्गलोक में स्थान पाते हैं।

श्री रामचरित्र मानस के बालखण्ड में लिखा है- ‘माघ मकर गति रवि जब होई, तीरथपतिहिं आव सब कोई !!’धर्मराज युधिष्ठिर ने महाभारत युद्ध के दौरान मारे गए अपने रिश्तेदारों को सदगति दिलाने हेतु मार्कण्डेय ऋषि के सुझाव पर कल्पवास किया था। गौतमऋषि द्वारा शापित इंद्रदेव को भी माघ स्नान के कारण श्राप से मुक्ति मिली थी ।माघ मास में जो पवित्र नदियों में स्नान करता है उसे एक विशेष ऊर्जा प्राप्त होती है, जिससे उसका शरीर निरोगी और आध्यात्मिक शक्ति से संपन्न हो जाता है।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 106 के अनुसार

माघं तु नियतो मासमेकभक्तेन य: क्षिपेत्।

श्रीमत्कुले ज्ञातिमध्ये स महत्त्वं प्रपद्यते।। 

अर्थात जो माघ मास में नियमपूर्वक एक समय भोजन करता है, वह धनवान कुल में जन्म लेकर अपने कुटुम्बजनों में महत्व को प्राप्त होता है।

पद्मपुराण, उत्तरपर्व में कहा गया है

ग्रहाणां च यथा सूर्यो नक्षत्राणां यथा शशी।

मासानां च तथा माघः श्रेष्ठः सर्वेषु कर्मसु।।

अर्थात जैसे ग्रहों में सूर्य और नक्षत्रों में चन्द्रमा श्रेष्ठ है, उसी प्रकार महीनों में माघ मास श्रेष्ठ है।

माघ में मूली का त्याग करना चाहिए। देवता और पितर को भी मूली अर्पण न करें।

माघ में तिलों का दान जरूर जरूर करना चाहिए। विशेषतः तिलों से भरकर ताम्बे का पात्र दान देना चाहिए।

महाभारत अनुशासन पर्व के 66वें अध्याय के अनुसार

माघ मासे तिलान् यस्तु ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति। सर्वसत्वसमकीर्णं नरकं स न पश्यति॥

जो माघ मास में ब्राह्मणों को तिल दान करता है, वह समस्त जन्तुओं से भरे हुए नरक का दर्शन नहीं करता।

श्री हरि नारायण को माघ मास अत्यंत प्रिय है। वस्तुत: यह मास प्रातः स्नान (माघ स्नान), कल्पवास, पूजा-जप-तप, अनुष्ठान, भगवद्भक्ति, साधु-संतों की कृपा प्राप्त करने का उत्तम मास है। माघ मास की विशिष्टता का वर्णन करते हुए महामुनि वशिष्ठ ने कहा है, ‘जिस प्रकार चंद्रमा को देखकर कमलिनी तथा सूर्य को देखकर कमल प्रस्फुटित और पल्लवित होता है, उसी प्रकार माघ मास में साधु-संतों, महर्षियों के सानिध्य से मानव बुद्धि पुष्पित, पल्लवित और प्रफुल्लित होती है। यानी प्राणी को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।

माघ मास माहात्म्य– प्रथम अध्याय 

एक समय श्री सूतजी ने अपने गुरु श्री व्यासजी से कहा कि गुरुदेव कृपा करके आप मुझे से माघ मास का माहात्म्य कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ. व्यासजी कहने लगे कि रघुवंश के राजा दिलीप एक समय यज्ञ के स्नान के पश्चात पैरों में जूते और सुंदर वस्त्र पहनकर शिकार की सामग्री से युक्त, कवच और शोभायमान आभूषण पहने हुए अपने सिपाहियों से घिरे हुए जंगल में शिकार खेलने के लिए अपनी नगरी से बाहर निकले. उनके सिपाही जंगल में शिकार के लिए मृग, व्याघ्र, सिंह आदि जंतुओं की तलाश में इधर-उधर फिरने लगे।

उस वन में वनस्थली अत्यंत शोभा को प्राप्त हो रही थी, कहीं-2 मृगों के झुंड फिरते थे. कहीं गीदड़ अपना भयंकर शब्द कर रहे थे. कहीं गैंडों का समूह हाथियों के समान फिर रहा था. कहीं वृक्षों के कोटरों में बैठे हुए उल्लू अपना भयानक शब्द कर रहे थे. कहीं सिंहों के पदचिन्हों के साथ घायल मृगों के रक्त से भूमि लाल हो रही थी. कहीं दूध से भरी थनों वाली सुंदर भैंसे फिर रही थी, कहीं पर सुगंधित पुष्प, हरी-भरी लताएँ वन की शोभा को बढ़ा रही थी. कहीं बड़े-बड़े पेड़ खड़े थे तो कहीं पर उन पेड़ों पर बड़े-बड़े अजगर और उनकी केंचुलियाँ भी पड़ी हुई थी।

उसी समय राजा के सिपाहियों के बाजे की आवाज सुनकर एक मृग वन में से निकलकर भागने लगा और बड़ी-बड़ी चौकड़ियाँ भरता हुआ आगे बढ़ा. राजा ने उसके पीछे अपना घोड़ा दौड़ाया परन्तु मृग पूरी शक्ति से भागने लगा. मृग कांटेदार वृक्षों के एक जंगल में घुसा और राजा ने भी उसके पीछे वन में प्रवेश किया परंतु दूर जाकर मृग, राजा की दृष्टि से ओझल होकर निकल गया. राजा निर्जन वन में अपने सैनिकों सहित प्यास के मारे अति दुखी हो गया. दोपहर के समय अधिक मार्ग चलने से सैनिक थक गये और घोड़े रुक गए. कुछ देर बाद राजा ने एक बड़ा भारी सुंदर सरोवर देखा जिसके किनारों पर घने वृक्ष थे. इसका जल सज्जनों के हृदय के समान स्वच्छ और पवित्र था।

सरोवर का जल लहरों से बड़ा सुंदर लगता था. जल में अनेक प्रकार के जल-जंतु मछलियाँ आदि स्वच्छंदता से इधर-उधर फिर रही थी. दुष्टों के समान निर्दयी चित्त वाले मगरमच्छ भी थे. किसी-किसी जगह लोभी के समान सिमाल भी पड़ी हुई थी. जैसे विपत्ति में पड़े हुए लोगों को दुखों को हरने वाले दानी पुरुष के समान यह सरोवर अपने जल से सबको सुखी करता था, जैसे मेघ चातक के दुख को हरता है, इस सरोवर को देखकर राजा की थकावट दूर हो गई. रात्रि को राजा ने वहीं विश्राम किया और सैनिक पहरा देने लगे और चारों तरफ फैल गये

रात के अंतिम समय में शूकरों के एक झुंड ने आकर सरोवर में पानी पीया और कमल के झुंड के पास आया तब शिकारियों ने सावधान होकर शूकरों पर आक्रमण किया और उनको मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया. उस समय सब शिकारी कोलाहल करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ राजा के पास गए और राजा प्रभात हुआ देखकर उनके साथ ही अपनी नगरी की तरफ चल पड़ा ।

जिसका शरीर तपस्या और नियमों के कारण बिलकुल सूख गया था, जो मृगछाला और वल्कल पहने हुए था और नख रोम तथा केश धारण किए हुए था, राजा ने ऎसे घोर तपस्वी को देखकर बड़े आश्चर्य से उसको प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया. तपस्वी ने राजा से कहा कि हे राजन! इस पुण्य शुभ माघ में इस सरोवर को छोड़कर तुम यहाँ से क्यों जाने की इच्छा करते हो तब राजा कहने लगा कि महात्मन्! मैं तो माघ मास में स्नान के फल को कुछ भी नहीं जानता. कृपा करके आप विस्तारपूर्वक मुझको बताइए ।

माघ मास महात्म्य- दूसरा अध्याय 

राजा के ऎसे वचन सुनकर तपस्वी कहने लगा कि हे राजन्! भगवान सूर्य बहुत शीघ्र उदय होने वाले हैं इसलिए यह समय हमारे लिए स्नान का है, कथा का नहीं, सो आप स्नान करके अपने घर को जाओ और अपने गुरु श्री वशिष्ठ जी से इस माहात्म्य को सुनो। इतना कहकर तपस्वी सरोवर में स्नान के लिए चले गए और राजा भी विधिपूर्वक सरोवर में स्नान करके अपने राज्य को लौटा और रनिवास में जाकर तपस्वी की सब कथा रानी को सुनाई. तब सूतजी कहने लगे कि महाराज राजा ने अपने गुरु वशिष्ठजी से क्या प्रश्न किया और उन्होंने क्या उत्तर दिया सो कहिए।

व्यास जी कहने लगे – हे सूतजी राजा दिलीप ने रात्रि को सुख से सोकर प्रात: समय ही अपने गुरु वशिष्ठजी के पास जाकर उनके चरणों को छूकर, प्रणाम करके तपस्वी के बताए हुए प्रश्नों को अति नम्रता से पूछा कि गुरुजी आपने आचार, दंड, नीति, राज्य धर्म तथा चारों वर्णों के चारों आश्रमों की क्रियाओं, दान और उनके विधान, यज्ञ और उनकी विधियाँ, व्रत, उनकी प्रतिष्ठा तथा भगवान विष्णु की आराधना अनेक प्रकार से तथा विस्तारपूर्वक मुझको बतलाई. अब मैं आपसे माघ मास के स्नान के माहात्म्य को सुनना चाहता हूँ। सो हे तपोधन! नियमपूर्वक इसकी विधि समझाइए।

गुरु वशिष्ठजी कहने लगे कि हे राजन! तुमने दोनों लोकों के कल्याणकारी, वनवासी तथा गृहस्थियों के अंत:करण को पवित्र करने वाले माघ मास के स्नान का बहुत सुंदर प्रश्न पूछा है। मकर राशि के सूर्य के आने पर माघ मास में स्नान का फल, गौ, भूमि, तिल, वस्त्र, स्वर्ण, अन्न, घोड़ा आदि दानों तथा चंद्रायण और ब्रह्मा कूर्च व्रत आदि से भी अधिक होता है. वैशाख तथा कार्तिक में जप, दान, तप और यज्ञ बहुत फल देने वाले हैं परन्तु माघ मास में इनका फल बहुत ही अधिक होता है. माघ में स्नान करने वाला पुरुष राजा और मुक्ति के मार्ग को जानने वाला होता है।

दिव्य दृष्टि वाले महात्माओं ने कहा है कि जो मनुष्य माघ मास में सकाम या भगवान के निमित्त नियमपूर्वक माघ मास में स्नान करता है वह अनंत फल वाला होता है. उसको शरीर की शुद्धि, प्रीति, ऎश्वर्य तथा चारों प्रकार के फलों की प्राप्ति होती है. अदिति ने बारह वर्ष तक मकर संक्रांति में अन्न त्यागकर स्नान किया इससे तीनों लोकों को उज्जवल करने वाले बारह पुत्र उत्पन्न हुए. माघ में स्नान करने से ही रोहिणी, सुभगा, अरुन्धती दानशीलता हुई और इन्द्राणी के समान रूपवती होकर प्रसिद्ध हुई.

जो माघ मास में स्नान करते हैं तथा देवताओं के पूजन में तत्पर रहते हैं उनको सुंदर स्थान, हाथी और घोड़ो की सवारी तथा दान को द्रव्य प्राप्त होता है. अतिथियों से उनका घर भरा रहता है और उनके घर में सदा वेद ध्वनि होती रहती है।

वह मनुष्य धन्य है जो माघ मास में स्नान करते हैं, दान देते हैं तथा व्रत और नियमों का पालन करते हैं और दूसरों के पुण्यों के क्षीण होने से मनुष्य स्वर्ग से वापिस आ जाता है परन्तु जो मनुष्य माघ मास में स्नान करता है वह कभी स्वर्ग से वापिस नहीं आता. इससे बढ़कर कोई नियम, तप, दान, पवित्र और पाप नाशक नही है. भृगुजी ने मणि पर्वत पर विद्याधरों को यह सुनाया था. तब राजा ने कहा कि ब्रह्मन भृगु ऋषि ने कब मणि पर्वत पर विद्याधरों को उपदेश दिया था सो बताइए

तब ऋषिजी कहने लगे कि राजन्! एक समय बारह वर्ष तक वर्षा न होने के कारण सब प्रजा क्षीण होने के कारण संसार में बड़ी उद्विग्नता फैल गई. हिमाचल और विंध्याचल पर्वत के मध्य का देश निर्जन होने के कारण, श्राद्ध, तप तथा स्वाध्याय सब कुछ छूट गए. सारा लोक विपत्तियों में फंसकर प्रजाहीन हो गया।

सारा भूमंडल फल और अन्न से रहित हो गया तब विंध्याचल से नीचे बहती हुई नदी के सुंदर वृक्षों से आच्छादित अपने आश्रम से निकलकर श्री भृगु ऋषि अपने शिष्यों सहित हिमालय पर्वत पर गए. इस पर्वत की चोटी नीली और नीचे का हिस्सा सुनहरी होने से सारा पर्वत पीताम्बरधारी श्री भगवान के सदृश लगता था. पर्वत के बीच का भाग नीला और बीच-बीच में कहीं-कहीं सफेद स्फटिक होने से तारों से युक्त आकाश जैसी शोभा को प्राप्त होता था. रात्रि के समय वह पर्वत दीपकों की तरह चमकती हुई दिव्य औषधियों से पूरित किसी महल की शोभा को प्राप्त होता था. वह पर्वत शिखाओं पर बांसुरी बजाती और सुंदर गीत गाती हुई किन्नरियों तथा केले के पत्तों की पताकाओं से अत्यंत शोभा को प्राप्त हो रहा था।

यह पर्वत नीलम, पन्ना, पुखराज तथा इसकी चोटी से निकलती हुई रंग-बिरंगी किरणों से इंद्रधनुष के समान प्रतीत होता था. स्वर्ण आदि सब धातुओं से तथा चमकते हुए रत्नों से चारों ओर फैली हुई अग्नि ज्वाला के समान शोभायमान था. इसकी कंदराओं में काम पीड़ित विद्याधरी अपने पतियों के साथ आकर रमण करती हैं और गुफाओं में ऎसे ऋषि-मुनि जिन्होंने संसार के सब क्लेशों को जीत लिया है रात-दिन ब्रह्म का ध्यान करते हैं और कई एक हाथ में रुद्राक्ष की माला लिए हुए शिव की आराधना में लगे हुए हैं. पर्वत के नीचे भागों में जंगली हाथी अपने बच्चों के साथ खेल रहे हैं तथा कस्तूरी वाले रंग-बिरंगे मृगों के झुंड इधर-उधर भाग रहे हैं. यह पर्वत सदा राजहंस तथा मोरों से भरा रहता है, इसी कारण इसको हेमकुंड कहते हैं. यहाँ पर सदैव ही देवता, गुह्यक और अप्सरा निवास करते हैं ।

माघ महात्म्य- तृतीय अध्याय 

तब राजा दिलीप कहने लगे कि महाराज यह पर्वत कितना ऊँचा और कितना लंबा-चौड़ा है? तब वशिष्ठ जी कहने लगे कि छत्तीस योजन (एक योजन चार कोस का होता है) ऊँचा ऊपर चोटी में दस योजन चौड़ा और नीचे सोलह योजन चौड़ा है. जो हरि, चंदन, आम, मदार, देवदार और अर्जुन के वृक्षों से सुशोभित है. दुर्भिक्ष से दुखी होकर इस पर्वत को और फल – फूलों से परिपूर्ण देखकर भृगु वहीं रहने लगे और यहाँ पर कंदराओं, वनों और उपवनों में बहुत दिनों तक तप करते रहे।

इस प्रकार जब भृगु ऋषि वहाँ पर अपने आश्रम पर रह रहे थे तो एक विद्याधर अपनी पत्नी सहित उतरा. वे अत्यंत दुखी थे. उन्होंने भृगु ऋषि को प्रणाम किया और ऋषि ने बड़े मीठे स्वर में उनसे कहा कि हे विद्याधर! तुम बड़े दुखी दिखाई देते हो इसका क्या कारण है? तब विद्याधर कहने लगा कि महाराज पुण्य के फल को पाकर, स्वर्ग पाकर तथा देवतुल्य शरीर पाकर भी मेरा मुख व्याघ्र जैसा है. मेरे दुख और अशांति का यही एक कारण है. न जाने किस पाप का फल है. मेरे चित्त की व्याकुलता का दूसरा कारण भी सुनिए।

मेरी पत्नी अति रुपवती, मीठा वचन बोलने वाली, नाचने और गाने की कला में अति प्रवीण, शुद्ध चित्त वाली, सातों सुरों वाली, वीणा बजाने वाली जिसने अपने कंठ से गाकर नारदजी को प्रसन्न किया. नाना स्वरों के नाद से वीणा बजाकर कुबेर को प्रसन्न किया. अनेक प्रकार के नाच ताल से शिवजी महाराज भी अति प्रसन्न और रोमांचित हुए. शील, उदारता, रूप तथा यौवन में स्वर्ग की कोई अप्सरा भी इस जैसी नहीं है. कहां ऎसी चंद्रमुखी स्त्री और कहां मैं व्याघ्र मुख वाला, यही चिंता सदैव मेरे हृदय को जलाती है।

विद्याधर के ऎसे वचन सुनकर तीनों लोकों की भूत, भविष्य और वर्तमान की बात जानने वाले तथा दिव्य दृष्टि वाले ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर कर्म के विचित्र फलों को प्राप्त होकर ज्ञानी पुरुष भी मोह को प्राप्त हो जाते हैं. मक्खी के पैर जितना विष भी प्राण लेने वाला हो जाता है। छोटे-छोटे पापों का फल भी अत्यंत दुखदायी हो जाता है. तुमने माघ मास की एकादशी का व्रत करके द्वादशी न आने तक शरीर में तेल लगाया इसी पाप कर्म से व्याघ्र हुए. एकादशी के दिन उपवास करके द्वादशी को तेल लगाने से राजा पुरुरवा ने भी कुरुप शरीर पाया था तब वह अपने कुरुप शरीर को देखकर दुखी होकर हिमालय पर्वत पर देव सरोवर के किनारे पर गया।

प्रीतिपूर्वक शुद्ध स्नान कर कुशा के आसन पर बैठकर भगवान कमल नेत्र, शंख, चक्र, गदा, पद्म के धारण करने वाले पीताम्बर पहने, वन माला धारण किए हुए विष्णु का चिंतन करते राजा पुरुरवा ने तीन मास तक निराहार रहकर भगवान का चिंतन किया। इस प्रकार सात जन्मों में प्रसन्न होने वाले भगवान, राजा के तीन महीने के तप से ही अति प्रसन्न हो गए और माघ की शुक्ल पक्ष की एकादशी को प्रसन्न होकर भगवान ने अपने शंख के जल से राजा को पवित्र किया. भगवान ने उसके तेल लगाने की बात याद दिलाकर सुंदर देवताओं का सा रूप दिया जिसको देखकर उर्वशी भी उसको चाहने लगी और राजा कृतकृत्य होकर अपनी पुरी को चला गया।

भृगु ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर! इसलिए तुम क्यों दुखी होते हो यदि तुम अपना यह राक्षसी रूप छोड़ना चाहते हो तो मेरा कहना मानकर जल्दी ही पापों को नष्ट करने वाली हेमकूट नदी में माघ में स्नान करो जहाँ पर ऋषि सिद्ध देवता निवास करते हैं। अब मैं इसकी विधि बतलाता हूँ. तुम्हारे भाग्य से माघ मास आज से पाँचवें दिन ही आने वाला है। पौष शुक्ल एकादशी से इस व्रत को आरंभ करो. भूमि पर सोना, जितेंद्रिय रहकर दिन में तीन समय स्नान करके महीना भर निराहार रहो. सब भोगों को त्यागकर तिनों समय भगवान विष्णु का पूजन करो जब तुम द्वादशी को शिवजी स्तोत्र और मंत्रों से पूजन करोगे तो तुम्हारा मुख देखकर सभी चकित हो जाएंगे और तुम अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक क्रीड़ा करोगे।

माघ मास के प्रभाव को जानकर सदा माघ में स्नान करो. पाप दरिद्रता से बचने के लिए मनुष्य को सदा यत्न से माघ मास का स्नान करना चाहिए. स्नान करने वाला इस लोक तथा परलोक में सदा सुख पाता है. वशिष्ठ जी कहते हैं कि हे दिलीप! भृगुजी के यह वचन सुनकर वह विद्याधर अपनी स्त्री सहित उसी स्थान पर पर्वत के झरने में माघ का स्नान करता रहा और उसके प्रभाव से उसका मुख देव सदृश हो गया और वह मणिग्रीव पर्वत पर आनंद से रहने लगे. भृगुजी भी नियम की समाप्ति पर शिष्यों सहित इवा नदी के तट पर आ गए।

माघ मास महात्म्य- चतुर्थ अध्याय

श्री वशिष्ठजी कहने लगे कि हे राजन! अब मैं माघ के उस माहात्म्य को कहता हूँ जो कार्तवीर्य के पूछने पर दत्तात्रेय ने कहा था।

जिस समय साक्षात विष्णु के रुप श्री दत्तात्रेय सत्य पर्वत पर रहते थे तब महिष्मति के राजा सहस्रार्जुन ने उनसे पूछा कि हे योगियों में श्रेष्ठ दत्तात्रेयजी! मैंने सब धर्म सुने. अब आप कृपा करके मुझे माघ मास का माहात्म्य कहिए. तब दत्तात्रेय जी बोले – जो नारदजी से ब्रह्माजी ने कहा था वही माघ माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ. इस कर्म भूमि भारत में जन्म लेकर जिसने माघ स्नान नहीं किया उसका जन्म निष्फल गया।

भगवान की प्रसन्नता, पापों के नाश और स्वर्ग की प्राप्ति के लिए माघ स्नान अवश्य करना चाहिए. यदि यह पुष्ट व शुद्ध शरीर माघ स्नान के बिना ही रह जाए तो इसकी रक्षा करने से क्या लाभ! जल में बुलबुले के समान, मक्खी जैसे तुच्छ जंतु के समान यह शरीर माघ स्नान के बिना मरण समान है. विष्णु भगवान की पूजा न करने वाला ब्राह्मण, बिना दक्षिणा के श्राद्ध, ब्राह्मण रहित क्षेत्र, आचार रहित कुल ये सब नाश के बराबर हैं।

गर्व से धर्म का, क्रोध से तप का, गुरुजनों की सेवा न करने से स्त्री तथा ब्रह्मचारी, बिना जली अग्नि से हवन और बिना साक्षी के मुक्ति का नाश हो जाता है. जीविका के लिए कहने वाली कथा, अपने ही लिए बनाए हुए भोजन की क्रिया, शूद्र से भिक्षा लेकर किया हुआ यज्ञ तथा कंजूस का धन, यह सब नाश के कारण हैं. बिना अभ्यास और आलस्य वाली विद्या, असत्य वाणी, विरोध करने वाला राजा, जीविका के लिए तीर्थयात्रा, जीविका के लिए व्रत, संदेहयुक्त मंत्र का जप, व्यग्र चित्त होकर जप करना, वेद न जानने वाले को दान देना, संसार में नास्तिक मत ग्रहण करना,

श्रद्धा बिना धार्मिक क्रिया, यह सब व्यर्थ है और जिस तरह दरिद्र का जीना व्यर्थ है उसी तरह माघ स्नान के बिना मनुष्य का जीना व्यर्थ है. ब्रह्मघाती, सोना चुराने वाला, मदिरा पीने वाला, गुरु-पत्नीगामी और इन चारों की संगति करने वाला माघ स्नान से पवित्र होता है।

जल कहता है कि सूर्योदय से पहले जो मुझसे स्नान करता है मैं उसके बड़े से बड़े पापों को नष्ट करता हूँ. महापातक भी स्नान करने से भस्म हो जाते हैं. माघ मास के स्नान का जब समय आ जाता है तो सब पाप अपने नाश के भय से काँप जाते हैं।

जैसे मेघों से मुक्त होकर चंद्रमा प्रकाश करता है वैसे ही श्रेष्ठ मनुष्य माघ मास में स्नान करके प्रकाशमान होते हैं. काया, वाचा, मनसा से किए हुए छोटे या बड़े, नए या पुराने सभी पाप स्नान से नष्ट हो जाते हैं. आलस्य में बिना जाने जो पाप किए हों वह भी नाश को प्राप्त होते हैं. जिस तरह जन्म-जन्मांतर के अभ्यास से आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है उसी तरह जन्मान्तर अभ्यास से ही माघ स्नान में मनुष्य की रुचि होती है. यह अपवित्रों को पवित्र करने वाला बड़ा तप और संसार रूपी कीचड़ को धोने की पवित्र वस्तु है ।

हे राजन! जो मनवांछित फल देने वाला माघ स्नान नही करते वह सूर्य, चंद्र के समान भोगों को कैसे भोग सकते हैं!

माघ मास महात्म्य- पांचवाँ अध्याय 

दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन! एक प्राचीन इतिहास कहता हूँ। भृगुवंश में ऋषिका नाम की एक ब्राह्मणी थी जो बाल्यकाल में ही विधवा हो गई थी. वह रेवा नदी के किनारे विन्ध्याचल पर्वत के नीचे तपस्या करने लगी। वह जितेन्द्रिय, सत्यवक्ता, सुशील, दानशीलता तथा तप करके देह को सुखाने वाली थी. वह अग्नि में आहुति देकर उच्छवृत्ति द्वारा छठे काल में भोजन करती थी। वह वल्कल धारण करती थी और संतोष से अपना जीवन व्यतीत करती थी. उसने रेवा और कपिल नदी के संगम में साठ वर्ष तक माघ स्नान किया और फिर वहीं पर ही मृत्यु को प्राप्त होगी।

माघ स्नान के फल से वह दिव्य चार हजार वर्ष तक विष्णु लोक में वास करके सुंद और उपसुंद दैत्यों का नाश करने के लिए ब्रह्मा द्वारा तिलोत्तमा नाम की अप्सरा के रूप में ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुई। वह अत्यंत रुपवती, गान विद्या में अति प्रवीण तथा मुकुट कुंडल से शोभायमान थी. उसका रूप, यौवन और सौंदर्य देखकर ब्रह्मा भी चकित हो गये.

वह तिलोत्तमा, रेवा नदी के पवित्र जल में स्नान करके वन में बैठी थी तब सुंद व उपसुंद के सैनिकों ने चन्द्रमा के समान उस रुपवती को देखकर अपने राजा सुंद और उपसुंद से उसके रुप की शोभा का वर्णन किया और कहने लगे कि कामदेव को लज्जित करने वाली ऎसी परम सुंदरी स्त्री हमने कभी नहीं देखी, आप भी चलकर देखें तब वह दोनों मदिरा के पात्र रखकर वहाँ पर आए जहाँ पर वह सुंदरी बैठी हुई थी और मदिरा के पान विह्वल होकर काम-क्रीड़ा से पीड़ित हुए और दोनों ही आपस में उस स्त्री-रत्न को प्राप्त करने के लिए विवादग्रस्त हुए और फिर आपस में युद्ध करते हुए वहीं समाप्त होगे।

उन दोनों का मरा हुआ देखकर उनके सैनिकों ने बड़ा कोलाहल मचाया और तब तिलोत्तमा कालरात्रि के समान उनको पर्वत से गिराती हुई दसों दिशाओं को प्रकाशमान करती हुई आकाश में चली गई और देव कार्य सिद्ध करके ब्रह्मा के सामने आई तो ब्रह्माजी ने प्रसन्नता से कहा कि हे चन्द्रवती मैंने तुमको सूर्य के रथ पर स्थान दिया. जब तक आकाश में सूर्य स्थित है नाना प्रकार के भोगों को भोगो. सो हे राजन! वह ब्राह्मणी अब भी सूर्य के रथ पर माघ मास स्नान के उत्तम भोगों को भोग रही है इसलिए श्रद्धावान पुरुषों को उत्तम गति पाने के लिए यत्न के साथ माघ मास में विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए।

माघ मास माहात्म्य- छठा अध्याय 

पूर्व समय में सतयुग के उत्तम निषेध नामक नगर में हेमकुंडल नाम वाला कुबेर के सदृश धनी वैश्य रहता था. जो कुलीन, अच्छे काम करने वाला, देवता, अग्नि और ब्राह्मण की पूजा करने वाला, खेती का काम करता था. वह गौ, घोड़े, भैंस आदि का पालन करता था. दूध, दही, छाछ, गोबर, घास, गुड़, चीनी आदि अनेक वस्तु बेचा करता था

जिससे उसने बहुत सा धन इकठ्ठा कर लिया था. जब वह बूढ़ा हो गया तो मृत्यु को निकट समझकर उसने धर्म के कार्य करने प्रारंभ कर दिए. भगवान विष्णु का मंदिर बनवाया. कुंआ, तालाब, बावड़ी, आम, पीपल आदि वृक्ष के तथा सुंदर बाग-बगीचे लगवाए. सूर्योदय से सूर्यास्त तक वह दान करता, गाँव के चारों तरफ जल की प्याऊ लगवाई. उसने सारे जन्म भर जितने भी पाप किए थे उनका प्रायश्चित करता था. इस प्रकार उसके दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनका नाम उसने कुंडल और विकुंडल रखा।

जब दोनों लड़के युवावस्था के हुए तो हेमकुंडल वैश्य गृहस्थी का सब कार्य सौंपकर तपस्या के निमित्त वन में चला गया और वहाँ विष्णु की आराधना में शरीर को सुखाकर अंत में विष्णु लोक को प्राप्त हुआ. उसके दोनों पुत्र लक्ष्मी के मद को प्राप्त होकर बुरे कर्मों में लग गए. वेश्यागामी वीणा और बाजे लेकर वेश्याओं के साथ गाते-फिरते थे. अच्छे सुंदर वस्त्र पहनकर सुगंधित तेल आदि लगाकर, भांड और खुशामदियों से घिरे हुए हाथी की सवारी और सुंदर घरों में रहते थे. इस प्रकार ऊपर बोए बीज के सदृश वह अपने धन को बुरे कामों में नष्ट करते थे. कभी किसी सत पात्र को दान आदि नहीं करते थे न ही कभी हवन, देवता या ब्रह्माजी की सेवा तथा विष्णु का पूजन ही करते थे ।

थोड़े दिनों में उनका सब धन नष्ट हो गया और वह दरिद्रता को प्राप्त होकर अत्यंत दुखी हो गए. भाई, जन, सेवक, उपजीवी सब इनको छोड़कर चले गए तब इन्होंने चोरी आदि करना आरंभ कर दिया और राजा के भय से नगर को छोड़कर डाकुओं के साथ वन में रहने लगे और वहाँ अपने तीक्ष्ण बाणों से वन के पक्षी, हिरण आदि पशु तथा हिंसक जीवों को मारकर खाने लगे. एक समय इनमें से एक पर्वत पर गाय जिसको सिंह मारकर खा गया और दूसरा वन को गया जो काले सर्प के डसने से मर गया तब यमराज के दूत उन दोनों को बाँधकर यम के पास लाए और कहने लगे कि महाराज इन दोनों पापियों के लिए क्या आज्ञा है ?

माघ मास महात्म्य सातवां अध्याय 

चित्रगुप्त ने उन दोनों के कर्मों की आलोचना करके दूतों से कहा कि बड़े भाई कुंडल को घोर नरक में डालो और दूसरे भाई विकुंडल को स्वर्ग में ले जाओ जहां उत्तम भोग हैं तब एक दूत तो कुंडल को नरक में फेंकने के लिए ले गया और दूसरा दूत बड़ी नम्रता से कहने लगा कि हे विकुंडल! चलो तुम अच्छे कर्मों से स्वर्ग को प्राप्त होकर अनेक प्रकार के भोगों को भोगों तब विकुंडल बड़े विस्मय के साथ मन में संशय धारकर दूत से कहने लगा कि

हे यमदूत! मेरे मन में बड़ी भारी शंका उत्पन्न हो गई है अतएव मैं तुमसे कुछ पूछता हूँ कृपा कर के मेरे प्रश्नों का उत्तर दो. हम दोनों भाई एक ही कुल में उत्पन्न हुए, एक जैसे ही कर्म करते रहे, दोनों भाइयों ने कभी कोई शुभ कार्य नहीं किया फिर एक को नरक क्यों और दूसरे को स्वर्ग किस कारण प्राप्त हुआ ?

मैं अपने स्वर्ग में आने का कोई कारण नहीं देखता तब यमदूत कहने लगा कि हे विकुंडल! माता-पिता, पुत्र, पत्नी, भाई, बहन से सब संबंध जन्म के कारण होते हैं और जन्म, कर्म को भोगने के लिए ही प्राप्त होता है. जिस प्रकार एक वृक्ष पर अनेक पक्षियों का आगमन होता है उसी तरह इस संसार में पुत्र, भाई, माता, पिता का भी संगम होता है.

इनमें से जो जैसे-जैसे कर्म करता है वैसे ही फल भोगता है. तुम्हारा भाई अपने पाप कर्मों से नरक में गया तुम अपने पुण्य कर्म के कारण स्वर्ग में जा रहे हो तब विकुंडल ने आश्चर्य से पूछा कि मैंने तो आजन्म कोई धर्म का कार्य नहीं किया सदैव पापों में ही लगा रहा. मैं अपने पुण्य के कर्म को नहीं जानता, यदि तुम मेरे पुण्य के कर्म को जानते हो तो कृपा कर के बताइए तब देवदूत कहने लगा कि मैं सब प्राणियों को भली-भाँति जानता हूँ, तुम नहीं जानते

सुनो, हरिमित्र का पुत्र सुमित्र नाम का ब्राह्मण था जिसका आश्रम यमुना नदी के दक्षिणोत्तर दिशा में था. उसके साथ जंगल में ही तुम्हारी मित्रता हो गई और उसके साथ तुमने दो बार माघ मास में श्री यमुना जी में स्नान किया था. पहली बार स्नान करने से तुम्हारे सब पाप नष्ट हो गए और दूसरी बार स्नान करने से तुमको स्वर्ग प्राप्त हुआ. सो हे वैश्यवर! तुमने दो बार माघ मास में स्नान किया इसी के पुण्य के फल से तुमको स्वर्ग प्राप्त हुआ और तुम्हारा भाई नरक को प्राप्त हुआ.

दत्तात्रेय जी कहने लगे कि इस प्रकार वह भाई के दुखों से अति दुखित होकर नम्रतापूर्वक मीठे वचनों से दूतों से कहने लगा कि हे दूतों! सज्जन पुरुषों के साथ सात पग चलने से मित्रता हो जाती है और यह कल्याणकारी होती है. मित्र प्रेम की चिंता न करते हुए तुम मुझको इतना बताने की कृपा करो कि कौन-से कर्म से मनुष्य यमलोक को प्राप्त नहीं होता क्योंकि तुम सर्वज्ञ हो।

माघ मास माहात्म्य- आठवाँ अध्याय 

यमदूत कहने लगा कि तुमने बड़ी सुंदर वार्ता पूछी है. यद्यपि मैं पराधीन हूँ फिर भी तुम्हारे स्नेहवश अपनी बुद्धि के अनुसार बतलाता हूँ. जो प्राणी काया, वाचा और मनसा से कभी दूसरों को दुख नहीं देते वे यमलोक में नहीं जाते. हिंसा करने वाले, वेद, यज्ञ, तप और दान से भी उत्तम गति को नहीं पाते. अहिंसा सबसे बड़ा धर्म, तप और दान ऋषियों ने बताया है. जो मनुष्य जल या पृथ्वी पर रहने वाले जीवों को अपने भोजन के लिए मारते हैं वे कालसूत्र नामक नर्क में पड़ते हैं और वहाँ पर अपना माँस खाते हैं और रक्त-पीप पान करते हैं तथा पीप की कीच में उनको कीड़े काटते हैं. हिंसक, जन्मांध, काने-कुबड़े, लूले, लंगड़े, दरिद्र और अंगहीन होते हैं. इस कारण इस लोक तथा परलोक में सुख की इच्छा करने वाले को काया, वाचा तथा मन में दूसरों का द्रोह नहीं करना चाहिए।

जो हिंसा नहीं करते उनको किसी प्रकार का भय नहीं होता. जिस तरह सीधी और टेढ़ी दोनों प्रकार की बहने वाली नदियाँ समुद्र में मिल जाती हैं वैसे ही सब धर्म अहिंसा में प्रवेश कर जाते हैं. ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी तथा यति सभी अपने-अपने धर्म का पालन करने और जितेन्द्रिय रहने से ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं. जो जलाशय आदि बनाते हैं और सदैव पांचों यज्ञ करते हैं वे यमपुरी में नहीं जाते. जो इंद्रियों के वशीभूत नहीं हैं, वेदवादी और नित्य ही अग्नि अर्थात हवन आदि का पूजन करते हैं वे स्वर्ग को जाते हैं. युद्ध भूमि में जो शूरवीर मर जाते हैं वे सूर्यलोक को प्राप्त होते हैं. जो अनाथ, स्त्री, शरण में आए हुए तथा ब्राह्मण की रक्षा के लिए प्राण देते हैं

वे कभी स्वर्ग से नहीं लौटते। जो मनुष्य लूले-लंगड़े, वृद्ध, अनाथ तथा गरीबों का पालन करते हैं वह भी स्वर्ग में जाते हैं. जो मनुष्य गौओं के लिए पानी का आश्रय करते हैं तथा कुंआ, तालाब और बावड़ी बनवाते हैं वे सदैव स्वर्ग में निवास करते हैं. जैसे-जैसे जीव इनमें पानी पीते हैं वैसे ही उनका धर्म बढ़ता है. जल से ही मनुष्य के प्राण हैं इसलिए जो प्याऊ आदि लागते हैं वह अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होते हैं. बड़े-बड़े यज्ञ भी वह फल नहीं देते जो अधिक छाया वाले वृक्ष मार्ग में लगाने से देते हैं. जो मनुष्य वृक्ष रोपण करता है वह सदैव दानी और यज्ञ करने वाला होता है. जो अच्छे फल और अच्छी छाया वाले मार्ग के वृक्षों को काटता है वह नर्कगामी होता है.

तुलसी का पौधा लगाने वाला सब पापों से छूट जाता है. जिस घर में तुलसीवन है वह घर तीर्थ के समान है और उस घर में कभी यमदूत नहीं जाते. तुलसी की सुगंध से पितरों का चित्त आनंदित हो जाता है और वे विमान में बैठकर विष्णुलोक को जाते हैं।

नर्मदा नदी का दर्शन, गंगा का स्नान और तुलसीदल का स्पर्श यह सब बराबर-बराबर फल देने वाले हैं. हर एक द्वादशी को ब्रह्मा भी तुलसी का पूजन करते हैं. रत्न, सोना, फूल तथा मोती की माला के दान का इतना पुण्य नहीं जितना तुलसी की माला के दान का है. जो फल आम के हजार और पीपल के सौ वृक्षों को लगाने से होता है

वह तुलसी के एक पौधे के लगाने से होता है. पुष्कर आदि तीर्थ, गंगा आदि नदी, वासुदेव आदि देवता सब ही तुलसी में वास करते हैं. जो एक बार, दो या तीन बार रेवा नदी से उत्पन्न शिव मूर्त्ति की पूजा करता है अथवा स्फुटिक रत्न के पत्थर के आप से आप निकले हुए तीर्थ में पर्वत या वन में रखी हुई शिव की मूर्त्ति की पूजा करता है और सदैव “ऊँ नम: शिवाय” मंत्र का जाप करता है, यमलोक की कथा भी नहीं सुनता. प्रसंग, शत्रुता, अभिमान से शिव पूजा के समान पापों को नष्ट करने वाला तथा कीर्त्ति देने वाला तीन लोक में और कोई काम नहीं हैं।

जो शिवालय स्थापित करते हैं वे शिवलोक में जाते हैं. ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का मंदिर बनाकर मनुष्य बैकुंठवासी होता है. जो भगवान की पूजा के लिए फूलों का बाग लगाते हैं वे धन्य हैं. जो माता-पिता, देवता और अतिथियों का सदैव पूजन करते हैं वे ब्रह्म लोक को प्राप्त होते हैं ।

माघ मास महात्म्य नवाँ अध्याय 

यमदूत कहने लगे मध्यान्ह के समय आया अतिथि, मूर्ख, पंडित, वेदपाठी या पापी कोई भी हो ब्रह्म के समान है. जो रात्रि के थके हुए भूखे ब्राह्मण को अन्न-जल देता है, मध्यान्ह के समय जिसके घर आता हुआ अतिथि निराश नहीं जाता वह स्वर्ग का वासी होता है. अतिथि बराबर कोई धन-सम्पत्ति तथा हित नहीं है. बहुत से राजा और मुनि अतिथि सत्कार से ब्रह्म लोक को प्राप्त हुए हैं।

जो एक समय आलस्य से भी अतिथि को भोजन करा दे वह यमद्वार नहीं देखता. केशरी ध्वज से वैवस्वत देव ने कहा था कि जो कोई इस कर्मभूमि मृत्युलोक से स्वर्गलोक जाने की इच्छा रखता हो वह अन्न का दान करे. दूत कहता है कि यमराज कहते हैं अन्न के बराबर दूसरा ओर कोई दान नहीं है. जो गर्मियों में जल, सर्दी में ईंधन और सदैव अन्न का दान करते हैं वह कभी यम के दुख नहीं उठाते. जो अपने किए हुए पापों का प्रायश्चित करता है वह नर्क को नहीं देखता और प्रायश्चित न करने वाला मनुष्य नरक में जाता है. जो काया, वाचा और मन से किए हुए पापों का प्रायश्चित करता है

वह देव और गंधर्वों से शोभित स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। जो नित्य ही व्रत, तप, तीर्थ करते हैं और जितेन्द्रिय हैं वह भयंकर यम को नही देखते हैं. नित्य धर्म करने वाला दूसरे का अन्न, भोजन और दान त्याग दे. नित्य स्नान करने से बड़े-बड़े पाप नाश होकर यम को नहीं देखता. बिना स्नान पवित्रता कैसे हो सकती है? जो मनुष्य पर्व के समय चलते जल में स्नान करते हैं वह बुरी योनि नहीं पाते, न ही नरक में जाते हैं।

माघ मास में प्रात: स्नान करने वाले मनुष्यों को नियमपूर्वक तिल, पात्र और तिल कमल का दान करना चाहिए. यमदूत कहते हैं कि हे विकुंडल! पृथ्वी, सोना, गौ आदि परम दान करने वाला स्वर्ग से नहीं लौटता. बुद्धिमान, पुण्य तिथियों, व्यतिपात, संक्रांति आदि को थोड़ा-सा दान करके भी बुरी गति को नहीं प्राप्त होता. सत्यवादी, मौन रहने वाला, मीठा बोलने वाला, क्षमाशील, नीतिवान, किसी की निंदा न करने वाला, सब प्राणियों पर दया करने वाला, पराये धन को तृण के समान समझने वाला मनुष्य कभी नर्क को नहीं भोगता।

माघ मास महात्म्य- अध्याय दसवा 

यमदूत कहने लगे कि हे वैश्य एक बार भी गंगाजी में स्नान करने से मनुष्य सब पापों से छूटकर अत्यंत शुद्ध हो जाता है. जो मनुष्य गंगाजी को दूसरे तीर्थों के समान समझता है वह अवश्य नर्क में जाता है. भगवान के चरणों से उत्पन्न हुई गंगाजी के पवित्र जल को श्रीशिवजी अपने मस्तक में धारण करते हैं. वह ब्रह्मा जो संदेहरहित प्रकृति से अलग और निर्गुण हैं ब्रह्माण्ड में उसकी समानता किससे हो सकती है. गंगाजी का नाम हजारों योजन दूर से ही लेने वाला नर्क में नहीं जाता इसलिए मनुष्य को अवश्यमेव गंगाजी में स्नान करना चाहिए.

हे वैश्य जो ब्राह्मण दान लेने का अधिकारी होकर भी दान नहीं लेता वह आकाश के नक्षत्रों में चंद्रमा के समान है. जो कीचड़ से गौ को निकालता है, जो रोगी की रक्षा करता है या जो गौशाला में मरता है वह आकाश में तारा होता है. प्राणायाम करने वाले मनुष्य सदैव उत्तम गति को प्राप्त होते हैं. प्रात: समय स्नान के पश्चात जो सोलह प्राणायाम करते हैं वह घोर पापों से बच जाते हैं. जो पराई स्त्री को माता समान मानते हैं वह यम की यातना को नहीं भोगते.

जो मन से भी कभी पर-स्त्री का चिंतन नहीं करता वह दोनों लोकों को अपने आधीन करता है. जो पराये धन को मिट्टी के समान समझता है वह स्वर्ग में जाता है. जिसने क्रोध को जीत लिया मानो उसने स्वर्ग को ही जीत लिया. जो माता-पिता की सेवा देवता तुल्य करता है वह यमद्वार नहीं देखता और जो गुरु की सेवा करते हैं वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं. शील की रक्षा करने वाली स्त्री धन्य है. शील भंग करने वाली स्त्री यमलोक जाती है. जो वेदों और शास्त्रों को पढ़ते हैं या पुराण और संहिता पढ़ते और सुनते हैं तथा जो स्मृति का व्याख्यान और धर्मशास्त्र समझते हैं या जो वेदांत में लीन रहते हैं वह पापरहित होकर ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं.

जो अज्ञानियों को वेदशास्त्र का ज्ञान देते हैं वे देवताओं से भी पूजित होते हैं. यमदूत ने कहा कि वैश्य श्रेष्ठ यमराज ने हमको वही आज्ञा दे रखी है कि तुम किसी वैष्णव को मेरे पास मत लाओ. हे वैश्य्! पापी लोगों को इस संसार रुपी नर्क को पार करने के लिए भगवान की भक्ति के सिवाय दूसरा ओर कोई उपाय नहीं. भगवान की भक्ति न करने वाले मनुष्य को चांडाल के समान समझना चाहिए

भगवान के भक्त अपने माता-पिता दोनों के कुलों को तार देते हैं और उनको नर्क में नहीं रहने देते और जो मनुष्य वैष्णव का भोजन करते हैं वे भी भगवान की कृपा से श्रेष्ठ गति को प्राप्त होते हैं. बुद्धिमान को सदैव वैष्णव का अन्न खाना चाहिए. इससे बुद्धि पवित्र होकर मनुष्य पाप नहीं करता.

गोविंदाय नम: इस मंत्र का जाप करता हुआ जो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है वह परम धाम को प्राप्त होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है. जो ऊँ नम: भगवते वासुदेवाय: मनमोनारायण इस द्वादशाक्षर मंत्र या ऊँ अष्टाक्षर मंत्र का जाप करता है उसके ब्रह्म इत्यादि बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं.

इति श्री माघ मास माहात्म्य दसवाँ अध्याय समाप्त।।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। 

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