Bhagavad Gita Quotes By Lord Krishna
Bhagavad Gita was told by Lord Krishna to Arjuna as an advise of what’s right and wrong when Arjuna was hesitant to go to war against his own cousins, the Kauravas. The events that led to this war are described in the Mahabharata, a 200 thousand verses long epic by sage Vyasa. Bhagavad Gita is a 700 verse epic divided into 18 chapters.
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥
(अध्याय 5, श्लोक 23, श्रीमद्भगवद्गीता)
भावार्थ: जो मनुष्य इसी लोक में शरीर त्यागने के पूर्व ही काम और क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को सहन करने में समर्थ है वह योगी और सुखी मनुष्य है।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
( अध्याय 4, श्लोक 38, श्रीमद्भगवद्गीता)
भावार्थ: इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है।
अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥
( अध्याय 8, श्लोक 5, श्रीमद्भगवद्गीता )
भावार्थ: जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है ।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
( CHAPTER 2, VERSE 27, श्रीमद्भगवद्गीता )
MEANING : Death is certain for the born, and re-birth is certain for therefore you should not feel grief for what is inevitable.
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥
( CHAPTER 3, VERSE 27, श्रीमद्भगवद्गीता)
MEANING :In fact all actions are being performed by the modes of Prakruti. The fool, whose mind is deluded by egoism, thinks: “I am the doer.”
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 63, श्रीमद्भगवद्गीता)
भावार्थः क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है यानी मूढ़ हो जाती है जिससे स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद अपना ही का नाश कर बैठता है।
श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 39, श्रीमद्भगवद्गीता)
भावार्थ: श्रद्धा रखने वाले मनुष्य, अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने वाले मनुष्य, साधनपारायण हो अपनी तत्परता से ज्ञान प्राप्त कते हैं, फिर ज्ञान मिल जाने पर जल्द ही परम-शान्ति को प्राप्त होते हैं।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ||
( अध्याय 5, श्लोक 10, श्रीमद्भगवद्गीता )
भावार्थः जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।।
( षोड़शः अध्याय, श्लोक 21, श्रीमद्भगवद्गीता )
भावार्थ: काम क्रोध और लोभ-ये तीन प्रकारके नरक के दरवाजे जीवात्मा का पतन करने वाले हैं। इसलिये मनुष्य को शांति पूर्वक जीवन जीने के लिए इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये।
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
( अध्याय 2, श्लोक 55, श्रीमद्भगवद्गीता )
भावार्थ: हे पार्थ जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है, उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः । सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः सा उच्यते ॥
( अध्याय 14, श्लोक 25, श्रीमद्भगवद्गीता )
भावार्थ: जो मान और अपमान में सम है, मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता हूँ ।
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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 47, श्रीमद्भगवद्गीता)
भावार्थ: कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, लेकिन कर्म के फलों में कभी नहीं.. इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो और न ही काम करने में तुम्हारी आसक्ति हो
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
(CHAPTER 2, VERSE 71, श्रीमद्भगवद्गीता)
MEANING : That man attains peace who, abandoning all desires, moves about without longing, without the sense of mine and without egoism.
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥
( अध्याय 2, श्लोक 56, श्रीमद्भगवद्गीता )
भावार्थ: दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है, जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥
( CHAPTER 3, VERSE 42, श्रीमद्भगवद्गीता)
MEANING : The senses are superior to the gross body, and superior to the senses is the mind. Beyond the mind is the intellect, and even beyond the intellect is the soul.
नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी ।
कैवल्यं इव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम् ॥
( अध्याय 11, श्लोक 6, श्रीमद्भगवद्गीता )
भावार्थ: न मैं यह शरीर हूँ और न यह शरीर मेरा है, मैं ज्ञानस्वरुप हूँ, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला जीवन मुक्ति को प्राप्त करता है। वह किये हुए और न किये हुए कर्मों का स्मरण नहीं करता है ।
नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 23, श्रीमद्भगवद्गीता)
भावार्थ: आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है।
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥
( CHAPTER 3, VERSE 19, श्रीमद्भगवद्गीता)
MEANING : Go on efficiently doing your duty at all times without attachment. Doing work without attachment man attains the Supreme.
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः॥
( अध्याय 6, श्लोक 8, श्रीमद्भगवद्गीता)
भावार्थ: जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकाररहित है, जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान हैं, वह योगी युक्त अर्थात भगवत्प्राप्त है, ऐसे कहा जाता है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
(अठारहवां अध्याय, श्लोक 66, श्रीमद्भगवद्गीता)
भावार्थ: सभी धर्मों को त्याग कर अर्थात हर आश्रय को त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिला दूंगा, इसलिए शोक मत करो।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 62, श्रीमद्भगवद्गीता)
भावार्थ: विषयों के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है ।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥
( अध्याय 16, श्लोक 7, श्रीमद्भगवद्गीता )
भावार्थ: आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति- इन दोनों को ही नहीं जानते। इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है।
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 8, श्रीमद्भगवद्गीता)
भावार्थ: सज्जन पुरुषों के कल्याण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए.. और धर्म की स्थापना के लिए मैं युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 7, श्रीमद्भगवद्गीता)
भावार्थ: हे भारत, जब-जब धर्म ग्लानि यानी उसका लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।
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Om namo bhagvate vashudevaye namaha namaha 🙏🙏