मैहर देवी का मंदिर: ये है माँ शारदा का इकलौता मंदिर 

मां हमेशा ऊंचे स्थानों पर विराजमान होती हैं। उत्तर में जैसे लोग मां दुर्गा के दर्शन के लिए पहाड़ों को पार करते हुए वैष्णो देवी तक पहुंचते हैं। ठीक उसी तरह मध्य प्रदेश के सतना जिले में भी 1063 सीढ़ियां लांघ कर माता के दर्शन करने जाते हैं। सतना जिले की मैहर तहसील के पास त्रिकूट पर्वत पर स्थित माता के इस मंदिर को मैहर देवी का मंदिर कहा जाता है।

यहां पर सर्वप्रथम आदि गुरु शंकराचार्य ने 9वीं-10वीं शताब्दी में पूजा-अर्चना की थी। इस मंदिर का अपना ऐतिहासिक महत्व भी है। माता शारदा की मूर्ति की स्थापना विक्रम संवत 559 में की गई थी। मूर्ति पर देवनागरी लिपि में शिलालेख भी अंकित है। इसमें बताया गया है कि सरस्वती के पुत्र दामोदर ही कलियुग के व्यास मुनि कहे जाएंगे। दुनिया के जाने-माने इतिहासकार ए कनिंग्घम ने इस मंदिर पर विस्तार से शोध किया है। इस मंदिर में प्राचीन काल से ही बलि देने की प्रथा चली आ रही थी, लेकिन 1922 में सतना के राजा ब्रजनाथ जूदेव ने पशु बलि को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया।

मैहर का मतलब है मां का हार। मैहर नगरी से 5 किलोमीटर दूर त्रिकूट पर्वत पर माता शारदा देवी का वास है। पर्वत की चोटी के मध्य में ही शारदा माता का मंदिर है। पूरे भारत में सतना का मैहर मंदिर माता शारदा का अकेला मंदिर है। इसी पर्वत की चोटी पर माता के साथ ही श्री काल भैरवी, भगवान, हनुमान जी, देवी काली, दुर्गा, श्री गौरी शंकर, शेष नाग, फूलमति माता, ब्रह्म देव और जलापा देवी की भी पूजा की जाती है।

जानें शारदा मां की ये तीन कथाएं 

1- सबसे पहले आल्हा-उदल करते हैं माई की पूजा

मैहर मंदिर को लेकर कई लोककथाएं प्रचलित हैं। इसमें एक है मां शारदा के अनन्य भक्त आल्हा और उदल की। कहा जाता है कि आल्हा-उदल को मां ने अमरत्व का वरदान दिया था। मैहर मंदिर में हर रात को आल्हा और उदल नाम के दो चिरंजीवी दर्शन करने आते हैं अर्थात माई की सबसे पहले पूजा आल्हा और उदल ही करते हैं। अभी भी मां का पहला श्रृंगार आल्हा ही करता हैं और जब ब्रह्म मुहूर्त में शारदा मंदिर के पट खोले जाते हैं तो पूजा की हुई मिलती है।

मंदिर के पुजारी बताते हैं, महोबा निवासी दो वीर योद्धा भाई आल्हा और उदल 800 वर्ष पूर्व हुआ करते थे। उन्होंने पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध किया था और मोहम्मद गौरी को भी चुनौती दी थी। दक्षराज और देवल देवी के बड़े पुत्र आल्हा को पौराणिक परंपराओं में युधिष्ठिर का अवतार माना गया है, जिनका जन्म सामंती काल में हुआ था। सबसे पहले जंगलों के बीच मां शारदा देवी के मंदिर की खोज आल्हा ने की थी। आल्हा ने इस मंदिर में 12 वर्षों तक तपस्या कर देवी को प्रसन्न किया था।

2- ग्वाले को सबसे पहले दिखीं थीं मां शारदा

एक कथा कुछ ऐसी है कि 200 वर्ष पहले मैहर में महाराज दुर्जन सिंह जूदेव राज्य करते थे। उन्हीं के राज्य का एक ग्वाला गाय चराने के लिए जंगल में आया करता था। इस घनघोर भयावह जंगल में दिन में भी रात जैसा अंधेरा छाया रहता था। एक दिन उसने देखा कि उन्हीं गायों के साथ एक सुनहरी गाय चल रही है। शाम होते ही वह अचानक लुप्त हो गई। दूसरे दिन जब वह इस पहाड़ी पर गायें लेकर आया तो फिर वही गाय इन गायों के साथ मिलकर घास चर रही थी। तब उसने निश्चय किया कि शाम को जब यह गाय वापस जाएगी, उसके पीछे-पीछे जाऊंगा। गाय का पीछा कर रहे ग्वाले ने देखा कि वह ऊपर पहाड़ी की चोंटी में स्थित एक गुफा में चली गई और उसके अंदर जाते ही गुफा का द्वार बंद हो गया।

ग्वाला बेचारा गाय के इंतजार में गुफा के द्वार पर बैठ गया। उसे पता नहीं कि कितनी देर के बाद गुफा का द्वार खुला और एक बूढ़ी मां के दर्शन हुए। तब ग्वाले ने उस बूढ़ी माता से कहा कि माई मैं आपकी गाय को चराता हूं, इसलिए मुझे पेट के वास्ते कुछ मिल जाए। बूढ़ी माता अंदर गई और लकड़ी के सूप में जौ के दाने उस ग्वाले को दिए ग्वाले ने घर में जब उस जौ के दाने वाली गठरी खोली तो हीरे-मोती चमक रहे थे। इसके बाद ग्वाले ने आपबीती महाराजा को सुनाई। राजा ने दूसरे दिन वहां जाने का ऐलान किया। रात में राजा को स्वप्न में ग्वाले द्वारा बताई बूढ़ी माता के दर्शन हुए और आभास हुआ कि आदि शक्ति मां शारदा है।

3- मैहर में गिरा था सती का हार, इसीलिए नाम पड़ा मैहर

मैहर की एक कहानी और है। माना जाता है कि दक्ष प्रजापति की पुत्री सती शिव से विवाह करना चाहती थीं। उनकी यह इच्छा राजा दक्ष को मंजूर नहीं थी। फिर भी सती ने अपनी जिद पर भगवान शिव से विवाह कर लिया। एक बार राजा दक्ष ने यज्ञ करवाया। उस यज्ञ में बह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन जमाता भगवान शंकर को नहीं बुलाया। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकरजी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा। इस पर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को अपशब्द कहे। अपमान से दुखी होकर सती ने यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी।

भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला, तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। ब्रह्मांड की भलाई के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को 52 भागों में विभाजित कर दिया। जहां भी सती के अंग गिरे, वहां शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिवजी को फिर से पति रूप में प्राप्त किया। माना जाता है कि यहां मां का हार गिरा था। इसलिए भक्तों की आस्था दिन प्रतिदिन बड़ रही है

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