श्री दुर्गासप्तशती पाठ चतुर्थ अध्याय अर्थ सहित (हिंदी अनुवाद सहित सम्पूर्ण)

दुर्गा सप्तशती का चौथा अध्याय माँ की भक्ति प्राप्त करने के लिए उनकी शक्ति उनकी ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए और उनके दर्शनों के लिए सर्वोत्तम है। वैसे तो इस ग्रंथ के हर अध्याय के हर शब्द में माँ की ऊर्जा निहित है। फिर भी माँ की निष्काम भक्ति महसूस करने के लिए और दर्शनों के लिए यह अध्याय सर्वश्रेष्ठ जान पड़ता है। 

चतुर्थोऽध्यायः

इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति

ध्यानम्

ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैरिकुलभयदां मौलिबद्धन्दुरेखां।

शङ्कं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्।

सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं

ध्यायेद् दुर्गा जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः॥

सिद्धिकी इच्छा रखनेवाले पुरुष जिनकी सेवा करते हैं तथा देवता जिन्हें सब ओर से घेरे रहते हैं, उन ‘जया’ नामवाली दुर्गादेवी का ध्यान करे। उनके श्रीअंगों की आभा काले मेघ के समान श्याम है। वे अपने कटाक्षों से शत्रुसमूह को भय प्रदान करती हैं। उनके मस्तक पर आबद्ध चन्द्रमा की रेखा शोभा पाती है। वे अपने हाथों में शंख, चक्र, कृपाण और त्रिशूल धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वे सिंह के कंधे पर चढ़ी हुई हैं और अपने तेज से तीनों लोकों को परिपूर्ण कर रही हैं।

ॐ’ ऋषिरुवाच ॥ १ ॥

ऋषि कहते हैं-॥ १ ॥

शक्रादयः सुरगणा निहतेऽतिवीर्ये

तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या ।

तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा।

वाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहाः ॥ २॥

अत्यन्त पराक्रमी दुरात्मा महिषासुर तथा उसकी दैत्य-सेना के देवी के हाथ से मारे जाने पर इन्द्र आदि देवता प्रणाम के लिये गर्दन तथा कंधे झुकाकर उन भगवती दुर्गा का उत्तम वचनों द्वारा स्तवन करने लगे उस समय उनके सुन्दर अंगों में अत्यन्त हर्ष के कारण रोमांच हो आया था॥ १-२ ॥

देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या

निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूत्या

तामम्बिकामखिलदेवमह्र्षिपूज्यां

भक्त्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा नः ॥ ३ ॥

देवता बोले ‘सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति का समुदाय ही जिनका स्वरूप है तथा जिन देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है, समस्त देवताओं और महर्षियों की पूजनीया उन जगदम्बा को हम भक्ति-पूर्वक नमस्कार करते हैं । वे हम लोगों का कल्याण करें ॥ ३ ॥

यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो

ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च।

सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय

नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु ॥ ४ ॥

जिनके अनुपम प्रभाव और बल का वर्णन करने में भगवान् शेषनाग, ब्रह्माजी तथा महादेव जी भी समर्थ नहीं हैं, वे भगवती चण्डिका सम्पूर्ण जगत् का पालन एवं अशुभ भय का नाश करनेका विचार करें ॥ ४ ॥ 

या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः

पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः।

श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा

तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम्॥ ५॥

जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मी रूप से, पापियों के यहाँ दरिद्रतारूपसे, शुद्ध अन्तःकरण वाले पुरुषों के हृदय में बुद्धि रूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धारूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जा रूप से निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं । देवि आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिये ॥ ५ ॥

किं वर्णयाम तव रूपमचिन्त्यमेतत् किं चातिवीर्यमसुरक्षयकारि भूरि। किं चाहवेषु चरितानि तवाद्भुतानि

सर्वेषु देव्यसुरदेवगणादिकेषु॥ ६॥

देवि आपके इस अचिन्त्य रूप का, असुरों का नाश करने वाले भारी पराक्रम का तथा समस्त देवताओं और दैत्यों के समक्ष युद्ध में प्रकट किये हुए आपके अद्भुत चरित्रों का हम किस प्रकार वर्णन करें ॥ ६ ॥

हेतुः समस्तजगतां त्रिगुणापि दोषै-

र्न ज्ञायसे हरिहरादिभिरप्यपारा ।

सर्वाश्रयाखिलमिदं जगदंशभूत-

मव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या ॥ ७ ॥

आप सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति में कारण हैं। आप में सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- ये तीनों गुण मौजूद हैं; तो भी दोषों के साथ आपका संसर्ग नहीं जान पड़ता। भगवान् विष्णु और महादेवजी आदि देवता भी आपका पार नहीं पाते। आप ही सबका आश्रय हैं। यह समस्त जगत् आपका अंशभूत है; क्योंकि आप सबकी आदिभूत अव्याकृता परा प्रकृति हैं॥ ७॥ 

यस्याः समस्तसुरता समुदीरणेन

तृप्तिं प्रयाति सकलेषु मखेषु देवि ।

स्वाहासि वै पितृगणस्य च तृप्तिहेतु-

रुच्चार्यसे त्वमत एव जनैः स्वधा च॥ ८॥

देवि सम्पूर्ण यज्ञों में जिसके उच्चारण से सब देवता तृप्ति लाभ करते हैं, वह स्वाहा आप ही हैं। इसके अतिरिक्त आप पितरों की भी तृप्ति का कारण हैं, अतएव सब लोग आपको स्वधा भी कहते हैं ८॥

या मुक्तिहेतुरविचिन्त्यमहाव्रता त्व-

मभ्यस्यसे सुनियतेन्द्रियतत्त्वसारैः ।

मोक्षार्थिभर्मुनिभिरस्तसमस्तदोषै-

र्विद्यासि सा भगवती परमा हि देवि ॥ ९ ॥

देवि जो मोक्ष की प्राप्ति का साधन है, अचिन्त्य महाव्रतस्वरूपा है, समस्त दोषों से रहित, जितेन्द्रिय, तत्त्वको ही सार वस्तु मानने वाले तथा मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले मुनिजन जिसका अभ्यास करते हैं, वह भगवती परा विद्या आप ही हैं॥ ९॥

शब्दात्मिका सुविमलग्ग्यजुषां निधान-

मुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम् ।

देवी त्रयी भगवती भवभावनाय

वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री॥ १०॥

आप शब्दस्वरूपा हैं, अत्यन्त निर्मल ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा उद्गीथ के मनोहर पदों के पाठ से युक्त सामवेद का भी आधार आप ही हैं। आप देवी, त्रयी (तीनों वेद) और भगवती (छहों ऐश्वर्यों से युक्त) हैं । इस विश्व की उत्पत्ति एवं पालन के लिये आप ही वार्ता (खेती एवं आजीविका) के रूप में प्रकट हुई हैं। आप सम्पूर्ण जगत् की घोर पीड़ा का नाश करने वाली हैं ॥ १० ॥

मेधासि देवि विदिताखिलशास्त्रसारा

दुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसङ्गा।

श्रीः कैटभारिहृदयैककृताधिवासा

गौरी त्वमेव शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा ॥ ११ ॥

देवि जिससे समस्त शास्त्रों के सार का ज्ञान होता है, वह मेधाशक्ति आप ही हैं। दुर्गम भवसागर से पार उतारने वाली नौका रूप दुर्गादेवी भी आप ही हैं। आपकी कहीं भी आसक्ति नहीं है कैटभ के शत्रु भगवान् विष्णु के वक्ष:स्थल में एकमात्र निवास करने वाली भगवती लक्ष्मी तथा भगवान् चन्द्रशेखर द्वारा सम्मानित गौरी देवी भी आप ही हैं ॥ ११ ॥

ईषत्सहासममलं परिपूर्णचन्द्र-

बिम्बानुकारि कनकोत्तमकान्तिकान्तम्।

अत्यद्भुतं प्रहृतमात्तरुषा तथापि

वक्त्रं विलोक्य सहसा महिषासुरेण॥ १२॥

आपका मुख मन्द मुसकान से सुशोभित, निर्मल, पूर्ण चन्द्रमा के बिम्ब का अनुकरण करने वाला और उत्तम सुवर्ण की मनोहर कान्ति से कमनीय है; तो भी उसे देखकर महिषासुर को क्रोध हुआ और सहसा उसने उसपर प्रहार कर दिया, यह बड़े आश्चर्यकी बात है॥ १२ ॥

दृष्ट्वा तु देवि कुपितं भ्रुकुटीकराल-

मुद्यच्छशाङ्कसदृशच्छवि यन्न सद्यः।

प्राणान्मुमोच महिषस्तदतीव चित्रं

कैर्जीव्यते हि कुपितान्तकदर्शनेन॥ १३ ॥

देवि वही मुख जब क्रोध से युक्त होने पर उदयकाल के चन्द्रमा की भाँति लाल और तनी हुई भौंहों के कारण विकराल हो उठा, तब उसे देखकर जो महिषासुर के प्राण तुरंत नहीं निकल गये, यह उससे भी बढ़कर आश्चर्य की बात है; क्योंकि क्रोध में भरे हुए यमराज को देखकर भला, कौन जीवित रह सकता है? ॥ १३॥

देवि प्रसीद परमा भवती भवाय

सद्यो विनाशयसि कोपवती कुलानि।

विज्ञातमेतदधुनैव यदस्तमेत-

नीतं बलं सुविपुलं महिषासुरस्य ॥ १४॥

देवि आप प्रसन्न हों। परमात्म स्वरूपा आपके प्रसन्न होने पर जगत् का अभ्युदय होता है और क्रोध में भर जाने पर आप तत्काल ही.. कितने कुलों का सर्वनाश कर डालती हैं, यह बात अभी अनुभव में आयी है; क्योंकि महिषासुर की यह विशाल सेना क्षणभर में आपके कोप से नष्ट हो गयी है॥ १४॥

ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां

तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः ।

धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा

येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना॥ १५॥

सदा अभ्युदय प्रदान करने वाली आप जिन पर प्रसन्न रहती हैं, वे ही देश में सम्मानित हैं, उन्हीं को धन और यश की प्राप्ति होती है, उन्हीं का धर्म कभी शिथिल नहीं होता तथा वे ही अपने हृष्ट-पुष्ट स्त्री, पुत्र और भृत्यों के साथ धन्य माने जाते हैं । १५ ॥

धम्म्याणि देवि सकलानि सदैव कर्मा-

ण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति।

स्वर्गं प्रयाति च ततो भवतीप्रसादा-

ल्लोकत्रयेऽपि फलदा ननु देवि तेन॥ १६॥

देवि आपकी ही कृपा से पुण्यात्मा पुरुष प्रतिदिन अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सदा सब प्रकार के धर्मानुकूल कर्म करता है और उसके प्रभाव से स्वर्गलोक में जाता है; इसलिये आप तीनों लोकों में निश्चय ही मनोवांछित फल देनेवाली हैं ॥ १६ ॥

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः

स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।

दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या

सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽद्द्रचित्ता ॥ १७॥

माँ दुर्गे आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दुःख, दरिद्रता और भय हरने वाली देवि आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करनेके लिये सदा ही दयाद्द्र रहता हो ॥ १७ ॥

एभिर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते

कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम्।

संग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु

मत्वेति नूनमहितान् विनिहंसि देवि ॥ १८ ॥

देवि इन राक्षसों के मारने से संसार को सुख मिले तथा ये राक्षस चिरकाल तक नरक में रहने के लिये भले ही पाप करते रहे हों, इस समय संग्राम में मृत्यु को प्राप्त होकर स्वर्गलोक में जायँ- निश्चय ही यही सोचकर आप शत्रुओं का वध करती हैं॥ १८॥ 

दृष्ट्वैव किं न भवती प्रकरोति भस्म

सर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम्।

लोकान् प्रयान्तु रिपर्वोऽपि हि शस्त्रपूता

इत्थं मतिर्भवति तेष्वपि तेऽतिसाध्वी ॥ १९ ॥

आप शत्रुओं पर शस्त्रों का प्रहार क्यों करती हैं? समस्त असुरों को दृष्टिपात मात्र से ही भस्म क्यों नहीं कर देतीं? इसमें एक रहस्य है। ये शत्रु भी हमारे शस्त्रों से पवित्र होकर उत्तम लोकों में जायँ- इस प्रकार उनके प्रति भी आपका विचार अत्यन्त उत्तम रहता है॥ १९॥

खङ्गप्रभानिकरविस्फुरणैस्तथोग्रैः

शूलाग्रकान्तिनिवहेन दृशोऽसुराणाम् ।

यन्नागता विलयमंशुमदिन्दुखण्ड-

योग्याननं तव विलोकयतां तदेतत्॥ २०॥

खड्ग के तेज:पुंज की भयंकर दीप्ति से तथा आपके त्रिशूल के अग्रभाग की घनीभूत प्रभा से चौंधियाकर जो असुरों की आँखें फूट नहीं गयीं, उसमें कारण यही था कि वे मनोहर रश्मियों से युक्त चन्द्रमा के समान आनन्द प्रदान करने वाले आपके इस सुन्दर मुख का दर्शन करते थे॥ २०॥

दुर्वृत्तवृत्तशमनं तवदेवि शीलं

रूपं तथैतदविचिन्त्यमतुल्यमन्यैः ।

वीर्यं च हन्तु हृतदेवपराक्रमाणां

वैरिष्वपि प्रकटितैव दया त्वयेत्थम् ॥ २१ ॥

देवि आपका शील दुराचारियों के बुरे बर्ताव को दूर करने वाला है। साथ ही यह रूप ऐसा है, जो कभी चिन्तन में भी नहीं आ सकता और जिसकी कभी दूसरों से तुलना भी नहीं हो सकती; तथा आपका बल और पराक्रम तो उन दैत्यों का भी नाश करने वाला है, जो कभी देवताओं के पराक्रम को भी नष्ट कर चुके थे। इस प्रकार आपने शत्रुओं पर भी अपनी दया ही प्रकट की है॥ २१ ॥

केनोपमा भवत् तेऽस्य पराक्रमस्य

रूपं च शत्रुभयकार्यतिहारि कुत्र ।

चित्ते कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टा

त्वय्येव देवि वरदे भुवनत्रयेऽपि ॥ २२।॥

वरदायिनी देवि आपके इस पराक्रम की किसके साथ तुलना हो सकती है तथा शत्रुओं को भय देने वाला एवं अत्यन्त मनोहर ऐसा रूप भी आपके सिवा और कहाँ है? हृदय में कृपा और युद्ध में निष्ठुरता- ये दोनों बातें तीनों लोकों के भीतर केवल आप में ही देखी गयी हैं॥ २२ ॥

त्रैलोक्यमेतदखिलं रिपुनाशनेन वा गदृटा

त्रातं त्वया समरमूर्धनि तेऽपि हत्वा।

नीता दिवं रिपुगणा भयमप्यपास्त-

मस्माकमुन्मदसुरारिभवं नमस्ते ॥ २३॥

मातः! आपने शत्रुओं का नाश करके इस समस्त त्रिलोकी की रक्षा की है। उन शत्रुओं को भी युद्धभूमि में मारकर स्वर्गलोक में पहुँचाया है तथा उन्मत्त दैत्यों से प्राप्त होने वाले हम लोगों के भय को भी दूर कर दिया है, आपको हमारा नमस्कार है ॥ २३॥

शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।

घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च ॥ २४॥

देवि! आप शूलसे हमारी रक्षा करें। अम्बिके ! आप खड्गसे भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टा की ध्वनि और धनुष की टंकार से भी हमलोगों की रक्षा करें ॥ २४ ॥

प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे ।

भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि ॥ २५॥

चण्डिके! पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशा में आप हमारी रक्षा करें तथा ईश्वरि! अपने त्रिशूल को घुमाकर आप उत्तर दिशा में भी हमारी रक्षा करें ॥ २५ ॥

सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते ।

यानि चात्यर्थघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम् ॥ २६॥

तीनों लोकों में आपके जो परम सुन्दर एवं अत्यन्त भयंकर रूप विचरते रहते हैं, उनके द्वारा भी आप हमारी तथा इस भूलोक की रक्षा करें ॥ २६ ॥

खङ्गशूलगदादीनि यानि चास्त्राणि तेऽम्बिके ।

करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वतः ॥ २७॥

अम्बिके आपके कर- पल्लवों में शोभा पाने वाले खड्ग, शूल और गदा आदि जो-जो अस्त्र हों, उन सबके द्वारा आप सब ओरसे हम लोगों की रक्षा करें ॥ २७ ॥

ऋषिरुवाच॥ २८॥

ऋषि कहते हैं-॥ २८॥

एवं स्तुता सुरैर्दिव्यैः कुसुमैर्नन्दनोद्भवैः ।

अर्चिता जगतां धात्री तथा गरन्धानुलेपनैः ॥ २९ ॥

भक्त्या समस्तैस्त्रिदशैर्दिव्यैर्धूपैस्तु धूपिता ।

प्राह प्रसादसुमुखी समस्तान् प्रणतान् सुरान् ॥ ३० ॥

इस प्रकार जब देवताओं ने जगन्माता दुर्गा की स्तुति की और नन्दन-वन के दिव्य पुष्पों एवं गन्ध-चन्दन आदि के द्वारा उनका पूजन किया, फिर सबने मिलकर जब भक्तिपूर्वक दिव्य धूपों की सुगन्ध निवेदन की, तब देवी ने प्रसन्नवदन होकर प्रणाम करते हुए सब देवताओं से कहा – ॥२९-३० ॥

देव्युवाच॥ ३१ ॥

देवी बोलीं- ॥ ३१ ॥

व्रियतां त्रिदशाः सर्वे यदस्मत्तोऽभिवाज्छितम् ॥ ३२ ॥

देवताओ तुम सब लोग मुझसे जिस वस्तु की अभिलाषा रखते हो, उसे माँगो ॥ ३२ ॥

देवा ऊचुः॥ ३३॥

देवता बोले ॥ ३३॥

भगवत्या कृतं सर्वं न किंचिदवशिष्यते ॥ ३४॥

देवता बोले- कुछ भी बाकी नहीं है॥ ३४॥

यदयं निहतः शत्रुरस्माकं महिषासुरः ।

यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्वरि ॥ ३५ ॥

क्योंकि हमारा यह शत्रु महिषासुर मारा गया। महेश्वरि! इतने पर भी यदि आप हमें और वर देना चाहती हैं॥ ३५ ॥

संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः ।

यश्च मत्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने ॥ ३६॥

तस्य वित्तर्द्द्धविभवैर्धनदारादिसम्पदाम् ।

वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिवके ॥ ३७ ॥

भगवती ने हमारी सब इच्छा पूर्ण कर दी, अब हम जब-जब आपका स्मरण करें, तब-तब आप दर्शन देकर हमलोगों के महान् संकट दूर कर दिया करें तथा प्रसन्नमुखी अम्बिके जो मनुष्य इन स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करे, उसे वित्त, समृद्धि और वैभव देने के साथ ही उसकी धन और स्त्री आदि सम्पत्तिको भी बढ़ाने के लिये आप सदा हम पर प्रसन्न रहें॥ ३६-३७॥

ऋषिरुवाच॥ ३८॥

ऋषि कहते हैं-॥ ३८॥

इति प्रसादिता देवैर्जगतोऽर्थे तथाऽऽत्मनः ।

तथेत्युक्त्वा भद्रकाली बभूवान्तर्हिता नृप॥ ३९॥

राजन् देवताओं ने जब अपने तथा जगत् के कल्याण के लिये भद्रकाली देवी को इस प्रकार प्रसन्न किया, तब वे ‘तथास्तु’ कहकर वहीं अन्तर्धान हो गयीं॥ ३९ ॥

इत्येतत्कथितं भूप सम्भूता सा यथा पुरा। देवी देवशरीरेभ्यो जगत्त्रयहितैषिणी ॥ ४०॥

भूपाल इस प्रकार पूर्वकाल में तीनों लोकों का हित चाहने वाली देवी जिस प्रकार देवताओं के शरीरों से प्रकट हुई थीं; वह सब कथा मैंने कह सुनायी॥ ४०॥

पुनश्च गौरीदेहात्सा समुद्भूता यथाभवत्।

वधाय दुष्टदैत्यानां तथा शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ४१ ।।

रक्षणाय च लोकानां देवानामुपकारिणी ।

तच्छृणुष्व मयाऽऽख्यातं यथावत्कथयामि ते।॥ ह्रीं ॐ॥ ४२॥

अब पुनः देवताओं का उपकार करने वाली वे देवी दुष्ट दैत्यों तथा शुम्भ-निशुम्भ का वध करने एवं सब लोकों की रक्षा करने के लिये गौरीदेवी के शरीर से जिस प्रकार प्रकट हुई थीं वह सब प्रसंग मेरे मुँह से सुनो । मैं उसका तुमसे यथावत् वर्णन करता हूँ॥ ४१-४२ ॥

क्रमशः.. अगले लेख में पंचम अध्याय जय माता जी की।

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