श्री दुर्गासप्तशती पाठ सातवां अध्याय अर्थ सहित (हिंदी अनुवाद सहित सम्पूर्ण)

।।ॐ नमश्चण्डिकायै।।

किसी भी विशेष कामना की पूर्ति के लिए सातवाँ अध्याय सर्वोत्तम है। अगर सच्चे और निर्मल दिल से माँ की पूजा की जाती है और सातवें अध्याय का पाठ किया जाता है तो व्यक्ति की कामना पूर्ति अवश्य होती हैं। 

सप्तमोऽध्यायः

ध्यानम्

ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वरती श्यामलाङ्गीं

न्यस्तैकाङ्घ्रिं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम् ।

कह्वाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रं

मातङ्गीं शङ्खपत्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्धासिभालाम् ॥

मैं मातंगी देवी का ध्यान करता हूँ। वे रत्नमय सिंहासन पर बैठकर पढ़ते हुए तोते का मधुर शब्द सुन रही हैं। उनके शरीर का वर्ण श्याम है। वे अपना एक पैर कमल पर रखे हुए हैं और मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण करती हैं तथा कह्वार-पुष्पों की माला धारण किये वीणा बजाती हैं। उनके अंग में कसी हुई चोली शोभा पा रही है। वे लाल रंग की साड़ी पहने हाथ में शंखमय पात्र लिये हुए हैं। उनके वदन पर मधु का हलका-हलका प्रभाव जान पड़ता है और ललाट में बेंदी शोभा दे रही है ।

‘ॐ’ ऋषिरुवाच॥ १ ॥

ऋषि कहते हैं-॥ १॥

आज्ञप्तास्ते ततो दैत्याश्चण्डमुण्डपुरोगमाः।

चतुरङ्गबलोपेता ययुरभ्युद्यतायुधाः॥ २ ॥

तदनन्तर शुम्भ की आज्ञा पाकर वे चण्ड-मुण्ड आदि दैत्य चतुरंगिणी सेना के साथ अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो चल दिये॥ २॥

ददृशुस्ते ततो देवीमीषद्धासां व्यवस्थिताम्।

सिंहस्योपरि शैलेन्द्रशृङ्गे महति काञ्चने ॥ ३ ॥

फिर गिरिराज हिमालय के सुवर्णमय ऊँचे शिखर पर पहुँचकर उन्होंने सिंहप र बैठी देवी को देखा। वे मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं॥ ३॥

ते दृष्ट्वा तां समादातुमुद्यमं चक्रुरुद्यताः।

आकृष्टचापासिधरास्तथान्ये तत्समीपगाः ॥ ४ ॥

उन्हें देखकर दैत्यलोग तत्परता से पकड़ने का उद्योग करने लगे। किसी ने धनुष तान लिया, किसी ने तलवार सँभाली और कुछ लोग देवी के पास आकर खड़े हो गये॥ ४॥

ततः कोपं चकारोच्चैरम्बिका तानरीन् प्रति ।

कोपेन चास्या वदनं मषींवर्णमभूत्तदा ॥ ५ ॥

तब अम्बिका ने उन शत्रुओं के प्रति बड़ा क्रोध किया। उस समय क्रोध के कारण उनका मुख काला पड़ गया॥ ५॥

भ्रुकुटीकुटिलात्तस्या ललाटफलकाद्द्भुतम्।

काली करालवदना विनिष्क्रान्तासिपाशिनी ॥ ६ ॥

ललाट में भौंहें टेढ़ी हो गयीं और वहाँ से तुरंत विकराल मुखी काली प्रकट हुईं, जो तलवार और पाश लिये हुए थीं ॥ ६ ॥

विचित्रखट्वाङ्गधरा नरमालाविभूषणा।

द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा ॥ ७ ॥

वे विचित्र खट्वांग धारण किये और चीते के चर्म की साड़ी पहने नर-मुण्डों की माला से विभूषित थीं। उनके शरीर का मांस सूख गया था, केवल हड्डियों का ढाँचा था, जिससे वे अत्यन्त भयंकर जान पड़ती थीं॥ ७॥

अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा।

निमग्नारक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा ॥ ८ ॥

उनका मुख बहुत विशाल था, जीभ लपलपाने के कारण वे और भी डरावनी प्रतीत होती थीं उनकी आँखें भीतर को धँसी हुई और कुछ लाल थीं, वे अपनी भयंकर गर्जना से सम्पूर्ण दिशाओं को गुँजा रही थीं॥ ८॥

सा वेगेनाभिपतिता घातयन्ती महासुरान्।

सैन्ये तत्र सुरारीणामभक्षयत तद्बलम् ॥ ९॥

बड़े-बड़े दैत्यों का वध करती हुई वे कालिका देवी बड़े वेग से दैत्यों की उस सेनापर टूट पड़ीं और उन सबको भक्षण करने लगीं ॥ ९ ॥

पार्ष्णिग्राहाङ्कुशग्राहियोधघण्टासमन्वितान् ।

समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप वारणान्॥ १०॥

वे पार्श्वरक्ष कों, अंकुशधारी महावतों, योद्धाओं और घण्टा सहित कितने ही हाथियों को एक ही हाथ से पकड़कर मुँह में डाल लेती थीं॥ १० ॥

तथैव योधं तुरगै रथं सारथिना सह।

निक्षिप्य वक्त्रे दशनैश्चर्वयन्त्यतिभैरवम् ॥ ११॥

इसी प्रकार घोड़े, रथ और सारथि के साथ रथी सैनिकों को मुँह में डालकर वे उन्हें बड़े भयानक रूप से चबा डालती थीं॥ ११ ॥

एकं जग्राह केशेषु ग्रीवायामथ चापरम्।

पादेनाक्रम्य चैवान्यमुरसान्यमपोथयत् ॥ १२ ॥

किसी के बाल पकड़ लेतीं, किसी का गला दबा देतीं, किसी को पैरों से कुचल डालतीं और किसी को छाती के धक्के से गिराकर मार डालती थीं॥ १२ ॥

तैर्मुक्तानि च शस्त्राणि महास्त्राणि तथासुरैः।

मुखेन जग्राह रुषा दशनैर्मथितान्यपि ॥ १३ ॥

वे असुरों के छोड़े हुए बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र मुँहसे पकड़ लेतीं और रोष में भरकर उनको दाँतों से पीस डालती थीं॥ १३ ॥

ममर्दाभक्षयच्चान्यानन्यांश्चाताडयत्तथा।

बलिनां तद् बलं सर्वमसुराणां दुरात्मनाम्।॥ १४॥

काली ने बलवान् एवं दुरात्मा दैत्यों की वह सारी सेना रौंद डाली, खा डाली और कितनों को मार भगाया॥ १४॥

असिना निहताः केचित्केचित्खट्वाङ्गताडिताः

जग्मुर्विनाशमसुरा दन्ताग्राभिहतास्तथा ॥ १५ ॥

कोई तलवार के घाट उतारे गये, कोई खट्वांग से पीटे गये और कितने ही असुर दाँतों के अग्रभाग से कुचले जाकर मृत्यु को प्राप्त हुए॥ १५॥

क्षणेन तद् बलं सर्वमसुराणां निपातितम् ।

दृष्ट्वा चण्डोऽभिदुद्राव तां कालीमतिभीषणाम् ॥ १६ ॥

इस प्रकार देवी ने असुरों की उस सारी सेना को क्षणभर में मार गिराया। यह देख चण्ड उन अत्यन्त भयानक कालीदेवी की ओर दौड़ा॥ १६॥

शरवर्षैर्महाभीमैर्भीमाक्षीं तां महासुरः।

छादयामास चक्रैश्च मुण्डः क्षिप्तैः सहसत्रशः॥ १७ ॥

तथा महादैत्य मुण्डने भी अत्यन्त भयंकर बाणों की वर्षा से तथा हजारों बार चलाये हुए चक्रों से उन भयानक नेत्रों वाली देवी को आच्छादित कर दिया ॥ १७ ॥

तानि चक्राण्यनेकानि विशमानानि तन्मुखम् ।

बभुर्यथार्कबिम्बानि सुबहूनि घनोदरम् ॥ १८॥

वे अनेकों चक्र देवी के मुख में समाते हुए ऐसे जान पड़े, मानो सूर्य के बहुतेरे मण्डल बादलों के उदर में प्रवेश कर रहे हों ॥ १८ ॥

ततो जहासातिरुषा भीमं भैरवनादिनी।

कालीकरालवक्त्रान्तर्दुर्दर्शदशनोज्ज्वला ॥१९ ॥

तब भयंकर गर्जना करने वाली काली ने अत्यन्त रोष में भरकर विकट अट्टहास किया। उस समय उनके विकराल वदन के भीतर कठिनता से देखे जा सकने वाले दाँतों की प्रभा से वे अत्यन्त उज्ज्वल दिखायी देती थीं॥ १९॥

उत्थाय च महासिं हं देवी चण्डमधावत।

गृहीत्वा चास्य केशेषु शिरस्तेनासिनाच्छिनत्* ॥ २०॥

देवी ने बहुत बड़ी तलवार हाथ में ले ‘ हं का उच्चारण करके चण्ड पर धावा किया और उसके केश पकड़कर उसी तलवार से उसका मस्तक काट डाला ॥ २० ॥

अथ मुण्डोऽभ्यधावत्तां दृष्ट्वा चण्डं निपातितम् ।

तमप्यपातयद्भमौ सा खड्गाभिहतं रुषा ॥ २१॥

चण्ड को मारा गया देखकर मुण्ड भी देवी की ओर दौड़ा। तब देवी ने रोष में भरकर उसे भी तलवार से घायल करके धरती पर सुला दिया॥ २१ ॥

हतशेषं ततः सैन्यं दृष्ट्वा चण्डं निपातितम्।

मुण्डं च सुमहावीर्यं दिशो भेजे भयातुरम् ॥ २२॥

महापराक्रमी चण्ड और मुण्ड को मारा गया देख मरने से बची हुई बाकी सेना भय से व्याकुल हो चारों ओर भाग गयी॥ २२ ॥

शिरश्चण्डस्य काली च गृहीत्वा मुण्डमेव च।

प्राह प्रचण्डाटृटहासमिश्रमभ्येत्य चण्डिकाम् ॥ २३॥

तदनन्तर काली ने चण्ड और मुण्डका मस्तक हाथ में ले चण्डिका के पास जाकर प्रचण्ड अट्टहास करते हुए कहा-॥ २३॥

मया तवात्रोपहतौ चण्डमुण्डौ महापशू।

युद्धयज्ञे स्वयं शुम्भं निशुम्भं च हनिष्यसि ॥ २४॥

‘देवि! मैंने चण्ड और मुण्ड नामक इन दो महापशुओं को तुम्हें भेंट किया है। अब युद्धयज्ञ में तुम शुम्भ और निशुम्भ का स्वयं ही वध करना’ ॥ २४ ॥

ऋषिरुवाच॥ २५ ॥

ऋषि कहते हैं-॥ २५ ॥

तावानीतौ ततो दृष्ट्वा चण्डमुण्डौ महासुरौ।

उवाच कालीं कल्याणी ललितं चण्डिका वचः ॥ २६ ॥

वहाँ लाये हुए उन चण्ड-मुण्ड नामक महादैत्यों को देखकर कल्याणमयी चण्डी ने काली से मधुर वाणी में कहा- ॥२६॥

यस्माच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता।

चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवि भविष्यसि ॥ ॐ॥ २७ ॥

‘देवि! तुम चण्ड और मुण्ड को लेकर मेरे पास आयी हो, इसलिये संसार में चामुण्डा के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी’ ॥ २७॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णि के मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये चण्डमुण्डवधो नाम सप्तमोऽध्यायः॥ ७॥

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य में ‘चण्ड-मुण्ड-वध’ नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ।॥ ७ ॥ 

Must Read  Birthday: जानें भारतीय संस्कृति के अनुसार कैसे मनाएं जन्मदिन ?