दक्षिणा देने से ही क्यों मिलता है धार्मिक कर्मों का फल 

यजुर्वेद में एक बहुत सुंदर बात है, वह कहता है ब्रह्मचर्य आदि व्रतों से ही दीक्षा प्राप्त होती है अर्थात ब्रह्मविद्या या किसी अन्य विद्या में प्रवेश मिलता है। फिर दीक्षा से दक्षिणा अर्थात धन समृद्धि आदि प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। यहाँ दक्षिणा मिलने का अर्थ है दक्षिणा देना, वेद ने यही माना है कि जो देता है उसे देवता और अधिक देते हैं। जो नहीं देता है, देवता उसका धन छीनकर दानियों को ही दे देते हैं। फिर कहता है दक्षिणा से श्रद्धा प्राप्त होती है, और श्रद्धा से सत्य प्राप्त होता है। क्रम है, व्रत –> दीक्षा –> दक्षिणा –> श्रद्धा –> सत्य मध्य में दक्षिणा है, एक बार दीक्षित हो गए, मार्ग पर बढ़ गए, और फिर दक्षिणा में लोभ किया तो मार्ग नष्ट हो जाता है।

इसलिए विद्वानों, गुरु, आचार्य को दक्षिणा और पात्रों को दान देने से ही मार्ग आगे प्रशस्त होता है। दक्षिणा देने से अपने गुरु, आचार्य में श्रद्धा बढ़ती है। गुरु भी अपनी अन्य सांसारिक चिंताओं से मुक्ति पाकर शिष्य या यजमान के कल्याण के लिए और उत्साह से लग जाते हैं और अंततः सत्य से साक्षात्कार कराते हैं।

धार्मिक कृत्यों के संबंध की यज्ञ बिना दक्षिणा के पूर्ण नहीं होता और उसका कोई फल नहीं होता, यज्ञ पूर्ण होने के बाद ब्राह्मण और पुरोहित को तुरंत दक्षिणा दी जाय और उसे किसी भी अवस्था में बाकी न लगाया जाय। बाकी लगने पर वह समय के अनुपात से बढ़ती जाती है। दक्षिणा न देने वाला ब्रह्मस्वापहारी, अशुचि, दरिद्र, पातकी, व्याधियुक्त तथा अन्य अनेक कष्टों से ग्रस्त हो जाता है, उसकी लक्ष्मी चली जाती है, पितर उसका पिंड नहीं स्वीकार करते और उसकी कई पीढ़ियों, आगे तथा पीछे उसके परिवारिकों को अधोगति मिलती है (ब्रह्मवै., प्रकृति. 42 वाँ अध्याय) आदि विधानों और भयों की उत्पत्ति के पीछे एक प्रधान कारण था।

यज्ञों और अन्य धार्मिक कृत्यों को कराने वाला जो ब्राह्मणों और पुरोहितों का वर्ग था उसके जीविकोपार्जन का साधन धीरे धीरे दक्षिणाएँ ही बच रहीं और वे उनका शुल्क तथा वृत्ति बन गईं, जिन्हें कोई बाकी नहीं लगा सकता था। दक्षिणा यज्ञ की पत्नी है अतः किसी भी अनुष्ठान के बाद दक्षिणा देने का विधान है,कुछ लोग दक्षिणा और दान में अन्तर नहीं समझते और वे कहते हैं कि दक्षिणा जो भी दी जाए उसे स्वीकार कर लेना चाहिए जबकि ये बात दान के विषय में सार्थक है। दान व्यक्ति जो अपनी श्रद्धा अनुसार करे उसे स्वीकार करना चाहिए

परंतु दक्षिणा किसी श्रेष्ठ (गुरु, विद्वान, आचार्य, अथवा ज्योतिषी) व्यक्ति के किए गए कर्म का पारिश्रमिक होता है जो उसके कृत्य के अनुसार ही देना चाहिए जिससे वह संतुष्ट हो। साधारण शब्दों में दक्षिणा धन्यवाद स्वरूप दिया जाता है। यज्ञ की दक्षिणा न चुकानेवाले राजा हरिश्चंद्र को विश्वामित्र ने जो पहले उनके पुरोहित रह चुके थे, किस प्रकार दंडित किया, यह कथा पुराणों में मिलती है (मार्कं., अध्याय 7-8; हिस्ट्री ऑव कोशल, विशुद्धानंद पाठक, पृष्ठ 137-8)। ये दक्षिणाएँ आज भी भारतीय जीवन में धार्मिक कृत्यों, यज्ञों और पूजाओं, श्राद्धों और सांस्कारिक अवसरों के प्रधान अंग है।

दक्षिणा स्वर्ण, रजत, सिक्कों, अन्न, वस्त्र आदि अनेक रूपों में दी जाती है और यजमान की श्रद्धा तथा वित्तीय स्थिति के अनुसार घटती बढ़ती भी रहती है। वृत्ति होते हुए भी उसका मान कभी निश्चित किया गया हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता।

दक्षिणा के संबंध में धार्मिक भाव उत्पन्न करने के सिलसिले में ही दक्षिणा को यज्ञ पुरुष की स्त्री के रूप की देवकथा का विकास हुआ (ब्रह्मवै., प्रकृति., 42 वाँ अध्याय) और उसे भी एक देवी माना गया।

अब दक्षिणा क्या होनी चाहिए, इस पर शास्त्र का स्पष्ट मत है कि दक्षिणा यथाशक्ति, यथासम्भव ही होनी चाहिए। न अपनी शक्ति से कम होनी चाहिए न ज्यादा की कोई आवश्यकता है।सनातन धर्म की समाज संरचना ऐसी थी कि अपरिग्रही ब्राह्मणों, पुरोहितों, ज्योतिष आदि आचार्यों का दायित्व समाज के ऊपर था। समाज उन्हें अपने सामर्थ्यानुसार दक्षिणा द्वारा पोषित करता था। बदले में वे समाज को अपने ज्ञान से पोषित करते थे। पर जैसे ही यजमान में कृपणता आई और आचार्य में लोभ आया वैसे ही यह व्यवस्था टूट गई। इससे हानि हुई कि जिनका कार्य पुरोहित बनकर कर्मकाण्ड कराना था, गुरु बनकर पढ़ाना लिखाना था,

ज्योतिषाचार्य बनकर लोगों को जीवन के प्रति सचेत करके मार्ग दिखाना था, उन्हें यजमानों से उचित दक्षिणा न मिलने के कारण अपना घर चलाने के लिए दूसरे व्यवसायों अपनाने पड़े और इन विद्याओं का नाश हुआ। आज सब लोग एक पक्षीय रूप से तो देखते हैं कि ब्राह्मण पौरोहित्य ठीक नहीं करते, ज्योतिषी लूटते हैं और झूठ बताते हैं; लेकिन वे खुद का दोष नहीं देखते कि क्या यजमान धर्म का उन्होंने पालन किया? क्या यथाशक्ति, यथासम्भव वे इन आचार्यों को दक्षिणा देते हैं ? आपके कोई जान पहचान के ज्योतिषी हैं तो आप चाहते हैं कि उन्हें मुफ्त में कुण्डली दिखा दें, उनसे इमोशनल अत्याचार करते हैं।

यह नहीं देखते कि ज्योतिष विद्या प्राप्त करने के लिए कितने हज़ार घण्टे उन्होंने अध्ययन की तपस्या की होगी। वे आपकी कुण्डली को समझने में जो एक दो घण्टे खर्च करते हैं आप चाहते हैं उसकी कीमत 11, 51, या 101 रुपए दे दें। घर में कोई पूजापाठ है तो आप चाहते हैं कि 101 रुपए में पण्डित मान जाए। वह आपके घर दूर से एक दो घण्टे खर्च करके आता जाता है, 2 घण्टे खर्च करके पूजा कराकर अपना पूरा दिन खर्च करता है और बदले में 101, 151 रुपए में आप उसे विदा करना चाहते हैं। क्या यह आपकी यथाशक्ति-यथासम्भव है ?

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यदि सब लोग उन पुरोहितों या ज्योतिषियों को बस 101 रुपया ही दें तो हर पर 2 घण्टे लगाकर वह केवल 5-6 लोगों की कुंडली या पूजापाठ ही तो करा पाएगा ? इससे महीने में 500 प्रतिदिन हिसाब से केवल 15 हज़ार या कुछ अधिक होंगे। इसमें वह अपना घर कैसे चलाएगा ? और शांति से नहीं चला पाएगा तो अपनी विद्या और यजमान पर ध्यान कैसे देगा ? फिर जब वह मजबूरी में अपनी दक्षिणा फिक्स करे तो आप उसे पाखण्डी धंधेबाज कहते हो ? यह क्या खुद का फोड़ा न देखकर दूसरे की सूजन निहारने वाली बात नहीं है ?

आप ज्योतिषी से तो उम्मीद करते हैं कि वह पाराशर स्मृति के अनुसार चलकर दक्षिणा न मांगे पर जब वही शास्त्र ज्योतिष आदि विद्याओं के लिए यथाशक्ति दक्षिणा देने की बात कहते हैं तो उसे नहीं मानते। तब आप 11 रुपए देकर कहते हैं बिना दक्षिणा दिए पाप लगता है पण्डितजी यह रख लीजिए। अरे 11 रुपए का एक ज्यूस भी नहीं आता है, क्यों उन जान पहचान के ज्योतिषियों और पुरोहितों को अपमानित करते हैं 11 रुपए देकर ?? क्यों खुद के सिर पाप चढाते हैं। वेद ने स्पष्ट कहा है, “इन्द्र ऐसे कृपण/कंजूस लोगों को पैर से घास फूंस की तरह रौंद देता है।”

मैं यह नहीं कह रहा कि सभी ज्योतिषी बहुत विद्वान या सारे ही पुरोहित बहुत अच्छे हैं। पर उनमें कई वास्तव में अच्छे हैं जिन्हें समाज हतोत्साहित करता है। ऐसे में वे अपने अध्ययन पर ध्यान नहीं दे पाते। उन्हें भी अपनी सांसारिक जरूरतें पूरी करने के लिए दूसरे रास्ते अपनाने पड़ते हैं। असंतुष्ट होकर आचार्य कभी भी कृपा नहीं कर सकते। सच्चे मन, पूर्ण विश्वास और उन्हें संतुष्टि देकर ही उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है। उनके द्वारा बताए गए उपाय भी तभी सफल होते हैं। पुराणों में एक कथा आती है, नारद जी ने प्रश्न किया कि दक्षिणाहीन कर्म का फल कौन भोगता है ?

तो भगवान नारायण ने उत्तर दिया,“मुने! दक्षिणाहीन कर्म में फल ही कैसे हो सकता है? क्योंकि फल प्रसव करने की योग्यता तो दक्षिणावाले कर्म में ही है। बिना दक्षिणा वाला कर्म तो बलि के पेट में चला जाता है, अर्थात् नष्ट हो जाता है। आचार्यों से वैदिक विद्याओं का प्रयोग करवाना, पौरोहित्य करवाना आदि यज्ञ का अंग है।मनुस्मृति में महाराज मनु का स्पष्ट शब्दों में आदेश है,।

“और पुण्य कर्मों को करे पर कम धन वाला यज्ञ न करे। कम दक्षिणा देकर कोई यज्ञ नहीं करना चाहिए। कम दक्षिणा देकर यज्ञ कराने से यज्ञ की इन्द्रियाँ, यश, स्वर्ग, आयु, कीर्ति, प्रजा और पशुओं का नाश करती हैं।”

अन्यत्र भी कहा है,“दक्षिणाहीन यज्ञ दीक्षित को नष्ट कर देता है।” वेद में भी कहा गया है,“प्रयत्न से उत्तम कर्म करने वाले के लिए जो योग्य दक्षिणा देता है, अग्नि उस मनुष्य की चारों ओर से सुरक्षा करता है।” 

“कंजूस कभी भी ज्ञानसम्पन्न नहीं हो सकते, वे सदा ही अंधकार में ठोकर खाते फिरेंगे। जो यज्ञ के कार्य के लिए अपना धन समर्पित करते हैं, वे उन्नति करते हैं और अदानशील व्यक्ति नष्ट हो जाते हैं।”

इसलिए वैदिक विद्याओं को बचाने के लिए, सनातन धर्म की रक्षा के लिए केवल दोषारोपण न करें। आपके लिए वैदिक विद्या का प्रयोग करने वाले आचार्यों, अन्य योग्य सनातनी संस्थाओं और व्यक्तियों को उचित दान दक्षिणा देने में कंजूसी न करें। बहुत सी ऐसी जगहें हैं जहाँ धनबचा लेंगे। फालतू जगहों पर कंजूसी करेंगे तो धन बढ़ेगा, वैदिक विद्या और धर्म के कार्य में कंजूसी करेंगे तो धन घटेगा। इधर तो देने से ही बढ़ता है। इसमें शास्त्रों का स्पष्ट निर्देश है।

सन्दर्भ (सौजन्य से लिया गया है)

१. यजुर्वेद 19.30

२. ऋग्वेद 5.34.7

३. अथर्ववेद 20.63.5/ऋग्वेद 1.84.8

४. ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृति खण्ड, अध्याय 42

५. मनुस्मृति 11.39/40

६. स्कन्दपुराण 5.33.27

७. ऋग्वेद 1.31.15

८. ऋग्वेद 4.51.3 

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