सम्पूर्ण गरुड़ पुराण कथा अध्याय ग्यारहवें से अध्याय सत्रहवें तक सम्पूर्ण 

हिंदू धर्म में कई ग्रंथ-पुराण हैं और धर्म ग्रंथों से जुड़ी कई कथा-कहानियां भी हैं. लेकिन गरुड़ पुराण को 18 महापुराणों में एक माना गया है. यह ऐसा पुराण है, जिसमें मृत्यु और मृत्यु के बाद की घटनाओं के बारे में विस्तार से बताया गया है.

हमारी इस प्रस्तुति का प्रयोजन सनातन धर्म को बढ़ावा देना व समाज में धर्म के प्रति जिज्ञासा में वृद्धि है। हमारे द्वारा बताए गए तथ्य वेदों, पुराणों, रामचरितमानस, महाभारत, श्रीमद्भगवतगीता, ग्रंथों व उपनिषदों आदि से लिए गए हैं। इस दृष्टांत के अंतर्गत कुछ भी काल्पनिक या मिथ्या नहीं है। हमारा उद्देश्य किसी भी व्यक्ति या समाज की भावना और आस्था को आहत करना कदापि नहीं है।

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) “दशगात्रविधिनिरुपण” नामक ग्यारहवां अध्याय 

दशगात्र विधान गरुड़ उवाच गरुड़ जी बोले हे केशव आप दशगात्र विधि के संबंध में बताइए, इसके करने से कौन-सा पुण्य प्राप्त होता है और पुत्र के अभाव में इसको किसे करना चाहिए। श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान बोले हे तार्क्ष्य

अब मैं दशगात्रविधि को तुमसे कहता हूँ, जिसको धारण करने से सत्पुत्र पितृ-ऋण से मुक्त हो जाता है। पुत्र (पिता के मरने पर) शोक का परित्याग करके धैर्य धारण कर सात्विक भाव से समन्वित होकर पिता का पिण्डदान आदि कर्म करें। उसे अश्रुपात नहीं करना चाहिए।

क्योंकि बान्धवों के द्वारा किये गये अश्रुपात और श्लेष्मपात को विवश होकर (पितारूपी) प्रेत पान करता है इसलिए इस समय निरर्थक शोक करके रोना नहीं चाहिए।

यदि मनुष्य हजारों वर्ष रात-दिन शोक करता रहे, तो भी प्राणी कहीं भी दिखाई नहीं पड़ सकता। जिसकी उत्पत्ति हुई है, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है और जिसकी मृ्त्यु हुई है उसका जन्म भी निश्चित है।

इसलिए बुद्धिमान को इस अवश्यम्भावी जन्म-मृत्यु के विषय में शोक नहीं करना चाहिए। ऎसा कोई दैवी अथवा मानवीय उपाय नहीं है, जिसके द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुआ व्यक्ति पुन: यहाँ वापिस आ सके। अवश्यम्भावी भावों का प्रतीकार यदि संभव होता तो नल, राम और युधिष्ठिर महाराज आदि दु:ख न प्राप्त करते।

इस जगत में सदा के लिए किसी का किसी भी व्यक्ति के साथ रहना संभव नहीं है। जब अपने शरीर के साथ भी जीवात्मा का सार्वकालिक संबंध संभव नहीं है तो फिर अन्य जनों के आत्यन्तिक सहवास की तो बात ही क्या ?

जिस प्रकार कोई पथिक छाया का आश्रय लेकर विश्राम करता है और विश्राम करके पुन: चला जाता है, उसी प्रकार प्राणी का संसार में परस्पर मिलन होता है। पुन: प्रारब्ध कर्मों को भोगकर वह अपने गन्तव्य को चला जाता है।

प्रात: काल जो भोज्य पदार्थ बनाया जाता है, वह सांयकाल नष्ट हो जाता है ऎसे नष्ट होने वाले अन्न के रस से पुष्ट होने वाले शरीर की नित्यता की कथा ही क्या ? पितृमरण से होने वाले दु:ख के लिये यह पूर्वोक्त विचार औषधस्वरूप है।

अत: इसका सम्यक चिन्तन करके अज्ञान से होने वाले शोक का परित्याग कर पुत्र को अपने पिता की क्रिया करनी चाहिए।

पुत्र के अभाव में पत्नी को और पत्नी के अभाव में सहोदर भाई को तथा सहोदर भाई के अभाव में ब्राह्मण की क्रिया उसके शिष्य को अथवा किसी सपिण्डी व्यक्ति को करनी चाहिए।

हे गरुड़ पुत्रहीन व्यक्ति के मरने पर उसके बड़े अथवा छोटे भाई के पुत्रों या पौत्रों के द्वारा दशगात्र आदि कार्य कराने चाहिए। एक पिता से उत्पन्न होने वाले भाईयों में यदि एक भी पुत्रवान हो तो उसी पुत्र से सभी भाई पुत्रवान हो जाते हैं, ऎसा मनु जी ने कहा है।

यदि एक पुरुष की बहुत-सी पत्नियों में कोई एक पुत्रवती हो जाए तो उस एक ही पुत्र से वे सभी पुत्रवती हो जाती हैं। सभी भाई पुत्रहीन हों तो उनका मित्र पिण्डदान करे अथवा सभी के अभाव में पुरोहित को ही क्रिया करनी चाहिए। क्रिया का लोप नहीं करना चाहिए।

यदि कोई स्त्री अथवा पुरुष अपने इष्ट-मित्र की और्ध्वदैहिक क्रिया करता है तो अनाथ प्रेत का संस्कार करने से उसे कोटियज्ञ का फल प्राप्त होता है। हे खग पिता का दशगात्रादि कर्म पुत्र को करना चाहिए, किंतु यदि ज्येष्ठ पुत्र की मृत्यु हो जाए तो अति स्नेह होने पर भी पिता उसकी दशगात्रादि क्रिया न करे। बहुत-से पुत्रों के रहने पर भी दशगात्र, सपिण्डन तथा अन्य षोडश श्राद्ध एक ही पुत्र को करना चाहिए।

पैतृक संपत्ति का बँटवारा हो जाने पर भी दशगात्र, सपिण्डन और षोडश श्राद्ध एक को ही करना चाहिए, किंतु सांवत्सरिक आदि श्राद्धों को विभक्त पुत्र पृथक-पृथक करें।

इसलिए ज्येष्ठ पुत्र को एक समय भोजन, भूमि पर शयन तथा ब्रह्मचर्य धारण करके पवित्र होकर भक्ति भाव से दशगात्र और श्राद्ध विधान करने चाहिए। पृथ्वी की सात बार परिक्रमा करने से जो फल प्राप्त होता है, वही फल माता-पिता की क्रिया करके पुत्र प्राप्त करता है। दशगात्र से लेकर वार्षिक श्राद्धपर्यन्त पिता की श्राद्ध क्रिया करने वाला पुत्र गया श्राद्ध का फल प्राप्त करता है।

कूप, तालाब, बगीचा, तीर्थ अथवा देवालय के प्रांगण में जाकर मध्यमयाम (मध्याह्नकाल) में बिना मन्त्र के स्नान करना चाहिए। पवित्र होकर वृक्ष के मूल में दक्षिणाभिमुख होकर वेदी बनाकर उसे गोबर से लीपे। उस वेदी में पत्ते पर कुश से बने हुए दर्भमय ब्राह्मण को स्थापित करके पाद्यादि से उसका पूजन करें और “अतसीपुष्पसंकाशं.”(अतसीपुष्पसंकाशं पीतवासससमुच्यतम्। ये नमस्यन्ति गोविन्दं न तेषां विद्यते भयम् )

इत्यादि मन्त्रों से उसे प्रणाम करे। इसके पश्चात उसके आगे पिण्द प्रदान करने के लिए कुश का आसन रखकर उसके ऊपर नाम-गोत्र का उच्चारण करते हुए पके हुए चावल अथवा जौ की पीठी (आटा) से बने हुए पिण्ड को प्रदान करना चाहिए। उशीर (खस), चन्दन और भृंगराज का पुष्प निवेदित करें। धूप-दीप, नैवेद्य, मुखवास (ताम्बूल पान) तथा दक्षिणा समर्पित करें।

तदनन्तर काकान्न, दूध और जल से परिपूर्ण पात्र तथा वर्धमान (वृद्धिक्रम से दी जाने वाली) जलांजलि प्रदान करते हुए यह कहे कि “अमुक नाम के प्रेत के लिए मेरे द्वारा प्रदत्त (यह पिण्डादि सामग्री) प्राप्त हो” अन्न, वस्त्र, जल, द्रव्य अथवा अन्य जो भी वस्तु ‘प्रेत’ शब्द का उच्चारण करके मृत प्राणी को दी जाती है, उससे उसे अनन्त फल प्राप्त होता है (अक्षय तृप्ति प्राप्त होती है) इसलिए प्रथम दिन से लेकर सपिण्डीकरण के पूर्व स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ‘प्रेत’ शब्द का उच्चारण करना चाहिए।

पहले दिन विधिपूर्वक जिस अन्न का पिण्ड दिया जाता है, उसी अन्न से विधिपूर्वक नौ दिन तक पिण्डदान करना चाहिए।

नौंवे दिन सभी सपिण्डीजनों को मृत प्राणी के स्वर्ग की कामना से तैलाभ्यंग करना चाहिए और घर के बाहर स्नान करके दूब एवं लाजा (लावा) लेकर स्त्रियों को आगे करके मृत प्राणी के घर जाकर उससे कहे कि “दूर्वा के समान आपके कुल की वृद्धि हो तथा लावा के समान आपका कुल विकसित हो” ऎसा कह करके दूर्वा समन्वित लावा को उसके घर में (चारों ओर) बिखेर दे। हे खगेश्वर दसवें दिन मांस से पिण्डदान करना चाहिए, किंतु कलियुग में मांस से पिण्डदान शास्त्रत: निषिद्ध होने के कारण माष (उड़द) से पिण्डदान करना चाहिए। दसवें दिन क्षौरकर्म और बन्धु-बान्धवों को मुण्डन कराना चाहिए।

क्रिया करने वाले पुत्र को भी पुन: मुण्डन कराना चाहिए। दस दिन तक एक ब्राह्मण को प्रतिदिन मिष्टान्न भोजन कराना चाहिए और हाथ जोड़कर भगवान विष्णु का ध्यान करके प्रेत की मुक्ति के लिए इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए।

अतसी के फूल समान कान्ति वाले, पीतवस्त्र धारण करने वाले अच्युत भगवान गोविन्द को जो प्रणाम करते हैं, उन्हें कोई भय नहीं होता।

हे आदि-अन्त से रहित, शंख-चक्र और गदा धारण करने वाले, अविनाशी तथा कमल के समान नेत्र वाले देव विष्णु ! आप प्रेत को मोक्ष प्रदान करने वाले हो। इस प्रकार प्रतिदिन श्राद्ध के अन्त में यह प्रार्थना-मन्त्र पढ़ना चाहिए। तदनन्तर स्नान करके घर जाकर गोग्रास देने के उपरान्त भोजन करना चाहिए।

।। इस प्रकार गरुड़ पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में दशगात्रविधिनिरुपण नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।।

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) “एकादशाहविधिनिरूपण” नामक बारहवां अध्याय 

एकादशाहकृत्य-निरुपण, मृत-शय्यादान, गोदान, घटदान, अष्टमहादान, वृषोत्सर्ग, मध्यमषोडशी, उत्तमषोडशी एवं नारायणबलि गरुड़ उवाच गरुड़जी ने कहा

हे सुरेश्वर  ग्यारहवें दिन के कृत्य-विधान को भी बताइए और हे जगदीश्वर वृषोत्सर्ग की विधि भी बताइये।

श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान ने कहा ग्यारहवें दिन प्रात:काल ही जलाशय पर जाकर प्रयत्नपूर्वक सभी और्ध्वदैहिक क्रिया करनी चाहिए। वेद और शास्त्रों का अभ्यास करने वाले ब्राह्मणों को निमंत्रित करें और हाथ जोड़कर नमस्कार करके उनसे प्रेत की मुक्ति के लिये प्रार्थना करें। आचार्य भी स्नान-संध्या आदि करके पवित्र हो जाएँ और ग्यारहवें दिन के लिये उचित कृत्यों का विधिवत विधान आरम्भ करें।

दस दिन तक मृतक के नाम-गोत्र का उच्चारण मन्त्रोच्चारण के बिना करना चाहिए।

ग्यारहवें दिन प्रेत का पिण्डदान समन्त्रक (मन्त्रों सहित) करना चाहिए। हे गरुड़ सुवर्ण से विष्णु की, रजत से ब्रह्मा की, ताम्र से रुद्र की और लौह से यम की प्रतिमा बनवानी चाहिए। पश्चिम भाग में गंगाजल से परिपूर्ण विष्णुकलश स्थापित करके उसके ऊपर पीतवस्त्र से वेष्टित विष्णु की प्रतिमा स्थापित करें। पूर्व-दिशा में दूध और जल से भरा ब्रह्मकलश स्थापित करके उस पर श्वेत वस्त्र से वेष्टित ब्रह्मा की स्थापना करें। उत्तर की दिशा में मधु और घृत से परिपूर्ण रुद्रकुम्भ की स्थापना करके रक्त-वस्त्रवेष्टित श्रीरुद्र की प्रतिमा को उस पर स्थापित करें। दक्षिण-दिशा में इन्द्रोदक (वर्षा के जल) से परिपूर्ण यमघट की स्थापना करें और काले वस्त्र से वेष्टित करके उस पर यम की प्रतिमा स्थापित करें।

उनके मध्य में एक मण्डल बनाकर उस पर पुत्र कुश से निर्मित कुशमयी प्रेत की प्रतिमा स्थापित करें और दक्षिणाभिमुख एवं अपसव्य होकर तर्पण करें। विष्णु, ब्रह्मा, शिव और धर्मराज (यम) का वेदमन्त्रों से तर्पण करें तब होम करने के अनन्तर श्राद्ध और दस घट आदि का दान करे। तदनन्तर पितरों को तारने के लिए गोदान करें। गोदान के समय “हे माधव यह गौ मेरे द्वारा आपकी प्रसन्नता के लिए दी जा रही है, इस गोदान से आप प्रसन्न होएँ” ऎसा कहे। प्रेत के द्वारा उपभुक्त आभूषण, वस्त्र, वाहन तथा घृतपूर्ण कांस्यपात्र, सप्तधान्य और प्रेत को प्रिय लगने वाली वस्तुएँ एवं तिलादि अष्टमहादान जो अन्तकाल में न किये जा सकें हो, शय्या के समीप रखकर शय्या के साथ इन सबका भी दान करें।

ब्राह्मण के चरणों को धोकर वस्त्र आदि से उनकी पूजा करें और मोदक, पूआ, दूध आदि पकवान उन्हें प्रदान करें तब पुत्र शय्या के ऊपर प्रेत की स्वर्णमयी प्रतिमा (कांचन पुरुष को) स्थापित करें और उसकी पूजा करके यथाविधि मृतशय्या का दान करें। शय्यादान के समय इस मन्त्र को पढ़े “हे विप्र प्रेत की प्रतिमा से युक्त और सभी प्रकार के उपकरणों से समन्वित यह प्रेतशय्या (मृतशय्या) मैंने आपको निवेदित की है” इस प्रकार पढ़कर कुटुम्बी ब्राह्मण आचार्य को वह शय्या प्रदान करनी चाहिए।

इसके बाद प्रदक्षिणा और प्रणाम करके विसर्जन करना चाहिए। इस प्रकार शय्यादान, नवक आदि श्राद्ध और वृषोत्सर्ग का विधान करने से प्रेत परम गति को प्राप्त होता है। ग्यारहवें दिन विधिपूर्वक हीन अंगावले, रोगी, अत्यन्त छोटे बछड़े को छोड़कर सभी शुभ लक्षणों से युक्त वृष का विधिपूर्वक उत्सर्ग (वृषोत्सर्ग) करना चाहिए।

ब्राह्मण के उद्देश्य से लाल आँख वाले, पिंगलवर्ण वाले, लाल सींग, लाल गला और लाल खुर वाले, सफेद पेट तथा काली पीठ वाले वृषभ का उत्सर्जन करना चाहिए। क्षत्रिय के लिये चिकना और रक्तवर्ण वाला, वैश्य के लिये पीतवर्ण वाला और शूद्र के लिए कृष्ण वर्ण का वृषभ (वृषोत्सर्ग के लिये) प्रशस्त माना जाता है।

जिस वृषभ का सर्वांग पिंगल वर्ण का हो तथा पूँछ और पैर सफेद हो, वह पिंगल वर्ण का वृषभ पितरों की प्रसन्नता बढ़ाने वाला होता है, ऎसा कहा गया है। जिस वृषभ के पैर, मुख और पूँछ श्वेत हों तथा शेष शरीर लाख के समान वर्ण का हो, वह नीलवृष कहा जाता है। जो वृषभ रक्तवर्ण का हो तथा जिसका मुख और पूँछ पाण्डुर वर्ण का हो तथा खुर और सींग पिंगल वर्ण के हों उसे रक्तनील वृष कहते हैं।

जिस साँड के समस्त अंग एक रंग के हों तथा पूँछ व खुर पिंगलवर्ण् का हो, उसे नीलपिंग कहा गया है, वह पूर्वजों का उद्धार करने वाला होता है। जो कबूतर के समान रंगवाला हो, जिसके ललाट पर तिलक-सी आकृति हो और सर्वांग सुन्दर हो, वह बभ्रुनील वृषभ कहा जाता है। जिसका सम्पूर्ण शरीर नीलवर्ण का हो और दोनों नेत्र रक्तवर्ण के हों, उसे महानील वृषभ कहते हैं – इस प्रकार नीलवृषभ पाँच प्रकार के होते हैं। (वृष का संस्कार करके) उसे अवश्य मुक्त कर देना चाहिए, घर में नहीं रखना चाहिए। इसी विषय में लोक में एक पुरानी गाथा प्रचलित है बहुत से पुत्रों की कामना करनी चाहिए ताकि उनमें से कोई एक गया जाए अथवा गौरी (‘अष्टवर्षा भवेद्गौरी’ आठ वर्ष की कन्या गौरी कहलाती है) कन्या का विवाह करे या नील वृष का उत्सर्ग करे।

जो पुत्र वृषोत्सर्ग करता है और गया में श्राद्ध करता है वही पुत्र है, अन्य पुत्र विष्ठा के समान है।

जिसके कोई पूर्वज रौरव आदि नरकों में यातना पा रहे हों, इक्कीस पीढ़ी के पुरुषों के सहित वृषोत्सर्ग करने वाला पुत्र उनको तार देता है। स्वर्ग में गये हुए पितर भी इस प्रकार वृषोत्सर्ग की कामना करते हैं “हमारे वंश में कोई पुत्र होगा, जो वृषोत्सर्ग करेगा”। उसके द्वारा किये गये वृषोत्सर्ग से हम सब परम गति को प्राप्त होगें। हम लोगों को सभी यज्ञों में श्रेष्ठ वृष यज्ञ मोक्ष देने वाला है। इसलिए पितरों की मुक्ति के लिए यथोक्त विधान से सभी प्रयत्नपूर्वक वृषयज्ञ अर्थात वृषोत्सर्ग करना चाहिए। वृषोत्सर्ग करने वाला ग्रहों की तत्तद मन्त्रों से स्थापना और पूजा करके होम करें तथा शास्त्रानुसार वृषभ की माता गौओं की पूजा करें।

बछड़ा और बछड़ी को ले जाकर उन्हें कंकण बाँधे और वैवाहिक विधान की विधि के अनुसार स्तम्भ में उन्हें बाँध दे।

फिर बछड़ा और बछड़ी को रुद्रकुम्भ के जल से स्नान कराए, गन्ध और माल्य से सम्यक पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करे। तदनन्तर वृष के दक्षिण भाग में त्रिशूल और वामपार्श्व में चक्र चिन्हित करे तब उसे छोड़ते हुए हाथ जोड़कर पुत्र इस मन्त्र को पढ़े।

पूर्वकाल में ब्रह्मा के द्वारा निर्मित तुम वृषरूपी धर्म हो, तुम्हारे उत्सर्ग करने से तुम भवार्णव से पार लगाओ। इस मन्त्र से नमस्कार करके बछड़ा और बछड़ी को छोड़ दे।

भगवान विष्णु ने कहा इस प्रकार जो वृषोत्सर्ग करता है, मैं सदा उसे वर प्रदान करता हूँ और प्रेत को मोक्ष प्रदान करता हूँ। अत: वृषोत्सर्ग कर्म अवश्य करना अचहिए। अपनी जीवितावस्था में भी वृषोत्सर्ग करने पर वही फल प्राप्त होता है।

पुत्रहीन मनुष्य तो स्वयं अपने उद्देश्य से वृषोत्सर्ग करके सुक्गपूर्वक परम गति को प्राप्त करता है।

कार्तिक आदि शुभ महीनों में, सूर्य के उत्तरायण होने पर, शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष की द्वादशी आदि तिथियों में, सूर्य-चन्द्र के ग्रहणकाल में, पवित्र तीर्थ में, दोनों अयन संक्रांतियों (मकर-कर्क) में और विषुवत-संक्रांतियों (मेष-तुला) में वृषोत्सर्ग करना चाहिए।

शुभ लग्न और मुहूर्त में पवित्र स्थान में समाहित चित्त होकर विधि जानने वाले शुभ लक्षणों से युक्त ब्राह्मण को बुलाकर जप-होम तथा दान से अपनी देह को पवित्र करके पूर्वोक्त रीति से सभी होमादि कृत्यों का सम्पादन करना चाहिए।

शालग्राम की स्थापना करके वैष्णव श्राद्ध करना चाहिए।

तदनन्तर अपना श्राद्ध करें और ब्राह्मणों को दान दे\ हे पक्षिन अपुत्रवान अथवा पुत्रवान जो भी इस प्रकार वृषोत्सर्ग करता है, उस वृषोत्सर्ग से उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण होती है।

अग्निहोत्रादि यज्ञों से और विविध दानों से भी वह गति नहीं होती जो वृषोत्सर्ग से प्राप्त होती है। बाल्यावस्था, कौमार, पौगण्ड, यौवन और वृद्धावस्था में किया गया जो पाप है, वह सब वृषोत्सर्ग से नष्ट हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है। मित्रद्रोही, कृतघ्न, सुरापान करने वाला, गुरुपत्नीगामी, ब्रह्महत्यारा और स्वर्ण की चोरी करने वाला भी वृशोत्सर्ग से पापमुक्त हो जाता है।

(ये लोग महापापी कहे गये हैं) इसलिए हे तार्क्ष्य सभी प्रयत्न करके वृषोत्सर्ग करना चाहिए।

तीनों लोक में वृषोत्सर्ग के समान कोई पुण्यकार्य नहीं है। पति और पुत्रवाली स्त्री यदि उन दोनों के सामने मर जाये तो उसके उद्देश्य से वृषोत्सर्ग नहीं करना चाहिए, अपितु दूध देने वाली गाय का दान करना चाहिए।

हे गरुड़ जो व्यक्ति वृषोत्सर्ग वाले वृषभ को कन्धे अथवा पीठ पर भार ढोने के काम में प्रयोग करता है, वह प्रलयपर्यन्त घोर नरक में निवास करता है।

जो निर्दयी व्यक्ति मुठ्ठी अर्थात मुक्के अथवा लकड़ी से वृषभ को मारता है, वह एक कल्प तक यम यातना को भोगता है। इस प्रकार वृषोत्सर्ग करके सपिण्डीकरण के पूर्व षोडश श्राद्धों को करना चाहिए। वह मैं तुमसे कहता हूँ। मृत स्थान में, द्वार पर, अर्धमार्ग में, चिता में, शव के हाथ में और अस्थि संचय में इस प्रकार छ: पिण्ड प्रदान करके दस दिन तक दशगात्र के दस पिण्डों को देना चाहिए। यह प्रथम मलिनषोडशी श्राद्ध कहा जाता है और दूसरा मध्य में किया जाने वाला मध्यमषोडशी कहा जाता है उसके विषय में तुमसे कहता हूँ।

मध्यमषोडशी में (मलिनषोडशी की भाँति ही सोलह पिण्ड होते हैं) पहला पिण्ड भगवान विष्णु को, दूसरा शिव तथा तीसरा सपरिवार यम को प्रदान करें।

चौथा पिण्ड सोमराज, पाँचवां हव्यवाह (हव्य को वहन करने वाले अग्नि) छठा कव्यवाह (कव्य वहन करने वाले अग्नि) तथा सातवाँ पिण्ड काल को प्रदान करें। आठवाँ पिण्ड रुद्र को, नवाँ पुरुष को, दसवाँ प्रेत को और ग्यारहवाँ पिण्ड तत्पुरुष के उद्देश्य से देना चाहिए।

हे खग तत्त्वविद लोग इसे मध्यमषोडशी कहते हैं। तदनन्तर प्रतिमास के बारह, पाक्षिक, त्रिपाक्षिक, ऊनषाण्मासिक और ऊनाब्दिक इन श्राद्धों को उत्तमषोडशी कहा जाता है।

इनके विषय में मैंने तुम्हें बताया। हे तार्क्ष्य इनको ग्यारहवें दिन चरु बनाकर करना चाहिए। ये अड़तालीस श्राद्ध प्रेतत्व को नष्ट करने वाले हैं। जिस मृतक के उद्देश्य से ये अड़तालीस श्राद्ध किये जाते हैं, वह पितरों की पंक्ति के योग्य हो जाता है। इसलिए पितरों की पंक्ति में प्रवेश दिलाने के लिए षोडशत्रयी (मलिन, मध्यम तथा उत्तमषोडशी) करनी चाहिए\ इन श्राद्धों से विहीन मृतक का प्रेतत्व सुस्थिर हो जाता है और जब तक षोडशत्रयसंज्ञक श्राद्ध नहीं किये जाते, तब तक वह प्रेत अपने द्वारा अथवा दूसरे के द्वारा दी गई कोई वस्तु प्राप्त नहीं करता। इसलिए पुत्र को विधानपूर्वक षोडशत्रयी का अनुष्ठान करना चाहिए।

पत्नी यदि अपने पति के उद्देश्य से इन श्राद्धों को करती है तो उसे अनन्त श्रेय की प्राप्ति होती है। जो स्त्री अपने मृत पति की और्ध्वदैहिक क्रिया क्षयाह-श्राद्ध (वार्षिक श्राद्ध) तथा पाक्षिक श्राद्ध (महालय-श्राद्ध) करती है, वह मेरे द्वारा सती कही गई है।

जो स्त्री पति के उपकारार्थ पूर्वोक्त श्राद्धों का अनुष्ठान करने के लिए जीवन धारण करती है और मरे हुए अपने पति की श्राद्धादिरूप से सेवा करती है, वह पतिव्रता है और उसका जीवन सफल है। यदि कोई प्रमाद से, आग से जलकर अथवा जल में डूबकर मरता है, उसके सभी संस्कार यथाविधि करने चाहिए। यदि प्रमाद से, स्वेच्छा से अथवा सर्प के द्वारा मृत्यु हो जाए तो दोनों पक्षों की पंचमी तिथि को नाग की पूजा करनी चाहिए। पृथ्वी पर पीठी से फण की आकृति वाले नाग की रचना करके श्वेत पुष्पों तथा सुगन्धित चन्दन से उसकी पूजा करनी चाहिए। धूप और दीप देना चाहिए तथा तण्डुल और तिल चढ़ाना चाहिए। कच्चे आटे का नैवेद्य और दूध अर्पित करना चाहिए। शक्ति के अनुसार सुवर्न का नाग और गौ ब्राह्मण को दान करना चाहिए।

तदनन्तर हाथ जोड़ करके नागराज प्रसन्न हों इस प्रकार कहना चाहिए। पुन: उन जीवों के उद्देश्य से नारायण बलि की क्रिया करनी चाहिए। ऎसा करने से मृत व्यक्ति सभी पातकों मुक्त हो स्वर्ग को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण क्रिया करके एक वर्ष तक अन्न और जल के सहित घट का दान करना चाहिए अथवा संख्यानुसार जल के सहित पिण्डदान करना चाहिए।

ग्यारहवें दिन श्राद्ध करके सपिण्डीकरण करना चाहिए और सूतक बीत जाने पर शय्यादान और पददान करना चाहिए। ।।

इस प्रकार गरुड़पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में एकादशाहविधिनिरूपण नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।।

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) “सपिण्डनादि सर्वकर्मनिरुपण” नामक तेरहवां अध्याय 

अशौचकाल का निर्णय, अशौच में निषिद्ध कर्म, सपिण्डीकरण श्राद्ध, पिण्डमेलन की प्रक्रिया, शय्यादान, पददान तथा गया श्राद्ध की महिमा गरुड़ उवाच गरुड़जी ने कहा

हे प्रभो! सपिण्डन की विधि, सूतक का निर्णय और शय्यादान तथा पददान की सामग्री एवं उनकी महिमा के विषय में कहिए।

श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान ने कहा हे तार्क्ष्य सपिण्डीकरण आदि सम्पूर्ण क्रियाओं के विषय में बतलाता हूँ, जिसके द्वारा मृत प्राणी प्रेत नाम को छोड़कर पितृगण में प्रवेश करता है, उसे सुनो।

जिनका पिण्ड रुद्रस्वरुप पितामह आदि के पिण्डों में नहीं मिला दिया जाता, उनकों पुत्रों के द्वारा दिये गये अनेक प्रकार के दान प्राप्त नहीं होते।

उनका पुत्र भी सदा अशुद्ध रहता है कभी शुद्ध नहीं होता क्योंकि सपिण्डीकरण के बिना सतक की निवृत्ति अर्थात समाप्ति नहीं होती। इसलिए पुत्र के द्वारा सूतक के अन्त में सपिण्डन किया जाना चाहिए।

मैं सभी के लिए सूतकान्त का यथोचित काल कहूँगा। ब्राह्मण दस दिन में, क्षत्रिय बारह दिन में, वैश्य पन्द्रह दिन और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है।

प्रेत संबंधी सूतक में सपिण्डी दस दिन में शुद्ध होते हैं। सकुल्या (कुल के लोग) तीन रात में शुद्ध होते हैं और गोत्रज स्नान मात्र से शुद्ध हो जाते हैं।

चौथी पीढ़ी तक के बान्धव दस रात में, पाँचवीं पीढ़ी के लोग छ: रात में, छठी पीढ़ी के चार दिन में और सातवीं पीढ़ी के तीन दिन में, आठवीं पीढ़ी के एक दिन में, नवीं पीढ़ी के दो प्रहर में तथा दसवीं पीढ़ी के लोग स्नान मात्र से मरणाशौच और जननाशौच से शुद्ध हो जाते हैं। देशान्तर में गया हुआ कोई व्यक्ति अपने कुल के जननाशौच या मरणाशौच के विषय का समाचार दस दिन के अंदर सुनता है तो दस रात्रि बीतने में जितना समय शेष रहता है, उतने समय के लिए उसे अशौच होता है। दस दिन बीत जाने के बाद और एक वर्ष के पहले तक ऎसा समाचार मिलने पर तीन रात तक अशौच रहता है।

संवत्सर अर्थात एक वर्ष बीत जाने पर समाचार मिले तो स्नान मात्र से शुद्धि हो जाती है।

मरणाशौच के आदि के दो भागों के बीतने के पूर्व अर्थात छ: दिन तक यदि कोई दूसरा अशौच आ पड़े तो आद्य अशौच की निवृति के साथ ही दूसरे अशौच की भी निवृत्ति अर्थात शुद्धि हो जाती है।

किसी बालक की दाँत निकलने से पूर्व मृत्यु होने पर सद्य: अर्थात उसके अन्तिम संस्कार के बाद स्नान करने पर, चूडाकरण अर्थात मुण्डन हो काने पर एक रात, व्रतबन्ध होने पर तीन रात और व्रतबन्ध के पश्चात मृत्यु होने पर दस रात का अशौच होता है। जब किसी भी वर्ण की कन्या की मृत्यु जन्म से लेकर सत्ताईस मास की अवस्था तक हो जाए तो सभी वर्णों में समान रुप से सद्य: अशौच की निवृत्ति हो जाती है। इसके बाद वाग्दानपर्यन्त एक दिन का और इसके बाद अथवा बिना वाग्दान के भी सयानी कन्याओं की मृत्यु होने पर तीन रात्रि का अशौच होता है, यह निश्चित है। वाग्दान के अनन्तर कन्या की मृत्यु होने पर पितृकुल और वरकुल दोनों को तीन दिन का तथा कन्यादान हो जाने पर केवल पति के कुल में अशौच होता है।

छ: मास के अंदर गर्भस्त्राव हो जाने पर जितने माह का गर्भ होता है, उतने ही दिनों में शुद्धि होती है।

इसके बाद अर्थात छ: माह के बाद गर्भस्त्राव हो तो उस स्त्री को अपनी जाति के अनुरुप अशौच होता है। गर्भपात होने पर सपिण्ड की सद्य: (स्नानोत्तर) शुद्धि हो जाती है। कलियुग में जननाशौच और मरणाशौच से सभी वर्णों की दस दिन में शुद्धि हो जाती है, ऎसा शास्त्र का निर्णय है।

मरणाशौच में आशीर्वाद, देवपूजा, प्रत्युत्थान (आगन्तुक के स्वागतार्थ उठना) अभिवादन, पलंग पर शयन अथवा किसी अन्य का स्पर्श नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार मरणाशौच में संध्या, दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पन, ब्राह्मणभोजन तथा व्रत नहीं करना चाहिए।

जो व्यक्ति सूतक में नित्य-नैमित्तिक अथवा काम्य कर्म करता है, उसके द्वारा पहले किये गये नित्य-नैमित्तिक आदि कर्म विनष्ट हो जाते हैं। व्रती, मन्त्रपूत, अग्निहोत्री ब्राह्मण, ब्रह्मनिष्ठ, यती और राजा इन्हें सूतक नहीं लगता।

विवाह, उत्सव अथवा यज्ञ में मरणाशौच हो जाने पर उस अशौच की प्रवृत्ति के पूर्व बनाया हुआ अन्न भोजन करने योग्य होता है ऎसा मनु ने कहा है। सूतक ना जानने के कारन जो व्यक्ति सूतक वाले घर से अन्नादि कुछ ग्रहण करता है, वह दोषी नहीं होता, किंतु याचक को देने वाला दोष का भागी होता है।

जो सूतक को छिपाकर ब्राह्मण को अन्न देता है, वह दाता तथा सूतक को जानकर भी जो ब्राह्मण सूतकान्न का भोजन करता है, वे दोनों ही दोषी होते हैं।

इसलिए सूतक से शुद्धि प्राप्त करने के लिए पिता का सपिण्डन श्राद्ध करना चाहिए तभी वह मृतक पितृगणों के साथ पितृलोक में जाता है। तत्त्वदर्शी मुनियों ने बारहवें दिन, तीन पक्ष में, छ: मास में अथवा एक वर्ष पूर्ण होने पर सपिण्डीकरन करने के लिए कहता हूँ।कलियुग में धार्मिक भावना के अनित्य होने से, पुरुषों की आयु क्षीण होने से और शरीर की अस्थिरता के कारण बारहवें दिन ही सपिण्डीकरण कर लेना प्रशस्त है।

गृहस्थ के मरने पर व्रतबन्ध, उत्सव आदि, व्रत, उद्यापन तथा विवाहादि कृत्य नहीं होते। जब तक पिण्डमेलन नहीं होता अर्थात पितरों में पिण्ड मिला नहीं दिया जाता या सपिण्डीकरण-श्राद्ध नहीं हो जाता तब तक उसके यहाँ से भिक्षु भिक्षा भी नहीं ग्रहण करता, अतिथि उसके यहाँ सत्कार नहीं ग्रहण करता और नित्य-नैमित्तिक कर्मों का भी लोप रहता है। कर्म का लोप होने से दोष का भागी होना पड़ता है इसलिए चाहे निरग्निक हो या सार्ग्निक (अग्निहोत्री) बारहवें दिन सपिण्डन कर देना चाहिए। सभी तीर्थों में स्नान आदि करने और सभी यज्ञों का अनुष्ठान करने से जो फल प्राप्त होता है, वही फल बारहवें दिन सपिण्डन करने से प्राप्त होता है। अत: स्नान करके मृतावस्था में गोमय से लेपन करके पुत्र को शास्त्रोक्त विधि से सपिण्डन श्राद्ध करना चाहिए।

पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय आदि से विश्वे देवों का पूजन करे और असद्गति के पितरों के लिए भूमि में विकिर देकर हाथ-पाँव धोकर पुन: आचमन करें तब वसु, रुद्र और आदित्यस्वरूप पिता, पितामह तथा प्रपितामह को क्रमश: एक-एक अर्थात तीन पिण्ड प्रदान करें और चौथा पिण्ड मृतक को प्रदान करें। चन्दन, तुलसीपत्र, धूप-दीप, सुन्दर भोजन, ताम्बूल, सुन्दर वस्त्र तथा दक्षिणा आदि से पूजन करें। तदनन्तर सुवर्ण की शलाका से प्रेत के पिण्ड को तीन भागों में विभक्त करके पितामह आदि के पिण्डों में पृथक-पृथक उसका मेलन करें अर्थात एक भाग पितामह के पिण्ड में, दूसरा भाग प्रपितामह के पिण्ड में तथा तीसरा भाग वृद्ध प्रपितामह के पिण्ड में मिलाएँ।

हे तार्क्ष्य मेरा मत है कि माता के पिण्ड का मेलन पितामही आदि के पिण्ड के साथ और पिता के पिण्ड का मेलन पितामह आदि के पिण्ड के साथ करके सपिण्डीकरण-श्राद्ध संपन्न करना चाहिए। जिसके पिता की मृत्यु हो गई हो और पितामह जीवित हों, उसे प्रपितामहादि पूर्व पुरुषों को तीन पिण्ड प्रदान करना चाहिए और पितृपिण्ड को तीन भागों में विभक्त करके (प्रपितामह आदि) उन्हीं के साथ मेलन करें। माता की मृत्यु हो जाने पर पितामही जीवित हो तो माता के सपिण्डन-श्राद्ध में भी पितृ-सपिण्डन की भाँति प्रपितामही आदि मे मातृपिण्ड का मेलन करना चाहिए अथवा पितृपिण्ड को मेरे पिण्ड (विष्णु जी के) में और मातृपिण्ड को महालक्ष्मी पिण्ड में मिलाएँ।

पुत्रहीन स्त्री का सपिण्डनादि श्राद्ध उसके पति को करना चाहिए और उसका सपिण्डीकरण उसकी सास आदि के साथ होना चाहिए।

एक मतानुसार विधवा स्त्री का सपिण्डीकरण पति, श्वसुर और वृद्ध श्वसुर के साथ करना चाहिए।

हे तार्क्ष्य यह मेरा मत नहीं है। विधवा स्त्री का सपिण्डन पति के साथ होने योग्य है। हे काश्यप यदि पति और पत्नी एक ही चिता पर आरुढ़ हुए हों तो तृण को बीच में रखकर शवसुरादि के पिण्ड के साथ स्त्री के पिण्ड का मेलन करना चाहिए। एक चिता पर माता-पिता का दाह संस्कार किये जाने पर एक ही पुत्र पहले पिता के उद्देश्य से पिण्डदान करके स्नान करे, तदनन्तर अपनी सती माता का पिण्डदानन करके पुन: स्नान करे। यदि दस दिन के अन्तर्गत किसी सती ने अग्नि प्रवेश किया है तो उसका शय्यादान और सपिण्डन आदि कृत्य उसी दिन करना चाहिए, जिस दिन पति का किया जाए।

हे गरुड़ सपिण्डिकरण करने के अनन्तर पितरों का तर्पण करे और इस क्रिया में वेदमन्त्रों से समन्वित स्वधाकार का उच्चारण करे।

इसके पश्चात अतिथि को भोजन कराएँ और हन्तकार प्रदान करें। ऎसा करने से पितर, मुनिगण, देवता तथा दानव तृप्त होते हैं। भिक्षा एक ग्रास के बराबर होती है, पुष्कल चार ग्रास के बराबर होता है और चार पुष्कलों (सोलह ग्रास) का एक हन्तकार होता है। सपिण्डीकरण में ब्राह्मणों के चरणों की पूजा चन्दन-अक्षत से करनी चाहिए और पितरों की अ़ायतृप्ति के लिये ब्राह्मण को दान देना चाहिए। वर्ष भर जीविका का निर्वाह करने योग्य घृत, अन्न, सुवर्ण, रजत, सुन्दर गौ, अश्व, गज, रथ और भूमिका आचार्य को दान करना चाहिए।

इसके बाद स्वस्तिवाचनपूर्वक मन्त्रों से कुंकुम, अक्षत और नैवेद्यादि के द्वारा ग्रहों, देवी और विनायक की पूजा करनी चाहिए। इसके बाद आचार्य मन्त्रोच्चारण करते हुए यजमान का अभिषेक करे और हाथ में रक्षासूत्र बाँधकर मन्त्र से पवित्र अक्षत प्रदान करें। तदनन्तर विविध प्रकार के सुस्वादु मिष्टान्नों से ब्राह्मणों को भोजन कराएँ और फिर दक्षिणा सहित अन्न एवं जलयुक्त बारह घट प्रदान करें” तदनन्तर ब्राह्माणि को वर्ण क्रम से अपनी शुद्धि हेतु क्रमश: जल, शस्त्र, कोड़े फर डण्डे का स्पर्श करना चाहिए अर्थात ब्राह्मण जल का, क्षत्रिय शस्त्र का, वैश्य कोड़े का तथा शूद्र डण्डे का स्पर्श करे। ऎसा करने से वे शुद्ध हो जाते हैं।

इस प्रकार सपिण्डन-श्राद्ध करके क्रिया करते समय पहने गये वस्त्रों का त्याग कर दें। इसके बाद श्वेत वर्ण के वस्त्र को धारण करके शय्यादान करें। इन्द्र सहित सभी देवता शय्यादान की प्रशंसा करते हैं, अत: मृतक के उद्देश्य से उसकी मृत्यु के बाद अथवा जीवनकाल में भी शय्या प्रदान करनी चाहिए। शय्या सुदृढ़ काष्ठ की सुन्दर एवं विचित्र चित्रों से चित्रित, दृढ़, रेशमी सूत्रों से बनी हुई तथा स्वर्णपत्रों से अलंकृत हो। श्वेत रुई के गद्दे, सुन्दर तकिये तथा चादर से युक्त हो तथा पुष्प, गन्ध आदि द्रव्यों से सुवासित हो।

वह सुन्दर बन्धनों से भली भाँति बँधी हुई हो और पर्याप्त विशाल हो तथा सुख प्रदान करने वाली हो ऎसी शय्या को बनाकर आस्तरणयुक्त (कुश या दरी-चादरयुक्त) भूमि पर रखें। उस शय्या के चारों ओर छाता, चाँदी का दीपालय, चँवर, आसन और पात्र, झारी या कलश, गड़ुआ, दर्पण, पाँच रंगों वाला चँदवा तथा शयनोपयोगी और सभी सामग्रियों को यथास्थान स्थापित करें। उस शय्या के ऊपर सभी प्रकार के आभूषण, आयुध तथा वस्त्र से युक्त स्वर्ण की श्रीलक्ष्मी-नारायण की मूर्त्ति स्थापित करें। सौभाग्यवती स्त्री के लिये दी जाने वाली शय्या के साथ पूर्वोक्त वस्तुओं के अतिरिक्त कज्जल, महावर, कुंकुम, स्त्रियोचित वस्त्र, आभूषण तथा सौभाग्य-द्रव्य आदि सब कुछ प्रदान करें।

तदनन्तर सपत्नीक ब्राह्मण को गन्ध-पुष्पादि से अलंकृत करके ब्राह्मणी को कर्णाभरण, अंगूठी और सोने के कण्ठ सूत्र से विभूषित करें।

उसके बाद ब्राह्मण को साफा, दुपट्टा और कुर्ता पहनाकर श्रीलक्ष्मी-नारायण मूर्ति के आगे सुख शय्या पर बिठाए।

कुंकुम और पुष्पमाला आदि से श्रीलक्ष्मी-नारायण की भली भाँति पूजा करें। तदनन्तर लोकपाल, नवग्रह, देवी और विनायक की पूजा करें।

उत्तराभिमुख होकर अंजलि में पुष्प लेकर ब्राह्मण के सामने स्थित होकर इस मन्त्र का उच्चारण करें हे कृष्ण जैसे क्षीरसागर में आपकी शय्या है, वैसे ही जन्म-जन्मान्तर में भी मेरी शय्या सूनी न हो। इस प्रकार प्रार्थना करके विप्र और श्रीलक्ष्मी-नारायण को पुष्पांजलि चढ़ाकर संकल्पपूर्वक उपस्कर (सभी सामग्रियों) के साथ व्रतोपदेशक, ब्रह्मवादी गुरु को शय्या का दान दे और कहे “हे ब्राह्मण इस शय्या को ग्रहण करो”

ब्राह्मण को ‘कोSदात्कस्मा अदात्कामोSदात्कामायादात् । कामो दाता काम: प्रतिग्रहीता कामैतत्ते ।।’ (यजु. 7।48),

यह मन्त्र कहते हुए ग्रहण करें।

इसके बाद शय्या पर स्थित ब्राह्मण को, लक्ष्मी और नारायण की प्रतिमा को हिलाएँ, तदनन्तर प्रदक्षिणा और प्रणाम करके उन्हें विसर्जित करें। यदि पर्याप्त धन-संपत्ति हो तो शय्या में सुखपूर्वक शयन करने के लिए सभी प्रकार के उपकरणों से युक्त अत्यन्त सुन्दर गृहदान भी करें।

जो जीवितावस्था में अपने हाथ से शय्यादान करता है, वह जीते हुए ही पर्वकाल में वृषोत्सर्ग भी करे। एक शय्या एक ही ब्राह्मण को देनी चाहिए।

बहुत ब्राह्मणों को एक शय्या कदापि नहीं देनी चाहिए। यदि वह शय्या विभक्त अथवा विक्रय करने के लिए दी जाती है तो वह दाता के अध:पतन का कारण बनती है।

सत्पात्र को शय्यादान करने से वांछित फल की प्राप्ति होती है और पिता तथा दान देने वाला पुत्र दोनों इस लोक और परलोक में मुदित होते हैं। शय्यादान के प्रताप से दाता दिव्य इन्द्रलोक में अथवा सूर्यपुत्र यम के कोल में पहुँचता है, इसमें संशय नहीं है। श्रेष्ठ विमान पर आरुढ़ होकर अप्सरागणों से सेवित दाता प्रलयपर्यन्त आतंकरहित होकर स्वर्ग में स्थित रहता है। सभी तीर्थों में तथा सभी पर्व दिनों में जो भी पुण्यकार्य किये जाते हैं, उन सभी से अधिक पुण्य शय्यादान के द्वारा प्राप्त होता है। इस प्रकार पुत्र को शय्यादान करके पददान देना चाहिए।

पददान के विषय में मैं तुम्हें यथावत बतलाता हूँ, सुनो। छाता, जूते, वस्त्र, अँगूठी, कमण्डलु, आसन तथा पंचपात्र ये सात वस्तुएँ पद कही गई हैं। दण्ड, ताम्रपत्र, आमान्न (कच्चा अन्न), भोजन, अर्घ्यपात्र और यज्ञोपवीत को मिलाकर पद की सम्पूर्णता होती है। इस प्रकार शक्ति के अनुसार तेरह पददानों की व्यवस्था करके बारहवें दिन तेरह ब्राह्मणों को पददान करना चाहिए। इस पददान से धार्मिक पुरुष सद्गति को प्राप्त होते हैं।

यममार्ग में गये हुए जीवों के लिए पददान सुख प्रदान करने वाला होता है।

वहाँ यममार्ग में अत्यन्त प्रचण्ड आतप होता है, जिससे अम्नुष्य जलता है। छाता दान करने से उसके सिर पर सुन्दर छाया हो जाती है। जो जूता दान करते हैं, वे अत्यन्त कण्टकाकीर्ण यमलोक के मार्ग में अश्व पर चढ़कर जाते हैं।

हे खेचर वहाँ यममार्ग में शीत, गरमी और वायु से अत्यन्त घोर कष्ट मिलता है। वस्त्रदान के प्रभाव से जीव सुखपूर्वक उस मार्ग को तय कर लेता है।

यम के मार्ग में माहभयंकर और विकराल तथा काले और पीले वर्ण के यमदूत मुद्रिका प्रदान करने से जीव को पीड़ा नहीं देते हैं।

कमण्डलु का दान करने से अत्यन्त धूप से परिपूर्ण, वायुरहित और जलविहीन यममार्ग में जाने वाला वह प्यासा जीव प्यास लगने पर जल पीता है। मृत व्यक्ति के उद्देश्य से जो ताम्र का जल पात्र देता है, उसे एक हजार प्रपादान का फल अवश्य ही प्राप्त होता है। ब्राह्मण को सम्यक्-रूप से आसन और भोजन देने पर यममार्ग में चलता हुआ जीव धीरे-धीरे सुखपूर्वक पाथेय (भोज्य-पदार्थों) का उपभोग करता है। इस प्रकार सपिण्डन के दिन विधानपूर्वक दान दे करके बहुत-से ब्राह्मणों को तथा चाण्डाल आदि को भी भोजन देना चाहिए। इसके बाद वर्ष के पूर्व ही बारहवें दिन सपिण्डन करने पर भी प्रत्येक मास जलकुम्भ और पिण्डदान करना चाहिए। हे खग प्रेत कार्य को छोड़कर अन्य किसी कर्म का पुन: अनुष्ठान नहीं किया जाता, किंतु प्रेत की अक्षयतृप्ति के लिये पुन:-पुन: पिण्डदानादि करना चाहिए।

अत: मैं विशेष तिथि पर म्रत्यु होने वाले जीव के मासिक, वार्षिक और पाक्षिक श्राद्ध के विषय में कुछ विशेष बात कहूँगा।

पूर्णमासी तिथि पर जो मरता है उसका ऊनमासिक श्राद्ध चतुर्थी तिथि को होता है और जिसकी मृत्यु चतुर्थी तिथि को हुई है, उसका ऊनमासिक श्राद्ध नवमी तिथि को होता है। नवमी तिथि को जिसकी म्रत्यु हुई है, उसका ऊनमासिक श्राद्ध रिक्ता तिथि चतुर्दशी को होता है।

इस प्रकार पाक्षिक श्राद्ध बीसवें दिन करना चाहिए। यदि एक ही मास में दो संक्रांतियाँ हों तो दो महीनों का श्राद्ध मलमास में ही करना चाहिए। यदि एक ही मास में दो मास हों तो उस मास के ही वे दोनों पक्ष और वे ही तीस तिथियाँ उन दोनों महीनों की मानी जाएगी। मलमास में पड़ने वाले उन दोनों मासों के मासिक श्राद्ध के विषय में विद्वानों को यह व्यवस्था सोचनी चाहिए कि श्राद्ध-तिथि के दिन पूर्वार्द्ध में प्रथम मास का श्राद्ध करें और द्वितीयार्द्ध में दोपहर के बाद दूसरे मास का श्राद्ध करें।

हे खग संक्रान्ति रहित मास (मलमास) में भी सपिण्डीकरण तथा मासिक और प्रथम वार्षिक श्राद्ध करना चाहिए।

यदि वर्ष पूर्ण होने के मध्य में अधिमास आता है तो तेरह महीने पूर्ण होने के अनन्तर प्रेत का वार्षिक श्राद्ध करना चाहिए।

संक्रांति रहित मास में पिण्ड रहित श्राद्ध (आम श्राद्ध) और संक्रांतियुक्त मास में पिण्डयुक्त श्राद्ध करना चाहिए।

इस प्रकार प्रथम वार्षिक श्राद्ध को (मलमास तथा उसके बाद आने वाले शुद्ध मास तेरहवें मास) दोनों ही मासों में करना चाहिए। इस प्रकार वर्ष पूर्ण होने पर वार्षिक श्राद्ध करना चाहिए और वार्षिक श्राद्ध की तिथि को विशेष रूप से ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।

एक वर्ष पूर्ण हो जाने पर श्राद्ध में हमेशा तीन पिण्ड दान करना चाहिए।

एकोद्दिष्ट श्राद्ध नहीं करना चाहिए। ऎसा करने वाला पितृघातक होता है। तीर्थश्राद्ध, गयाश्राद्ध तथा गजच्छाया योग में, युगादि तिथियों तथा ग्रहण में किया जाने वाला पितृश्राद्ध वर्ष के अंदर नहीं करना चाहिए। हे खगेश्वर पितृभक्ति से प्रेरित हो करके पुत्र को एक वर्ष के अनन्तर ही गया श्राद्ध करना चाहिए।

गया श्राद्ध करने से पितर भवसागर से मुक्त हो जाते हैं और भगवान गदाधर की कृपा से वे परम गति को प्राप्त होते हैं। गया के विष्णुपद तीर्थ में तुलसी की मंजरी से भगवान विष्णु की पादुका का पूजन करना चाहिए और उसके आलवाल आदि तीर्थों में यथाक्रम पिण्डदान करना चाहिए।

जो व्यक्ति गयाशिर में शमी के पत्ते के समान प्रमाण वाले पिण्ड को देता है, वह सातों गोत्रों के अपने एक सौ एक पुरुषों का उद्धार करता है। कुल को आनन्दित करने वाला जो पुत्र गया में जाकर श्राद्ध करता है, पितरों को तुष्टि देने के कारण उसका जन्म सफल हो जाता है। हे खगेश्वर यह सुना जाता है कि देव-पितरों ने मनु के पुत्र इक्ष्वाकु को कलापवन में यह गाथा सुनाई थी क्या हमारे कुल में ऎसे कोई सन्मार्गगामी पुत्र होगें, जो गया में जाकर आदरपूर्वक हम लोगों को पिण्ड प्रदान करेगें ?

हे तार्क्ष्य इस प्रकार जो पुत्र पितरों की आमुष्मिक (परलोक संबंधी) क्रिया करता है, वह सुखी होकर कौशिक के पुत्रों (कौशिक के सात पुत्रों की कथा मत्स्यपुराण, हरिवंशपुराण तथा पद्मपुराण आदि में विस्तार से दी गई है) की भाँति मुक्त हो जाता है। हे तार्क्ष्य भरद्वाज के सात पुत्र पितृश्राद्ध के हेतु गोवध करके भी सात जन्मपंपराओं को भोग करके पितरों के प्रसाद से मुक्त हो गये।

कौशिक के वे सातों पुत्र प्रथम जन्म में दशार्ण देश में सात व्याधों के रूप में उत्पन्न हुए थे।

इसके बाद अगले जन्म में वे कालंजर पर्वत पर मृग के रूप में उत्पन्न हुए।

फिर शरद्द्वीप में चक्रवात के रुप में उनकी उत्पत्ति हुई, अगले जन्म में मानसरोवर में हंस के रूप में उत्पन्न हुए। वे ही कुरुक्षेत्र में वेदपारगामी ब्राह्मण के रुप में उत्पन्न हुए और पितरों के प्रति भक्तिभाव रखने के कारण वे ब्राह्मणपुत्र मुक्त हो गये।

इसलिए पूरे प्रयत्न से मनुष्य को पितृभक्त होना चाहिए। पितृभक्ति के कारण मनुष्य इस लोक तथा परलोक में भी सुखी होता है। हे तार्क्ष्य यह सब और्ध्वदैहिक क्रिया हमने तुमसे कही। यह कृत्य पुत्र की कामना को पूर्ण करने वाला, पुण्यप्रद तथा पिता को मुक्ति प्रदान करने वाला है।

जो कोई निर्धन मनुष्य भी इस कथा को सुनता है, वह भी पाप से मुक्त होकर पितरों के निमित्त दिये जाने वाले दान का फल प्राप्त करता है।

जो मनुष्य मेरे द्वारा कहे गये श्राद्धों एवं दानों को विधिपूर्वक करता है और गरुड़ पुराण की कथा को सुनता है, उसके फल को सुनो पिता उसको सत्पुत्र प्रदान करता है, पितामह उसे गोधन देते हैं, उसके प्रपितामह उसे बहुविध धन-संपत्ति प्रदान करते हैं और वृद्ध प्रपितामह तृप्त होकर विपुल अन्न आदि प्रदान करते हैं। इस प्रकार श्राद्ध से तृप्त होकर सभी पितर पुत्र को वांछित फल देते हैं और धर्ममार्ग से धर्मराज के प्रासाद में जाकर वे धर्मराज की सभा में आदरपूर्वक विराजमान रहते हैं।

सूत उवाच सूतजी ने कहा इस प्रकार श्रीविष्णु जी से और्ध्वदैहिक श्राद्ध-दानादिविषयक माहात्म्य सुनकर गरुड़्जी को अपार हर्ष हुआ।

।। इस प्रकार गरुड़ पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में सपिण्डनादि सर्वकर्मनिरुपण नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ।।

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) “धर्मराजनिरुपण” नामक चौदहवां अध्याय 

यमलोक एवं यम सभा का वर्णन, चित्रगुप्त आदि के भवनों का परिचय, धर्मराज नगर के चार द्वार, पुण्यात्माओं का धर्म सभा में प्रवेश गरुड़ उवाच गरुड़ जी ने कहा

हे दयानिधे यमलोक कितना बड़ा है ?‌ कैसा है ? किसके द्वारा बनाया हुआ है ? वहाँ की सभा कैसी है और उस सभा में धर्मराज किनके साथ बैठते हैं ?

हे दयानिधे जिन धर्मों का आचरण करने के कारण धार्मिक पुरुष जिन धर्म मार्गों से धर्मराज के भवन में जाते हैं, उन धर्मों तथा मार्गों के विषय में भी आप मुझे बतलाइए  श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान ने कहा हे गरुड़ धर्मराज का जो नगर नारदादि मुनियों के लिए भी अगम्य है उसके विषय में बतलाता हूँ, सुनो ! उस दिव्य धर्म नगर को महापुण्य से ही प्राप्त किया जा सकता है। दक्षिण दिशा और नैऋत्य कोण के मध्य में वैवस्वत, यम का जो नगर है, वह संपूर्ण नगर वज्र का बना हुआ है, दिव्य है और असुरों तथा देवताओं से अभेद्य है।

वह पुर चौकोर, चार द्वारों वाला, ऊँची चार दीवारी से घिरा हुआ और एक हजार योजन प्रमाण वाला कहा गया है। उस पुर में चित्रगुप्त का सुन्दर मन्दिर है, जो पच्चीस योजन लम्बाई और चौड़ाई में फैला हुआ है। उसकी ऊँचाई दस योजन है और वह लोहे की अत्यन्त दिव्य चारदीवारी से घिरा है।

वहाँ आवागमन के लिए सैकड़ों गलियाँ हैं और वह पताकाओं एवं ध्वजों से विभूषित है। वह विमान समूहों से घिरा है और गायन-वादन से विनादित है। चित्र बनाने में निपुण चित्रकारों के द्वारा चित्रित है तथा देवताओं के शिल्पियों ने उसका निर्माण किया है। वह उद्यानों और उपवनों से रमणीय है, नाना प्रकार के पक्षीगण उसमें कलरव करते हैं तथा वह चारों ओर से गन्धर्वों तथा अप्सराओं से घिरा है।

उस सभा में अपने परम अद्भुत आसन पर स्थित चित्रगुप्त मनुष्यों की आयु की यथावत गणना करते हैं। वे मनुष्यों के पाप और पुण्य का लेखा-जोखा करने में त्रुटि नहीं करते। जिसने जो शुभ अथवा अशुभ कर्म किया है, चित्रगुप्त की आज्ञा से उसे उन सबका भोग करना होता है।

चित्रगुप्त के घर के पूरब की ओर ज्वर का एक बड़ा विशाल घर है और उनके घर के दक्षिण शूल, लूता और विस्फोट के घर हैं तथा पश्चिम में कालपाश, अजीर्ण तथा अरुचि के घर हैं।

चित्रगुप्त के घर के उत्तर की ओर राजरोग और पाण्डुरोग का घर है, ईशान कोण में शिर:पीड़ा का और अग्निकोण में मूर्च्छा का घर है। नैऋत्यकोण में अतिसार का, वायव्य कोण में शीत और दाह का स्थान है।

इस प्रकार और भी अन्यान्य व्याधियों से चित्रगुप्त का भवन घिरा हुआ है।‌चित्रगुप्त मनुष्यों के शुभाशुभ कर्मों को लिखते हैं। चित्रगुप्त के भवन से बीस योजन आगे नगर के मध्य भाग में धर्मराज का महादिव्य भवन है। वह दिव्य रत्नमय तथा विद्युत की ज्वालामालाओं से युक्त और सूर्य के समान देदीप्यमान है। वह दो सौ योजन चौड़ा, दो सौ योजन लंबा और पचास योजन ऊँचा है। हजार स्तंभों पर धारण किया गया है,

वैदूर्यमणि से मण्डित है, स्वर्ण से अलंकृत है और अनेक प्रकार के हर्म्य (धनिकों के भवन) और प्रासादगृह से परिपूर्ण है। वह भवन शरतकालीन मेघ के समान उज्जवल, निर्मल एवं सुवर्ण के बने हुए कलशों से अत्यन्त मनोहर है, उसमें चित्र बहुरंगी रंग के स्फटिक से बनी हुई सीढ़ियाँ हैं और वह हीरे के फर्श से सुशोभित है। रोशनदानों में मोतियों के झालर लगे हैं। वह पताकाओं और ध्वजों से विभूषित, घण्टा और नगाड़ों से निनादित तथा स्वर्ण के बने तोरणों से मण्डित है।

वह अनेक आश्चर्यों से परिपूर्ण और स्वर्णनिर्मित सैकड़ों किवाड़ों से युक्त है तथा कण्टकरहित नाना वृक्ष, लताओं एवं गुल्मों अर्थात झाड़ियों से सुशोभित है। इसी प्रकार अन्य भूषणों से भी भवन सदा भूषित रहता है। विश्वकर्मा ने अपने आत्मयोग के प्रभाव से उसका निर्माण किया है। उस धर्मराज के भवन में सौ योजन लंबी-चौड़ी दिव्य सभा है जो सूर्य के समान प्रकाशित, चारों ओर से देदीप्यमान तथा इच्छानुसार स्वरुप धारण करने वाली है। वहाँ न अधिक ठंड है, न अधिक गरमी। वह मन को अत्यन्त हर्षित करने वाली है।

उसमें रहने वाले किसी को न कोई शोक होता है, न वृद्धावस्था सताती है, न भूख-प्यास लगती है और न किसी के साथ अप्रिय घटना ही होती है। देवलोक और मनुष्यलोक में जितने काम (काम्य, विषय, अभिलाषाएँ) हैं, वे सभी वहाँ उपलब्ध हैं। वहाँ सभी तरह के रसों से परिपूर्ण भक्ष्य और भोज्य सामग्रियाँ चारों ओर प्रचुर मात्रा में है।

वहाँ सरस, शीतल तथा उष्ण जल भी उपलब्ध है। उसमें पुण्यमय शब्दादि विषय भी उपलब्ध हैं और नित्य मनोवांछित फल प्रदान करने वाले कल्पवृक्ष भी वहाँ है। हे तार्क्ष्य ! वह सभा बादहरहित, रमणीय और कामनाओं को पूर्ण करने वाली है। विश्वकर्मा ने दीर्घ काल तक तपस्या करके उसका निर्माण किया है। उसमें कठोर तपस्या करने वाले, सुव्रती, सत्यवादी, शान्त, सन्यासी, सिद्ध एवं पवित्र कर्म करके शुद्ध हुए पुरुष जाते हैं।

उन सभी की देह तेजोमय होती है। वे आभूषणों से अलंकृत तथा निर्मल वस्त्रों से युक्त होते हैं तथा अपने किये हुए पुण्य कर्मों के कारण वहाँ विभूषित होकर विराजमान रहते हैं। दस योजन विस्तीर्ण और सभी प्रकार के रत्नों से सुशोभित उस सभा में अनुपम एवं उत्तम आसन पर धर्मराज विद्यमान रहते हैं।

वे सत्पुरुषों में श्रेष्ठ हैं और उनके मस्तक पर छत्र सुशोभित है, कानों में कुण्डलों से अलंकृत वे श्रीमान महामुकुट से सुशोभित हैं। वे सभी प्रकार के अलंकारों से समन्वित तथा नीलमेघ के समान कान्ति वाले हैं। हाथ में चँवर धारण की हुई अप्सराएँ उन्हें पंखा झलती रहती हैं।

गंधर्वों के समूह तथा अप्सराओं का संघ गायन, वादन और नृत्यादि द्वारा सभी ओर से उनकी सेवा करते हैं। हाथ में पाश लिये हुए मृत्यु और बलवान काल तथा विचित्र आकृति वाले चित्रगुप्त एवं कृतान्त के द्वारा वे सेवित हैं। हाथों में पाश और दण्ड धारण करने वाले, उग्र स्वभाव वाले, आज्ञा के अधीन आचरण करने वाले तथा अपने समान बल वाले नाना दूतों से वे धर्मराज घिरे रहते हैं।

हे खग अग्निष्वात्त, सोमप, ऊष्मप, स्वधावान, बहिर्षद, मूर्तिमान तथा अमूर्तिमान जो पितर हैं एवं अर्यमा आदि जो पितृगण हैं और जो अन्य मूर्तिमान पितर हैं वे सब मुनियों के साथ धर्मराज की उपासना करते हैं।

अत्रि, वसिष्ठ, पुलह, दक्ष, क्रतु, अंगिरा, जमदग्निनन्दन परशुराम, भृगु, पुलस्त्य, अगस्त्य, नारद ये तथा अन्य बहुत से पितृराज (धर्मराज) के सभासद हैं, जिनके नामों और कर्मों की गणना नहीं की जा सकती। ये धर्मशास्त्रों की व्याख्या करके यथावत निर्णय देते हैं, ब्रह्मा की आज्ञा के अनुसार वे सब धर्मराज की सेवा करते हैं।

उस सभा में सूर्य वंश के तथा चंद्र वंश के अन्य बहुत से धर्मात्मा राजा धर्मराज की सेवा करते हैं। मनु, दिलीप, मान्धाता, सगर, भगीरथ, अम्बरीष, अनरण्य, मुचुकुन्द, निमि, पृथु, ययाति, नहुष, पूरु, दुष्यन्त, शिवि, नल, भरत, शन्तनु, पाण्डु तथा सहस्त्रार्जुन – ये यशस्वी पुण्यात्मा राजर्षि और बहुत से प्रख्यात राजा बहुत से अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करने के फलस्वरुप धर्मराज के सभासद हुए हैं।

धर्मराज की सभा में धर्म की ही प्रवृति होती है। न वहाँ पक्षपात है, न झूठ बोला जाता है और न किसी का किसी के प्रति मात्सर्यभाव रहता है। सभी सभासद शास्त्रविद और सभी धर्मपरायण हैं।

वे सदा उस सभा में वैवस्वत यम की उपासना करते हैं। हे तार्क्ष्य महात्मा धर्मराज की वह सभा इस प्रकार की है।

जो पापात्मा पुरुष दक्षिण द्वार से वहाँ जाते हैं, वे उस सभा को नहीं देख पाते। धर्मराज के पुर में जाने के लिए चार मार्ग हैं।

पापियों के गमन के लिए जो मार्ग है उसके विषय में मैंने तुमसे पहले ही कह दिया। पूर्व आदि तीन मार्गों से जो धर्मराज मंदिर में जाते हैं, वे सुकृती अर्थात पुण्यात्मा होते हैं और अपने पुण्यों के बल से वहाँ जाते हैं, उनके विषय में सुनो। उन मार्गों में जो पहला पूर्व मार्ग है वह सभी प्रकार की सामग्रियों से समन्वित है और पारिजात वृक्ष की छाया से आच्छादित तथा रत्नमण्डित है। वह मार्ग विमानों के समूहों से संकीर्ण और हंसों की पंक्ति से सुशोभित है, विद्रूम के उद्यानों से व्याप्त है और अमृतमय जल से युक्त है। उस मार्ग से पुण्यात्मा ब्रह्मर्षि और अमलान्तरात्मा राजर्षि, अप्सरागण, गन्धर्व, विद्याधर, वासुकि आदि महान नाग जाते हैं।

अन्य बहुत से देवताओं की आराधना करने वाले शिव जी भक्ति निष्ठ, ग्रीष्म ऋतु में प्याऊ का दान करने वाले माघ में आग सेंकने के लिए लकड़ी देने वाले, वर्षा-ऋतु में विरक्त संतों को दान-मानादि प्रदान करके उन्हें विश्राम कराने वाले, दु:खी मनुष्य को अमृतमय वचनों से आश्वस्त करने वाले और आश्रय देने वाले, सत्य और धर्म में रहने वाले, क्रोध और लोभ से रहित, पिता-माता में भक्ति रखने वाले, गुरु की शुश्रुषा में लगे रहने वाले, भूमि दान देने वाले, गृहदान देने वाले, गोदान देने वाले,

विद्या प्रदान करने वाले, पुराण के वक्ता, श्रोता और पुराणों का परायण करने वाले ये सभी तथा अन्य पुण्यात्मा भी पूर्वद्वार से धर्मराज के नगर में प्रवेश करते हैं। वे सब सुशील और शुद्ध बुद्धि वाले धर्मराज की सभा में जाते हैं।

धर्मराज के नगर में जाने के लिए दूसरा उत्तर-मार्ग है, जो सैकड़ों विशाल रथों से तथा शिवि का आदि नर यानों से परिपूर्ण है। वह हरिचन्दन के वृक्षों से सुशोभित है। उस मार्ग में हंस और सारस से व्याप्त, चक्रवाक से सुशोभित तथा अमृततुल्य जल से परिपूर्ण एक मनोरम सरोवर है। इस मार्ग से वैदिक, अभ्यागतों की पूजा करने वाले, दुर्गा और सूर्य के भक्त, पर्वों पर तीर्थ स्नान करने वाले, धर्म संग्राम में अथवा अनशन करके मृत्यु प्राप्त करने वाले, वाराणसी में, गोशाला में अथवा तीर्थ-जल में विधिवत प्राण त्याग करने वाले हैं।

ब्राह्मणों अथवा अपने स्वामी के कार्य से तथा तीर्थक्षेत्र में मरने वाले और देव-प्रतिमा आदि के विध्वंस होने से बचाने के प्रयास में प्राण त्याग करने वाले हैं, योगाभ्यास से प्राण त्याग करने वाले हैं,

सत्पात्रों की पूजा करने वाले हैं तथा नित्य महादान देने वाले हैं, वे व्यक्ति उत्तर द्वार से धर्मसभा में जाते हैं।

तीसरा पश्चिम का मार्ग है, जो रत्नजटित भवनों से सुशोभित है, वह अमृत सर से सदा परिपूर्ण रहने वाली बावलियों से विराजित है। वह मार्ग ऎरावत-कुल में उत्पन्न मदोन्मत हाथियों से तथा उच्चै:श्रवा से उत्पन्न अश्वरत्नों से भरा है।

इस मार्ग से आत्मतत्ववेत्ता, सत-शास्त्रों के परिचिन्तक, भगवान श्री विष्णु जी के अनन्य भक्त, गायत्री मन्त्र का जप करने वाले, दूसरों की हिंसा, दूसरों के द्रव्य एवं दूसरों की निन्दा से पराड़्मुख रहने वाले, अपनी पत्नी में सन्तुष्ट रहने वाले, संत, अग्निहोत्री, वेदपाठी ब्राह्मण गमन करते हैं।

ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले, वानप्रस्थ आश्रम के नियमों का पालन करने वाले, तपस्वी, सन्यास धर्म का पालन करने वाले तथा श्रीचरण-सन्यासी एवं मिट्टी के ढेले, पत्थर और स्वर्ण को समान समझने वाले, ज्ञान एवं वैराग्य से सम्पन्न, सभी प्राणियों के हित-साधन में निरत, शिव और विष्णु का व्रत करने वाले, सभी कर्मों को ब्रह्म को साम्र्पित करने वाले, देव-ऋण, पितृ-ऋण एवं ऋषि-ऋण इन तीनों ऋणों से विमुक्त, सदा पंचयज्ञ में निरत रहने वाले, पितरों को श्राद्ध देने वाले, समय से संध्योपासन करने वाले, नीच की संगति से अलग रहने वाले,

सत्पुरुषों की संगति में निष्ठा रखने वाले ये सभी जीव अप्सराओं के समूहों से युक्त श्रेष्ठ विमान में बैठकर अमृतपान करते हुए धर्मराज के भवन में जाते हैं और उस भवन के पश्चिम द्वार से प्रविष्ट होकर धर्मसभा में पहुँचते हैं। उन्हें आया हुआ देखकर धर्मराज बार-बार स्वागत-सम्भाषण करते हैं, उन्हें उठकर अभ्युत्थान देते हैं और उनके सम्मुख जाते हैं।

उस समय धर्मराज भगवान विष्णु के समान चतुर्भुज रूप और शंख-चक्र-गदा तथा खड्ग धारण करके पुण्य करने वाले जीवों के साथ स्नेहपूर्वक मित्रवत आचरण करते हैं।

उन्हें बैठने के लिए सिंहासन देते हैं, नमस्कार करते हैं और पाद्य, अर्घ्य आदि प्रदान करके चन्दनादिक पूजा-सामग्रियों से उनकी पूजा करते हैं। यम अर्थात धर्मराज कहते हैं हे सभासदों इस ज्ञानी को परम आदरपूर्वक नमस्कार कीजिए, यह हमारे मण्डल का भेदन करके ब्रह्मलोक में जाएगा।

हे बुद्धिमानों में श्रेष्ठ और नरक की यातना से भयभीत रहने वाले पुण्यात्माओं आप लोगों ने अपने पुण्य-कर्मानुष्ठान से सुख प्रदान करने वाला देवत्व प्राप्त कर लिया है। दुर्लभ मनुष्य योनि प्राप्त करके जो नित्य वस्तु धर्म का साधन नहीं करता, वह घोर नरक में गिरता है, उससे बढ़कर अचेतन अज्ञानी और कौन है ? अस्थिर शरीर से और अस्थिर धन आदि से कोई एक बुद्धिमान मनुष्य ही स्थिर धर्म का संचयन करता है, इसलिए सभी प्रकार के प्रयत्नों को करके धर्म का संचय करना चाहिए।

आप लोग सभी भोगों से परिपूर्ण पुण्यात्माओं के स्थान स्वर्ग में जाएँ।

ऎसा धर्मराज का वचन सुनकर उन्हें और उनकी सभा को प्रणाम करके वे देवताओं के द्वारा पूजित और मुनीश्वरों द्वारा स्तुत होकर विमान समूहों से परम पद को जाते हैं और कुछ परम आदर के साथ धर्मराज की सभा में ही रह जाते हैं और वहाँ एक कल्पपर्यन्त रहकर मनुष्यों के लिये दुर्लभ भोगों का उपभोग करके पुण्यात्मा पुरुष शेष पुण्यों के अनुसार पुण्य-दर्शन वाले मनुष्य योनि में जन्म लेता है।

इस लोक में वह महान धन संपन्न, सर्वज्ञ तथा सभी शास्त्रों में पारंगत होता है और पुन: आत्मचिन्तन के द्वारा परम गति को प्राप्त करता है।

हे गरुड़ तुमने यमलोक के विषय में पूछा था, वह सब मैंने बता दिया, इसको भक्तिपूर्वक सुनने वाला व्यक्ति भी धर्मराज की सभा में जाता है।

।। इस प्रकार गरुड़ पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में “धर्मराजनिरुपण” नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) “सुकृतिजनजन्माचरणनिरुपण” नामक पंद्रहवां अध्याय

धर्मात्मा जन का दिव्यलोकों का सुख भोगकर उत्तम कुल में जन्म लेना, शरीर के व्यावहारिक तथा पारमार्थिक दो रूपों का वर्णन, अजपाजप की विधि, भगवत्प्राप्ति के साधनों में भक्ति योग की प्रधानता गरुड़ उवाच गरुड़ जी ने कहा धर्मात्मा व्यक्ति स्वर्ग के भोगों को भोगकर पुन: निर्मल कुल में उत्पन्न होता है इसलिए माता के गर्भ में उसकी उत्पत्ति कैसे होती है, इस विषय में बताइए।

हे करुणानिधे पुण्यात्मा पुरुष इस देह के विषय में जिस प्रकार विचार करता है, वह मैं सुनना चाहता हूँ, मुझे बताइए।

श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान ने कहा हे तार्क्ष्य तुमने ठीक पूछा है, मैं तुम्हें परम गोपनीय बात बताता हूँ जिसे जान लेने मात्र से मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है। पहले मैं तुम्हें शरीर के पारमार्थिक स्वरूप के विषय में बतलाता हूँ, जो ब्रह्माण्ड के गुणों से संपन्न है और योगियों के द्वारा करने योग्य है। इस पारमार्थिक शरीर में जिस प्रकार योगी लोग षट्चक्र का चिन्तन करते हैं, वह सब मुझसे सुनो।

पुण्यात्मा जीव पवित्र आचरण करने वाले लक्ष्मी संपन्न गृहस्थों के घर में जैसे उत्पन्न होता है और उसके पिता तथा माता के विधान एवं नियम जिस प्रकार के होते हैं, उनके विषय में तुमसे कहता हूँ। स्त्रियों के ऋतुकाल में चार दिन तक उनका त्याग कर देना चाहिए अर्थात उनसे दूर रहना चाहिए।

उतने समय तक उनका मुख भी नहीं देखना चाहिए, क्योंकि उस समय उनके शरीर में पाप का निवास रहता है। चौथे दिन वस्त्रों सहित स्नान करने के अनन्तर वह नारी शुद्ध होती है तथा एक सप्ताह के बाद पितरों एवं देवताओं के पूजन, अर्चन तथा व्रत करने के योग्य होती है।

एक सप्ताह के मध्य में जो गर्भ धारण होता है, उससे, मलिन वृत्तिवाली संतान का जन्म होता है। प्राय: ऋतुकाल के आठवें दिन गर्भाधान से पुत्र की उत्पत्ति होती है। ऋतुकाल के अनन्तर युग्म (सम) रात्रियों में गर्भाधान होने से पुत्र और अयुग्म (विषम) रात्रियों में गर्भाधान से कन्या की उत्पत्ति होती है, इसलिए पूर्व की सात रात्रियों को छोड़कर युग्म की रात्रियों में ही समागम करना चाहिए।

स्त्रियों के रजोदर्शन से सामान्यत: सोलह रात्रियों तक ऋतुकाल बताया गया है। चौदहवीं रात्रि को गर्भाधान होने पर गुणवान, भाग्यवान और धार्मिक पुत्र की उत्पत्ति होती है। प्राकृत जीवों (सामान्य मनुष्यों) को गर्भाधान के निमित्त उस रात्रि में गर्भाधान का अवसर प्राप्त नहीं होता। पाँचवें दिन स्त्री को मधुर भोजन करना चाहिए।

कड़ुआ, खारा, तीखा तथा उष्ण भोजन से दूर रहना चाहिए तब स्त्री का वह क्षेत्र (गर्भाशय) औषधि का पात्र हो जाता है और उसमें संस्थापित बीज अमृत की तरह सुरक्षित रहता है। उस औषधि क्षेत्र में बीजवपन (गर्भाधान) करने वाला स्वामी अच्छे फल को प्राप्त करता है। ताम्बूल खाकर, पुष्प और श्रीखण्ड से युक्त होकर तथा पवित्र वस्त्र धारण करके मन में धार्मिक भावों को रखकर पुरुष को सुन्दर शय्या पर संवास करना चाहिए।

गर्भाधान के समय पुरुष की मनोवृत्ति जिस प्रकार की होती है, उसी प्रकार के स्वभाव वाला जीव गर्भ में प्रविष्ट होता है। बीज का स्वरूप धारण करके चैतन्यांश पुरुष के शुक्र में स्थित रहता है। पुरुष की काम वासना, चित्तवृत्ति तथा शुक्र जब एकत्व को प्राप्र होते हैं, तब स्त्री के गर्भाशय में पुरुष द्रवित होता है। स्त्री के गर्भाशय में शुक्र और शोणित के संयोग से पिण्ड की उत्पत्ति होती है। गर्भ में आने वाला सुकृती पुत्र पिता-माता को परम आनन्द देने वाला होता है और उसके पुंसवन आदि समस्त संस्कार किये जाते हैं।

पुण्यात्मा पुरुष ग्रहों की उच्च स्थिति में जन्म प्राप्त करता है। ऎसे पुत्र की उत्पत्ति के समय ब्राह्मण बहुत सारा धन प्राप्त करते हैं। वह पुत्र विद्या और विनय से संपन्न होकर पिता के घर में बढ़ता है और सत्पुरुषों के संसर्ग में सभी शास्त्रों में पाण्डित्य-संपन्न हो जाता है। वह तरुणावस्था में दिव्य अंगना आदि का योग प्राप्त करता है और दानशील तथा धनी होता है। पूर्व में किये हुए तपस्या, तीर्थ सेवन आदि महापुण्यों के फल का उदय होने पर वह नित्य आत्मा और अनात्मा अर्थात परमात्मा और उससे भिन्न पदार्थों के विषय में विचार करने लगता है।

जिससे उसे यह बोध होता है कि सांसारिक मनुष्य भ्रमवश रस्सी में सर्प के आरोप की भाँति वस्तु अर्थात सच्चिदानन्द ब्रह्म में अवस्तु अर्थात अज्ञानादि जगत-प्रपंच का अध्यारोप करता है तब अपवाद अर्थात मिथ्याज्ञान या भ्रमज्ञान के निराकरण से रस्सी में सर्प की भ्रान्ति के निराकरणपूर्वक रस्सी की वास्तविकता के ज्ञान के समान ब्रह्मरूपी सत्य वस्तु में अज्ञानादि जगत-प्रपंच की मिथ्या प्रतीति के दूर हो जाने पर और ब्रह्मरूप सत्य वस्तु का सम्यक ज्ञान हो जाने पर वह उसी सच्चिदानन्द ब्रह्म का चिन्तन करने लगता है। सांसारिक पदार्थ रूप असत् या अनात्म पदार्थों से अन्वित या सम्बद्ध होने वाले इस ब्रह्म के संगरहित शुद्ध स्वरुप के सम्यक् बोध के लिए मैं तुम्हें इसके साथ अन्वित या सम्बद्ध प्रतीत होने वाली पृथिवी आदि अनात्मवर्ग के अर्थात पंचभूतों आदि के गुणों को बतलाता हूँ।

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश ये पाँच स्थूलभूत कहे जाते हैं। यह शरीर इन्हीँ पाँच भूतों से बनता है इसलिए पाँचभौतिक कहलाता है।

हे खगेश्वर त्वचा, हड्डियाँ, नाड़ियाँ, रोम तथा माँस ये पाँच भूमि के गुण हैं, यह मैंने तुम्हें बतलाया है।

लार, मूत्र, वीर्य, मज्जा तथा पाँचवां रक्त ये पाँच जल के गुण कहे गये हैं। अब तेज के गुणों को सुनो। हे तार्क्ष्य योगियों के द्वारा सर्वत्र क्षुधा, तृषा, आलस्य, निद्रा और कान्ति– ये पाँच गुण तेज के कहे गए हैं। सिकुड़ना, दौड़ना, लाँघना, फैलाना तथा चेष्टा करना ये पाँच गुण वायु के कहे गए हैं। घोष (शब्द) छिद्र, गाम्भीर्य, श्रवण और सर्वसंश्रय (समस्त तत्त्वों को आश्रय प्रदान करना) ये पाँच गुण तुम्हें प्रयत्नपूर्वक आकाश के जानने चाहिए।

पूर्व जन्म के कर्मों से अधिवासित मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त यह अन्त:करणचतुष्टय कहा जाता है। श्रोत्र (कान), त्वक, जिह्वा, चक्षु (नेत्र), नासिका ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा वाक, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ ये कर्मेन्द्रियाँ हैं। दिशा, वायु, सूर्य, प्रचेता और अश्विनीकुमार ये ज्ञानेन्द्रियों के तथा वह्नि, इन्द्र, विष्णु, मित्र तथा प्रजापति ये कर्मेन्द्रियों के देवता कहे गए हैं।

देह के मध्य में इडा, पिंगला, सुषुम्णा, गान्धारी, गजजिह्वा, पूषा, यशस्विनी, अलम्बुषा, कुहू और शंखिनी ये दस प्रधान नाडियाँ स्थित हैं। प्राण, अपान, समान, उदान तथा व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय ये दस वायु हैं। हृदय में प्राणु वायु, गुदा में अपानवायु, नाभिमण्डल में समानवायु, कण्ठदेश में उदानवायु और संपूर्ण शरीर में व्यानवायु व्याप्त रहती है। उद्गार (डकार या वमन) नागवायु हेतु है, जिसके द्वारा उन्मीलन होता है, वह कूर्मवायु कहा जाता है। कृकल नामक वायु क्षुधा (भूख) को उद्दीप्त करता है। देवदत्त नामक वायु जंभाई कराता है।

सर्वव्यापी धनंजय वायु मृत्यु के पश्चात भी मृत शरीर को नहीं छोड़ता। ग्रास के रुप में खाया गया अन्न सभी प्राणियों के शरीर को पुष्ट करता है। उस पुष्टिकारक अन्न के सारांशभूत रस को व्यान नाम का वायु शरीर की सभी नाड़ियों में पहुंचाता है। उस वायु के द्वारा भुक्त आहार दो भागों में विभक्त कर दिया जाता है। गुदाभाग में प्रविष्ट होकर सम्यक रुप से अन्न और जल को पृथक-पृथक कर के अग्नि के ऊपर जल और जल के ऊपर अन्न को करके अग्नि के नीचे वह प्राण वायु स्वत: स्थित होकर उस अग्नि को धीरे-धीरे धौंकता है।

उसके द्वारा धौंके जाने पर अग्नि किट्ट(मल) और रस को पृथक-पृथक कर देता है तब वह व्यानवायु उस रस को संपूर्ण शरीर में पहुंचाता है। शरीर से पृथक किया गया किट्ट (मल) शरीर के कर्ण, नासिका आदि बारह चिद्रों से बाहर निकलता है। कान, आँख, नासिका, जिह्वा, नख, गुदा, गुप्तांग तथा शिराएँ और समस्त शरीर में स्थित छिद्र एवं लोम ये बारह मल के निवास स्थान हैं। जैसे सूर्य से प्रकाश प्राप्त कर के प्राणी अपने-अपने कर्मों में प्रवृत होते हैं, उसी प्रकार चैतन्यांश से सत्ता प्राप्त करके ये सभी वायु अपने-अपने कर्म में प्रवृत होते हैं।

हे खग अब नर देह के दो रुपों के विषय में सुनो एक व्यवहारिक तथा दूसरा पारमार्थिक है। हे विनतासुत व्यवहारिक शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम, सात लाख केश, बीस नख तथा बत्तीस दाँत सामान्यत: बताए गए हैं। इस शरीर में एक हजार पल मांस, सौ पल रक्त, दस पल मेदा, सत्तर पल त्वचा, बारह पल मज्जा और तीन पल महारक्त होता है।

पुरुष के शरीर में दो कुड़व शुक्र और स्त्री के शरीर में एक कुड़व शोणित (रज) होता है।

संपूर्ण शरीर में तीन सौ साठ हड्डियाँ कही गई हैं। शरीर में स्थूल और सूक्ष्मरूप से करोड़ों नाड़ियाँ हैं। इसमें पचास पल पित्त और उसका आधा अर्थात पच्चीस पल श्लेष्मा (कफ) बताया गया है। सदा होने वाले विष्ठा और मूत्र का प्रमाण निश्चित नहीं किया गया है। व्यवहारिक शरीर इन उपर्युक्त गुणों से युक्त है। पारमार्थिक शरीर में सभी चौदहों भुवन, सभी पर्वत, सभी द्वीप एवं सभी सागर तथा सूर्य आदि ग्रह सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहते हैं।

पारमार्थिक शरीर में मूलाधार आदि छ: चक्र होते हैँ। ब्रह्माण्ड में जो गुण कहे गए हैं, वे सभी इस शरीर में स्थित हैं योगियों के धारणास्पद उन गुणों को मैं बताता हूँ, जिनकी भावना करने से जीव विराट स्वरुप का भागी हो जाता है।

पैर के तलवे में तल लोक तथा पैर के ऊपर वितल लोक जानना चाहिए। इसी प्रकार जानु में सुतल लोक और जाँघों में महा तल लोक जानना चाहिए।

सक्थि के मूल में तलातल, गुह्यस्थान में रसातल, कटिप्रदेश में पाताल इस प्रकार पैरों के तलवों से लेकर कटिपर्यन्त सात अधोलोक कहे गए हैं।

नाभि के मध्य में भूर्लोक, नाभि के ऊपर भुवर्लोक, हृदय में स्वर्लोक, कण्ठ में महर्लोक, मुख में जनलोक, ललाट में तपोलोक और ब्रह्मरन्ध्र में सत्यलोक स्थित है।

इस प्रकार चौदह लोक पारमार्थिक शरीर में स्थित हैं। त्रिकोण के मध्य में मेरु, अध:कोण में मन्दर, दाहिने कोण में कैलास, वामकोण में हिमाचल, ऊर्ध्वरेखा में निषध, दाहिनी ओर की रेखा में गन्धमादन तथा बायीं ओर की रेखा में रमणाचल नामक पर्वत स्थित है। ये सात कुलपर्वत इस पारमार्थिक शरीर में है।

अस्थि में जम्बूद्वीप, मज्जा में शाकद्वीप, मांस में कुशद्वीप, शिराओं में क्रौंचद्वीप, त्वचा में शाल्मलीद्वीप, रोमसमूह में गोमेदद्वीप और नख में पुष्करद्वीप की स्थिति जाननी चाहिए।

तत्पश्चात सागरों की स्थिति इस प्रकार है हे विनतासुत क्षारसमुद्र मूत्र में, क्षीरसागर दूध में, सुरा का सागर श्लेष्म (कफ) में, घृत का सागर मज्जा में, रस का सागर शरीरस्थ रस में और दधिसागर रक्त में स्थित समझना चाहिए।

स्वादूदक सागर को लम्बिका स्थान (कण्ठ के लटकते हुए भाग अथवा उपजिह्वा या काकल) में समझना चाहिए। नादचक्र में सूर्य, बिन्दु चक्र में चन्द्रमा, नेत्रों में मंगल और हृदय में बुध को स्थित समझना चाहिए। विष्णुस्थान अर्थात नाभि में स्थित मणिपूरक चक्र में बृहस्पति तथा शुक्र में शुक्र स्थित हैं, नाभिस्थान नाभि (गोलक) में शनैश्चर स्थित है और मुख में राहु स्थित कहा गया है। वायु स्थान में केतु स्थित है, इस प्रकार समस्त ग्रहमण्डल इस पारमार्थिक शरीर में विद्यमान है। इस प्रकार अपने इस शरीर में समस्त ब्रहमाण्ड का चिन्तन करना चाहिए।

प्रभातकाल में सदा पद्मासन में स्थित होकर षटचक्रों का चिन्तन करें और यथोक्त क्रम से अजपा-जप करें। अजपा नाम की गायत्री मुनियों को मोक्ष देने वाली है। इसके संकल्पमात्र से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है।

हे तार्क्ष्य सुनो, मैं तुम्हें अजपा-जप का उत्तम क्रम बताता हूँ – जिसको सर्वदा करने से जीव जीव भाव से मुक्त हो जाता है।

1- मूलाधार चक्र,

2- स्वाधिष्ठान चक्र

3- मणीपुर चक्र,

4- अनाहत चक्र,

5- विशुद्धि चक्र तथा

6- आज्ञा चक्र

इन्हें षटचक्र कहा जाता है। इन चक्रों का क्रमश: मूलाधार (गुदा प्रदेश के ऊपर) में, लिंग देश में, नाभि में, हृदय में, कण्ठ में, भौंहों के मध्य में तथा ब्रह्मरन्ध्र (सहस्रार चक्र) में चिन्तन करना चाहिए।

मूलाधार चक्र चतुर्दलाकार, अग्नि के समान और ‘व’ से ‘स’ पर्यन्त वर्णों (व, श, ष, स) का आश्रयस्थान है। स्वाधिष्ठानचक्र सूर्य के समान दीप्तिमान ‘ब’से लेकर ‘ल‘ पर्यन्त वर्णों (ब, भ, म, य, र, ल) का आश्रयस्थान और षडदलाकार है।

मणिपूरकचक्र रक्तिम आभावाला, दशदलाकार और ‘ड’ से लेकर ‘फ’ पर्यन्त वर्णों (ड, ढ़, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ) का आधार है।

अनाहतचक्र द्वादशदलाकार, स्वर्णिम आभा वाला तथा ‘क’ से ‘ठ’ पर्यन्त वर्णों (क, ख, ग, घ, ड़, च, च, ज, झ, ण, ट, ठ) से युक्त है।

विशुद्धचक्र षोडशदलाकार, सोलह स्वरों (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लृ, लृृ, ए, ऎ, ओ, औ, अं, अ:) से युक्त कमल और चन्द्रमा के समान कान्तिवाला होता है, आज्ञाचक्र “हं स:” इन दो अक्षरों से युक्त, द्विदलाकार और रक्तिम वर्ण का है।

उसके ऊपर ब्रह्मरन्ध्र में देदीप्यमान सहस्रदलकमला चक्र हैं, जो कि सदा सत्यमय, आनन्दमय, शिवमय, ज्योतिर्मय और शाश्वत है।

इन चक्रों में क्रमश: गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, जीवात्मा, गुरु तथा व्यापक परब्रह्म का चिन्तन करना चाहिए अर्थात मूलाधार चक्र में गणेश का, स्वाधिष्ठान चक्र में ब्रह्माजी का, मणिपूरक चक्र में विष्णु का, अनाहत चक्र में शिव का, विशुद्ध चक्र में जीवात्मा का, आज्ञा चक्र में गुरु का और सहस्रार चक्र में सर्वव्यापी परब्रह्म परम शिवा का चिन्तन करना चाहिए।

विद्वानों ने एक दिन-रात में 21,600 श्वासों की सूक्ष्मगति कही है। “हं” का उच्चारण करते हुए श्वास बाहर निकलता है और ‘स:’ की ध्वनि करते हुए अंदर प्रविष्ट होता है। इस प्रकार तात्विक रुप से जीव “हंस:, हंस:” इस मन्त्र से परमात्मा का निरन्तर जप करता रहता है। जीव के द्वारा अहोरात्र में किये जाने वाले इस अजपा-जप के छ: सौ मन्त्र गणेश के लिए, छ: हजार ब्रह्मा के लिये, छ: हजार विष्णु के लिए, छ: हजार शिव के लिए, एक हजार जीवात्मा के लिए, एक हजार गुरु के लिए और एक हजार मन्त्र जप चिदात्मा के लिए निवेदित करने चाहिए।

श्रेष्ठ सम्प्रदायवेत्ता अरुण आदि मुनि इन षटचक्रों में ब्रह्ममयूख (किरण) के रूप में स्थित गणेश आदि देवताओं का चिन्तन करते हैं। शुक्र आदि मुनि भी अपने शिष्यों को इनका उपदेश देते हैं। अत: महापुरुषों की प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर विद्वानों को सदा इन चक्रों में देवताओं का ध्यान करना चाहिए। सभी चक्रों में अनन्यभाव से उन देवताओं की मानस पूजा करके गुरु के उपदेश के अनुसार अजपा गायत्री का जप करना चाहिए।

इसके बाद ब्रह्मरन्ध्र में अधोमुख रूप में स्थित सहस्रदलकमल में हंस पर विराजमान, वर तथा अभयमुद्रायुक्त दोनों हस्तकमलों की स्थिति वाले श्रीगुरु का ध्यान करना चाहिए।

गुरु चरणों से निकली हुई अमृतमयी धारा से अपने शरीर को प्रलाक्षित होता हुआ सा चिन्तन करे फिर पंचोपचार से पूजा करके स्तुतिपूर्वक प्रणाम करना चाहिए। तदनन्तर कुण्डली का ध्यान करना चाहिए। जो षट्चक्रों में साढ़े तीन वलय में स्थित है और आरोह तथा अवरोह के रूप में षट्चक्र में संचरण करती है। तदनन्तर ब्रह्मरन्ध्र से बहिर्गत सुषुम्णा नामक धाम(प्रकाशमार्ग) का ध्यान करना चाहिए। उस मार्ग से जाने वाले पुरुष विष्णु के परम पद को प्राप्त करते हैं।

इसके अनन्तर ब्रह्म मुहूर्त में मेरे द्वारा चिन्तित आनन्दस्वरुप स्वप्रकाश, सनातनरूप का सदा ध्यान करना चाहिए।

इस प्रकार गुरु के उपदेश से मन को निश्चल बनाएँ, अपने प्रयत्न से ऎसा नहीं करें क्योंकि गुरु के उपदेश के बिना साधक का पतन हो सकता है। इस प्रकार अन्तर्याग संपन्न करके बहिर्याग का अनुष्ठान करना चाहिए। स्नान तथा संध्या आदि कर्मों को करके विष्णु और शिव की पूजा करनी चाहिए। देह का अभिमान रखने वाले अर्थात पांचभौतिक शरीर को ही अपना शरीर समझने वाले व्यक्तियों की वृत्ति अन्तर्मुखी नहीं हो सकती।

इसलिए उनके लिए सरलतापूर्वक की जा सकने वाली मेरी भक्ति ही मोक्षसाधिका हो सकती है।

यद्यपि तपस्या और योगसाधना आदि भी मोक्ष के मार्ग हैं तो भी इस संसारचक्र में फँसे हुए व्यक्तियों के उद्धार के लिए मेरा भक्ति मार्ग ही समीचीन उपाय है। ब्रह्मा आदि देवों ने वेद और शास्त्र का पुन: पुन: विचार करके तीन बार यही सिद्धांत सुनिश्चित किया है। यज्ञादि सद्धर्म भी अन्त:करण की शुद्धि के हेतु हैं और इस शुद्धि के फलस्वरुप मेरी भक्ति प्राप्त होती है। जिसे प्राप्त करके व्यक्ति पुन: जन्म-मरणादि दु:खों से पीड़ित नहीं होता। हे तार्क्ष्य ! जो सुकृती मनुष्य इस प्रकार का आचरण करता है, वह मेरी भक्ति के योग से सनातन मो़क्ष पद प्राप्त करता है।

।। इस प्रकार गरुड़पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में “सुकृतिजनजन्माचरणनिरुपण” नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।। 

सम्पूर्ण गरुड़ पुराण (हिन्दी में) “मोक्षधर्मनिरूपण” नामक सोलहवां अध्याय 

मनुष्य शरीर प्राप्त करने की महिमा, धर्माचरण ही मुख्य कर्तव्य, शरीर और संसार की दु:खरूपता तथा नश्वरता, मोक्ष-धर्म-निरूपण गरुड़ उवाच गरुड़ जी ने कहा – हे दयासिन्धो ! अज्ञान के कारण जीव जन्म-मरणरूपी संसार चक्र में पड़ता है, यह मैंने सुना। अब मैं मोक्ष के सनातन उपाय को सुनना चाहता हूँ।

हे भगवन हे देवदेवेश हे शरणागतवत्सल सभी प्रकार के दु:खों से मलिन तथा साररहित इस भयावह संसार में अनेक प्रकार के शरीर धारण करके अनन्त जीवराशियाँ उत्पन्न होती हैं और मरती हैं, उनका कोई अन्त नहीं है। ये सभी सदा दु:ख से पीड़ित रहते हैं, इन्हें कहीं सुख नहीं प्राप्त होता।

हे मोक्षेश हे प्रभो किस उपाय के करने से इन्हें इस संसृति-चक्र से मुक्ति प्राप्त हो सकती है, इसे आप मुझे बताएँ। श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान ने कहा हे तार्क्ष्य तुम इस विषय में मुझसे जो पूछते हो, मैं बतलाता हूँ !

सुनो जिसके सुनने मात्र से मनुष्य संसार से मुक्त हो जाता है। वह परब्रह्म परमात्मा निष्कल (कलारहित) परब्रह्मस्वरूप, शिवस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, निर्मल तथा अद्वय (द्वैतभावरहित) है। वह (परमात्मा) स्वत: प्रकाश है, अनादि, अनन्त, निर्विकार, परात्पर, निर्गुण और सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है। यह जीव उसी का अंश है। जैसे अग्नि से बहुत से स्फुलिंग अर्थात चिंगारियाँ निकलती हैं

उसी प्रकार अनादिकालीन अविद्या से युक्त होने के कारण अनादि काल से किये जाने वाले कर्मों के परिणामस्वरुप देहादि उपाधि को धारण करके जीव भगवान से पृथक हो गए हैं। वे जीव प्रत्येक जन्म में पुण्य और पापरूप सुख-दु:ख प्रदान करने वाले कर्मों से नियंत्रित होकर तत्तत् जाति के योग से देह(शरीर), आयु और कर्मानुरोधी भोग प्राप्त करते हैं।

हे खग इसके पश्चात भी पुन: वे अत्यन्त सूक्ष्म लिंग शरीर प्राप्त करते हैं और यह क्रम मोक्षपर्यन्त स्थित रहता है। ये जीव कभी स्थावर (वृक्ष-लतादि जड़) योनियों में, पुन: कृमियोनियों में तदनन्तर जलचर, पक्षी और पशुयोनियों को प्राप्त करते हुए मनुष्ययोनि प्राप्त करते हैं फिर धार्मिक मनुष्य के रूप में और पुन: देवता तथा देवयोनि के पश्चात क्रमश: मोक्ष प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं। उद्भिज्ज, स्वेदज और पिण्डज (जरायुज) इन चार प्रकार के शरीरों को सहस्त्रों बार धारण करके उनसे मुक्त होकर सुकृतवश (पुण्यप्रभाव से) जीव मनुष्य-शरीर प्राप्त करता है और यदि वह ज्ञानी हो जाए तो मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जीवों की चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य किसी भी योनि में तत्वज्ञान प्राप्त नहीं होता।

पूर्वोक्त विभिन्न योनियों में हजारों-हजार करोड़ों बार जन्म लेने के अनन्तर उपार्जित पुण्यपुंज के कारण कदाचित मनुष्य-योनि प्राप्त होती है। मोक्ष प्राप्ति के लिए सोपानभूत यह दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त करके इस संसृति चक्र से जो अपने को मुक्त नहीं कर लेता, उससे अधिक पापी और कौन होगा !

उत्तम मनुष्य शरीर में जन्म प्राप्त करके और समस्त सौष्ठव संपन्न अविकल इन्द्रियों को प्राप्त करके भी जो व्यक्ति अपने हित को नहीं जानता वह ब्रह्मघातक होता है।

शरीर के बिना कोई भी जीव पुरुषार्थ नहीं कर सकता इसलिए शरीर और धन की रक्षा करता हुआ इन दोनों से पुण्योपार्जन करना चाहिए। मनुष्य को सर्वदा अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि शरीर सभी पुरुषार्थों का एकमात्र साधन है इसलिए उसकी रक्षा का उपाय करना चाहिए। जीवन धारण करने पर ही व्यक्ति अपने कल्याण को देख सकता है।

गाँव, क्षेत्र, धन, घर और शुभाशुभ कर्म पुन:-पुन: प्राप्त हो सकते हैं किंतु मनुष्य शरीर पुन:-पुन: प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति सदा शरीर की रक्षा का उपाय करते हैं। कुष्ठ आदि रोगी भी अपने शरीर को त्यागने की इच्छा नहीं करते।

शरीर की रक्षा धर्माचरण के उद्देश्य से और धर्माचरण ज्ञानप्राप्ति के उद्देश्य से ज्ञान, ध्यान एवं योग की सिद्धि के लिए और फिर ध्यानयोग से मनुष्य अविलम्ब मोक्ष प्राप्त कर लेता है।

यदि मनुष्य स्वयं ही अपने आत्मा का अहित से निवारण नहीं कर लेता तो आत्मा का दूसरा कौन हितैषी होगा जो आत्मा को तारेगा। जो जीव मनुष्य के शरीर में रहकर इसी जन्म में नरकरूपी व्याधि की चिकित्सा नहीं कर लेता, वह परलोक में जाने पर जहाँ औषध नहीं प्राप्त है, नरक व्याधि से पीड़ित होने पर फिर क्या कर सकेगा ? वृद्धावस्था बाघिन के समान सामने खड़ी है, फूटे हुए घड़े के गिरने वाले जल की भाँति प्रतिक्षण आयु समाप्त होती जा रही है, रोग शत्रु की भाँति प्रहार कर रहे हैं, अत: श्रेय:प्राप्ति के लिए जीव को अभ्यास करना चाहिए।

जब तक दु:ख प्राप्त नहीं होता, जब तक आपत्तियाँ घेर नहीं लेती और जब तक इन्द्रियों में वैकल्य (शिथिलता) नहीं आ जाता, तब तक श्रेय:प्राप्ति के लिए जीव को प्रयास करते रहना चाहिए। जब तक यह शरीर है तभी तक तत्त्वज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। भवन में आग लग जाने पर कौन ऎसा दुर्बुद्धि मनुष्य है जो कुँआ खोदना प्रारंभ करता है।

बहुविध सांसारिक कार्यप्रपंचों में व्यस्त रहने के कारण काल का ज्ञान नहीं होता। यह क्लेश की बात है कि मनुष्य अपने सुख-दु:ख और हित की बात को नहीं समझता। संसार में जीवों को उत्पन्न होते हुए, रोगादि से दु:खी होते हुए, मृत्यु प्राप्त करते हुए और आपत्तिग्रस्त तथा दु:खी देखकर भी सांसारिक मनुष्य मोहरूपी मदिरा को पीकर कभी बी भयभीत नहीं होता।

भौतिक सम्पत्ति स्वप्न के समान नश्वर-क्षणभंगुर है, यौवन भी पुष्प के समान मुरझा जाने वाला है, आयु बादलों में चमकने वाली बिजली के समान चंचल है यह सब जानते हुए भी मनुष्य को कैसे धैर्य हो सकता है। एक तो मनुष्य की सौ वर्ष की आयु ही बहुत थोड़ी है, उसमें भी निद्रा और आलस्य के वशीभूत होकर उसका आधा भाग बीत जाता है और जो शेष है वह भी बाल्यावस्था, रोग और जरा में होने वाले दु:ख से चला जाता है और जो थोड़ा बचा, वह भी निष्फल ही बीत जाता है।

प्रारंभ करने वाले कार्य के विषय में जो उद्योग नहीं करता और जहाँ ब्रह्मचिन्तन आदि में जागरुक रहना चाहिए वहाँ वह सोता रहता है। इसके विपरीत जहाँ सदा-सदा भय विद्यमान है (उस संसार में), वहाँ वह विश्वस्त है, ऎसा जो मनुष्य है, वह अभागा क्यों नहीं मारा जाएगा। जल में उठने वाले फेन के समान अतीव क्षणभंगुर देह को प्राप्त करके जीवात्मा उसमें स्थित रहता है। यह शरीर ही उसको प्रियसंवास के रूप में प्रतीत होता है किंतु इस अनित्य शरीर में जीवात्मा निर्भय होकर कैसे रह सकता है?

जो अहित करने वाले विषय भोगों में ही हितबुद्धि रखता है तथा अनिश्चित (पुत्र-कलत्र-देह-गेहादि) को स्थाई समझता है और भौतिक धन-संपत्ति आदि अनर्थकारी वस्तुओं में जो अर्थबुद्धि रखता है, वह अपने परमार्थ को नहीं जानता। जो “यह जगत किसी का नहीं हुआ” ऎसा देखते हुए भी गिर रहा है और आत्मज्ञानविषयक वचनों को सुनते हुए भी जिसे बोध नहीं होता, पढ़ करके भी उसका अर्थ नहीं समझता ऎसा इसलिए होता है कि जीव भगवान की माया से मोहित है।

मृत्यु, रोग और जगरूपी ग्राहों के द्वारा गंभीर कालसागर में डूबते हुए इस जगत को कोई भी नहीं जान पाता। प्रतिक्षण क्षीण होते हुए भी इस काल की सूक्ष्म गति को जीव वैसे ही नहीं जान पाता जैसे कच्चे घड़े में स्थित जल के विगलित होने का ज्ञान नहीं हो पाता। कदाचित वायु का बाँधना संभव हो सकता है, आकाश को खण्ड-खण्ड करने की तरंगों के गुम्फन की कल्पना भी संभव हो सकती है परंतु आयु के शाश्वत होने की आस्था कथमपि संभव नहीं हो सकती।

जिस काल के द्वारा जल जाती है, मेरु पर्वत भी चूर-चूर हो जाता है, सागर का जल भी सूख जाता है, उस काल से मनुष्य-शरीर की रक्षा की क्या कथा ? मेरा पुत्र, मेरी पत्नी, मेरा धन, मेरे बान्धव इस प्रकार मैं-मैं कहते हुए मनुष्य रूपी बकरे को हठपूर्वक कालरूपी भेड़िया मार डालता है। यह मैंने कर लिया, यह करना शेष है, यह दूसरा कार्य भी अभी कुछ करना बाकी है इस प्रकार की इच्छा से युक्त मनुष्य को यमराज अपने वश में कर लेते हैं। कल किए जाने वाले कार्य को आज, अपराह्ण में किए जाने वाले कार्य को पूर्वाह्ण में ही कर लेना चाहिए क्योंकि मनुष्य ने अपना कार्य कर लिया है अथवा नहीं इसकी प्रतीक्षा मृत्यु नहीं करती।

वृद्धावस्था जिसको रास्ता दिखाने वाली है, अत्युग्र रोग ही जिसके सैनिक है, ऎसे म्रत्युरूपी शत्रु के तुम सम्मुख स्थित हो फिर उस प्रबल शत्रु से रक्षा करने वाले परमात्मा की ओर क्यों नहीं देखते अर्थात उनकी ओर उन्मुख क्यों नहीं होते ? तृष्णारूपी शूल में बिंधे हुए और विषयवासनारूपी घीसे सींचे हुए तथा राग-द्वेषरूपी अग्नि में पके हुए मनुष्य को मृत्यु खा जाती है। यह जगत ऎसा है कि इसमें मृत्यु बालकों, युवकों, वृद्धों और गर्भस्थ जीवों सभी को ग्रस लेती है। जब जीव अपनी देह को भी यहीं छोड़कर यमलोक को चला जाता है तो फिर स्त्री-माता-पिता और पुत्रादि से किस प्रयोजन से संबंध स्थापित किया जाए।

यह संसार दु:ख का मूल कारण है इसलिए इस संसार से जिसका संबंध है, वही दु:खी है और जिसने इस जगत का त्याग किया, वही मनुष्य सुखी है। दूसरा कोई भी, कहीं भी सुखी नहीं है। यह संसार सभी प्रकार के दु:खों का उत्पत्ति स्थान है, सभी आपत्तियों का घर है और सभी पापों का आश्रय-स्थान है इसलिए ऎसे संसार को क्षणमात्र में त्याग देना चाहिए। लौह एवं लकड़ी के पाशों से बँधा हुआ मनुष्य मुक्त हो सकता है किंतु पुत्र और पत्नीरुपी पाशों से बँधा हुआ मनुष्य कभी भी मुक्त नहीं हो सकता।

मनुष्य अपने मन को प्रिय लगने वाले इस जगत में जितने पदार्थों से संबंध बनाता जाता है, उतनी ही अधिक शोक की कीले उसके ह्रदय में गड़ती जाती हैं। यह बड़े खेद की बात है कि मनुष्य की देह में स्थित शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध, विषयों का आहार करने वाले इन्द्रियरूपी चोरों ने इस लोक के समस्त धन को अपहृत करके इसे नष्ट कर दिया है अर्थात परलोक के लिए हितकारी धर्मरूपी जो धन है, उसका इन्द्रियों ने हरण कर लिया है।

माँसलोभी मत्स्य जैसे बंसी में लगे हुए लोहे के अंकुश को नहीं जान पाता, उसी प्रकार विषयों से प्राप्त होने वाले सुख के लोभ से जीव यमयातना की परवाह नहीं करता। हे गरुड़ ! जो अपने हित औत अहित को नहीं जानते, सदा कुमार्ग पर चलने वाले हैं और मात्र पेट भरने में ही जिनका सारा अध्यवसाय रहता है, वे मनुष्य नरकगामी हैं।

निद्रा, मैथुन और आहार आदि की स्वाभाविक प्रवृति सभी प्राणियों में समान रूप से विद्यमान रहती है। उनमें जो वास्तविक हित-अहित को जानने वाला ज्ञानवान है, वह मनुष्य कहा जाता है और उस ज्ञान से जो शून्य है, वह पशु कहलाता है। मूर्ख मनुष्य प्रात:काल मल-मूत्रों के वेग से, मध्य दिन में क्षुधा और तृषा से तथा रात्रि में काम क्रीड़ा और निद्रा से बाधित रहते हैं। हाय ! यह खेद की बात है कि अज्ञान से मोहित होकर सभी जीव अपनी देह, धन, पत्नी आदि में आसक्त होकर बार-बार पैदा होते हैं और मर जाते हैं इसलिए सदा आसक्ति का त्याग कर देना चाहिए और यदि उसका सर्वथा त्याग न हो सके तो महापुरुषों के साथ संबंध बनाना चाहिए क्योंकि संत पुरुष संसारासक्तिरूपी रोग के भेषज हैं।

सत्संग और विवेक ये दोनों ही व्यक्ति के दो निर्मल नेत्र हैं। जिस व्यक्ति के पास ये नहीं है, वह अंधा है, अंधा मनुष्य कुमार्गगामी क्यों नहीं होगा ? अपने-अपने वर्ण और आश्रम के लिए शास्त्रबोधित आचारों का पालन करने में संलग्न रहने वाले सभी मनुष्य यदि परम धर्म को नहीं जानते तो वे दम्भाचारी व्यर्थ में नष्ट हो जाते हैं। कुछ लोग अनेक प्रकार की क्रियाओं को करने का प्रयत्न करते हैं और कुछ अन्य व्रत, उपवास आदि में संलग्न रहते हैं, अज्ञान से आवृत आत्मा वाले कुछ लोग ढ़ोंगी बनकर विचरण करते हैं।

कर्मकाण्ड में आस्था रखने वाले मनुष्य शास्त्रबोधित नाममात्र की फलश्रुतियों से संतुष्ट हो करके मन्त्रोच्चारण ओर होमादि कृत्यों से तथा यज्ञ से विस्तृत विधानों से भ्रान्त रहते हैं, उन्हीं में उलझे रहते हैं। मेरी माया से विमोहित होकर शरीर को सुखाने वाले मूर्ख लोग एकभुक्त, उपवास आदि व्रतों का आचरण करके परोक्ष (परमगति) को प्राप्त करना चाहते हैं। शरीर को दण्ड देने मात्र से क्या अविवेकी पुरुषों को मुक्ति प्राप्त हो सकती है? वल्मीक (साँप की बाँबी) को ताड़न करने मात्र से क्या कहीं भी महासर्प की मृत्यु होती है ?

बड़ी लंबी जटाओं के भार को ढोने वाले और मृगचर्म आदि से युक्त दाम्भिक पुरुष वेष धारण करके ज्ञानी की भाँति ही लोक में भ्रमण करते हैं और लोगों को भी भ्रमित करते हैं। सांसारिक सुख में आसक्त जो व्यक्ति “मैं ब्रह्मज्ञानी हूँ” ऎसा कहता है वह कर्ममार्ग तथा ब्रह्मज्ञानमार्ग दोनों मार्गों से भ्रष्ट हो जाता है, उसे चाण्डाल की भाँति छोड़ देना चाहिए। संसार में, घर में और अरण्य में लज्जा त्यागकर समान रुप से नग्न होकर गर्दभ आदि पशु भी विचरण करते हैं तो क्या इस आचरण से वे संसार से विरक्त हो जाते हैं ?

यदि मिट्टी और भस्म के धारण करने मात्र से मनुष्य मुक्त हो जाए तो मिट्टी और भस्म में शयन करने वाला वह कुत्ता भी क्या मुक्ति प्राप्त कर लेगा ? घास-पात और जल का आहार करने वाले तथा निरन्तर जंगल में निवास करने वाले श्रृंगाल, चूहे तथा मृग आदि पशु भी क्या तपस्वी योगी हो जाते हैं अर्थात अन्न छोड़ देने, ग्राम या नगर में निवास छोड़कर वन में रहने मात्र से कोई सन्यासी नहीं हो जाता। मण्डूक अर्थात मेढ़क और मत्स्य आदि जलचर जीव जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त गंगा आदि नदियों में निवास करते हैं तो क्या वे योगी हो जाते हैं ?

कबूतर शिलवृत्ति (कंकड़) का आहार करने वाले हैं तथा चातक कभी भी भूमि पर स्थित जल को नहीं पीते तो क्या इससे वे व्रती हो जाते हैं ? इसलिए हे खगेश्वर पूर्वोक्त संपूर्ण कर्मानुष्ठान केवल लोकरंजनमात्र के लिए हैं। मोक्ष का अकरण तो साक्षात तत्त्वज्ञान ही है। हे खग षड्दर्शनरूपी महाकूप में पड़े हुए मनुष्यरूपी पशु परमार्थ को नहीं जानते हैं क्योंकि वे पशुपाश से नियंत्रित रहते हैं। वेद और शास्त्ररूपी घोर समुद्र में इधर-उधर ले जाए जाते हुए कुतार्किक व्यक्ति षडूर्मियों (क्षुधा-पिपासा, शोक-मोह और जन्म-मृत्यु को “षडूर्मि” कहा जाता है) से ग्रस्त होकर स्थित रहते हैं।

वेद-शास्त्र और पुराणों को जानने वाला भी जो मनुष्य परमार्थ को नहीं जानता, विडंबनाग्रस्त उसका पूर्वोक्त संपूर्ण ज्ञान कौए के काँव-काँव करने जैसा है। परम तत्व से पराड्मुख जीव यह ज्ञान है, यह ज्ञेय है, इसी चिन्ता से व्याकुल होकर रात-दिन शास्त्रों का अध्ययन करते हैं\ काव्योचित अलंकारों से सुशोभित गद्य वाक्य-रचना या छन्दोबद्ध कविता की रचान करने पर भी विषयोपभोग के प्रति लालायित इन्द्रियों वाले तत्त्वज्ञानरहित मूढ व्यक्ति नाना चिन्ताओं के कारण दु:खी रहते हैं। परम तत्व की प्राप्ति तो अन्य प्रकार से होती है, किंतु लोग अन्य प्रकार के उपाय करके क्लेश प्राप्त करते हैं। शास्त्र का भाव तो कुछ और होता है परंतु वे उसकी व्याख्या कुछ दूसरे प्रकार से करते हैं। कुछ अहंकारी व्यक्ति गुरूपदेश आदि को प्राप्त न करके भी उन्मनीभाव के विषय में कहते हैं, पर वे स्वयं उसका अनुभव नहीं करते।

बहुत से लोग वेद और शास्त्र का अध्ययन तो करते हैं और परस्पर एक-दूसरे को बोध भी कराते हैं, तात्पर्य समझाते हैं, पर वे परम तत्त्वों के विषय में उसी प्रकार कुछ नहीं जानते जिस प्रकार कलछी पाकरस को नहीं जानती। पुष्प को धारण तो सिर करता है किंतु उस पुष्प की गन्ध को नासिका ही जानती है, ठीक इसी प्रकार वेद और शास्त्र का अध्ययन में उसी प्रकार भटकता फिरता रह जाता है, जैसे कोई मूर्ख ग्वाला अपनी कोख में बकरे को पकड़े रखने पर भी उसको खोजने के लिए कुएँ में देखता है। संसार के मोह का नाश करने के लिए शास्त्र के शब्दों के अअर्थ को जानना मात्र पर्याप्त नहीं है।

दीपक की बात से कभी अंधकार की निवृत्ति नहीं हो सकती। बुद्धिहीन मनुष्य का पढ़ना अंधे व्यक्ति के दर्पण देखने के समान व्यर्थ है। अत: बुद्धिमान व्यक्ति को ही शास्त्रीय तत्त्वज्ञान का लक्षण हो सकता है अर्थात बुद्धिमान को ही तत्त्वज्ञान लक्षित हो सकता है। जो यह ज्ञान यहाँ है, इसे जानना चाहिए इस प्रकार बुद्धि करके शास्त्र में प्रतिपाद्य सब कुछ सुनना चाहता है, वह हजार दिव्य वर्षों की आयु प्राप्त करके भी शास्त्रों का अन्त पप्राप्त नहीं कर सकता। अनेक शास्त्र हैं, आयु अत्यल्प है, जिसमें करोड़ों विघ्न हैं इसलिए जैसे हंस जल के मध्य से दूध को ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति को भी शास्त्र के सारतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

वेदशास्त्रों का अभ्यास कर वहाँ से तत्त्वज्ञान प्राप्त करके बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि जैसे धान चाहने वाला व्यक्ति धान ग्रहण करके पलाल अर्थात पुआल को छोड़ देता हैम उसी तरह उसे भी अन्य सभी शास्त्रों को छोड़ देना चाहिए।

जैसे अमृत से तृप्त व्यक्ति के लिए भोजन की कोई आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार हे तार्क्ष्य तत्त्वज्ञ को शास्त्र से कोई प्रयोजन नहीं होता। हे विनतात्मज न वेदाध्ययन से मुक्ति प्राप्त होती है और न शास्त्रों के अध्ययन से ही। मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान से ही होती है, किसी दूसरे उपाय से नहीं।

जिस प्रकार मुक्ति के लिए न तो आश्रम धर्म का अनुष्ठान कारण है, न दर्शनों का अध्ययन कारण है, उसी प्रकार श्रौत-स्मार्त कर्म भी कारण नहीं है। मात्र ज्ञान ही मोक्ष का उपाय है।

गुरु का वचन ही मोक्ष देने वाला है, अन्य सब विद्याएँ विडम्बना मात्र है। लकड़ी के हजारों भारों की अपेक्षा एक संजीवनी ही श्रेष्ठ है। कर्मकाण्ड और वेद-शास्त्रादि के अध्ययन रूपी परिश्रम से रहित केवल गुरु मुख से प्राप्त अद्वैतज्ञान ही कल्याणकारी कहा गया है, अन्य करोड़ों शास्त्रों को पढ़ने से कोई लाभ नहीं। वेदादि आगम शास्त्रों का अध्ययन तथा विवेक इन दो साधनों से ज्ञान की प्राप्ति होती है। आगम से शब्द ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त होता है और विवेक से परब्रह्म का ज्ञान प्राप्त होता है। कई विद्वान अद्वैत को वास्तविक परमतत्त्व स्वीकार करते हैं और कुछ अन्य विद्वज्जन द्वैततत्त्व की ही प्रतिष्ठा चाहते हैं किंतु द्वैत और अद्वैत से पृथक सभी के लिये समान रूप से स्वीकार्य परम तत्त्व को कोई नहीं जानता।

“न मम” (मेरा नहीं है) और “मम” (मेरा है) ये दो पद (भावनाएँ) ही बन्धन और मोक्ष के कारण हैं। मम बुद्धि करने से प्राणी बन्धन को प्राप्त होता है और ‘मेरा नहीं है’ इस प्रकार की भावना करने से मुक्त होता है। कर्म वही है, जो बन्धन का हेतु नहीं होता तथा विद्या वही है, जो मोक्ष प्रदान करा दे और इससे अतिरिक्त कर्म केवल श्रममात्र के हेतु हैं जो शरीर के लिए क्लेशप्रद हैं तथा अन्य प्रकार की विद्या शिल्पचातुर्यमात्र है।

जब तक कर्म किये जाते हैं, जब तक संसार में आसक्ति रहती है, जब तक इन्द्रियों का चांचल्य बना रहता है, तब तक तत्त्वज्ञान की बात ही कहाँ हो सकती है ?

जब तक देहाभिमान (देह को अपना स्वरुप मानना) है, जब तक ममता रहती है, जब तक प्रयत्नों का वेग रहता है, जब तक संकल्प की कल्पना होती रहती है, जब तक मन स्थिर नहीं हो जाता, जब तक शास्त्र का चिन्तन नहीं किया जाता तथा जब तक गुरु की कृपा नहीं प्राप्त होती, तब तक तत्त्वज्ञान की चर्चा ही कहाँ होती है ? तप, व्रत, तीर्थ, जप, होम तथा पूजा आदि सत्कर्मों का अनुष्ठान तथा वेद, शास्त्र और आगम की कथा तभी तक उपयोगी है, जब तक जीव को तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता।

इसलिए हे तार्क्ष्य यदि अपने मोक्ष की इच्छा हो तो सर्वदा संपूर्ण प्रयत्नों का सभी अवस्थाओं में निरन्तर अनुष्ठान करके तत्त्वज्ञान की प्राप्ति में संलग्न रहना चाहिए। जो प्राणी (आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक) ताप त्रय से सदा संतप्त रहता है, उसे मोक्ष वृक्ष की छाया का आश्रयण करना चाहिए। जिस मोक्षवृक्ष का पुष्प धर्म और ज्ञानस्वरुप है तथा फल स्वर्ग एवं मोक्ष है। इसलिए श्रीगुरु मुख से आत्मतत्त्वविषयक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। ज्ञान हो जाने पर प्राणी इस घोर संसार बंधन से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता अहि। हे तार्क्ष्य मैं तत्त्वज्ञानी पुरुष के द्वारा किए जाने वाले अन्तिम कृत्य के विषय में तुम्हें बताता हूँ, सुनो

जिस उपाय को करके जीव को ब्रह्मनिर्वाणसंज्ञक मोक्ष की प्राप्ति होती है। अन्तकाल के आ जाने पर पुरुष भय छोड़कर अनासक्तिरूपी शस्त्र से देह-गेहादि विषयक ममत्व को काट डाले।

वह धीर पुरुष घर से निकलकर पवित्र तीर्थ के जल में स्नान करके पवित्र और एकान्त देश में विधिवत आसन लगाकर बैठ जाए और शुद्ध परम त्रिवृत ब्रह्माक्षर अर्थात ओंकार का मन से अभ्यास करे तथा ब्रह्मबीज स्वरुप ओंकार का निरन्तर स्मरण करके श्वास को जीतकर मन को नियंत्रित करे। बुद्धि रूपी सारथी की सहायता से मन रूपी लगाम के द्वारा इन्द्रियों को विषयों से निगृहीत कर ले और कर्मों के द्वारा आक्षिप्त मन को बुद्धि की सहायता से शुभ अर्थ में अर्थात परब्रह्म के चिन्तन में लगा दे। मैं ब्रह्म हूँ, मैं परम धाम हूँ और परम पदरूपी ब्रह्म मैं हूँ ऎसी समीक्षा करके अपनी आत्मा को निष्कल परमात्मा में लगा दे और ओम् इस एकाक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ तथा मेरा स्मरण करता हुआ जो मनुष्य देह-त्याग करता है, वह इस संसार से तर जाता है और परम गति प्राप्त करता है।

मान और मोह से रहित तथा आसक्ति से उत्पन्न होने वाले दोषों को जीत लेने वाले, सुख-दु:खादि द्वंद्वों से मुक्त ज्ञानी पुरुष उस शाश्वत अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं। जो व्यक्ति राग और द्वेष रूपी मलों का अपहरण करने वाले ज्ञानरूप जलाशय और सत्यस्वरुप जलवाले मानसतीर्थ में स्नान करता है, वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जो प्रौढ़ वैराग्य को धारण करके अन्य भावों का परित्याग कर केवल मद्विषयक भावना के द्वारा मेरा भजन करता है, ऎसा पूर्ण दृष्टि रखने वाला अमलान्तरात्मा संत ही मोक्ष को प्राप्त होता है।

तीर्थ में मृत्यु हो जाय इस उत्कण्ठा से उत्सुक होकर जो अपने घर का परित्याग करके तीर्थ में निवास करता है और मुक्तिक्षेत्र में मरता है, वही मोक्ष प्राप्त करता है। अयोध्या, मथुरा, कनखल-हरिद्वार, काशी, कांची, अवन्तिका और द्वारावतीपुरी ये सात पुरियाँ मोक्ष देने वाली हैं।

हे तार्क्ष्य मैंने सनातन मोक्ष धर्म को तुम्हें बता दिया, ज्ञान और वैराग्य के सहित इसे सुनकर पुरुष मोक्ष प्राप्त करता है। तत्त्वज्ञ पुरुष मोक्ष प्राप्त करते हैं, धार्मिक पुरुष स्वर्ग को प्राप्त होते हैं। पापियों की दुर्गति होती है और पशु-पक्षी आदि पुन:-पुन: जन्म-मरण रूपी संसार में भ्रमण करते हैं। इस प्रकार सभी शास्त्रों का सारोद्धार मैंने सोलह अध्यायों में कह दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो? सूत उवाच सूत जी ने कहा हे राजन गरुड़ जी ने भगवान के मुख से ऎसा वचन सुनकर उन्हें बार-बार प्रणाम करके अंजलि बाँधकर इस प्रकार कहा गरुड़ जी ने कहा हे देवाधिदेव भगवन हे नाथ हे प्रभो अपने अमृतमय वचनों को सुनाकर आपने मुझे भवसागर से तार दिया है।

अब मेरा संदेह समाप्त हो गया और मैं कृतार्थ हो गया हूँ, इसमें संशय नहीं ऎसा कहकर गरुड़ जी ने मौन होकर भगवद्ध्यानपरायण हो गए। स्मरण करने से जो दुर्गति का हरण कर लेते हैं, पूजन और यज्ञ के द्वारा जो सद्गति प्रदान करते हैं और अपनी परम भक्ति के द्वारा जो मुक्ति प्रदान करते हैं, वे हति मेरी रक्षा करें।

।।इस प्रकार गरुड़पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में भगवान विष्णु ओर गरुड़ के संवाद में “मोक्षधर्मनिरूपण” नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ।। 

गरुड़ पुराण (हिन्दी में) अध्याय सत्रहवां सम्पूर्ण

गरुड़ पुराण-श्रवण (सुनने का) का फल 

श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान ने कहा हे तार्क्ष्य इस प्रकार मैंने और्ध्वदैहिक कृत्यों के विषय में सब कुछ कह दिया। मरणाशौच में दस दिन के अंदर इसे सुनकर व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है। यह परलोक संबंदधी कर्म पितरों को मुक्ति प्रदान करने वाला है और परलोक में तथा इस लोक में भी पुत्र को वांछित फल देकर सुख प्रदान करने वाला है। जो नास्तिक अधम व्यक्ति प्रेत का यह और्ध्वदैहिक कर्म नहीं करते, उनका जल सुरा के समान अपेय है, इसमें कोई संशय नहीं। देवता और पितृगण उसके घर की ओर नहीं देखते अर्थात दोनों की ही कृपादृष्टि उन पर नहीं होती और उनके पितरों के कोप से पुत्र-पुत्रादि की भी दुर्गति होती है। प्रेतक्रिया के बिना ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और इतरजनों को भी चाण्डाल के समान जानना चाहिए।

जो इस पुण्यप्रद प्रेतकल्प को सुनता और सुनाता है वे दोनों ही पाप से मुक्त होकर दुर्गति को नहीं प्राप्त होते हैं। माता और पिता के मरण में जो पुत्र गरुण पुराण सुनता है, उसके माता-पिता की मुक्ति होती है और पुत्र को संतति की प्राप्ति होती है। जिस पुत्र ने माता-पिता की मृत्यु होने के अनन्तर गरुड़ पुराण का श्रवण नहीं किया, गया श्राद्ध नहीं किया, वृषोत्सर्ग नहीं किया, मासिक तथा वार्षिक श्राद्ध नहीं किया, वह कैसे पुत्र कहा जा सकता है और ऋणत्रय से उसे कैसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है और वह पुत्र माता-पिता को तारने में कैसे समर्थ हो सकता है ? इसलिए सभी प्रकार के प्रयत्नों को करके धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष रूप पुरुषार्थचतुष्टय को देने वाले तथा सर्वविध दु:ख का विनाश करने वाले गरुड़ पुराण को अवश्य सुनना चाहिए।

यह गरुड़ पुराण पुण्यप्रद, पवित्र तथा पापनाशक है, सुनने वालों की कामनाओं को पूर्ण करने वाला है, अत: सदा ही इसे सुनना चाहिए।

इस पुराण को सुनकर ब्राह्मण विद्या प्राप्त करता है, क्षत्रिय पृथिवी प्राप्त करता है, वैश्य धनाढ्य होता है और शूद्र पातकों से शुद्ध हो जाता है। इस गरुड़पुराण को सुनकर सुनाने वाले आचार्य को पूर्वोक्त शय्याददानादि संपूर्ण दान देने चाहिए अन्यथा इसका श्रवण फलदायक नहीं होता।

पहले पुराण की पूजा करनी चाहिए तदनन्तर वस्त्र, अलंकार, गोदान और दक्षिणा आदि देकर आदरपूर्वक वाचक की पूजा करनी चाहिए।

प्रचुर पुण्यफल की प्राप्ति के लिए प्रभूत अन्न, स्वर्ण और भूमि दान के द्वारा श्रद्धा भक्तिपूर्वक वाचक की पूजा करनी चाहिए। वाचक की पूजा से ही मेरी पूजा हो जाती है, इसमें संशय नहीं और वाचक के संतुष्ट होने पर मैं भी संतुष्ट हो जाता हूँ, इसमें भी कोई संशय नहीं।

।।इस प्रकार गरुड़पुराण के श्रवण का फल संपूर्ण हुआ।।

।।इस प्रकार गरुड़पुराण सारोद्धार संपूर्ण हुआ।। 

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