साधना यानी खुद को नियंत्रित करना। योग की भाषा में इंद्रियों को अपने अधीन करने का नाम साधना है। इसे हम स्वयं पर नियंत्रण करके अपने मन मुताबिक फल हासिल करने का तरीका भी कह सकते हैं। जो मनुष्य इस तरीके को सम्यक रूप से जानता है, वह अच्छा साधक बन जाता है और जो नहीं जानता वह अच्छा साधक नहीं बन पाता। योग-दर्शन में चित्तवृत्तियों को नियंत्रित करने को ही योग साधना माना गया है। योग को साधने वाला योग साधक कहा जाता है और अन्य क्षेत्रों में जो साधना करता है, वह उस क्षेत्र विशेष का साधक माना जाता है।
वैसे कई वर्षो से साधना का मतलब आमतौर पर योग साधना से लगाया जाने लगा है। इसलिए जैसे ही हम साधना की बात करते हैं, तो तुरंत ही लोग उसका अर्थ योग साधना से लगा लेते हैं। वस्तुत: साधना एक व्यापक शब्द है। साधना का मतलब तपस्या, ध्यान, कठोर श्रम और किसी विशेष क्षेत्र में प्रयत्न करना भी होता है। इन सभी क्रियाओं में ऊर्जा जहां व्यय होती है, वही संचित भी होती है।
गीता में और चारों वेदों में मनुष्य को श्रेष्ठ साधक बनने की प्रेरणा दी गई है। संसार में जितने भी महापुरुष या ईश्वरीय गुणों से भरपूर तपस्वी जन रहे हैं वे एक श्रेष्ठ साधक भी रहे हैं। साधना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का आधार है। परमात्मा से साक्षात्कार हो, समाज सुधार हो, साहित्य सृजन हो या फिर समाज को बेहतर रास्ते पर ले चलने का संकल्प हो, ये सभी कार्य साधना से ही पूरे होते हैं। जब साधना के बारे में लोगों को सम्यक तरीके से मालूम हो जाएगा तब जीवन का मूल उद्देश्य भी मालूम हो जाएगा। जरूरत इस बात की है कि हम सम्यक साधना के बारे में जानने की अपने स्तर से ईमानदार कोशिश करें।
साधना क्या है…?
पत्थर पर यदि बहुत पानी एकदम से डाल दिया जाए तो पत्थर केवल भीगेगा। फिर पानी बह जाएगा और पत्थर सूख जाएगा। किन्तु वह पानी यदि बूंद-बूंद पत्थर पर एक ही जगह पर गिरता रहेगा, तो पत्थर में छेद होगा और कुछ दिनों बाद पत्थर टूट भी जाएगा।
इसी प्रकार निश्चित स्थान पर नाम स्मरण की साधना की जाएगी तो उसका परिणाम अधिक होता है ।
चक्की में दो पाटे होते हैं।
उनमें यदि एक स्थिर रहकर, दूसरा घूमता रहे तोअनाज पिस जाता है और आटा बाहर आ जाता है।
यदि दोनों पाटे एक साथ घूमते रहेंगे तो अनाज नहीं पिसेगा और परिश्रम व्यर्थ होगा।
इसी प्रकार मनुष्य में भी दो पाटे हैं
एक मन और दूसरा शरीर।
उसमें मन स्थिर पाटा है और शरीर घूमने वाला पाटा है।
अपने मन को भगवान के प्रति स्थिर किया जाए और शरीर से गृहस्थी के कार्य किए जाएं।
प्रारब्ध रूपी खूँटा शरीर रूपी पाटे में बैठकर उसे घूमाता है और घूमाता रहेगा, लेकिन मन रूपी पाटे को सिर्फ भगवान के प्रति स्थिर रखना है।
देह को तो प्रारब्ध पर छोड़ दिया जाए औरमन को नाम-सुमिरन में विलीन कर दिया जाए –
यही नाम साधना है।
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