मनुस्मृति में तर्पण को पितृ-यज्ञ बताया गया है और सुख-संतोष की वृद्धि हेतु तथा स्वर्गस्थ आत्माओं की तृप्ति के लिए तर्पण किया जाता है। तर्पण का अर्थ पितरों का आवाहन, सम्मान और क्षुधा मिटाने से ही है। इसे ग्रहण करने के लिए पितर अपनी संतानों के द्वार पर पितृपक्ष में आस लगाए खड़े रहते हैं। तर्पण में पूर्वजों को अर्पण किए जाने वाले जल में दूध, जौ, चावल, तिल, चंदन, फूल मिलाए जाते हैं, कुशाओं के सहारे जल की छोटी-सी अंजलि मंत्रोच्चार पूर्वक डालने मात्र से वे तृप्त हो जाते हैं। जब जलांजलि श्रद्धा, कृतज्ञता, सद्भावना, प्रेम, शुभकामनाओं की भावना के साथ दी जाती है, तो तर्पण का उद्देश्य पूरा होकर पितरों को तृप्ति मिलती है।

उल्लेखनीय है कि पितृ तर्पण उसी तिथि को किया जाता है, जिस तिथि को पूर्वजों का परलोक गमन हुआ हो। जिन्हें पूर्वजों की मृत्यु तिथि याद न रही हो, वे आश्विन कृष्ण अमावस्या यानी सर्वपितृमोक्ष अमावस्या को यह कार्य करते हैं, ताकि पितरों को मोक्ष मार्ग दिखाया जा सके। लोगों में यह मान्यता प्रचलित है कि जब तक मृत आत्माओं के नाम पर वंशजों द्वारा तर्पण नहीं किया जाता, तब तक आत्माओं को शांति नहीं मिलती। वह इधर-उधर भटकती रहती है।

हमारी श्राद्ध प्रक्रिया में जो 6 तर्पण कृत्य (देवतर्पण, ऋषितर्पण, दिव्य मानव तर्पण, दिव्यपितृ तर्पण, यम तर्पण और मनुष्य पितृ तर्पण के नाम से किए जाते हैं), इनके पीछे भिन्न-भिन्न दार्शनिक पक्ष बताए गए हैं। देव तर्पण के अंतर्गत जल, वायु, सूर्य, अग्नि, चंद्र, विद्युत एवं अवतारी ईश्वर अंशों की मुक्त आत्माएं आती हैं, जो मानव कल्याण हेतु निःस्वार्थ भाव से प्रयत्नरत हैं।

ऋषितर्पण के अंतर्गत नारद, चरक, व्यास दधीचि, सुश्रुत, वसिष्ठ, याज्ञवल्क्य, विश्वामित्र, अत्रि, कात्यायन, पाणिनि आदि ऋषियों के प्रति श्रद्धा आती है।

दिव्य मानव तर्पण के अंतर्गत जिन्होंने लोक मंगल के लिए त्याग-बलिदान किया है, जैसे-पांडव, महाराणा प्रताप, राजा हरिश्चंद्र, जनक, शिवि, शिवाजी, भामाशाह, गोखले, तिलक आदि महापुरुषों के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति की जाती है। दिव्य पितृ तर्पण के अंतर्गत जो अनुकरणीय परंपरा एवं पवित्र प्रतिष्ठा की संपत्ति छोड़ गए हैं, उनके प्रति कृतज्ञता हेतु तर्पण किया जाता है।

यमतर्पण जन्म-मरण की व्यवस्था करने वाली शक्ति के प्रति और मृत्यु का बोध बना रहे, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए करते हैं । मनुष्य पितृ तर्पण के अंतर्गत परिवार से संबंधित सभी परिजन, निकट संबंधी, गुरु, गुरु-पत्नी, शिष्य, मित्र आते हैं, यह उनके प्रति श्रद्धा भाव है।

इस प्रकार तर्पण रूपी कर्मकांड के माध्यम से हम अपनी सद्भावनाओं को जाग्रत करते हैं, ताकि वे सत्प्रवृत्तियों में परिणत होकर हमारे जीवन लक्ष्य में सहायक हो सकें।

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