वैशाखमास-माहात्म्य अध्याय 11 इस अध्याय में:- धर्मवर्ण की कथा, कलि की अवस्था का वर्णन, धर्मवर्ण और पितरों का संवाद एवं वैशाख की अमावास्या की श्रेष्ठता 

मिथिलापति ने पूछा–ब्रह्मन् इस वैशाख मास में कौन-कौन सी तिथियाँ पुण्यदायिनी हैं?

श्रुतदेवजी बोले–सूर्य के मेष राशि पर स्थित होने पर वैशाख मास में तीसों तिथियाँ पुण्यदायिनी मानी गयी हैं। एकादशी में किया हुआ पुण्य कोटिगुना होता है। उसमें स्नान, दान, तपस्या, होम, देवपूजा, पुण्यकर्म एवं कथा का श्रवण किया जाय तो वह तत्काल मुक्ति देने वाला है। जो रोग आदिसे ग्रस्त और दरिद्रता से पीड़ित हो वह मनुष्य इस पुण्यमयी कथा को सुनकर कृतकृत्य होता है। वैशाख मास मन से सेवन करने योग्य है; क्योंकि वह समय उत्तम गुणों से युक्त है। दरिद्र, धनाढ्य, पंगु, अन्धा, नपुंसक, विधवा, साधारण स्त्री, पुरुष, बालक, युवा, वृद्ध तथा रोग से पीड़ित मनुष्य ही क्यों न हो, वैशाख मास का धर्म सबके लिये अत्यन्त सुखसाध्य है।

परम पुण्यमय वैशाख मास में जब सूर्य मेष राशि में स्थित हो -है, तब पापनाशिनी अमावास्या कोटि गया के समान फल देने वाली होती है। राजन्! जब पृथ्वीपर राजर्षि सावर्णिका शासन था, उस समय तीसवें कलियुग के अन्त में सभी धर्मो का लोप हो चुका था। उसी समय आनर्त देश में धर्म वर्ण नाम से विख्यात एक ब्राह्मण थे। मुनिवर धर्मवर्ण ने उस कलियुग में ही किसी समय महात्मा मुनियों के सत्रयाग में सम्मिलित होने के लिये पुष्कर क्षेत्र की यात्रा की।

वहाँ कुछ व्रतधारी महर्षियों ने कलियुग की प्रशंसा करते हुए इस प्रकार कहा था-‘सत्ययुग में भगवान् विष्णु को संतुष्ट करने वाला जो पुण्य एक वर्ष में साध्य है, वही त्रेता में एक मास में और द्वापर में पंद्रह दिनों में साध्य होता है; परंतु कलियुग में भगवान् विष्णु का स्मरण कर लेने से ही उससे दसगुना पुण्य होता है। कलि में बहुत थोड़ा पुण्य भी कोटिगुना होता है। जो एक बार भी भगवान् का नाम लेकर दयादान करता है और दुर्भिक्ष में अन्न देता है, वह निश्चय ही ऊर्ध्वलोक में गमन करता है।

यह सुनकर देवर्षि नारद हँसते हुए उन्मत्त के समान नृत्य करने लगे। सभासदों ने पूछा–नारदजी यह क्या बात है?’ तब बुद्धिमान् नारदजी ने हँसते हुए उन सबको उत्तर दिया–’आप लोगों का कथन सत्य है। इसमें सन्देह नहीं कि कलियुग में स्वल्प कर्म से भी महान् पुण्य का साधन किया जाता है तथा क्लेशों का नाश करने वाले भगवान् केशव स्मरण मात्र से ही प्रसन्न हो जाते हैं। तथापि मैं आप लोगों से यह कहता हूँ कि कलियुग में ये दो बातें दुर्घट हैं–शिश्नेन्द्रिय का निग्रह और जिह्वा को वश में रखना। ये दोनों कार्य जो सिद्ध कर ले, वही नारायणस्वरूप है। अत: कलियुग में आपको यहाँ नहीं ठहरना चाहिये।

नारदजी की यह बात सुनकर उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षि सहसा यज्ञ को समाप्त करके सुख पूर्वक चले गये धर्मवर्ण ने भी वह बात सुनकर भूलोक को त्याग देने का विचार किया। उन्होंने ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करके दण्ड और कमण्डलु हाथ में लिया और जटा-वर्कलधारी होकर वे कलियुग के अनाचारी पुरुषों को देखने के लिये घर छोड़कर चल दिये। उनके मन में बड़ा विस्मय हो रहा था। उन्होंने देखा, प्राय: मनुष्य पापाचार में प्रवृत्त हो बड़े भयंकर एवं दुष्ट हो गये हैं। ब्राह्मण पाखण्डी हो चले हैं। शुद्र संन्यास धारण करते हैं। पत्नी अपने पति से द्वेष रखती है। शिष्य गुरु से वैर करता है। सेवक स्वामी के और पुत्र पिता के घात में लगा हुआ है ब्राह्मण शूद्रवत् और गौएँ बकरियों के समान हो गयी हैं। वेदों में गाथा की ही प्रधानता रह गयी है।

शुभ कर्म साधारण लौकिक कृत्यों के ही समान रह गये हैं, इनके प्रति किसी की महत्त्व बुद्धि नहीं है। भूत, प्रेत और पिशाच आदि की उपासना चल पड़ी है। सब लोग मैथुन में आसक्त हैं और उसके लिये अपने प्राण भी खो बैठते हैं। सब लोग झूठी गवाही देते हैं। मन में सदा छल और कपट भरा रहता है। कलियुग में सदा लोगों के मन में कुछ और, वाणी में कुछ और तथा क्रिया में कुछ और ही देखा जाता है। सबकी विद्या किसी-न-किसी स्वार्थ को लेकर ही होती है और केवल राज भवन में उसका आदर होता है। संगीत आदि कलात्मक विद्याएँ भी राजाओं को प्रिय हैं। कलि में अधम मनुष्य पूजे जाते हैं और श्रेष्ठ पुरुषों की अवहेलना होती है।

कलि में वेदों के विद्वान् ब्राह्मण दरिद्र होते हैं। लोगों में प्रायः भगवान् की भक्ति नहीं होती। पुण्यक्षेत्र में पाखण्ड अधिक बढ़ जाता है। शूद्र लोग जटाधारी तपस्वी बनकर धर्म की व्याख्या करते हैं। सभी मनुष्य अल्पायु, दयाहीन और शठ होते हैं। कलि में प्राय: सभी धर्म के व्याख्याता बन जाते हैं और दूसरों से कुछ लेने में ही उत्सव मानते हैं अपनी पूजा कराना चाहते हैं और व्यर्थ ही दूसरों की निन्दा करते हैं। अपने घर आने पर सभी अपने स्वामी के दोषों की चर्चा में तत्पर रहते हैं। कलि में लोग साधुओं को नहीं जानते पापियों को ही बहुत आदर देते हैं। दुराग्रही लोग इतने दुराग्रही होते हैं कि साधु पुरुषों के एक दोष का भी ढिंढोरा पीटते हैं और पापात्माओं के दोष-समूहों को भी गुण बतलाते हैं। कलि में गुणहीन मनुष्य दूसरों के गुण न देखकर उनके दोष ही ग्रहण करते हैं।

जैसे पानी में रह नेवाली जोंक प्राणियों के रक्त पीती है, जल नहीं पीती, उसी प्रकार जोंक के धर्म से संयुक्त हो मनुष्य दूसरे का रक्त चूसते हैं। औषधियाँ शक्तिहीन होती हैं। ऋतुओं में उलट-फेर हो जाता है। सब राष्ट्रो में अकाल पड़ता है। कन्या योग्य समय में सन्तानोत्पत्ति नहीं करती। लोग नट और नर्तकों की विद्याओं से विशेष प्रेम करते हैं। जो वेद-वेदान्त की विद्याओं में तत्पर और अधिक गुणवान् हैं, उन्हें अज्ञानी मनुष्य सेवक की दृष्टि से देखते हैं, वे सब-के सब भ्रष्ट होते हैं।

कलि में प्राय: लोग श्राद्धकर्म का त्याग करते हैं। वैदिक कर्मो को छोड़ बैठते हैं। प्राय: जिह्वा पर भगवान् विष्णु के नाम कभी नहीं आते लोग श्रृंगार रस में आनन्द का अनुभव करते हैं और उसी के गीत गाते हैं। कलियुग के मनुष्यों में न कभी भगवान् विष्णु की सेवा देखी जाती है, न शास्त्रीय चर्चा होती है, न कहीं यज्ञ की दीक्षा है, न विचार का लेश है, न तीर्थ यात्रा है और न दान-धर्म ही होते देखे जाते हैं। यह कितने आश्चर्य की बात है ?

उन सबको देखकर धर्म वर्ण को बड़ा भय लगा। पाप से कुल की हानि होती देख, अत्यन्त आश्चर्य से चकित हो वे दूसरे द्वीप में चले गये। सब द्वीपों और लोकों में विचरते हुए बुद्धिमान् धर्मवर्ण किसी समय कौतूहल वश पितृलोक में गये। वहाँ उन्होंने कर्म से कष्ट पाते हुए पितरों को बड़ी भयंकर दशा में देखा। वे दौड़ते, रोते और गिरते-पड़ते थे। उन्होंने अपने पितरों को भी नीचे अन्धकृप में पड़े हुए देखा। उनको देखकर आश्चर्यचकित हो दयालु धर्मवर्ण ने पूछा- आपलोग कौन हैं, किस दुस्तर कर्म के प्रभाव से इस अन्धकूप में पड़े हैं ?

पितरोंने कहा–हम श्रीवत्स गोत्र वाले हैं। पृथ्वी पर हमारी कोई सन्तान नहीं रह गयी है, अत: हम श्राद्ध और पिण्ड से वंचित हैं, इसीलिये यहाँ हमें नरक का कष्ट भोगना पड़ता है। सन्तानहीन दुरात्माओं का अन्धकूप में पतन होता है। हमारे वंश में एक ही महायशस्वी पुरुष है, जो धर्मवर्ण के नाम से विख्यात है। किंतु वह विरक्त होकर अकेला घूमता-फिरता है। उसने गृहस्थ-धर्म को नहीं स्वीकार किया है। वह एक ही तन्तु हमारे कुल में अवशिष्ट है। उसकी भी आयु क्षीण हो जाने पर हमलोग घोर अन्धकूप में गिर पड़ेंगे, जहाँ से फिर निकलना कठिन होगा। इसलिये तुम पृथ्वी पर जाकर धर्मवर्ण को समझाओ। हम लोग दया के पात्र हैं,

हमारे वचनों से उसको यह बताओ कि हमारी वंशरूपा दूर्वा को कालरूपी चूहा प्रतिदिन खा रहा है। क्रमश: सारे वंश का नाश हो गया है, एक तुम्हीं बचे हो। जब तुम भी मर जाओगे तब सन्तान-परम्परा न होने के कारण तुम्हें भी अन्धकूप में गिरना पड़ेगा। इसलिये गृहस्थ-धर्म को स्वीकार करके सन्तान की वृद्धि करो। इससे हमारी और तुम्हारी दोनों की ऊर्ध्वगति होगी। यदि एक भी पुत्र वैशाख, माघ अथवा कार्तिक मास में हमारे उद्देश्य से स्नान, श्राद्ध और दान करेगा तो उससे हमलोगों की ऊर्ध्वगति होगी और नरक से उद्धार हो जायगा। यदि एक पुत्र भी भगवान् विष्णु का भक्त हो जाय,

एक भी एकादशी का व्रत रहने लगे अथवा यदि एक भी भगवान् विष्णु की पापनाशक कथा श्रवण करे तो उसकी सौ बीती हुई पीढ़ियों का तथा सौ भावी पीढ़ियों का उद्धार होता है। वे पीढ़ियाँ पाप से आवृत होने पर भी नरक का दर्शन नहीं करतीं। दया और धर्म से रहित उन बहुत-से पुत्रों के जन्म से क्या लाभ, जो कुल में उत्पन्न होकर सर्वव्यापी भगवान् नारायण की पूजा नहीं करते। इस प्रकार प्रिय वचनों द्वारा धर्मवर्ण को समझाकर तुम उसे विरक्तिपूर्ण ब्रह्मचर्य- आश्रम से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करनेकी सलाह दो।

पितरों की यह बात सुनकर धर्मवर्ण अत्यन्त विस्मित हुआ और हाथ जोड़कर बोला–’मैं ही धर्मवर्ण नाम से विख्यात आपके वंश का दुराग्रही बालक हूँ। यज्ञ में महात्मा नारदजी का यह वचन कि ‘कलियुग में प्राय: कोई भी रसनेन्द्रिय सुनकर और शिश्नेन्द्रिय को दृढ़तापूर्वक संयम में नहीं रखता।’ मैं दुर्जनों की संगति से भयभीत हो अब तक दूसरे-दूसरे द्वीपों में घूमता रहा। इस कलियुग के तीन चरण बीत गये, अन्तिम चरण में भी साढ़े तीन भाग व्यतीत हो चुके हैं। मेरा जन्म व्यर्थ बीता है; क्योंकि जिस कुल में मैंने जन्म लिया, उसमें माता-पिता के ऋण को भी मैंने नहीं चुकाया। पृथ्वी के भारभूत उस शत्रु तुल्य पुत्र के उत्पन्न होने से क्या लाभ जो पैदा होकर भगवान् विष्णु और देवताओं तथा पितरों की पूजा न करे मैं आप लोगों की आज्ञा का पालन करूँगा। बताइये, पृथ्वी पर किस प्रकार मुझे कलियुग से और संसार से भी बाधा नहीं प्राप्त होगी ?

धर्मवर्ण की बात सुनकर पितरों के मन को कुछ आश्वासन मिला, वे बोले–बेटा! तुम गृहस्थ-आश्रम स्वीकार करके सन्तानोत्पत्ति के द्वारा हमारा उद्धार करो। जो भगवान् विष्णु की कथा में अनुरक्त होते, निरन्तर श्रीहरि का स्मरण करते और सदाचार के पालन में तत्पर रहते हैं, उन्हें कलियुग बाधा नहीं पहुँचाता। मानद ! जिसके घर में शालिग्राम शिला अथवा महाभारत की पुस्तक हो, उसे भी कलियुग बाधा नहीं दे सकता। जो वैशाख मास के धर्मो का पालन करता, माघ-स्नान में तत्पर होता और कार्तिक में दीप देता है, उसे भी कलि की बाधा नहीं प्राप्त होती। जो प्रतिदिन महात्मा भगवान् विष्णु की पापनाशक एवं मोक्षदायिनी दिव्य कथा सुनता है, जिसके घर में बलि वैश्वदेव होता है, शुभकारिणी तुलसी स्थित होती हैं तथा जिसके आँगन में उत्तम गौ रहती हैं, उसे भी कलियुग बाधा नहीं देता।

अतः इस पापात्मक युग में भी तुम्हें कोई भय नहीं है। बेटा! शीघ्र पृथ्वी पर जाओ। इस समय वैशाख मास चल रहा है, यह सबका उपकार करने वाला मास है। सूर्य के मेषराशि में स्थित होने पर तीसों तिथियाँ पुण्यदायिनी मानी गयी हैं। एक-एक तिथि में किया हुआ पुण्य कोटि-कोटि गुना अधिक होता है। उनमें भी जो वैशाख की अमावास्या तिथि है, वह मनुष्यों को मोक्ष देने वाली है, देवताओं और पितरों को वह बहुत प्रिय है, शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति कराने वाली है।

जो उस दिन पितरों के उद्देश्य से श्राद्ध करते और जल से भरा हुआ घड़ा एवं पिण्ड देते हैं, उन्हें अक्षय फल की प्राप्ति होती है। अत: महामते ! तुम शीघ्र जाओ और जब अमावास्या हो, तब कुम्भ सहित श्राद्ध एवं पिण्डदान करो। सबका उपकार करने के लिये गृहस्थ धर्म का आश्रय लो। धर्म, अर्थ और काम से सन्तुष्ट हो, उत्तम सन्तान पाकर फिर मुनिवृत्ति से रहते हुए सुखपूर्वक द्वीप-द्वीपान्तरों में विचरण करो।

पितरों के इस प्रकार आदेश देने पर धर्मवर्ण मुनि शीघ्रता पूर्वक भूलोक में गये वहाँ मेषराशि में सूर्य के स्थित रहते हुए वैशाख मास में प्रात:काल स्नान करके देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण किया; फिर कुम्भदान सहित पापविनाशक श्राद्ध करके उसके द्वारा पितरों को पुनरावृत्ति रहित मुक्ति प्रदान की। तत्पश्चात् उन्होंने स्वयं विवाह करके उत्तम सन्तान को जन्म दिया और लोक में उस पापनाशिनी अमावास्या तिथि को प्रसिद्ध किया तदनन्तर वे भक्तिपूर्वक भगवान् की आराधना करने के लिये हर्ष के साथ गन्धमादन पर्वत पर चले गये। इसलिये वैशाख मास की यह अमावास्या तिथि परम पवित्र मानी गयी है।

जय जय श्री हरि

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