वैशाख मास माहात्म्य अध्याय – 08 इस अध्याय में:- शंख-व्याध-संवाद, व्याध के पूर्वजन्म का वृत्तान्त

श्रुतदेवजी कहते हैं- राजन पम्पा के तट पर कोई शंख नाम से प्रसिद्ध परम यशस्वी ब्राह्मण थे जो वृहस्पतिके सिंह राशि में स्थित होने पर कल्याणमयी गोदावरी नदी में स्नान करने के लिये गये। मार्ग में परम पवित्र भीमरथी को पार करने के बाद दुर्गम, जलशून्य एवं भयंकर निर्जन वन में धूप से विकल हो गये थे। वैशाख का महीना था और दोपहर का समय। वे किसी वृक्ष के नीचे जा बैठे। इसी समय कोई दुराचारी व्याध हाथ में धनुष धारण किये वहाँ आया। ब्राह्मण के दर्शन से उसकी बुद्धि पवित्र हो गयी और वह इस प्रकार बोला- मुने मैं अत्यन्त दुर्बुद्धि एवं पापी हूँ। मेरे ऊपर आपने बड़ी कृपा की है; क्योंकि साधु महात्मा स्वभाव से ही दयालु होते हैं। कहाँ मैं नीच कुल में उत्पन्न हुआ व्याध और कहाँ मेरी ऐसी पवित्र बुद्धि – मैं इसे केवल आपका ही उत्तम अनुग्रह मानता हूँ।

साधुबाबा मैं आपका शिष्य हूँ, कृपापात्र हूँ साधु पुरुषों का समागम होने पर मनुष्य फिर कभी दु:ख को नहीं प्राप्त होता; अत: आप मुझे अपने पापनाशक वचनों द्वारा ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे संसार बन्धन से छूटने की इच्छा रखने वाले मनुष्य अनायास ही भवसागर से पार हो जाते हैं। साधु पुरुषों का चित्त सबके प्रति समान होता है। वे सब प्राणियों के प्रति दयालु होते हैं। उनकी दृष्टि में न कोई नीच है न ऊँच; न अपना है, न पराया। मनुष्य सन्तप्त होकर जब-जब गुरुजनों से उपाय पृछता है, तब-तब वे उसे संसार बन्धन से छुड़ाने वाले ज्ञान का उपदेश करते हैं। जैसे गंगाजी मनुष्यों के पाप का नाश करने वाली हैं, उसी प्रकार मूढ़ जनों का उद्धार करना साधु पुरुषों का स्वभाव ही माना गया है।

व्याध के ये वचन सुनकर शंख ने कहा- ‘व्याध! यदि तुम कल्याण चाहते हो तो वैशाख मास में भगवान् विष्णु को प्रसन्न और संसार-समुद्र से पार करने वाले जो दिव्य धर्म बताये गये हैं उनका पालन करो। मुनिश्रेष्ठ शंख प्यास से बहुत कष्ट पा रहे थे। दोपहर के समय उन्होंने सुन्दर सरोवर में स्नान किया और युगल वस्त्र धारण करके मध्याह्नकाल की उपासना पूरी की। फिर देव-पृजा करने के पश्चात् व्याध के लाये हुए श्रमहारी एवं स्वादिष्ट कैथ का फल खाया। जब वे खा-पीकर सुखपूर्वक विराजमान हुए, उस समय व्याध ने हाथ जोड़कर कहा- ‘मुने किस कर्म से मेरा तमोमय व्याध कुल में जन्म हुआ और किससे ऐसी सद्वबुद्धि तथा महात्मा की संगति प्राप्त हुई ? प्रभो यदि आप ठीक समझे तो मैंने जो कुछ पूछा है, वह तथा अन्य जानने योग्य बातें भी मुझसे कहिये।

शंख बोले- पूर्वजन्म में तुम वेदों के पारंगत विद्वान् ब्राह्मण थे। शाकल्य नगर में तुम्हारा जन्म हुआ था तुम्हारा गोत्र श्रीवत्स और नाम स्तम्भ था। उस समय तुम बड़े तेजस्वी समझे जाते थे; किंतु आगे चलकर किसी वेश्या में तुम्हारी आसक्ति हो गयी। उसके संग-दोष से तुमने नित्यकर्मो को त्याग दिया और शूद्र की भाँति घर आकर रहने लगे। यद्यपि तुम सदाचार शून्य, दुष्ट तथा धर्म-कर्मों के त्यागी थे, तो भी उस समय तुम्हारी ब्राह्मणी पत्नी कान्तिमती ने वेश्या सहित तुम्हारी सेवा की। वह सदा तुम्हारा प्रिय करने में लगी रहती थी। वह तुम दोनों के पैर धोती, दोनों की आज्ञा का पालन करती और दोनों से नीचे आसन पर सोती थी। इस प्रकार वेश्या सहित पति की सेवा करती हुई उस दुःखिनी ब्राह्मणी का इस भूतल पर बहुत समय बीत गया।

एक दिन उसके पति ने मूली सहित उड़द खाया और तिलमिश्रित निष्पाव भक्षण किया। उस अपथ्य भोजन से उसका मुँह पेट चलने लगा और उसे बड़ा भयंकर भगन्दर रोग हो गया। वह उस रोग से दिन-रात जलने लगा। जब तक घर में धन रहा, तब तक वेश्या भी वहाँ टिकी रही। उसका सारा धन लेकर पीछे उसने उसका घर छोड़ दिया। वेश्या तो क्रूर और निर्दयी होती ही है। उसे छोड़कर दूसरे के पास चली गयी! तब वह ब्राह्मण रोग से व्याकुलचित्त हो रोता हुआ अपनी स्त्रीसे वोला –  देवि मैं वेश्या के प्रति आसक्त और अत्यन्त निष्ठुर मनुष्य हूँ, मेरी रक्षा करो।

सुन्दरी तुम परम पवित्र हो, मैंने तुम्हारा कुछ भी उपकार नहीं किया। कल्याणि ! जो पापी, एवं निन्दित मनुष्य अपनी विनीत पत्नी का आदर नहीं करता, वह पंद्रह जन्मों तक नपुंसक होता है। महाभागे ! दिन-रात साधु पुरुष उसकी निन्दा करते हैं। तुम साध्वी और पतिव्रता हो, मैं तुम्हारा अनादर करके पाप योनि में गिरूँगा। तुम्हारा अनादर करने से जो तुम्हारे मन में क्रोध हुआ होगा, उससे मैं दग्ध हो चुका हूँ।

इस प्रकार अनुतापयुक्त वचन कहते हुए पति से वह पतिव्रता हाथ जोड़कर बोली – प्राणनाथ आप मेरे प्रति किये हुए व्यवहार को लेकर दु:ख न माने, लज्जा का अनुभव न करें। मेरा आपके ऊपर तनिक भी क्रोध नहीं है, जिससे आप अपने को दग्ध हुआ बतलाते हैं। पूर्वजन्म में किये हुए पाप ही इस जन्म में दु:खरूप होकर आते हैं। जो उन दु:खों को धैर्यपूर्वक सहन करती है, वही स्त्री साध्वी मानी जाती है और वही पुरुष श्रेष्ठ समझा जाता है।’ वह उत्तम वर्णवाली स्त्री अपने पिता और भाइयों से धन माँगकर लायी और उसी से पति का पालन करने लगी। उसने अपने स्वामी को साक्षात् क्षीरसागरनिवासी विष्णु ही माना। वह दिन-रात पति के मल-मूत्र साफ करती और उसके शरीर में पड़े हुए कष्टदायक कीड़ों को धीरे-धीरे नख से खींचकर निकालती थी ब्राह्मणी न रातमें सोती थी, न दिन में।

अपने स्वामी के दुःख से संतप्त होकर वह दुःखिनी सदा इस प्रकार प्रार्थना किया करती थी- ‘प्रसिद्ध देवता और पितर मेरे स्वामी की रक्षा करें, इन्हें रोगहीन एवं निष्पाप कर दें मैं पति के आरोग्य के लिये चण्डिका देवी को भैंस का दही और उत्तम अन्न चढ़ाऊँगी, महात्मा गणेशजी की प्रसन्नता के लिये मोदक बनवाऊँगी, दस शनिवारों को उपवास करूँगी तथा मीठा और घी नहीं खाऊँगी। मेरे पति रोगहीन होकर सौ वर्ष जीवें।

इस प्रकार वह देवी प्रतिदिन देवताओं से प्रार्थना करती थी। उन्हीं दिनों कोई देवल नामक महात्मा वहाँ आये। वैशाख मास में धूप से पीड़ित हो सायंकाल के समय उस ब्राह्मण के घर में उन्होंने पदार्पण किया ब्राह्मणी ने महात्मा के चरण धोकर उस जल को मस्तक पर चढ़ाया और धूप से कष्ट पाये हुए महात्मा को पीने के लिये शर्बत दिया। प्रात:काल सूर्योदय होने पर मुनि जैसे आये थे, वैसे चले गये तदनन्तर थोड़े ही समय में उस ब्राह्मण को सन्निपात हो गया।

ब्राह्मणी सोंठ, मिर्च और पीपल लेकर जब उसके मुँह में डालने लगी, तब उसने पत्नी की अँगुली काट ली। उसके दोनों दाँत सहसा सट गये और ब्राह्मणी की अँगुली का वह कोमल खण्ड उसके मुँह में ही रह गया। अँगुली काटकर उस वेश्या का ही चिन्तन करता हुआ वह ब्राह्मण मर गया। तब उसकी पत्नी कान्तिमती ने कंगन बेचकर बहुत-सा इन्धन खरीदा और चिता बनाकर वह साध्वी पति के साथ उसमें जा बैठी उसने पति के रोगी शरीर का गाढ़ आलिंगन करके उसके साथ अपने आपको भी चिता में जला दिया।

शरीर त्यागकर वह सहसा भगवान् विष्णु के धाम में चली गयी। उसने वैशाख मास में जो देवल मुनि को शर्बत पिलाया और उनके चरणोदक को शीश पर चढ़ाया था, इससे उसको योगिगम्य परम पद की प्राप्ति हुई। तुमने अन्तकाल में वेश्या का चिन्तन करते हुए शरीर त्याग किया था, इसलिये इस घोर व्याध के शरीर में आये हो और हिंसा में आसक्त हो सबको उद्वेग में डाला करते हो। तुमने वैशाख मास में मुनि को शर्बत देने के लिये ब्राह्मणी को अनुमति दी थी, उसी पुण्य से आज व्याध होने पर भी तुम्हें सब सुखों के एकमात्र साधन धर्मविषयक प्रश्न पूछने के लिये उत्तम बुद्धि प्राप्त हुई है। तुमने जो सब पापों को हरने वाले मुनि के चरणोदक को सिर पर धारण किया था, उसी का यह फल है। कि वन में तुम्हें मेरा संग मिला है

जय जय श्री हरि 

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